और कितने यौवन चाहिए ययाति: अशोक कुमार पाँडे
इतनी मार! ऐसा अत्याचार! जैसे किसी बनैले सुअर का शिकार कर रहे हों. और गालियाँ…सिगड़ी के कोयले-सी धधकती आँखों से टपकती नफ़रत. काले नाग सी फुंफकारती बेल्टों की सपाट बक्कल से निकलकर तीनों शेरों ने जैसे एक साथ हमला कर दिया हो (अचानक से ‘लोकतंत्र के चौथे शेर’ की याद आई थी कि ठीक उसी वक़्त माथे के पिछले हिस्से पर जोर से बक्कल की चोट लगी और फिर उसके बाद कुछ याद नहीं रहा)
आखिर ऐसा क्या कसूर था मेरा? बस एक फोटो खींचने की इतनी बड़ी सज़ा? मुझे क्या पता था कि ऐसे एन वक़्त पर वह बेर उठाने के लिए झुक जायेगी और उसकी आँखों की जगह कैमरे में ……. अब तकदीर भी तो साली फूटी ही थी न कि ठीक उसी वक़्त मोबाइल भी घनघना उठा और चोरी पकड़ी गयी. फिर उसका चीखना, कम्यून की बाड़ के कँटीले तारों में शर्ट का उलझना, खून, पकड़ो, भागने ना पाए, गद्दार, जासूस, चोर, सड़क, जीप, रिक्शा, नाली, पुलिस, मोबाइल, गद्दार, पकड़ो, साला, कमीना, थप्पड़, जूते, बेल्ट, बक्कल, शेर, खून…उफ़!
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पाँच घंटे पुराना यह किस्सा दरअसल पूरे आठ साल पहले शुरू हुआ था जब गोरखपुर से 45 किलोमीटर दूर एक छोटे से कस्बे के राजकीय इंटर कालेज की आठवीं ख के क्लास-टीचर सादिक मियाँ के मझले बेटे अफजल खान ने अपनी बारहवीं की जीव विज्ञान की ‘सफ’ कापी के आखिरी पन्ने पर अपनी पहली प्रेम कविता लिखी थी
चाहता हूँ तुम्हें प्रेम करना
तुम्हारी झील सी आँखों में डूब कर
पार कर लेना चाहता हूँ यंत्रणा की गहरी खाइयाँ
तुम्हारे देह की अतल गहराइयों में
चैन से सो लेना चाहता हूँ उम्र जितनी लंबी एक रात
सारी निराशा, सारे अभाव, सारी चिंताएं
बहा देना चाहता हूँ तुम्हारे प्रेम के आवेग में
इतना मुश्किल नहीं यह सब कुछ
पर क्या करूँ इतना गहरा दाग है इस कलेजे पर…
तुम्हारी एक हँसी के बरक्स हज़ार परेशान सी छायाएँ
रुदालियों के अनंत विलाप
तुम्हारी एक छाँह के साथ
मीलों फैला दुखों का रेगिस्तान
हृदय की एक आकांक्षा के बरक्स
आत्मा की देह पर घाव हज़ार
शान्ति के उस एक पल के मुक़ाबिल
आवाजों और चीत्कारों के आक्षितिज बियाबान
मैं चाहता तो हूँ
हो जाना तुम्हारा शरणागत
पर अभिशप्त युग के बाशिंदे
कब पा पाते हैं
चाही हुई विश्रान्ति!
फिर जैसा कि अकसर होता है, रात में अफजल के सो जाने के बाद सादिक मियाँ ने उनकी शर्ट और पैंट की ज़ेबों, स्कूल के बैग और दराज़ की जाँच करने के बाद टेबल पर पड़ी कापियाँ पलटीं और यह कविता पकड़ी गयी. सादिक मियाँ ने सरसरी तौर पर कविता पढ़ी और फिर ‘या अल्लाह’ करते हुए जो कटे पेड़ की तरह धम्म से बिस्तर पर गिरने नुमा बैठे तो अफजल एकदम से उठ बैठा.
सादिक मियाँ दोनों पंजों के बीच अपना चेहरा छुपाये लगभग सुबक रहे थे…अफजल की नज़र खुली हुई कापी पर पड़ी तो सारा माजरा समझ में आ गया. वह उठा और छिटक कर कोने में खड़ा हो गया. अब तक अम्मी भी आ चुकीं थीं….बार-बार पूछा तो सादिक मियाँ ने वही पन्ना आगे बढ़ा दिया…अम्मी ने उलटा-पुल्टा पर उन्हें क्या समझ में आता? उनके लिए तो लिखा हुआ हर हर्फ़ एक जैसा था…सादिक मियाँ देर तक वैसे ही बैठे रहे…अम्मी ‘सब ठीक हो जाएगा’ की धीमी सी बेबस राग अलापती वहीं ज़मीन पर पड़ गयीं और अफजल उसी कोने में वैसे ही खड़ा रहा. फिर अचानक सादिक मियाँ उठे…और अफजल की ओर देखते हुए कहा उसकी माँ से …’बेवकूफ…अब कुछ ठीक नहीं होगा…इश्क हो गया है तुम्हारे साहबजादे को…मुदर्रिस की औलाद और बीमारी इश्क की… तुम्हारे मायके का यही असर होना था हमारी जिंदगी पर…हम क्या-क्या उम्मीदें लगाए बैठे हैं और ये चले हैं इश्क लड़ाने’…अंतिम वाक्य जैसे द्रुत लय में कहा गया और इसके खत्म होते-होते जीवविज्ञान की वह कापी अफजल के सर पर तबले की अंतिम थाप की तरह गिरी और लगभग उसी गति से सादिक मियाँ कमरे से बाहर निकल गए. अम्मी कुछ देर तक सुबकती रहीं फिर दुप्पट्टे से आँसूओं को सहारा देती वह भी बाहर निकल गयीं. दोनों के जाने के बाद अफजल ने पहले तो बड़ी फुर्ती से कापी से वह पन्ना अलग करके पैंट की जेब में ठूंस दिया फिर चैन से बैठकर सोचने लगा कि आखिर उसे इश्क हुआ किससे है? लेकिन ख्याल मोहल्ले की सारी लडकियों के चेहरे पार करके ज़हीर मामू की कोठी तक पहुँच गए. वही कोठी जिसके सबसे बाहर वाले कमरे में मामू का दफ्तर था. वही दफ्तर जिसमें किताबों की वह हैरतंगेज दुनिया थी जिसमें गोते लगाने वह पागलों की तरह जाया करता था…अब्बू की इजाजत के बगैर किया जाने वाला इकलौता काम.
अब्बू जहीर मामू से बेइन्तिहाँ नफ़रत करते थे. वैसे भी कामरेड ज़हीर उल हक से इश्क और नफ़रत करने वालों की कोई कमी न थी. मजलिसों में उन्हें खुलेआम काफ़िर कहा जाता था तो मंचों पर उनकी एक आवाज़ पर सैकड़ो लोग मरने-मारने को तैयार हो जाते थे. दरमियाना कद, फ्रेंच कट दाढ़ी, पान से चौबीसों घंटे सुर्ख होठ और आँखों पर मोटा चश्मा. मामू बोलते तो फिर अच्छे-अच्छों की बोलती बंद हो जाती. बारह साल पहले जब उन्होंने एक ब्राह्मण लड़की से शादी की थी तो वह कस्बे का पहला ‘प्रेम विवाह’ था. अपराजिता शुक्ला इलाहाबाद यूनिवर्सिटी की सबसे ख़ूबसूरत लडकियों में शुमार थीं और ज़हीर वहाँ उन दिनों इन्कलाब की अलख जगाते घूम रहे थे. छात्रसंघ के चुनाव में शहर के एम एल ए और खानदानी कांग्रेसी रामायण मिश्र के प्रपौत्र को हराकर जब वह अध्यक्ष बने तो शहर की राजनीति में जैसे भूचाल आ गया…लेकिन जब उन्हीं मिश्रा जी की ममेरी नतिनी से उनके इश्क के चर्चे फैले तब तो जैसे जान पर बन आई. खैर मामू ठहरे मामू…शादी हुई…गोलियाँ चलीं…दंगे बस होते-होते रह गए…और मामू को शहर छोडना पड़ा. फिर जो कस्बे में लौटे तो यहीं रह गए. हिंदुओं की लड़की उड़ाने से खुश रिश्तेदारों को जब मज़हब और दीन पर मामू के ख्यालात मालूम पड़े तो उनका भी भ्रम टूट गया. मामू अपनी किताबों, वकालत और मजदूर आंदोलन में ऐसे डूबे कि रिश्तेदारों का उनकी ज़िंदगी में कोई खास मतलब ही नहीं रह गया.
मामू से अफजल का रिश्ता अजीब था. मज़हब के बारे में वह उनसे एक लफ्ज सुनने को तैयार नहीं था लेकिन इसके अलावा हर मसाइल पर मामू का कहा अंतिम सत्य था उसके लिए. मामू और मामी के पास दुनिया के हर सवाल का जवाब था. उनकी किताबों में सारी दुनिया थी. प्रेमचंद, अमरकांत, यशपाल, मंटो, निकोलाई आस्ट्रोवस्की, हावर्ड फास्ट, बर्तोल्त ब्रेख्त, मार्केज, डी एच लारेंस, तालस्ताय, केदार नाथ अग्रवाल, नागार्जुन, येहूदा आमीखाई, राजेश जोशी, मंगलेश डबराल, पाश, कुमार विकल….जो मिलता वह पागलों की तरह पढता चला जाता. सस्ते कागजों पर छपी तमाम पत्रिकाएं जिनमें कई बार तो कवर भी ब्लैक एंड व्हाईट होते. उनमें छपी मामी की कविताएँ पढते हुए उसे लगता कि काश कभी यहाँ मेरा नाम होता….यह कविता उन्हीं पत्रिकाओं और किताबों की मोहब्बत से जन्मी थी और बिना मामी को दिखाए वह इसे नष्ट नहीं होने दे सकता था. कहीं वह मामी से ही तो इश्क नहीं कर बैठा था…यह ख्याल आते ही एक गुलाबी-सी मुसकराहट चेहरे पर आई और फिर तुरत ही कानो तक पहुंचे हाथों ने तौबा कर ली.
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तब लगता था अब्बा मुझे समझने की ज़रा भी कोशिश नहीं करते. अब सोचता हूँ कि बाप-बेटे के रिश्ते में समझने-समझाने की गुंजाइश ही कहाँ होती है? आपने फ्रेंजन की करेक्शन पढ़ी है? इतने खुले दिमाग वाला अल भी कितना समझ पाया अपने बच्चों को और उसके बच्चे भी कहाँ समझ पाए उसे …और समझा तो क्या ही पाते वे खैर एक दूसरे को…खूंटों से बंधे जानवर लड़ाई में सिर्फ अपना नुक्सान करते हैं. तो अब्बा ने ब्लडप्रेशर की बीमारी पाल ली और मैंने घर छोड़ दिया.
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पागल हो गया था लड़का. चौबीसों घंटे खुराफात. न आज का होश न कल का ख्याल. पता नहीं कौन-सा नशा था. किताबें हमने भी पढ़ी हैं…लेकिन किताब के फार्मूले ज़िंदगी में नहीं चलते. चाँद में बैठी अम्मा के हाथ का काता कपड़ा पहना है किसी ने आज तक? लेकिन इनके पाँव तो थे ही नहीं ज़मीन पर. जहन्नुम मिले इस ज़हीर और बाभनी को. अपने खानदान की नैया डुबो कर चैन नहीं मिला तो मेरे बेटे के ही पीछे पड़ गए. ठीक है…ज़हीर ने जो किया सो किया. पर पढ़ाई तो ढंग से की. बाप की जायदाद है, अच्छी प्रैक्टिस है, दिल्ली तक पहुँच है तो उनका कोई क्या कर लेगा? लेकिन ये जनाब…बारहवीं में चौहत्तर फीसदी नंबर लाने के बावजूद जाके गोरखपुर यूनिवर्सिटी में बी ए में नाम लिखा आये…क्या सब्जेक्ट लिए हैं – इतिहास, दर्शन और हिन्दी! फिलासफर बनने का शौक चर्राया है. चार-चार आने की सडी हुई पत्रिकाओं में छपकर खुद को कवि समझने लगे हैं. जब सारी दुनिया इंजीनियर, डाक्टर, एम बी ए और न जाने क्या-क्या बनने पर लगी है तो ये न जाने कौन से सपने पाले बैठे हैं…पहले लगा था कि इश्क-विश्क का चक्कर है. लेकिन ये जनाब तो इससे भी आगे निकल गए हैं. कहते हैं दुनिया बदल डालेंगे. इनके बदलने से बदल जायेगी दुनिया…बड़े-बड़े तो थक हार के बैठ गए अब ये चले हैं दुनिया बदलने! कौन समझाए इन्हें कि दुनिया ऐसे ही चलती रहती है अपनी चाल से. कितने हो-हल्ले मचे लेकिन हुआ कुछ नहीं. ज़मींदारी चली गयी कागजों से पर खेत पर काबिज जमींदार रहे. जाति-पाति मिट गयी कागज़ पर लेकिन बाभन-बाभन रहा और मेहतर मेहतर. संविधान में लिख दिया गया सेकुलरिज्म लेकिन ज़मीन पर दंगे होते रहे मुसलसल. कितना लड़े ज़हीर साहब शूगर फैक्ट्री के मजदूरों के लिए…पर हुआ क्या? दिल्ली-लखनऊ की एक कलम के आगे सब बेबस…देखते-देखते वीरान हो गयी फैक्ट्री. इस दुनिया में कामयाब वही है जिसने अपने लिए एक महफूज कोना खोज लिया. लड़ने वाले सिर्फ इतिहास की किताबों में इज्जत पाते हैं, ज़िंदगी तो समझौतों से चलती है. बीस साल से हिंदुओं के कालेज में पढ़ा रहा हूँ…सरकारी है तो क्या हुआ…मेरे और सलीम मेहतर के अलावा एक कर्मचारी नहीं रहा कभी मुसलमान. दांतों के बीच में जीभ-सा रहता हुआ मैं जानता हूँ हकीक़त इस मुल्क की. सोचा था पढ-लिखकर एक लड़का किसी ढंग की नौकरी में आ जाएगा तो ज़िंदगी चैन से गुजर जायेगी. एक तो वैसे ही किसी मुसलमान के लिए नौकरी मुश्किल है और ऊपर से इसके ऐसे लक्षण…पता नहीं क्या होगा इसका? सुनता भी तो नहीं…थोड़ी सख्ती की कोशिश की तो घर ही छोड़ दिया…पता नहीं कैसे रहता होगा बिना पैसों के…अल्लाह अक्ल दे इस नादान को…वह कमबख्त तो अब तेरे वजूद से भी इंकार करता है…लेकिन तू तो परवरदिगार है मालिक…अब तेरे करम का ही भरोसा है वरना तो कहीं कोई उम्मीद नज़र नहीं आती…
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आपने उम्मीद की शक्ल देखी है?
उन दिनों हमें वह बिलकुल सी पी की आँखों जैसी लगती थी.
अजीब से दिन थे. चौबीस घंटों में छत्तीस की ऊर्जा…लगता कि एक पल भी चुके तो इन्कलाब सदियों दूर चला जाएगा. सी पी को सुनते हुए हम सारी ज़िंदगी गुजार सकते थे उन दिनों. सिगरेट के धुंए से भरे कमरों में सारी-सारी रात चलने वाली स्टडी सर्किल्स…कालेजों-स्कूलों के गेटों पर नुक्कड़ नाटक, भीड़ भरे चौराहों पर आम सभाएँ, परचे-पोस्टर-अख़बार…बहसें…तैयारियाँ…और क्या होती है ज़िंदगी इसके सिवाय? आप नहीं समझेंगे यह सब … आप कहाँ मिले किसी सी पी से सोलह की उम्र में? हमारे लिए तो बस कम्यून ही ज़िंदगी थी.
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इसके आगे की कहानी न अफजल बता पायेगा न अब्बू … कुछ चीजें थोड़ी दूर से ही साफ़ दिखाई देती हैं…. पहाड़ की चोटी पर खड़े होकर पहाड़ की ऊँचाई का अंदाज नहीं लग सकता. भीतर से जो कम्यून लगता था, वह बाहर से देखने पर शहर के एक पुराने मोहल्ले का मकान लगता था जिसकी मिल्कियत कभी मधुरिमा के पिता के पास थी और जिसके उत्तराधिकार के लिए हाईकोर्ट में मुकदमें चल रहे थे तो बहुत दूर से देखने वालों को यह एक ऐसा अनैतिक अड्डा लगता था जिसमें लड़के-लडकियाँ साथ रहते थे. कुल सात कमरों वाला एक पुराना मकान जिसके बाहर एक छोटा सा बरामदा था और पीछे एक किचन गार्डन जिसके चारों ओर की सात फुट ऊँची चहारदीवारी पर कँटीले तारों की तीन फेरों वाली बाड़ लगी थी. इसमें ही रहते थे अफजल, श्रीकांत, अभय, राजेश, निहाल, रत्ना, निशिता, रंजना और अनामिका. बाहर का कमरा संगठन के दफ्तर की तरह उपयोग में लाया जाता था. अंदर जाते ही बाईं ओर का सबसे पहला और बड़ा कमरा सी पी और मधुरिमा के लिए था. वे जब यहाँ आते तभी उसे खोला जाता. उससे लगे दोनों कमरे लडकियों के लिए थे. दाहिनी ओर के पहले कमरे में लाइब्रेरी थी और दूसरा संगठन का स्टोर रूम. बाक़ी दोनों कमरे लड़कों के थे जिसके ठीक बाद किचन था. बीच के आँगन में एक पुरानी खाने की मेज थी जिसका उपयोग खाने के लिए कम और बैठकों के लिए अधिक किया जाता था. घर का खर्च चलाने के लिए सभी कुछ न कुछ करते थे. ज्यादातर ट्यूशन पढ़ाते…निहाल किसी सेठ के यहाँ रोज दो घंटे एकाउंट्स का काम करता था, निशिता एक प्रेस के लिए कम्पयूटर पर डिजाइनिंग करती थी. बस अनामिका के बारे में किसी को कुछ पक्के तौर पर मालूम नहीं था. वह शायद अनुवाद का काम करती थी…काम अकसर रात में ही करती थी वह तो उसके लिए सी पी वाला कमरा उपयोग करने की छूट थी. जब सी पी या मधुरिमा नहीं होते तो वह रात को उस कमरे में चली जाती जहाँ से देर रात तक टेपरिकार्ड से गानों की आवाज़ और खिड़की के शीशों से रौशनी आती रहती. रहना तो मैं भी चाहता था वहाँ लेकिन फिर संगठन के काम से मुझे हास्टल में ही रहने को कहा गया. तब कितना बुरा लगा था…अब लगता है कि सच में जो होता है अच्छे के लिए ही होता है क्या? फिर यह बाकियों के साथ क्यूँ नहीं हुआ? कम से कम अफजल के साथ तो होना ही चाहिए था.
एहसास तो मुझे पहले ही हो गया था कि अफजल के लिए आसान नहीं वहाँ रह पाना. निहाल और निशिता के अलावा और कोई नहीं था वहाँ जिससे उसकी पटती हो. महीने के अंत में होने वाली बैठकों को लेकर वह जिस तरह तनाव में रहता था, मैंने कई बार उससे यह कहना चाहा कि वह हास्टल में आ जाए लेकिन कभी कह नहीं पाया. सी पी से कहने की कोशिश की तो वह बोले कि ‘कम्यून के सदस्यों में सबसे ज़्यादा सुधार की ज़रूरत अफजल में ही है. वह अपनी सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि के चलते दोहरी दिक्कतों का सामना कर रहा है. एक तरफ तो उसके परिवार की निम्नमध्यवर्गीय पृष्ठभूमि तो दूसरी तरफ जहीर उल हक जैसे संशोधनवादियों का प्रभाव उसकी सारी राजनीतिक समझदारी को प्रभावित करता है. तुम्हीं सोचो कि आखिर उसे ट्यूशन क्यों नहीं मिल पाते? क्यूँ वह इतनी अधिक भावुकता का शिकार है? तुम्हें याद है न अभियान के दौरान गर्ल्स कालेज के गेट पर उसका व्यवहार? इसकी जड़ें उसकी मानसिक बुनावट में हैं. इससे लड़ने के लिए उसका आलोचना-आत्मालोचना के गहन और तीखे दौर से गुजरना ज़रूरी है. मैंने जब आशंका ज़ाहिर की कि कहीं वह टूट न जाए तो सी पी ने जो कहा वह सुनकर मैं भीतर तक हिल गया – ‘यह क्रान्ति की लड़ाई है कामरेड…कमजोरों के लिए इसमें कोई जगह नहीं.’
कमजोरों के लिए कोई जगह नहीं? इस एक वाक्य ने मुझे हफ़्तों सोने नहीं दिया. क्या हम सिर्फ मज़बूत लोगों की लड़ाई लड़ रहे हैं? क्या हम उस सेना की तरह हैं जहाँ घायलों को उनकी हालत पर छोड़ दिया जाता है? कमजोरों के हक की लड़ाई में कमजोरों के लिए कोई जगह नहीं! कमजोर तो था अफजल. पढते-पढते उसकी आँख में आंसू आ जाते, जेब में बचा आखिरी नोट भी वह किसी परेशान दोस्त पर खर्च कर देता, बसों में अकसर किसी बुजुर्ग के लिए सीट खाली कर देता, संगठन के सख्त निर्देश के बावजूद अगर ज़हीर मामू शहर में आते तो किसी भी तरह उनसे मिल लेता और छुप-छुपाकर अम्मी से फोन पर बात कर ही लेता महीने-दो महीने में…एक आरोप तो कविता लिखने का भी था…सीधे कोई कुछ नहीं कहता लेकिन जब पत्रिकाओं में उसकी कविताएँ छपतीं तो कुछ दिनों के लिए उसकी पैरोडियाँ कम्यून में गूंजती रहतीं…उस दिन गर्ल्स कालेज के गेट पर खोमचा लगाने वाले ने जब उसके भाषण के बाद अपनी दिन भर की कमाई उसे चंदे में दे दी तो उसकी आँखें भर आईं और उसने उसमें से एक दस का नोट निकालकर बाक़ी सारे पैसे वापस कर दिए. शाम की बैठक में सी पी से इस बात की शिकायत हुई तो उन्होंने उसकी सार्वजनिक भर्त्सना का प्रस्ताव रखा और उसे आत्मालोचना का आदेश मिला. वह भरी आँखों से बस इतना कह पाया कि ‘बहुत गरीब था बेचारा’…राजेश इसे आत्मालोचना मानने को तैयार नहीं था. मैंने एक दिन का समय माँगा अफजल के लिए तो सी पी ने मुझे भी चुप करा दिया और फिर उसे दंड मिला – अगले पूरे हफ्ते अभियान से बाहर रहकर कम्यून के सारे काम अकेले करने का और साथ में लाइब्रेरी में उसके प्रवेश पर पाबंदी. उसी दौरान एक शाम जब बाकी सदस्य अभियान में मिले पैसों की गिनती करने और फिर मधुरिमा के नए संग्रह से कविताएँ सुनने में लगे थे तो बर्तन मांजते हुए उसने मुझसे कहा था, ‘ मुझे पता है संजय मैं कमजोर हूँ. छोटा था तो भाई और दोस्त भी मेरा मजाक उड़ाते थे. मैं फिल्में देखते-देखते रोने लगता, कुर्बानी के लिए लाए गए बकरे को हफ्ते भर प्यार से पालने के बाद उसका गोश्त मेरे गले से नीचे नहीं उतरता था. सब मजाक उड़ाते लेकिन ज़हीर मामू कहते थे कि यह तेरे इंसान होने का सबूत है. हो सकता है ज़हीर मामू भी कमजोर रहे हों…मैंने देखा है उन्हें अकेले में रोते हुए जब शूगर फैक्ट्री बंद हुई थी. क्या आंसू इतने बुरे होते हैं? मैं कोशिश कर रहा हूँ… शुरुआत कर भी दी है मैंने…पिछले तीन महीनों से एक भी कविता नहीं लिखी…लेकिन सब तो मेरे वश में नहीं. क्या करूँ अगर नहीं मिलते मुझे ट्यूशन? हो सकता है मुझे ठीक से पढाना ही न आता हो…हो सकता है मुझमें इतना आत्मविश्वास ही न हो…निहाल कहता है कि छह दिसंबर के बाद लोग अपने घर में किसी मुसलमान का प्रवेश नहीं चाहते…अनामिका इसे बकवास कहती है…वह सही कहती है…आखिर कामरेडों के घर भी तो नहीं पढ़ा पाया मैं ठीक से. सी पी भी सही कहते हैं. दिक्कत मेरी पृष्ठभूमि में ही है. लेकिन क्या मैं जिम्मेदार हूँ अपनी परवरिश के लिए? पर सुधारना तो मुझे ही होगा…शायद अब तक संघर्ष से भागता रहा हूँ मैं…मुझे लगता है कि अब मुझे अपने माजी से दूरी बनानी होगी. चलो नहीं मिलूँगा अब मामू-मामी से. अम्मी को फोन भी नहीं करूँगा. कोशिश करूँगा कि मज़बूत बन सकूँ. लेकिन यह नहीं जानता कि कभी कामयाब हो सकूंगा कि नहीं. जानते हो…कभी सोचता हूँ कि जब राज्यसत्ता से सीधी जंग होगी तो मैं क्या करूँगा…क्या गोली चला पाऊँगा मैं किसी इंसान पर? अपनी तमाम नफ़रत के बावजूद कहीं मेरी उँगलियाँ काँप तो नहीं जाएँगी…मैं सो नहीं पाता सारी-सारी रात यही सोचकर कि क्या इन्कलाब की इस लड़ाई में मैं सच में किसी काम का नहीं. फिर सोचता हूँ कि किसी और को नहीं मार सकता तो क्या खुद को तो मार सकता हूँ न. पीठ पर बम बांधें कूद जाऊँगा जहाँ सी पी कहेंगे.’
ठीक-ठीक याद नहीं कि मैंने क्या कहा था उस वक़्त. बहुत कुछ कहने की स्थिति में था ही नहीं मैं शायद. शायद पहली बार मेरे मन में संगठन के पूरे ढाँचे और सीपी को लेकर तमाम सवालात उफन रहे थे. उस रात मैं लौटकर हास्टल नहीं गया. सीधे नरेन दा के कमरे पर चला गया. वह बेहद लंबी रात थी…नरेन दा की छत पर चाँद जैसे ठहर कर हमारी बातें सुन रहा था… उस उमस भरी रात में सब कुछ ठहरा हुआ था…बस नरेन दा की आवाज़ थी जो सिगरेट के धूंए के साथ सीने के भीतर कहीं गहरे जज्ब होती जा रही थी…. ‘ इन्कलाब के मानी क्या हैं? आखिर किस लिए इन्कलाब? क्या सिर्फ इसलिए कि हमारे पुरखे मार्क्स ने कहा था कि इन्कलाब होना चाहिए…तो उसके किसी सपने को पूरा करने के लिए हम इन्कलाब की लड़ाई में लगे हैं… क्या दुनिया को बदलने का मतलब बस यही है? जो दुनिया आज है उससे बेहतर दुनिया अगर हम नहीं बना सकते तो क्या मतलब इस कवायद का? किसके लिए यह लौह-अनुशासन? जानते हो जनता लेनिन के पीछे क्यूँ आई थी? क्योंकि उसे भरोसा था कि वह उसके लिए जार से बेहतर ज़िंदगी देगा. वह उनके पैरों की बेड़ियाँ काट डालेगा और उनकी जबान को आवाज़ बख्शेगा…और उसने यह किया. तुमने सुना होगा तमाम लोगों से कि ‘इससे तो अंग्रेजों का शासन बेहतर था’…क्यूँ कहते हैं ऐसा लोग? क्योंकि उन्हें महसूस होता है कि आज हालात उस वक़्त से भी बदतर हैं…यह सिर्फ पुराने मालिकान के प्रति श्रद्धा से नहीं उपजा है संजय…जनता किताबें नहीं पढ़ती…उसे दर्शन की गहराइयों से मतलब नहीं. उसे तो अपनी ज़िंदगी में बेहतरी चाहिए. और यह बेहतरी कैसे हासिल हो सकती है? कोई बुरा कारीगर कभी अच्छा घर नहीं बना सकता. बेहतर इंसान ही बेहतर दुनिया बना सकते हैं. हम अगर बेहतर इंसान नहीं तो हम कभी क्रांतिकारी नहीं हो सकते. यह युद्ध का मैदान नहीं समाज है संजय. यहाँ की लड़ाइयां युद्ध के नियमों से नहीं जीती जातीं. तुम जो अफजल के बारे में बता रहे हो वह उसके अच्छे इंसान होने का सबूत हैं. ज़हीर को मैं इलाहाबाद के ज़माने से जानता हूँ. उसकी राजनीति से कभी सहमति नहीं रही लेकिन उसके अच्छे इंसान होने में कोई शक नहीं. इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के अध्यक्ष का रुतबा जानते हो तुम? अगर चाहता तो बस रामायण मिश्रा से थोड़े बेहतर सम्बन्ध रखने थे उसे और सत्ता के गलियारे खुले हुए थे उसके लिए. अपराजिता को वह समझौते में स्टेक की तरह उपयोग कर सकता था लेकिन उसने कोई समझौता नहीं किया. वह उसके लिए कोई ‘पीली छतरी वाली लड़की’ नहीं थी जिसे उसने रामायण मिश्रा से बदले के लिए फँसाया हो. उसने प्रेम किया और उसके लिए बलिदान किया. लेकिन शूगर मिल वाली लड़ाई एक अच्छा इंसान होने के बावजूद वह नहीं जीत सका. क्योंकि केवल अच्छा इंसान होने से भी काम नहीं चलता. वह अब भी नेहरूवादी समाजवादी माडल पर भरोसा कर रहा था, राज्य की सदाशयता और क़ानून पर भरोसा कर रहा था…वह देख ही नहीं पाया कि नब्बे के बाद चीजें कैसे बदल गयीं हैं और वह हारा. इस लड़ाई में जीतने के लिए सही राजनीति चाहिए और उसे लागू करने के लिए सच्चे इंसान जिनके सीने में इंसानियत के लिए बेपनाह मुहब्बत हो. चे को पढ़ा है न तुमने? प्रेम को कितनी ऊंची जगह दी है उसने… उसकी बरसी पर फिदेल ने जो कहा था पढ़ना कभी. यह सब वही कह सकते हैं जिनके दिल में मुहब्बत का जज्बा हो. जानते हो चे ने क्यूबा की मुक्ति की लड़ाई का एक मेमायर लिखा है. उसमें एक प्रसंग आता है जब उनके बीच का एक साथी गद्दार निकलता है और उसे मारना पडता है. वह युद्ध का समय था, जीवन-मरण का प्रश्न… फिर भी उस साथी के लिए चे के मन में जो करुणा है, मानव मात्र के लिए फिदेल के मन में जो करुणा है वह वहाँ साफ दिखाई देती है. सत्ता में आने के बाद उस साथी के बच्चे और परिवार को वह सारी सुविधाएँ प्रदान की जाती हैं जिस पर एक आम क्यूबाई का हक है और जिस समय चे लिख रहा था इस किताब को वह बच्चा क्यूबा में एक अधिकारी बन चुका था…ब्रेख्त कमजोर था क्या? फिर क्यूँ लिखा उसने — कमजोरियां/ तुम्हारी कोई नहीं थीं/मेरी थी एक/ मैं करता था प्यार…तनाव और संघर्ष के उस दौर में वह यह कविता लिख सकता था और हम शांतिकाल में बेहद धीमे स्तर पर चल रहे जनांदोलनों में भी सहिष्णु नहीं रह पाते? कभी सोचा है क्यूँ?
वह घर जिसे सी पी कम्यून कहता है, क्या सच में कम्यून है? जिम्मेदारियां तो बराबरी में बंट जाती हैं लेकिन क्या सच में वहाँ सबका बराबर का हक है? अगर मधुरिमा मुकदमा हार गयी तो सबको वहाँ से निकलना होगा लेकिन अगर जीत गयी तो? मैं ज़्यादा कुछ नहीं कहूँगा लेकिन यह हमेशा ध्यान रखना कि जो बलिदान तुम कर रहे हो वह सही उद्देश्य के लिए है या नहीं. जिस समय आंदोलन में बिखराव होता है, जनता की इससे दूरी बढ़ती चली जाती है उस समय तमाम ऐसे तत्व हावी हो जाते हैं जिनका कोई दीर्घकालीन उद्देश्य होता ही नहीं. ऐसा नहीं कि ये पहले दिन से ही ऐसे ही रहे हों. लेकिन समय के साथ-साथ ये विकृतियाँ बढ़ती जाती हैं और फिर एक दिन उनकी पूरी चेतना पर हावी हो जाती हैं. यह उस इंसान की ही नहीं राजनीति की भी कमजोरी होती है. दुर्भाग्य से यह ऐसा ही दौर है, संगठनों में टूट-फूट, बिखराव बढ़ता ही चला जा रहा है. हर बार एक राजनीतिक संघर्ष का हवाला दिया जाता है, दूसरा ग्रुप एक नई लाईन लेकर सामने आता है और फिर अलग हो जाता है या कर दिया जाता है. हालत यह है कि इस देश में जितने प्रदेश हैं उससे कई गुना अधिक लाईनें क्रान्ति के लिए हमारे सामने उपस्थित हैं, खांची भर दस्तावेज़ हैं…लेकिन इन्कलाब कहीं दूर-दूर तक नज़र नहीं आता. जनता को कुछ नहीं पता कि कौन उनकी लड़ाई लड़ रहा है, उसकी आँखों में परिवर्तन का कोई ऐसा सपना नहीं. कभी सोचा है ऐसा क्यूँ? क्यूँ हमेशा युद्ध का विरोध करने वाले हमारे संगठन युद्ध की भाषा में बात करते हैं? कभी गौर से सोचना जनगीत हों, हमारी रोज ब रोज की राजनीतिक शब्दावली, हमारी बैठकों के तरीके, संगठन में नेतृत्व की अप्रश्नेयता यह सब सब किस तरह युद्ध की शब्दावली और मनोविज्ञान से संचालित होता है…जा
Thanks you very much so such nice
यह सिर्फ़ एक कहानी नहीं, एक बहस भी है. ज़रूरी बहस. सामाजिक बदलाव के इर्द-गिर्द घूमती : अनेकार्थी बदलाव के इर्द-गिर्द. काफी देर तक तो समझ ही नहीं आया कि कहां से शुरू करूं, इस पर लिखना. तनाव-मुक्त नहीं करती यह कहानी, बल्कि बढाती ही है. ‘सी पी’ जैसे पात्र होते हैं बेशक, पर यहाँ तो लगता है कि दुनिया भर के तमाम “सी पीयों ” की “ज़िद, यांत्रिक समझ, बचकाने उग्रवाद, और छद्म क्रांतिवाद” को एक सी पी में लाकर केंद्रित कर दिया गया है. एक “बौद्धिक अम्बरीश पुरी “- जैसा चरित्र. झंकझोरती है यह कहानी. हो सकता है, यह तुरत प्रतिक्रिया इसके साथ न्याय न करने वाली भी कही जाए. कई दफ़ा वह यथार्थ भी, जिससे लेखक गुज़र चुका हो, कला-रूपों में चित्रित हो जाने पर चौंकाता है , विस्मित करता है, और सहज-स्वीकार्य नहीं बन पाता. पता नहीं.
क्या आज का सी.पी.भी बीते कल में अफजल रहा होगा ? ( कहानी एक सांस में पढ़ गया , यह कोइ कम बात नहीं है . बधाई .)
Hindi me aisi kahaniyan kam mili hain. itani lambi aur fir bhi pathneey. shilp gazab ka aur fir bhi nazar kathy par. Ek commune ke maadhyam se jis tarh se kuch logon dvara marxvad ke naam par math chalaye ja rahe hain, usko resha-resha kholte hue bhi kisi manogat ‘sach’ ki chichaledar ki jagah ek vastugat saty ki talash! ashok ki yah pahli kahani padhi hai…par unki kavitaon se bhi zyada gahri vyanjana hai iski. badhai bhi…salam bhi…
adbhut or aavashyak rachana. jab bich ke raste par savaliya nishan lagaye ja rahe hain vaha yah batana ki safed or syah ke beech bhi ek poori duniya hai -bada jaruri kadam hai. net par lamba kuchh padh nahi pata tha lekin ise ek sans me padh gaya. aisi kahani ke liye badhai…
आपकी दूसरी कहानी पढ़ी है, वो पहली सीढ़ी पर खड़ी थी तो यह छठवी पर है ….विषय एकदम अलग और कुछ जगह तो इस कहानी ने कलेजा ही चीर दिया …उम्दा
achhee kahani …badhai
bahut pasand aayee mitra… badhayee aapko…
bahut hi umda , jhooth se door ek sachchai…laga main doob rahi hoon ……..
thanks for this story
आप सबका आभार…
apka mail milane ke bad kahani padhi. mere marksvadi mitronke sath hamari bahaska muddahi apke kahani ka katya hai. marksvad ko andha math banaevale marksvadiyonko nanga karnevali ye kahani bhi mujhe achi lagi bich ka rasta jise ham madhyam marg (middal path) kahate hai atyant jaruri hai. kahani mail karneke liye aur svaym dhyanakarshan ke liye dhanyvad.(arvind surwade,ulhasnagar,maharashrtra)