आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

यक शहर ए आरज़ू: प्रत्यक्षा

घर जैसा घर नहीं

घर घर था. चार दीवारें थीं. दीवारें तो चार के अलावा भी थीं. सरन को कई बार लगता कि घर में चलते चलते अचानक उसके सामने कोई ऐसी दीवार उग जायेगी जो उसको किसी खास तरफ जाने से रोकेगी. सरन जब चलती तब कुछ ऐसे ही एहतियात से फूँक फूँक कर कदम रखती जैसे अब अभी उसके सामने कोई रोक है. इरावती जबकि मुन्ही चिड़िया सी फुदकती घर में.

घर की रवायत कुछ अजीब सी थी. चीज़ें जैसी होनी चाहिये थीं उसके ठीक उलट होतीं. इरावतीजाने कितने साल की थीं पर थीं ऐसी जवान और सरन उलट. घर भी उलट ही था. दिन में सोता और रात को जागता. किर्र मिर्र किर्र मिर्र आवाज़ें उठतीं. लकड़ी के फाँक से हवा दर्राती हुई गुज़रती. काठ की सीढ़ियाँ अपनी ही भार से दबी काँखती कराहतीं. ऊपर का कमरा जाड़ों की अँगीठी के धूँये से काला पड़ा अजीब सोंधेपन की गँध छोड़ता. जैसे गर्मी कोने साँधियों में और छत की बल्लियों से उलटा लटका धीमे धीमे चूता. लकड़ी के चौकोर खिड़कियों में जड़ा शीशा किसी भाप से धुँआता नम रहता जिसपर पानी की बूँदे टेढ़े मेढे निशान के भित्तिचित्र उकेरतीं. कमरे में भूरा अँधेरा छाया रहता ऐसा जैसा बिलास सँवर ने न कहीं देखा न भोगा. उसके शरीर को धीमे धीमें छूता जज़्ब होता. जीभ पर और त्वचा पर कसैला स्वाद छोड़ता. लेकिन ये कमरा बिलास का कहाँ था.

नीचे के बड़े कमरे में ऊँची बड़ी खिड़की के बगल में लेटा बाबुन बाहर देखता. ऊँचे पतले जहाज़ जैसे पलंग पर बाबुन को उचक कर चढ़ना पड़ता. पलंग के नीचे भी एक पूरी दुनिया थी. ऊपर की दुनिया से ज़्यादा रोमाँचक. पलंग के पाये मजबूत थे ऐसे जैसे हाथी ने अपने भारी पाँव जमाये हों. ये खिड़की हमेशा खुली रहती. खिड़की से शहर को जाने वाली सड़क दिखती. खिड़की के अंदर से घर की दुनिया दिखती.

घर जैसा घर था वैसा नहीं था. जो भीतर से था वही बाहर से नहीं था. बाहर से दिखने वाला घर अलग था. भीतर रहकर दिखता घर कुछ और था. जैसे सरन थी. बाहर से पतली साँवली कटे बाल वाली. भीतर से बड़ी बड़ी बहुत बड़ी, बहुत उदार, बहुत सबकुछ. इतना सब कि उसकी साँस घुट जाती सोचते.

घर भी सोचता कितना बीत गया कितना रीत गया. पलस्तर सीमेंट के पीछे झाँकती ईंटों की दुनिया. लकड़ी के दीमक खाये बुरादों के पीछे स्वाहा हुये साल. धूप से जला सर्दियों से जमा बारिश से भीगा, कितने मौसम का हारा घर. चिमनी से निकलता धूँआ ढलवे छत से फिसलता बरामदे पर टँग जाता. शाम कैसी कालिख सनी, उदासी से लिपटी गिरती, ऐसे जैसे सुबह जो हुई थी कितनी खुशगवार हुई थी, किसी दूसरी दुनिया का भोर हुआ होगा.

संदूकचे से निकली फैली चीज़ें अचक्के घर की बल्लियों को देखतीं. पुराने कालीन, चाँदी रंग की मछली कीड़े की खाई हुई ऊनी लोई, ढीले छेददार उघड़े पर अब भी चटक रंगों वाले पुलोवर, पुराने ग्रामोफोन रिकार्डस, तामचीन की प्यालियाँ, पुरानी तस्वीरें. पिछवाड़े वाले कमरे के पीछे का बरामदा घाटी पर लटका अब गिरा कि तब गिरा जैसा अधर में लटका होता. सरन को उधर जाते हमेशा दिक्कत होती. जैसे उसके भार से ही बरामदा चटक कर टूट जायेगा और फटे बारूद सा घाटी में गिरेगा. वैसे सरन को कई चीज़ों से दिक्कत होती. दिक्कत तो उसे बिलास से भी होती.

और बाबुन से क्या कम होती ? ओह ! ये पागल कर देने वाला बच्चा जो जब तब उस पिछवाड़े बरामदे की दीमक खाई रेलिंग से घाटी में झाँकता फिरता. सरन का दिल उसके मुँह में आ गिरता.

घर के दीवार की लकड़ियाँ काली सख्त खुरदुरी थीं. कहीं कहीं जाने कितने बार के स्पर्श से खूब चमकीली और नरम भी थीं. ऊँची बल्लियों पर टिका छत अँधेरे और कभी छनकर आती रौशनी में डूबा रहता. हॉल के परले कोने में पुरानी हिलने वाली कुर्सी छोटे से दरी के टुकड़े पर ऐसे बैठी रहती जैसे इंतज़ार में हो. घर की सब चीज़ें ऐसे ही इंतज़ार में टिकी रहतीं. आओ इस्तेमाल करो.

बाबुन को याद है पहली बार का देखा घर. पहाड़ी टीले की फुनगी पर टिका जैसे अब उड़ा अहा घर.

सरन सोचती जैसे मैं रहती हूँ इस घर में और कौन रहता है ? माँ तो नहीं. माँ तो जाने कहाँ रहती है, यहाँ कम और बाकी सब ज़्यादा. बाबुन जाने कहाँ फिरंट रहता है, पकड़ पकड़ लाया जाता है, फिर भी घर घर है इसलिये कि सरन उसे घर बनाये हुये है. घर जैसे उसके कँधों पर टिका है और उसके कँधे कितने दुखते हैं.

घर में इधर उधर डोलते देखती है, छूती है, सोचती है, बस यही दीवार और यही फर्श और यही ज़रा सी धूप और कितनी कितनी ठंडी हवा ? घर देखता है उसे चुप देखता है, ठहर कर देखता है, हल्की साँस भरता है, फर्श चरमराता है, बदन तोड़ता है, लकड़ियाँ अपना सम तोड़ती हैं, फिर लौटता है, देखता है, लड़की अपने चेहरे पर हज़ार चिंताये सजाये, माथे पर टिकुली साजे घुटनों पर सर दिये किस दुनिया,में खोई है. घर घर नहीं होता. उस वक्त उसका राज़दार होता है. उसके साथ के साथ साँस की सम और संगत बनाये एक साथ धड़कता है, हब डब हब डब, हवा में झूलता है दायें फिर बायें फिर दायें, फिर धीमे दुलार की मुलायमियत में कराहता है, सरन चौंक कर देखती है, चौकन्ना सर उठाये कुछ देर फिर लौटती है. घर अब फिर घर है. चार दीवारों से घिरा एक महफूज़ स्थान, सर छुपाने और बिस्तर में दुबक कर सो जाने की जगह.

बाबुन अपने जहाज़ पलंग पर लेटा सोचता है, रेलगाड़ी का ऊपर का बर्थ है जिसपर कितनी तो मशक्कत से चढ़े और अब नीचे उतरने का उपाय नहीं और ये कि ऊपर से नीचे की दुनिया कितनी अलग है, सिर लटका कर नीचे देखो तो सब चीज़ उलटी नज़र आती है, रावी के मुलायम बबूशा से चप्पल, फर्श की लकड़ियों पर गोल गोल चकत्ते निशान, एक अकेला मोटा चींटा, जंगल में घास के बीच लाल मखमल वाला कीड़ा और चमकते सुनहरे हरे रंग की ड्रैगन फ्लाई, उलटा लटका नाश्ते के कटोरे सा नीला आसमान. उलटा सब उलटा, उलटी ज़मीन उलटा आसमान. बाबुन की आँख में सपना भर जाता है और सपने के कोर नींद अटकती आती है बेसानगुमान.

घर चुपके हँसता है बेआवाज़. एक पल को लगता है, भेड़ चराने वाले चरवाहे को कि मेमसाहब वाली लाल कोठी अभी फुनगी पर टिकी गिरी गिरी फिर टिकी. आँख मलता हैरानी में और अपने बेवकूफी में सर हिलाता घर की तरफ पीठ करता, हा हा हा हा भेड़ों को हाँकता, अपने चमरख जूतों से गर्द झाड़ता आँखें मिचमिचा सूरज देखता दिन का समय थाहता है.

वीरवार हाट का दिन

बदली भरे दिन में धूप की पतली रेख है. बहुत गहमा गहमी में संगीत-सा शोर है. खुशनुमा दिन. खुश रहना चाहिये, ऐसा इरावती ऐलान करती है. सरन न देखे बाहर देखती है, धीमे बुदबुदाती है, ऐसा क्या है खुश होने के लिये. जत्तनमोगां की पहाड़ी के ढलान पर हाट लगता है. हर वीरवार. मोमजामे बिछाये ज़मीन पर असबाब सजाये. लाल सेब से गाल वाले बच्चे चेरी चेस्टनट और प्लम बेचते. लिफाफे में खट्टी गोलियाँ, लाल मनको की माला, पहाड़ी की चोटी पर देवी जी के मंदिर पर बाँधने के लिये लाल कपडे में बँधी छोटी घँटियाँ, लकड़ी के खिलौने और रसोई के सामान, जड़ी बूटियाँ, मोजे और टोपियाँ. तिब्बती हाट भी लगता है उस दिन. सरन के मतलब की चीज़ें तिब्बती हाट में मिलती हैं. कढ़ाई वाले रूमाल, पतले पारदर्शक मोजे, लेस वाले ब्रेसियर, रंगीन छापे वाली चड्डियाँ, ऐसी मुलायम झीनी सोने वाली नाईटी कि सरन सोच कर शरमा जाये. पर इरा के साथ सरन वहाँ पाँच मिनट नहीं टिक पाती. इरा उठा उठा कर एक एक ब्रा ऐसे नापती तौलती है कि सरन का बदन संकोच और शर्म से सिकुड़ जाता है. इरा फिर कुछ अलमस्त तरीके से हँसती उस चौड़े चेहरे वाली तिब्बती से हँसी मज़ाक करती सरन को टोकती निकल जाती है.

सरन चाहती है एक वीरवार वो अकेली आये. एकदम अकेली. बाबुन भी चाहता है एक बार अकेला आये. फिर टीले पर मंदिर के पिछवाड़े घाटी पर ऐसे ही उतर जाये जैसे अकेला हो. सरन आँखें मिचमिचाती बाबुन को देखती है. जैसे सब उसके भीतर का समझ लेगी. साथ साथ तीनों चलते ऐसे चलते हैं जैसे अलग दुनिया में चलते हों. कोने पर की नेगी की दुकान जो पहाड़ी पर ऐसे टिकी है कि ज़रा कोई छू भर दे अब गिर जाये नीचे, वहाँ एक भीड़ जुटी है. गरम चाय की कुल्हड़, खस्ता कचौरी और खट्टे बेरियों की चटनी, आलू के गुटके. दोने के ढेर एक तरफ, मक्खियाँ भिनभिनाती, हवा में कुहासे की महक, लोगों के मुँह से भाप के गोले छूटते हैं. बाबुन इरा का हाथ खींचता है,

रावी एक दूरबीन चाहिये.

इरा को राणा जी दिखते हैं, चौक पब्लिक लाईबरेरी के लाईब्रेरियन. लाल पके गाल वाले बहुत सी कहानियों वाले राणा जी बाबुन को पसंद हैं. बाबुन दूरबीन भूल जाता है. इरा तेज़ कदम से बढ़ती है. तराई पर सेब के बगान की बाबत उनको खबर होगी. राणा जी का घर उधर ही है. सरन पीछे छूट जाती है.

सरन हमेशा पीछे छूट जाती है. छूट जाना चाहती है. कपड़े के झोले में फुर्ती से सामान भरती सरन पक्की गृस्थिन बन जाती है. सिंगल कंदीला आलू हरी मिर्च सेब पीच बेरी.. जाने कौन सी सब्ज़ियाँ और फल. बिलास की पसंद, इरा की और बाबुन की. उसी फुर्ती से एक पतीला, पिछला टूटा था, छ प्याले, एक झाड़ू, एक पतला तौलिया, एक झाडन, प्लास्टिक के दो मग्गे, और एक बाल्टी. झबरीला एक पिल्ला कूँ कूँ करता उसके पीछे चलता है. ज़रा देर को सरन किनारे की बेंच पर बैठती है. धूप की बची खुची किरणें टेढेपन में आँखों पर गिरती हैं. ठंड गिरती है. बगल में अंगीठी जलाये बूढ़ा बालू में सिंके मूँगफली और आग पर पकाये चेस्टनट बेच रहा है. सरन एक लिफाफा खरीदती है. नीचे घाटी देखती एक एक फली टूँगती है. इरा और बाबुन का अता पता नहीं है.

सरन कुछ नहीं सोचती. सिर्फ धूप का फीका होना देखती है, नीचे की घुमावदार सड़क पर बसों का कराहते धीरे मेहनत से चढ़ना देखती है, ऊँचे चीड़ के पेड़ से छनती साँझ के अँधेरे की आहट देखती है. उसके नाक के कोने सर्द हैं. उँगलियाँ जम रही हैं. सरन को ठंड ज़्यादा लगती है. दो लड़कियाँ उसकी तरफ ताकती अपने में बतियाती मगन सीढ़ीयों से निचली सड़क पर उतर जाती हैं. सेकरेड हार्ट की दो नन उसे देख हँसती हैं. उनके हाथों में फलों से भरे झोले हैं. सरन अचकचा कर खड़ी हो जाती है,

गुड इवनिंग सिस्टर थेरेसा, सिस्टर ऐन

गुड इवनिंग चाईल्ड, हाउ इज़ योर मदर ?

फिर जवाब का इंतज़ार किये बिना, शॉल और स्कार्फ अपने सफेद हैबिट पर कसती वो स्कूल की तरफ उतर जाती हैं. सरन फिर बेंच पर बैठ जाती है.

हाट की चहल पहल अब थके सुर में गूँजती है. दिन खत्म हुआ. पहाड़ों पर रात अचानक गिरती है. घाटी पर अचानक जगमग तारों की बौछार दिखती है, किसी ने मुट्ठी भर तारे बिखेर दिये हों.

सरन सरन !

इरा की आवाज़ गूँजती है. गाड़ी की आवाज़ के ऊपर से गूँजती भारी आवाज़. जीप के पिछवाड़े सरन सारा सामान रखती है. बाबुन अगली सीट पर बंदर जैसा बैठा है. सरन लिफाफे से पीच निकालती बाबुन को पकड़ाती है और खुद पीछे की सीट पर बैठ जाती है. जीप के हेड लाईट में अँधेरे को चीरते एक रौशनी के गोले में सड़क का आगे का ज़रा सा हिस्सा दिखता है. सड़क के किनारे की गहरी खाई नहीं दिखती. सरन जीप के रॉड से सर टिकाये इराके सर का पिछला हिस्सा देखती है. आधे पके आधे काले कँधों तक कटे घने बाल. इरा जीप तेज़ चलाती है, लगभग मर्दों जैसे, आश्वस्त हाथों से, बिना हड़बड़ाये लेकिन एक किस्म की बेपरवाह तेज़ी से.

गहरे अँधेरे में अचानक किनारे किसी जँगली जानवर की आँख चमक जाती है, कोई जंगली बिलार. सरन को रात में इस तरह जाना बेहद डरावना लगता है. इरा का एक हाथ ज़रा काँपा कि पूरा परिवार खाई में खत्म. इरा ज़ोर ज़ोर से कोई बचपन का अँग्रेज़ी गीत गा रही है,

फाईव हंड्रेड माईल्स अवे फ्रॉम होम

बाबुन बेसुरे इरा का साथ दे रहा है. सरन ठंड में अँधेरे में आँखें फाड़े जाने किस भय और नफरत से भरी काँपती है. बाबुन चीखता है

सरन तुम भी गाओ न

दूर, कहीं दूर अचानक घर की चमकती बिजली की रौशनी सरन के शरीर को ढीला करती है. ऊपर के कमरे की रौशनी जलती है. बिलास है. जीप सड़क के घुमाव में घूमती है और घर की रौशनी अगले मोड़ तक ओझल. सामने पोर्च पर कमज़ोर सी रौशनी है. गाड़ी की आवाज़ पर बिलास उतरता, दरवाज़ा खोलता आता है. सरन सामान उतारती तेज़ी से बिना कुछ कहे भीतर घुसती है. अभी पल भर पहले बिलास का होना, उस ठंडी अँधेरी रात में रौशनी के ताप का होना, जाने किस सुकून से भरता फिर अचानक उसे रीतता है.

बाहर इरा का गाड़ी लगाना, बाबुन की लगातार चहक और बिलास के जलते सिगरेट की टिमटिमाती रौशनी का हर कश पर अँधेरे में तेज़ और कम होना, सरन देखती है. मेज़ पर सामान रखते उसका पैर तैमूर पर पड़ता है और अचानक एक तीखे गिजगिजाहट से उसका जी भन्ना जाता है.

“तैमूर मैं तुम्हें किसी और को दे आऊँगी एक दिन”

उसकी आवाज़ धीमी पर कठोर है, इतनी कि तैमूर एक पल को गर्दन निकाले भौंचक तकलीफ में उसे देखता है.

सारंगी सुर

शाम बड़ी उदासी में गिरती है. सरन का दिल भारी, साँस भारी. इरा तुम समझोगी नहीं | कोई भी नहीं इस बड़े जहान में. कितनी अकेली मैं, कितनी. मछली के गलफड़ में बिंधे काँटे जैसा गड़ता है ये अहसास. छाती इतनी भारी साँस इतना और इतना अकेलापन. कि बस मर जाये सरन, बस इसी वक्त.

खिड़की के बाहर नीचे ढलान पर जाती पगडंडी पर कोई रंगीन कपड़ा लहराता है, क्षण भर. कमरे में धब्बा धब्बा अँधेरा है. सरन की आँखों के आगे है दरअसल. काठ की आलमारी के एक पल्ले पर शीशा जड़ा है. शीशा उम्र की मार से धुँधला गया है. उस पर भूरे चकत्ते हैं, ठीक खड़े होने पर जहाँ सरन का चेहरा हो ठीक वहीं. अपनी शकल देखने सरन को ज़रा सा झुकना पड़ता है. उसके घुटने मुड़ जाते हैं. शीशे के किनारों पर लहरिया बेल बूटी है. उभरे पत्तीदार. सरन झुकती है, चेहरा चकत्ते के नीचे से उभरता है. बड़ी बड़ी स्याह उदास आँखें. सरन धीरे से अपने चेहरे को पोछती है. दायें फिर बायें. गाल की हड्डी को रगड़ती है. लाल निशान उभरता है. होंठों को सिकोड़ती है, खींचती है. आईने का चेहरा बनता बिगड़ता है. सर्कस में रखे जादू के शीशे में लम्बा आड़ा खिंचता शीशा.

अपने दुबले शरीर को घेरते सरन बैठ जाती है अँधेरे में. उसकी उदासी भी घुटने मोड़ कपड़े समेट बैठती है, सखी सहेली गुईंया.

कहाँ निकल जाऊँ क्या कर लूँ, ओ माँ ओ माँ

जानती है सरन कि जिस माँ को पुकारती है वो जाने कौन आश्वस्ति का एहसास है, कोई इंसान नहीं, इरा नहीं. फिर भी पुकारती है.

छत से कुर्सी सरकाने की भिंची खराशदार आवाज़ आती है. सरन अचानक मुस्कुराती है

ओ बी एस साहब आप ही बताओ क्या करें कहाँ जायें ?

इस कमरे की छत उसके कमरे की फर्श हुई, ये एक ही जगह घेरना, ये एक और इंसान का होना कुछ दूरी पर. ये एक मर्द का होना इतने निकट.

सरन का बदन झुरझुरी से सिहरता है. जी में आता है बस इसी वक्त बाबुन को खींचकर छाती से लगा ले.

खिड़की के शीशे से कोई कीड़ा आकर टकराता है. भद्द से नीचे गिरता है.

सरन का दिल जुगुप्सा में एक पल को धड़कता है फिर थम जाता है. अँधेरे की खबर अँधेरे को नहीं.

बाहर इरा की आवाज़ गूँजती हुई आती है, बीच में बीच में बाबुन की. फिर ज़ोर की हँसी, जैसे पारा टूट कर बिखर गया हो. सरन कमरे का दरवाज़ा खोलती बाहर आती है. उसके भीतर तमतमाहट की आग भक्क से उछलती है. उफ्फ कैसे बेशऊर

माँ तुम्हें अंदाज़ा है आज क्या हुआ ?

इरा चौंक कर देखती है, क्या ?

फिर बिना जवाब पाये बाबुन की बात में फँस जाती है. सरन दो पल गुस्से से भभकती खड़ी रहती है फिर हताश कँधे झुकाये कमरे में लौट पड़ना चाहती है. सीढ़ी से उतरता बिलास सँवर देखता है इस दृश्य को, जैसे किसी ड्रामा का नाटकीय क्षण हो जब उसे एंट्री करनी हो. स्टेज सेट है. सरन ऊपर देखती है उसे, ठिठका हुआ. नीचे उतरे या ऊपर फिर कमरे के सुरक्षित खोल में दुबक जाये की दुविधा में अटका

सरन किसी घोर शर्मिन्दगी में नहा जाती है. जैसे उसे किसी ने नंगा देख लिया हो, उसके होशोहवास में देख लिया हो. और उसके जान लेने को जान लिया हो. उसका मन उसके शरीर से निचुड़ जाता है. और उसे ठीक ठीक पता है कि बी एस साहब को ये पता है. बिलास झटके से इस जानने को झटकता सीढ़ी उतरता निकल पड़ता है.

सरन सोचती है कैसी ज़िंदगी ? इससे तो मौत बेहतर. साफ बिस्तर पर लेटूँ, हाथों को छाती पर बाँधू और आँखें मून्द लूँ, बस इसी वक्त और मर जाऊँ सुकून से. यही एक निजात. मर जाना जी जाने के मुकाबले कितना सरल कितना सहज.

बन्द दरवाज़े के नीचे से कोई लिफाफा सरकता आता है. सरन कौतुहल में झुकती खींचती है. खोलती है. तस्वीरें हैं, दस पन्द्रह बीस. सब ब्लैक ऐंड व्हाईट. झुके कँधे और झुर्रीदार चेहरे वाला ओवरकोट और हैट पहने बूढ़ा, बच्चे की चमकती आँख, किसी गली की सुनसान सड़क, अनजान घरों के मोटे नक्काशीदर दरवाज़े,घुमावदार सड़क पर बर्फ का अँबार. जाने कौन सी अनजान रहस्यमय दुनिया. मोटे खुरदुरे कागज़ पर लूटी हुई दुनिया. उस बूढ़े को पता होगा कि कितने किलोमीटर दूर, कितने समन्दर पार इस छोटे से पहाड़ी कस्बे में कोई ऐसे मोह से उसे देखता होगा. सरन किसी काँपती खुशी में उँगलियाँ फिराती है तस्वीरों पर.

फिर धीरे से मुस्कुराती है, शुक्रिया बी एस साहब

दाढ़ी, झाग और प्याला

कमरे में सुबह की हल्की धूप खिली है. ठंड की खुनक नाक के कोर, कान के लव और उँगलियों के पोर पर तितली सी बैठती है उड़ जाती है. त्वचा पर हल्के खिंचाव और रूखेपन का ऐलान करती है. शीशे पर अब तक भाप जमा है. धूप की गर्मी से पानी की बून्दों में तब्दील होता नीचे फिसलता है. सरन देखती है शीशे पर अब्स्ट्रेक्ट चित्रकारी को. भीतर कुछ हुमसता है, खुशी जैसा कुछ.

अरसे बाद धूप का निकलना शरीर में फुर्ती भर देता है. बाहर नाश्ते की खटपट की आवाज़ है. सरन जानती है जब तक उसका हाथ न लगे इरा दस चीज़ों की शुरुआत करेगी खत्म कोई न होगा.

बाबुन को एक गिलास दूध एक उबला अंडा और एक सेब पकड़ा कर सरन बैठ जाती है. ऊपर से झाँकता बिलास गर्म पानी की फरमाईश करता गायब हो जाता है. छोटी सी बाल्टी में खदबदाते उबलते पानी को ले सरन सीढियाँ चढ़ती है. दरवाज़े के पास जाकर पुकारती है धीमी आवाज़ में

बी एस साहब, ओ बी एस साहब

पैर से दरवाज़ा ठेलती है. कमरे से लगे छत के हिस्से पर नज़र पड़ती है. लकड़ी के स्टूल पर बैठा और टूटी मेज़ पर छोटा आईना रखे बिलास चेहरे पर झाग फैलाये, झुका दाढ़ी बना रहा है. उसकी पीठ नंगी है. उसके बाल उसकी गर्दन पर थोड़े घुँघराले होते हुये चिपके हैं. उसके नीचे उसकी गर्दन लालिमा लिये गोरी है. उसकी पीठ पर बायें कँधे पर एक लाल मस्सा है और कमर के पास वाले हिस्से पर हल्का नीला लहसन का निशान.

सरन एक नज़र में सब देख लेती है. उसने अब तक कोई मर्द ऐसे नहीं देखा है. उसने अब तक कोई औरत तक ऐसे नहीं देखी है. इरा चाहे कितनी बेफिक्र अलमस्त हो, सरन ने अब तक उसके घुटने नहीं देखे हैं, उसकी नंगी बाँह नहीं देखी है, उसकी छाती नहीं देखी है. सरन ने अब तक सिर्फ बाबुन देखा है. उसकी मीठी महक सूँघी है, उसके बचकाने सेब से नन्हे गोल गोल मुलायम बम्स देखे हैं, उसकी छोटी भोली पिप्पी देखी है. अब बाबुन भी देखने कहाँ देता है. इसरार करता है कि नहलाते वक्त तौलिया लपेटे रहे. सरन को हँसी आती है. बित्ते भर का छोकरा और इतना नखरा.

कपड़ों से ढका बिलास हड़ियल दुबला लगता है. कपड़े उसके कँधों से ऐसे गिरते हैं जैसे उनके भीतर ठोस कुछ न हो. उसके चेहरे पर दो दिन की दाढ़ी, उसकी लम्बी हडीली उँगलियाँ, उसका लम्बा कुछ झुका कद.. उसके बड़े बड़े डग जैसे कहीं जल्दी पहुँच जाने की बेचैनी हो, उसका लम्बे समय तक बिना बोले बिना हिले स्थिर बैठना जैसे जहाँ हो वहाँ साँस रोके इसलिये बैठा हो कि एक साँस भर की हलचल अगर हुई तो उसकी हड़बड़ बेचैनी उसका दम तोड़ देगी..इन सब में सरन को वो किसी और समय का प्राणी लगता था. जैसे उसका होना भी न होना था. कि वो रहकर भी कहीं और का था. एल्सव्हेयर ऑलवेज़. पूरा पूरा समूचा यहाँ इस घर में, इस कमरे में नहीं. उसकी आवाज़ जिन शब्दों को उच्चारती थी उसमें एक घुमावदार गोलाई होती जैसे पानी से चिकना हुआ पत्थरऔर उस होने में लगे इतने बरस की छाप, और उन बरसों की पकी हुई थकान. उसके बोलने का तरीका एक किस्म की अजनबियत में उस तक पहुँचता. उसकी आवाज़ किसी गहरे बीहड़ जँगल से किसी इंटेस तकलीफ से गुज़रती नाचती पहुँचती लेकिन इस पहुँचने में कोई बेचारापन नहीं था. बल्कि ठीक उलट एक बेपरवाही थी. एक दबंगपना था.

सरन बिलास को नहीं देख रही थी. किसी और पुरुष को देख रही थी. बिना कपड़ों के उसका शरीर लचीला मजबूत दिख रहा था, उसकी त्वचा में चमक थी. उसका शरीर उसके चेहरे के मुकाबले आश्चर्यजनक रूप से जवान था. सरन उस एक पल की हैरानी में अपने भीतर की किसी और लड़की को भी देख रही थी.

ये देखना बाहर और भीतर सब एक कौंध की देख में था. उसकी रौशनी उसके भीतर हल्के हल्के फैलती चल रही थी. उसके गर्दन के रोंये जग गये थे, उसकी कानी उँगली का नाखून धड़क गया था.

बिना आवाज़ किये उसने गर्म पानी की बाल्टी दहलीज़ पर रखी, मुड़ी और सीढ़ी के पहले पायदान पर पैर रखते, भरसक मामूली आवाज़ में ज़रा ज़ोर से, कंठ पर बिना कोई सम दिये ठहरी आवाज़ में कहा

बी एस साहब, आपके लिये गर्म पानी रख दिया है, उठा लीजिये

दूसरी सीढ़ी पर एक सेकंड रुककर उसने इसबार ज़रा और ज़ोर से दोहराया. फिर कुछ पल रुकी रही. फिर एहतियात से और खूब धीमे धीमे एक एक पायदान का जैसे स्वाद लेते, नीचे उतरी और हर पल सोचती रही, उस पल को बीते अब तीन पल हुये, अब चार, अब पाँच फिर एक दिन एक महीना एक साल, पर फिलहाल अभी अभी बस अभी तो ये हुआ है, ताज़ा है, अभी और इस ताज़े हुये की खुशी उसके भीतर एक पल को ऐसी तीव्रता से लहराई कि अपना होना अचानक होना लगा, पूरी सार्थकता में. गोकि बाद में उसे इसी बात पर बेहद तकलीफ का एहसास भी होना था. पर उस वक्त इस चिरगिल्ली सी चीज़ से ऐसी बेईंतहाई खुशी होगी इस बात का बेफकूफाना अंदाज़ भी था.

जो होते तो क्या होते और कितना

क्या क्या होते और कितना होते?इतने होते जितना खुद को न समझ सके और इतने जितना आपने न समझा,जितना आपने देखा उतना भी हुये और उससे ज़्यादा भी और खुद के देखे खुद के बाहर भी हुये
ऐसा कहते उसकी कंठ एक पल को थरथराई पर आवाज़ एक सम पर आकर अब रुकना चाहती है का उदास संगीत भी बजा गई.

हमारे दायरे में जितने लोग आये हम उतने उतने भी हुये,उनके देखे जितने हुये,उनके देखे के बाहर भी हुये और उनके देखने में खुद को देखते, और भी हुये. तो ऐसे हम हुये कि एक न हुये, जाने कितने हुये

होना कितनी तकलीफ को कँधों पर टिकाये घूमना है. सोते हुये सपने देखना है और उससे भी ज़्यादा जागे हुये देखना है. बिलास इतना तो जानता है, कई बार इसके आगे भी जानता है लेकिन सब जाना हुआ सब बताया जाये ऐसा ज़रूरी तो नहीं.

आपको मैंने अपने सब सपने सुनाये. है न ?

इस बार उसकी आवाज़ में पहाड़ी तराई में घुमक्कड़ भेड़ों के झुँड की टुनटान घँटी थी.

बिलास ने कुछ नहीं कहा था. उसका कुछ कहना लाजिमी नहीं था. सिर्फ सुनना लाजिमी था. शायद सुनना भी नहीं था. सिर्फ होना ज़रूरी था. ठंडी रात में किसी का होना सिर्फ.

शीशे पर अँधेरा डोल रहा था. उसकी आवाज़ किसी गुफा से निकलती थी,जिसमें मर्मांतक टीस की रेखा थी. बीच रात इस प्रश्न का क्या जवाब हो सकता था ?

मेरे पास ऐसी बातों को सहेजने के औजार नहीं. बिलास अपने मन के कोने पर एक उँगली रखता देखता है. मैं कहीं और चला आया हूँ, तुम तक नहीं हूँ.

उसकी पतली देह सतर सीधी आगे पीछे डोलती है. उसके कँधे थरथराते हैं. वो दोहराती है

आपको मैंने अपने सब सपने सुनाये, है न, वो भी जो मैंने अबतक देखे नहीं

बिलास के सपने से बाहर निकलते देखती है खुद को और इस देखने में खुद से बहुत बड़ी हो जाती है. कितना मैं होना चाहती हूँ, तुम्हारे देखे के भी आगे कितना कितना कितना

ऐनी आपा किताब की एक पंक्ति से हुलक कर निकलती हैं कहती हैं,बस इतनी कहानी, मोरे बचवा होना तो जाने क्या क्या चाहिये था ?

धुँआ धुँआ बेचैन परिन्दा

दो दिन बाहर रहना था. बाहर रहने के ख्याल से ही सरन को झुरझुरी होती है. भीतर कोई बारिश लगातार होती है. अँधेरा हमेशा गिरता है. त्वचा खिंचती है, हमेशा. इरा कहती है, सब साईको सोमैटिक है. इरा ये भी कहती है कि ये सब उसे अपने पिता से मिला है. इरा सही कहती है. सरन ने कभी इरा को लाचार नहीं देखा है. उस रात भी नहीं जिस रात की खबर सरन को कभी ठीक से नहीं हुई. सिर्फ ये पता रहा कि उस रात कुछ ऐसा हुआ था जिसे इरा कभी बतायेगी नहीं. सरन चाहे लाख सर पटक ले. कितने दाँव पेंच खेल ले, गुस्सा हो ले, रूठ ले. इरा टस से मस नहीं होगी. और इस अड़े रहने में कोई नाटक भी नहीं करेगी. बस एकदम सहज तरीके से ऐसे रहेगी जैसे उससे कभी कुछ पूछा न गया हो. सरन का बदन धुँआ धुँआ होता है. सिगड़ी की आग सा तमक तमक जाता है.

कैसी जली लकड़ी सी ऐंठी घूमती है सरन, सुलगती हमेशा. बाहर जब रहना पड़ता है तब भी ये सुलगन भीतर अँगार बना जलाता है, शायद और भी ज़्यादा. दूसरों के साथ सहज हो जाना सरन की फितरत नहीं. इरा की है, जानती है सरन.

सब जानना भी कितना तकलीफदेह होता है. जानकर कुछ न कर पाना.

जैसे जानती है सरन कि बी एस साहब की किताबों के बीच कोई एक तस्वीर है. फोन पर सुना था सरन ने एक दिन.

तुम कहोगी तुम कहाँ यर्न करती हो मेरे लिये

सरन मन ही मन जीभ पर फिराती है इस वाक्य को. क्या माने हुये इसके ? वो चाहता है यर्न करे वो उसके लिये ? या फिर महज शब्द के खेल हैं? कोई शैतान खिलंदड़ापन था कि गंभीर संजीदगी थी. क्या था पूछ लूँ ? काश कि पूछ सकती जान सकती. छाती पर कोई हाथी अपने पाँव जमाता, रौंदता निकल जाता है.

सुनो तुमसे उधार ले लूँ तुम्हारे शब्द, कभी तुम्हारी निस्संगता ? तुम एक बार मेरी बेचैनी, मेरा आग ले लेना. हिसाब किताब बराबर.

वो न देखी तस्वीर सरन को हौंट करती है. रात कई बार सपने में काठ की सीढ़ियाँ आहिस्ता आहिस्ता फूँक फूँक कर चढ़ते, रेलिंग टटोलते सरन ऊपर पहुँचती है. नीले अँधेरे में दरवाज़ा धकेलती बिलास के कमरे में साँस रोके घुसती है. खोजती है वही किताब यहाँ वहाँ. बिलास सोया रहता है. खोजती है बेचैनी में. मुड़ती है देखती है बिस्तर पर बच्चे सी भोली नींद में डूबा चेहरा सरन का है. ओह अपने ही सपने में ऐसी सेंधमारी. सरन शर्मिन्दा होती है. दिन में कई बार उसे लगता है ओ बी एस साहब मुझे देखोगे तो मेरे भीतर झाँक पाओगे ? जान पाओगे मेरी जिज्ञासा को ? ये कैसी आँख की किरकिरी है मेरी, बताओ तो

धूप की चकमक में रात का सब सोचा गुना कितना व्यर्थ लगता है. ऐसी चकमक रौशनी हो तो भीतर का अँधेरा भी पुछ जाये. सरन के मुँह में लेकिन राख भरा है. इरा चिबिल चिबिल इधर उधर होते देखती है थोड़ी निस्संग जिज्ञासा से.

ओ लड़की सुधर जाओ ज़रा, बाबुन की संगत का ही असर हो कहीं या फिर

इसके आगे सोच को लगाम देती इरा सब झटक कर खिली धूप में बाबुन के संग निकल पड़ती है.

बाबुन एक बार बिलास की तरफ देखता है, फिर जाने किस दीवार खिड़की को बताता है, कोई झरना है, कहीं साफ पानी इकट्ठा होता है, मछलियाँ देखी जा सकती हैं, और अगर किस्मत हुई तो एकाध फँस भी सकती हैं.

बिलास सिगरेट सुलगाते,चाय की कप में राख झाड़ते, जाने किस कैमरे की कौन से पुर्जे को साफ करता बुदबुदाता है

अरे ओ तोपखाँ, देखेंगे हम भी

बाबुन के बाल सीधे खड़े हैं. सरन तीन बार पानी से भिगाकर कँघी कर चुकी है. इरा हर बार जाने कहाँ से नमूदार होकर उसके बालों को हथेर्लियों से बिगाड़ बिखरा कर फिर जाने कहाँ गायब हो जाती है.

रावी तुम मुझे पानी में खेलने तो दोगी न ? न रावी ?

बाबुन बार बार इरा के कुर्ते को खींचता है.

रावी तुम सुन नहीं रही, नहीं तो मैं अपने कछुये को डाल आऊँगा वहाँ, तुम देखती रहना

इरा बेध्यान है.

डाल आना, शायद कुछ भला हो कमबख्त का, कोई जोड़ीदार ही मिल जाये उसे वहाँ

सरन चीखती है

खबरदार बाबुन, ऐसा कुछ किया तो, मर जायेगा तुम्हारा तैमूर लंग. तीन पैर के कछुये को देखा है कभी आपने ?

सरन बिलास को मुखातिब है.

बिलास कहता है

परिवारिक मसलों में शायद मुझे नहीं पड़ना चाहिये. वैसे तैमूर लंग को सीवियर सायक्रियाटिक प्रॉब्लम है.

तैमूर लंग इन सब बातों से बेखबर मेज़ पर अपने मैराथन में जुटा है.

उनके पास शीशे की गोटियाँ हैं शतरंज की. एक पारदर्शक शीशे की और दूसरी जमी हुई शीशे की. बिसात भी आम बिसात नहीं है. लाल मोमजामे में लिपटा धागे से बँधा जिसे एहतियास से खोलती है सरन. हर चाल बहुत सोचकर समझकर. सरन का जी चाहता है कि तन्मयता से खेलते उस चेहरे को किसी बहाने छू ले. कभी ये कहकर कि बालों पर कोई तिनका है, कभी गाल पर कोई दाग और कभी हाथी घोड़ा प्यादा चलते उँगलियों को किसी तरह एक नोक भर छू लेना. सरन देखती है, उसका बदन तनाव में होता है खिंची तार सा. उसके दिमाग में खेल चलते रहते हैं. कोई हाथ उसके शरीर से निकलता है उसके चेहरे को छू लेता है. सरन का हाथ तो गुपचुप अपनी गोद में पड़ा है, निश्चल. फिर बिलास के चेहरे को छूती उँगलियाँ किसकी हैं ? बिलास देखता है सरन के चेहरे पर कोई जानकार मुस्कान है.

क्या ?

सरन आँख भर तकती है फिर दूर खिड़की के बाहर देखती है, कहती है

कुछ भी तो नहीं

इरा अखबार पढ़ती आँखों पर चश्मा सरकाते बोलती है

इस साल इतनी बारिश हुई, फलों के बगीचे जाने किस हाल होंगे, अँगूर के बेल तो जाने..

बिलास बोलता है, फ्राँस के विनयार्डस में अँगूर के जो बेल होते हैं…

सरन बीच में कूद पड़ती है, अच्छा आप फ्रांस रहे हैं ?

बिलास जरा झेंप भरी शर्मिन्दगी से कहता है, ज़्यादा नहीं, बस कुछ ही साल तो और कुछ साल.. फिर बीच में ही बात रोक कर बाबुन को ताकता है, अरे ओ तोपखाँ, तुम जो रंग रहे हो सब गलत है

बाबुन बिना सर उठाये, बिना किधर भी देखे जो कर रहा है करता रहता है. जब इत्मीनान हो जाता है कि सब फिर अपने में लौट गये हैं तब एकबार देखता है बिलास की तरफ

तैमूरलंग मेज़ के चार चक्कर लगाने के बाद ठिठकता है, रंग की प्याली के पास रुकता है. बाबुन रंग में ब्रश डुबो कर तैमूरलंग की पीठ पर लाल और पीली धारियाँ खींचता है. तमूरलंग अपनी गर्दन लम्बी कर भौंचक देखता है.

इरा खिड़की का शीशा बन्द करते बुदबुदाती है, हे भगवान इतनी बारिश. बगान में काम करने वाले मज़दूर गाँव गये हैं. तैय्यन तीन दिन पहले आया था. खबर दे गया.

दोपहर. अलसाई धूप

घास की मीठी महक है. स्वाद भी कच्चा मीठा दूध भरा. बाबुन पेटकुनिये लेटा चेहरा घास में धँसाये उनींदा पड़ा है. पेड़ की पत्तियों से छाया छन छन कर जमीन पर गिरती है. समय रुक गया है. बाबुन के मुलायम चेहरे पर नींद तितली की तरह उतरती है, उड़ती है फिर बैठती है. खुमारी में डूबता बाबुन सोचता है, जब मैं सो जाऊँ दुनिया यहीं रुक जायेगी न. जब तक जागूँ नहीं यहीं मेरे पैरों के पास सब रुका रहेगा मेरे लिये ?

कछुये का खोल में दुबक जाना ही सबकुछ है ? बच्चा पूछता है. या फिर गीली मिट्टी में जो चेरा रेंगता है और पीछे चिपचिपा लसेदार चमकीली रेखा खींचता है, वो रेखा कहाँ जाती है ? बोतल में बन्द जुगनू की रौशनी का बैटरी कब तक चलेगा ? धूप की जो गर्मी मेरे चेहरे को अभी छूती है वो कब चली थी, सूरज से ? तब जब मैं नहीं था ? ये दुनिया भी नहीं थी ? तब क्या था ? सपना था ? मैं सो जाता हूँ तब दुनिया कहाँ चली जाती है ? जहाँ भी जाती है फिर कितने बड़े पहिये होंगे जिनपर सवार फिर फट से वापस भी आ जाती होगी ? नहीं? अभी आँख बन्द करूँ तो गायब. फिर चालाकी करूँ ? जब दुनिया सोचे कि अभी तो सोया है, फुरसत है तभी पाजी बन तुरत अहा तुरत आँख खोल दूँ ? तब इसका मतलब दुनिया के आने जाने का स्विच मेरे पास. उबासी लेता बच्चा सोचता है. अब नींद आती है लेकिन मिनट भर में खोल दूँगा आँखें..यही सोचता सोचता उतर जाता है कंबल के गर्म खुरदुरे अँधेरे में.

कछुआ अपनी गर्दन लम्बी करता है एकबार दायें और एकबार बायें देखता है फिर मूड़ी गोत कर सामने चलने लगता है. खरगोश अभी तक पेड़ के नीचे कच्ची नींद में बेहोश ढुलका पड़ा है. बच्चे के मुँह से लार की एक तार ठुड्डी तक लटकती है. उसके आँखों की पुतलियाँ बन्द पलकों में नाचती हैं और धीमे से एक उल्लास उसके होंठों को छू जाता है. कछुआ चलता जाता है सोचता जाता है ये मेरा सपना तो नहीं.

तैमूरलंग बाबुन की जेब से बाहर झाँकता है. उसे कहीं से पानी की महक आती है. हज़ारों वर्षों से आ रही किसी डी ऎन ए कोड में संचित स्मृति से तैमूरलंग जानता है पानी की महक को. एक बार हिचकिचाता बाबुन को ठहर कर देखता है फिर पानी की महक की तरफ दृढ़ता से बढ़ता है.

घास की ज़मीन पर नन्हे फूलों की बरसात है. लम्बे चीड़, देवदार, बलूत चिनार, विलो और सनोबर के पेड़ हैं. कुछ साल के भी. उनकी बड़े सायादार पत्तियों पर धूप बरसती है. उनके रूखे तने पर उम्र के गोल घेरे हैं, कहीं कहीं तने और शाखों के बीच उनका रस रिसता है. भूरे पारदर्शी बुलबुले जैसी बून्दें जिनमें मीठी कसी महक होती है. जंगल अपने में स्थिर खड़ा है. पेड़ बोलते हैं आपस में, उनकी पत्तियाँ छूती हैं एक दूसरे को. उनकी सरसराहट में एक गीत है. पार्श्व में बजता कोई सांगीतिक धुन. चित्तियों सी धूप घास की ज़मीन पर गिरती है. समय ठहर जाता है. दूर कहीं से पानी बहने की आवाज़ आती है, लगातार. एक छोटा पहाड़ी झरना है जिससे सफेद झागदार पानी बहता है कलकल. फिर इकट्ठा होता है छोटे से बन्द लगभग गोलाकार घेरे में और फिर वहाँ नाचता घूमता एक तरफ से बह निकलता है. उस घेरेदार पानी की दुनिया में नीचे चिकने गोल पत्थर हैं, पानी वाली वनस्पति है, मछलियाँ हैं, कभी कभी महसीर मछलियाँ भी. पानी की सतह पर धूप आँखमिचौनी अठखेलियाँ करती हैं. पानी के गिर्द लम्बे घास, जंगली फूलों की झाड़ियाँ हैं, कुछ जंगली झरबेरियों के पौधे हैं जिनपर ताँबई पीलापन लिये लाल पके बेर लटके हैं. तितलियाँ पतंगे और भौंरों की बर्राहट से दिन नशे में धीमे डोलता है.

सब तरफ सन्नाटा है. इंसान की बोली नहीं, उसकी बनाई दुनिया की आवाज़ें नहीं. झरते पत्तों और पानी का संगीत है सिर्फ. किसी बड़े फलक पर टिका एक लम्हा जो इतना बड़ा है कि सब संसार का समय उसमें समा जाय.

बाबुन नींद की दुनिया मे गिरा. भोले बच्चे की भोली नींद और जागने पर भोली दुनिया.

तैमूरलंग धीमे चलता चलता पानी के किनारे पहुँचता है. पान से पत्ते की हरियाली नमी और सफेद बारीक शिराओं के जाल पर एक कमज़ोर पाँव रखता तैमूर धूप में किसी पगलाई गरम जीवंत कंपकंपाता चित्र का मुख्य हिस्सा है. तैमूर की पीठ पर बाबुन का रंगा रंगीन धारियों का धड़कता संसार है.

बाबुन नींद की गहराई से ऊपर आता है. उसके गाल तमतमाये हैं. उसका बदन आलस, नींद की खुमारी और दोपहर के रुके थमे हुये अल्सायेपन से गुनगुना है. कुछ देर घास की मीठी खुशबू में चेहरा धँसाये थिर पड़ा रहता है. फिर उनींदे हाथ अपने बगल में फेरता है.

उनींदी आवाज़ में पुकारता है

तैमूर, तैमूर ?

कोई सपना देखा था. शायद. उलटी हथेली से लार पोछता उठ बैठता है. जाने कितना समय बीत गया. रावी गुस्सा होगी ? न शायद सरन होगी बहुत.

फिर जैसे बच्चे होते हैं अलमस्त वैसे होता है अलमस्त और फिर चिंतित तैमूर की खोज में निकलता है, उठता है, भागता है. जानता है किधर होगा. पानी के किनारे पहुँचते देखता है तैमूर पान के पत्ते पर सजा तैमूर अपनी गर्दन निकाले पानी के सतह को मुँह से छूता तैमूर.

बाबुन की हँसी छूटती है. तैमूर हँसी सुनकर दुबक जाता है खोल में, चोटखायी नज़र से देखता है बाबुन को. बाबुन पानी देखता है. फिर झटके से अपनी कमीज़ और निकर उतारता है. नंग धड़ंग बाबुन का बदन धूप में सुबुक साफ निर्दोष दिखता है. फिर खुशी की चीख भरता, हुल्लड़ मचाता कूदता है पानी में. जानता है कोई देख ले उसे पानी में हँगामा मचेगा. रावी तक नाराज़ होगी.

पानी में तैरता बच्चा किसी फरिश्ते जैसा दिखता है. रंगीन मछलियाँ उसके चिकने बदन को छूती निकल जाती हैं. उसका चेहरा ऊपर आसमान की तिरफ, पानी नहाया खिलता है. खुशी का चेहरा.

तैमूर पानी के किनारे से देखता है बाबुन को. पानी में खेलते बाबुन को. कछुआ सोचता है, ये मेरा सपना है. उसकी पीठ पर की रंगीन धारियाँ एक दूसरे में लहराकर मिलती हैं. पानी में उतरते, बाबुन की बढ़ी हथेली में उतरते, पानी के उस हिस्से पर लाल पीले नीले रंग एक दूसरे में घुलते मिलते लहराते हैं. कुछ मछलियाँ चौंकती, धोखा खाती सतह तक तैरती हैं खोज में फिर घूम कर तेज़ी से पानी की गहराई में लौट जाती हैं सुघड़ता से. फेनिल उफनते पानी का आहलाद, बच्चे की हँसी की आवाज़ और तैरते हुये लंगड़े कछुये का चौकन्नापन, उनके ऊपर बहती धूप की रौशनी.

बिलास किसी उम्रदराज़ देवदार के पेड़ के पीछे से खड़ा देखता है. उसकी छाती भर जाती है. रात कम्प्यूटर के बड़े स्क्रीन पर दिन की धूप नहाई खुशी का एक लम्हा उस अँधेरे कमरे में हज़ार किरण जगा देता है.

बाहर तेज़ हवाओं का शोर है. अँधेरा किसी तूफानी चोट की तरह बिलास की छाती में घर करता है. फोटो देखता बिलास जाने क्यों बेहद उदास होता है. जैसे जीवन से सब खत्म हुआ ? या फिर जो खुशी दिखती थी अब कभी वो अपनी न होगी ?

पीछे से संगीत बजता है, अमोरे के वियेनी, अमोरे के वा

आवाज़ की टूटन कमरे में फैल जाती है.

बिलास सँवर: जो मैं तक ना जानता उसे कौन जाने

चित्त लेटा बिलास छत देखता है. लकड़ी के शहतीर वाली छत. कमरे में एक पलंग है, इतनी चौड़ी कि सिर्फ एक आदमी सो सके. खिड़की से लगी. लेटे लेटे बाहर देखा जा सके. रात को अँधेरा और चाँद. दिन को पहाड़ी ढलान और उसके पार घाटी में बिखरी दुनिया, वीरान जँगलात. कमरे की दूसरी खिड़की से लगा एक लम्बी नीची मेज़ है जिसपर बिलास के कैमरे और रिकार्डर रखे हैं. मेज़ के नीचे बिलास का सूटकेस. लकड़ी के वार्डरोब में कपड़े. बगल के शेल्फ पर कुछ किताबें. इतनी सी दुनिया है बिलास की.

कहाँ भाग आया है बिलास, किससे भागा है. शायद खुद से भागा है. या खुद को खोजने आया है. लेकिन यहाँ आकर उसे लगता है खुद तक पहुँचने का रास्ता और टेढ़ा हो गया है. भीतर कोई धूनी लगातार सुलगती है. यहाँ इस कमरे में ऐसे लेटे लोगों से दूर, दुनिया से दूर. कोई फोन कभी नहीं बजता.

कुमुद तुम इस वक्त कहाँ हो ? मैं हूँ तुम तक ? लेकिन क्यों सोचता हूँ इतना मैं. मैं सोचना नहीं चाहता. मैं बोलना नहीं चाहता. मैं कुछ नहीं चाहता. कुमुद सुन लो आखिरी बार, मैं कुछ नहीं चाहता, कुछ नहीं, कुछ भी तो नहीं..

सीढ़ियों पर आहट होती है. सरन है. बिलास चढ़ने की आहट से समझ जाता है कि कौन है. इरा चढ़ती है तो तेज़ी से जैसे उसके साठ साल के शरीर में कोई सोलह बरस की लड़की रहती हो. बाबुन चढ़ता नहीं दौड़ता है. और सरन ? एक एक पायदान जैसे पहली सीढ़ी हो जन्नत की या शायद दोज़ख़ की.

“खाना लग गया, आ जायें नीचे “

बिलास लेटा लेटा कहता है

“मुझे भूख नहीं “

कुछ देर के सन्नाटे के बाद निस्संग आवाज़ आती है,

“ठीक, मैं कुछ देर में सूप दे जाती हूँ, बस, फिर आपकी मर्जी खायें न खायें “

बिलास इस लड़की के झमेले में नहीं फँसना चाहता. माँ बेटी के टेढे झमेले में फँसने बिलास नहीं आया. न उस बच्चे बाबुन से दिल लगाने. न, बिलास आया है अपने को सोचने से बाहर करने.

पेड़ों की छाँह में घास पर लेटे बिलास कैमरे और रिकार्डर में अवाज़ें और दृश्य कैद करता है. मछली मारने जैसा तन्मय तल्लीन खेल. घँटों घँटों, बेसुध, बिना खाये बिना पिये. हर दिन. कई बार उसे लगा है उसके पीछे कोई खड़ा है. उसे देख रहा है. पर रिकार्डर में ऐसी कोई अनजानी आवाज़ नहीं. न कैमरे में ऐसी कोई परछाईं. कई बार दिन के गुनगुनेपन में उसे नींद आ गई है. बरसों बाद ऐसी निर्दोष नींद. बिना नींद की गोली के. और जब आँख खुली है तो बिना हिले डुले, नींद की खुमारी की गर्मी में अलसाये, गाल के नीचे घास की गड़न, किसी कीड़े का पिंडलियों पर नरम रेंगना, किसी जँगली फूल की खुशबू, किसी फल का पक कर फट जाना.

जानता है बिलास बाबुन उसका पीछा करता है कभी कभी. जानता है ये भी कि सरन ऐंठी रहती है उससे. और ये भी कि इरा निस्संग तरीके से पसंद करती है, बिना शोर शराबे के. पहली मुलाकात में उसे ऊपर से नीचे देखा था और दो मिनट बाद कहा था,

“सुनो बिलास साहब, तुम्हारी कहानी से मेरा कोई मतलब नहीं, तुम चाहते हो कुछ महीने रहना, बिना दखलंदाज़ी के, तुम्हारा रेफरेंस मुझे न भी मिला होता फिर भी, मैं देती तुमको रहने को कमरा “

बिलास को इरा पसंद है. निस्संग तरीके से पसंद है. उसका फक्कड़ सनकपना पसंद है. उसका घर से बाहर होना, भीतर हो कर भी बाहर होना पसंद है. शायद अगर सरन की जगह होता तो इरा को लेकर पागल होता लेकिन दूर से, इरा उसे पसंद है. जितना कि अब वो किसी को पसंद कर सकता है.

अपने भीतर उसे एक फ्लौ दिखता है. जो अब सही नहीं किया जा सकता. उसके भीतर सब भोली चीज़ें समाप्त हैं. उसके भीतर थकान है, वियरीनेस. ये पहाड़ की ठंडी हवा और ये मेरा मरा बुझा मन. कहाँ टिकेगा ?

विलास कमरे में चलता है गोल गोल. गिनकर दस कदम एक दिशा में फिर दस दूसरे में. इतनी दफा कि उसके भीतर ऊब की थकान होती है. बरसों जीने की थकान.

“बिलास तुम कौन हो? अपने को इतना भाव मत दो “

छत की शहतीरों से बोलता है बिलास फिर अपनी आवाज़ सुनता चुप होता है. लकड़ी के फर्श से नीचे की आवाज़ें छनकर आती हैं. इरा की तेज़ आवाज़, सरन की ठहरी आवाज़, बाबुन की उनींदी पतली आवाज़. नीचे एक भरा पूरा संसार है. टेढ़ा मेढा जैसा भी संसार.

ऊपर इस कमरे में साँस रुकी है, सब रुका है.

3 comments
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  1. reading this is like journeying through intricate internal emotional landscape, beautiful !

  2. gadhymay kavya! damdar shailee !kahoon to youn _apni apni chintayen ,apne apane dar hain ,apni apani raahen apne apane safar hain ,ek hee chhat ke neech rahate hain phir bhee sabake apne apne ghar hain !

  3. Good story.

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