आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

ज्योत्स्ना मिलन से लूसी रोजेनटाइन की बातचीत

लूसी रोजेन्टाइन

ज्योत्स्नाजी आप अपने बचपन के बारे में कुछ बताइए. मुझे मालूम है कि आपके पिताजी बहुत बड़े लेखक थे और आपकी मॉं गृहिणी थीं सो आप पर अपने माता-पिता के असर के बारे में कुछ बताइए.

ज्योत्सना मिलन

पिता के साहित्यकार होने से मुझे जो सबसे बड़ा लाभ मिला वो यह कि पढ़ने-लिखने का अनुकूल माहौल मुझे अपने घर में बना-बनाया मिला. आधुनिक और प्राचीन ग्रंथ, हिंदी तथा अंग्रेजी साहित्य सहज सुलभ रहा. नई कविता, निकष, ज्ञानोदय, कल्पना, वासंती, लहर जैसी पत्रिकाएँ नियमित आती थीं, इसलिए नए दौर में जो कुछ लिखा जा रहा था, उससे आमना-सामना होता रहता था. कविता पढ़ना-सुनना मेरा प्रिय शगल था और बापूजी के रहते ऐसे अवसरों का टोटा कभी नहीं पड़ा. कविता ने उड़ान दी, अवकाश भी दिया लेकिन मॉं ने धरती से पैर कभी उखड़ने नहीं दिए, इसलिए उड़ान के जोखिम को जानने का अवसर कम ही मिला. मॉं का तर्क था कि मैं लड़की हूँ और मुझे वे सारे काम सीखने चाहिए जो घर चलाने के लिए आवश्यक हैं. कितना भी पढ़-लिख लूॅं, चूल्हे-चौके और घर के काम से निजात आसान नहीं. उसके सदियों के संस्कार मान लें तो भी बात में कुछ दम था, इसलिए कि यथा-स्थिति को बनाए रखने वाले तत्व किसी न किसी रूप में सदा सक्रिय रहते हैं. उन दिनों बापूजी के एक मित्र के साथ पारिवारिक संबंध थे. दोनों पति-पत्नी नौकरी करते थे. पति महोदय प्रोफेसर थे. चार-पॉंच घण्टे में घर लौट आते थे. पत्नी सुबह नौ बजे गई शाम साढ़े छह तक लौटती तब तक उनके हाथ-मॅुंह धोने तक उनके पति चाय-नाश्ता तैयार करते और फिर दोनों मिलकर खाना बनाते. हमारे घर में या अड़ोस-पड़ोस में भी यह आम दृश्य तो नहीं था फिर भी अपने भावी जीवन की कल्पना ऐसे जीवन के रूप में असंभव नहीं लगी थी. यह दूसरी बात है कि वह संभव नहीं हुई.

बापूजी लेखन और नौकरी के अलावा कुछ नहीं कर पाते थे और चौदह लोगों के परिवार के सारे काम मॉं अकेली कैसे कर सकती है? यह एक वाजिब सवाल था. इसलिए जवाब में सबको मॉं का हाथ बॅंटाना पड़ता था. घर का काम अपनी सीमा लांघकर अक्सर लिखने-पढ़ने के समय में घुसपैठ करने को तैयार रहता है, उसे ठेलकर वापस अपनी सीमा में पहॅुंचाना आवश्यक हो जाता है. बापूजी अपने काम में और मॉं अपने काम में दक्ष थीं. पूरापन हर काम में होना चाहिए चाहे आप लिखें, चाहें चादर बिछाएँ, चाहे खाना पकाएँ, चाहे किताब पर ज़िल्द चढ़ाएँ. मुझसे दोनों क्षेत्रों में पूरेपन की उम्मीद की जाती रही. जबकि बकौल महाकवि येट्स के—

The Intellect of Man is forced to choose

Perfection of the life or of the work.

लूसी रोजेन्टाइन

आपने लिखना कब शुरू किया?

ज्योत्सना मिलन

जल्दी ही. मैं दस-बारह साल की थी तभी पहली कविता लिखी थी यानी 1951-52 के आसपास की बात होगी.

लूसी रोजेन्टाइन

क्या आपने ये शुरू की कविताएँ रखी हैं?

ज्योत्सना मिलन

हाँ, होगी अवश्य. बहुत सालों से उन्हें देखा नहीं है, फिर भी होना चाहिए. इसलिए भी, कि मैंने बहुत अधिक लिखा ही नहीं, बल्कि बहुत थोड़ा ही लिखा है. उन कविताओं में दूसरों की कुछ कुछ ध्वनियॉं सुनाई देती हैं. तब से अब तक की कविता में कैसे मेरी अपनी आवाज़ बनी इसका पता लगाना कठिन नहीं होगा.

लूसी रोजेन्टाइन

आपने पहले किस भाषा में लिखा?

ज्योत्सना मिलन

पहली कविता तो हिंदी में ही लिखी थी लेकिन हिंदी-गुजराती दोनों एक तरह से मेरे भावनात्मक अंतर्जीवन की भाषाएँ रही हैं और मैंने तब तो दोनों भाषाओं में साथ-साथ लिखा था. हम लोग गुजरात और राजस्थान के सीमावर्ती इलाके-बागड़ के रहने वाले थे. पहले वागड़ गुजरात में था, वर्तमान में राजस्थान में है. लेकिन मज़े की बात यह है कि हम दोनों भाषाओं पर अपना हक मानते हैं. यों भी मेरी पूरी शिक्षा गुजराती माध्यम ;डमकपनउद्ध से हुई थी. बापूजी के कवि होने से हिंदी में भी मेरी सहज गति थी. कई सालों तक दोनों भाषाओं में लिखा था, अब सिर्फ हिंदी में लिखती हूँ, कभी-कभी अपनी हिंदी कहानियों का गुजराती में पुनर्लेखन करती हूँ.

लूसी रोजेन्टाइन

कविता से आपकी पहली मुलाकात कब हुई? वह कौन सी कविता थी? क्या आपको याद है?

ज्योत्सना मिलन

कविता से मुलाकात, कविता को कविता के नाम से जानना शुरू किया उससे बहुत पहले कभी हुई थी. स्कूल के दिनों में कविता लय और छंद में थी, अधिकतर गुजराती में थीं और जिनमें से कई मुझे अभी तक याद हैं. लेकिन किसी एक कविता का नाम लेकर बताना कठिन है कि इस कविता से पहली मुलाकात हुई थी. घर में बापूजी भी कविताएँ पढ़ने के लिए देते थे, सुनाते भी थे, दादी भी भजन सुनाती थीं. भक्त कवियों के. कबीर या मीरा या नरसिंह मेहता के.

लूसी रोजेन्टाइन

और आपको मालूम कब हुआ कि आप कवि बनना चाहती हैं?

ज्योत्सना मिलन

कवि बनना चाहने जैसी कोई बात नहीं थी, अपने कवि होने का पता मुझे तब चला जब एक शाम मुझे चकित करती हुई एक पंक्ति मेरे भीतर कौंधी, जो तब तक मेरी पढ़ी-सुनी हुई कविताओं से अलग थी और कविता थी इस बात का मुझे पता चल गया था. कविता के बराबर अच्छा मुझे यों भी प्रकृति को छोड़कर कुछ नहीं लगता था. जब भी किसी अच्छी कविता को पढ़ती वह मेरी कविता हो जाती. हमेशा के लिए, तब भी कभी सोचा नहीं था कि मुझसे कभी कविता बनेगी, मैं कविता लिखॅंूगी. कविता लिखकर मैं अपने से और सारी दुनिया से खुश थी.

कविता और प्रकृति इन दोनों ने मुझे कभी निराश नहीं किया, न मुझे कभी अकेलापन महसूस होने दिया. दुःख, तकलीफ, हताशा के क्षण नहीं आते, ऐसा नहीं लेकिन उस वक्त आसमान, समुद्र या पेड़ों की निकटता का होना ही पर्याप्त होता है, थोड़ी देर में-मैं अपने सहज भाव से लौट आती हूँ. जैसे कविता, कुदरत और मैं-हमारी एक तिकड़ी हो. मेरा भाई ज्योतीन्द्र चित्र बनाता था, उसे देखकर मेरा भी मन करता था लेकिन बनता नहीं था. शब्द मेरी कल्पना को जिस तरह छेड़ते थे. वैसे रंग और रेखाएँ नहीं छेड़ती थीं, यह बात भी मुझे जल्दी ही पता चल गई थी.

लूसी रोजेन्टाइन

क्या आपको अपने पर विश्वास था कि आप अच्छी कवि हैं?

ज्योत्सना मिलन

अच्छी कवि हूँ कि नहीं यह सोचना मेरा काम नहीं था. मुझे इस बात का पक्का भरोसा था कि मैं कवि हूँ. शब्द के साथ मेरी सच्ची लौ लग गई थी और मेरे लिए यह पर्याप्त था. मैं जो कुछ भी लिखती उसके पहले श्रोता उन दिनों बापूजी होते थे. वे मुझे बताते कि इस समय कैसी कविताएँ लिखी जा रही हैं? मैं छोटी कविताएँ लिखती थी. वे मुझे नए कवियों के संग्रह लाकर देते. चूंकि कथा-साहित्य में भी मेरी गहन रूचि थी बापूजी ने पहली बार मुझे निर्मल वर्मा की कहानियों से रूबरू कराया था और मैं चकित थी कि कितना सघन इंटेंस गद्य लिखा जा रहा है हिंदी में. निर्मल वर्मा की कहानियों में मनुष्य के भीतर की गहन परतों में छिपे एहसासों को, बाहरी ब्यौरों में उजागर हुआ देखना एक बिल्कुल ही अलग अनुभव था. खड़ी बोली हिंदी की कितनी छटाएँ थीं! अज्ञेय, शमशेर, रघुवीर सहाय, श्रीकांत वर्मा, निर्मल वर्मा, कृ.ब.वैद.

बात भटक जाये इसके पहले मैं फिर लौटती हूँ आपके सवाल पर. जब कविता लिखते हुए मुझे मज़ा आता था, खेल खेलने का सा मज़ा, तो मुझे खुद पता चल जाता कि कविता हो गई है. कविता को समझने वाला कोई मिलता है तो किसे अच्छा नहीं लगता? मुझे भी लगता रहा है. कविता जब तक मेरे भीतर होती है तब तक वह मेरी होती है, कुछ-कुछ मेरे नियंत्रण में भी होती है; लेकिन जब वह बनने लगती है, होनी शुरू हो जाती है तो मुझे चकित करती हुई मुझसे अलग होने लगती है, कागज़ पर आ जाती है तो मुझसे पूरी तरह अलग हो जाती है-एकदम स्वतंत्र. तब उसे किसी दूसरे की भी अपेक्षा होती है. फिर तो कविता जितनी कवि की होती है उतनी ही या उससे भी अधिक पाठक की हो जा सकती है.

लेकिन यह भी सच है कि मेरा लिखना कवि के रूप में मेरी स्वीकृति या अस्वीकृति पर उतना निर्भर कभी नहीं रहा. दूसरी तरफ यह भी मेरी चिंता का विषय लगभग नहीं रहा कि इस समय कविता में कौन-कौन से ट्रेन्ड्स (प्रवृत्तियाँ) हैं, कौन कौन सी विचारधाराएँ प्रचार में हैं, वे कौन सी चीजें हैं जो कविता से बाहर चली गई हैं, या कौन सी नई चीज़ें चली आई हें? इस तरह से यह बात भी स्पष्ट थी कि मुझे किसी वजह से किसी के साथ होना चाहिए या अकेले खड़े होना चाहिए? क्या करना चाहिए? किस तरह से करना चाहिए? आदि महत्वपूर्ण फैसले कोई मेरे लिए नहीं ले सकता. ये मेरे भीतर ही होंगे. ऐसा मानकर चलती थी.

आखिर तो मेरे आसपास पूरी एक दुनिया है जिसे मैं कुछ देखे से, कुछ सुने से, कुछ सोचे से, कुछ पढ़े-लिखे से और कुछ गुने से जानती हूँ. इतनी तरह के, इतने रूपाकार थे, इतनी सारी सोचें थीं, किसी एक के साथ भला कोई कैसे हो जा सकता है? यहाँ तो भीतर भी चाहिए बाहर भी, गोचर भी चाहिए अगोचर भी, जमीन भी चाहिए आसमान भी. यानी शून्य भी चाहिए और उससे पैदा होने वाला शब्द भी. ‘वह शून्य में शब्द (की तरह) हुआ और बस गया वेदों में शब्द होकर’ (नरसिंह मेहता). शून्य के मुकाबले शब्द होना पदार्थ होना था. शून्य ने पहली जो देह धारण की वह शब्द की थी. इसीलिए शब्द के होने के लिए अवकाश चाहिए, समय में भी और आसपास भी, शून्य के पाये का अवकाश.

जिस समय में हम जी रहे होते हैं, पढ़-लिख रहे होते हैं उस समय की चुनौतियॉं तो हर किसी के लिए होती हैं, लेकिन उस समय में होने की एक कवि की अपनी चुनौतियॉं भी होती हैं. पूरी रेल-पेल में, थम कर खड़े होने का, अपने को थामने, थाहने का भी संकट हो सकता है. अकेले न हो पाने का भी संकट हो सकता है. अकेले होने का एक मतलब अपने साथ होना भी है और खाली होना भी. यानी रचना के हो सकने के लिए एक अनिवार्य अवकाश, स्पेस पाने की जद्दोजहद भी.

लूसी रोजेन्टाइन

क्या आपने कभी सोचा कि आपको प्रोफेशनल कवि होना है?

ज्योत्सना मिलन

प्रोफेशनल कवि होने से आपका आशय अगर कविता को रोज़ी-रोटी या आर्थिक स्वतंत्रता कमाने के साधन की तरह बरतने से है तो मेरा जवाब स्पष्टतः ‘‘ना’’ में होगा. अव्वल तो हमारे देश में यह संभव नहीं है; हो सकता है अन्यत्र भी यह असंभव ही हो. लेकिन अगर संभव हो तो भी यह मेरा चुनाव नहीं होगा. जीवन में ढेरों काम ऐसे हैं जिन्हें हम किसी न किसी वजह से ही करते हैं.

बचपन में मुझे याद है मेरे भाई कभी किसी वजह से तो कभी बेवजह भी घर से बाहर चले जाते थे. मेरे और मेरी बहन के घर से बाहर जाने के लिए किसी न किसी वजह का होना आवश्यक था. खेलना, घूमने जाना, खाली बैठे-बैठे आसमान को देखना आदि बेवजह के यानी फालतू के काम थे. इनमें से किसी भी काम को करना समय की फिजूलखर्ची मानी जाती.

कविता लिखना ही मेरे लिए एकमात्र ऐसा काम था जिसके लिए किसी वजह का होना आवश्यक नहीं था. और मेरा चुनाव यही है कि कविता लिखना हमेशा एक बिना वजह का काम बना रहे. ‘‘निरूद्देशे भ्रमण/पांशु मलिन वेशे’’ (राजेंद्र शाह). कविता मेरे लिए कुछ-कुछ स्वधर्म जैसी चीज़ रही है.

लूसी रोजेन्टाइन

और अगर आपको अवसर मिलता अपनी ज़िंदगी को एक और बार जीने का तो क्या आप फिर से शादी करतीं या सिर्फ कविता लिखतीं? क्या आप समझती हैं कि इन दोनों के बीच तनाव है? क्या घरवाली और कवि साथ-साथ होना मुश्किल है?

ज्योत्सना मिलन

एक तो आपके इस सवाल में कई सारे सवाल हैं और महत्वपूर्ण सवाल हैं. इनका जवाब उतना आसान नहीं, फिर भी कोशिश तो हमेशा ही की जा सकती है. यह एहसास मुझे शुरू से रहा कि कविता हमसे संपूर्ण की माँग करती है, मैं मान भी लेती हूँ कि हाँ करती है. लेकिन मैं देखती हूँ कि कविता के अलावा भी मेरा एक जीवन है जो मुझसे संपूर्ण की मांग करता है, फिर मैं हवा में पैदा नहीं हुई-मेरा घर है, माता-पिता हैं, वे भी संपूर्ण की माँग करते हैं, उसी तरह पति और परिवार भी संपूर्ण की माँग करता है तो मुझसे संपूर्ण की मांग करने वाली इतनी सारी चीज़ों से कैसे पार पाया जा सकता है? पूर्ण में से पूर्ण को ले लो तो भी अंत में पूर्ण ही बचता है.-वाले न्याय से ही कुछ संभव हो तो हो.

यह बड़ा अजीब सा सवाल है कि अगर मुझे एक और बार अपनी ज़िंदगी को जीने का अवसर मिलता तो क्या मैं फिर से शादी करती या सिर्फ कविता करती? इससे मेरे मन में भी एक प्रश्न उठा है कि स्त्री-कवि से साक्षात्कार लेते समय ही यह सवाल क्यों पूछा जाता है? अगर विवाह और कविता में विरोध या तनाव अनिवार्यतया है तो दोनों के लिए होना चाहिए. इससे दो बातें स्पष्ट होती हैं एक तो यह कि स्त्री-कवि के जीवन में किसी भी दूसरी स्त्री की तरह घर-गृहस्थी को ही प्राथमिकता प्राप्त होती है लेकिन पुरुष कवि की प्राथमिकता उसकी कविता या उसका लेखन हो सकता है–घर-परिवार के बावजूद. इसी से यह निष्कर्ष भी निकलता है कि एक स्त्री-कवि के लिए ही विवाह और कविता के बीच तनाव का रिश्ता होता है. यानी स्त्री कवि को अपने कवि को प्राथमिकता देने की स्थिति को प्रयत्नपूर्वक निर्मित करना होगा.

पहले तो शबद की दुनिया को स्त्री की सहज दुनिया नहीं माना जाता था इसलिये कविता के लिए उसके जीवन में जगह ही कहाँ थी? शादी करके कविता लिखने वाली लड़की जिस घर में जाएगी वहाँ कविता के लिए जगह बन पाएगी क्या? इस आशंका के चलते लेखक-पति को चुनना पसंद किया यह सोचे बिना कि अगर दोनों के जीवन में कविता को प्राथमिकता प्राप्त होगी तो गृहस्थी का क्या होगा? आखिर वह भी तो एक व्यवस्था है और इस व्यवस्था को बनाए रखने के लिए कितनी तरह की जोड़-तोड़ और सजगता चाहिए, लगातार की उपस्थिति चाहिए. इसलिए आपके प्रश्न के उत्तर में एक बात निश्चय के साथ कह सकती हूँ–वो यह कि अगर दोबारा किसी कवि के प्रेम में पड़ना भी हो गया तब भी दोनों के हक़ में उससे विवाह करना नहीं चुनूंगी. क्योंकि पारंपरिक रूपक का इस्तेमाल करके बात को कहा जाए तो यह एक म्यान में दो तलवार की स्थिति जितनी कठिन स्थिति है.

लिखने-पढ़ने-सोचने लगी तो उसमें बापूजी से कुछ-कुछ साझा तो होता था फिर भी अपने हमउम्र लोगों के साथ संवाद की, साझेदारी की लालसा बनी रहती थी. साथ की लड़कियों में एक भी ऐसी नहीं थी जो लिखती भले न हो फिर भी जिसकी कविता में, साहित्य में गति हो. साथी लड़कों के साथ संवाद की स्थिति कुछ बनती तो थी लेकिन उनमें से अधिकतर की गति स्त्री के स्त्री होने के (प्रथम दरवाज़े से) आगे नहीं थी. स्त्री-देह एक बड़ी बाधा की तरह उपस्थित हो जाती और वे वहीं ठहर जाते. मुझे तो ऐसे मित्र की तलाश थी जो इस बाधा को पार करके वह मेरे अगम-अगोचर के पारावार से भी रुबरू हो सके. पहले ही द्वार पर अटक जाने वाला तो इस पारावार से अछूता ही रह जा सकता है. यह भी हो सकता है कि उसे कभी पता ही न चले कि मेरे भीतर ऐसा कोई पारावार भी था और उस तक पहॅुंचने के कई दरवाजे़ भी थे. ऐसा ही एक दरवाज़ा कविता भी थी.

मैं थी, यानी मैं एक देह भी थी लेकिन देह होने की जानलेवा अर्ज नहीं थी. विवाह एक तरह से उस ‘‘अर्ज’’ का परवाना जैसा लगता था. और मुझे हमेशा लगता था कि बिना प्रेम तत्व के, बिना परस्पर-भाव के दैहिक प्रेम भी संभव नहीं. लेकिन एक हैरतअंगेज़ बात भी जीवन में जानने को मिली कि विवाह के चलने के लिए प्रेम-तत्व का होना कतई ज़रूरी नहीं. यहाँ तक भी संभव है कि एक-दूसरे से नफरत करते हुए, सिर्फ शरीर के बूते भी विवाह बखूबी चल सकता है. मुझे मगर इससे भयानक बात कभी कोई और लगी ही नहीं.

स्त्री के लिए विवाह और कविता के बीच तनाव की स्थिति तो है लेकिन मैं निश्चयपूर्वक नहीं कह सकती कि इस मामले में इस पार या उस पार हो जाना सही चुनाव है. विवाह न करके हम जीवन के अहम् अनुभव की मुख्यधारा से ही बाहर हो जा सकते हैं. कविता के लिए यह स्थिति कितनी वांछनीय या अवांछनीय हो सकती है? क्या पता इन दोनों के बीच का तनाव ही कविता को संभव बनाता हो! इसलिए इस स्थिति को एक नेसेसरी ईविल मान लिया जा सकता है.

घरवाली (गृहिणी) और कवि साथ-साथ होना कठिन तो निश्चय ही है. बीच बीच में धीरज चूकता सा लगता है लेकिन क्या पता अधिक से अधिक जगह घेरते चले जाने वाले घर से अपने कवि को हर हाल में बचाए रखने की चुनौती कवित्व पर और अधिक सान चढ़ाती हो और अपने जीवित होने की एक कसौटी प्रस्तुत करती हो.

अकेले रहना चुनें कि परिवार में रहना चुनें, दोनों की अपनी मॉंगें और चुनौतियॉं हैं. दोनों में कौन अधिक आसान या कठिन है यह कहना मुश्किल है. मीराबाई और महादेवी दोनों का विवाह हुआ था फिर भी दोनों के हिस्से अकेले अपना रास्ता बनाने की और उस पर चलने की चुनौतियॉं उपस्थित हुई थीं.

स्त्री के संदर्भ में उसकी देह को अतिरिक्त महत्व प्राप्त है. स्त्री के कुल चरित्र का निर्धारण उसके शरीर की शुद्धि-अशुद्धि से होता आया है. उच्च वर्ग और निम्न वर्ग दोनों ही इस अलामात से मुक्त हैं, मगर मध्यवर्ग का महासमुद्र इसकी चपेट में है और लिखने-पढ़ने वाले स्त्री-पुरुष अधिकतर तो मध्यवर्ग के इसी महासमुद्र की उपज हैं.

फिर भी इस बीच तेज़ी से चीज़ें बदली हैं. शादी करें कि अपना काम करें-इनके बीच चुनाव करने की संभावनाएँ आज लड़कियों के लिए बढ़ी हैं, हालॉंकि अकेले रहने के संघर्ष में कोई कमी नहीं आई है. पर स्त्री का अपने पर भरोसा बढ़ा है और हौसला भी.

एक रचनाकार के नाते तो स्त्री-पुरुष दोनों कवियों का संघर्ष एक सा कठिन या आसान है फिर भी इस सच्चाई से इंकार नहीं किया जा सकता कि सामाजिक और पारिवारिक जीवन की स्थितियॉं एक पुरुष कवि के ज्यादा अनुकूल हैं बनिस्बत एक स्त्री कवि के. उसे इन स्थितियों को अनुकूल बनाने के लिए भी बहुत सारी ऊर्जा खपानी पड़ती है.

लूसी रोजेन्टाइन

तो आपने कहा कि कवयित्री होना कवि होने से ज्यादा मुश्किल है क्योंकि आपको घर चलाना पड़ता है. क्या कुछ और समस्याएँ हैं जिनकी ओर आप हमारा ध्यान दिलाना चाहेंगी?

ज्योत्सना मिलन

घर-गृहस्थी तो शादी से पहले भी थी. मॉं थी तो क्या हुआ और शादी के बाद भी है. उस गृहस्थी की व्यवस्था की जिम्मेदारी मॉं की थी-सुबह पानी और दूधवाला आकर तो नहीं चला गया, रात फाटक पर कुंडी या ताला लगा कि नहीं तक की सारी चिंताएँ मॉं की थीं. कई तरह के कामों को करते हुए भी उस घर में, इन चीज़ों की चिंताओं से मैं बरी थी. अब फर्क यह है कि कई तरह के कामों के साथ-साथ इस घर की ये चिंताएँ भी मेरी होंगी. पानी आकर चला गया तो व्यवस्था के बहुत सारे सूत्र गड़बड़ा जाते हैं और तमाम कोशिशों के बावजूद मुझे पता भी नहीं चलता और घर की व्यवस्था मुझे चकित करती हुई भंग हो चुकी होती है. कभी कभार तक तो ठीक है लेकिन ऐसा अक्सर न हो इसलिए अधिकतर समय इसे बनाए रखने का दबाव बना रहता है. बीमारी-तिमारी, कोई आया-गया, खुद कहीं जाना-आना, कुछ न कुछ तो अनपेखित हुआ ही रहता है इसलिए अपना काम करने के लिए समय की खींचतान बनी रहती है.

लूसी रोजेन्टाइन

और क्या लिटरेरी एस्टेब्लिशमैंट की वजह से भी लेखिका को समस्या होती है? मेरा मतलब जो पुरस्कार हैं, मान्यता है क्या ये महिलाओं को मिलते हैं या ज्यादातर लेखकों को मिलते हैं?

ज्योत्सना मिलन

पुरस्कार और मान्यता मिलते तो लेखिकाओं को भी हैं लेकिन ये सब चीजें अक्सर गै़र-साहित्यिक कारणों से मिलती हैं. साहित्य को साहित्य के मानदण्डों से नहीं परखा जाता. इस बात का पता मुझे बहुत लंबे समय तक नहीं चला. मैं सोचती थी कि पुरस्कार किसी भी कृति को उसके मौलिक योगदान के लिए, भाषा के स्तर पर या फॉर्म के स्तर पर किसी किस्म का विचलन पैदा करने के लिए दिया जाता है. इस वक़्त मुझे एक मजेदार वाक़या याद आ रहा है. मेरा पहला उपन्यास किसी पुरस्कार के लिए ‘‘रन’’ में था, इस बात का पता भी मुझे नहीं था. लेकिन जिस संस्था का पुरस्कार था उस संस्था के निदेशक मुझे पहचानते थे. एक शाम वे घर आए और बताया कि देखिए आजकल पुरस्कारों का मामला बड़ा गड़बड़ हो गया है. आपकी किताब भी ‘‘रन’’ में है और अमुक पत्रिका के संपादक की किताब भी ‘‘रन’’ में है, और आजकल तो लोगों का गणित ऐसा हो गया है कि वे सोचते हैं आपको पुरस्कार देने से क्या फायदा होगा? पत्रिका के संपादक को देने से कुछ तो होगा. कुल मिलाकर वे मुझे यह बताने आए थे कि पुरस्कार मुझे नहीं मिल रहा है, क्योंकि मुझे देकर किसी को कोई फायदा नहीं हो सकता. तब मुझे पहली बार इस बात का पता चला कि पुरस्कार-सम्मान जैसी चीज़ें किस गणित पर निर्भर करती हैं. आप मेरे लिए कुछ करें, मैं आपके लिए कुछ करूं इस आधार पर मिलने वाले पुरस्कारों और मान्यता का अंततः क्या महत्व हो सकता है? अक्सर संपादक, अकादमियों के निदेशक, कमेटियों के सदस्य आदि पदों का सम्मान पुरस्कारों से होता हो तो उसे साहित्यिक सम्मान तो नहीं कहा जा सकता. और स्त्रियों को अगर स्त्री होने की वजह से या वह किसी किस्म की आर्थिक सहायता संस्थान या पत्रिका को सुलभ करा सकती है या आपका अहम् तुष्ट हो ऐसा व्यवहार करती है और ऐसे कारणों से ये सब उसे प्राप्त होता हो तो मुझे इसकी कोई अहमियत नज़र नहीं आती.

लूसी रोजेन्टाइन

हिंदी में कविता में ज़्यादा महिलाएँ नहीं हैं, जो बहुत मशहूर हैं. आप इसका क्या कारण समझती हैं?

ज्योत्सना मिलन

लिखत-पढ़त का काम यानी ज्ञान का क्षेत्र, साधारणतः पुरुषों का क्षेत्र माना जाता रहा है. स्त्रियों में शिक्षा का प्रचलन पहले था नहीं. ये तो अभी हाल की घटना है. दोनों के कामों का एकदम दो-टूक विभाजन रहा. घर के सारे काम स्त्रियों के थे बाहर के यानी खेती-नौकरी, बैंक-बाज़ार-आदि काम पुरुषों के हिस्से थे. महादेवी के ज़माने में जितनी स्त्री कवि थीं उनके मुकाबले आज कहीं ज़्यादा हैं. कवि और कथाकार स्त्रियों की तादाद इस बीच काफी बढ़ी है. मशहूर होने न होने में तो कई तरह के गणित काम करते हैं. समाज में ‘स्त्री की बुद्धि पैर के तलुओं में’’ जैसी कहावतें बताती हैं कि स्त्रियों में बुद्धि के स्तर को कितना कम यानी नहीं के बराबर ऑंका जाता रहा है. पढ़-लिखकर भी घर का काम करना है तो करेंगे लेकिन पढ़ेंगे, भले ही दोहरा बोझ क्यों न पड़े इस निश्चय के साथ जब लड़कियॉं शिक्षा के क्षेत्र में आईं तो लगातार योग्य साबित होती चली गईं. आज कितनी सारी लड़कियॉं-स्त्रियॉं कविताएँ कहानियॉं लिख रही हैं! अब, जहाँ तक उच्चस्तरीय कविता का प्रश्न है उस स्तर के कवि तो पुरुषों में भी गिने-चुने ही हो सकते हैं.

मेरी निजी मान्यता पिछले 30-35 सालों से यह भी रही है कि आने वाला समय गद्य का समय है; पद्य कुछ पीछे छूट गया है. मैंने जब लिखना शुरू किया तब तक भी पद्य केन्द्र स्थान में था लेकिन पिछले कई सालों से यह स्थान गद्य ने ले लिया है. यह भी एक वजह हो सकती है स्त्रियों के कथा-साहित्य में अधिक सक्रिय होने की. दूसरे यह भी कि, हो सकता है कि बरसों, सदियों तक आत्माभिव्यक्ति न कर पाने वाली स्त्री के पास बहुत कुछ ऐसा कहने को हो जो पद्य में न अॅंटता हो, इसके लिए उन्हें कथा का माध्यम अधिक रास आता हो. हालॉंकि इस विषय में मैंने अलग से पहले कभी सोचा नहीं था, फिर भी यही कुछ समझ में आ रहा है.

लूसी रोजेन्टाइन

क्या आप समझती हैं कि आत्म-विश्वास की समस्या भी होती है? मेरा मतलब है कि महिलाओं को अपने आप पर भरोसा नहीं होता कि उनकी कविता अच्छी होगी. आपके पिताजी ने आपको बहुत अधिक प्रोत्साहन दिया था. लेकिन अगर आपके पिताजी नहीं होते तो शायद आपका आत्म-विश्वास भी नहीं होता.

ज्योत्सना मिलन

अपने घर में कविता लिखने के लिए अनुकूल वातावरण और प्रोत्साहन प्राप्त होना अपने आप में महत्वपूर्ण बात है. जो कि मुझे मिला. इससे शुरू में ही आत्म-विश्वास आ जाता है. फिर भी मेरा मानना है कि एक कवि को अपने कवि होने का पक्का आश्वासन अपने भीतर से ही मिलता है. कवि की अपनी डगमगाती मगर अदम्य आस्था से ही उसे प्रेरणा और शक्ति दोनों मिलते हैं. बाहरी प्रशंसा अच्छी तो लगती है लेकिन रचनाकार का आत्मविश्वास उस पर उतना निर्भर नहीं करता.

लूसी रोजेन्टाइन

क्या आपके लिए कविता लिखना गद्य लिखने से ज्यादा मुश्किल है?

ज्योत्सना मिलन

नहीं लूसी, कविता लिखना मुझे कभी भी कठिन नहीं लगा, न गद्य की तुलना में न अपने आप में. वह मेरे लिए सहज साध्य है. कविता लिखने के लिए कोई निश्चित समय या स्थिति दरकार नहीं होती. वह कभी भी चली आती है, चाहे मेज़ पर कलम कागज़ लेकर बैठी होऊॅं, या रसोई में खाना पका रही होऊॅं, वह आ जाती है. कभी एक बार में पूरी आ जाती है कभी एक सही शब्द की खोज में महीनों चलती रहती है.

कथा-कहानी लिखना भी मुश्किल तो नहीं होता लेकिन उसके लिए एक साथ दो-चार-पॉंच घंटे का समय चाहिए पड़ता है. उसे काफी कुछ बनाना भी पड़ता है, यानी उसकी निर्मिति समय और ध्यान दोनों माँगती है. मेहनत इसमें कविता लिखने की तुलना में अधिक लगती है. कई पन्नों का बार-बार पुनर्लेखन करना धीरज की भी माँग करता है.

लूसी रोजेन्टाइन

मैं आपसे पूछना चाहती हूँ कि आपकी कविता लिखने की प्रक्रिया कैसी है? आप कविता लिखना शुरू कैसे करती हैं और उसे लिखकर क्या आप सुधारती हैं?

ज्योत्सना मिलन

कविता लिखना हमेशा एक ही तरह से शुरू नहीं होता. कभी तो शुरू में कोई शब्द आ जाता है, उसी के साथ कुछ और शब्द आ जाते हैं, भीतर के वातावरण को शब्द ही बनाते हैं यानी ऐसी कविता के बनने में शब्द की भूमिका प्रमुख हो जाती है. कभी कोई एहसास प्रमुख होता है, वह अपनी ओर शब्दों और स्थितियों को खींचता है, उन्हें चुनता है. कभी कोई दृश्य होता है, परिवेश होता है. उसके अपने रंग-रूप होते हैं, ध्वनियॉं और गतियॉं होती हैं जो भीतर से प्रतिध्वनित होती हैं और कविता बनती है. कभी कोई कविता एक बार में ही पूरी हो जाती है, कभी फैल जाती है और एक बार में नहीं सध्ाती. उस पर लगातार काम करते रहने से, कभी न कभी बन जाती है. कम से कम शब्दों में कैसे बात को, अनुभव को, दृश्य को, स्थिति को उसके तमाम धरातलों, परतों के साथ पकड़ा जाए यह मेरा प्रयत्न होता है. कभी कभी एक सही शब्द की खोज में महीनों गुज़र जाते हैं, बार-बार लिखती रहती हूँ. कई बार तो छप चुकी कविताएँ भी बाद में पढ़ने पर ठीक से बनी नहीं लगतीं. वे भी लौट लौटकर भीतर आती हैं और मैं उन पर काम करती हूँ. जैसे ‘‘घर नहीं’’ संग्रह की भी दो-तीन कविताएँ ऐसी हैं जिन पर छपने के बाद भी देर तक काम करती रही हूँ. क्योंकि वे पूरी होने का एहसास नहीं कराती थीं.

लूसी रोजेन्टाइन

आप बहुत कम कविताएँ लिखती हैं. क्यों?

ज्योत्सना मिलन

कविता ही नहीं मैंने सब कुछ कम ही लिखा है. शायद ‘‘परफेक्शन’’ का आग्रह इसकी वजह हो. पहला कविता संग्रह भी संभवतः एक तो इसी आग्रह के चलते और दूसरे इस संकोच के चलते नहीं छपवाया कि अभी संग्रह छपवाने लायक क्या लिख लिया है? इसलिए जो पहला संग्रह ‘75 के आसपास छपा होता वह कभी छपा ही नहीं. फिर जो पहला संग्रह ‘‘घर नहीं’’ छपा वह काफी देर में यानी ‘89 में छपा. यों डायरियों में कविता के नाम पर लिखा गया बहुत कुछ पड़ा है, बहुत सी अधूरी कहानियाँ भी. इस सामग्री को उलटती पलटती हूँ और कभी कभी उसमें से कोई कोई कविता या कहानी बन भी जाती है, लेकिन अक्सर ये सामग्री लिखने की प्रक्रिया में लिखा गया कुछ-कुछ है जो कविता का आकार नहीं ले पाया. जब तक वह कविता की अपनी ही कसौटी पर खरी न उतरे, उसे कविता कहना कुछ रास नहीं आता.

मैंने ऊपर कहीं कहा कि मेरे समय पर बहुत दबाव हैं यह बात अपने आपमें सच है. फिर भी मैं यह बिल्कुल नहीं कह रही हूँ कि मेरे समय पर कम दबाव होता तो मैं बहुत अधिक लिखती. मात्रा में थोड़ा बहुत फर्क हो सकता था मगर मेरे लेखन की प्रकृति या उसकी बनक या उसकी स्पिरिट में कुछ बुनियादी अंतर पड़ता ऐसा कतई नहीं है. यह जरूर लगता है कि लिखने के लिए आवश्यक अवकाश की स्पेस की ज़बरदस्त कमी है. फिर भी मेरा लेखन कम होने की यह वजह उतनी नहीं है. यह हो सकता है कि वह जिस प्रकृति का, रुपाकार-सार का हुआ उसका श्रेय कुछ न कुछ तो इन स्थितियों को भी दिया जा सकता है. वैसे भी मेरा लेखन जिस तरह का है, उसकी मात्रा के अधिक होने की संभावना कम ही है. इसके अलावा यह भी कि मैं खाली कविता नहीं लिखती, कहानियॉं, उपन्यास और कभी कभार पुस्तक-समीक्षाएँ भी लिखती हूँ. मुझे लिखने में समय भी ज़्यादा लगता है. एक कहानी का दो-तीन बार पुनर्लेखन मेरे लिए आवश्यक है. ‘‘अपने साथ’’ उपन्यास को तीन-चार साल में पूरा किया था और ‘‘अ अस्तु का’’ उपन्यास को लिखने में तो छह-सात साल लग गए थे जबकि दोनों उपन्यास लघुकाय (165 पृष्ठ) ही हैं.

लूसी रोजेन्टाइन

क्या आप अपने को नारीवादी लेखिका समझती हैं?

ज्योत्सना मिलन

नारीवादी लेखिका इस अर्थ में तो नहीं हूँ कि नारीवाद जैसी किसी चीज़ को मैंने सोच-समझकर या तय करके नहीं उपनाया है. हाँ आस-पड़ोस में घर-परिवार में स्त्रियों का जो जीवन था, उनकी जो अन्यायपूर्ण और अपमानजनक स्थितियॉं थीं उनके साथ अमानवीयता की हद तक किया जाने वाला जो व्यवहार था वह सब मेरे लिए असह्य था. शायद उसके बारे में लिखकर ही उन्हें झेला जा सकता था. इसीलिए अधिकतर कहानियॉं स्त्रियों की इन स्थितियों, मनःस्थितियों के इर्द-गिर्द ही हैं, बिना कुछ तय किए. और अधिकतर तो यह दुनिया मध्यवर्गीय स्त्री की दुनिया है. मैं लगभग चालीस-पैंतालिस साल की हो गई तब तक स्वयं धंधा-रोज़गार करने वाली स्त्रियों की दुनिया मेरे लिए लगभग एक अपरिचित दुनिया ही थी. तब तक मुझे नारीवादी आंदोलन आदि के बारे में कुछ भी पता नहीं था कि यह आंदोलन अमेरिका में शुरू हुआ, क्यों हुआ, यह सब तो मुझे, ‘सेवा’ की संस्थापिका श्री इला भट्ट के लेखन से पता चला, जब मैं उनके और ‘‘सेवा’’ के संपर्क में आई. तब तक मेरा कविता संग्रह, पहला उपन्यास और दो कहानी संग्रह छप चुके थे. ‘‘सेवा’’ के साथ काम करना शुरू किया तब पहली बार पता चला कि मैं स्त्रियों की बहुत छोटी सी दुनिया को जाती हूँ. मैंने सोचा ‘‘सेवा’’ के साथ काम करने पर स्त्रियों की ज़्यादा विशाल दुनिया को जानने का मौका मिलेगा. दूसरे, सिर्फ नौकरी करने के लिए मैंने ‘‘अनसूया’’ का काम नहीं लिया था, हालॉंकि कुछ आर्थिक आत्म-निर्भरता मैं अवश्य चाहती थी लेकिन कुछ सार्थक करने की, अपनी क्षमता भर काम करने की तसल्ली भी चाहती थी. यह काम मेरे रचनाकार के लिए भी स्त्री की दुनिया के कुछ अछूते आयाम लेकर आया था.

स्त्री के सामाजिक, पारिवारिक जीवन की विकटता के साथ-साथ एक व्यक्ति के नाते, एक रचनाकार के नाते, एक मनुष्य के नाते भी जो कठिनाइयॉं हैं, वे सब भी मेरे लेखन में उजागर हुई हैं. कभी ‘‘बा’’ जैसी कहानी में जो कुछ हुआ वह स्वयं मुझे भी अचरज में डालने वाला था. उस कहानी के पुरुष पात्र का स्नेह मुझे जीवन में इतना अधिक प्राप्त था और स्त्री-पात्र के साथ जीवन में सदा ठनी रहती थी. लेकिन जब इस कहानी को लिखा तो पाया ये दोनों पात्र कैसे पूरी तरह स्वतंत्र हो चुके हैं मुझसे और मैं उस स्त्री-पात्र ‘‘बा’’ के पाले में खड़ी हूँ यानी पुरुष-पात्र बापू के खिलाफ. खण्डहर-कहानी भी ऐसी ही है. ‘‘शंपा’’, ‘‘चीख़ के आरपार’’ और ‘‘समुद्र’’ जैसी कहानियॉं स्त्री-पुरुष संबंधों की जटिलता की कहानियॉं हैं. और भी होंगी. अभी यही नाम याद आ रहे हैं.

बहरहाल कहने का मतलब यह कि तय करके मैंने नारीवादी लेखन नहीं किया है. वह मेरे आसपास के जीवन का ही अनुभव था जिसे मैं अच्छी तरह से जानती थी जो मुझे विचलित किए रहता था. इसलिए उस अर्थ में मेरा लेखन नारीवादी लेखन नहीं है. मैं नारीवादी संस्था:‘‘सेवा’’ के अखबार ‘‘अनसूया’’ का संपादन करती हूँ, यह सही है. लेकिन इसका जो लाभ मुझे हुआ है वह यही है कि इसने स्त्री के जीवन की उन विडंबनापूर्ण स्थितियों, संबंधों, यातनाओं की ताईद की जो मेरी कहानियों में उभरी हैं.

लूसी रोजेन्टाइन

क्या आप समझती हैं कि महिलाओं का लेखन आदमियों के लेखन से अलग है?

ज्योत्सना मिलन

अलग है और होना भी चाहिए. जिसकी आंतरिक और बाहरी बनावट अलग होगी उसका चीज़ों के साथ इंटेरेक्शन और एक्शन-रिएक्शन भी अलग होगा. चीज़ों को देखने की उनकी दृष्टि अलग होगी, उनका चीज़ों का पर्सेप्शन भी अलग होगा. स्त्री दिमाग से भी चीज़ों को पर्सीव करती है लेकिन वे इंट्यूशन से ज्यादा पर्सीव करती हैं. स्त्री का जैसे चीज़ों को अनुभव करने का एक अलग तरीका है, देखने का एक अलग नज़रिया है वैसे उसका अभिव्यक्ति का भी अलग तरीका है. मेरे एक उपन्यास ‘‘अ अस्तु का’’ के बारे में हिंदी के विद्वान लेखक वागीश शुक्ल ने लिखा है कि ‘‘इस उपन्यास को अलग से कोई ‘फेमिनिस्ट’ पहचान देने से मैं कतराऊंगा, यद्यपि वीमन राइटिंग यह है, क्योंकि किसी पुरुष द्वारा ऐसा लिखना शायद बेहद मुश्किल होगा.

किसी अनुभव को एक स्त्री ही लिख सकती है तो मात्र इसी वजह से वह नारीवादी लेखन नहीं हो जाता. मैं स्त्री हूँ और स्त्री की तरह चीज़ों को देखती हूँ, अनुभव करती हूँ, लिखती हूँ इसलिए वह अलग तो होगा फिर भी वह लेखन होगा और लेखन के मानदण्डों पर ही कसा जाएगा.

लूसी रोजेन्टाइन

अपने कुछ प्रिय कवियों के नाम लीजिये.

ज्योत्सना मिलन

क्या आप अंग्रेज़ी या हिंदी कविता के बारे में पूछ रही हैं?

लूसी रोजेन्टाइन

दोनों यहाँ के भी और बाहर के भी.

ज्योत्सना मिलन

बहुत अधिक तो मैंने वैसे भी नहीं पढ़ा है फिर भी कविता में कीट्स, कॉलरिज, इलियट, यीट्स, रिल्के, रिम्बो, एमिली डिकन्सन, मारीना स्वेतायेवा आदि कुछ नाम तत्काल जबान पर आ रहे हैं. कथा लेखन में चेखव, दोस्तोएवस्की, टॉल्स्टॉय, वर्जीनिया वुल्फ, ब्रूनो शुल्ज़, मिलान कुन्देरा, इटालो केल्विनो, मार्गरेट ड्यूरास जैसे लेखक जिन्हें मैंने तुलना में अधिक पढ़ा और पसंद किया.

लूसी रोजेन्टाइन

और हिंदी में?

ज्योत्सना मिलन

सिर्फ हिंदी के ही नहीं क्योंकि मेरी शिक्षा की भाषा गुजराती रही है इसलिए गुजराती में भी मैंने काफी कविता पढ़ी है. भक्तकवि दोनों भाषाओं के, नरसिंह मेहता, मीरा, अखा भगत, दयाराम, कबीर, सूरदास, मराठी के भी तुकाराम, नामदेव आदि. बाद के कवियों में गुजराती के नानालाल, कलापि, कांत, ठाकोर, प्रियकांत, निरंजन, राजेंद्र, लाभशंकर आदि और हिंदी में प्रसाद, निराला, अज्ञेय, मुक्तिबोध, शमशेर, सुभद्राकुमारी चौहान, श्रीकांत वर्मा, रघुवीर सहाय, विनोदकुमार शुक्ल, अशोक वाजपेयी.

कथा-साहित्य में निर्मल वर्मा मेरे बहुत पसंद के लेखक रहे हैं उनके पहले निराला और प्रसाद का गद्य बड़ा सशक्त गद्य था. निर्मलजी के हमउम्र कथाकारों में कृ.ब.वैद, रघुवीर सहाय, कॅुंवरनारायण, श्रीकांत वर्मा, रामकुमार, कृष्णा सोबती, विनोद कुमार शुक्ल का कथा-संसार मुझे रास आता रहा है. मेरे साथ और मेरे बाद की पीढ़ी के लेखकों में वागीश शुक्ल, राजी सेठ, मृणाल पाण्डे, ममता कालिया, मंगलेश, उदयन वाजपेयी, धु्रव शुक्ल, नवीन सागर, राजेश जोशी, असद जैदी, तेजी ग्रोवर, गगन गिल आदि का लेखन पढ़ने की उत्सुकता बनी रहती है.

लूसी रोजेन्टाइन

और अगर आपको अपनी कविताओं से चुनाव करना हो तो आप कौन सी कविताएँ चुनेंगी?

ज्योत्सना मिलन

यों एकदम से कुछ नाम लेना मुश्किल है और याद भी नहीं है-फिर भी 1.लगातार, 2.औरत, 3.हवा-पेड़, 4.रात, 5.करवट, 6.लड़की–श्रृंखला की कुछ कविताएँ 7. दरवाज़ा, 8.पीछे, 9.अपने आगे आगे, 10.भीतर तक, 11.जैसे कभी, 12.पैर, 13.सह्याद्रि के पहाड़ों में, 14.होने का शब्द, लिखत की तरह, 15.अवाक्, 16.तितली का मन आदि कुछ.

लूसी रोजेन्टाइन

क्या कोई ऐसी बात है जिसका ज़िक्र मैंने इस साक्षात्कार में नहीं किया और आप उसके बारे में बात करना चाहती हैं?

ज्योत्सना मिलन

कुछ खास तो नहीं. मेरे एक कवि मित्र (गुजराती के) कहा करते थे, तुम तो एक आज़ाद पक्षी हो, तुम्हें कौन कैद कर सकता है; आसमान करे तो करे. लेकिन आसमान ने कभी किसी को कैद किया सुना है? बात कितनी अच्छी लगी थी, यह तो इस तथ्य से भी जाहिर है कि लगभग चालीस-बयालीस साल पहले कही गई यह बात-अभी भी उन्हीं शब्दों में, उसी ध्वनि में जस की तस याद है. लेकिन कभी-कभी लगता है कि यह कैसी आज़ादी है जिसके चलते रात खुले आसमान के नीचे समुद्र किनारे की रेत में अकेले लेटे-लेटे समुद्र को सुनने का सुख भी सुलभ न हो, रात को शहर की सूनी सड़कों पर भटकने की सहज इच्छा की पूर्ति संभव न हो. जो मैं हूँ, वह होकर जीना भी आसान न हो. तो वह कैसी स्वतंत्रता है इसका क्या लाभ है? एक ही, कि अपनी रचना में मैं जैसे चाहूँ हो सकती हूँ-जो चाहूँ कर सकती हूँ. क्या सच में?

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One comment
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  1. bahut shandar batchit h… me ise peoples ke sahity page ke liye le raha hoon
    dhanyvad sahit

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