आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

यह एक निवाले की इच्छा थी चील की नहीं: अरुण देव

काशी की ओर लौटती ट्रेन के शयनयान के अपर बर्थ पर लेटे अपने समय के चर्चित युवा नाट्य कर्मी शमशाद को अचानक यह एहसास हुआ कि समुद्र तल से १३० किलोमीटर ऊपर दौड़ रही इस ट्रेन में वह मर रहा है. पेट में जबर्दस्त मरोड़ ने उसे बाध्य कर दिया कि उसने जो भी खाया पिया है उसे उगल दे. बमुश्किल वह उठ कर टायलेट जा सका. कुछ देर पहले सरिता के बनाए लिट्टी उसने खाए थे.

ठीक उसी समय सरहद पार नजरबंद मनोज हक़ जो अपनी वैचारिकी के लिए भी इस महाद्वीप में प्रसिद्ध थे अपनी वह नज़्म पूरी की और भेज दिया उतनी ही प्रसिद्ध पत्रिका के उससे भी अधिक चर्चित संपादक को जो अपने लम्बे केश और मीठी आवाज़ के लिए अधिक जाना जाता था. उस नज़्म पर हंगरी में रह रहीं अर्पिता कौर ने बाद में एक पेंटिग बनाई – ‘सफेद रातें और भेडिये’. अमरीका में इसकी नीलामी में संसार का सबसे धनी आदमी उपस्थित था. उसने इसे खरीद लिया. कुछ दिनों बाद एक बिजनेस पत्रिका में अपने साक्षात्कार में उसने स्वीकार किया कि वह हर रात इस पेंटिग को देख कर रोता है कि अगली सुबह हँस सके.

मनोज हक़ की वह नज़्म संपादक ने लौटा दी. उसका कहना था कि अब इस तरह की रचनाएँ नहीं लिखी जाती हैं. महंगे जेंट्स पार्लर में अपने बालों की ट्रिमिंग कराते हुए उसने यह बात मोबाईल पर मनोज को बताई थीं.

शमशाद एक नाटक पर काम कर रहा था. भारतेंदु पर इस नाटक की अभी से चर्चा थी. विस्मृति की धूल से ढक गये इस महानतम प्रेम ने उसे विमोहित कर रखा था मल्लिका और उसकी बहनों से भारतेंदु के राग पर उसे कुछ सामग्री मिली थी. बांग्ला का जागरण जैसे खड़ी बोली हिंदी को चलना सीखा रहा हो. कांतासम्मित उपदेश. धत् ! जिस प्रेम ने संसार की तीसरी बड़ी भाषा में नवजागरण संभव किया वह अब ‘सामग्री’ है. उसे अब लगने लगा कि वह उपभोक्तावाद के गिरफ्त में आ चुका है जहां – मॉल और समान के रूप में ही अब कोमलतम और पवित्रतम देखे जाते हैं. ठीक तभी उसे मनोज हक़ की वह नज़्म एस.एम.एस में मिली. रोमन में लिखे इस साझे दुःख को वह पढ़ रहा था. रो मन ………

ट्रेन काशी की ओर भागे जा रही थी. विश्व का प्राचीनतम जीवित शहर. धीरे-धीरे मटमैला होता हुआ. लुप्त होती हुई गंगा. कभी नदिओं ने सभ्यताओं को पल्लवित किया था. गंगा पर मैल की मोटी पर्त. धारा पर उतराते उस सफेद पंक्षी के शव को देखकर उसे अब लगने लगा था, मनुष्यों का यह महासागर सब कुछ लील जायेगा. सबसे पहले जो मासूम और अहिंसक है वे मारे जायेंगे.

उसके मोबाईल पर दूसरा एस.एम.एस था. उसका दोस्त राबर्ट रमेश उसे ठंडे ढंग से सूचित कर रहा था कि इस देश का सबसे गतिशील टीवी चैनल इस समय सरिता और विकास के झगड़े दिखा रहा है. सरिता का यह कहना है कि विकास ने उसका इस्तेमाल किया और अब अपने प्रस्तावित फ़िल्म में से भी उसे बाहर कर रहा है. विकास बार-बार यह कह रहा है कि यह सम्बंध सहमति पर था और वह अपने फ़िल्म से कोई समझैता नहीं कर सकता. सरिता संघर्षरत नवोदित अभिनेत्री है और विकास की आई इधर एक-दो फिल्मों ने लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचा है. सरिता शमशाद की प्रेमिका है . शायद थी .

सरिता प्रसाद सिंह पूरब के उस उस गाँव से कदम-कदम चलते हुए ब-रास्ते दिल्ली, मुंबई पहुंची थी. वह गाँव जहां आज भी मनुष्य जाति द्वारा खोजे गये लगभग सभी यातायात के साधनों का प्रयोग करके पहुंचा जाता है. रेल उनके गाँव से ६० किलोमीटर दूर ही रुक जाती है. बस से २५ किलोमीटर की यात्रा करके वह नदी के उस घाट तक पहुंचतीं हैं जिसकी रेत को पार करने के लिए बैलगाड़ी या इक्के की दरकार है. नाव से नदी पार करती हैं, फिर टैक्सी से अपने गाँव. उनके पिता रघुवीर प्रसाद सिंह बमुश्किल ५ वीं तक पढ़े थे. जब गाँव का एक नातेदार आई.ए.एस. में चयनित होकर साहब बना. औरो की तरह वह भी उनके बचपने के मित्र भलभेद्र सिंह का सिफारिशी पत्र लेकर साहब के पास पहुंच गये. विक्रम सिंह ने हर बार की तरह उस पत्र को पढ़ना चाहा- इस पत्र को भी वह उतना ही पढ़ पाए— डियर विक्रम …. और अन्त में यूअर्स भलभेद्र. बीच में क्या लिखा है यह हर बार की तरह अपठित रह गया. बोलो क्या है ?, नौकरी! कितना पढ़े हो. नदी में पानी नापने वाले की एक जगह खाली है. जाओ ज्वाइन कर लो. नौकरी पर जा रहे बेटे को छोड़ने जब रघुवीर प्रसाद सिंह की माँ और सरिता की दादी पहली बार रेलवे स्टेशन आईं –उनकी प्रतिक्रिया थी- ‘इतना लोहा लगा है तभी कहूँ तवा इतना महंगा क्यों हो गया है गाँव में’. खैर रघुवीर प्रसाद सिंह यह नौकरी न कर पाए. हुआ यह कि एक दिन उनका सुपरवाईजर नदी का मुआइना करने आया. रात हो गई थी. रघुवीर ने नदी से मछली निकलवाकर मछली–भात का इंतजाम किया. परसने से पहले स्वभावत: पूछा–कौन बिरादर हो. फिर केले के पत्ते पर उसे परसा और थाली में खुद को. हेडक्वॉर्टर से तीसरे दिन उन्हें सस्पेंसन का आर्डर मिल गया. दुबारा विक्रम सिंह के पास जाने की कोई कोशिश नही की रघुवीर प्रसाद सिंह ने.

चलने से पहले सरिता ने उसके लिए लिट्टी बना कर दिया था. उसे यह बहुत पसन्द है. यात्रा के लिए बेहतर. अपना देशी फास्ट फूड. निकालो और खा लो. पेट भी भर जाए. शमशाद ने डायरी खोली…….

लपट की पुकार. धार की तरह तेज़. जैसे पहली बार किसी ने आवाज़ दी हो किसी को. देह से उठती हुई देह की तड़प. उतना ही आदिम. उतना ही बनैला. जब-जब गुजरता हूँ तेरी रहगुजर से मेरे जिस्मों-जां पर जैसे कोई जादू कर देता है-अवश. मेरे पांव जैसे दलदल पर हों. कोई खींचे लिए जाता हो मुझे. कुहरे की किसी मंजिल की ओर. रुसवाईयों और बदनामी की फिसलती डगर पर. टूट कर गिरता रहता हूँ अपने में ही. मेरा मौन छू कर आ जाता है धूप मे सूखती तुम्हारी देह गंध को. उसमें पिछली रात की सिकुडन है. धूप भर देती है उजास चाहे वह पिछली रात हो या हो उसकी यादें. धूप से नहाये तुम्हारे जिस्म ने उतार फेंकी है स्मृतियाँ. कोई दाग नहीं है किसी के स्पर्श का वहां. तुम्हारी आँखों में स्थगित उन्माद का उत्सव है. खिली हुए धूप की ओ! मेरी पहली किरण, मेरे जीवन के मुरझाए पत्ते तुम्हारे इंतज़ार में कब से हैं. तुम्हारे प्रेम में अपनी मृत्यु के नजदीक. चाहना अपने शव की ओर धीरे-धीरे बढना है. मेरी सम्मोहक मृत्यु! आओ अपने उष्ण रक्त से करूँगा तुम्हारा श्रृंगार.

तुम्हारे अंदर एक नदी खूब भरी हुई, स्वच्छ. हरे पेड़ – रस से भरे फल. चहचह—चिडियाएं. मुझे अपनी पंखुड़ी में रह लेने तो एक गुनगुनाते भौरे की तरह शव होने तक.

शमसाद के पेट में अब भी मरोड़ उठ रही थी. जैसे हलक में कुछ फँस गया हो. एक झटके में वह ट्रेन एक चील में बदल गई. चील के मुंह में कीड़े की तरह, खाने से रह गए एक निवाला था अब वह. चील उड़े जा रही थी- नदी, पहाड़, रेगिस्तान, शहर, गाँव . शमशाद को दिख गया अपना घर. उसकी अंतिम शरणस्थली. पानी में घिरा हुआ. उस तक पहुचने के लिए एक लम्बा श्मशान पार करना था जहां लोग रो-बिलख रहे थे– गुम होती किसी भाषा में उसके अपने लोग. वह चील मडराने लगी काशी पर किसी अपशगुन की तरह. काशी में कबीर को नही मिला पा रहा था सूत. टूट –फूट गया था करघा. उनकी ‘रहनी’ से घबराकर उन्हें छोड़ गये शिष्य उनकी ‘कहनी’ को गा–बजा रहे थे. शमशाद की अब यह अंतिम इच्छा थी कि चील उसे यहीं छोड़ दे. यह एक निवाले की इच्छा थी चील की नहीं.

काशी से वापस आकर शमशाद ने अपने ब्लॉग ज़िन्दान पर वह नज़्म पोस्ट की थी. एक कमेन्ट अर्पिता कौर का भी था- ‘डर गई हूँ. दंगे में फंस गई उस लड़की सी मेरी स्थिति है जिसे अपनी जान भी बचानी और अस्मत भी’. और उसके बाद ही उसने यह पेंटिग बनाई थी. और उसके नीचे समर्पण लिखा- ‘अलगाव की हिंसा की गाढ़ी कुंठा में हिस्र होती उस कौम के लिए’.

शमशाद भारतेंदु के निबन्ध- ‘भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है’ को हिंदी नवजागरण का मेनीफेस्टो मानता है. यह भाषण भारतेंदु ने 1884 में कार्तिक पूर्णिमा के दिन बलिया के ददरी मेले में दिया था. भागीरथी नदी के किनारे जैसे भगीरथ एक बार फिर गंगा का आह्वान कर रहे हों. 34 का वह युवक जो अपनी मृत्यु के नजदीक था- जैसे अपने युग का निचोड़ रख रहा था. हीरा कोयले का रूपांतरण है यह इस पर निर्भर है कि उस पर दबाव कितना पड़ा है. पूर्णिमा में चमकता हुआ यह हीरा अपने समय के संघात का जैसे सघन रूप हो. 6 जनवरी 1885 को यह चाँद बुझ गया. कहते हैं उस दिन काशी के गली कुचों में कुंजडीन और कहारिन भी पुक्का फाड़ कर रोई थीं.

भारतेंदु की प्रक्रिया में उसकी मुलाकात एक औघड़ से हुई जो कीना राम की परम्परा में होने की बात कहता था. उसने बी.एच.यू. के हिंदी विभाग में एम.ए. फाइनल इयर के लिए भारतेंदु पर एक लघु शोध प्रबंध लिखा था. वह शोध प्रबंध जमा न हो सका था. वह साधू आज भी युवा लगता है. चिलम के धुंए में बड़े ही स्नेह से उसने कहा- देख भारतेंदु देश-काल की एक निर्मिति हैं. देश और काल की जमीन जब पक जाती है- वह अंकुरित होता है शुभ और सुंदर. ये सब एक ही हैं बुद्ध, कबीर, गाँधी . तेरे में भी वह थोड़ा सा है. अब जा.

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8 comments
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  1. प्रतिलिपि का आभार .. अरुण देव की कहानी अलग शिल्प लिए है .. काव्यत्मकता उसमें गुंथी हुई है . कहानी छाप छोड़कर जाती है .

  2. सुन्दर…प्रवाहपूर्ण…कल्पना, यथार्थ और विज़न का दिलकश संयोजन !

  3. अरुण, सिर्फ आप हीं इस तरह अपने आप को अभिब्यक्त कर सकते हैं !

  4. A complete short story.Very nice..with perfection in all respect..congrates..

  5. Arun ji jab bhi mai aapki likhi koi khani ya vartant padta hoo,to eak tassali hoti hai.aur man kahta hai ke koi to hai,jo behatar sodh karke kuch likhta hai.Aap mere liye to Dr.Arun dev ho.

  6. अरुणजी, कहानी काफी रोचक है, और उसमें निहित सन्दर्भ भी कमाल के हैं, और खासतौर पर डायरी में दर्ज शब्द या कविता सम्मोहित सा कर देते है….अद्भुत रचना के लिए बधाई……

  7. मुझे ऐसा क्यूँ लगा कि बीच में कहीं आपने धैर्य खो दिया…कहानी एकदम झटके से खत्म हो गयी..

  8. kahaanee kee gati mand hai …..

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