आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

बारिश की रात छुट्टी की रात: रविन्द्र आरोही

यह कहानी को सच बनाने की कवायत नहीं, बस… कहानी को कहानी बनाए रखने का दुस्साहस है.

यह सीधे-सीधे दुनियादारी की छौंक थी.

प्रोफेसर दिल्ली के नहीं, दिल्ली जैसे ही एक शहर के रहनवार थे. जिस तरह दिल्ली भारत की राजधानी है, वह शहर भी अपने राज्य की राजधानी था. उस शहर में दिल्ली जैसी हर बात नहीं थी, मसलन कि उस शहर का नाम दिल्ली नहीं था. मसलन कि उस शहर के लोग जब अपने सम्बन्धियों को पत्र लिखते तब अपने पते में शहर का नाम दिल्ली नहीं लिखते. कुछ लोग पोस्ट-कार्ड पर अपना पता भी नहीं लिखते. उस शहर का नाम भी नहीं लिखते. बावजूद इसके वे सब लोग उस शहर में रहने वालों के तरह रहते. चिट्ठी में जिस तरह पता नहीं होता, उस तरह वे उस शहर में नहीं होते.

प्रोफेसर उसी शहर के एक महाविद्यालय में बच्चों को बायोकेमेस्ट्री पढ़ाते थे. वे अपनी विषय की गहराई में जिस ऊँचाई पर थे, कला की गूढ़ता वहाँ महज एक परछाई थी. ईश्वर में विश्वास रखने वाले एक दार्शनिक ने ईश्वरीय तिलिस्म को बचाए रखने की खातिर, ईश्वर को सूक्ष्म के रूप में पारिभाषित कर, विज्ञान और साहित्य को यह कह कर अंगूठा दिखा दिया था कि तुम चाहे जितना मुँह मार लो उस सूक्ष्म को पकड़ने में अंततः तुम्हारे हाथ जो लगेगा वह क्रमशः पदार्थ होगा या शब्द. यह बात उस दार्शनिक ने लगभग शाप की मुद्रा में कही थी. पर उस रंगमंच के सामने लगभग पिछली कुरसी के अंधेरे में अपने मित्र दीपक काण्डोइ के साथ बैठे प्रोफेसर के हाथ जो लगा था – वह न पदार्थ था, न शब्द.

शरीर के एक एक पुरजे को संकेत और उसके रसायनिक नामों से देखने और जानने के अभ्यस्त प्रोफेसर के सामने चेतना पणिकर, जब उनके लिए, सिर्फ उनके लिए, छुईमुई की पत्तों सी लरजती हुई मुस्काई थी और एक झाँझर परदे की तरह तार तार होकर शंख चूर्ण-सा नीला जो प्रोफेसर के अन्दर झड़ा था, वह क्या था- जिसमे जीवन के असंख्य पन्ने एक साथ अण्डरलाइन हो गए थे?

इतिहास को फुरसत मिलती और तारिखों को अपने मनमाने ढंग से प्रयुक्त हो जाने की मोहलत तो इस कहानी के लिए नवम्बर की एक तनती शाम का जिक्र जरूर होता. उस तनती शाम में एक अनाम शहर का जिक्र होता. उस अनाम शहर के उस इकहरी शाम में एक सफेद, पतली, पगडण्डीनुमा नदी और उस नदी पर बने एक पुराने पुल का जिक्र जरूर होता. और उस शब्द का भी जिक्र जरूर होता जो उस शहर की इकहरी शाम में उस पतली नदी के पुराने पुल पर चेतना पणिकर ने प्रोफेसर के होठों पर कहे थे. ऐन उसी पल के इतिहास में चाँद बादलों में छिपा होता, पुल ने एक सपना देखा होता, नदी लजाती सी बहने लगी होती.

तब शायद थ्री-क्वाटर जिंस की फैशनपरस्त लड़कियाँ इतिहास को छीः! सो बोरिंग नहीं कहतीं.

-यह डगर कथापुर को जाएगी?

-डगर किनारे एक भरा-पूरा तालाब होगा.

भरे-पूरे तालाब किनारे एक हरे- भरे पाकड़ की छाँव होगी.

जहाँ बैठा एक उदास बूढ़ा भर दुपहरी मछली मार रहा होगा-यह डगर कथापुर को जाएगी.

प्रोफेसर के बचपन का नाम मेघू था. यह नाम उनके पिता के पिता नलीन विलोचन भौमिक ने रखा था. मेघू औसतन बच्चों की तरह ही चंचल और दयालू थे. मेघू जब पाँच वर्ष के हुए तब उनके पिता असीम भौमिक पास के प्राइमरी स्कूल मे उनका दाखिला कराने ले गए. हेडमास्टर के पूछने पर असीम दा ने जब बेटे का नाम मेघनाद भौमिक बतलाया तब हेडमास्टर-जिसका नाम ….बनर्जी जैसा कुछ था- ने एक उपदेशात्मक गुस्सा दिखाया “कि आप पढे लिखे लोगों को हो क्या गया है. बच्चे का नाम राक्षस-दानव के नाम पर रखते हैं और दुर्भाग्य कि उस नाम के साथ स्कूल तक चले आते हैं.“ ऐसा ही कुछ कहा था हेडमास्टर ने.

बड़ाबजार में छह बई आठ के एक कपड़ा दुकान के मालिक असीम भौमिक को उस दिन पहली बार खयाल आया कि बेटे का नाम तो राक्षस-दानव के नाम पर हो गया है. वह पहली ही बार था जब असीम भौमिक को अपने पिता नलीन विलोचन भौमिक पर बहुत जोर की दिक आई थी.

असीम दा को बेटे के भविष्य की चिन्ता हुई. उन्होंने अपना स्कूटर स्टार्ट किया. मेघू स्कूटर की पिछली सीट पर बैठ गये. स्कूटर के छोटे पहियों के नीचे एक रोड़ा भी आता तो असीम दा को अपने पिता पर दिक आती. स्कूटर की बैट्री डाउन होने से सीटी रुक-रुक कर धीमी बजती थी. मछली बाज़ार में खासी भीड़ थी. स्कूटर के बहुत पास आ जाने पर लोग धीरे से अगल-बगल हटते थे, इस पर असीम दा को और दिक आती. झल्लाकर बोलते. लोग उन्हें घूर-घूर कर देखते. सबके झोले में दो-दो किलो महंगाई थी. सबकी जेब में दस-दस रुपये का गुस्सा था.

हाथी बाज़ार से कभी-कभार गुजरता था. उसके गुजरने पर लोग दूर-दूर तक अगल-बगल हो जाते थे. कुछ लोग हाथी को प्रणाम करते, कुछ सिक्का चढ़ाते, कुछ उसके सूंड़ पर केला रख देते. हाथी में सीटी नहीं बजती, स्कूटर जितनी आवाज भी नहीं होती, फिर भी पूरे बाज़ार में पेट दर्द जितनी मीठी और धीमी भगदड़ मच जाती थी. हाथीवान हाथी की भीख की कमाई खाता था. हाथीवान को किसी पर दिक नहीं आती थी. वह सबको प्यार से ताकता था.

स्कूटर हाथी नहीं था.

तब की बात है, जब रामानन्द सागर ने रामायण सीरियल नहीं बनाई थी. लोगों के अन्दर दानवों, राक्षसों के बारे मे अपनी तरह से सोच लेने की आजादी थी- एक पूर्वग्रह रहित सोच.

अंधेरे में बरगद का पेड़ बड़ा राक्षस लगता. स्कूटर पर चलते-चलते असीम दा के मस्तिष्क में तीस-चालीस फूट लम्बे-चौड़े ऐसे दानवों की तस्वीर बनती जैसा कि अक्सरहाँ तिब्बती लोक-कथाओं के पात्र होते हैं.

बड़े-बड़े बाल, गन्दे पीले बड़े-बड़े दाँतों वाली ऐसी आकृति कि स्कूटर का हैण्डल काँप जाता. असीम दा स्कूटर के लुकिंग ग्लांस से चुपके से मेघू को झाँक लेते कि कहीं पीछे बैठे-बैठे वह दानव तो नहीं बन गया. आधा मुंह खोले मेघू धूल, गर्द, धूप से आंखों को मीचे, चुपचाप पिछली सीट पर बैठे होते, पिछली किसी भी बात को नहीं समझ पाने की असमर्थता मे- अपने दाहीने कंधे पर सिर टिकाए, पीछे सरकते दुकानों को देखते हुए. यही वह समय था जब मेघू के मन में पहली बार स्कूटर चलाने का खयाल आया था. अधखुले मुंह में धूल-गर्द पड़ जाने से ऊपर-नीचे के दांतो को सटाने पर किरकिरी होती थी. बार बार थू-थू करते. थू-थू करते देख असीम दा को और दिक आती.

यदि रामायण सीरियल बना होता और उसमे मेघनाद की भूमिका निभा रहे, लम्बे, छरहरे, गोरे और सुन्दर नवयुवक विजय अरोड़ा को असीम दा ने देखा होता- जो कहीं से भी मानवेतर नहीं दिखता था- तो शायद उतनी दिक न आती. सिरियल का पूर्वग्रह हावी होता.

स्कूटर खड़ाकर, असीम दा मेघू का हाथ पकड़कर अपने पिता नलीन विलोचन भौमिक के पास ले गए और वहाँ जाकर पिता के सामने मेघू का हाथ झटक दिया. कपड़ा दुकान से रिटयर पिता ओसारे में चौकी पर बैठकर भुट्टा खा रहे थे. क्षण भर के लिए नलीन दा अचकचा गए- “क्या हुआ?” उनके मूंह पर भुट्टे के रेशे सटे थे. होठों के आस-पास जहाँ-तहाँ भुट्टे की कालिख लगी थी और दाँतों के बीच भी जहाँ-तहाँ भुट्टे के पीले-काले दाने सटे थे. उस समय नलीन विलोचन बूढ़े राक्षस से लग रहे थे. असहाय राक्षस.

“क्या हुआ, क्या. साला हेडमास्टर बेइज्जत कर के भगा दिया, यही नाम मिला था राक्षस दानव का – मेघनाद” कह कर असीम दा आंगन में चले गए. मेघू वहीं खड़े रहे और कुछ- कुछ बातें समझने की कोशिश करते रहे और अंतत: जो समझ पाए उसका सार बस इतना-सा था कि किसी साला हेडमास्टर ने पापा और दादा दोनो को एक साथ राक्षस बोला है और भगा दिया है. इस पर वे और नहीं सोचे, बस इस प्रतीक्षा में वहीं अड़े रहे कि अब दादा बाकी का भुट्टा उन्हें दे दें.

और दादा थे कि धीरे-धीरे कुछ बुदबुदाए जा रहे थे, जिससे मेघू का कोई लेना देना नहीं था “कि.. मैने तो वैज्ञानिक मेघनाद साहा..”

-“आप खरीद कर लाए?”- मेघू ने पूछा

बूढ़ा राक्षस डोल गया-“खाएगा?”

-“हूँ”

-“ले”

-“आपके मुँह में भुट्टे का मूँछ सटा है.”

-“किधर?”

-“ऊपर”

“किधर ऊपर?”

-“ऊपर-ऊपर, बहुत ऊपर”- कहता हुआ मेघू आंगन की ओर भाग गया.

अगले दिन, असीम दा स्कूटर पर बैठाकर मेघू को स्कूल ले गए और शहर के सबसे बड़े बिस्कुट कम्पनी के मालिक कंचन बड़जात्या के नाम पर बेटे का नाम कंचन भौमिक लिखा दिया.

नलीन विलोचन भौमिक को दुबारा दुख तब हुआ, जब लगभग चार-पाँच दिन बाद, नीली शर्ट और छाई रंग के हाफ पैंट में छोटे-से कंधे पर बड़ा बस्ता झुलाए, शाम के वक्त, गुमसुम मेघू, ओसारे से होते हुए आंगन की तरफ जा रहे थे. मेघू को आते देख नलिन दा ने जेब से पंचपईसी लेमनचूस निकाल कर पास ही चौकी पर रख कर दूसरी तरफ ताकने लगे कि जब वह नज़रें बंचा कर उसे चुराने की तरह उठायेगा, तब दादा उसे पकड़ लेंगे. पर वह उसे देखा तक नहीं और जाने लगा. दादा ऐन मौके पर उसे बुलाए थे- मेघू. और वह पलट कर थूकने की तरह कहा था- मेरा नाम मेघू नहीं, कंचन है. तब नलीन दा को लगा मानो वह कह रहा हो कि मै तुम्हारा पोता नहीं… आदि आदि. नलीन दा को कुछ ऐसा ही लगा था. यह विस्तर की चादर जितनी आसान बात नहीं थी कि बदल कर सामने वाले को सरप्राईज दिया जा सके. चौकी के हिलते पाये में कील ठोकने की बात तक भी सबको एक साथ पता रहती थी, और यहां..

दादा दुखी-दुखी और पोता उदास-उदास रहने लगे.

और तब मेघू अर्थात कंचन भौमिक की पढ़ाई शुरू हुई.

पढ़ाई के नाम पर वह दादा से इतिहास की मनगढ़न्त कहानियाँ सुनते और अपने नाम से नाखुश रहते. इस तरह उन्हें अब अपने पिता पर दिक आती.

दिक्कत यह कि स्कूल के सभी बच्चे इनके नाम का उच्चारण लड़कियों के नाम-सा करते. मेघू अर्थात कंचन भौमिक को अब सब पर दिक आती. सबसे नजरे बचा कर स्कूल मे घुसते, क्लास की पिछली बेंच पर बैठते, किसी से कुछ नहीं बोलते, अकेला टिफिन खाते और छूट्टी होते ही सबसे पहले घर भाग आते. घर आने पर ज्यादात्तर घर में ही रहते, बाहर खेलने भी नहीं जाते. बाजार नहीं जाते. घर के बाहर कभी दुआर पर बैठते तो इधर-उधर ताकते रहते, कोई भी बच्चा बाहर दिख जाता तो वे चुपके से घर के अन्दर चले जाते. अब पिता भी इस नाम से बुलाते तो मेघू अर्थात कंचन भौमिक सिहर उठते. धीरे-धीरे वे अपने लिए एक जगह तलाशने लगे, जहाँ इस नाम से उन्हें कोई न जानता हो- एक अनाम जगह, एक अनाम शहर.

इस तरह कक्षा आठ तक जाते-जाते कंचन भौमिक अंतर्मुखी हो गए. पढ़ाई में कमजोर होते गए. उनकी सेहत भी कमजोर होती गई. जब वे बहुत दुबले, कमजोर और बीमार रहने लगे तब दादा नलीन विलोचन भौमिक को उनकी चिन्ता हुई.

अब दादा उनकी अच्छी सेहत के लिए उन्हें शहर के हर बड़े डाक्टर के पास ले जाते और अपनी तरफ से उनकी खुशी के लिए हर तरह की जोर-जुगुत करते, मसलन बाजार ले जाते, ऐतिहासिक कहानियाँ सुनाते, साइकिल चलाना सिखाते और कभी-कभी बन्दरों-सा गुलाटी मार कर अपने पोते को दिखलाते.

अंतत: कक्षा आठ तक जाते-जाते भी इतिहास के बारे उनकी जानकारी बस इतनी ही थी कि इनसान पहले बन्दर था और नंगा रहता था.

तदुपरान्त वही कोई साल रहा होगा जब दुनिया में कोई विशिष्ट घटना नहीं घटी थी. उस समय के इतिहास में बस जेठ की दुपहरी का उजास फैला रहता था. भरी दुपहरी में एक भरा-पूरा तालाब होता था. शेष अन्य का रूप एक बन्द रूप होता जबकि खुला मैदान सभी ओर से खुला होता है- भरा-पूरा तालाब शेष अन्य नहीं होता. चारो तरफ से खुले उस भरे-पूरे तालाब के किनारे एक हरा-भरा पाकड़ का पेड़ होता था. और उसी हरे-भरे पाकड़ की छाँव में, दादा नलिन विलोचन भौमिक पोते के साथ हर दुपहरी भरे तालाब में मछली मार रहे होते. उसी तालाब में मेघू को डूब कर मर जाने का मन करता. यह सोच आते ही मेघू डर जाते और किनारे से थोड़ा और दूर हट कर दादा के पीछे खड़े हो जाते. किनारे से थोड़ा और पीछे हटने में पांव से लग कर एक ढेला तालाब में लुढ़क जाता. मछलियां हरक जातीं. दादा को दिक आती. दादा मेघू को घूरते. मेघू को भी दिक आती और ऐन उसी क्षण फिर डूब कर मर जाने का खयाल मन में आता और वे तालाब में जानबूझ कर एक ढेला फेंक देते.

उसी किसी निर्विघ्न साल के एक अनमने दोपहर में मेघू अर्थात कंचन भौमिक किसी कक्षा में फेल हो गए. फिर उसी कक्षा मे जब वे दुबारा फेल हुए तब नलीन दा को दुबारा दुख हुआ और दूसरी तरह की चिन्ता हुई.

नलीन विलोचन भौमिक स्कूल के हेडमास्टर से मिले और समस्या पर गहरी और दुखी बात चित हुई. स्कूल के हेडमास्टर विमल विश्वास (…बनर्जी जैसा कुछ रिटायर हो चुके थे) ने समस्या को गहराई से परखा और लड़के की इस दब्बू, एकान्त, अंतर्मुखी और मंद-बुद्धि वाली समस्या का करण उनके नाम में खोज निकाला और कंचन भौमिक को अगली कक्षा में प्रोमोट कर उनके नाम के आगे ’तप्त’ जोड़ दिया गया. नाम- तप्तकंचन भौमिक.

जगह मिलने पर विश्राम लिया जाएगा

इतिहास की एक सफेद शितोष्ण रात जहाँ कुछ न हो रहा हो, कुछ न घट रहा हो की एक ऐसी दुनिया, जिस पर इतिहास खुद रश्क करता हो. माना जाना चाहिए कि दिन और रात के करिश्मे में सूरज, चाँद और धरती का महज व्याकरण नहीं एक गौरये की धड़कन और स्पन्दन और गर्माहट का भी तिलस्म होता है. इतिहास के गेण्डे जैसी मोटी चमडी पर जहाँ गाँधी, नेहरू, चर्चील, हिटलर, मुसोलिन, बेंजामिन, अमिताभ, रोनाल्ड, सचिन जैसे नाम मोटे और खुरदरे अक्षरों में छापे गए थे. वहीं इतिहास का दूसरा फेज सोलह लेज का कबूतर था, जिसमे घन्टों उड़ने की क्षमता थी-बिना थके, बिना रुके. उनके पंख सफेद थे. आसमा खुला गहरा नीला था. विjज्ञान का एक बहुत बड़ा समय उन कबूतरों की रेंज पर टिका था. कहते हैं कि एक अनुसन्धान में उनके पंखों की लम्बाई आधे आसमान तक बताई गई थी और माना गया था कि विज्ञान और दर्शन ने एक समय के लिए अपनी समूची ताकत इन कबूतरों के पीछे भागने में गँवाई थी.

उन कबूतरो की विशेषता थी कि उन पर दुनिया के तमाम जायज विशेषण सही फिट बैठते थे. अपनी चाल और उड़ान से किसी को भी सम्मोहित कर लेने कि क्षमता उनमे अद्भुत थी.

धीमे चलें! यहाँ एक सुखद दम्पती का वासा है

कहानी में बहुत दिनों बाद टालीगंज के एक फुर्सताह इलाके में गोल आंगन वाला एक ईंटदार मकान था. जिसमे एक दम्पती का वासा था. मकान में तीन कमरे थे. एक रसोई-घर और एक शौचालय था. तीनों कमरों के सामने एक गोल आंगन था. आंगन मे बहुत कुछ के अलावे एक हरे रंग की खिड़की थी. खिड़की में पल्ले थे, ग्रील नहीं था. अलावे में एक नलका था और चार पेड़ थे. जिस तरह पेड़ों के नाम आम, नींबू, सुपारी और नारियल थे ठीक उसी तरह दम्पती का नाम तप्तकंचन भौमिक और चेतना पणिकर था. पत्नी की हंसी से पूरा घर लीपा-पुता लगता था. घर की हर दीवार का रंग अलग था. पत्नी के पास हर रंग की हंसी थी. पत्नी के कमरे की उत्तरी दीवार पिस्ता-ग्रीन में थी. दीवार की बाईं ओर स्लेटी फ्रेम में दम्पती का हंसता फोटोग्राफ था. पत्नी की बैंगनी हंसी फोटोग्राफ में खूब फबती थी. शाम, दोपहर, रात, सुबह की अलग-अलग हंसी. पत्नी की हंसी से तप्तकंचन भौमिक रंग, गंध, समय और मौसम का पता लगा सकते थे. मौसम में, पत्नी को पतझड़ की हंसी नहीं आती थी. इस तरह घर में उस किसी भी चीज़ का अनावश्यक प्रवेष निषिद्ध था, जिसकी हंसी पत्नी को नहीं आती या जिसका अर्थ प्रोफेसर नहीं जानते थे. प्रोफेसर अर्थात तप्तकंचन भौमिक और चेतना पणिकर अर्थात चेतना पणिकर

मसलन आप उस पते पर पहुंचे तो वहां एक घर था. घर घर की तरह था, पोस्टर नहीं था. घर में एक पत्नी पत्नी की तरह थी, इतिहास नहीं थी. पत्नी की हंसी हंसी की तरह थी, पूर्वाग्रह नहीं था. घर में मेहमानों के लिए बतासे बतासे की तरह थे, उपदेश नहीं थे. इस तरह दो सौ छह नम्बर टालीगंज के एक फुर्सताह इलाके के एक गोल आंगन वाले ईंटदार मकान में बहुत कुछ के अलावे एक सुखद दम्पती का वासा था. जामुन का गाछ नहीं था.

अस्तित्ववाद के एक महान कहे जाने वाले दार्शनिक, जिसने पूरे पश्चिम को एक समय के लिए किसी गहरे अंधे ड्रेन में ढकेल दिया था. उसकी जानकारी में बस दो चीज़े थी, एक कि वह कुरूप है और दूसरी कि कई असफल प्रेम के बाद एक लड़की से प्रेम करता है. वह प्रेम के अलावे जो करता, उसे दर्शन कहता था. इस अलावे के शब्दार्थ में वह शुरू और अंत का फासला नहीं जानता था और न ही मानता था. और इस नहीं जानने के शब्दार्थ में ही उसके दर्शन का संसार बसता था- कि किसी भी रचना को कहीं से भी शुरू कर, कही भी खत्म कर देने की आजादी उसके पास है. मसलन किसी का अंत ही उसकी शुरुआत हो जैसे कि गणित में लंगड़ी भिन्न होती है.

खत्म भी ऐसे कि कभी शुरू ही न हुआ हो.

डगर की बाईं ओर एक बूढ़े रंग के आदमी की परचून की दुकान पर किसी पुराने रंग का साइनबोर्ड – पुरुष अहेरी की स्त्रियाँ अहेर है

यह मौसम बदलने का शुरूआती असर था. पत्नी की हिदायत में छाता तथा हंसी में तुलसी और काली-मिर्च का काढ़ा शामिल हुआ था.

प्रोफेसर रात को जब परेशान होते, उन्हे नींद नहीं आती. अलमारी से बिस्तर तक अनेक किताबों के बीच वे एक अजीब नशे का शिकार होते- शिकार नहीं, शिकारी होते. कमरे के दरवाजे फर्श से रगड़ खाते थे. इस सावधानी से पल्लों को सटाते कि आवाज नहीं होती. इस तरह वे फर्श को धोखा दे देते. लाईट बुझा देते और कमरे के घुप्प अंधेरे में एक बाघिन का इंतजार करते. बाघिन का इंतजार, नींद के पहले नींद के इंतजार जैसा होता. मौसम बदलने की तरह बाघिन घण्टों बाद दरवाजे से अंदर आती- जिसमे कोई आवाज नहीं होती. इस तरह वह अंधेरे तक को धोखा दे देती. पर वे उसकी महक से जान जाते. सूई की आंख से उसकी हर गतिविधि पर नजर रखते. बाघिन इधर-उधर उन्हें ढूढ़ती पर वे नहीं मिलते. अंतत: एक पुरुष गंध को पाकर बाघिन बिस्तर पर पैताने से चढ़ती. इससे पहले कि बाघिन उन्हें सूंघे, वे एक चादर उस पर डालकर उसे अंधा कर देते. घण्टों इंतजार में उनकी आंखें अंधेरे के अभ्यस्त हो चुकी होती पर बाघिन अभी अभ्यस्त नहीं हुई होती कि अचानक हमला…. वह पहली बार चीत हो जाती. चूंकि बाघिन शातिर होते हुए भी एक लोचदार जानवर है- जैसे कथकली नृत्यकला होते हुए भी एक नाट्य विद्या है. इसलिए बाघिन चित होते हुए भी पट हो सकती है. और चूंकि बाघिन लोचदार होते हुए भी एक दबोच लेने की ताकत है, उनपर वार करती. दांत काटने में विफल हो जाती, पर उसके चाटने और खरोचने का गुनगुना रोमांच रात के आखिरी पहर तक कायम रहता.

कमरे में एक नर-मादा का युग्म-रक्तचाप कि अंधेरा उतारे गए वस्त्र-सा पैताने पड़ा रहता- चुपचाप… कि जैसे प्रियदर्शन की फिल्में शुरू होती हैं- बेआवाज. उर्जा का अन्तिम टेक और बाघिन बिना ग्रील के खिड़की से बाहर कूद जाती(ध्यान रहे यहां खिड़की एक फेण्टेसी है) दरअसल होता यूं था कि दोनों पसीने से लथपथ सांसों को संतुलित करते और सो जाते.

बारिश के दिन अलग से नहीं होते, जिस तरह इतवार अलग से छुट्टी का दिन होता है. रात के सोये मे बारिश गिरती तो रात छुट्टी की रात लगती. बारिश रात को होकर गुजर गई थी. फिर भी रानी मुखर्जी टाईप आवाज की तरह भोर खसखस लग रही थी.

पत्नी से पूछने पर वह हंस दी. पत्नी की हंसी में सिनेमाई महक थी, जिसका मानी था “नहीं तो न्नाह, बारिश कहां हुई थी.” पत्नी रात की हर वारदात को जानती. पत्नी हर बार सुबह की साजिश में शामिल होती.

इस तरह एक मेहनती रात वाली सुबह प्रोफेसर खुद को थका-थका पाते. सोए-सोए ही आंखे खोलकर कमरे की हर चीज़ को कई बार दुहराए हुए की तरह देखते. कमरे की हर चीज़ यथावत दिखती कि जैसे रात को कुछ हुआ ही न हो. फिर वे तकिए में मुंह छिपाकर आंखें बंद कर लेते. चौकी के नीचे उन्हें किसी खटके का बोध होता. उन्हें लगता कि सपना देख रहे हैं. वे चौकी के नीचे झांक कर सपने को देखते. पत्नी फिनायल से घर पोंछ रही होती. बाघिन के गंध के ऊपर फिनायल का गंध तिर जाता. पत्नी ताक कर, तुम नहीं सुधरोगे वाले भाव में मुस्कुरा देती. वे झेंप जाते.

सोये-सोये ही वह तारीख वाले कैलेण्डर पर नजर डालते. तीन महीना अर्थात इक्यानवे-बानवे दिन एक साथ दिखाने वाले उस पन्ने पर ऐसे उलझते कि नहीं सोच पाते कि आज की इस थकान वाली समूची सुबह को तारीख के किस कोठे में एक टिकुली की तरह साट दें. पत्नियां चौखट पर टिकुली साटती हैं. सप्ताह में वे तीन बार दाढ़ी बनाते थे. उन्होंने सोये-सोये ही दाढ़ी पर हाथ फेरा. नहीं पता चला कि दाढ़ी कब की है. कल की होती तो आज वृहस्पतिवार होना था, अन्यथा शनिवार. वह उठ कर सीधे पत्नी के पास रसोई में चले गए. पत्नी चूल्हे के पास बेगुनाह की तरह खड़ी थी. उन्होंने पूछा दाल बन रही है क्या? जिसका मानी था, दाढ़ी बढ़ गई है क्या? अर्थात आज कौन सा दिन है? पत्नी ने गोल-गोल उत्तर दिया कि राजनीति बहुत गंदी हो गई है + एस.एम.एस पैक खत्म हो गया है + मेरा पति मेरा देवता है = तुम बहुत सुन्दर हो.

वे चिढ़ कर बाथरूम चले गए और दरवाजा बंद कर जोर से चिल्लाए, बिना हिसाब के तुम भी बहुत सुंदर हो.

पति को चिढ़ते देख पत्नी एक टेढ़ी हंसी हंस दी कि जिस प्रकार जनवरी वर्ष का प्रथम तथा नवम्बर वर्ष का अंत से पहला महीना है, उसी प्रकार रविवार सप्ताह का प्रथम तथा शुक्रवार सप्ताह के अंत से पहला दिन है. अर्थात आज शुक्रवार है.

इस तरह वे दिन के अनुमान से तारीख के अनुमान तक पहुंच जाते. बाथरूम से फ्रेश होकर निकले. नाश्ता किए और टिफिन बैग में लेकर आंगन में निकल गए. आंखे मूंद कर आंगन में तीन मिनट तक खड़े रहे कि किसी देवता को गुहरा रहे हों- दरअसल उस समय वे भुली हुई चीजों को याद कर रहे होते, और बैग में रखा नोट्स, उन्हे भुली हुई चीज़ की तरह याद आता. पत्नी की तरफ ताकते. नोट्स बैग में ही रखा है- पत्नी याद दिलाने की तरह हंस देती. नारियल के गाछ पर बैठा कौवा काँव बोला. घर से निकलते घड़ी कौवा का काँव बोलना, पत्नी अपशगुन मानती थी. पत्नी ने कौवा को झूठ-मूठ ढेला मारने के लिए सचमुच का हाथ उठाया. कौवा झूठ-मूठ उड़ने के लिए सचमुच का पंख फड़फड़ा कर वहीं बैठा रहा. नारियल की गाछ की ऊँचाई एक आदर्श और सुरक्षित ऊँचाई होती है, जहाँ तक पत्नियों की गालियाँ तो जा सकती हैं, ढेला नहीं. कौवा तो फिर भी एक चालाक पक्षी है(कोयल के अण्डे सेने वाली कहानी को छोड़ दें तो). कौवा फिर काँव किया. पत्नी खुश हो गई. जब कौवा दुबारा बोलता है तब पहले वाला अपशगुन मिट जाता है- यह पत्नी का दूसरा अंधविश्वास था.

सावधान! कहानी में आगे मोड़ है

उस दिन महाविद्यालय बंद होने की तरह खुला था. महाविद्यालय के गेट पर खड़े दरवान ने बस इतना बतलाया कि परीक्षा के डेट को लेकर लड़कों ने बंद बुलाया है. उसने ऐसे बोला मानो बंद को किसी दूसरे राज्य से बुलाना पड़ा हो.

प्रोफेसर आफिस नहीं गए. वहीं से लौट आए. लौटते हुए, आपस मे बतियाती आती दो लड़कियाँ मिली, जिन्होंने प्रोफेसर को देखकर ’कोरते होबे-कोरते होबे’, ’चोलबे ना, चोलबे ना’ और ’हाय-हाय’ का नारा बुलंद किया. प्रोफेसर उनको देखकर फुटपाथ पर एक दुकान की तरफ मुँह करके आम आदमी की तरह खड़े हो गए. और वे भी भीड़ मे उस आदमी की तलाश करने जैसी नजरों से सबको ताकने लगे, जिसके लिए नारे लग रहे थे. एका-एक आम आदमी बनना कठिन काम था. वे पसीने से तर हो गए और कीचड़ मे गिरते-गिरते बचे.

सेण्ट्रल क्रासिंग से मेट्रो जाते वक्त, प्रोफेसर ने गोलाई में भीड़ देखी. गोलाई के भीतर एक खाली गोल जगह में एक आदमी अपने बंदर के साथ खड़ा था. आदमी बंदर से भीड़ को नमस्ते करने के लिए कह रहा था. प्रोफेसर और आगे जा कर, भीड़ की गोलाई से निकलकर खाली जगह की गोलाई मे आ गए. उस आदमी के कहने पर बंदर ने बाबू (प्रोफेसर) को प्रणाम किया. उस आदमी के कहने पर आगे खड़े सभी हजरात, मेहरबान, कदरदान झिझकते हुए वहीं बैठ गए.

खेल के अंत में प्रोफेसर ने मदारी वाले से कहा कि एक और बंदर होता तो और मजा आता कि मैने बचपन में दादा के साथ दो बंदरों(दुलहा-दुलहन) का खेल देखा है. बहुत मजा आता है.

मदारी वाले ने कहा कि मेरे पास भी दो थे. एक महीना हुआ, एक जो इसकी लुगाई थी, मर गई.

प्रोफेसर ने उसे पाँच सौ रूपये दिये और कहा कि कहीं मिले तो एक बंदरिया ख़रीद कर इसकी लुगाई बना देना. बिना लुगाई के खेल सूना-सूना लगता है.

मदारी वाले ने प्रोफेसर को बंदर की तरह प्रणाम किया- जिसका नाम उनींदी हालदार था.

प्रोफेसर ने चलते-चलते मदारी वाले से पूछा कि बंदरिया के मरने पर क्या तुम उसी तरह रोये थे, जैसे किसी के मरने पर रोया जाता है या उस तरह कि जैसे घाटा लगने पर रोया जाता है?

कंधे पर बंदर को बिठाए, मदारी वाले ने कहा कि विश्वास कीजिए बाबू मरने वाले की तरह ही रोया था.

-तुम घर में रहते हो तब बंदर तुम्हारे काम में हाथ बँटाता है?

-जब खाना बनाता हूँ, तब माँगने पर गिलास-कटोरा दे देता है.

-हिचकी आने पर पानी देता है?

-पानी कैसे देगा, मै ही इसको देता हूँ.

-सब्जी की झूड़ी से मिर्चा देता है?

-दिखाकर माँगने से देता है, पर एक ही देता है. फिर पठाने पर एक और लाता है.

-सोते हो तब जूँएँ हेरता है?

-ऐसे थोड़े न होता है, यह क्या आदमी है जो सब कुछ करेगा? जब इसकी लुगाई थी, तब उसकी जूँएँ हेरता था. कहाँ देखे, जूँएँ हेरना?

-तालाब किनारे पाकड़ के पेड़ पर.

-आप भी बंदर पालोगे?

-नहीं, छूता है तब डर लगता है.

-कब छुआ?

-छुआ नहीं, ऐसा लगता है कि छुयेगा तब डर लगेगा.

– नहीं लगेगा, छु कर देखो.

प्रोफेसर जल्दी ही घर लौट आये. घर के दरवाजे पर प्रोफेसर ने खड़े हो कर सोचा कि घर का भी एक नाम होना चाहिए- जैसे मदारी वाले का नाम उनींदी हालदार है, बंदर का नाम लालमोहन और उसकी लुगाई(जब थी) का नाम सुंदरी है. आखिर घर में घर भी तो एक सदस्य ही होता है न, जो हर बार, उसमे रहने वालों को बचा लेता है आत्महत्या करने से. घर चाहे जितनी भी कम उम्र का हो पर वह होता अंतत: बुजुर्ग ही है-जिसकी क्षत्रछाया में हम रहते हैं.

घर मे पत्नी हिलीस माछ की तरह लचकदार लेटी थी. प्रोफेसर को आते देख पत्नी तैरने की तरह करवट बदल कर बोली कि आज तुम जल्दी आ गए इसलिए हमें नवीना सिनेमा में फिल्म देखने जाना चाहिए.

-कौन सी?

-कोई भी, हमें बाहर घूमने की तरह एक फिल्म देखनी है, जैसे बहुत पहले हम फिल्मों की तरह बाहर घूमते थे. हीरो-हीरोइन की तरह बाँह में बाँह डाले- चीरोदिनी तुमी जे आमार जुगे-जुगे आमी तोमारी….

सिनेमा हाल में पापड़ और मुँगफली की तरह अंधेरा महक रहा था. लाईट मैन के टार्च से सिर्फ़ टार्च दिखता था. वह एक नंगी नाभी वाली मुस्कुराती हीरोइन की फिल्म थी, जिसमें हत्या के विरूद्ध हत्या का रिवाज था. इण्टरवल तक प्रोफेसर नहीं समझ पाए थे कि इस फिल्म का हीरो कौन है. फिल्म की एक बरसाती सीन में गुम होती जाती-सी पत्नी ने बहुत बाद में कहा कि तुम नीरा बुद्धू हो, अरे! जो बीच चौराहे पर सबको मशीनगन से भून रहा था, वही हीरो था.

पत्नी अंधेरे में खुश थी.

…तब विलेन कौन था?

पत्नी ने नहीं सुना. वह गुम होने की प्रक्रिया में थी.

अंतत: वह फिल्म हैप्पी एण्डिंग की थी, पर उस सीन को देखकर- जिसमें हीरो(जिसे पत्नी और तमाम दर्शक हीरो मानते थे) हीरोइन की पीठ पर फूँक मारता है, हीरोइन सिहर जाती है. और दरवाजा बंद हो जाता है.– पत्नी इस तरह गुम हुई कि घण्टों छान-बीन के पश्चात भी नहीं मिली. तब प्रोफेसर को लगा कि शायद मै ही गुम हुआ-सा लगता होऊँगा और गुम हुई पत्नी मुझे तलाश कर घर चली गई होगी.

पत्नी उस घर में भी नहीं थी, जिसका नाम प्रोफेसर ने बसेरा रखा था. रात के लगभग साढ़े ग्यारह बजे पत्नी जब एक पीले रंग की फिएट से बाहर निकली, उसके चेहरे पर गुम हो जाने की खुशी साफ-साफ देखी जा सकती थी. कार से निकल कर दीपक काण्डोई ने प्रोफेसर के कंधे पर हाथ रखा जिसका मानी था कि हम थे कि जल्दी मिल गई.

पत्नी ने उलाहने मे कहा कि आप तो मुझे छोड़कर भाग आए. पत्नी के कहे में गुलाबी रंग का एक मैलोडियस दर्द था.

हम तो सिर्फ आए थे, भाग तो तुम गई थी.

जाने-जाने की तरह खड़े दीपक काण्डोई ने प्रोफेसर से कहा कि जाना था, तो मुझसे कहे होते. वह हमारी ही फिल्म थी. हमारे साथ बाक्स में बैठ कर देखते. फिर कभी जाना हो तो कहना, पास मिल जाएगा. अपना नम्बर तुम्हारी पत्नी को दिया है.

दीपक काण्डोई बांग्ला के महान फिल्मकार सुकुमार देव के असिस्टेंट थे और उनका मुँह सिग्नेचर की तरह महकता था.

पत्नी ने बतलाया कि वह दीपक को थियेटर के समय से जानती है. जब वह मुम्बई के भीतचित्र थियेटर में गज-अजगर संग्राम पर कथकली का नृत्य प्रस्तुत कर रही थी. दीपक उसी थियेटर में काम करते थे. इस नृत्य में एक हाथी नदी में पानी पीने जाता है और दलदल में फँस जाता है. एक अजगर हाथी का पांव पकड़ कर पानी में खींचता है और हाथी बाहर निकलने की कोशिश करता है. जिसमे गज और अजगर दोनो का अभिनय एक ही कलाकार को करना होता है. यह बहुत ही मेहनती अभिनय है- कहते-कहते पत्नी थक गई. पत्नी के चेहरे पर लगभग ढ़ाई घण्टे तक खोए रहने की थकान भी अलग से दिखती थी.

उस रात का खाना पत्नी बाहर से खा कर आई थी और प्रोफेसर ने कहा कि हमे भूख नहीं है. भूख नहीं है, अमूमन भूख नहीं है की तरह ही था.

सुबह प्रोफेसर ने पत्नी से कहा कि तुम्हारे दोनों पाँव के तलवे रात भार हल्के बुखार में जल रहे थे. मैने उसपर हिमताज का तेल मला.

पत्नी ने कहा कि रात भर रेगिस्तान में चलने से मैं थक गई हूँ. तुम तेल नहीं मलते तब फोड़े उठ सकते थे, इसलिए तुम्हे महाविद्यालय नहीं जाना चहिए.

प्रोफेसर ने कहा कि ऐसी जगहों पर मत जाया करो, नहीं तो चप्पल पहनने में दिक्कत होगी और तुम आंगन में भी नहीं चल सकोगी और कि आज मुझे महाविद्यालय जाना चाहिए.

प्रोफेसर को तैयार होते देख पत्नी समझ गई कि आज वे महाविद्यालय जरूर जायेंगे. पत्नी ने तुरन्त छुट्टी की हँसी हँस दी. पत्नी चाहती तो बारिश की हँसी भी हँस सकती थी, पर वे छाता लेकर जा सकते थे. छुट्टी की हँसी में प्रोफेसर थक गए और उन्हे लेट जाने का मन हुआ.

पत्नी जब चूड़ा भून कर लायी तब प्रोफेसर को लगा कि शाम हो गई है. प्रोफेसर अक्सर शाम को भूना चूड़ा खाते-खाते अपने दादा की बातें करते थे. चूड़ा के साथ प्रोफेसर ने जब पत्नी से अचार मांगा तब हुआ ये कि ऐन उसी पल पत्नी अचार वाली हँसी भूल गई.

पत्नी परेशान हो गई, लाख कोशिश की पर अचार की हँसी याद नहीं आई सो नहीं आई. इस तरह दो दिन बीत गए. इस बीच परेशान पत्नी ने लाख जोर-जुगत किए, तरह तरह की सिनेमाई हँसी हँसी, पर कोई भी हँसी अचार से मेल नहीं खाती थी. इन दो दिनों मे पत्नी ने ‘निबुड़ा-निबुड़ा’ और ‘इमली से खट्टा इश्क-इश्क’ जैसे तिहत्तर गाने गाए पर सब बेकार.

प्रोफेसर पत्नी की इस भूलने वाली घटना को भूल जाते पर हद तो तब हो गई जब उसके अगले सप्ताह के शुक्रवार की शाम पत्नी सरसो की हँसी भूल गई. प्रोफेसर तब चिन्तित हुए जब पत्नी ने कहा कि वह सरसो के साथ-साथ पीले रंग की हँसी भी भूल गई है.

प्रोफेसर पत्नी की इस भूलने वाली आदत से साँझ-साँझ की तरह रहने लगे. मद्धिम-मद्धिम. बुझा-बुझा. महज एक ही मौसम के अंतराल में पत्नी सारे रंगों की हँसी भूल गई.

गर्मी की एक बेरंग दोपहर में प्रोफेसर जब अपनी पचास मिनट की क्लास से बाहर निकले तब काफी बेहाल थे. शर्ट-पैंट में धूल-गर्द लगे हुए थे. टाई खुली थी और प्रोफेसर पसीने से थक-बक थे.

बकौल स्टुडेण्ट्स कि प्रोफेसर पचास मिनट की क्लास में सिर्फ नौ मिनट लेक्चर दिये थे. उस नौ मिनट के लेक्चर में प्रोफेसर ने मानव मस्तिष्क मे उत्पन्न होने वाले विकारों को रसायन पर सिद्ध किया और उसमें होने वाले परिवर्तन को लक्षित करते हुए मानव के आदिम अवस्था पर बात करने लगे थे. और बाकी के एकतालीस मिनट वह पूरे क्लास में सिर्फ गुलाटियाँ मारते रहे थे. मुँह बिचकाते रहे और रोते रहे. उनका पूरा शरीर पसीने से लथपथ था. चेहरे और गर्दन की सारी नसें फूल कर तन गईं थीं और उनका मुँह कुछ-कुछ बंदरों जैसा हो गया था.

उन्ही दिनों उनींदी हालदार को पिछले छह रातों से नींद नही आई थी. और उसका घर अलकोहल के साथ-साथ हाइड्रोजन, हिलियम, लिथियम, बेरियम, बरेलियम आदि रसायनों से गंधाता रहा था और एक बेकाबू नशे में डोलता रहा था.

नारियल के पेड़ से एक के बाद एक, घर के आंगन में कई मौसम उतरे और चढ़ते हुए बीत गए. इन बीतते मौसमों में पत्नी को अचार की हँसी याद नहीं आई सो नहीं आई. रंग और गंध से रिक्त पत्नी की हँसी से पूरा घर सादा-सादा लगता था. सरसो की पीली हँसी के साथ-साथ पत्नी जीरा, अजवाइन, धनिया, पंचफोरन, कालीमिर्च, हल्दी- देखते-देखते पूरे मशाले की हँसी भूल गई.

…और उस जाड़े की एक चटकमटक रात में सबसे पहली बार घर की सब्जी बेस्वाद हुई थी.

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कि.मी

कथापुर

3 comments
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  1. एक और अच्छी कहानी. बधाई.

  2. narration is very good…thanks.

  3. kab kahani shuru hui aur kab khatam hui pata nahi chala

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