उड़ गये फुलवा रह गर्इ बास (उपन्यास अंश): अजय मिश्र
जेठ की सुलगती दोपहर. जब चिडि़या भी बोलना बंद कर, दाना-पानी का जुगाड़ कर घोंसलों में दुबकी होती है. बड़े पक्षी किसी घने वृक्ष की छायादार पत्तियों में छिपे-दुबके आराम करते हैं. जब सूरज सिर पर जल्दी चढ़ अपनी तेज,तीखी और सीधी किरणों से थप्पड़ मारता है. जब गली के कुत्ते किसी ठंडी जगह या उथली नाली में शरण लेते हैं. जब कुएँ, तालाब, नदी आदि जल-स्त्रेातों का पानी सुहाग-शैय्या पर नवविवाहिता के वस्त्रों सा शर्मसार हो क्रमश: गायब होने लगताहै. किंतु बेशर्म अरहर जब फलती है. यह उसी जेठ की बात है. जेठ एकादशी की.
लखनऊ के किंग्स जार्ज मेडिकल कालेज की पहली मंजिल पर मौजूद इंटेसिव केयर यूनिट के प्राइवेट वार्ड के दो नम्बर के केबिन, उसके बाहर, ठीक नीचे गलियारे और सड़क पर मौजूद भीड़ सन्न थी. हल्की फुसफुसाहट का आभास हिलते होंठों से ही लगाया जा सकता था. पिछले चौबीस दिनों से जो आर्इने की तरह साफ था और जो आशंका और अंदाज से कर्इ कदम आगे बढ़ एक निशिचत-संभावना के तौर पर सहज स्पष्ट था. किंतु जिसे स्वीकारने या कहने का साहस कोर्इ बटोर नहीं पा रहा था. वह सच आज सुबह साढ़े नौ बजे घट चुका था. डाक्टरों की अनवरत मेहनत, स्वजनो ंकी अहर्निश देखभाल और मित्रों की मिन्नतें – कुछ भी काम न आयीं. बलदेव प्रसाद मिश्र की मृत्यु हो गयी. मसितष्क शिरावरोध के कारण अचेत होने की वजह से रबर की जिन पतली नलियों द्वारा उन्हें तरल पदार्थ दिया जा रहा था, उन नलियों को डाक्टर ने नाक से निकाल डस्टबिन के हवाले किया और सफेद चादर सिर तक खींच दी.
जिस समय डाक्टर चौधरी ने विषाद और विवशता से सिर हिलाया और नर्स चुपचाप डाक्टर के पीछे-पीछे केबिन से निकली वहां केवल तीन व्यक्ति मौजूद थे. बनारस से आकर पिछले बीस दिनों से बड़े भार्इ की सेवा कर रहे माधव प्रसाद मिश्र. अट्ठाइस वर्षीय, दुबले-पतले, नाटे कद के कवि दिवाकर और राजनारायण पांडे. रातभर की डयूटी के बाद माधव सुबह 9 बजे घर जाते हैं, राजनारायण के आने के बाद. बलदेव प्रसाद से र्इष्र्या रखने वाले पीठ पीछे राजनारायण को उनका मुफतिया नौकर कहते थे. दरअसल 1948 में भाइयों से विवाद होने पर खड़े पांव लखनऊ आने वाले बलदेव प्रसाद के जब लखनऊ में दो ही सम्पर्क सूत्र थे, शिक्षामंत्री संपूर्णानन्द और स्वतंत्र भारत के संपादक अशोक जी, जो उनके बाल-मित्र थे. उम्र से तकरीबन पन्द्रह वर्ष बड़े सम्पूर्णानन्द से बलदेव प्रसाद मिश्र का परिचय अपने पिता के कारण था; जिनके पास संपूर्णानन्द अपनी शंका-समाधान के लिए प्राय: आया करते थे.
शुरूआत तो हुर्इ थी विधाधर गौड़ के पास जाने से किंतु धीरे-धीरे उनके बड़े पुत्र यानी बलदेव प्रसाद से परिचय बढ़ने के बाद दोनों ही एक-दूसरे की विद्वत्ता से प्रभावित हो उम्र का बंधन तोड़ परस्पर मित्रवत बहस मुबाहसा करने लगे. यहाँ मित्रता नहीं थी, बलिक परस्पर विश्वास का बंधन था.
गौर वर्ण, प्रशस्त ललाट, बड़ी-बड़ी आँखें, आजानबाहु, लौह-सन्दूक सी उभार लिए छाती. कसरती बदन- 6 फुट से ऊपर निकलता हुआ. खजुराहो के प्रस्तर-चित्रों से कोर्इ देव मूर्ति जीवित हो उठी हो. ऐसा कसरती युवक भी मात्र बाइस की वय में वेद, वेदांग, शास्त्र और सहिंता के ज्ञान में अपने पिता की तरह पारंगत है, यह जानना संपूर्णानंद के लिए आश्चर्यजनक था. उनका आश्चर्य और भी दोबाला हो गया जब संपूर्णानंद को मालूम हुआ कि इतनी कम उम्र में पाणिनी की अष्टाध्यायी, कौटिल्य के अर्थशास्त्र और भरतमुनि के नाट्यशास्त्र पर भी इस युवक का समान अधिकार है. वे तो विधाधर गौड़ द्वारा की जाने वाली वैदिक मंत्रों की व्याख्या, वेदों के क्रम, जटा और धन के विशद ज्ञान तथा अष्ट-वैदिक विकृतियों के अत्यन्त सहज रहस्योदघाटन से ही कम चमत्कृत नहीं थे कि विधाधर गौड़ के पुत्र ने वैदिक शब्दों की पाणिनीय सूत्रों से व्याख्या कर संपूर्णानंद से अपनी विद्वत्ता का लोहा मनवा लिया. यदि पिता को मंत्र, ब्राह्राण और अरण्यक का वास्तविक अर्थ ज्ञात था तो पुत्र में प्रतिभा, व्युत्पत्ति तथा अभ्यास का अदभुत समागम था. किन्तु दोनों में विरोधाभास भी था. विधाधर गौड़ काशी विश्वनाथ, अन्नपूर्णा के परम भक्त. अगिनहोत्री, दुर्गा पाठ और त्रिकाल संध्या में अटूट विश्वास रखने वाले. जबकि वीणा, सितार, हारमोनियम और तबले की थाप पर समान रूप से अधिकार रखने वाले बलदेव प्रसाद, पूजा पाठ से दूर. प्लेंचेट पर मृतात्माओं का आह्वान भी करते थे. तंत्र-मंत्र और कुण्डलिनि जागृत करने वाली यौगिक क्रियाओं में भी उनकी गहरी पैठ थी.
सुबह-अल-सुबह ट्रेन से उतरकर अपने मित्र अशोकजी के भरोसे लखनऊ आने के बावजूद बलदेव प्रसाद मिश्र सीधे शिक्षामंत्री के निवास पर पहुँचे. संयोगवश वे दौरे पर नहीं थे. दरबान ने उनकी लंबी मजबूत कद-काठी और तेजस्वी रूप को देख कुछ सदय हो साहब को खबर दी. शायद इसलिए भी कि वे मंत्री के शहर से आए थे. संपूर्णानंद पूजा से उठे ही थे. पूजा की धोती में ही वे ड्राइंगरूम में आ गए. बलदेव प्रसाद ने नमस्कार किया.
कैसे आए, संपूर्णानंद ने पूछा.
घर छोड़ आया हूँ. सीधा और बेलाग उत्तर आया.
संपूर्णानंद एक क्षण को चौंके. किंतु उन्होंने कारण नहीं पूछा. वे समझ गये कि अवश्य ही कुछ ऐसा हुआ होगा भार्इयों के बीच, जिससे बलदेव प्रसाद मिश्र का स्वाभिमान आहत हुआ है.
आरामकुरसी की पुश्त से पीठ टिका और हत्थों पर हाथ रखते हुए उन्होंने आँख बन्द कर लीं. वे कुछ सोच रहे थे.
आखिर क्या हुआ होगा परिवार में. संस्कृत-विद्वानों की तरह व्यावहारिकता-शून्य नहीं है यह युवक. फिर भी अपने विचार स्पष्ट रूप से व्यक्त करने के लिए किसी भी सीमा तक जा सकता है. सीमा-उल्लंघन किसने किया! अपने चिंतन में संपूर्णानंद सशरीर काशी की समरकंद गली पहुँच गये. उन्हें याद आया किस तरह इस युवक ने चुटकियों में ‘मृन्मये’ और ‘मृण्मये के प्रयोग से संबंधित उनकी शंका का समाधान किया था – ‘पदान्त ने ण्त्व नहीं होता. नकार ण्त्व की दृषिट में असिद्ध भी है.
पहली बार उन्हें इस युवक ने ही बताया था कि ‘माध्यनिदनी शाखा में हल वर्ण ‘म को ‘मा ऐसा दीर्घ की तरह क्यों उच्चारित किया जाता है. इसने व्याख्या कर अपने तर्क की संपुषिट में याज्ञवल्क्य संहिता से प्रमाण भी दिया था –
अनुस्वारे विवृत्यान्तु विरामे चाक्षरद्वये.
द्विरोष्ठौ तु विगृहणीयात यत्रोकारवकारयो:..
कुछ देर बाद उन्होंने आँखें खोलीं. निर्णय हो चुका था. ‘हरिजी, इधर आइए. संपूर्णानंद छोटा हो या बड़ा सबको पूरा सम्मान देते थे. निजी सचिव के नजदीक आने पर, जो केवल आँख ओट पहाड़ ओट की दूरी पर रहते हुए अभ्यासवश अपनी कर्णेंद्रिय इधर ही लगाए हुए था – शिक्षा मंत्री का आदेश आया, ‘रायसाहब को कह दें, पंडितजी दारुलशफा में रहेंगे. रायसाहब यानी मृत्युंजय राय दारुलशफा के केयरटेकर हुआ करते थे उन दिनों.
इस तरह लखनऊ में बलदेव प्रसाद के रहने की समस्या का समाधान हुआ. काम का इंतजाम भी हो गया. भाग्य उनके आगे-आगे चल रहा था. अशोक जी ने हलवासिया ग्रुप के मासिक पत्र ‘रक्षक’ में रखवा दिया – सहायक संपादक के तौर पर. कुछ दिनों बाद उनकी पदोन्नति हो गर्इ संपादक रूप में. बाद में वे स्वतंत्र भारत के साहित्य संपादक बने. तब तक अशोक जी दिल्ली जा चुके थे.
मुख्यमंत्री निवास से निकलकर दारुलशफा यानी विधायक निवास के सत्तार्इस नंबर फ्लैट में पहुँचने के बाद जो युवक चाय लेकर उनके कमरे में आया था, वह था सांवले रंग का दुबला-पतला, मातृ-पितृ विहीन युवा राजनारायण. जिसे बड़े भार्इ ने बोझ समझकर घर से निकाल दिया था. मैटि्रक पास उस युवक की इंटर और बी.ए. परीक्षा देने के लिए बलदेव प्रसाद ने न सिर्फ आर्थिक सहायता से और ब्राह्राण धर्म निभाते हुए शिक्षा-दान से मदद की बलिक स्नातक परीक्षा पास करते ही उस युवक को रेडियो स्टेशन में नौकरी पर भी लगवा दिया. इस तरह राजू और रजुओं से राजनारायण पांडे का सफर तय करने वाला वह युवक शिष्यत्व का निर्वाह करते हुए कब घरेलू सदस्य बन गया, यह उसे भी नहीं मालूम.
बलदेव प्रसाद की पत्नी संस्कृत से शास्त्री होने के बावजूद उनके मित्रों के सामने नहीं आती थीं. एकमात्र अपवाद राजनारायण ही थे जिनका घर में अबाध प्रवेश था. किसी भी तरह की साहित्यिक गतिविधि में रूचि न रखने के बावजूद बलदेव प्रसाद को पितृवत मानते थे. गुरू पर आर्इ इस आपदा में वह यथाशकित पूरी भक्ति से सेवा कर रहे थे. राजनारायण का घर बलदेव प्रसाद के आवास से कुछ ही दूर है. सुबह भरपूर नाश्ता कर घर से निकल राजनारायण पैदल ही पंडित जी यानी बलदेव प्रसाद के घर पहुँच जाते. वहाँ से थर्मस भर दूध और बिस्कुट का पैकेट लेकर वे पैदल अमीनाबाद आते. फिर तांगा पकड़ हर रोज तकरीबन नौ बजे मेडिकल कालेज पहुँचते. यह समय होता रात भर की सुश्रूषा के बाद माधव के घर जाने का. दोपहर दो बजे बलदेव प्रसाद की पत्नी आतीं-अपने तीनों बेटों और बेटी के साथ,मौसमी का रस लेकर. घर पर ननद को छोड़कर. शाम छह तक पक्षाघात-ग्रस्त अचेत वितस के इर्द-गिर्द पूरा परिवार चुप-चुप सा दोपहर बिता घर लौटता. तब तक अन्य लोग आ चुके होते थे. किंतु अब किसी को नहीं आना था तीमारदारी के लिए.
जिस समय राजनारायण आज अस्पताल पहुँचे केबिन में अफरातफरी का माहौल था. स्वयं डाक्टर गुप्ता, उनके दो सहायक और दो कम्पाउंडर यानी पाँच व्यक्ति व्यस्त थे. डाक्टर गुप्ता बार-बार एक के बाद एक इंजेक्शन दे रहे थे और कभी छाती पर स्टैथिस्कोप तो कभी दाहिने हाथ की नब्ज पर अंगुलियाँ रखते. केबिन के बाहर बैठे माधव ने बताया कि अचानक सुबह छह बजे से निमोनिया ने हमला किया लगता है. नब्ज डूब रही है.
प्रारंभ में उन्हें उच्च रक्तचाप के कारण ब्रेन हैमरेज-चिकित्सकीय भाषा में सैरीब्रल थाम्बेसिस हुआ था. जिसके दुष्प्रभाव से बांये अंग में पक्षाघात. पिछले एक सप्ताह से खुली आँखों से परिचितों को पहचानने की कोशिश करने लगे थे. डाक्टरों के अनुसार यह सुधार का लक्ष्य था. किंतु अचानक निमोनिया के असर से सनिनपात की स्थिति में आ गये. श्वास अनियमित हो अवरुद्ध होने लगीं, रक्तचाप नियंत्रण से बाहर और âदय-गति क्रमश: मंद से मंदतर.
देखते-देखते समय मुट्टी में बंधी रेत सा सरकता गया और प्राण देह से. एक पखवारे से भवितव्य सुनिशिचत होने के बावजूद माधव की आँखें की कोर से आँसू ढुलक गए. अपने बड़े भार्इ की ही तरह लंबे-चौड़े, संस्कृत साहित्य के अध्येता माधव. उस क्षण भूल गए कि जिस अवस्था, जिस समय, जिस दिन, जिस रात्रि, जिस मुहूर्त अथवा जिस क्षण जैसे होना निशिचत है, वह वैसा ही होगा. अन्यथा नहीं हो सकता –
यसिमन वयसि यत्काले यावि यच्य वा निशि.
यन्मुहूत्र्ते क्षणे वापि तत्तथा न तदन्यथा..
राजनारायण ने स्वयं को संभाला. पंडितजी के चरणस्पर्श कर माध्यम के बराबर खड़े हो गये. किंतु दिवाकर को होश नहीं था.
पंडितजी आप बाकी इंतजाम करें. मैं प्रेस से और योगीन्द्रपतिजी को खबर करता हूँ. कहते हुए दिवाकर केबिन से बाहर आ गए. दरअसल, वे रोना चाहते थे, जी भर कर रोना. सीढि़याँ उतरते न उतरते उनकी हिचकियों ने रूलार्इ का रूप ले ही लिया. मृत्यु और रूदन अस्पतालों के स्थायी आभूषण होने के बावजूद दिवाकर अपनी बुक्का-फाड़ रूलार्इ के लिए कुछ दर तक आते-जातों के ध्यानाकर्षण का पात्र बने.
माधव को तब तक तात्कालिक जिम्मेदारियों का अहसास हो चला था. उनका दिमाग तेजी से दौड़ रहा था. कफन, महापात्र, शवदाह के लिए सामान, परिवार को अंतिम दर्शन के लिए अस्पताल लाना. उन्होंने क्षणांश में निर्णय लिया.
पहले यहाँ का इंतजाम कर लें. वरना भाभी-बच्चों को संभालना कठिन होगा. उचित होगा कि शवयात्रा की तैयारी के बाद ही भाभी को लाया जाय.
राजनारायण ने सिर हिलाकर सहमति दी.
वे जानते थे कि पिछले एक पखवारे से घर से अस्पताल की यात्रा करने वाले माधव के लिए अनजान शहर में कुछ भी इंतजाम करना कठिन होगा. कहां-कहां भटकेंगे. वैसे भी जिस गुरू ने पैरों पर खड़ा होने के काबिल बनाया, उसकी सदगति उनका परम कर्तव्य है. यह मानते हुए वे अस्पताल से बाहर आए.
अस्पताल से निकलकर सीधे बेगम हजरत महल पार्क स्थित कंचना में पहुँचे राजनारायण. बलदेव प्रसाद की शाम प्राय: यहाँ बीता करती थीं. पंडित जी और फोटोग्राफर रमेश वगैरह सभी मृत्यु के समाचार से सनाका खा गये. नौकर से चूल्हा बुझाने को कह पंडित जी ने छोटे लड़के को घर भेजा, बड़े पुत्र श्रीराम को बुलाने. रमेश ने कैमरा संभाला. बलदेव जी के असंख्य चित्र खीचें थे उसने. आज आखिरी भी खींचेगा.
शवदाह में प्रयुक्त सामानों के त्वरित इंतजाम और महापात्र को बुलाने की जिम्मेदारी ली पंडित जी ने. राजनारायण ने बगल के टेलीफोन से स्वतंत्र भारत, नवजीवन, पायनियर को खबर दी. रेडियो स्टेशन और बलदेवजी के बनारसी मित्र काशीनाथ उपाध्याय को सूचित किया. भैया साहब (श्रीनारायण चतुर्वेदी) और डाक्टर सत्यव्रत सिंह को खबर कराने का जिम्मा पंडित जी ने रमेश को सहेजा. तब तक श्रीराम आ गया था. उसे चौक भेजा गया – अमृतलाल नागर के यहाँ; इस संदेश के साथ कि वे ज्ञानचंद जैन और भगवतीचरण वर्मा को खबर कर दें.
अब सब कुछ मशीन की तरह हो रहा था. बारह बजते-बजते भीड़ जुटने लगी. कफन, बांस, हांडी, तिल, घी, जल-पात्र वगैरह सब सामान आ गया. महापात्र आकर टिखटी के लिए बांस फाड़ने लगा. राजनारायण पांडे को सबसे कठिन काम की जिम्मेदारी मिली है – बलदेव जी के घर खबर करने की. उनकी हिम्मत ने हेवेट रोड पहुँचते न पहुँचते जवाब दे दिया. किस मुँह से मृत्यु का समाचार देंगे. पहले तो सोचा था कि गुरु-पत्नी को न सही बलदेव प्रसाद की बड़ी बहन को बता देंगे, ‘गंगा बुआ, पंडित जी नहीं रहे. कितनी ही बार यह वाक्य उन्होंने मन ही मन दोहराया. बच्चों की देखा-देखी पंडित जी की बड़ी बहन – प्राय: सैतालिस वर्षीया गंगा देवी को वे भी बुआ ही कहते थे.
पर भारी मन से सीढि़याँ चढ़ते हुए कब उनके मन ने निर्णय बदल दिया, उन्हें पता भी न चला. घंटी बजने पर दरवाजा बड़े लड़के विजय ने खोला. बुआ को बुला दो, कह वे गलियारा पार कर बरामदे में आ गये. अचानक उनका मन भर गया. इसी बरामदे के दूसरे कोने में रात ग्यारह तक पंडित जी ने आखिरी बार उन्हें पढ़ाया था. सुबह-सुबह मुन्ना बुलाने आया, ‘मां ने तुरंत बुलाया है. बाऊजी की तबीयत ठीक नहीं है.
उनके पहुँचने तक पड़ोसियों की भीड़ जमा हो चुकी थी. पता चला कि सुबह उठने पर देखा गया कि बलदेव जी अचेत हैं. शरीर के बायीं ओर लकवा का प्रभाव है. इसी बरामदे से उठाकर उन्हें अचेतावस्था में अस्पताल ले जाया गया जहाँ कोमा का कारण ब्रेत हैमरेड बनाया गया. दोपहर होते-होते शासन ने उनकी चिकित्सा की जिम्मेदारी लेते हुए प्राइवेट केबिन में ट्रांसफर कर दिया था.
तब तक गंगा बूआ आ गयीं. पाँच फुट से कुछ दबती, स्वस्थ, हलका गेहुँआ रंग, गोल चेहरा, जिस पर एक अजीब-सी शांति और पतले ओठों पर थिरती एक स्थायी मंद स्मिति. मोटी, नाखूनी या हरे किनारे वाली मरदानी धोती पहनती हैं गंगा बुआ. भावजों की बीबी और भाइयों के लिए महज गंगा. भार्इ सब छोटे होने के बावजूद उनके लिए गंगा का ही संबोधन करते थे. पिता जी की सात संतानों में सबसे बड़ी है गंगा देवी. उनसे पांच वर्ष छोटे सबसे बड़े पुत्र बलदेव प्रसाद. उनके बाद दो-दो वर्ष छोटे दौलतराम गौड़, वेणीराम गौड़, माधव प्रसाद मिश्र, दीनानाथ मिश्र और सबसे अंत में पुत्री यशोदा. पाँच पुत्रों के पिता विधाधर गौड़ अपने पुत्रों को कभी-कभी गर्व से पंच देव कहते थे और पुत्रियों को गंगा-यमुना. गंगा में मिलने वाले छोटे-बड़े नद-नालों की तरह गंगा के भाग्य में भी केवल दुखों के परनाले थे. सुख से उनका पाला ही न पड़ा.
उनकी शादी कब हुर्इ. कब विधवा हुर्इ. किसी भावज ने नहीं देखा. क्योंकि तब किसी भार्इ का विवाह नहीं हुआ था. उन्हें खुद भी तो याद नहीं. धुंधली-सी स्मृति भर है. केवल पंद्रह की थीं, जब शादी हुर्इ. विधाधर गौड़ ने स्वयं जन्मपत्री के ग्रह और गणों का मिलान किया था. स्वयं पुत्री के विवाह का मुहूर्त तय किया था. मार्इ की बहुत उछाह था. बड़ा अच्छा घर-वर मिला है. बेटी राज करेगी. कर्मेश शनि का भाग्येश गुरू और पंचमेश सूर्य का बड़ा उत्तम संयोग है – सीधे राजयोग.
किंतु भाग्य खोटा हो तो कोर्इ क्या कर सकता है. जन्मपत्री क्या करेगी. गणना गलत हो जाती है. विधना के आगे तो ग्रह भी सिर झुकाते हैं. इतने बड़े विद्वान, महामहोपाध्याय. जिनसे राजा-महाराजा विनत हो शुभ-मुहूर्त पूछते. अपनी पुत्री के विवाह का शुभ-लग्न शोधने में चूक गये. ऐसी चूक, जिसके कारण महामहोपाध्याय पिता की बाकी उम्र संताप में बीती. अपना विधाधर नाम उन्हें शूल की तरह चुभता रहा. किंतु कर क्या सकते थे. क्या ………की पुत्री विधवा नहीं हुर्इ थी. क्या वे ……….से बड़े विद्वान हैं.
अपने पति को ठीक से देखा भी कहां था – समझने की बात तो दूर. क्योंकि बातचीत भी तो नहीं हुयी थी ठीक से. पंद्रह साल की बहू का पहला दिन सास, जिठानी और गाँव की बड़ी-बूढि़यों के बीच बीता. रात अंधेरे में दबे पांव चोरों की तरह पति आये. कब सुबह हुर्इ, कब मुर्गे ने बांग दी, कब भैंस का पड़वा बोला, कब गाय रंभार्इ और कब मुँह-अंधेरे दबे पाँव कोठरी का दरवाजा खोल पति ने बाहर निकल दरवाजा उढ़क दिया उन्हें कुछ पता ही न चला. उनके सौभाग्य का दरवाजा उसी दिन उढ़क गया. अगली सुबह जेठानी की चुटकी और दिन रिश्तेदारों की बल्लैया के बीच बीता. ‘कैसी चांद सी बहू आर्इ है. घर जगमग रहेगा. शाम को विदार्इ हो गयी. ससुराल से मायके पहुँची ही थीं कि पीछे-पीछे खबर आयी कि पति हृदय गति बंद होने से अचानक चल बसे. भाग्य ने कैसा निर्मम खेल खेला उनके साथ. सधवा और विधवा का फासला इतनी तेजी से तय कराया विधाता ने कि हाथों की मेंहदी अंगार लगने लगी. वह दिन और आज का दिन. गंगा देवी फिर कभी ससुराल नहीं गर्इ.
माता-पिता की दुलारी तथा संतानों में सबसे बड़ी होने की वजह से न केवल उनके जीवन काल में बलिक पहले मार्इ (मा) और बाद में भैयाजी (पिताजी) की मृत्यु तक वे घर की कर्ता थीं. तिजोरी की चाबी उन्हीं के पास रहती थी. घर उनकी मर्जी से चलता था. भावजें उनसे दबती थीं, क्योंकि भार्इ बड़ी बहन के मान-अपमान का पूरा ध्यान रखते हुए अपनी पतिनयों को ऐसे व्यवहार की इजाजत नहीं देते थे, जिससे उनके अभिमान को किसी तरह की ठेस लगे. इस स्थिति में 1941 तक, यानि भैयाजी की मृत्यु तक कोर्इ बदलाव नहीं आया.
भैयाजी की मृत्यु ने परिवार को टूटी माला के छितरे मनकों की तरह बिखेर दिया. दरअसल उनकी मृत्यु जिन परिस्थितियों में हुर्इ थी, उनके आधार पर प्रत्येक क्रिया में कार्य-कारण संबंध खोजने वाले नैयायिक शिवदत्त मिश्र ने अपने बड़े भार्इ की मृत्यु के लिए अपने भतीजे को उत्तरदायी मानते हुए मृत्यु-पर्यंत क्षमा नहीं किया.
मन में क्लांति हो तो शरीर भी साथ नहीं देता. 1937 में पत्नी की मृत्यु के बाद विधाधर गौड़ का अग्निहोत्र करना बंद हो गया. अभी पत्नी का अशौच चल ही रहा था कि तीसरे दिन सबसे छोटे भार्इ की मृत्यु ने तो उन्हें, तोड़ वैराग्य के कगार पर ला खड़ा किया. मन करता घर-बार की चिंता-मुक्त हो सारनाथ सिथत उपवन में निवास करें. ऐसा किया भी. किंतु वहाँ भी चैन नहीं-शिष्य और भक्तों का रेला वहाँ भी मेला लगा देता. सो वे विश्वविधालय से अवकाश ले दिल्ली चले गये-योगमाया मंदिर, विश्राम के लिए. वहीं रजिस्ट्रार का पत्र मिला कि आवश्यक कार्यवश विश्वविधालय में उनकी उपस्थिति प्रार्थित है. लिख भेजा, ‘शरीर साथ नहीं दे रहा है, कुछ दिन और विश्राम करेंगे. जवाब में रजिस्ट्रार ने संदेशवाहक के माध्यम से गोपनीय पत्र भेज जिस ‘आवश्यक कार्य’ की ओर संकेत किया, वह उनके लिए जीवित-मृत्यु समान था.
ज्यों-ज्यों वे पत्र पढ़ते गये, त्यों-त्यों उन्हें प्रतीत हुआ कि वे सशरीर पृथ्वी में धंसते जा रहे हैं. अपमान और वेदना से उनका शरीर कांपने लगा. हठात उन्हें लगा कि जन्म-जन्मान्तर के पुण्यों का एक क्षण में क्षय हो गया है. कलम उठाकर तत्काल अपना त्यागपत्र लिख उन्होंने संदेशवाहक को सौंप दिया. मन उद्विग्न था किंतु शरीर शिथिल. तत्काल मृत्यु की इच्छा करते हुए वे स्वयं को धिक्कार रहे थे. सागर समान धीर-गंभीर विधाधर गौड़ के âदय में विक्षोभ और अपमान की लहरें रह-रह कर तांडव कर रही थी.
पंडितजी के दूसरे और तीसरे नम्बर के पुत्रों-दौलतराम और वेणीराम ने अपनी करतूतों से विधाधर गौड़ द्वारा वर्षों से संचित यश, कीर्ति और प्रतिष्ठा पर ग्रहण लगा दिया था. दोनों को मालूम था कि कापियाँ भैया जी के पास आएंगी जांचने के लिए इसलिए दोनों ने कुछ कठिन प्रश्नों के उत्तर परीक्षा केन्द्र में न लिखकर, घर पर लिखे – भैयाजी द्वारा उत्तर पुस्तिका के निरीक्षण से पहले. पंडित जी तो दिल्ली चले गए, इधर यह पाप गुप्त न रह सका.
काशी में सारस्वत और गौड़ ब्राह्राणों का जिस एक बिंदु पर प्रारंभ से ही मतैक्य रहा है – वह है स्वयं को श्रेष्ठ समझते हुए दूसरे को निकृष्ट मानना. प्रभुदत्त गौड़ बाद विधाधर गौड़ को निर्विवाद पांडित्य के कारण प्राय: पचास वर्षों तक यह विवाद पांव तोड़ एक ही स्थान पर अवश बैठा रहा. यधपि स्वयं को श्रेष्ठ साबित करने के लिए यदा-कदा मनोरंजक प्रयास किये जाते थे. किंतु पंडितजी के पुत्र-द्वय ने सारस्वत ब्राह्राणों को ऐसा अमोघ अस्त्र सहज उपलब्ध कराया, जिसके प्रयोग से उनकी कीर्ति को ध्वस्त किया जा सकता है. यह विचार मात्र षडयंत्रकारियों का प्रमुदित कर गया. महामना मालवीय के पुत्र गोविंद मालवीय के सदप्रयास और प्रेरणा से विश्वविधालय ने पंडितजी को ‘स्वेच्छया से त्यागपत्र लिख भेजने का ‘सुझाव दिया.
‘पुत्रादिच्छेत्पराजयम कहने वाले शंकराचार्य ने इस तरह पुत्र की कलुषित दुरभिसंधियों द्वारा पराजित होने की कल्पना भी नहीं की होगी. अपमानित और कलंकित हो शेष जीवन बिताने से तो मृत्यु ही श्रेयकर है. विधाधर गौड़ को प्रतीत होता कि सब उन पर हंस रहे हैं. किसी को बात करता देखते तो लगता उन्हीं की कलंक गाथा चर्चा का विषय है. अपमान और क्षोभ से उन्होंने घर से निकलना बंद कर दिया. अपरिचित अभ्यागतों से तो दूर, अपने शिष्यों से भेंट करने से भी विरक्त हो गयी. दोनों पुत्रों को तो वे पहले ही दृष्टि से दूर कर चुके थे. ‘अब कभी मेरे सामने मत आना दुष्टों. दिल्ली से वापसी के बाद दौलत और वेणी के लिए यह उनका अंतिम संभाषण था. अपमान और एकांतिक एकालाप में विभिन्न प्रकार के रोग उनका साथ देने लगे. अपने सबसे छोटे पुत्र और छोटी पुत्री के निमित्त विवाह-संबंध तय कर छोटे भार्इ से कहा ‘पोष मास में मेरा जन्म हुआ है.पोष में ही प्राण त्याग करूंगा. ऐसा हुआ भी. नैयाचार्य अनुज शिवदत्त मिश्र, जिनकी विद्वता का लोहा बंगीय नैयायिक भी मानते थे, ने तत्काल निर्णय दिया कि अपने इन दो आत्माओं, जो उनके बड़े भार्इ की मृत्यु का कारण बने हैं, से आजन्म संभाषण नहीं करेंगे. किसी तरह का कोर्इ सम्बन्ध नहीं रखेंगे. उनके हर्ष या विषाद, आनंद या शोक के किसी क्षण या अवसर को अपना नहीं मानेंगे.
शिवदत्त मिश्र को अपना यह निर्णय न्याय की कसौटी पर इतना खरा लगा कि मृत्यु पर्यन्त उन्होंने अपना वचन निभाया. यहाँ तक कि दौलतराम की मृत्यु पर अशौच भी नहीं माना.
भैयाजी की मृत्यु के एक माह बाद पुत्री यशोदा का फिर दो माह बाद पुत्र दीनानाथ का विवाह हुआ. चूँकि शिवदत्त मिश्र भार्इ की मत्यु बाद परिवार से उदासीन हो, अपना अधिकांश समय रानी भवानी गली सिथत विधा-भवन में रहते हुए पठन-पाठन, अध्यापन में देने लगे थे, इसलिए अनुशासन में बांधने वाली डोर के अभाव में परिवार में विघटन-वृत्तियाँ सिर उठाने लगीं. बलदेव प्रसाद की पत्नी का कर्इ वर्ष पूर्व निर्धन हो चुका था. इसलिए परिवार से उनका नाता भी मात्र रात्रि-भोजन तक सीमित था. उनकी कन्या कमला बूआ की छत्र-छाया में पल रहीथी. 1943 में चाचा के दबाव व प्रयास से बलदेव प्रसाद का सरस्वती देवी से दूसरा विवाह हुआ और पाँच वर्ष बाद उन्होंने अपनी पुत्री कमला का वाग्दान दिया.
बलदेव प्रसाद मिश्र को प्रारम्भ से ही यज्ञ और कर्मकाण्ड से अरूचि थी. प्रेमचंद और जयशंकर प्रसाद के सम्पर्क में आ वे बचपन से ही ब्रजभाषा में कविता और कहानी लिखने लगे. उनका अधिकांश समय अपने मित्रत्रय रमाकांत कंठाले, शिवप्रसाद मिश्र और आशू बाबू के साथ बीतता. वे घर में कुछ देते नहीं थे – कुछ लेते भी नहीं. भैयाजी के जीवनकाल में ही इतना ले चुके थे कि अन्य भार्इ उनको शाही रहन-सहन और ‘निठल्ले’ जीवन पर प्रश्न करने लगे थे – जो उनकी पत्नियों द्वारा सिखाए होते थे. भैयाजी की मृत्यु बाद अन्य भाइयों ने भी अपनी कमार्इ गंगा को देने के बजाय अपनी-अपनी पत्नियों के साथ सहेजना बेहतर समझा. स्थिति यह बन गयी कि तिजोरी दिनों-दिन रीतने लगी. साझा चूल्हा शिवदत्त मिश्र द्वारा प्रतिमाह मिलने वाले 250 रुपये से जलता. भार्इ तो कुछ नहीं मांगते पर भावजों के हाथ हमेशा बढ़े रहते. पहले परिवार की सभी बहुओं के गहने एक जगह थे. मार्इ ने चारों बहुओं और गंगा को एक-एक सौ तोला सोना चढ़ाया था. अपनी मृत्यु से पहले भैया जी दीनू की बहू और बच्ची के लिए भी सौ-सौ तोला स्वर्ण की व्यवस्था कर चुके थे. भैयाजी की मृत्यु के बाद पहले बच्ची फिर दीनू की शादी में पहनने के नाम पर लिए गहनों को किसी भावज ने वापस नहीं किया. इस बिंदु पर सभी भावज एकमत थीं किगहने उनके पास अधिक सुरक्षित हैं.
गंगा के अधिकार के किले में भावजों द्वारा लगायी यह पहली सफल सेंध थी. उसके बाद तो अधिकार की दीवार कब जर्जर हो ढह गयी, पता ही नहीं चला. बलदेव प्रसाद मिश्र को घर के चाक-चिक्य से कोर्इ मतलब ही न था. माधव और दीनू छोटे थे. देवदत्त की पुत्र-त्रयी में बड़े चन्द्रभाल ही यज्ञादि से वापस आ गंगा के हाथ पर कुछ रखते थे. चूँकि बलदेव प्रसाद की दूसरी पत्नी परिवार में दखल नहीं देती थी. अत: स्वाभाविक रूप से छोटे भार्इ दौलत की पत्नी जिसे सब दिल्ली वाली कहते थे, ने घर की बड़ी बहू का स्थान काबिज कर लिया. वह अन्य बहुओें की जिठानी तो थी ही.
कमली के विवाह में बिन मां की लड़की के लिए मन खोल कर खर्च किया गंगा ने. अपनी साध पूरी की. लगा अपनी ही लड़की को ससुराल के लिए विदा किया है – इतना रोर्इ थी गंगा बूआ. यों बेटी ब्याहने की साध उन्होंने छोटी बहन बच्ची की शादी में भी पूरी की थी. पर कमला की तो बात ही और थी.
भावजों को अलग होने के लिए जिस बहाने की तलाश थी, वह उन्हें भतीजी के विवाह में हुए खर्च के नाम पर मिल गया. दिल्ली वाली की शर-वर्षा पति की आड़ से तेज हो चली. अपने पितृ तुल्य गुरू गोस्वामी दामोदरलाल की दो माह पूर्व कभी मृत्यु से विचलित बलदेव प्रसाद बिना लड़े ही हार मान, पत्नी और उसकी गोद के बच्चे को मायके भेज और विजय की बड़ी बहन के संरक्षण में लखनऊ आ गए. सात वर्ष बाद गंगा भी बड़े भार्इ के पास चली गर्इ. गंगा बूआ ऊपर से उतरीं धीरे-धीरे दीवार का सहारा लेकर. उनके घुटनों के जोड़ में गठिया है, जो सर्दियों में ज्यादा परेशान करता है. आकर मुन्ना को पानी लाने भेजा. बोलिए पांडेजी.
माधव ने आप सबको तुरंत बुलाया है, वे इतना ही कह सके.
बच्चा ठीक तो है न, अनिष्ट की आशंका से ग्रस्त गंगा देवी ने पूछा. बलदेव प्रसाद को बच्चा नाम उनके पिता ने दिया था. वे अपनों से बड़ों के लिए 42 वर्ष के जीवनकाल में बच्चा ही रहे और चार भाइयों, छोटी बहन के लिए बच्चेजी. उनके बाल मित्र शिवप्रसाद मिश्र, अशोक जी, रमाकांत कंठाले तथा आशुतोष भटटाचार्य भी उन्हें बच्चेजी कहते थे.
गंगा बूआ के सीधे-से सवाल का उत्तर पांडेय जी के पास नहीं था. जमीन की और देखते हुए आप लोग तुरंत तैयार हों. मैं गाड़ी लेकर आता हूँ. कहते हुए राजनारायण एक क्षण रूके बिना क्षिप्र कदमों से सीढि़यां उतर गए. जितने भारी कदमों से उन्होंने सीढि़यां चढ़ी थीं, उतनी ही तेजी से वह सड़क पर थे. उनके लिए लाया गया पानी भरा गिलास मुन्ना के हाथ में वैसा ही रह गया.
राजनारायण के गोलमोल उत्तर के बावजूद अनिष्ट हो चुका है, यह अनकहा संवाद गंगा बूआ के कलेजे को बींध गया. वे कुछ क्षण के लिए हतप्रभ रह गर्इ. गला अचानक सूख गया, लगा कुछ फंस गया है. मुँह से कोर्इ शब्द निकल नहीं रहा था. मुन्ना के हाथ से गिलास लेकर एक सांस में गिलास खाली कर दिया. भरी दोपहरी में चमकीली रेत-सरीखी धूप आँखों में दरकती होने के बावजूद उन्हें लगा कि आसपास अंधेरा ही अंधेरा है और वे अथाह अंधकार में डूबती जा रही हैं. उन्हें अंधकार की अनंत गर्त में डूबने से बचाने वाला कोर्इ नहीं है. वे ऊपर गर्इ. विजय की माँ एकादशी होने के कारण पति के लिए सूजी की खीर बना रही थीं – अस्पताल ले जाने के लिए. बच्चों को तैयार कर ले अस्पताल चलना है ननद ने बड़ी भावज से कहा. खीर चलाती भावज का हाथ रूका. क्या पूजा-पाठ, ब्रत-उपवास सब व्यर्थ गया. कल ही तो अमीनाबाद के मंदिर में मन्नतें मांगी थीं. बचपन से ही शिव की आराधना करती रही हूँ. नित्य प्रार्थना करती हूँ. प्रभू इन्हें ठीक कर दो. तुम सिरजनहार. तुम पालनहार. मेरी गलतियों की सजा इन बच्चों को मत दो.
प्रार्थना करते-करते उनकी बंद आँखों से आँसू झरने लगे. कपोल अश्रु-धारा से भींग गए. ज्यों ज्यों श्रद्धा-विगलित आत्म-संलाप आगे बढ़ता गया, नि:शब्द अश्रुपात की अजस्र धारा कपोलों को भिगोती रही.
यह सोचने का समय नहीं था. दीर्घ नि:श्वास लेकर सरस्वती ने पानी डालकर लकड़ी बुझा दीं. अब यह चूल्हा र्इश्वर की कृपा से यदि सब कुछ ठीक-ठाक रहा, तभी जलेगा. दोनों स्त्रियाँ चुप थीं. सामने जो भी साड़ी मिली उसे जैसे-तैसे लपेट लिया सरस्वती ने. एकादशी व्रत के लिए सुबह स्नान के बाद बाल में कंघी फिराने की फुरसत भी न मिल सकी थी इस घड़ी तक. हाथ पीछे कर खुले बालों को जूड़ा की शक्ल दी. बच्चों को कपड़े पहनाए. गोद के बच्चे को दूध पिला ही रही थी कि नीचे कार का हार्न बज उठा. पहले उतरीं बूआ, मुन्ना ओर विजय का हाथ पकड़ फिर मुन्नी और सबसे अंत में सरस्वती जो मन ही मन सुहाग की रक्षा के लिए र्इश्वर से प्रार्थना करते हुए चलते समय ड्रेसिंग टेबुल के शीशे के सामने पल भर के लिए ठिठक माथे पर बिंदी और मांग में चुटकी भर सिंदूर लगाना नहीं भूली थीं.
राजनारायण ड्राइवर को कहां जाना है समझा वहीं रूक गए.
‘मैं आता हूँ, आप लोग चलें. वे शायद उन लोगों के साथ उस सच का सामना नहीं करना चाहते थे जो मेडिकल कालेज में परिवार की प्रतीक्षा कर रहा था.
लू के थपेड़े मुंह पर लग रहे थे, फिर भी दस वर्षीय मुन्ना कार की खिड़की का शीशा उतार कर बैठा था. बगल में उससे दो वर्ष बड़ा विजय. पिछली सीट ननद और भावज के बीच पांच वर्ष की मुन्नी.
मेडिकल कालेज में कार के रूकते ही मौजूद भीड़ के रेले और सड़क के बीचो-बीच धरी टिखटी पर रखे शव ने आशा और विश्वास के उस सूत्र को एक झटके से तोड़ दिया, जिसके भरोसे गंगा देवी कार में बैठी महामृत्युंजय जाप बुदबुदा रही थीं. सरस्वती देवी हठात चीख उठीं. उनकी चीख इतनी आकसिमक और तेज थी कि गोद का बच्चा भी दहाड़ मार उठा. बलदेव प्रसाद के जिन मित्रों ने उनकी पत्नी की कभी छाया भी नहीं देखी थी उन्होंने आज देखा कि कार के रूकते न रूकते सरस्वती देवी ने गोद के पुत्र को झटके से सीट पर रखा, त्वरित गति से कार का दरवाजा खोला और लगभग दौड़ती हुर्इ पति के शव पर पछाड़ खा गिरीं. यह सब एकबारगी इतनी तीव्र गति से हुआ कि गंगा बूआ और बच्चे कार में ही बैठे रह गए.
माधव ने कार का दरवाजा खोल बहन को सहारा दिया जो भार्इ के कंधे से लग सुबक उठी. उधर विजय और मुन्ना अपनी मां का साथ दे रहे थे रोने में. इतने छोटी भी नहीं थे कि बाऊजी की मृत्यु हो गयी है, यह समझ न सकें. वे अपनी मां की पीठ से लिपटे रो रहे थे, जो अपने पति के शव का परस लेती, चेहरे को दोनों हथेलियों में ले छाती पर सिर पटक बिलख रही थी. सिर का आंचल ढुलक चुका था. जूड़ा खुल कर बिखर चुका था. बालों ने मुँह ढक लिया था. कब चूडि़यां टूटीं, कब माथे की बिंदी हटी, कब मांग का सिंदूर बह नाक तक आ गया, कुछ पता ही न चला. फड़काते नासापुट धिक लाल थे या आंखें कहना मुशिकल है. राजनारायण हथेलियों में मुँह छिपा बच्चों की तरह बिलख उठे. गंगा बुआ गुमसुम थीं. आँखों के आँसू सख गए थे. उनका हाथ भावज की पीठ पर था, जो बार-बार शव पर सिर पटक रही थीं. पांच वर्ष की मुन्नी कुछ न समझती हुर्इ कभी मां को देखती कभी जमीन पर लेटे बाऊजी को. यहाँ कयों लेटे हैं अपने पेट पर सुला थपकियां क्यों नहीं देते. माथे पर चंदन का लेप है शायद गरमी की वजह से.
कुछ देर बाद माधव ने बहन को उठाया और ननद ने भावज को. राजनारायण मुन्ना को गोद में लेकर कार की पिछली सीट पर बिठा गए. वापसी में सभी पिछली सीट पर थे – विजय को छोड़कर, जिसे शवदाह के लिए शमशान जाना होगा. रोते हुए मुन्ना को बूआ ने दिलासा दी – मत रो, बच्चा चला गया छोड़कर, तो क्या हुआ, मैं हूं न. कहते हुए बूआ ने मुन्ना को कलेजे से लगा लिया.
शमशान पर पूर्वाभिमुख चिता पहले से तैयार थी. यहां महापात्र राममनोहर का साम्राज्य है. किसी अन्य की नहीं चलती. उसकी व्यवस्था ही सत्य है. वो जो कह दे वही सत्य है. पुष्टि के लिए पुराणों से किसी प्रमाण की जरूरत नहीं. चिता के पास गोबर से सध लिपी जमीन पर उसने शव को टिखटी से खुलवाकर रखने से पूर्व कुशा से पानीकी रेखा खींच मंडल बनाया. तिल और कुशा को मंडल के बीच रखा. उधर वट-वृक्ष के नीचे नापित विजय के बाल गीता कर सिर पर उतरा खींच रहा था.
माधव ने विजय की हाफ पैंट उतरवा कमर में एक सफेद वस्त्र की गांठ लगा, जैसे तैसे धोती का रूप दे दिया. धूप की प्रखर किरणों से सुरक्षा के लिए गीला अंगोछा सिर पर रख वे विजय को चिता के पास ले गए.
विजय के सामने केवल बाऊजी थे. मस्तिष्क में न कोर्इ विचार, न हृदय में कोर्इ उद्गार. वह प्राय: संज्ञाशून्य था. आंख ठहरी हुर्इ. शरीर यंत्र की तरह महापात्र के आदेश का पालन करता हुआ. महापात्र के शव के दोनों हाथों में कुशा और मुंह में तुलसी-दल रख विजय की अंजली में जल भरते हुए मंत्र पढ़ा-
विष्णुरेकादशी गीता तुलसी विप्रधेनव:.
असारे दुर्ग संसारे षटपदी मुक्तिदायिनी..
शव को चिता पर रखा गया. कफ़न को दो भागों में फाड़ एक हिस्सा चिता पर रख दूसरा महापात्र ने वहीं फेंक दिया. मंत्रोच्चार के बीच विजय से शवदाह करवाया-
त्वं भूतकृज्जगधोनिस्त्वं लोकपरिपालक:.
उपसंहर तस्मात्वमेनं स्वर्ग नयामृतम..
चिता धू-धू कर जल उठी. सूखी लकडि़याँ, घृत, चंदन, कपूर और धूनी का संयोग – अगिन को और कया चाहिए था भला. लपटें हा-हा कर आसमान चूमने के लिए होड़ करने लगीं. लकडियों की चटचटाहट के साथ छिटकती चिंगारियां. ताप बढ़ता हुआ क्रमश: असहनीय होता गया. लोग पीछे हटे. अगिनपिंड छिटकने लगे. जलती लकडियों के छोटे-छोटे टुकड़े उड़-उड़ कर इधर उधर बिखर रहे हैं महापात्र को इसका अभ्यास है. वह बांस से गिरती लकडि़याँ व्यवस्थित कर रहा है. सिर पर एक भींगा कपड़ा और मुँह पर कमछा – जिससे केवल आँखें ही दिख रही हैं – महापात्र अत्यंत उत्साह से अपना काम कर रहा है.
सूर्य की सीधी किरणों के ताप से तपती शमशान भूमि पर नंगे पाव, नंगे बदन मात्र एक गमछा सिर पर रखे विजय की आंखों के आंसू सूख चुके हैं. किसी मंत्रकीलित पुतलेकीतरह वह कपाल क्रिया कर रहा है. उसे न धरती का ताप लग रहा है न चिता का. महापात्र ने मंत्र पढ़ा –
अस्मात्त्वमधिजातो•सि त्वदयं जायता पुन:.
असौ स्वर्गाय लोकाय स्वाहा..
शवयात्रा में आये व्यक्ति गुटों में बंटे हुए चर्चा कर रहे हैं. कुछ विषाद से चुप हैं. ज्ञानचंद और अमृतलाल नागर एक साथ हैं. अमृतलाल नागर ने अपने बाल्य-मित्र से कहा, ‘तुम्हें बलदेव जी की लेखमाला पूरी छापनी चाहिए थी. रोका क्यों?
उनका आशय ‘लखनऊ का कवि समाज’ नामक उस लेख माला से था जिसे बलदेव प्रसाद ने अपने मित्र ज्ञानचंद जैन के अनुरोध पर ‘नवजीवन दैनिक’ के लिए लिखना स्वीकार किया था. किश्त छपने के बाद लेखमाला बंद हो गयी, बिना किसी सूचना के.
वह मैनेजमेंट का निर्णय था. ज्ञानचंद जैन ने रहस्योदघाटन किया.
कुछ देर चुप रह अमृतलाल बोले, ‘हमसे उन्होंने कभी चर्चा नहीं की थी इस विषय में. किंतु बहुत दूख हुआ था बलदेव जी को. लगा कि वो अकेले हो गये हैं. मित्रों ने भी साथ छोड़ दिया. अपराध, सच लिखना ही तो था न. यदि कोर्इ संस्कृत ग्रंथों से चोरी कर महाकवि कहलाने लगे, तो क्या उसे अनदेखा करना उचित है!
ज्ञानचंद कुछ न बोले.
चिता पूरी जल चुकी है. महापात्र ने जल उड़ेलकर लकडि़यां बुझायीं. एक-एक कर उपस्थित व्यक्तियों ने प्रदक्षिणा की. धीरे-धीरे शमशान भूमि खाली हो गयी.
पत्थर की पटिया पर बैठे अमृतलाल नागर और ज्ञानचंद जैन के समीप आ योगीन्द्रपति त्रिपाठी ने नि:श्वास ली, ‘स्वतंत्र भारत’ को साहित्य संपादक तो मिल जाएगा, किंतु हम लोगों को अब न ऐसा शत्रु मिलेगा न मित्र.
बुझती चिता के अवशेष देख रहे ज्ञानंचद के कंधे पर हाथ रखा अमृतलाल नागर ने, चलो, अब क्या बचा है. सब खत्म हो गया. उड़ गये फुलवा, रह गयी बास.