कारपोरेट इंडिया: अनिल यादव
आदमी और जानवर का संघर्ष सारी दुनिया में करीब समाप्त हो चुका है. लेकिन क्या आवारा क्या पालतू शहर के सारे कुत्ते लोकू को पहचानते हैं. वह कहीं भी जाए वे सुरक्षित दूरी से उसके पीछे भौंकते चलते हैं और अपने मुहल्ले की सीमा पार करा कर ही वापस लौटते हैं. एक मुहल्ला पार करते ही क्रुद्ध और डरे कुत्तों का एक नया जुलूस उसके पीछे चलने लगता है. यह दृश्य देखकर दिमाग में पहला विचार यही आता है कि यह अद्भुत कुत्ता समय है.
पीले रंग का एक प्लास्टिक का बोरा उसकी पहचान है जो उसकी पीठ पर तब से झूल रहा है जब उसने एक बच्चा रैगपिकर के रूप में कूड़ेदानों में छिपे खजाने और उसपर अपना एकाधिकार समझने वाले कुत्तों के स्वभाव को पहचानना शुरू किया था. वह किसी घर से फेंके गए कचरे पर सिर्फ एक नजर डालकर उस घर में रहने वाले लोगों के बारे में बहुत कुछ बता सकता है. समय उस जैसे लोगों पालता है और अस्तित्व जीने के रास्ते दिखाता है. आवारा बच्चों के झुंड में जवान हुए लोकू ने अपने जीने के लिए एक सर्वथा नए रोजगार का आविष्कार कर लिया है. देर रात या भोर में उसे भटकता देखकर कालोनियों के गार्ड और पुलिस वाले पूछते हैं कि वह क्या करता है तो उसका जवाब होता है, “कुत्तों की नस्ल सुधारता हूं.“
उसे देखकर लगता है जैसे वह सभ्यता की देवी को धोखा देकर भाग निकला पाषाण युग का आदिमानव है जो कंक्रीट के जंगल में अपने शिकार की टोह में भटकता रहता है. उसके इस दौर में होने का इकलौता सबूत सरकारी ठेके पर मिलने वाली तीव्र, मसालेदार देसी शराब के असर के कारण उसके चेहरे की सूजन और सदा के प्यासे सूखे होंठ हैं. पपड़ीदार होंठों पर जबान फिराते हुए अक्सर वह सीटी बजाता है जैसे वह खुद को पुचकार रहा हो. उसकी छींटदार कमीज, गले में झूलती तीन मोटी जंजीरें और उंगलियों में सात भारी अंगूठियां सब इसी जमाने की हैं लेकिन वे उसके जंगलीपन को और भी अधिक उभार देती हैं.
किसी को लग सकता है कि अजीबोगरीब हुलिये के कारण कुत्ते उसका पीछा करते होंगे लेकिन ऐसा नहीं है. वे उससे नफ़रत करते हैं. देसी शराब में घुली लोकू के शरीर की महक कुत्तों की कई पीढ़ियों के अवचेतन में समा चुकी है. उसके आसपास आते ही उन्हें अपनी समूची प्रजाति के अस्तित्व पर खतरा मंडराता महसूस होने लगता है. दुनिया में जलवायु परिवर्तन के साथ कुत्तों का प्रजनन स्वभाव बदलने से लोकू के धंधे का फायदा हुआ है. हालांकि बीच-बीच में कहीं गायब हो जाता है लेकिन उसका विचित्र कारोबार अब कमोबेश पूरे साल चलने लगा है.
जिस उम्र के पिल्लों पर सम्मोहित होकर बच्चे घर ले जाने के लिए मचलते हैं, लोकू उन्हें पकड़कर अपनी कोठरी में फेंकता जाता है. शहर के एक चमकदार शॉपिंग माल के पिछवाड़े बहते नाले के किनारे अवैध ढंग से बसी एक बस्ती में उसके टूटे किवाड़ वाली कोठरी में भूखे पिल्लों के शोर, बदबू और अंधेरे के सिवा और कुछ नहीं है. एक मातृत्व का प्रेत जरूर उस कोठरी में मंडराता रहता है जो शायद पिल्लों को जीवित रखता है.
जब आठ-दस पिल्ले जमा हो जाते हैं तो उनकी याचना भरी किकियाहट की परवाह किए बिना लोकू सधे हाथ से उनके मुंह कोठरी के फर्श पर बारी-बारी से रगड़ता जाता है. मुंह सूजने से उनका हुलिया बदल जाता है. अब वे बाक्सर, बुलडॉग, पग या न जाने कितनी ही प्रजातियों के पिल्लों के जैसे दिखने लगते हैं. इसके बाद पिल्लों को पत्थर के एक बड़े से बर्तन में सामूहिक तौर पर देसी शराब पिलाई जाती है जिससे वे ठीक मनुष्यों की ही तरह अपना दर्द भूल जाते हैं. कुछ देर और किकियाने, उछलने के बाद वे सुस्त पड़कर सोने लगते हैं. गुलाब जल से नहलाने के बाद नशे में लड़खड़ाते पिल्लों का श्रृंगार शुरू होने के साथ लोकू का बिजनेस शुरू हो जाता है.
वह पिल्लों के गले में कागज के चांदी के रंग के फीते लपेटने के बाद, उन्हें चमकीली पन्नियों से सजी एक टोकरी में रखकर शॉपिंग माल की पार्किंग से कुछ दूर हट कर बैठ जाता है. अचानक कोई कार हड़बड़ाकर रूकती है, एक बच्ची जिद से पैर पटकती बाहर निकल कर टोकरी के पास बैठ जाती है. पीछे से बच्ची को डपटते, खीझते मां-बाप आते हैं. जिस समय बच्ची किसी पिल्ले के सुंगधित, मुलायम रोएं सहला रही होती है, सदा चुप रहने वाला लोकू अचानक वाचाल हो उठता है.
वह टोकरी के नीचे से एक अखबार निकाल कर बच्ची की मां को दिखाता है. देखिए मेम साब, हमारे इस कुत्ते को डॉग-शो में पहला ईनाम मिला था. हमारा यह कुत्ता अब पुलिस में भर्ती कर लिया गया है जो सूंघ कर बम का पता लगाता है. अगर ये कुत्ता न होता तो आतंकवादियों ने अब तक देश को तबाह कर दिया होता और जहां हम, आप खड़े हैं वहां सिर्फ एक बड़ा सा गड्ढा होता.
लोकू एक पिल्ले की कीमत तीन से तीस हजार के बीच कुछ भी बता सकता है. जिस समय कोई परिवार मोल-भाव में लगा होता है लोकू किसी संत-सा दिखने लगता है. वह टोकरी के नीचे से एक और अखबार निकाल कर दिखाता है. यह देखिए साब, एक बहुत बड़े अफसर ने कहा है कि कुत्ता पालने से वे बेहतर मनुष्य हो गए और उनकी फैमिली लाइफ खुशहाल हो गई. ये मियां-बीबी नौकरी करते थे. उनकी अकेली बच्ची फ्लैट में नौकरानी के साथ बंद रहती थी. नौकरानी टीवी पर सीरियल देखती रहती थी और बच्ची रोती रहती थी. मां-बाप का प्यार नहीं मिलने के सदमें में बच्ची की आवाज चली गई और वह गूंगी हो गई. वे बच्ची को डाक्टर के पास ले गए. डाक्टर ने कोई दवा देने की बजाय उनसे घर में हमारा पिल्ला पालने के लिए कहा. छह महीने तक पिल्ले से खेलने के बाद बच्ची बोलने लगी. अब वही कुत्ता रोज सुबह साहब को अखबार लाकर देता है. बच्ची के कपड़े, मोजे, किताबें संभाल कर रखने में मदद करता है.
यह पूरी तरह लोकू की झक पर निर्भर करता है कि सौदा कितने में तय होगा. वह पिल्ला किसी भी दाम में बेच सकता है, मुफ्त में गिफ्ट कर सकता है या किसी भी कीमत पर देने से इनकार कर सकता है. ज्यादा मोलभाव या झिकझिक करने वालों को लगे हाथ वह सलाह भी देता है, अपने घर में उन्हें बकरी पालनी चाहिए जिसके दूध और बच्चों से काफी आमदनी हो सकती है.
जब लोकू के पिल्ले अपना असली रूप दिखाते हैं तब परिवारों में पीढ़ियों तक सुनाए जाने वाले निखालिस घरेलू किस्से जन्म लेते हैं. इसी शहर के एक ओल्ड एज होम में रहने वाले रिटायर्ज कर्नल वेद प्रकाश धींगरा ऐसे ही एक कुत्ते को अपने बेटे के नाम से पुकारते थे जो उनकी सारी संपत्ति बेच कर विदेश में बस गया था. कर्नल धींगरा एक दिन अपने कुत्ते के साथ उससे मिलने आए थे. जैसे लोकू उनका बेटा हो, उन्होंने ऐसे सच्चे स्नेह से कहा था, “पुत्तर, बस तुझे अंग्रेजी आती तो दुनिया की किसी भी यूनिवर्सिटी में बच्चों को प्रोफेसरों से बेहतर ढंग से बिजनेस की तमीज और भावनाओं का प्रबंधन सिखा सकता था.”
एक बार पिल्ला ले जाने के बाद शायद ही कभी कोई वापस करने आता हो. इसकी एक वजह यह हो सकती है कि ज्यादातर पिल्ले संक्रमण से मर जाते होंगे. दूसरे लोकू हर दिन पिल्ले नहीं बेचता. पिल्ले हुए तो टोकरी सजा ली वरना वह उनकी तलाश में शहर में भटकता है या पीकर हवा में गांठे लगाते हुए, कहीं बेखबर पड़ा रहता है.
आमतौर पर पिल्लों का स्वभाव वैसा ही हो जाता है जिस तरह के लोगों के यहां वे पलते हैं. चिड़चिड़े, गुस्सैल लोगों के कुत्ते कटखने होते हैं और मूर्ख मालिक का कुत्ता हमेशा भ्रम की हालत में रहता है. लेकिन कुछ लोकू जैसे ही बने रहते हैं यानि घरों की जिन्दगी उन्हें रास नहीं आती. लोकू की सनक के कारण एक ऐसा ही पिल्ला दो महीने तक नहीं बिका और जब बिका तो आठवें दिन वापस चला आया. रास्तों की जन्मजात रहस्यमय समझदारी के कारण भीड़ भरी सड़कों को पार करता, गलियों में कुत्तों के झुंड से बचता हुआ वह सीधे शॉपिंग माल के पिछवाड़े की कोठरी में पहुंचा और पत्थर के उस बर्तन को बड़ी देर चाटता रहा जिसमें पिल्लों को शराब परोसी जाती थी. अब वह नस्ल बदलने की उम्र पार कर चुका था सो लोकू ने उसे कोठरी के टूटे किवाड़ से भागने की कोशिश करने वाले पिल्लों की निगरानी के काम पर लगा दिया. एक दिन उसका नाम गुड्डू पड़ गया और लोकू अपने हिस्से से जरा सी शराब उसे नियमित देने लगा. खाने का इंतजाम गुड्डू खुद कर लेता था.
यह मनमौजी-सा लगने वाला कुत्ता मानो अपने मालिक का कोई दूत था जो सबसे पहले वहां गया जहां मृत्यु के पीछे ठिठका भाग्य का पैकेज लोकू की प्रतीक्षा कर रहा था.
पिल्लों की कोठरी से बहुत दूर, शहर के दूसरे छोर पर एक बेहद साफ-सुथरे, निरंतर जलती अगरबत्तियों की गंध से सुवासित कमरे में प्रमिला समाजसेवा किया करती थी. उसके पास एक लैन्ड लाइन फोन था और पांच मोबाइल फोन थे. एक मेज पर खादी के बुर्राक सफ़ेद मेजपोश पर वे इस तरह सजे रहते थे जैसे लैन्ड लाइन से मोबाइल फोन की किरणें निकल रही हों. मेज के नीचे लोमड़ी जैसे मुंह वाली उसकी कुतिया बिलकीस मुस्तैद खड़ी रहा करती थी. हर बार घंटी बजने पर बिलकीस कुछ इस तरह आश्वस्त भाव से उचकती थी जैसे वह फोन करने वाले को जानती है.
दोहरे बदन की असामान्य लंबी गरदन वाली प्रमिला खुद कलफ और प्रेस किया हुआ झक्क सफेद खादी का ब्लाउज और पेटीकोट पहने इंदिरा गांधी की एक बड़ी सी ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीर के नीचे कुर्सी पर बैठा करती थी. वह हमेशा पान चबाती हुई और अक्सर अखबार पढ़ती दिखाई देती थी. साड़ी वह एक मंत्री के घर छोड़ आई थी जहां वह खाना पकाने का काम किया करती थी. सरकार गिरी, मंत्री का बंगला खाली हुआ तो स्वयमेव बर्खास्त हो गई और नई जिन्दगी शुरू करने इस कमरे में चली आई. नई जिन्दगी में उसने साड़ी पहनना बंद कर दिया लेकिन यह किसी भी और चीज़ से ज्यादा उसके बोल्ड, प्रगतिशील और सशक्त होने का परिचायक था.
उसकी वास्तविक पूंजी उस कमरे में मंत्रियों, विधायकों की आठ दस करीने से फ्रेम कराकर लगाई गई तस्वीरें थीं जिनमें से हर एक में वह किसी न किसी रूप में मौजूद थी. एक फोटो में तो वह प्रधानमंत्री को शर्माते हुए खाना खिला रही थी और वे प्रशंसा के भाव से उसकी तरफ देखते हुए मुस्करा रहे थे. एक और तस्वीर में वह लोक कल्याण मंत्री के हाथ से वृद्धावस्था पेन्शन का चेक ले रही थी हालांकि उसकी उम्र अभी तीस साल भी नहीं हुई थी. एक दिन उसके हाथ बुढ़िया होने का मौका लग गया जब एक मेडिकल अफसर मंत्री जी के घर पर, उनके चुनाव क्षेत्र के लोगों के थोक के भाव आयु-प्रमाण पत्र बना रहा था. अगले दिन लोक कल्याण मंत्री इन लोगों समेत एक लाख लाभार्थियों को सरकारी स्कीम के तहत वृद्धावस्था पेन्शन के चेक देने वाले थे. मंत्री के घर के अन्य नौकरों के साथ वह भी असहाय बुढ़िया बन कर हर महीने तीन सौ रूपए पेन्शन की हकदार बन गई.
आमतौर पर माना जाता था कि उसकी बड़े-बड़े लोगों यहां तक कि प्रधानमंत्री से भी जान पहचान है जो सादगी और सेवाभाव के कारण उसे काफी महत्व देते हैं. लोग उसके पास राशन-कार्ड बनवाने, झगड़ों के बाद हवालात में बंद परिजनों को छुड़ाने, ड्राइविंग लाइसेन्स बनवाने, तलाक लेने से लेकर हर तरह के कामों में सिफारिश कराने के लिए आते थे. उसके ज्यादातर क्लाइंट ऐसे होते थे जिनके काम लंबे समय से दफ्तरों में लटके हुए थे और उन्हें सरकार से मौन, काल्पनिक, लंबी बहसें करने की लत लग चुकी थी.
प्रमिला बिलकीस के परीक्षण में पास होने वाले हर क्लाइंट को सबसे पहले कमरे के कोने में रखे मटके से निकाल कर एक गिलास ठंडा पानी देती थी फिर मेज की दराज से सादा कागज निकाल कर एक नया अप्लीकेशन लिखने के लिए कहती थी. जो पढ़े-लिखे नहीं होते थे उन्हें वह सड़क के उस पार बैठने वाले एक टाईपिस्ट के पास भेज देती थी. कंप्यूटर के आ जाने के बाद स्याही के छींटे फेंकते, खटारा टाइपराइटर वाले इस निठल्ले टाईपिस्ट को अब कोई पूछता नहीं था लेकिन प्रमिला के कारण उसे थोड़ी-बहुत आमदनी हो जाया करती थी. इसके बाद वह अपनी पचास रूपए फीस लेती थी और खादी के ब्लाउज के भीतर से एक छोटी सी डायरी निकाल कर किसी को फोन लगाती थी. लोमड़ी जैसे मुंह वाली बिलकीस फीस दे पाने में असमर्थ लोगों को सहमते हुए फर्श पर धीमें से पैर रखने के ढंग से ताड़ लेती थी और उनके उल्टे पांव लौट जाने तक गुर्राती रहती थी.
“हल्लो मैं समाज सेविका प्रमिला बोल रही हूं. नमस्कार, नमस्कार. और आप कैसे हैं?”
“ये अपने आदमी हैं. हां एकदम से अपने वाले. खर्चा-पानी की कोई समस्या नहीं है. बस इनका काम हो जाना चाहिए. काफी दिन से चक्कर काट रहे हैं बेचारे.”
वह क्लाइंट को किसी के पास भेज देती थी और काम हो जाता था या नहीं भी होता था. दिन में सात बार वह बिलकीस से कहती थी कि उसके जानने वाले सभी क्लर्क, अफसर और नेता ईमानदार हैं. यानि खर्चा लेने के बाद काम करके दिखाते हैं नहीं तो पैसे वापस कर देते हैं. बेईमान वो होता है जो काम नहीं करता और पैसे भी खा जाता है.
समाज सेवा केंद्र में कदम रखते ही लग जाता था कि राजनीति प्रमिला की सांसों में है. काफी हद तक यह सही था. लोग जानते हुए भी नहीं जानते थे कि अक्सर रात को वह किसी विधायक या मंत्री के साथ डाक बंगले या होटल में मीटिंग करती थी. यह एक खुला रहस्य था जिसके कारण अफसरों को किए जाने वाले उसके हर फोन में वजन आ जाता था. कई नेताओं ने उसे अपने इलाके से कारपोरेटर का चुनाव लड़ाने या कोई सरकारी पद देने का प्रस्ताव किया था लेकिन वह हर बार विनम्रता से कन्नी काट जाती थी. उसे पता था कि ऐसा करने से किसी एक राजनीतिक पार्टी तक सीमित होकर उसकी समाजसेवा का दायरा बहुत छोटा हो जाएगा और उसके विरोधियों की संख्या बढ़ जाएगी.
एक बार मुहल्ले के एक स्कूल के मैनेजर ने कहा कि पंद्रह अगस्त की सुबह आठ बजे उसके स्कूल में फलां मंत्री झंडा फहराने आने वाले हैं. प्रमिला ने उससे कहा कि खुद ही झंडा फहरा ले क्योंकि वह मंत्री तो ग्यारह बजे से पहले घर से निकल ही नहीं सकता. उसे इस दर्जे की कब्ज है कि उसने टेलीफोन और फाईलों से लदी मेज तक बाथरूम में लगवा रखी है. पंद्रह अगस्त को उस स्कूल के बच्चे भूखे-प्यासे दोपहर तक मंत्री जी का इंतजार करते रहे. धूप न सह पाने के कारण एक बच्ची बेहोश होकर गिर पड़ी थी जिसकी बाद में अस्पताल में मौत हो गई. नाराज लोगों ने वह स्कूल जला डाला था.
कई साल पहले जब समाज सेवा केंद्र खुला ही था, एक दिन उस क्षेत्र के विधायक की बीबी फुफकारते हुए आई. वह गालियां देते, उसके फोन पटकते हुए, वेश्यावृत्ति के आरोप में उसे जेल भिजवाने की धमकी देने लगी. अविचलित, पान चबाती प्रमिला ने किसी कूटनीतिज्ञ-की-सी शांति से कहा था, जिस आदमी के लिए वह नागिन बनी घूम रही है वह तो कागजों में उसे कब का तलाक दे चुका है. इस मामले के लोकल टेलीविजन चैनलों और अखबारों में छा जाने और थोड़ी लानत, मलानत के बाद प्रमिला की धाक जम गई.
अचानक एक दिन सितम्बर की उमस में लोकू का साथ छोड़कर गुड्डू लापता हो गया. लोकू जानता था कि शहर में कुत्तों के इलाके बंटे हुए हैं जिनकी सीमा रेखा की निगरानी देशों की सीमा से भी अधिक मुस्तैदी से की जाती है. कोई दिलेर कुत्ता ही जानते, बूझते जोखिम लेकर दूसरे इलाके में कदम रखता है. लोकू ने सारे संभावित ठिकानों पर तलाशा लेकिन वह सीमा के पार जा चुका था. दो दिन की खोज के बाद निराश होकर लोकू ने कहा, “जरूर उसे शराब से भी तगड़ा नशा मिल गया है.” उसे अपने कुत्ते के साथ पीने की आदत हो गई थी. गुड्डू पीने के बाद नाराज होकर उधमी पिल्लों की गरदन पकड़ कर कोठरी में पटक देता था. लोकू पर भी गुर्राने से बाज नहीं आता था और गली के कुत्तों को धक्का मार कर लड़खड़ाते हुए चलने में उसे मजा आता था.
तीसरी रात के भोर में एक लंबे, मार्मिक श्वान अलाप से लोकू की खुमारी टूटी. उस आवाज में सच्चा विरह था और उत्सर्ग की भावना थी. गुड्डू पहचान में नहीं आ रहा था. उसके चेहरे पर ऐसा भाव था जैसे वह खुद को कहीं भूल आया हो. पुट्ठे, सीने और जांघ पर तीन जगह से खाल उधड़ गई थी और दाहिना कान आधा कट कर झूल रहा था. लोकू ने उसे कसकर एक लात जमाई जिससे वह वहीं ढह गया और बिना हिले डुले पड़ा रहा. सुबह लोकू ने देसी शराब से उसके घाव साफ किए. कोठरी में से ढूंढ़ कर पेन्सिलीन लगाई जिसे वह एक बार फोड़ा होने पर दवा की दुकान से खरीद कर लाया था. गुड्डू पूरे एक हफ्ते तक चुपचाप कोठरी के दरवाजे पर बैठा रहा. अपनी आदत के विपरीत वह कोठरी में बचे दो पिल्लों के कुतरने के लिए गली से एक टूटी चप्पल उठा लाया और उनके उधम को प्रसन्न आंखों से देखता रहा.
गुड्डू के हर रोएं में पहली बार एक अनजान लेकिन प्रबल लालसा उठने लगी थी. वह इस रहस्यमय परिवर्तन को समझने की कोशिश में भटकते हुए शहर के दूसरे छोर पर प्रमिला के समाज सेवा केंद्र के बाहर आ खड़ा हुआ जहां उसकी कुतिया बिलकीस टेलीफोन की मेज के नीचे एक पल भी चैन से नहीं खड़ी रह पा रही थी. वह अपनी पूंछ को हाथ से झले जाने वाले पंखे की तरह हिलाते हुए आतुर भाव से बाहर देख रही थी. गुड्डू को सामने पाकर वह दो बार धीमे से गुर्राई फिर अचानक कूद कर बाहर आ गई और इठलाते हुए सड़क के किनारे चलने लगी.
गुड्डू उसके पीछे कदमताल करते चला ही था कि कुत्तों का एक बड़ा झुंड भी साथ चलने लगा. बिलकीस ने दो दिनों तक झिड़क कर, सूंघ कर, लड़ कर और भी ऐसे कई तरीकों से, जिन्हें मनुष्य नहीं जानते, गुड्डू को परखा और उसका प्रणय निवेदन स्वीकार कर लिया. उसी समय क्षुब्ध कुत्तों के झुंड ने उन पर हमला कर दिया. अब गुड्डू और बिलकीस न भाग सकते थे और न ही अपना बचाव कर सकते थे. वे साथ जीने-मरने की दृढ़ता से शांतिपूर्वक खड़े होकर कुत्तों से नुचते रहे और एक दूसरे के घावों की पीड़ा को अपने भीतर महसूस करते रहे. तभी स्कूल से लौटते कुछ शरारती बच्चे उन पर पत्थर फेंकने लगे. कुछ पत्थर उन्हें भी लगे लेकिन दोनों के खून के प्यासे कुत्ते भाग गए. इस जरा देर चले खिलवाड़ के दौरान वे बच्चे जिन्हें उन्हें उनके मां-बाप और पड़ोसी अबोध समझते होंगे, सृष्टि के सबसे पुराने भौतिक रहस्य से परिचित हो गए.
प्रमिला की कुतिया ने जिस दिन बच्चे दिए उस दिन से समाज सेवा केंद्र में कई पीढ़ियों का टकराव होने लगा. कमरे के एक कोने में प्रमिला ने पुआल बिछा कर कार्ड बोर्ड से छह पिल्लों का घर बना दिया जिन्हें देखने के लिए पड़ोस के बच्चे दरवाजे पर खड़े रहते थे. वे एक दूसरे को धकियाते, उत्तेजना से पुलकते पिल्लों के घर से थोड़ी दूरी पर पंजों के बल बैठते थे. बिलकीस मद्धिम सी गुर्राहट के बीच कान हिलाती या आंख खोलती तो वे चीख कर भागते और वहां क्लाइंटों से टकराकर गिर जाते या किसी को गिरा देते. हैरत और गुस्से से कोई बड़बड़ाता, “कुत्ते के पिल्ले कहीं के लगता है इनके मां-बाप पैदा करके भूल गए हैं.”
पिल्ले जब दुलकी चाल से बाहर निकल कर धमाचौकड़ी मचाने लगे, एक दिन एक बच्चे ने कहा, “मेरी मां कहतीं हैं कि अब आप नानी बन गई हैं.” बच्चा झूठ नहीं बोल रहा था. सरकारी रिकार्ड में प्रमिला की उम्र नानी बनने की ही थी और वह वृद्धावस्था पेन्शन भी पा रही थी.
उस दिन प्रमिला उदास थी और खुद को बेहद असहाय महसूस कर रही थी. उसे अंदाजा तक नहीं था कि वह कितने अनोखे ढंग से उसकी जिन्दगी बदलने जा रही थी. उस दिन उसे एक बूढ़े जज और स्थानीय विधायक ने एक साथ बुला लिया था. उसके पीरियड अनियमित हो गए थे और सभी रूटों की सभी लाइनें एक साथ व्यस्त हो गईं थीं. वह इनमें से किसी एक तक भी कोई बहाना नहीं पहुंचा पा रही थी.
विधायक का बुलावा अस्वीकार करने से वह नाराज हो जाता. रात में उसके गुर्गे वह जहां भी होती ढूंढ़ निकालते. जज को मना करने से उस औरत का केस बिगड़ सकता था जो तलाक का मुकदमा आखिरी दौर में पहुंच जाने के बाद अब दो महीने से अपने पति के साथ फिर से रहने के लिए समाज सेवा केंद्र के फर्श पर सिर पटक रही थी. बूढ़ा जज अगर खुश हो जाता तो उसके कई क्लाइंटों के लटके काम बन जाते. इसके अलावा उसे समाज सेवा केंद्र के नए कार्यालय का उद्घाटन करने के लिए भी राजी करना था जिसे वह हाल में ही खरीदे गए तीन कमरों के घर में शिफ्ट करना चाह रही थी. यही वह समय था जब प्रमिला ने जान लिया था कि अब दुनिया का कुछ भी उसकी पहुंच से बाहर नहीं है. उसने पुरूषों के नैतिक शास्त्र को आत्मसात कर उसका इस्तेमाल करना सीख लिया था.
यह औरत अपने शराबी पति से पिटने और अपनी छोटी बहन के साथ उसके इश्क से त्रस्त होकर तीन साल पहले तलाक और गुजारा-भत्ता का केस दायर कराने उसके पास आई थी. प्रमिला की इसी सिलसिले में उस बूढ़े जज से मुलाकात हुई थी जिसके तीन बेटे और दो बेटियां हाईकोर्ट में प्रैक्टिस करते थे, जिनके पास उसके अधिकतर क्लाइंटों के केस थे. उसके पति द्वारा डाले गए तमाम अड़ंगों और वकीलों की आए दिन होने वाली हड़ताल के बावजूद, बूढ़ा जज अब इस महिला के हक में फैसला देने वाला था.
न जाने कैसे इसी समय उसने एक दिन मंदिर के खंभे पर अपना नाम लिखा देख लिया और उसका दिमाग फिर गया. उस सीमेन्ट के खंभे पर पहले से मौजूद छिहत्तर नामों, मोबाइल नंबरों और गुप्तागों के चित्रों के बीच किसी नुकीली चीज से खुरच कर दो अंगुल की जगह में उसका नाम लिखा हुआ था. मंदिर के पुजारी ने इस औरत से कहा था कि कारोबर काफी बढ़ जाने के बाद भी उसका पति रोज मंदिर आता है और अब कम नुकसान करने वाली अंग्रेजी शराब पीने लगा है. तीन साल में उसके लिए कई रिश्ते आए लेकिन वह अब दोबारा शादी नहीं करना चाहता और आकर उसी खंभे से टेक लगाकर चुपचाप बैठा रहता है. प्रमिला ने उसे बहुत समझाया लेकिन वह कुछ सुनने को तैयार ही नहीं थी. उसने शर्माते हुए कहा कि उसे लाइफ में पहली बार “लव” जैसा महसूस हो रहा है और रोने लगी. उसने यह भी कहा था कि अगर उसका घर दोबारा बस गया तो वह अपनी कमाई के जोड़े गए साढ़े तेरह हजार रूपए भी प्रमिला को देकर जाएगी. हार कर प्रमिला ने उदास होते हुए खुद से बुदबुदा कर कहा, उसी एक आदमी में ऐसा क्या है और बूढ़े जज के पास जाने को तैयार हो गई.
और उसी दिन लोकू ने प्रमिला के पिल्ले चुरा लिए….
लोकू ने सुबह एक नाले के किनारे पिल्लों के साथ मटरगश्ती कर रही बिलकीस को देखा था. तभी से समाज सेवा केंद्र के पास घात लगाए मौके का इंतजार कर रहा था. उसने दुकानों, पड़ोस के घरों के आगे खड़े लोगों की आंखों के सामने भरी सड़क से छह के छह पिल्ले कब उठाकर बोरे में भर लिए यह कोई नहीं देख पाया. बिलकीस भी बेखबर थी जो थोड़ी दूर पर एक नर्सरी स्कूल के गेट पर बच्चों के बस्तों का मुआयना कर रही थी जिनमें रखे टिफिन से निकल कर तरह-तरह की खुशबुएं फैल रही थीं. लोकू की पीठ पर लटकते बोरे से निकल कर जब एक पिल्ला कूं-कूं करते हुए सड़क पर कूद पड़ा तब सबसे पहले बिलकीस का ध्यान उधर गया.
प्रमिला और लोकू के बीच प्रेम के धागे से बंधे एक व्यापारिक समझौते की शुरूआत उस दिन उस गदबदे पिल्ले के बोरे से कूद कर अपनी मां की तरफ उलाहने के अंदाज में देखने से हुई. बिलकीस गुर्राती हुई झपटी और उसने लोकू की कलाई में दांत गड़ा दिए. हट साली कुतिया, कहते हुए लोकू ने उसकी गरदन पकड़ने की कोशिश की तभी उसकी पीठ से बोरा नीचे गिर पड़ा. पांच पिल्ले बोरे समेत कुदकते हुए समाज सेवा केंद्र की ओर जाने लगे. वह बोरा उठाने के लपका, उसी समय मुहल्ले के कुत्तों ने लोकू को पहचान लिया और उसे घेर कर भौंकने लगे. आसपास खड़े आदमियों में से कई ने लोकू को पकड़ कर मरम्मत करनी चाही लेकिन क्रुद्ध कुत्तों के आगे उनकी यह इच्छा दुबक गई. बिलकीस से हाथ छुड़ाते ही लोकू की नजर समाज सेवा केंद्र में बोरे से पिल्लों को बाहर निकाल रही प्रमिला पर पड़ी. झुकी हुई प्रमिला के खादी के ब्लाउज पर पड़कर परावर्तित होती धूप से उसकी आंखें चकाचौंध हो गई और मुंह खुल गया. प्रमिला उसे जेल भिजवाने के लिए लोकल पुलिस स्टेशन के दारोगा को फोन लगाने लगाने जा रही थी और वह उसे मुंह फाड़े देख रहा था.
अपने विलक्षण सूचना तंत्र से खबर पाकर दूर की कालोनियों, मुहल्लों से कुत्ते तीर की तरह भागते, फंलागते चले आ रहे थे. लोकू के गिर्द उनका घेरा बड़ा होता जा रहा था. हर तरफ उनके हांफने, गुर्राने और दूसरे कुत्तों को बुलाने की आवाजें सुनाई दे रही थीं. थोड़ी देर में सड़क के बीच खड़े लोकू के दोनों तरफ, एक दूसरे से सटकर भौंकते कुत्तों की नौ-नौ कतारें बन गईं और ट्रैफिक जाम हो गया. सड़क के किनारे दुकानों में सिमटते जा रहे लोगों ने कुत्तों को भगाने के लिए पत्थर मारने शुरू किए जो कागजों के गोलों की तरह लग रहे थे. पत्थर किसी कुत्ते को लगता और उछल कर कुत्तों की कतार पर अटक जाता. जब वे लोकू पर लपकते तब फिसल कर नीचे कहीं गुम हो जाता.
जाम ट्रैफिक में हार्न बजाते और गालियां बकते लोगों की रीढ़ में अचानक झुरझुरी पैदा करते ढेरों कुत्ते बसों के नीचे से, कारों के बोनट से, गाड़ियों के बीच की खाली जगहों से कूदते चले आ रहे थे. वे घरों की चहारदीवारी पर, डर से खाली हो गई दुकानों के काउंटरों पर खड़े होकर भौंक रहे थे. छोटे कुत्ते और उनका मजाक बनाते पिल्ले काफी दूर की जगहों से इस सामूहिक रोष प्रदर्शन में हिस्सेदारी कर रहे थे.
क्रुद्ध कुत्तों की तेजी से बढ़ती तादाद देखकर लोग डरने लगे. अब वे किसी तरह लोकू को यहां से हटाना चाहते थे ताकि सुरक्षित रहें. मकानों की खिड़कियों, छज्जों और छतों से वे हाथ लहराकर लोकू को मुहल्ले से बाहर निकलने के रास्ते बता रहे थे लेकिन वहां कुत्तों के भौंकने के लयबद्ध शोर के सिवा कुछ नहीं सुनाई दे रहा था. लोकू को काठ मार गया था. वह हतबुद्धि कभी लड़खड़ाते हुए कुछ कदम आगे जाता फिर कुत्तों से टकराकर कई कदम पीछे लौट जाता. भय ने उसे पूरी तरह जकड़ लिया था. उसके कपड़े नुच चुके थे. पीठ पर लटक रही कमीज का एक बड़ा टुकड़ा तेजी से भीग रहा था.
आवारा, बनैले, पालतू हर किस्म के कुत्तों के लगातार आने से उनसे उठती दुर्गंध तेज होती जा रही थी. डर से घरों के दरवाजे बंद होने लगे. टकराती कारों, गिरती मोटर साइकिलों के बीच ट्रैफिक पुलिस के डंडे खाते रिक्शे वाले आसपास की गलियों में भागने लगे. थोड़ी देर में जिसे जहां जगह मिले वहां से निकल भागने की कोशिश कर रहा था और पुलिस के सिपाही लोकू को गालियां देते हुए दूर कुत्तों के घेरे के बाहर डंडे पटक रहे थे. ट्रैफिक के धक्के से बदहवास समाज कल्याण विभाग का क्लर्क दिनेश कुमार कनौजिया अपनी सहकर्मी रीता शर्मा को बाइक पर लिए अपनी ही गली में घुस गया था. उसे उसकी नर्स पत्नी ने देखा जो बालकनी पर बाल सुखा रही थी. वह स्कूटी की डिग्गी में एक जोड़ी चप्पलें रखकर उनके पीछे भागी लेकिन एक कुत्ते से टकराकर गिरी और उसका पैर टूट गया.
बहुत कम लोग जानते हैं कि जब प्रमिला के साथ लोकू की भी जिन्दगी बदलने वाली थी और कुत्ते दसों दिशाओं से लगातार चले आ रहे थे शहर में और क्या हो रहा था. प्रमिला के पड़ोस में हमेशा अपने घर के सामने बैठे रहने वाले हरेकृष्ण अवस्थी को घबराहट के कारण दिल का दौरा पड़ गया. उन्हें अस्पताल ले जाने के लिए बुलाई गई एम्बुलेन्स कुत्तों की उफनाती भीड़ के आगे खड़ी व्यर्थ हूटर बजा रही थी. कुछ समय बीतने के बाद मकानों और ट्रैफिक में फंसी बसों की छतों पर टेलीविजन चैनलों के कैमरामैन दिखाई पड़ने लगे जिनकी लेन्स से बाहर वाली आंखें बंद थीं. वॉचडॉग नाम के चैनल के एंकर पर्सन प्रज्ञान भट्टाचार्य के चार साल के बेटे गोलू ने उस दिन टीवी देखने के बाद अपने पापा से एक पिल्ला ले आने की जिद करनी बंद कर दी और अपनी तस्वीरों वाली किताब से ‘डी फार डाग’ पढ़ते हुए हकलाने लगा था.
ऐसे ही हिंस्र कोलाहल और अफरातफरी के समय में प्रमिला के भीतर एक विरल कोमल भाव और उसके अनुगामी साहस को जन्म लेना था. घबराई प्रमिला ने दरवाजे से गर्दन निकाल कर बाहर देखा तो पाया कि सड़क के दोनों तरफ जहां तक दृष्टि जा पाती कुत्ते ही कुत्ते थे. दुकानें खाली थीं और किसी आदमी का नामोनिशान नहीं था. आधा किलोमीटर तक कुत्तों की लपलपाती जीभों और हिलती पूंछों के बीच की जरा सी खाली जगह में कुत्ता चोर लोकू चिथड़ों में हाथ जोड़े हुए खड़ा था. उसके गालों पर आंसू बह रहे थे. वह कुत्तों से जान बख्श देने की प्रार्थना कर रहा था.
वह ठीक सामने खड़ी थी लेकिन लोकू उसे नहीं देख पा रहा था. उसके कांपते हाथों और डबडबाई आंखों को देखती प्रमिला को अचानक हिचकी आई और उसके भीतर कुछ दरक कर बहने लगा. यह कुछ ऐसा शक्तिशाली था जो कुत्तों की हिलती पीठों के ऊपर की खाली जगह में से प्रमिला को मौत के सामने खड़े अपने से सात साल छोटे युवक की तरफ बहाए लिए जा रहा था.
प्रमिला ने दरवाजे के पल्लों के बीच से संभल कर पान की पीक कुत्तों पर फेंकी तो थोड़ी सी जगह बन गई. निचला होंठ दांतों में दबाए, सफेद खादी के ब्लाउज-पेटीकोट में वह कुत्तों को ठेलती हुई सड़क के बीच तक पहुंची और उसने बौखलाई बिलकीस का कान पकड़ कर अपनी ओर खींचा. वह खामोश होकर कुत्तों की कतार से बाहर आ गई. एक हाथ से बिलकीस का कान और दूसरे हाथ से लोकू की कलाई पकड़ कर वह अपने कमरे की ओर चलने लगी. जो कुत्ते अब तक सिर्फ भौंक रहे थे, लोकू के हिलने से अब फिर उस पर झपटने लगे. यह कुछ कदमों की दूरी लोकू की जिन्दगी का सबसे लंबा सफर थी. इस दौरान वह खुद को कई हजार बार कमरे के भीतर जाते और एक सुरक्षित कोने में समाते देख चुका था लेकिन सामने प्रमिला के होने के कारण सिर झुकाए खड़ा था. उसके पैर अनियंत्रित ढंग से कांप रहे थे.
प्रमिला पहले बिलकीस को दरवाजे से ठेल कर खुद भीतर गई. कुत्तों के अचानक नए हमले से उसकी सांस अटक गई थी. उसे घबराहट में लगा कि लोकू पहले ही भीतर जा चुका है और उसने पूरी ताकत से दरवाजा भड़ाक से बंद कर दिया. लोकू की चीख से उसका ध्यान गया, तब देखा कि उसका सिर दरवाजे के पल्लों के बीच फंसा हुआ है और धड़ बाहर है. लोकू को भीतर खींच लेने के बाद भी कुत्ते उस दिन सूरज डूबने तक समाज सेवा केंद्र के दरवाजे को पंजों से खरोंचते रहे.
समाज सेवा केंद्र का दरवाजा अगले तीन दिनों तक नहीं खुला. दरवाजे से चोट लगने के कारण लोकू की बांयी आंख सूज कर आधी बंद हो गई थी और उसकी पुतली का रंग जामुनी हो गया था. तीन दिनों तक जब भी प्रमिला की नजर उस घायल आंख से मिलती वह खिलखिला कर हंस पड़ती और उसका समूचा बदन देर तक एक लय में हिलता रहता. उधर तख्त पर लेटा लोकू से मन ही मन भगवान से मन्नत मांग रहा था कि उसकी आंख कभी ठीक न हो ताकि वह प्रमिला को इसी तरह हंसता देखने में उसकी जिन्दगी बीत जाए. जब दरवाजा खुला न जाने कहां से गुड्डू अचानक कूद कर कमरे में दाखिल हो गया. वह इतने दिनों तक चिंतामग्न और चुपचाप बाहर खड़ा प्रतीक्षा करते-करते उकता गया था. इसी बीच लोकू का प्रमिला में विलय हो चुका था.
प्रमिला द्वारा रखे गए संयुक्त कंपनी बनाने और साझे में बिजनेस करने के प्रस्ताव पर उसने उस हंसी की रोशनी में अपने समूचे अस्तित्व से हस्ताक्षर कर दिए थे. नए बिजनेस पार्टनर को अपने प्रभाव का यकीन दिलाने के लिए प्रमिला को शहर के मेयर के साथ ढाई घंटे की मीटिंग करनी पड़ी. इसके तुरंत बाद म्युनिसपैलिटी ने आवारा कुत्तों को पकड़ने के लिए भारी बजट का आंवटन किया और जालीदार गाड़ी पर सवार डॉग स्क्वायड के कर्मचारियों को देखकर कुत्ते शहर से विदा लेने लगे.
समस्त औपचारिकताएं पूरी होने के बाद कंपनी एक्ट के तहत रजिस्ट्रेशन हो चुका है. प्रमिला के तीन कमरों वाले नए घर की छत पर “पीएलसीयू” यानि प्रमिला एंड लोकू कारपोरेशन अनलिमिटेड का बड़ा सा ग्लो साइन बोर्ड टांगा जा चुका है. शहर के सबसे नए कारपोरेट कार्यालय का उद्धाटन होना बाकी है….और बिजनेस, वह तो हमेशा की तरह चल ही रहा है.