आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

संगीत सम्मेलन: प्रभु नारायण वर्मा

संगीत एक धीमी, अनुपयोगी और ख़तरनाक क्रिया है जिससे सभ्य लोग प्राय: दूर ही रहना पसंद करते हैं- इसीलिए सभ्य समाज प्राय: उन संगीत कार्यक्रमों को उत्साहित करता है, जिनमें संगीत का प्रकटन अधिकतम विकृत व वितृष्णाजनक रूप में हो.

शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रम के थोड़ा पहले का दृश्य इसकी पुष्टि करता है.

कुरतों-पायजामों में अच्छी तरह से बंधे हुए लोग, जैसे एक ही संस्थान ने सबको अलग-अलग भली-भाँति पैक किया हो- धीरे-धीरे टहलते हुए, जैसे किसी ने इस पूरी दृश्यावली को स्लो-मोशन में डाल दिया हो- धीमी आवाज़ में बातें करते हुए, जैसे किसी ने बटन उल्टी तरफ घुमा कर इस वातावरण का वॉल्यूम कम कर दिया हो. हर चेहरे पर एक सीमित और लघुकाम सभ्यता के अनुरूप बुद्धिमत्ता की तैलीय चमक और सुसंस्कृत होने की एक क्षोभजनक अहंकारी मुद्रा- सब जैसे कुशलतापूर्वक किंतु उकताहटपूर्ण रंगार्इ-पुतार्इ का परिणाम हो.

यदि इन तथ्यों को फरवरी की एक खुली शाम के वायुमण्डल में, टाउन हॉल की पुरानी व गरिमापूर्ण इमारत के बरामदे में देखें तो इस क़स्बे और इसके निवासियों की आत्मा का अनुमान हो सकता है.

स्पष्ट है इन सीधे-सादे लोगों को जानबूझकर इस प्रकार के षडयंत्र, अथवा कम से कम एक असहज संकट में डाल दिया गया है.

संगीत सम्मेलन प्राय: इसीलिए आयोजित किये जाते हैं कि लोग संगीत समझने के प्रयास में असफल होते रहें. दरअसल संगीत सम्मेलन का विचार उतना ही षडयंत्रपूर्ण है जितना सामूहिक सहवास या सामूहिक ध्यान का कार्यक्रम. ध्यान में मनुष्य एक अनुपस्थित के सानिध्य में अपनी निजता को निष्क्रिय करता है, सहवास में एक पार्टनर के साथ वह इसे गलाता है और संगीत में एक लयात्मक ध्वनि के उत्पादक यंत्र, व्यक्ति या संयोजन के प्रभाव में वह अपनी निजता को घोलता है. इसीलिए एक से अधिक श्रोताओं के लिए एक साथ संगीत का इस तरह होना संभव नहीं है, किन्तु सभ्य समाज अपनी विवशताओं के कारण संगीत सम्मेलनों को दंडित, उनकी भत्स्रना या उपेक्षा नहीं कर पाता, बल्कि इस पूरी प्रक्रिया को एक कर्मकाण्ड में रूपांतरित कर देता है, जिसका परिणाम स्पष्ट है.

अब संगीत सम्मेलन दरअसल एक सामाजिक विवशता है जो श्रोताओं के पारस्परिक आडम्बर, दर्शनप्रियता, खीझ, ऊब व खिन्नता इत्यादि के हेतुक से आयोजित किया जाता है ताकि लोग पारस्परिक विरूचि के अभ्यस्त होकर आसानी से जी सकें, इस तरह संगीत सम्मेलन किसी लम्बे नाटक के समुचित पूर्वाभ्यास या किसी कठिन खेल के पहले ज़रूरी वार्मअप की तरह है- सभ्य नागरिक जीवन में रमने के लिए अवांछित किंतु अनिवार्य प्रवेश शुल्क है.

वरना यह तो स्पष्ट ही है. टाउन हॉल के उखड़े फ़र्श, बदरंग दीवालों और जीर्ण-शीर्ण छत के बीच एक बड़े से काल्पनिक ड्राअर के आकार के इस चौकोर खाली जगह में, जिसे टाउन हॉल का कार्यक्रम कक्ष कहते हैं, जो बिजली के लटटुओं की रौशनी से पहले ही रूग्ण है- संगीत का कोर्इ औचित्य नहीं है, सिवाय इसके कि लोग एक अफ़वाह के आधार पर यहाँ जमा हो गए हैं और एक दूसरे से अरूचिपूर्वक भेंट रहे हैं.

सर्वत्र एक घटिया किंतु सहज, सुपरिचित अभिनय सक्रिय है- कृत्रिम, स्तरीय, प्रचलित एवं सस्ता.

संगीत का कार्यक्रम प्रारंभ हाते ही बरामदे में टहलती यह भीड़ एक सुव्यवस्थित अभिनयरत समूह में परिवर्तित हो जाती है. मंच पर ध्वनियाँ होती हैं और हाल में अभिनय – वहाँ इन दोनों के संयोजन से एक वृहद एब्सर्ड नाटक जैसी रचना का निर्माण होता रहता है, जिसकी तुलना अन्य मंचनों से नहीं की जा सकती. नाटक के मंचन में मंच पर प्रकाश होता है और हाल में अंधेरा, जो एक अत्यंत दूरदृषिटपूर्ण व उदार व्यवस्था के रूप में फलीभूत होता है. प्रकाश में दास बनाने की क्षमता होती है एवं अंधेरे में मुक्त करने का गुण होता है – हॉल के अंधकार में बैठा हुआ श्रीमान संवेदनशील अधेड़, जिसका नाम जानना आवश्यक नहीं- मंच पर चल रहे नाटक से प्रभावित होने या न होने, रोमांचित होने या दाँत किटकिटाने के लिए स्वतंत्र-प्रायः है. मंचन समाप्त होने के बाद प्रकाशित हॉल की नग्नता उसे पुन: दास बना देगी, या नाटक को बीच में ही छोड़कर जाने पर भी वह हाल के बाहर प्रकाशित अवकाश में जा फँसेगा.

स्पष्टत: अंधकार ही एकमात्र संभावना है. संगीत के कार्यक्रम में प्रकाश का जाल पूरे हाल में व्याप्त है, इसलिए इस क़स्बे के ये चयनित सुसभ्यजन यहाँ कार्यक्रमपर्यन्त एक स्वांग करने के लिए अभिशप्त हैं, और शीघ्र ही वे इसमें व्यस्त हो जाते हैं.

एक व्यक्ति ने बहुत देर से अपनी आँखें बन्द कर रखी है, इस प्रत्याशा में कि अन्य लोग उसे र्इर्ष्यापूर्वक देख रहे होंगे. एक व्यक्ति अभ्यास में कमी से उत्पन्न संशय के कारण किंचित संशोधित प्रविधि अपना रहा है, और उसकी आँखें आधी ही बंद हैं. वह बिना आँखें बंद किए बन्द आँखों वाला दिखना चाहता है और आँखें बन्द करके देखते रहना चाहता है कि उसे अन्य लोग देख रहे हैं या नहीं.

अन्य लोग भी इसी तरह नेत्रों के अतिरिक्त अन्य अंगों से विभिन्न क्रियाएँ करने में सतत निमग्न हैं, और ये डोलते हुए अनेक सिर, झूमते हुए धड़ थाप देते हुए पाँव, ताल गिनती हुर्इ ऊँगलियाँ इत्यादि इसी अभिनय योजना के विभिन्न आंगिक रूप हैं.

इन सब के सहज व र्इमानदार तो श्रोताओं के वे अंश हैं जो दो, तीन, या चार के समूहों में एक भिन्न विधि से क्रियाशील होते हैं, हालांकि सामान्यत: इन्हें उपेक्षणीय माना जाता रहा है, क्योंकि उन पर अभी तक संगीतकारों, आयोजकों अथवा समाजशासित्रयों का यथोचित ध्यान नहीं रह गया है.

ये व्यक्ति कार्यक्रम के आरंभ से ही एक-दूसरे को उत्सुकता एवं संदेह मिश्रित किन्तु क्रीड़ामय दृष्टि से नापते रहते हैं कि इन महाशय के मनो-मस्तिष्क में यह संगीत कहाँ तक प्रवेश कर रहा है. थोड़ी ही देर में वे वस्तुस्थिति को समझकर संतुष्ट एवं निशिन्त हो जाते हैं, कि जिस तरह मुझे इस पूरे संयोजन से विरकित हो रही है, उसी तरह ये भी विवश बैठे हैं- ऐसा समझते ही वे इस तर्कपूर्ण निष्कर्षप्राप्ति का संकेत संबंधित व्यक्ति को एक चंचलतापूर्ण स्मित, उपेक्षापूर्ण मुख्यमुद्रा या लघु व मंद्र ध्वनि के द्वारा दे देते हैं- च्च…च्च…च्च… संबंधित व्यक्ति इन संकेतों को तत्काल ग्रहण कर अनुकूल प्राप्ति संकेत देता है, और संकेतों के इस पारस्परिक विनिमय के घटित होने के क्षण से ही वे सहज, उत्फुल्लित व सदाशयतापूर्ण हदय से कार्यक्रमपर्यन्त परस्पर अभिन्न मित्र हो जाते हैं.

संवेदनशील समाज को संगीत सम्मेलन की ऐसी प्रकट उपेक्षा कर रहे लोगों से, जो वहाँ की कुल उपस्थिति में एक मामूली अल्पसंख्यक हैसियत रखते हैं – असहानुभूति नहीं रखना चाहिए. यदि विचार करें तो देखेंगे कि उनकी मन:स्थिति जटिल है: संगीत से उन्हें प्रेम है. आज के कलाकार के प्रति भी उनमें अश्रद्धा नहीं, आयोजक इत्यादि के प्रति उनके मन में समुचित संदेह है तथा वहाँ उपस्थित अन्य स्वांगरत व्यक्तियों के प्रति उनमें तीव्र व तर्कपूर्ण विरूचि है. इन अन्तर्विरोधी भावों की परिणति एक विस्फोटक सीमा तक विद्रोह की भावना के रूप में होती है, जिसका ये दमन नहीं करते, बलिक यथा संभव रचनात्मक व मौलिक ढंग से अभिव्यक्त करते हैं.

हालांकि तथाकथित सुसंस्कृत वातावरण के दबाव से, अथवा अन्य उपस्थित लोगों को कष्ट न पहुँचे  इस विचार से परिचालित होने के कारण उनकी वाचिक व आंगिक क्रियाएँ इतनी न्यूनीकृत कि प्राय: प्रतीकात्मक हो जाती हैं, संवाद मंद्रतर स्वर में मुखमुद्राएँ गहन व संवेदनापूर्ण ढंग से प्रकट होती हैं- फिर भी तीव्र हार्दिक भावनाओं एवं सहअनुभूति की उच्च दशा के कारण उनके संक्षिप्त संवादों व लघु मुद्राओं  में- जिनके बीच दीर्घतर मौन व निर्विकार अंतराल भी होते हैं- एक अदभुत संशिलष्ट व क्रिस्टलीय स्पष्टता होती है. न यह सामान्य व्याजस्तुति है न व्याजनिंदा, बलिक इन दोनों के असंभव-प्राय संपुंजन से उत्पन्न एक अभिनव वक्रोकित है- हार्दिक अनिच्छा से उदभूत एक गहन आत्मिक स्थिति.

प्रत्येक बात का सामान्यीकरण करने में सिद्ध भ्रांतिपूर्ण समझ के अंतर्गत यह प्रक्रिया जितनी आधारहीन व कुरूप दिखती है, उसकी बजाय यदि एक बार हठपूर्वक इसे उदारतापूर्ण दृष्टिकोण से देखा जाए तो इसमें एक स्पष्ट सुतार्किकता एवं सौष्ठव सहज ही दिख सकेगा.

सड़क से लगी हुर्इ टाउन हॉल की इमारत है, जिसके हाल में संगीत का कार्यक्रम चल रहा है, जिसे अधिकांश श्रोता ध्यान से और कुछ बेमन से सुन रहे हैं- इस स्थूल चित्रण के बरअक्स यदि भौतिक विज्ञान या उच्च गणित की तरह भावनात्मक या अनुभूतिजन्य तरीके से इस पर विचार करें तो इस दृश्य के अंदर तैरा जा सकेगा, उड़ा जा सकेगा और व्यापा जा सकेगा-

देखिए महाशय, हाल के ऊपर धूल, कचरे और पक्षियों के बीट से अटी एक छत है, जिसके ऊपर क़स्बे के गंध-गर्द और सड़क पर अकारण व्यग्र वाहनों के शोर-धुएँ से निर्मित व अभिन्न हवा ठहरी हुर्इ है. इस ठहराव की सिथरता को यदि परम सत्य माना जाय तो इसी का एक अपघटित रूप हाल में व्याप्त संगीत की रूकी-सी ध्वनि, श्रोताओं के श्वास-प्रश्वास की वाष्प व ऊष्मा तथा वहाँ लगे लटटुओं के प्रकाश का पीलापन इत्यादि सभी का एक रूग्ण किंतु हिलता-डुलता संयोजन है. इसका थोड़ा और क्षतिग्रस्त स्वरूप उन लोगों की जड़ीभूत शारीरिक प्रतिक्रियाएँ हैं जो, यहाँ संगीत के मर्मज्ञ व रसज्ञ होने के जीण-शीर्ण अभिनय में लिप्त हैं.

यह सत्य की निम्नतम दशा है, अर्थात यहाँ पहुँचते-पहुँचते परम सत्य जितना विकृत हो सकता था, हो चुका है, और अब वह सत्य के सर्प के फण की तरह उत्थित होकर अपने स्पष्टतम व विशुद्धतम रूप में उन अल्पसंख्य श्रोताओं की गहन चेष्टाओं में व्यक्त होता है जो इस पूरे पाखण्ड की अवधारणा को तोड़ना चाहते हैं, हालांकि यह प्रकटीकरण सूक्ष्म, बीजरूप में लघुजीवी होता है, क्यों कि इस तरह प्रगट होते ही वह सत्य महत्वहीन, अनावश्यक व अवांछित होकर बहिष्कृत हो जाता है और संभवत: हाल के बाहर या सीधे ऊपर की ओर छत पर चला जाता है. इसी प्रकार यह चक्र चलता रहता है, जिसे ”संगीत सम्मेलन का जीव चक्र” जैसा एक निश्चित, वैज्ञानिक व अवमाननापूर्ण शीर्षक भी दिया जा सकता है क्योंकि कोर्इ भी जीवन चक्र उसमें निहित अन्तर्दशाओं या स्थितियों की मृत्युओं का ही चक्र होता है.

इससे यह भी लगता है कि ठीक से देखें तो कोर्इ घटना न तो सुखान्त होती है और न दुखान्त क्योंकि निस्पृहता व उदासीनता ही सर्वाधिक संतुलित दृष्टिकोण हैं और, जहाँ तक किसी घटना के वर्णन से प्राप्त निष्कर्ष या संदेश का प्रश्न है- यह स्पष्ट है कि चूँकि निष्कर्ष सभी भ्रमों का एक सामान्य विशेषण है जैसे कि संदेश सभी निरर्थक उकितयों का अत: इन्हें प्राप्त करने की चेष्टा त्रुटिपूर्ण या अपूर्ण प्रश्न को हल करके सटीक उत्तर जानने की चेष्टा है. क्योंकि संदेश व निष्कर्ष सदा असंभव प्राप्य हैं.

एक सरल, क्षुद्र एवं अकाट्य तथ्य यह भी है कि निष्कर्ष व संदेश की निरंतर प्रत्याशा फिलहाल सभ्य समाज का सबसे निराशजनक अभिलक्षण है.

पुनश्च- हालांकि संभव है कि टाउन हॉल में इस समय चल रहे कार्यक्रम के संगीत में कुछ अन्य दूरस्थ व गहन संकेत भी हों, जो कतिपय कारणों से सभ्य समाज से अलक्षित ही रहना चाहते हों.

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  1. bhavdashaon ka behatreen varnan.

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