झूठ: महेश वर्मा
कुछ सिर कटने से फड़फड़ाते कुछ मृत्यु की आशंका से बेचैन जीवित मुर्गों, ज़मीन पर बह रहे खून, पड़े हुए पंखों और अवयवों के बीच अपने सफेद बालों में वह एक देवता दिखार्इ देता. पेड़ के तने के एक टुकड़े पर उदास सहजता से मुर्गों को रखकर बिलकुल तय जगहों पर अपना धारदार चाकू चलाता सधे हुए हाथें से उनके टुकड़े बनाता हुआ, वह क्रमबद्ध ढंग से मुर्गों के शरीर का भीतरी रहस्य उदघाटित कर देता. एक मशीनी रफ्तार से पंखों, पंजों और अखाद्य अंगों को अलग करके वह ललछौंहे टुकड़ों को काले पालिथीन में डालकर सरका देता और दूसरा मुर्गा उठा लेता फिर तीसरा फिर चौथा.
मैं जब भी वहाँ जाता कुछ देर ठगा सा उसका मुर्गे काटना देखता रह जाता. लेकिन इस रविवार मैंने पहली बार ध्यान दिया उसके बाएँ हाथ का अंगूठा अपनी जगह पर नहीं था. शायद जन्म से न हो…. या शायद किसी दुर्घटना में कट गया हो… अपने दिन भर के कामकाज के साथ-साथ यही सब सोचता मैं कब खाना खाकर बिस्तर पर आ गया पता ही नहीं चला.शायद मुर्गे काटते हुए ही किसी बार वह अपना अंगूठा काट बैठा हो ? उस समय वह जो मुर्गा काट रहा होगा उसमें तो उसका खून मिल गया होगा या कम से कम कुछ बूंदे तो मिल ही गर्इं होंगी तो क्या खरीददार ने ध्यान ही नहीं दिया होगा और हड़बड़ी में बूढ़े के खून से सना अपना मुर्गा लेकर चल दिया होगा ? या उसने वह मुर्गा लौटाकर दुकान वाले से दूसरे मुर्गे की मांग की होगी ? कहीं उसका कटा अंगूठा किसी के मुर्गे के साथ न चला गया हो… सोचते हुए मुझे बचपन से युवावस्था तक दूसरे शहरों के होटलों में कभी नानवेज न खाने की सलाहें और इससे जुड़े संस्मरण याद आने लगे. उन दिनों इस बारे में एक किस्सा ख़ूब चलन में था कि कैसे अमुक को एक बड़ी जगह पर होटल में मटन का आर्डर देने पर आर्इ कटोरी में अंगूठी सहित एक मानव उंगली मिल गर्इ थी और कैसे डर के मारे जल्दी से पैसे चुकाकर और बहाना बनाकर वह वहाँ से भागा था. यह किस्सा हर किसी ने सुना था लेकिन हर नर्इ बार सुनाने वाला उसको बिलकुल मौलिक रहस्य के साथ और भुक्तभोगी का प्रथम श्रोता होने के दावे के साथ सुनाता और सांझ के झुटपुटे में सब उसे पहली बार की उत्सुकता के साथ सुनते भी.
रात भर मुझको असंगत सपने आते रहे थे जहाँ पूरी रात मैं भागकर जान बचाता या प्यास से सूखा गला लिए भटकता रहा था. कभी डरावनी उचार्इंयों से निराश्रित गिरता हुआ… कभी लहरों के साथ अवश फेंका जाता हुआ. सुबह सिर भारी था… मैंने घड़ी देखी देर तक सोया रहा था पर थी वह सुबह ही. बाहर चमकीली धूप थी और उसके सिगरेट की डिब्बी खाली थी मैंने उठकर पजामा पहना एक गोल गले की पुरानी टी-शर्ट डाल ली स्लीपर पहने और बाहर आ गया.
बाज़ार अभी खुल रहा था इसलिए पान ठेला ढूंढ़ता हुआ और रात के सपनों को अपने जेहन से पोंछने की मशक्कत के बीच मैं… वहीं पहुंच गया. मुर्गे वाली दुकान के पास… हालांकि यह पहली बार था जब मैं इस दुकान को बंद देख रहा था … मुझे थोड़ी दिक्कत भी हुर्इ ढेर सारी बंद दुकानों के बीच इस बंद दुकान को पहचानने में. बगल में ही एक पानठेला खुला था ठेलेवाला अभी दुकान की झाड़पोंछ ही कर रहा था पर ठेले से लगे खंभे से लगकर… वह सिगरेट पी रहा था… चुपचाप… वह बूढ़ा… मुर्गे काटने वाला! इसमें इतनी हैरानी की बात कतर्इ नहीं होती अगर उसने धली हुर्इ पतलून और कमीज न पहनी होती. एकबारगी तो मैं उसे पहचान ही नहीं पाया. दुकान में मैंने बूढ़े को हमेशा छोटी लूंगी और बनियान पहने देखा था दोनो कपड़े बेतरह गंदे होते थे और यहाँ… यहाँ वह बूढ़ा भी कम दिखार्इ दे रहा था… उसका बिलकुल सीधा खड़ा होना भी एक नर्इ घटना थी. कुछ लोग… अगर हम उन्हें उनके काम की जगह से दूसरी जगह कुछ ओैर काम करते देखे तो पहचान ही न पायें बहरहाल इस नयी सुबह बूढ़ा भी वहाँ था जैसे उस दिन की संरचना को उसकी रूटीन से थोड़ा-सा बदलता हुआ. अपनी गंदली आंखों से उसने मेरे आने को एक धुंधली घटना की तरह ही देखा होगा.
सिगरेट लेते हुए मैं उसकी तरफ पहचान की मुस्कान डालता हुआ जरूर अजीब दिख रहा होऊँगा उसकी जवाबी मुस्कान से होती हुर्इ मेरी निगाह उसके बाएं हाथ के अंगूठे को खोजने लगी.
इतनी सुबह… मुर्गा लेने?
बोलती हुर्इ उसकी आवाज़ से मेरे चकराने की दो वजहें थीं जो मुझ पर एक साथ घटित हुर्इ पहले तो उसको बोलना और दूसरा उसका दक्षिण भारतीय लहजा. शायद ही पहले मैंने उसे कुछ बोलते सुना हो. तब मैने उसके दाहिने हाथ में फंसी सिगरेट को भी देखा… वह तमिलनाडू का एक ब्राण्ड था, सस्ता तीखा और बचपन के गाँव की याद दिलाता. दक्षिण भारतीयों का एक समूह यही सिगरेट पीता था इसीलिए मध्य क्षेत्रा के इस छोटे से कस्बे में भी वह मौजू़द था. सैंकड़ों किलोमीटर की दूरियां पार करके. मैने खुद के भी तमिल होने का परिचय देने की ग़रज से उसके सिगरेट को उंगली दिखाकर पूछा-”नी तमिलनाटयकारणा ? उसने नाक से धुआं छोड़ते हाँ में सिर हिलाया फिर धुएं से उसे खांसी आ गर्इ … हाथ से धुआं हटाते खांसते कुछ सेकण्ड बीत गए पता नहीं क्यों मुझे लगा वह यह बात टालने के लिए जानबूझकर खांसा है इससे अपनी बात की सीधी प्रतिक्रिया उसके चेहरे पर न देख पाने के असंतोष से खीझा हुआ मैं घूमकर उसकी बायीं ओर चला गया और सीधे उसके कटे हुए बाएं अंगूठे को देखने लगा… तब उसकी आवाज़ आर्इ -”आमाम, इन्दनगरतिलनियतमिलगल उल्लनर” हाँ मैने कहा. हालांकि उस वक्त की जरूरत थोड़ी और औपचारिक बातों की थी लेकिन उसके बाएं हाथ के अनुपस्थित अंगूठे के मुतलिलक मेरी जिज्ञासा पता नहीं इस क्षण क्यों इतनी बढ़ गर्इ थी कि इससे मेरा कंठ सूखने लगा… मैने खुद को कहते सुना-”ये अंगूठा… आपका अंगूठा कैसे कट गया ? बचपन से …
”नर्इं नर्इं बचपन से नर्इं अभी दस साल पहले तक था… वह पहली बार हंसा… यहीं… उसने अंगूठे के न होने की जगह को दाहिने हाथ की उंगलियों से छुआ. वह अपनी किसी भी और त्वचा को वैसे नहीं छूता होगा… मैं निशिचत था.
”फिर… क्या यहीं मुर्गा काटते ? मैंने काटने का अभिनय करते हुए हंसने की कोशिश की.
”अरे नहीं.. इसमें क्या… इसमें क्या कटना… बोलते हुए उसकी हंसी वापस उसकी उदासीन भंगिमा में चली गर्इ जहाँ मैं उसे देखने का अभ्यस्त था. प्राथमिक वाक्यों के बाद अब हम दोनों हिन्दी बोलने लगे थे… मुझे लगा हम सच की नंगी जगह के इतने नजदीक थे जहाँ परिचय के किसी भी सहारे की जरूरत नहीं थी मातृभाषा की भी नहीं. पता नहीं क्यों मुझे लगने लगा कि इस कटे हुए अंगूठे के साथ बूढ़े के अतीत का कोर्इ ज़रूरी हिस्सा जुड़ा हुआ है बहरहाल हम दोनों वहाँ थे… अपनी अपनी हिंसाएँ और दुख लिए एक साथ… दुख नहीं शायद यातना… या यातनाएं ? और वही था जो हमें भाषा से इतर जोड़े था. मुझे लगा अब बातचीत खत्म… लेकिन उसने कुछ कहने की मुखमुद्रा बनार्इ और जैसे अपने अनकहे शब्दों को वापस अपनी चेतना में खींच लिया मैने पता नहीं क्यों व्यग्रता से पूछा… ”तो फिर कैसे कटा ये ? पूछते ही मुझे लगा कि मैने जैसे किसी अपरिचित से अरण्य में कदम रख दिया है… सारा कुछ कितना आकर्षक और भयभीत करने वाला… एक साथ अपने जादुर्इ संतुलन में… लेकिन कितना अनाधिकृत ?
हम दोनों पास रखी फट्टे की बेंच पर बैठ गए… जैसे अपनी नियति को स्वीकार करते हुए… अपरिचित भी और आपस में इस सुबह उस कटी उंगली और मेरे कल के असंगत सपनों से बंधे हुए भी.
थोड़ी देर में उसने पहली सिगरेट को खत्म किया दूसरे को सुलगाया मुझसे दूसरी सिगरेट के लिए पूछा… फिर कहना शुरू किया… धीमी मगर एक भरी हुर्इ आवाज में… ऐसी आवाज़ में जो थकी हुर्इ भी है, मजबूत भी, जो पुरानी बातों के बीच से बहकर आ रही हो एक भारी और शांत नदी….
पहले वह फौज में था… डाक्टर. उसकी भर्ती तो साधारण डाक्टर के रूप में हुर्इ थी पर उसने
क्या तुम भी तमिल हो ?
हाँ इस जगह बहुत से तमिल रहते हैं ना
हाउसजाब किया था सिकन एण्ड वीडी में…त्वचा और यौनरोगों की अतिरिक्त विषेषज्ञता के कारण उसकी वहाँ बहुत जरूरत थी.कर्इ तरह के रहस्य उस तक बहते चले आते उसे विशिष्टता बोध भी होता घिन्न भी आती पर फौजियों के साथ का असर था या उसकी कोर्इ पुरानी इच्छा… हथियारो का उसे शौक हो गया था…. रोज पिस्तौल साफ करना, एक बड़े से फल वाला चाकू हमेशा रखना… तेजधार करके …. प्राय: सांझ को काम न होने पर वह अपने चाकू को पत्थर पर धार देता देखा जाता.
तभी उन्हे आदेश मिला… श्रीलंका जाने का… शांति सेना के साथ. वहाँ वे जहाँ थे वह कोलंबो के नजदीक का कोर्इ गाँव था वहाँ लड़ार्इ थी ही नही. मामूली घटनाओं जितनी भी नहीं…. हमारे यहाँ के शांत कस्बे भी उस उस गाँव के मुकाबले युद्धरत मालूम पड़ते. वहीं उसकी दोस्ती हुर्इ… एक सार्जेंट था वैसा ही जैसे युवा सैनिक आमतौर पर हुआ करते हैं गर्मजोश और उद्धत.
बूढ़े ने आगे कहना जारी रखा- ”मुझे बहुत धुंधली ही याद है उस रात की जब हम दोनो वहाँ थे उस कस्बे के छोटे से टपरेनुमा बार में… पहले से ही पीकर धुत्त.एक खुली जगह जिसे घेरकर किसी तरह रहने और काम करने के लायक बना लिया जाता है. अरअसल छुटटी और हम दोपहर से पी रहे थे… पता नहीं किसके प्रस्ताव से पर अब हम वहाँ थे… और और शराब की मांग करते…
भले गाँव में शांति थी तो भी वो लोग हमारा सम्मान करते थे आखिर हम उनके ही लिए आए थे उन्हें बचाने… दूसरे देश से. लेकिन उस रात हमारे और शराब मांगने पर उनके असमंजस ने कैसे विवाद का रूप ले लिया… मुझे कुछ याद नहीं. झगड़ा चल ही रहा था कि शराब दुकान वाले की बेटी वहाँ आ गर्इ. तीखी आवाज़ में अपने अभिभावकों को डांटती हुर्इ शायद शराबखाना इतनी देर खुला रखने के उनके लालच के लिए या इस शोर शराबे के लिए. अत्यंत युवा उस लड़की की अपने मातापिता को एक दूसरी भाषा जो संभवत: सिंहली थी, में दुकान देर तक खोलकर हम जैसों का बखेड़ा लेने पर लगार्इ जा रही डांट स्वाभाविक थी और नशे के आधिक्य में भी हम इस भावना से प्रभावित हो रहे थे कि अचानक हमारी ओर मुंह करके हमारे बारे में जरूर कोर्इ कड़वी बात कही होगी… क्योंकि उसकी उस समय की मुखमुद्रा याद करके ये देखो मैं आज भी सिहर जा रहा हूँ… सेना से जुड़े होने के कारण और… त्वचा के डाक्टर के हैसियत से भी अत्यंत नकारात्मक मुखमुद्राएं मुझे जल्दी प्रभावित नहीं कर पाती थीं तो भी उस रात… उसकी आंखों और बाकी चेहरे में भी इतनी घृणा थी… इतनी घृणा थी कि इसे बताया नहीं जा सकता… नशे की वैसे ही किसी रात… शौर्य भय और पागलपन के विभ्रम के बीच… ठीक वैसे ही शायद अनुभव पाया भर जा सकता है.
उसकी आवाज़ में दक्षिणी उच्चारण की गूंज तो थी लेकिन वह आश्चर्यजनक रूप से शुद्ध हिन्दी बोल रहा था, लेकिन उसका आत्मवृत्त इतना ज़्यादा अचंभित करने वाला था कि मैं इस पर कुछ पूछ ही नहीं पाया.
इस बीच नर्इ सिगरेट सुलगा कर बूढ़ा एक साथ पीछे भी लौट रहा था और खुद को संभाल भी रहा था… शायद एक शर्म से… मेरे सामने वह लगभग भावुक हो चला था या उत्तेजित शायद इसी से.
कुछ गहरे कश लगाने के बाद उसकी आवाज़ में वही उदासी और थकन फिर लौट रही थी जिससे मेरा सामना इस अजीब सुबह पहली बार हो रहा था. कल तक हम जो नितांत अजनबी लोग थे आज यहाँ बैठे थे… ऐसी बेंच पर जिसे इससे पहले हम दोनों ने गौर से देखा भी नहीं होगा. बाजार खुलने और धूप के थोड़ा चढ़ने से यह सुबह थोड़ी कसैली-सी हो रही थी जैसे कर्इ रातों से न सोर्इ आंख होती है… धूप में.
उसने कहना शुरू किया- ”अब हम लोगों में चाहे कितनी भी दयालुता और युवावस्था की मासूमियत रही हो तो भी… हम यहाँ इनकी रक्षा के लिए अपने देश से आए हैं… यह गर्व वहाँ के बंदरगाह की जमीन पर उतरते ही शायद उसी समय हम सबके सीने में एक साथ बैठ गया था. उस घृणा ने हमें कंपा दिया था… शायद डराना इसके लिए ज्यादा सही शब्द होगा, हम डर गए थे. कुछ पल को हमारी आत्मा… हमारे भीतर की प्रार्थनाएं शायद ठिठक गर्इ थी… बूढ़े की काव्यमय भाषा ने जैसे मुझे बांध लिया था… कविता की बात सोचते हुए मैने बूढ़े को बोलते सुना-”ऐसे ही किसी भय के भीतर मर जाने की इच्छा की कविता… सुनी होगी तुमने शायद बूढ़ा अपनी रौ में था और मैं इस समय के तिलस्म में एक तरह से अपनी चेतना खोकर डूबने डूबने की ओर… बाहर से बूढ़े की आवाज अब भी आ रही थी-”सैनिक की वर्दी और अब तक अभ्यास में चलाए गए हथियारों का शौर्य हमारे भीतर उफान की तरह उठ रहा था… या शायद यह शराब थी… या वह रात… या वह अत्यंत युवा लड़की… अपने सौंदर्य, अपनी मांसलता से पूरी कायनात को जैसे बांधे हुए… मैं अभी इस उफान को अपने भीतर ठीक से देख भी नहीं पाया था कि मेरे साथी… युवा सार्जेन्ट ने आगे बढ़कर एक धृष्टता के साथ लड़की की आंखों में देखते हुए अपना हाथ रख दिया… वहाँ उस तेज धड़कते हृदय के बाहर ठीक उसकी छाती पर और वह कुछ बोला जो अब मुझे याद आता है तो कोर्इ शब्द नहीं बलिक एक लार जैसी संरचना की तरह याद आता है… इसके बाद तो वहाँ का पूरा वातावरण जैसे पागल हो गया था, लोग चीख रहे थे, शायद हमें मारना चाहते थे… या शायद वह शराबखाने की स्वाभाविक चीखपुकार थी… अब सोचूं तो मुझे संदेह होता है… उस रात की हर बात पर…. उसने कश खींचा और आगे बोलने लगा-”पर थोड़ी देर रंगों, आवाजों और रौशनी के बीच नशे में डोलते क्षणों के बाद मैने देखा….
”आप बिलकुल कविता की तरह बोलते हैं… पता नही कैसे मैने अपने आप को कहते सुना ”पहले कविता लिखते थे क्या? बोलकर लगा कि एक मूर्खता कर चुका हूँ पर अकारण ही शायद वह सुबह मेरे लिए बदल रही थी… एक शांत स्पेस में तब्दील होती हुर्इ.
”कौन नहीं लिखता अपनी उम्र में ? यह बोलते हुए बूढ़े ने जमीन पर राख झाड़ी. मैने ध्यान दिया अब मैं उससे आदरसूचक शब्द ‘आप से बात कर रहा था… पर अब इससे निकलना मुश्किल था… मैने सिर झटका.
”सुनो तो… उसने मुझे रोका… शायद कथा का वह हिस्सा आ रहा था जहाँ विघ्न उसे भी पसंद नहीं आ रहा था… थोड़ी देर में देखता हूं कि मेरे सार्जेंट दोस्त को लड़की के बाप ने अपने लोहे जैसे मजबूत हाथ में दबोच रखा था एक हाथ से गर्दन और दूसरे हाथ से दोस्त का हाथ पीठ पर मरोड़कर पकड़े हुए… वह एक ककड़ी की तरह मेरे दोस्त को तोड़ सकता था. इस समय वह एक मृत्यु-देव की तरह लग रहा था कुछ ही सेकेण्ड पहले वह कितना विनम्र लग रहा था बिल्कुल मेजबान… और हंसता हुआ. तभी सार्जेंट की आंखे मुझसे टकरार्इं… कि मैने अपने हाथ को बेल्ट से अपना चमचमाता छुरा निकालते महसूस किया और मैने उसे चला दिया उस देव के बड़े से काले कंधे की ओर… मेरे हाथों को वह झटका नहीं लगा जो एक गहरे-से घाव में घुस आए छुरे के रूकने पर हाथ पर लगता है पर मैने देखा… मैने देखा कि मेरे छुरे से दोस्त की ही कमीज थोड़ी सी फटी थी मेरा वार आदमी को नहीं लगा था और… और… उसने बुझने को आए सिगरेट को कसकर खींचा… देखा कि लड़की का… बूढ़ा रूका और अपना एकमात्रा साबुत अंगूठा मुझे दिखाकर उसने कहा… ”लड़की का अंगूठा कटकर जमीन पर गिर गया था… खून की एक पतली लकीर भर मेरे छुरे पर थी, उसका चमचमाता धारदार फल इससे ज्यादा की इजाजत भी नहीं देता था. …इसके बाद वहाँ कोलाहल और भगदड़ सी मची और कोर्इ हम पर हमला नहीं कर रहा था इसी आश्वसित के बीच मैने खुद को भागते पाया… पीछे थोड़ी दूर पर मेरा दोस्त भी आ रहा था, मुझसे ज्यादा हाँफता हुआ और ज्यादा बदहवास.
पता नहीं कैसे हम अपने कैम्प में पहुंचे और दूसरी सुबह मैने खुद को ज्वर में कांपते पाया दांत किटकिटाती ठण्ड और बुखार के बीच एक गर्मी भी मुझे घेरे थी, मेरे उपर मेरा भारी कम्बल था जिसे मैने कल तक बक्से से निकाला नहीं था… और मेज पर दवाएं रखी हुर्इ थीं… पानी से भरा हुआ कांच का गिलास… सफेद ढक्कन से ढंका.
शाम शाम को पता चला मेरे दोस्त को मिलिट्री हासिपटल ले जाया गया था उसे उल्टियां हुर्इ थीं… शरीर से पानी कम हो रहा था. रात के लगभग डेढ़ बजे मेरी नींद खुली. बुखार और खट्टे पसीने की बू के बीच मैने खुद को आर्इने में देखा एक दूसरा ही आदमी वहाँ से मेरी ओर देख रहा था…जैसे सरसाम की हालत में मैने ड्रेस पहनी, जूते पहने, अपना छुरा खोंचा और चल दिया बाहर…
गन मैंने एक बार उठार्इ और फिर वापस रख दी थी. कब मैं उसी शराबखाने के सामने खड़ा था याद नही… लेकिन इस वक्त वह बंद था, शायद रात बहुत हो जाने के कारण या शायद हमारे कल के बखेड़े के बाद वो इसे बंद करके चले गए हों… कहीं ओैर… शायद अपने ओैर भीतर के किसी गाँव… पुरखों की जगह… जो आज भी हमारा किला भी है और अरण्य भी… वह फिर कवि की तरह बोल रहा था.
” उस जगह को बंद देखकर इतना दुख मुझे उस क्षण हुआ कि पता नहीं कैसे मैने अपने ही छुरे से अपने ही अंगूठे को कटकर जमीन पर गिरते देखा… और मैं शायद वहीं गिर गया था या लौटकर अपने तम्बू के सामने गिर पड़ा था… मुझे तो ये भी याद नहीं है. इतना कहकर बूढ़ा रूक गया और सीधे मेरी ओर देखने लगा मैने सूखते गले में थूक गटका और सहमति में सिर हिलाया बूढ़ा सामने देखते हुए बोलने लगा -”होश आया… तो देखा ये… और हाथ पर पट्टी… अपना बिना अंगूठा वाला हाथ उठाकर मुझे दिखाते बूढ़े के चेहरे पर थोड़ी-सी मुस्कान आ गयी थी… पर मैं उसके जवाब में मुस्कुरा नहीं पाया.
…कहाँ पर रह पाता फिर फौज में ? बाहर आया, घूमा फिरा… काम किया… सब किया पर कुछ भी अच्छा नहीं लगता था उन दिनों. मन पर जैसे अपराध बोध जैसा कुछ जम गया था… पाप पुण्य सोचने वाला आदमी कभी नहीं था मैं पर था कुछ जो भीतर जम गया था. सोचता था ऐसी जगह चलू जहाँ कोर्इ भी… एक आदमी भी मुझे न पहचानता हो… न कभी ऐसा कोर्इ मिल सके… तो इधर आया… मानोगे नहीं पर तुमसे पहले शायद ही किसी ने मेरी आवाज सुनी हो इस शहर में.
लेकिन यहाँ तो काफी तमिल रहते हैं, आप भी यह जानते हो… फिर भी ? मैने पहली बार उसके सामने कोर्इ तर्क रखा.
”किसी से बोलता तब तो कोर्इ ये जानता… तुम क्या इतने साल में जान पाए थे… किसको फुरसत है ? बूढ़े ने मुझे निरूत्तर कर दिया था लेकिन एक और तर्क था जो मैं उस समय रखना चाहता था वह यह कि सारी गलती तो युवा सार्जेंट की थी फिर इस डाक्टर के इतने पापबोध और आत्म निर्वासन का क्या तर्क हो सकता है ? मैं यह बोल पाता कि इससे पहले बूढ़े को किसी से बात करते देखने के दृश्य से अचंभित मुर्गा दुकान के मालिक ने थोड़े अजीब-से स्वर में बूढ़े को बुला लिया. इसके लिए उसने कोर्इ नाम या कोर्इ रिश्ता नहीं पुकारा था एक अजीब सी आवाज ही निकाली थी… शायद यह उन दोनों के बीच का आविष्कार था, भाषा और संज्ञा का विकल्प. काफी ग्राहक वहाँ खड़े थे बूढ़े के इंतजार में… उसने मेरी ओर देखा हंसा और दुकान की ओर बढ़ गया.
उस सारे दिन और नींद आते तक मैं उसी के बारे में सोचता रहा था… दूसरी सुबह मैने फिर अपने आपको वहाँ पाया… इस बार थोड़ी देर से और थोड़े अतिरिक्त आत्मविश्वास के साथ. बाजार खुल चुका था लेकिन मुर्गे की दुकान पर अपनी परिचित जगह पर बूढ़ा नहीं था… बूढ़े की जगह आज एक अनाड़ी सा छोकरा ग्राहकों के मुर्गे काट रहा था… काफी धीमी रफ्तार में, इससे ग्राहकों की संख्या और उनका असंतोष थोड़ा बढ़ गया था. मैने मुर्गे वाले से पूछा कि आज बुढ़ऊ नहीं दिख रहा है… मुर्गे वाले ने काफी असंतुष्ट आवाज में मुझे जवाब दिया, बल्कि वह बाकायदा नाराज था-”कल पहली बार किसी को उस बूढ़े से बात करते देखा तो आपको… पता नहीं क्या बोल दिया आपने उसको कि आज गायब… और गजब तो ये किया कि मेरे बेटे को ये चिट्ठी आपको देने को बोलकर गया… क्या बात है सर ? उसकी शिकायत इतनी सामने थी कि उसके जवाब में कुछ अस्पष्ट सा कहकर हटा ही जा सकता था.
बहुत सलीके से मोड़कर स्टेपल किया हुआ… बाहर से वह एक अपेक्षाकृत अधिक सफेद कागज था शायद धूप की वजह से या उस दुकान में फैले खून और पंखों के कारण वहाँ से कोर्इ साफ चीज मुझे अपेक्षित नहीं थी. मैंने घर पहुंचकर कुर्सी पर बैठने तक अपने सब्र के विषय में रूमानी ढंग से सोचा और पत्र को खोल लिया-
”आपका सोचना ठीक है… और इसीलिए भी मुझे जाना पड़ेगा… कथा जो मैने आपको सुनार्इ, घटनाएं पूरी सच है पर पात्रों का परिचय मैने थोड़ा-सा बदल दिया था… लड़की का सीना पकड़ने का काम मेरे फौजी दोस्त ने नहीं मैंने किया था… दोस्त के धारदार चाकू की कौंध से उस दिन मेरे जीवन की रक्षा हुर्इ थी. उसकी जगह मैं होता तो शायद कभी भी वह जीवनदायी वार… भले ही उस क्षण वह थोड़ा असफल हुआ था… इतना भी मैं नहीं कर पाता. मेरे कारण लड़की का दो बार अपमान हुआ था… गहरा घाव कौन सा था कौन जाने ? अपना अंगूठा काटने की घटना सच है और अब आपके सामने भी इसका सही तर्क है.”
नीचे उसके हस्ताक्षर थे… एक आदमी जिसको बरसों बाद कुछ लिखना पड़ा हो और वह भूल भी चला हो अपना हस्ताक्षर… समय की धूल की परतों के भीतर से आए उन अक्षरों से कुछ और पढ़ पाना असंभव था.
बेहद खूबसूरत लेख ,छू गया
वाह महेश भाई! यार गुरु आप तो सच में छुपे महारुस्तम निकले….मज़ा आ गया…बधाई…
सुन्दर.. अति सुन्दर.. कई मनोवैज्ञानिक परतों के नीचे प्रहार करती है ये कहानी.. बहुत अच्छी लगी ..
very nice
वाह! रोमांचक एवं खूबसूरत
अन्तर्मन के पापबोध की सुस्पष्ट अभिव्यक्ति है आपकी कहानी मे .