देशकाल: रामकुमार तिवारी
खाली मैदान के उस पार से गुजरती सड़क पर लोग आ-जा रहे थे. बस स्टैण्ड पर माते की टी-स्टाल के सामने बेंच पर जहाँ जयंत बैठा था, वहाँ से चेहरे ठीक-ठीक नहीं दिख रहे थे, लेकिन गौर से देखने पर पहचान में आ जाते थे. साइकिल पर सवार डी.पी. को देखते ही जयंत ने तुरंत पहचान लिया. जिसने भी डी.पी. को साइकिल चलाते हुए देखा है, वह धूल भरी आंधी में भी पहचान जायेगा और देखते ही बोलेगा- वह देखो, साइकिल पर सवार डी.पी. जा रहे हैं. डी.पी. सड़क पर पैदल जा रहे हों तब हो सकता है पहचानने में भूल हो जाये, लेकिन साइकिल चलाते हुए नहीं.
डी.पी. यानी द्वारिका प्रसाद अग्रवाल पढ़ने की उम्र में ही खासे मोटे-ताजे थे. घुटने तक उनकी जांघें रगड़ खाती थीं. पैदल चलने में उनकी चाल में एक खाये-पिये घर की मस्ती थी लेकिन साइकिल चलाने की धुन ने उनकी चाल को अनोखा ही नहीं, चर्चित भी बना दिया था. साइकिल पर सवार होकर जब वे बायें पैडल पर जोर लगाते थे तब उनका बायां हाथ भी इतना जोर लगा देता था कि साइकिल का हैंडल दाहिनी ओर मुड़ जाता था. और ठीक इसी तरह जब दाहिने पैडल पर जोर लगाते थे, तब दाहिना हाथ अपने जोर से साइकिल को पहले से ज्यादा बायें मोड़ देता था. इस तरह से उनकी चाल इतनी ज़िक-ज़ैक होती थी कि उनको देखते ही सड़क की चौड़ाई कम हो जाती थी और वे अक्सर किनारे के किसी गड्ढे में पहुंच जाते थे. माहौल कुछ इस तरह बन गया था कि सड़क के गड्ढे भी डी.पी. से शरारत करने लगे थे.
साइकिल पर सवार होकर डी.पी. जब सीधे चले जा रहे हों तब किनारे का गड्ढा शरारतन ठीक उनके बीचों-बीच आ जाता और उनकी चाल को भंग करके, अपनी हंसी को अंदर ही दबाये भाग जाता था. डी.पी. भद्दी-भद्दी गालियां देने के बाद अंत में दांत पीसकर कुछ इस तरह देखने लगते, जैसे पी.डब्लू.डी. मिनिस्टर को खोज रहे हों.
जब डी.पी. ढलान पर उतर रहे हों और चलाने के लिए अतिरिक्त बल न लगाना पड़ रहा हो, तब उनकी नजरें सामने के दृश्य में से किसी एक को चुन लेती थी. जैसे ही उसे पता चलता कि डी.पी. की नजरों ने उसे चुन लिया है, वह समझ जाता, अब भागने का कोई मतलब नहीं है. टकराना ही उसकी नियति है. तब वह स्वयं आकर डी.पी. से टकरा जाता था.
एक दिन डी.पी. बिना टकराये मस्ज़िद वाली गली तक आ गये. सड़क सुनसान थी. सिर्फ एक भैंस सड़क पर अकेली चली जा रही थी. डी.पी. ने भैंस से बचने के लिए अपनी इंद्रियों को सचेत किया लेकिन उनके हाथों ने साथ नहीं दिया. हाथों ने हैंडल को कुछ इस तरह मोड़ा कि साइकिल सीधे भैंस से जा टकराई. भैंस इसके लिए तैयार नहीं थी. वह पीड़ा से कराहती हुई संभव दिशा में जान बचाकर भाग गई.
अब क्या था! सड़क पर डी.पी. पड़े थे और साइकिल उन पर सवारी गांठे थी. सूनी सड़क कुछ इस तरह चुप थी, जैसे कह रही हो- मैंने कुछ नहीं देखा! लेकिन सड़क और डी.पी. के बीच का यह सूनापन बहुत देर तक बरकरार नहीं रह सका. मिनट भर में ही सामने की मस्ज़िद वाली गली से जयंत आ गया. जयंत ने डी.पी. के ऊपर से साइकिल उठाई. साइकिल उठते ही डी.पी. पड़े-पड़े भैंस के मालिक को गरियाने लगे- “साले!… भैंस को आवारा छोड़ देते हैं, जैसे… बाप की सड़क हो!”
कभी-कभी तो लगता था, डी.पी. साइकिल कहीं पहुंचने के लिए नहीं, सिर्फ टकराने के लिए ही चलाते थे.
डी.पी. को याद करते हुए जयंत के चेहरे पर एक मुस्कुराहट तैर गयी. उसने हाथ के गिलास को देखा, उसमें चाय नहीं बची थी. जयंत ने टी-स्टाल के लड़के को एक और चाय लाने का संकेत दिया.
चाय की चुस्की लेते हुये जयंत ने फिर से मैदान के उस पार से गुजरती सड़क की ओर देखा, लेकिन सड़क दिखाई नहीं दी. इस बार ‘न्यू पैलेस’ होटल आंखों के सामने से नहीं हटा, उल्टे उसका बोर्ड चमकता हुआ उसे घूरने लगा. जयंत की आवाज़ अंदर ही रह गई, जिसे वह सड़क से गुजरते हुए अपनों को देना चाहता था.
उसे लगा, उसके सामने कोई रेल की पांत बिछी है और उसकी आपातकालीन मरम्मत चल रही है, जिस पर कोई ट्रेन बहुत धीरे-धीरे गुजर रही है. बोगियों की खिड़कियों से बिना झुर्रियों वाले चेहरे एक के बाद एक, मुस्कुराते हुए गुजर रहे हैं…. गुजर रहा है समय के अन्दर समय, जीवन के अन्दर जीवन. कितने निर्मम वृत समय के वलय बनाते हुए खिंचते चले आ रहे हैं- जैसे हर वलय के लिए उसने नया जन्म लिया हो- एक और मृत्यु के लिए.
जयंत को अपने अंदर कुछ फंसा-सा महसूस हुआ. वह अपनी परछाई-सा उठा और एस मोड़ को पार करता हुआ उसी सड़क पर आ गया, जो खाली मैदान के पीछे से गुजरती है. अब मैदान खाली नहीं रहा. उसमें होटल और मकान बन गये हैं.
सड़क पर शायद कोई एक्सीडेंट हुआ है. जमा भीड़ के बगल से, जहाँ से जगह मिल रही है, लोग भागे चले जा रहे है. वक्त में सने चेहरे पहचान में नहीं आ रहे हैं. जयंत अपने को एकदम अजनबी महसूस करने लगा. वह मुख्य सड़क छोड़कर पोस्ट ऑफिस जाने वाली सड़क पर आ गया. पोस्ट ऑफिस वाली सड़क पर उसे कुछ राहत मिली. उसने पोस्ट ऑफिस की इमारत को देखा. उसमें वही पहचान थी, जो वर्षों पहले बनी थी, जब वह पिता जी को चिट्ठी लिखने के लिए पहली बार पोस्टकार्ड खरीदने आया था.
शहर में अंग्रज़ों के ज़माने के कई बंगले थे, जिनमें देश के स्वतंत्र होने के बाद सार्वजनिक विभागों के कार्यालय खोल दिये गये थे. पोस्ट ऑफिस भी किसी अंग्रेज़ ऑफिसर का यूरोपियन शिल्प का खूबसूरत बंगला था. उसके अहाते में कई कद्दावर पेड़ थे. एक दिन जब वह पोस्ट ऑफिस में चिट्ठी पोस्ट करके लौट रहा था तो उसने देखा जामुन के पेड़ के नीचे कोई साइकिल सहित पड़ा है. जयंत के मन ने कहा “जरूर डी.पी. होगा.’’
जयंत जामुन के पेड़ की ओर तेजी से लपका, वहाँ डी.पी. नहीं, कोई और था. उसका हाथ साइकिल के पहिये में दबा था और वह पसीने से लथपथ था. कहीं बेहोश तो नहीं हो गया. जयंत ने पड़े हुए व्यक्ति के कंधे को हिलाया- ‘‘क्या हुआ? कहीं चोट तो नही लगी?’’
जमीन पर पड़े व्यक्ति ने आंखें खोलीं और जम्हाई लेते हुए, सहज भाव से पूछा ‘‘क्या बजा है?’’
‘‘साढ़े चार बज गये होंगे! चार बजे मेरा कॉलेज छूटता है और यहाँ आते-आते आधा घंटा और लग गया होगा.”
उन सज्जन ने साइकिल के पहिऐ की तिल्लियों में से बड़े आराम से हाथ निकाला. जयंत को आश्चर्य हुआ, किसी का हाथ इस तरह कैसे तिल्लियों में फंस सकता है. उसने पूछा- “ हाथ में चोट तो नही लगी.’’
‘‘नहीं, चोट-वोट कुछ नहीं, हाथ तो मैं सोते समय जान बूझकर तिल्लियों में फंसा लेता हूं, जिससे आराम से सो सकूं. हाथ तिल्लियों में फंसे होने के कारण साइकिल की चोरी का डर नहीं रहता. मैं यहाँ से अड़तीस किलोमीटर दूर अपने गाँव से आता हूं और तीस किलोमीटर दूर पहाड़ी गाँव जाता हूं. वहाँ मैं मिडिल स्कूल में पढ़ाता हूं. आज धूप तेज थी, जामुन की छांव देखकर मन हुआ कुछ सुस्ता लूं. थकान से नींद गहरी आ गई. तुम क्या करते हो? ”
‘‘जी कॉलेज में पढ़ता हूं.’’
‘‘कौन-सी क्लास में ?’’
‘‘फस्ट ईयर में.’’
‘‘कहाँ के रहने वाले हो ? ’’
‘‘भटपुरा के.’’
‘‘भटपुरा के रमाशंकर मिश्रा मेरे साथ पढ़ते थे.’’
‘‘वे मेरे चाचा जी है.’’
‘‘अच्छा! तुम रमाशंकर के भतीजे हो. यह तो अच्छा रहा. घर जाने पर चाचाजी को बताना, जी.पी. सक्सेना मिले थे.’’ कहते-कहते सक्सेना साहब खड़े हो गये. जयंत ने साइकिल उठाकर उन्हें पकड़ा दी.
साइकिल पकड़ाते-पकड़ाते जयंत बोला- ‘‘मैं यहीं थोड़ी ही दूरी पर किराये का कमरा लेकर रहता हूं, आप हाथ-मुंह धोकर निकल जाइयेगा.’’
‘‘ठीक है, चलो तुम्हारे कमरे पर चलते हैं.’’
सक्सेना साहब ने बढ़िया रगड़-रगड़ कर हाथ मुंह धोया और फिर खटिया पर बैठ कर लोटा भर पानी पिया. पानी पीते ही बोले- ‘‘कुएं का पानी बहुत ठंडा और मीठा है. आनंद आ गया.’’
सक्सेना साहब ने अपनी जेब से छोटी-सी डायरी निकाली. डायरी में कुछ लिखा, फिर हिसाब जोड़कर बोले- “ चार सौ छयासी रूपया आठ आना…”
जयंत चुपचाप खड़ा रहा. सक्सेना साहब ने समझाते हुए कहा- “ पहले मैं सप्ताह में एक बार बस से आना जाना करता था. फिर एक दिन सोचा, क्यों न एक नई साइकिल खरीद लूं और उसी से आना-जाना करूं. बस से जाने में तीन-तीन बस बदलनी पड़ती थी और ऊपर से घंटों इंतज़ार भी करना पड़ता था. कुल दूरी अरसठ किलोमीटर ही तो है. साइकिल खरीदे दो साल तीन माह, दस दिन हो गये हैं. जितना किराया मुझे बस वालों को देना पड़ता- वह मैं, जब भी जितना चलता हूं, इस डायरी में लिख लेता हूं. आज यहाँ तक आने में अगर मैंने साइकिल न खरीदी होती तो चार सौ छयासी रूपया आठ आना बस वालों को दे चुका होता, जबकि यह साइकिल मैंने दो सौ अठारह रूपये में खरीदी थी.”
हिसाब ठीक-ठाक करके डायरी को जेब में रखते हुए सक्सेना जी बोले ‘‘अब चलता हूं. आठ बजे तक घर पहुंच जाऊंगा. वैसे तो मैं हर शनिवार को शाम चार बजे स्कूल से निकलता हूं और रात नौ-दस बजे के बीच घर पहुंच जाता हूं. घर से रविवार की शाम छह-सात बजे निकलता हूं और यहाँ बस स्टैण्ड में उसी तरह तिल्लियों में हाथ फंसाकर सो जाता हूं. सुबह चार बजे उठकर, नदी में स्नान, ध्यान करते हुए ठीक नौ बजे स्कूल पहुंच जाता हूं. आज स्कूल में बच्चे नहीं आये. पास के ही गाँव में मेला लगा है. वैसे तो मैं चार बजे ही निकलता हूं, लेकिन आज जब बच्चे ही नहीं थे तो मैं बैठा-बैठा क्या करता, इसलिए जल्दी ही निकल आया. चलो अच्छा रहा! दोपहर भी ढल गई और तुम से भी मुलाकात हो गई.’’
‘‘आप आते-जाते यहीं आ जाया कीजिये, ठीक से आराम हो जाया करेगा.’’
‘‘ठीक है, चलता हूं.’’
जयंत ने देखा, जे.पी. सक्सेना साहब साइकिल के केरियर में मजबूत रस्सी से अपना थैला बांधे, चले जा रहे हैं. वे जाते हुए लगातार दिख रहे हैं. ओझल नहीं हो रहे हैं, जैसे अरसठ किलोमीटर की सड़क एकदम सीधी हो और सिर्फ उन्हीं के साइकिल चलाने के लिए बनाई गई हो.
पोस्ट ऑफिस वाली सड़क से जयंत भट्ट के बंगले की ओर जाने वाली सड़क पर चलने लगा. कुछ ही कदम चलने पर जयंत को अनुभव हुआ कि सड़क उसे अपनी ओर खींच रही है. उसके चलने में अतिरिक्त उमंग आ गई, वह रोमांचित हो उठा. सड़क के दोनों ओर के मकान अपनी आकृतियों के साथ प्रकट होने लगे, जैसे रात में गुल हुई बिजली एकाएक आ जाए और हर घर से प्रकाश झांकने लगे.
वह सड़क के बायीं ओर रूक गया. मकान में लगी नेम प्लेट को पढ़कर उसकी आंखें सोचने लगीं- संदीप अग्रवाल! यह तो जे.मसीह का मकान है, जिन्हें मुहल्ले के सारे लोग पापाजी कहकर संबोधित करते थे. पापा जी शाम होते ही मकान के बाहर बाल्टी भर-भरकर पानी का छिड़काव करते, झाडू लगाते, चार कुर्सियां बाहर निकाल कर, बीच में एक छोटा-से स्टूल पर अखबार रख कर कुछ इस तरह बैठ जाते, जैसे अपनी कुर्सियों के साथ प्रतीक्षा कर रहे हों.
वह, उमेश, अशरफ एक-एक करके आ-आकर बैठ जाते और अखबार को बांटकर पढ़ने लगते. जब अखबार पूरी तरह पढ़ा जा चुका होता तब वे चाय बनाकर ले आते. चाय पीते-पीते पापा जी अपने बचपन और जवानी के किस्से सुनाते. किस्से रोज ही लगभग वही होते थे, लेकिन उनको सुनते समय बोरियत या चिढ़ नहीं होती थी. पापा जी के व्यवहार में एक गहरी आत्मीयता थी. उनके पास बैठने से जहाँ पूरे दिन का रूटीन टूटता था, वहीं रोज शाम को बैठने का अपने आप में एक रूटीन बन गया था.
इस बीच क्या हुआ? पापा जी नहीं रहे या मकान बेच कर कहीं चले गये. मकान संदीप अग्रवाल को बेच दिया या किराये पर दे दिया? एक अरसा हो गया! पापाजी तो बुजुर्ग थे, शायद न रहे हों! लेकिन उनके छोटे पिंटू का क्या हुआ, जिसकी शादी तय होने के बाद टूट गई थी और फिर उसकी शादी नहीं हुई थी. उसके पास सफेद पैंट-शर्ट और सफेद जूतों का सेट था, जिसे उसने न जाने किस फिल्मी हीरो के प्रभाव में जुटाया था. उसके पास एक साइकिल भी थी, जिसे चलाते हुए वह कभी-कभी ही दिखता था. अधिकतर वह साइकिल पकड़े हुए पैदल ही किसी न किसी से बातें करता हुआ ही दिखाई देता था. इतने सारे लोगों से वह क्या और कैसी बातें करता होगा, यह सभी की समझ से परे था.
आसपास के मुहल्लों में कहीं भी बारात आती तो पिंटू को पता चल जाता. वह अपनी सफेद पोशाक पहनकर, गले में लाल रंग का छोटा-सा स्कार्फ बांधकर वहीं, जहाँ बारात रूकी हो पहुंच जाता और फिर देर हो रही है जैसा भाव चेहरे पर लाकर, बारात को जल्दी तैयार होकर चलने का निवेदन करने लगता. बारात निकलते ही वह आगे-आगे किसी ट्रैफिक पुलिस की तरह मोड़-मोड़ पर दिशा-निर्देश देते हुए लड़की वालों के द्वार तक जाता और फिर इस तरह गुम होता कि पता नहीं चलता. पहले तो लोगों का अनुमान था कि पिंटू शायद डिनर की जुगाड़ में यह सब करता है. लेकिन पिंटू को कभी किसी ने जब खाना खाते नहीं देखा तो यह सब उसकी सनक का हिस्सा मान लिया गया. सबको यह जानकर आश्चर्य जरूर होता कि किसके यहाँ शादी है, यह पिंटू को कैसे पता चल जाता है.
पापा जी का परिवार कहाँ गया? किस हालत में है? दरवाजे पर नेम प्लेट न लगी होती तब वह बेहिचक अंदर चला गया होता, फिर अंदर चाहे अग्रवाल साहब का ही परिवार क्यों न रह रहा होता. लेकिन इस नेम प्लेट ने वर्षों पुरानी आत्मीयता पर कैसा अजनबीपन बिखेर दिया है.
पापा जी के ठीक सामने सड़क के उस पार श्रीवास्तव साहब का मकान है. पहले आधे प्लाट में मकान बना था और आधे खाली प्लाट में एकदम पीछे दो कमरे बरामदे के साथ बने हुए थे. जिनमें गाँव से पढ़ने आने वाले लड़के किराये से कमरा लेकर रहते थे. उन्हीं दो कमरों में से किनारे वाले कमरे में जयंत रहता था और दूसरे में उमेश.
अब उस खाली प्लाट में मकान बन गया है. पीछे वही बरामदे वाले दो कमरे हैं या उन्हें तोड़कर पूरा का पूरा नया मकान बन गया, पता नहीं चल रहा हैं.
जयंत जब यहाँ रहता था तब अक्सर अपने कमरे में लेटा-लेटा सड़क को देखता रहता था. उसे दरवाजा से खुला स्पेस सिनेमा की स्क्रीन की तरह लगता था. जिसमें से लोग रील के दृश्य की तरह गुजरते रहते थे. कभी-कभी वह भूल जाता कि सामने से गुजर रहे लोग वास्तविक हैं या किसी सिनेमा की तरह आभासी.
एक दिन वह कॉलेज से आकर खटिया पर लेटे-लेटे सामने दरवाजे की चौखट से जितना आकाश दिख रहा था, उसमें से उड़-उड़कर जाती हुई चिड़ियों को गिन रहा था. उसी समय चिड़ियों का एक छोटा-सा झुण्ड आकाश में दिखकर ओझल हो गया. उसकी गिनती गड़बड़ा गई.
वह आकाश छोड़कर सड़क पर गुजरने वालों को देखने लगा. देखते-देखते उसकी आंखें फंस गईं. एक चिड़िया सड़क के समांतर उड़ती हुई… फुर्र से उड़ गई…नहीं.. नहीं… वह चिड़िया नहीं! उसका आकार और उड़ान चिड़िया से भिन्न थी. वह कुछ-कुछ स्वप्न में देखी परी जैसा ही कुछ अनुभव था. वह दौड़कर सड़क पर पहुंचा. सड़क खाली थी. कहीं कुछ नहीं. उसे कोई भ्रम तो नहीं हुआ ? नही भ्रम कैसा ! कहीं उसे झपकी तो नही आ गई. नहीं झपकी कैसी? उसके थोड़े ही पहले वकील साहब स्कूटर से गुजरे थे. वह ठीक-ठीक देख रहा था.
वह रोमांचित हो उठा. उसने जीवन में जितना, जो कुछ देखा था, उससे वह एकदम भिन्न और अप्रत्याशित था. अपने इस विलक्षण अनुभव को वह किसी से बांट नहीं सकता. आस-पास कॉलेज में पढ़ने वाले लड़के रहते थे, आपस में हंसी-मजाक खूब होता था. किसी ने जरा-सा भी मौका दिया कि चार-छह महीनों के लिए उसकी पीठ पर कोई ना कोई टाईटिल चस्पा हो जाता था, जिसका पता उसे बहुत बाद में चलता था और कभी-कभी तो पता भी नहीं चलता था. सभी लोग हंसते रहते थे. कथा चलती रहती थी.
उस दिन जयंत अकेले ही घूमने निकल गया. उसकी आंखों में उसी बड़ी चिड़िया-सी परी या परी-सी चिड़िया की स्मृति बार-बार कौंध रही थी. वह शाम को घटित हुए के अनुभव से, अपनी मित्र मंडली से एकदम भिन्न हो गया था. यहाँ तक कि अभी तक जिये हुए अपने जीवन से भी, वह एक अलौकिक रहस्य भरी जादुई दुनिया के आस-पास पहुंच गया था.
दूसरे दिन जयंत सड़क की ओर देखता हुआ उसी प्रतीक्षा में खटिया पर लेटा था कि हो सकता है, आज फिर वह दिखे. उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा! वही आकृति कुछ और वास्तविक होकर सामने से गुजर गई. यह तो एकदम साफ हो गया, वह कोई चिड़िया नहीं थी. वह एक परी थी, जो एक लय में साइकिल चलाती हुए या उड़ती हुई सामने से गुजर गई थी.
अब जयंत रोज शाम पांच बजे के बाद किसी न किसी बहाने सड़क पर आ जाता और परी गुजर जाती. कभी उसे लगता, वह साइकिल पकड़े उड़ रही है और कभी वह अपने पंख स्थिर रखे है और साइकिल चला रही है. कभी-कभी उसके पंखों के रंग बदल जाते थे लेकिन उसके मुस्कुराते चेहरे का भाव वही बना रहता था.
एक शाम जयंत ने परी को चलते हुए देखा. वह साइकिल पकड़े अपनी सहेली से बातें करती हुई पैदल ही जा रही थी. जयंत का मन परी की आवाज़ सुनने के लिए विकल हो उठा. वह किस तरह बोलती है, उसकी आवाज़ कैसी है? अपनी जिज्ञासा में वह करीब गया लेकिन इतने करीब न जा सका कि आवाज़ सुन सके. हाँ! एक बार उसकी हंसी की खिलखिलाहट ही उसे सुनाई दी, जो उसके कानों में भर गई और रह-रहकर रात भर गूंजती रही.
उस दिन उसने एक और रहस्य को भी जाना कि परी अपने पंख, अपनी ओढ़नी में छुपाकर रखती है. उसके पास रंगों से भरी सुन्दर ओढ़नी है. जब वह साइकिल चलाती हुई गुजरती, तब उसके पंख ओढ़नी के नीचे हवा में फैल जाते हैं. इसलिए जयंत कभी नहीं जान पाया कि वह साइकिल चलाती हुई उड़ रही है या उड़ती हुई साइकिल चला रही है.
जयंत के सामने कोई न कोई रहस्य रोज ही प्रकट होने लगा. जयंत को पता चल गया कि भट्ट के बंगले से वह दाहिनी ओर मुड़ जाती है और फिर मुख्य सड़क पर पहुंचकर बायीं ओर.
धीरे-धीरे जयंत जान गया कि कौन-से मकान के बरामदे में अपनी साइकिल रखकर वह अंदर रहने चली जाती है. सड़क वाली खिड़की के पास उसकी मेज कुर्सी है, जिस पर वह रात में साढ़े दस बजे और एक दिन तो बारह बजे तक पढ़ती रही थी.
मुख्य सड़क पर परी के घर से आगे दूल्हा बाबा का मंदिर है. जयंत रात को तीन-तीन बार दर्शन के लिए जाने लगा.
एक दिन जयंत ने देखा, वह उसी बरामदे में खड़ा है जहाँ परी की साइकिल रखी थी, जयंत को विश्वास नहीं हुआ. उसने अपने को छुआ, वह हक़ीकत में बरामदे में खड़ा था. क्या साइकिल वास्तविक है? उसने साइकिल की घंटी का लीवर दबाया. घंटी बज उठी. उसका दिल जोर से धड़कने लगा. कहीं परी यह न मान ले कि मैं जान बूझकर आया हूं. परी से बात करने की विकलता ने सारी स्थिति के पार ले जाकर उसे बरामदे में खड़ा कर दिया था. यह क्या? परी सचमुच सामने खड़ी थी और वह खड़ा था.
‘‘क्या है.’’
‘‘कुछ नहीं… गुप्ता जी से मिलना है.’’
‘‘यहाँ तो कोई गुप्ता जी नहीं रहते.’’
‘‘फिर यहाँ कौन रहता है.’’
‘‘यहाँ तो मेरे पिताजी रहते है और उनका नाम श्री राम रतन चतुर्वेदी है.’’
‘‘आपके पिता जी क्या करते हैं?’’
‘‘वह तो कृषि विभाग में हैं.’’
‘‘फिर गुप्ता जी और कहीं रहते होंगे. वे तो मलेरिया विभाग में हैं….सॉरी…”
जयंत लम्बे-लम्बे डग भरता हुआ सड़क पर आ गया. वह बहुत खुश था, आज उसने परी की न सिर्फ आवाज़ सुनी, बल्कि परी से बात भी की. वह उसी तरह बातें करती है, जैसे कोई लड़की करती है. वह भी उसी तरह अपने मां-पिताजी के साथ रहती है, जैसे हम सब रहते हैं. तो क्या परी एक लड़की है!
आज उसका सुख वास्तविक होकर इतने पास आ गया था कि स्वप्न और वास्तविकता के कोई अपने देश काल नहीं रह गये थे. दोनो एक हो गये थे. वास्तविकता कभी स्वप्न के पास आकर धूप में बैठ जाती. कभी स्वप्न वास्तविकता के बरामदे में जाकर साइकिल की घंटी बजा देता.
कैसे दिन थे जयंत के. कभी उसे लगता उसके पंख उग आये हैं और वह उड़ रहा है. उस दिन वह उड़ते-उड़ते वहाँ पहुंच गया, जहाँ सड़क किनारे पीले फूलों से लदे पेड़ के नीचे परी खड़ी थी. आज उसने सलवार-कुर्ता नहीं पहना था और न ही पंखों को छुपाने के लिए कोई ओढ़नी डाली थी. आज तो वह साड़ी पहिने थी. उसने अपने पतले-पतले हाथों से साड़ी को थोड़ा उठा रखा था. शायद साड़ी के वजन को सम्हालने के लिए. उसकी पतली कमर से साड़ी फिसली जा रही थी. उसकी नाभी में विलक्षण गुरूत्व था, जो तमाम भंवर गतियों के साथ उसे खींच रहा था. वह सड़क पार कर परी के पास कब पहुंच गया, पता ही न चला और न जाने कब, कैसे वह परी से पूछ बैठा ‘‘तुम्हारी साइकिल कहाँ है?’’
परी को हंसी आ गई. उसने हंसते हुए कहा-‘‘घर पर है. साड़ी पहिनकर साइकिल थोड़े ही चला पाती. आज सरस्वती पूजा है इसलिए सभी सहेलियों ने साड़ी पहिनी है.’’
वह कुछ बोलता इससे पहले सामने के मकान से साड़ी पहिने परी की सहेली निकली और वह सहेली के साथ चली गई. जयंत बहुत देर तक उसी पेड़ की नीचे खड़ा रहा. पेड़ से पीले फूल झरते रहे.
उसी दिन होनी हो गई थी. जयंत को विश्वास नही हो रहा था. विश्वास कैसे होता? वह अपने कमरे में खटिया पर लेटा था कि परी वही साड़ी पहिने, उसके कमरे में आई और खटिया पर बैठ गई. उसने जयंत के सिर को अपनी गोद में रख लिया. जयंत ने अपने चेहरे को परी के पेट में धंसाकर नाक को नाभी में रखकर जैसे ही लम्बी सांस ली- देह गंध और स्पर्श से उसका रोम-रोम सिहर उठा. उसकी देह में कैसी जीवंतता थी, जैसे समूची देह सांस ले रही हो. स्पर्श, तड़ित की तरह पूरी की पूरी देह में कौंध रहा था और लहू में आबाध गति से बह रहा था. कहीं वह सपना तो नहीं देख रहा है. उसने आंखें बंद किये ही पूरी कमर को चारों ओर से स्पर्श किया. उसकी नाक अभी भी नाभी से देह गंध खींच रही थी. नही यह कोई सपना नहीं है, यह तो सपने का सच है.
कभी-कभी वह अपनी मां के पेट पर सिर रखकर आंखें बंदकर लेट जाता था. मां इतनी मोटी थी कि उसका चेहरा पेट में ही समा जाता था. उसने फिर परी की पतली कमर और सुतवां पेट पर हथेली फेरी, लेकिन अपनी नाक को नाभी से नही हटाया. यह तो वही पेट और नाभी है, जिसे उसने सड़क किनारे पीले फूलों से लदे पेड़ के नीचे देखा था और अभी इन्हीं पलों में उसी की देह गंध और छुअन में वह बह रहा है… डूब रहा है… उतरा रहा है.
किसी के आने की आहट से परी ओझल हो गई थी. लेकिन वह लेटा रहा था, उसी तरह, देह गंध और स्पर्श में लिपटा हुआ.
जयंत ने सामने बने मकान के पीछे अपने उसी कमरे को देखना चाहा, जहाँ परी अपने स्पर्श और देह गंध के साथ उसमें छूट गई थी. उसकी नजरें नये बने मकान के सामने की दीवार में अटक गईं. वह सड़क किनारे के उसी पीले फूलों से लदे पेड़ के पास चल दिया, जिसके नीचे साड़ी पहिने परी को कभी देखा था.
पेड़ कहाँ गया? यहीं तो था! सामने के इसी मकान से तो परी की सहेली निकली थी. उसने अपनी आंखों से पूछा. उनमें परी की वही छवि है- झरते फूलों के नीचे साड़ी पहिने हुए. उसने अपनी ऊंगलियों को देखा, उनमें वही स्पर्श है और जब सांस अंदर खींची तो देह गंध अपनी ताजगी के साथ समूची देह में भर गई. सब कुछ उतना ही जीवंत सांस लेता हुआ, धड़कता हुआ.
जयंत वहाँ से उसी भाव दशा में चलता हुआ सड़क से उतर कर बरामदे में आ गया. बरामदे में साइकिल नहीं है. उसने कुंडी बजाई. अन्दर से गमछा लपेटे एक सज्जन प्रकट हुए. जयंत ने नमस्ते की. उन्होंने मुस्कराकर कमरे में रखी कुर्सी की ओर इशारा कर बैठने के लिए कहा और अंदर चले गये, शायद किचन में. अन्दर बर्तनों की आवाजों के बीच कुकर की सीटी की आवाज़ आई.
जयंत ने कमरे को देखा. कमरा लगभग खाली-सा है. उस कुर्सी को छोड़कर, जिस पर वह बैठा है, एक और कुर्सी रखी हुई है. दूसरी तरफ दीवाल से सटकर एक खटिया बिछी है. एक कोने में खिड़की के पास पानी से भरी बाल्टी रखी है. कमरे की दीवारों में जगह-जगह कीलें ठुकी हैं. खाली कीलें. कभी उन पर कैलेंडर और चित्र टंगे रहे होंगे.
थोड़ी देर में वही सज्जन अन्दर से आये और ‘‘अभी आया’’ कह कर फिर चले गये. जयंत ने खिड़की से बाहर देखा. सड़क के उस पार, आम पेड़ के ऊपर आकाश में चिड़ियों का झुण्ड उड़ता हुआ ओझल हो गया. उसने आकाश देखते हुए अपने से कहा- आज जहाँ वह बैठा है, यह वही कमरा है जिसमें कभी परी रहती थी. इसी खिड़की के पास बैठ कर परी पढ़ती थी और सड़क पर चलते हुए वह इसी खिड़की से अन्दर झांकता था.
आज वह अन्दर बैठा बाहर को देख रहा है. उसी तरह, जिस तरह कभी परी देखती होगी. एकाएक उसे अनुभव हुआ, उसके अन्दर से परी ही आकाश देख रही है. उसे अपनी धड़कनें परी की धड़कनों की तरह महसूस हुई. वह एक ऐसे विलक्षण सुख से भर गया, जो अभी तक अपने को अनुभव किये हुए से एकदम भिन्न है.
बाहर से हवा का झोंका अन्दर आया. बाल्टी के पानी की सतह में हल्की लहरें उठी, जिससे बाल्टी पर पड़ रही धूप के कारण दीवार के ऊपर एक छोटी-सी इन्द्रधनुषी रंगों की चाप बन गई, जो हवा के संग रह-रहकर हिलने लगी. जयंत को लगा, दीवार मुस्कुरा रही है.
वह दीवार को मुस्कुराते हुए देख ही रहा था कि अन्दर से हाथों में चाय के दो कप पकड़े वही सज्जन प्रकट हुए और एक कप चाय जयंत की ओर बढ़ाते हुए कहा ‘‘लीजिये चाय पीजिये… और बताईये क्या काम है?’’
‘‘जी! मैं बाहर से आया हूं, बहुत पहले यहाँ रामरतन चतुर्वेदी जी रहते थे.’’
‘‘नही! यहाँ तो पिछले आठ वर्षों से मैं ही रह रहा हूं. आप कब की बात कर रहे हैं?’’
‘‘कोई बीस वर्ष पहले की.’’
‘‘तब कहाँ पता चलेगा बीस वर्षों में तो कौन कहाँ है, कोई नही बता सकता. वे किस विभाग में काम करते थे ?’’
‘‘ कृषि विभाग में थे.’’
‘‘हो सकता है सेवानिवृत्त होकर अपने गाँव चले गये हों या उनका ट्रांसफर हो गया हो.’’
‘‘हो सकता है….”
कमरे में कुछ देर तक मौन पसरा रहा.
जयंत ने जल्दी से अपनी चाय खत्म की- “ अच्छा चलता हूं. नमस्ते… बहुत-बहुत धन्यवाद.’’
‘‘नमस्ते.’’
जयंत लम्बे कदम रखता हुआ सड़क पर आ गया. उसके सामने से एक छोटा बच्चा आहिस्ता-आहिस्ता साईकिल चलाते हुए निकल गया. जयंत ने पीछे मुड़ कर बरामदे की ओर देखा. उसे लगा, वह लौट कहाँ रहा है? वह तो लगातार जा रहा है.