विसर्जन: नकुल मल्लिक
तमाम तरह की पनीली वनस्पतियों से भरा पोखर सफ़ाई करने वाले उन जमादार लोगों की जान था। वहाँ वे नहाते, हाथ-पैर, कपड़े धोते और अपने गाय-बछड़ों को नहलाते। गरमी के मौसम में मोहल्ले के लड़के दिन-भर फुटबॉल खेलकर थक जाते और उस पोखर में तैरकर अपनी तपिश और थकन मिटाते। बारिश आती तो बच्चे और बच्चियाँ काग़ज़ की किश्तियाँ बनाकर उसमें बहाते और बुज़ुर्ग लोग काँटा डाल कर मछली पकड़ने के बहाने अपना समय काटते।
मोहल्ले के पड़ोस में सम्भ्रान्त लोगों की बस्ती थी। इन आदिवासी जमादारों के साथ उन लोगों का यूँ तो कोई नाता नहीं था, लेकिन कुलीनता की नज़र से देखें तो वे उनके दास थे। सम्भ्रान्त लोगों के आँगनों में झाड़ू लगाने, मैला साफ़ करने, गायों के लिए घासकाटने के काम में उन लोगों को बुलाया जाता और बेपढ़े-लिखे उन लोगों को मेहनताना देते वक़्त डटकर बेईमानी करने में राजाबाबू लोग कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते। दुर्गापूजा के समय मंडप के निर्माण से पहले पार्क में चौपायों की विष्ठा साफ़ करने का काम इन लोगों के बिना चलता ही नहीं, हालाँकि मंडप के भीतर की सफ़ाई करने का अधिकार इनको नहीं था और न वहाँ खड़े होकर माँ को अंजलि देने का। महाअष्टमी के दिन मंडप के बाहर सबसे पीछे खड़े भावविभोर वे, माँ के चरणों में अपनी अंजलि अर्पित करते। उनके प्रति अपनी अनुकंपा प्रदर्शित करते हुए सम्भ्रान्त लोग हर साल उनके पोखर में दुर्गा की मूर्ति का विसर्जन करते और अपनी सदाशयता दिखाते। आतिशबाज़ी, रोशनी, ढोल-ढमाके और विचित्र नाच-रंग से, साल भर आदिम सभ्यता के अँधरे परिवेश में ग़रीबी, भुखमरी और अपमान भरा जीवन जीने वाले जमादारों का मोहल्ला उस दिन उल्लास से भर जाता। कुछ घण्टों के लिए शहरी सभ्यता के चकाचौंध में दूर खड़े रह कर वे लोग अपने आप को बहुत भाग्यवान महसूस करते। वुत्र्छ दिनों बाद जब मूर्ति के सड़े अवशेष पानी में उभर आते तो बच्चे उन्हें उठा लाते, कोई सिंह की पीठ पर सवारी करता, कोई मोर या फिर लक्ष्मी के उल्लू पर सवार होकर मतवाले हो जाता।
मोहल्ले में एक ही लड़का शिवप्रसाद पढ़ा-लिखा था, वह मेधावी था और कोलकाता के आदिवासी होस्टल में रह कर पढ़ाई कर रहा था। एक अच्छे परिवेश में रह, तमाम सभा-समितियों में आयोजित अनुष्ठानों में भाग लेकर वह अपनी योग्यता साबित कर चुका था। वह जब गाँव लौटता तो तमाम युवाओं और बुज़ुर्गों को एकत्र कर समझाता कि हमें खरपतवार को पनपने नहीं देना चाहिए, हर कहीं दिशा-मैदान के लिए नहीं बैठ जाना चाहिए। डबरों, पोखरों को साफ़ रखना चाहिए ताकि मच्छर पैदा न हो सकें। मोहल्ले में एकमात्र पोखर है इसलिए उसमें देवी की मूर्ति का विसर्जन नहीं होना चाहिए। इससे पोखर का पानी दूषित होता है। वे लोग बाबू लोगों से कह दें कि कृपा कर इस बार वे इस पोखर में देवी का विसर्जन न करें।
शिवप्रसाद के कोलकाता लौट जाने के बाद गाँव के समझदार लोगों ने सभा बुलाकर उसकी नसीहतों पर विचार किया और फिर उस पर अमल करने की शुरुआत की। पंचायत से जब मदद नहीं मिली तो उन्होंने ख़ुद ही रास्तों की मरम्मत की, पोखर में डी डी टी का छिड़काव किया, जंगली घास-पास काटकर जगहों को साफ़ किया। बारिश के बाद जब दुर्गोत्सव का माहौल बनने लगा तो जमादारों के मोहल्ले के प्रतिनिधि के रूप में संतोष ने जाकर बाबू लोगों से कह दिया कि वे इस बार उनके पोखर में देवी का विसर्जन न करें। पूजा कमिटी के साथ-साथ पंचायत को भी इस बात की भनक लग गई। पूजा कमिटी के सचिव रतन भट्टाचार्य ने कहा घबराने की कोई बात नहीं है, इन लोगों के लिए थोड़ी ताड़ी का इंतज़ाम कर देंगे, सारा मामला ठण्डा हो जाएगा।
पूजा का आयोजन इस बार और भी ज़्यादा आकर्षक रहा। स्थानीय एम एल ए ने मंडप में फीता काटकर देवी की अर्चना की, रेडियो और दूरदर्शन के ख्यात कलाकारों ने अपनी कला के प्रदर्शन से सबका मन मोह लिया, नाटक हुए, प्रतियोगिताएँ हुर्ईं। ज़रूरत से ज़्यादा ख़र्चा हो जाने के कारण नियत तिथि पर देवी का विसर्जन न कर, उसे तीन दिन के लिए टाल दिया गया। इस बार किसी कारण से शिवप्रसाद कोलकाता से नहीं आ सका और इसलिए श्यामाकान्त और रघुनाथ काका ने इस ज़िम्मेदारी को लेते हुए विसर्जन के एक दिन पहले जाकर पूजा कमिटी को फिर से आगाह कर दिया कि कृपा कर इस बार वे उनके पोखर का इस्तेमाल न करें।
सेक्रेटरी ने पूछा — क्यों? बात क्या है?
श्यामाकान्त ने जवाब दिया — हम इतने सारे लोगों के लिए यह एकमात्र पोखर है, मूर्ति विसर्जन से इसका पानी गंदा होता है, दूषित हो जाता है।
सेक्रेटरी ने विस्मित होते हुए कहा — ऐसा है क्या! ये बुद्धि तुम लोगों को कहाँ से मिली? इतने दिनों से तो तुम्हारे दिमाग़ में ये सब बातें नहीं घुसी थीं, पार्टी-पोलिटिक्स करने लगे हो क्या?
रघुनाथ बोले — नहीं मालिक, हम लोग तो आपकी ही पार्टी के हैं, आप ही हमारे माई-बाप हैं, सरकार।
पूजा कमिटी के प्रेसिडेंट बोले — हम अगर तुम लोगों के माई-बाप हैं, तो फिर हम जो कहेंगे, करेंगे, तुम लोगों को वह मानना पड़ेगा।
— हम लोग सभी कुछ तो मानते हैं बाबू। इस बार हमारी अरज सुन लीजिए सरकार। इस बार कहीं और विसर्जन का इन्तज़ाम कर लीजिए।
वहाँ कुछ और लोग भी एकत्र हो गए थे। वे गरज कर बोले — इतने समय से जहाँ विसर्जन होता आया है, इस बार भी वहीं होगा। ऐसा पीढ़ियों से होता आया है, अब भी होगा, यह तो तुम्हारी ख़ुशक़िस्मती है।
श्यामाकान्त ने थोड़ा उत्तेजित होते हुए कहा — हमें अब इस ख़ुशक़िस्मती की ज़रूरत नहीं है, आप लोग कहीं और देखिए।
पूजा कमिटी के व्यवस्थापक इतनी देर से इस बहस को सुन रहे थे, इस बार उन्होंने अपना मुँह खोला — देख, तू औक़ात से बाहर मत जा, विसर्जन तुम लोगों के पोखर में ही होगा। फिर थोड़े धीमे स्वर में बोले — पंचायत ने जब से ट्यूबवेल लगवा दिया है, तब से तुम लोग इसका पानी पीते भी नहीं हो।
— तो क्या इसलिए पानी को दूषित करना ज़रूरी है?
इस बार व्यस्थापक महोदय चीख़ उठे — क्या बोला तूने? माँ के अवगाहन से तुम लोगों का पोखर दूषित हो जाएगा, क्यों! माँ के बारे में ऐसा बोलते हो, देखना तुम लोगों के मुँह में कोढ़ फूटेगा।
जमादार मोहल्ले के लोग झगड़ा बढ़ाना नहीं चाहते थे, इसलिए वे बोले — हम आख़िरी बार कहे देते हैं, इस बार देवी को लेकर हमारे पोखर के पास नहीं आना, आओगे तो हम लोग विरोध करेंगे। लौटते-लौटते श्यामाकान्त और रघुनाथ को दूर से सुनाई दिया, कोई कह रहा था कि जा जा, ज़्यादा रौब मत झाड़। देवी को हम वहीं ले जाएँगे। जो बने, कर लेना।
मामला वर्चस्व का था। सवर्ण झुकने को तैयार नहीं थे। एक युवक बोला — जान लो काका, ये लोग अपना सर उठाने लगे हैं। ये कल से हमारा राह पर चलना मुहाल कर देंगे। इनके नये लड़के हमसे कंधा मिलाने की जुर्रत करने लगे हैं, जाओ देखो कलकत्ते में। उधर जमादार मोहल्ले के बच्चे-बूढ़े-जवान-औरत सभी ने कमर कस ली कि इस बार कुछ भी हो जाए, वे पोखर में मूर्ति विसर्जन नहीं होने देंगे। भले ही इसमें झगड़ा हो जाए, चाहे जान ही क्यों न चली जाए।
विसर्जन के दिन शाम को ही जमादारों के पोखर के चारों ओर पुलिस दल तैनात हो गया। लॉरी में देवी को रखकर शोभायात्रा की शुरुआत हुई। गाजे-बाजे, पटाखे और जगर-मगर रोशनी से वहाँ का वातावरण नहा उठा। इधर-उधर का चवस्र्कर लगा लॉरी पोखर के किनारे जा खड़ी हुई। जमादार मोहल्ले के कुछ बुज़ुर्ग और जवानों ने मिलकर आपस में न जाने क्या मंत्रणा की, माइक के शोर में कुछ भी सुनाईनहीं दिया। संतोष और बूधन बुढ़ऊ ने अपनी जमात के प्रतिनिधि के रूप में लॉरी के सामने जाकर हाथ जोड़कर कहा — यहाँ देवी को मत उतारो सरकार। यह हमारा पोखर है, हमारी जगह है, हम यहाँ विसर्जन नहीं होने देंगे। हम मर जाएँगे लेकिन यह काम नहीं होने देंगे।
लॉरी के भीतर से उपेक्षाभरी आवाज़ आई– हट जा बे सामने से, नहीं तो गाड़ी के नीचे दब के मर जाएगा। तुम्हारी जगह है! नवाब की औलाद हो बे तुम लोग, क्यों? विसर्जन यहीं होता है, यहीं होगा, तुम लोग भाग जाओ यहाँ से।
— आप लोग भी कौन-से लाटसाहब हो जो जुलुम करोगे, हमारे मोहल्ले में जबरन घुसोगे!
— क्या बोला! जितना बड़ा मुँह नहीं उससे बड़ी ज़ुबान, हरामज़ादे, नीच आदमी, तुझे तो मैं जड़ से मिटा कर ही दम लूँगा। ऐसा कहते हुए लॉरी से एक युवक कूदकर उन दोनों के सामने आ खड़ा हुआ। उसकी उग्रता देख जमादारों के मोहल्ले के तमाम लोग दौड़ कर वहाँ इकट्ठे होकर बोले — मारेगा? मार, देखते हैं तू कैसे मारता है। भलाई चाहते हो तुम लोग तो देवी की मूर्ति लेकर लौट जाओ अपने मोहल्ले में, अपने पोखर में विसर्जन दो।
ऐसा सुनते ही शोभायात्रियों ने लॉरी भीतर की ओर घुसेड़ दी। ग़ुस्से के मारे बूधन अपना आपा खो बैठा। उसने केले के पेड़ से टिकाकर रखी मोटी लाठी उठाकर लॉरी के काँच पर दे मारी। एक ही वार में काँच चकनाचूर हो कर बिखर गया। साथ ही साथ प्रतिपक्ष के लड़के टिड्डीदल की तरह बूधन पर टूट पड़े। तड़ातड़ लात, घूँसे, थप्पड़ बरसाते हुए उन्होंने बूधन को अधमरा कर डाला। उसको बचाने के लिए आकर संतोष ने भी जमकर मार खाई। जमादार मोहल्ले के और लोग भी उस दिन धर्मोन्मत्त भारी भीड़ का बुरी तरह शिकार बने। दूर खड़े संभ्रान्त बुज़ुर्ग और पुलिसवाले इस तमाशे को मज़े लेकर देखते रहे, बचाव में
कोई भी आगे नहीं आया। माइक बज उठा, पटाखों की आवाज़ और माँ की जयध्वनि से आकाश गूँजने लगा। देवी को बीच पोखर में विसर्जित कर दिया गया।
विसर्जन का बाजा थम गया, जनरेटर से जल रही बत्तियाँ भी बुझ गर्ईं। माँ के भक्त लोग अपने-अपने घर लौट गए। अँधेरे में पोखर के किनारे औंधे मुँह पड़े रह गए बूधन और संतोष।
आदिवासियों के मोहल्ले में शोक की छाया उतर आई। अपनी पराजय पर क्षुब्ध उन लोगों ने उस रात अपने यहाँ चूल्हा नहीं जलाया। आधी रात उन लोगों ने तय किया कि उन बड़े लोगों की करुणा पर जीने की अपेक्षा अपने हक़ के लिए लड़ना ज़्यादा बेहतर है। लड़ने के लिए ताक़त चाहिए, दिमाग़ी ताक़त। पढ़ना-लिखना ज़रूरी है। अपने आप पर भरोसा करना ज़रूरी है। शिवप्रसाद लौट आए फिर उससे इस बारे में विस्तार से बातें करेंगे।
अगले दिन दोपहर को बूधन का बड़ा बेटा किसनू कल की घटना से क्षुब्ध हो पोखर के किनारे दुःख और क्रोध से भरा चहलक़दमी कर रहा था कि उसने देखा पोखर में देवी का घास-फूस वाला ढाँचा औंधे मुँह तैर रहा है। वह अचानक ठिठक गया। थोड़ी देर उसकी ओर देखते हुए वह न जाने क्या बड़बड़ाया। देवी के तमाम अगाभरण पानी में गल गए थे, उनके वस्त्र, आभूषण, वेश सब छिन्न -भिन्न हो गए थे लेकिन असुर का वध करने वाला लोहे का त्रिशूल वैसा ही था, नक्काशीदार त्रिशूल देवी के हाथ में उसी तरह शोभा दे रहा था, धूप में झिलमिला रहा था। किसनू की आँखों में बिजली झलक उठी। वह धीरे-धीरे पानी में उतर कर देवी की मूर्ति की ओर बढ़ चला। मूर्ति के पास पहुँचकर थोड़ी देर तक उसे अपलक निहारता रहा, फिर उनके हाथों से उस त्रिशूल को निकाल कर तेज़ी से किनारे की ओर चला आया। बाहर निकल कर उसने एक बार सम्भ्रान्तों के मोहल्ले की ओर देखा और फिर पास पड़े एक पत्थर पर बैठकर त्रिशूल पर धार देने लगा।
(मूल बाँग्ला से अनुवादः उत्पल बनर्जी.)