गुमने की जगह: कुमार अम्बुज
यदि किसी शहर में गुम जाने लायक जगहें नहीं हैं तो वह एक अधूरा शहर है. बल्कि वह कोई विशाल मरुस्थल है. जहाँ धूप ही धूप है और छाया नहीं है. मरीचिकाएँ हैं और पानी नहीं है. जैसे वृक्ष तो है, डालियाँ भी हैं लेकिन पत्ते नहीं है.
मनुष्य की तरह गुम सकने के लिए शहर में कुछ जगहें तो बहरहाल हमको ही रुचिपूर्वक खोजना होती हैं. जो किसी शहर में कोई शिल्पकार, यंत्री या नगर निगम अध्यक्ष नहीं बना सकता. उनकी कोई सार्वजनिक सूचना नहीं होती. बस, वे जगहें शहर में अपने आप बनती चली जाती हैं, जैसे हमारे शरीर में घाटियाँ, खंदकें, पत्तियाँ, झाडि़याँ, गलियाँ और बीहड़ बनते हैं.
मैं एक निरपराध नागरिक और परेशानहाल मनुष्य की तरह कुछ देर के लिए अपनी दिनचर्या में गुमना चाहता हूँ ताकि अपनी ऊर्जाओं को इकट्ठा कर लूँ और खुद के बिखर गये पुर्जों को भी. अब मुश्किल यह है कि गुमने की ये जगहें रोज-रोज खत्म हो रही हैं. या खत्म की जा रही हैं.
किस्से को कुछ मुख्तसर किया जाये.
(एक)
बात थोड़ी सी पुरानी है.
एक दोपहर मैं बहुत उदास था. उदासी कुछ ऐसी प्रकृति की थी कि किसी मित्र, रिश्तेदार या परिचित से मिलना नहीं चाहता था. घर ने मुझे घेर लिया था और मैं बस, नष्ट ही होनेवाला था. यह उदासी किसी टाईमर की तरह मेरे भीतर लग गई थी और धमाका हो उसके पहले ही मैं एक गली में गुमने चला गया. गुमने के लिए यह बहुत मुफीद थी, हालाँकि इधर मैं महीनों बाद आया था. यह बहुत पुरानी गली थी. शहर बसने की शुरुआत में जो गलियाँ बनीं होंगी, उनमें से रही होगी. जैसा कि सहज रूप से विकसित होनेवाली गलियों के साथ होता है, इस गली की चौड़ाई लगातार कम ज्यादा होती रहती थी. कहीं सत्रह फुट तक थी और कहीं महज ढाई-तीन फुट. इस गली की सबसे बड़ी ताकत थी कि यह मनुष्य के मस्तिष्क में पायी जानेवाली शिराओं की तरह सर्पिलकार थी और अचानक कहीं भी मुड़ जाती थी. उसमें अनेक गलियाँ और स्मृतियाँ आकर मिलती थीं या उसमें से कुछ शाखाओं की तरह और दृश्यों की तरह फूटती थीं. इस तरह आकस्मिकता, जिज्ञासा, प्रसन्नता और विस्मय का निवास इसमें अपने आप हो गया था. यह गली मेरे घर से काफी दूर थी. मेरी तरफ के लोग इधर नहीं आते थे. कभी-कभार कोई आता भी था तो शायद वह भी गुमने के लिए ही आता होगा, इसलिए हम एक-दूसरे को देखकर पहचान नहीं पाते थे. कि हम तो गुमे हुए थे और यह कोई खोजने का खेल नहीं चल रहा होता था.
सब जानते हैं कि संवेदित, विचारवान, और दुखी मनुष्य को गुमने के लिए रोज कोई न कोई जगह चाहिए. जैसे ऑक्सीजन, रोटी, पानी, चुंबन, नींद और मंजन चाहिए. जैसे हम अपने ही किसी दुख की झाड़ी में, सुख की गलियों में और उम्मीद के झुरमुट में गुम जाते हैं. जैसे हम एक उजली शाम में या तारों भरी रात में गुम सकते हैं. हम हैं भी, और नहीं भी हैं. हम इसी शहर में हैं लेकिन अभी कोई हमें खोज नहीं सकता. खोज भी ले तो पा नहीं सकता. यह भागकर गुमना नहीं, उजागर होकर गुमना है. कि इस तरह गुम जाने में संभावनाएँ हैं. नये सिरे से वापसी है. इसी जीवन में फिर से अवतरित होना है.
बहरहाल, ऐसी जलेबी गलियों की खासियत यह भी होती है कि बार-बार गुजरकर भी आप इन गलियों की थाह नहीं पा सकते. इनके सारे अंधकार, उजास और रहस्य को भेद नहीं सकते. ये अमर यौवनाएँ हैं, जिनकी गोपनीयताएँ नित नवीन हैं. अब आप एक पुरानी, देखी-भाली गली में चल रहे हैं और साथ-साथ एक बेहद नयी, औचक और छूमंतर गली में भी. कंधे सटाये, एक-दूसरे के ऊपर गिरते-पड़ते नये-पुराने मकानों की ये गलियाँ गुमने के लिए शानदार जगहें हैं. बस, आपको चलते रहना होगा. मटमैले और कत्थई रंग के सारे शेड्स कदम-कदम पर मिलते हैं. लेकिन लाल-नीले-पीले-हरे रंगों की भी कमी नहीं. मजे की बात कि बीच गली में ही बड़ा सा दरवाजा आ जाता और अचानक आप किसी घर में से गुजर रहे होते. उस घर के सेहन में से ही होकर गली आगे बढ़ती. वहाँ आपको खटियाओं पर पापड़, बडि़याँ सूखती दिखतीं. राहगीरों की परवाह किये बिना दोपहरी की गपशप के साथ औरतें गृहस्थी के काम निबटातीं. लजीज खानों की खुश्बुएँ आपका पीछा करतीं. कहीं-कही, कभी-कभी ऐसा लग सकता है कि आप अरेबियन नाइट्स के किसी किस्से के दृश्य में से गुजर रहे हैं. या किसी आड़े-टेड़ी कलादीर्घा में से. या कभी लगता है कि फेलिनी या ऋत्विक घटक की फिल्म के किसी फ्रेम में से.
अब गली में मैं पूरी तरह गुम चुका था और अपने पुनराविष्कार में संलग्न था. सातवाँ या आठवाँ मोड़ आया होगा कि अचानक सामने दो लहीम-शहीम आदमी आ गये. मैं डर गया और ठिठक गया. कुछ समझता-बूझता उसके पहले, अगल-बगल की गलियों में से चार वैसे ही आदमी और निकल कर आये. उन्होंने मुझे घेर लिया. वे मजबूत काठी के और सेना के जवानों जैसी हेयर-कटिंग लिये थे. मुझे पसीना छूट गया लेकिन मैंने सोचा कि मैं एक सीधा-सादा नागरिक, मैं इनसे क्यों डरूँ? एक पल के लिए यह भी लगा कि कहीं ये गुण्डे तो नहीं हैं. उनमें से एक सुगठित आदमी ने कहा- ‘माफ करें, हम आपका बहुत देर से पीछा कर रहे हैं. आप चारों तरफ एक-एक चीज को देखते हुए इस गली में क्या कर रहे हैं, कहाँ जा रहे हैं.’ मैंने जानना चाहा कि वे लोग कौन हैं और क्यों यह पूछताछ की जा रही है. सुगठित ने बताया कि वे ‘राष्ट्रीय सुरक्षा दल’ के ऑफिसर्स हैं. मैंने विनम्रतापूर्वक नाम-पता बताया, पूरा परिचय दिया. लेकिन मैं अंदर तक भयभीत हो गया था. इसी भयजन्यता में यह तक बता दिया कि मेरी एक पत्नी और दो बच्चे हैं और बड़ी बेटी तो इस साल कक्षा दस में पूरे जिले में प्रथम आई है. इधर-उधर के रसूखवाले कुछ जान-पहचानवालों का संदर्भ दिया. फिर अपना ड्रायविंग लायसेंस निकालकर बताया. लायसेंस देखकर वे सब मुस्कराये. सुगठित ने फिर कहाः ‘जनाब, हम आपका चालान नहीं बना रहे हैं. हमारी बात का सीधा जवाब दें कि आप इस गली में इतनी देर से निगाहबाजी करते हुए क्यों घूम रहे हैं. आपका इरादा क्या है?’
कुछ सँभलकर आहिस्ता-आहिस्ता मैंने उन्हें बताने की कोशिश की- ‘यह मेरी प्रिय गली है. मैं यहाँ से दूर, शहर के उस कोने में रहता हूँ लेकिन यही मेरी प्रिय गली है.’ मुँह से निकलने को ही था कि मैं तो यहाँ कभी-कभी यों ही गुमने के लिए आ जाता हूँ. लेकिन लगा कि ‘गुमना’ कहना तो स्थिति को और बिगाड़ देगा इसलिए मैंने आगे बताया कि इस गली में घूमना अच्छा लगता है. और यह कि ‘राष्ट्रीय सुरक्षा दल’ के प्रति मेरे हृदय में बहुत सम्मान है. (डर अपना काम कर रहा था.) उनमें से केवल सुगठित ही बोल रहा था, मानो सिर्फ उसे ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता थी- ‘ठीक है. समझ गये. लेकिन अब आप तत्काल यहाँ से वापस जाइये. यह कोई घूमने या चहल-कदमी की जगह नहीं है. वैसे भी यह एक खतरनाक गली है. यह तो अच्छा है कि आपका चेहरा अजीबो-गरीब है वरना अभी तक हम आपकी लाश की बरामदगी कर रहे होते. पिछले चार महीनों से यह सुरक्षा दल की निगरानी में है और अब आप इसमें यों ही नहीं घूम-फिर सकते…..यहाँ कोई गुम भी नहीं सकता. छिप नहीं सकता.’
अरे! इन्हें कैसे पता चला कि मैं यहाँ गुमने आया हूँ. मैंने मन ही मन अचरज व्यक्त किया. सुरक्षा दल के लोगों को शायद मनोविज्ञान में दीक्षित किया जाता है. मैं असमंजस और अचरज में गोते लगा ही रहा था कि सुगठित ने आदेशात्मक चेतावनी में कहा- ‘यहाँ से दायें मुड़कर, मेन रोड से अपने घर जाएँ. आप के लिए यह जगह बिल्कुल सुरक्षित नहीं है.’ फिर वे छह के छह लोग गायब हो गये. जैसे वहाँ कभी थे ही नहीं. मुझे भी उस गली से बाहर होना पड़ा. तो मेरी प्रिय, गुमने की यह गली अब निगरानी में है. और गलियाँ कबसे खतरनाक होने लगीं? मैंने तो इस दिशा में कभी विचार ही नहीं किया. जरूरत ही नहीं पड़ी. लगता है मैं गाफिल हूँ. शायद अच्छा है कि ये लोग हम जैसे असावधान नागरिकों को सजग कर रहे हैं. लेकिन….लेकिन, यदि मेरी प्रिय गली में ही मैं सुरक्षित नहीं हूँ तो इस जहान में फिर भला कहाँ महफूज रह सकता हूँ!
हम समझ सकते हैं कि सैन्यबल की निगरानी में यदि कोई चीज आ जाये तो वह आमजन के लिए किस कदर असंभव और अप्राप्य हो जाती है. मैंने उस गली से विदा ली. संसार में से मेरे लिए एक जगह कम हो चुकी थी. यह कहना ज्यादा सच होगा कि वह छीन ली गई थी. एक क्षण के लिए मैंने खुद को अजीब ढंग से विस्थापित, वंचित और परतंत्र महसूस किया. शायद फिलीस्तीनी. शायद ईराकी. या शायद चीनी या अफगानी.
शायद मेरा दिमाग घूम गया था और मैं कुछ भी निश्चित नहीं कर पा रहा था, सिवाय इसके कि गुमने की मेरी एक प्रिय जगह छिन चुकी है.
(दो)
किंतु निराश होकर नहीं बैठा जा सकता था.
दुनिया की कोई ताकत साधारण मनुष्य को इस तरह खत्म नहीं कर सकती. मुझे जीना होगा. अपनी तरह से. तमाम ऐसी जगहें अभी होंगी जहाँ वक्त-जरूरत में गुम सकता हूँ. जहाँ खुद को पुनर्जीवित कर सकता हूँ. मैं इस शहर को भी इस तरह मरने नहीं दूँगा. इसे रेगिस्तान नहीं बनने दूँगा. चाहे पूरी सेना ही इस शहर में क्यों न लगा दी जाये. और जब मैं इस शहर को बचाना चाहता हूँ तो यह शहर भी मेरे लिए उद्यत रहेगा.
आशा, प्यार और उद्यम. मैं इन शब्दों में सक्रिय यकीन करता हूँ.
वह एक चाय की दुकान थी. जहाँ से शहर गाँवों की तरफ धँसता जा रहा था, उस चौराहे के एक किनारे वह थी. शहर आगे धँसता जाता था और उसके सहारे-सहारे वह भी आगे धँसती चली जाती थी. गर्मियों में वहाँ धूल उड़ती थी. सर्दियों में जब-तब कोहरा जमा हो जाता था. और बारिश में बादल उसे घेर लेते थे. कुछ पेड़ भी, अंतिम तौर पर काटे जाने से पहले उसके हिस्से में आते थे. इसे ‘चाय की दुकान’ कहने की बजाय, कहना चाहिए कि गुमने की इस प्यारी जगह में चाय भी मिलती थी.
यह जगह एकदम सुबह से लेकर देर रात तक उपलब्ध थी. यह अजनबियों और राहगीरों का डेरा थी. चार-पाँच अखबार पड़े रहते थे. जिनके सहारे सबको गुमने में मदद मिलती. फिर कोई उड़ती हुई धूल में गुम जाता, कोई कोहरे में और कोई बादलों में. कोई-कोई पेड़ो में. ये राहगीर, ये अजनबी कभी-कभी एक दूसरे को देखकर मुस्कराते भी थे. जैसे कहते हों कि किसी को बताइए मत कि अभी हम यहाँ गुमे हुए हैं. चाय पियें या न पियें, आप यहाँ बेरोक-टोक तरीके से बैठे रह सकते हैं. हालाँकि कौन अभागा होगा जो यहाँ आकर भी चाय न पीना चाहेगा. यहाँ दो-चार घंटों में ही वह प्राणवायु फेंफड़ों में भरी जा सकती थी जो इस दुनिया के प्रदूषण और बिगड़े पर्यावरण का सामना करने में बहुत काम आती थी.
लेकिन हर आदमी हर जगह में जाकर नहीं गुम सकता.
आप जहाँ गुम सकते हैं, वह जगह शायद मुझे अनुपयुक्त हो अथवा मुझे संतोष ही न हो कि मैं गुम गया हूँ. वह आश्वस्ति ही न मिले जो गुमने में होती है. और जहाँ जाकर मैं गुम सकता हूँ, मुमकिन है वहाँ जाकर आप रोशन हो जाएँ और हास्यास्पद तरीके से पकड़ लिये जाएँ. जाहिर है, मैं उस तरह गुमने की बात नहीं कर रहा हूँ जैसे कथाओं में रानियाँ कोपभवन में गुम जाती है, या जैसे बालि पर बाण चलाने के लिए राम गुमते हैं या पराजय के भय से छत्रपति किलों में गुम जाते हैं. और न ही उस तरह जैसे लोग धर्मस्थलों में गुमते हैं. या प्रार्थनाओं में. फॉर्म हाउसों में, पुलिस स्टेशनों, पंचतारा होटलों या विधानसभाओं में.
कभी मैं इस तरह भी गुम जाता था कि दुनिया को तो दिखाई देता था लेकिन वास्तव में उस वक्त मैं गुमा हुआ रहता था. जैसे, पिछली पंद्रह तारीख को इतवार था. दोपहरी में ढाई बजे रेडियो से हेमंत कुमार का एक गाना बजा. वह मुझे ढाँपने लगा. आखिर उसने मुझे पूरी तरह गुमा लिया. सब मुझे देख रहे थे और निश्चिंत थे कि मैं अपने कमरे में ही हूँ. सबको दिखता हुआ. लेकिन मैं गुमा हुआ था. मैं गुम नहीं हुआ था, न ही डूब गया था. बस, उस आवाज में गुम गया था. लेकिन सारे लोग मुझे देख पा रहे थे और आश्वस्त थे कि मैं यही हूँ. उनके पास हूँ. उपलब्ध हूँ. सच है, मनुष्य की संभावनाओं को आप खत्म नहीं कर सकते. कोई नहीं. न तानाशाह, न गुण्डे और न ही घर-गृहस्थी की कठिनाइयाँ. और न ही शेयरमंत्री या युद्धमंत्री की घोषणाएँ. गाढ़े संकट में अचानक कोई संगीत, चहचहाट, कोई आवाज आदमी को बचा लेती है. अपने भीतर जगह दे देती है.
मैं अब अवसादग्रस्त होऊँगा तो स्टेडियम में जाकर बैठ जाऊँगा. यह उन नयी जगहों में से है, जिन्हें मैंने अपने लिए खोजा है. शाम के मैदान में बच्चे हॉकी खेल रहे होंगे या बॉस्केटबॉल. वे अपना काम कर रहे होंगे, बिना मेरी तरफ ध्यान दिये. मैं विशाल स्टेडियम की दीर्घा के एक कोने में मूँगफली लेकर बैठ जाऊँगा और बैठा रहूँगा. जब तक कि तरोताजा न हो जाऊँ. हालाँकि उस प्रिय गली की दुर्घटना के बाद मैं बहुत आशंकित हो गया हूँ. मुझे लगने लगा है कि कोई है, जिसकी निगाह मेरे गुमने की जगहों पर है. कोई है जो मुझे मनुष्य नहीं रहने देना चाहता. कोई है जो मेरे एकांताधिकार को, मेरे आत्मालाप को और मेरी प्रयोगशालाओं को, जहाँ मैं अनुसंधान करता रहता हूँ, खत्म कर देना चाहता है. और यह पूरा खेल अब एक गुरिल्ला युद्ध में तब्दील हो चुका है.
कोई एक्ट, धारा या नियम भी ऐसा नहीं है जिसके अंतर्गत आशंका के आधार पर अथवा एकाध घटना का प्रमाण देकर शिकायत कर सकूँ. मेरे पक्ष में मेरी जिजीविषा के अलावा कुछ नहीं है. यों भी, मैं इस सबको किसी स्तर पर सार्वजनिक नहीं बना देना चाहता. इसलिए मजबूर हूँ कि यह लड़ाई अपने तईं जारी रखूँ. संघर्ष करते हुए, छापामारी करते हुए और अपनी गोपनीयता बनाये रखकर ही मैं बचा रह सकता हूँ. और इस शहर को बचा सकता हूँ.
मेरी आशंका निराधार नहीं थी. इस बीच मालूम हुआ कि बनते हुए शहर के कोने की चाय की दुकान को अतिक्रमण हटाओ दस्ते ने उखाड़ फेंका है. मेरी आशंका की और गहरी पुष्टि तब हुई जब मेरे पास एक लंबा दिन था और मैं कहीं जाकर गुमना चाहता था. क्योंकि मैं एक कविता की किताब के शब्दों में गुमना चाहता था. घर में यह मुमकिन नहीं हो पा रहा था. वहाँ बाजार का, सभ्यता और छुट्टी के दिन के घर का शोरगुल व्याप्त था. तो मैंने उस जगह जाना तय किया जहाँ तब ही जाना संभव होता था जब कुछ इत्मीनान और वक्त हो. शहर की पश्चिमी सीमा पर एक पोखर के किनारे, चट्टानों का एक संकुल था. पश्चिम में होने के कारण वहाँ देर शाम तक रोशनी टिकती थी. और चट्टानों ने मिलकर एक सुथरी जगह ऐसी बनायी थी कि गर्मियों में भी ठंडक रहती थी. पास में ही बाँस के घने झुरमुट थे. बाँस के झुण्डों को, बाँस के कुंजों, इन बाँसावलियों को यदि आपने नहीं देखा है तो फिर माफ करें, आपका जीवन कुछ हद तक तो अकारथ हुआ. इन बाँस समूहों और चट्टानों की ओट ने ऐसा तिलिस्म रचा है कि लगता है शहर की आत्मा दरअसल, यहाँ इस पश्चिमी किनारे पर निवास करती है. जैसे शहर के ठीक मुहाने पर, सूर्यास्त की दिशा में प्रकृति ने यह जगह मनुष्य के गुमने के लिए ही निर्मित कर दी है. ताकि प्रकृति और नागर सभ्यता के बीच वह एक स्वस्थ आवाजाही कर सके.
इस जगह पर पहले भी मैं आता रहा हूँ. अनेक किताबें यहाँ बैठकर पढ़ी हैं. कई बार मैंने यहाँ अपनी मृत माँ की याद में चले जाने का आत्मीय काम किया है. अपने उस भाई की याद करता रहा हूँ जो अभी जीवित है, इसी शहर में है लेकिन मुझसे बारह साल पहले बिछुड़ चुका है. इसी तरह अनेक दोस्तों को और किशोरावस्था को भी. दुनिया में जो कुछ मुझे और चाहिए, उसकी इच्छाएँ भी यहीं बैठकर करता रहा हूँ. इस तरह गुमने की इस जगह से मैं अपने अधूरे संसार को पूरा करने का प्रयास करता रहा हूँ. यहाँ चट्टानों पर बैठकर मुझे एक ऐसा कोण मिलता है जहाँ से मैं पूरे शहर को देख सकता हूँ. शहर मुझे नहीं देख सकता क्योंकि मैं तो गुमा हुआ हूँ. यह जगह मुझे पूर्णता देती है और गुमने की ताकत को नये सिरे से रेखांकित करती है. तो मैं कविता की एक किताब साथ लेकर आया. साढ़े चार किलोमीटर पैदल चलने से पैदा उत्साह और रसायन मेरे भीतर थे.
पहले मैं चट्टानों की तरफ बढ़ा कि ठंडक में बैठूँगा. लेकिन इरादा बदल गया कि बाँसों के संकुल के नीचे बैठूँगा. उनके ठीक बीच में जहाँ कुछ घास उग आती है, बाँस की पत्तियाँ भी वहाँ गिरकर एक कॉलीन बनाती हैं. अपने उस हरे-पीले कालीन तक जैसे ही पहुँचा तो देखा वहाँ घास और पत्तियों पर जगह-जगह खून के निशान हैं. मैं पसीना-पसीना हो गया. उल्टे पाँव भागा. कुछ दूर जाकर रुका और गहरी साँस ली. अब तय हो चुका है कि कोई है, जो मेरे गुमने की जगहों को खत्म कर देना चाहता है. कोई है जो मुझ मनुष्य का पीछा कर रहा है. जो मुझे घोंटकर मार डालना चाहता है. मेरे जीवन के स्त्रोतों को सुखा देना चाहता है.
अगले दिन के अखबार में ‘बाँसों की छाँव में हत्या’ शीर्षक से खबर छपी. एक छात्र को मार डाला गया था. जाहिर है, मेरी आशंकाएँ निराधार नहीं थीं.
(तीन)
चुनौतियाँ बढ़ती जा रहीं थीं. मैं गलियों में नहीं जा सकता था. स्टेडियम में बम रखने की अफवाह भी दो-तीन बार फैल गयी थी. कह सकते हैं, वह निशाने पर तो था ही. चाय की कुछ दूसरी दुकानें, संगीत, किताबें जैसी चीजें बाकी थीं. (हेयर कटिंग सेलून, आर्ट गैलरियाँ, सिनेमा हॉल, नाट्यशालाओं जैसी जगहों में मैं लगातार प्रतिकृत होता रहता हूँ,. विघ्न और व्यवधान बना रहता है. बेख्याली को मोहताज हो जाता हूँ. इसलिए यहाँ मैं चाहकर भी गुम नहीं पाता. यद्यपि मेरे कई मित्र कहते हैं कि गुमने के लिए ये भी खूबसूरत जगहें हैं. होंगी, उनके लिए होंगी. मैंने कहा न, कि जहाँ आप गुम सकते हैं, शायद वे जगहें मेरे लिए समुचित न हो.) फिर एक मनुष्य को गुमने के लिए नानाप्रकार की जगहें चाहिए. गुमने का इत्मीनान भी चाहिए. कि आप करीने से गुम सकें. अपनी आदमियत के साथ गुमे रह सकें. नहीं तो गुमने की जगहें कैदखानों में तब्दील हो सकती हैं. और मैं कोई अपराधी नहीं हूँ. फिर भी मेरे इत्मीनान को खत्म किया जा रहा था.
ऐसे में एक खजाना अचानक मिल गया.
किसी आविष्कार की तरह. या कहें कि उपहार की तरह.
अभेद्य प्रागैतिहासिक गुफाओं की तरह.
हुआ यह कि अभी परसों मैं शहर के बीचों बीच एक बेहद सार्वजनिक पुलिया पर बैठा हुआ था. वह एक चलती हुई सड़क थी. आसपास कुछ पुराने जमाने के पेड़ थे. पीपल, नीम और बकान के. सुबह सात बजे से मैं वहाँ बैठा हुआ था. और सोच रहा था कि आखिर मैं इच्छा होने पर कहाँ गुमूँ. हमेशा की तरह मैंने अपना मोबाईल बंद कर रखा था.
कई दिनों से मैं भटक रहा था और अब मुझे अपने लिए, अपने प्राणों के लिए और जीवन की राहों में फिर से जाने के लिए कुछ देर तक गुमने की जरूरत थी. पूरा शहर उस सड़क से मेरे सामने से गुजर रहा था. मैं सबको देख रहा था. हर आने-जानेवाले को. ठिठककर या थककर रुक जानेवाले को. हड़बड़ी में जाते इंसानों को. उस आदमी को भी जो पुलिया पर आकर, मेरे पास ही दूसरे किनारे पर बैठ गया. लेकिन धीरे-धीरे मैंने जान लिया कि लोग मेरी तरफ ध्यान नहीं दे रहे हैं. लगता है मुझे देख नहीं पा रहे हैं. तीन-चार दोस्त और अनेक परिचित भी उधर से गुजरे. कुछ ने तो टकटकी बाँधकर पुलिया की तरफ भी देखा. जैसे मेरी आँखों में ही देखा. लेकिन उनकी आँखों में कोई पहचान और चमक नहीं दिखी.
दोपहर बाद मुझे खोजते हुए पत्नी भी आयी, बेटी साथ में थी. आते-जाते लोगों से कुछ पूछ रही थी. पुलिया पर बैठे आदमी से भी पूछने लगी. मेरी तस्वीर उसके हाथ में थी. जबकि मैं उसके सामने था. न पत्नी ने मुझे देखा और न बेटी ने. न ही उन तमाम आदमियों ने. तो क्या मैं वाकई गुमा हुआ हूँ?
लेकिन मैं तो यहाँ सरेआम बैठा हूँ.
तब लोग मुझे देख क्यों नहीं पा रहे हैं! जरूर ही मैं किसी ओट में हूँ. कोई चीज है जो मुझे गुमा रही है और बचा रही है. शाम पाँच बजे के लगभग मैंने सिर कुछ आसमान की ओर उठाया तो देखा कि पीपल का एक पत्ता गिरता हुआ मेरे बालों में न जाने कबसे अटका है.
उसकी नोक मेरे माथे तक आ गई है.
अच्छा! तो मैं पीपल के इस गिरते हुए, अटक गये पत्ते में गुम गया हूँ. खासतौर पर पत्ते की इस लंबी नोक के पीछे. मैंने उन पेड़ों की तरफ, उनके पत्तों की तरफ कृतज्ञता से देखा. मुझे कुछ भरोसा हुआ कि मैं अभी सचमुच जीवित, ऊर्जस्वित और स्पंदित बना रह सकता हूँ. कि जब सब आपके खिलाफ हों तो शहर एक सच्चे दोस्त की तरह आपके साथ खड़ा हो सकता है और अपनी नैसर्गिकता और प्रकृति के साथ आपको शरण में ले लेता है. जरूरत पड़ने पर अपनी ओट में.
अब आप भले निहत्थे हैं लेकिन सुरक्षित हैं. विजेता हैं.
शहर में खोजबीन करने के लिए, जीवन का सामना करने के लिए फिर से तत्पर और प्रस्तुत हैं.
awe some story.
बहुत अच्छी कहानी …एक ऐसी कहानी जो कमोबेश हर संवेदनशील ह्रदय की व्यथा है ..’फिर एक मनुष्य को गुमने के लिए नानाप्रकार की जगहें चाहिए. गुमने का इत्मीनान भी चाहिए. कि आप करीने से गुम सकें. कहानी के शुरू के हिस्से (संस्मरणात्मक)थोडा अवसाद और निराशा का भाव पैदा करते हैं , शायद इसलिए कि वो हमारी अपनी तकलीफ से मेल खाते हैउस तकलीफ से जो भीतर महसूस करते हैं पर जिनके शब्द नहीं खोज पाते लेकिन अंत सकारात्मक और उत्साहवर्धक,”जब सब आपके खिलाफ हों तो शहर एक सच्चे दोस्त की तरह आपके साथ खड़ा हो सकता है और अपनी नैसर्गिकता और प्रकृति के साथ आपको शरण में ले लेता है. जरूरत पड़ने पर अपनी ओट में…..|अब आप भले निहत्थे हैं लेकिन सुरक्षित हैं. विजेता हैं.”
लोकतंत्र अगर तय कर ले कि उसे अपने प्रत्येक नागरिक को मुकम्मल नियंत्रण और सुविधानुसार ह्त्या के लिए सुलभ कर लेना है , तो उसे क्या करना चाहिए? सब से पहले लोगों के गुमने की तमाम जगहों को खत्म करदेना चाहिए . इस के लिए अफ्स्पा जैसे कानून , यू आई डी जैसे प्रोजेक्ट ,तमाम खुफिया एजेजेंसियाँ और ब्यूरो उपयोगी हैं , लेकिन पर्याप्त नहीं. ज़्यादा जरूरी यह है कि तमाम सार्वजनिक जगहों को ऐसी जगहों में तब्दील कर दिया जाए , जहां लोग खुद ही एक दूसरे की निगहबानी करने के लिए खुद को मजबूर पायें. लेकिन उसे याद रखना चाहिए कि ऐसी निगहबानी धीरे धीरे खुद एक पत्ते सरीखी ऐसी ओट बन जाती है , जो सामने मौजूद व्यक्ति और सच को पूरी तरह गुमा देती है. ऐसी गुमशुदगियाँ लोकतंत्र के लिए मौजूद खतरे को कई हज़ार गुने बढ़ा देतीं है. कहानी जब ऐसे ही किसी पत्ते की तरह लिखी जाए , और आप उस ‘में’ नहीं ,उस ‘से’ गुम हो जाएँ , तो वह ‘ऐसे’ लोकतंत्र के लिए एक बेहद खतरनाक कहानी बन जाती है .
आज इस कहानी को कोई आठवीं बार पढते हुए भी वही सिहरन महसूस हो रही है जो पहली बार हुई थी…एक बेचैनी,एक असुविधा, एक अजीब सा एहसास…यह यूं ही नहीं अम्बुज जी का लेखन मुझे हमेशा मेरे लिए पाठशाला जैसा लगता है…
पुराने से नए बनने के बीच के संक्रमण काल के दौरान की मन की व्यथा /अवस्था को बखूबी व्यक्त किया है कुमार अम्बुज ने! आज कालोनियों में पैदा हुए बच्चे कल को कुछ और ही निशां खोजेंगे ! एक गीत भी है ” दिल ढूड़ता है फिर वही, फुर्सत के रात दिन “!
कुछ भी लिखने से पहले रुकता हूं, ठिठकता हूं और सोचता हूं। कभी किसी ने विजयदेवनारायण साही के लिखा था कि यह बहस करता हुआ आदमी है। अंबुजजी की ये कहानियां और इसके अलावा भी कई कहानियां पढ़ने के बाद मुझे कहने दीजिए कि यह सोचता हुआ कहानीकार है…उनकी कहानियां तमाम तरह के अवसादों, पीड़ाओं, सत्रासों, दुःखों के बीच हमेशा जीवन का सामना करने के लिए फिर से तत्पर और प्रस्तुत करती हैं…
बहुत सुंदर कहानी। एक एक कर सब पढ़ूंगा।
इतनी सुंदर कहानी पढ़वाने के लिए आपको बधाई गिरिराज जी।
जब तक इंसान में जीजीविषा है अनेक विपरीत परिस्थितियों के बावजूद भी इंसान को जीवित रहने के अवसर भी आसपास मिलते ही रहेंगे पलायन करने वालों के लिए तो परिस्थितियां हमेशा प्रतिकुल ही होती है…. कवि कुमार अंबुज जी की असाधारण प्रस्तुति.
kahani me itna gum ho gaya ki mujhe laga nahi ki yeh khatam hui ya shuru hui
Its really good. But perhaps something is missing in this story and that is…reader ko baandhe rakhne ki capacity nhi hai. Apart from this, its really very good one, its an attack on present social condition.