आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

औपनिवेशिक आधुनिकता के बरक़्स कबीर: विनोद शाही

‘कबीर की कविता और उनके समय’ को पुरुषोत्तम अग्रवाल की इसी शीर्षक वाली किताब प्रेम की अकथ कहानी की तरह पढ़ने की कोशिश करती है. इस ‘पाठ’ या पुनपठि के कई निहितार्थ हैं. पहली बात तो कबीर को ‘कवि’ के रूप में ही स्वीकृत करने से जुड़ी दिक्कतों की है, जिनके समाधान के लिये ‘कबीर के समय’ में लौटना जरूरी है. यानि कबीर का जो ‘समय की कसौटी’ वाला पाठ है, उसे हटाना, कुछ ख़ास संदर्भों में जरूरी मालूम पड़ने लगा है. जैसे कि यूरोपीय ज्ञान मीमांसा के आरोप वाली औपनिवेशिक आधुनिकता है. वह कबीर को ठीक से समझने के रास्ते की रुकावट बन रही है. पर कबीर की कविता में उनके आधुनिक होने के जो सबूत मिलते हैं, उन्हें दरकिनार करना मुमकिन नहीं. इसलिये पुरुषोत्तम अग्रवाल की यह सलाह बहुत अर्थपूर्ण हो जाती है कि हमें कबीर की कविता को ‘देशज आधुनिकता’ के नुक्ते-निगाह से समझने की कोशिश करनी होगी. देशज आधुनिकता को लेकर वे स्पष्ट हैं कि वह भारत की अपनी जमीन परम्परा की उपज है, जो भारत के ‘मध्यकाल को जड़ व प्रगति विरोधी कालखण्ड’ की तरह देखने-समझने वालों के लिये अपनी भूल सुधारने की वजह होनी चाहिए. दरअसल भारत के मध्यकाल की इस तरह की तमाम व्याखयाएं औपनिवेशिक और ओरिएंटल व्याखयाएं हैं, जिन्हें झूठे प्रकार के  जरिये गढ़ा या रखा गया. इस तरह यह किताब कबीर की बाबत रचे-गढ़े गये झूठे मिथकों के अंबार के भीतर से ‘उनकी कविता और उनके समय को’ उबारने की बेहद ज़रूरी कोशिश की तरह सामने आयी है इससे विमर्श के लिये गुंजाइश खुलती है. बहुत से नये सवाल पैदा होते हैं, जिनसे जूझना ज़रूरी मालूम होता है.

यहाँ पहला सवाल वही है जो पुरुषोत्तम अग्रवाल की कबीर की बाबत ‘निर्गुण के गुण’ वाली समझ से लेकर, ‘रामानंद के द्वितीय सेतु’ और ‘नारदी भक्ति के स्त्रोत होने’ की स्थिति तक, इस किताब में सब कही मौजूद है. इस सवाल से हम तभी टकराना आरंभ कर देते हैं, जब वे आग्रहपूर्वक हम से यह कहते हैं कि ‘हमें कबीर को पढ़ना होगा, भक्ति की संवेदना के समग्र संदर्भ में.’ और हमें खोजने की ज़रूरत पड़ती है कि यह भक्ति और संवेदना और उसका समग्र संदर्भ क्या है? फिर इससे ताल्लुक रखता दूसरा सवाल उठता है कि इस संवेदना के औपनिवेशिक और देशज रूप कौन से हैं? तीसरा सवाल सामने आता है कि इन्हें समझने के लिये हमारी कसौटी ‘केवल और केवल कबीर की कविता’ कैसे हो सकती है; क्योंकि कबीर को एक कवि के रूप में देखने के लिये हमें कुछ ‘दूसरे ही प्रतिमानों’ की ज़रूरत पड़ती है. इन तमाम सवालों से जूझते-टकराते आखिरकार जब हम ‘कबीर के वास्तव समय’ में दाखिल होते हैं, तो चौथे सवाल से रुबरू होते हैं कि वह समय ‘हमारे समय का हिस्सा’ किस रूप में है?

परन्तु इससे पहले कि हम इस किताब के द्वारा खड़े किये गये इन तमाम सवालों की गहराई में उतरें, हमें एक और सवाल पूछने की ज़रूरत भी पड़ती है. वह सवाल यह है कि यहाँ  जब हम कबीर को ‘एक देशज आधुनिकता वाले भक्त-कवि’ के रूप में देखने से अपनी इस ‘नयी समझ’ की शुरूआत करना चाहते हैं तो कहीं हम खुद भी किसी मत की ‘रचना या गढ़न’ कहानी कर रहे हों? हालांकि यह किताब मुखयतः ऐसे ही रचना-गढ़न के बहुत से रूपों के ख़िलाफ़ एक जद्दोजहद छेड़ती है, तथापि उसे और तराशने तथा थोड़ी और हिम्मत दिखाने की बात भी इसी जद्दोजहद का अगला चरण हो सकती है, जिस पर कबीर के भावी विमर्शकार काम कर सकते हैं और अगर ऐसा है तो यह इस किताब की सामर्थ्य ही है और इसीलिये इस किताब पर चर्चा का आरंभ भी यहीं से किया जा रहा है.

वेस्टकॉट और ग्रियर्सन जैसे तमाम पश्चिमी विचारकों की एक औपनिवेशिक ज़रूरत थी कि वे भारत के समूचे मध्यकाल को ‘भक्ति की अवधारणा’ के रस्से से बांधकर, इस काल को ‘भक्तिकाल’ या ‘भक्ति आंदोलन’ के रूप में प्रस्तुत और स्थापित करें. हालांकि वेस्टकॉट अपने अध्ययनों से यह बात अच्छी तरह समझ पा रहे थे कि जिसे हमारे यहाँ  ‘भक्ति’ के रूप में देखा-पहचाना जाता है, वह मूलतः ‘कृष्ण भक्ति’ है. बेशक दक्षिण भारत में कृष्ण-भक्ति, एक नुमायां काव्यधारा का रूप लेती है, जिसमें अनेक आचार्यों और भक्तों की बड़ी भूमिका रहती है; परन्तु उत्तर भारत परिदृश्य इससे न तो बहुत मेल खाता है और न पूरी तरह व्याख्यायित होता है, भक्ति के स्वरूप् के गठन के पीछे वैष्णव कृष्ण-भक्तों की एक सुदीर्घ परंपरा खड़ी है – जो नरायणी, पांचराजी, भागवत-मूल, नारदी या शांडिल्यी रूपों-करणों से होती हुई अद्वैत-वेदान्त के ‘प्रच्छन्न ऐजेंडे’ की शक्ल लेती है और फिर अनके रूपों-नामों वाले कई बार के अद्वैतवादों में पुनः पुनः गठित होती विकास करती है, परन्तु भक्ति की इस ‘मुख्यधारा’ को उत्तर-भारत में लगातार चुनौती देते रहने की भी एक अपनी सुदीर्घ और स्वतःपुष्ट परंपरा भी समांतर मौजूदगी रखती अवाधारणा में समाहित करके, उसे किसी औपनिवेशिक जरूरत के सांचे में ढालना विवके-सममत हो सकता है.

जाहिर है कि कबीर भक्ति की मुखयधारा को चुनौती देने वाली परंपरा के भीतर से प्रकट होते हैं. और अगर हम इस विवेचन से थोड़े-बहुत भी समहत हों तो हमें कबीर को ‘भक्ति संवेदना के समग्र संदर्भ में पढ़ने’ वाली बात पर पुनर्विचार करना होगा. लेखक हम भक्ति की संवेदना के समग्र संदर्भ को ध्यान में रखते हुए ही कबीर को उससे लोहा लेते हुए देखते हुए, इस समर्थ रचनाकार सरोकारों को ‘पढ़ समझ’ पाने लायक हो सकते हैं।

तो पहला सवाल सामने है-क्या कबीर वाकई एक ‘भक्त कवि’ हैं

पुरुषोत्तम अग्रवाल कबीर के भक्त-कवि होने के पक्ष में कुछ अंतः साक्ष्य पेश करते हैं जो विचारणीय हैं. वे ऐसे पद उद्धृत करते हैं, जिनमें कबीर खुद को ‘भगत’ कहते और मानते हैं. और सबसे बड़ा साक्ष्य तो यह है कि एक जगह वे खुद को ‘नारदी भगती’ का साधक या प्रयोक्ता कह डालते हैं. उन्हें साबित करने के लिये इतने साक्ष्य काफी हैं. इन साक्ष्यों से ताल्लुक रखने वाली जिन पंक्तियों को उद्‌घृत किया गया है, वे इस प्रकार हैं-

(१) नारदी भगती मगन सरीसां
इस विधि भव तिरे कहै कबीरा

(२) एक जुगति एक ही मिलै, किधों जोग कि भोग
इन दुन्यूं फल पाइए, राम नाम सिधि जो
प्रेम भगति ऐसी किजीये, मुख अमृत बरसै चंद

ये सबूत आकाट्‌य होते, अगर कबीर अपने इन्हीं पदों में इस ‘नारदी भक्ति’ या ‘प्रेमा भक्ति’ की व्याख्या न करते. ध्यान से इन पदों को पढ़ने पर यह बात भी यहीं साफ हो जाती है कि वे इन ‘शब्द धारणाओं’ का इस्तेमाल, ‘अपनी विधि या जुगत’ के विशेषणों की तरह कर रहे हैं. यानि वे प्रचलित या लोक-स्वीकृत अर्थ में नारदी या प्रेमा भक्ति का प्रचार-प्रसार नहीं कर रहे, अपितु ‘अपने मत’ को सांचे में ढाल कर, इनका एक तरह का अर्थ-परिवर्तन कर रहे हैं. दूसरे पद में उन की यह कोशिश बड़े सजग रूप में मौजूद है. वहाँ  कह रहे हैं कि न सिर्फ ‘जुगति एक है’, अपितु उसमें ‘जो मिलता है, वह भी एक है’ और वह जुगति न जोग की है और भोग की. अपितु इन दोनों का फल एक साथ प्रदान करने वाले ‘राम-नाम’ रूपी ‘सिद्ध योग’ की वह जुगति है. इस युक्ति के अनुसार ही प्रेमा-भक्ति करनी चाहिये – ‘प्रेम भक्ति ऐसी कीजिए’ केवल सीधे-सीधे इन पदों के अर्थ ही करें तो मालूम हो जायेगा कि यह प्रेमा-भक्ति के अर्थ-परिवर्तन का …………… और सजग रूपांतर है.

अपने स्वीकृत अर्थ में भक्ति, हरि को ‘योग’ लगाने अपनी ‘वस्तु को उसके प्रति अर्पित करने’ की विधि है. इसी तरह कबीर के समय तक ‘योग’ अपने स्वीकृत अर्थ में दैहिक सिद्धियां पाने का, प्रेम और समाज से टूटा हुआ, साधना-मार्ग बन गया था. ‘भोग वस्तु का अर्पण’ अपने आप में इसलिये पर्याप्त नहीं रहा था, क्योंकि वहाँ जीवन भोग का पर्याय हो जाता था. अंशदान या समर्पण करने भर से, भोगशील जीवन शैली की सारी बुराइयां धो दी गयीं मान ली जाती थीं बरस्ते बौद्धमार्ग, जो भक्ति सिद्धों तक चली आयी थी, वह एक अपनी तरह का ‘तंत्र’ बना कर, व्यभिचार तक को साधना-मार्ग घोषित करने लगी थी. तंत्र का असर और उस दौर में सभी पर पड़ा था. शैवों-नाथों, जैनों तक के पास वैष्णव-तंत्रों जैसी अपनी-अपनी व्यवस्थाएं मौजूद हो गयी थीं. उत्तर-तांत्रिक दौर में वैष्णव भक्ति का भोगवादी रूप लगभग सभी भक्ति-पद्धतियों में जड़ें जमाने लग पड़ा था. उस दौर की इस कश्मकश का थोड़ा अंदाज़ा पुरुषोत्तम अग्रवाल की इस किताब के उन हिस्सों से ज़रूर लग जाता है, जहाँ  वे गोरखनाथ के ‘गोरख जगायो जोग, भगति भगायो भोग’ का नोटिस लेते हैं. स्पष्ट है कि गोरख भी परंपरागत योग का पुनरुत्थान भर नहीं कर रहे हैं. वे भक्ति-मार्गियों के भोगवाद को हटाने या भगाने के लिये योग को नये रूप में जगाने की कोशिश कर रहे हैं. योग का इन अर्थों में जगाया जाना, गहरे में उसके नवजागरण का आग़ाज़ करता है. कबीर को इसी नवजागरण-परंपरा में रख कर देखना सही होगा.

परन्तु कबीर स्पष्टतः गोरख से आगे जाते हैं. वे भक्ति के भोगवादी रूप के विरोध में उसी तरह खड़े हैं, परन्तु ‘रूपांतरित अर्थ वाली भक्ति’ को भी समांतर रूप में विकसित करने का असंभव-सा लगने वाला काम भी कर दिखाते हैं. इसे ही वे उपर्युक्त पद में ‘राम नाम का सिद्ध योग’ कह रहे हैं यानि उनकी चेतना का मूल स्वरूप तो ‘सिद्ध योग’ का है, जिसे उन्होंने रामनाम के अपने बनाये भक्ति मूलक सांचों में ढाल कर नयी शक्ल दे दी है.

भक्ति का अर्थ-रूपांतर, उद्‌धृत पदों में, नारदी भक्ति वाले पद में उतना स्पष्ट नहीं, परन्तु एक सूत्र-संकेत अवश्य वहाँ भी मौजूद है. नारद-भक्ति सूत्र पढ़ जाइये, वहाँ ‘पूजादिशु अनुरागः’ जैसे भक्ति की परिभाषा करने वाले सूत्रों से लेकर, भक्ति के अन्य अंगों, विधियों व प्रक्रियाओं तक, सब कहीं ‘मन’ केन्द्र में है और पूज्य-वस्तु के रूप में हरि या कृष्ण भक्ति का पूरा स्वीकृत ढांचा, ‘मन के रूपांतर’ पर ज़ोर देता है और उसके लिये ‘भाव’ को, प्रेम या अनुराग को आधार बनाता है दूसरी और योग-मार्ग देहवादी है. वहाँ ‘शरीर’ केन्द्र में है इसलिये योग समाज के निम्न-वर्गों, श्रमिकों या उत्पादन करने वालों की साधना-वस्तु बना रहा है. जबकि भक्ति उत्पादन के उपभोग की सामर्थ्य रखने वालों की साधना-पद्धति है इसलिये वहाँ ‘मन को रूपांतर’ के बिना नहीं चलता. अब कबीर का नारदी भक्ति वाला पद पढ़ें. वहाँ  कबीर कह रहे हैं कि ‘नारदी भगति मगन मन मोरा’, अपितु साफ लफ़्जों में समझा रहे हैं-‘भगति नारदी मगन सरीरा’ यह बड़ा सूक्ष्म भेद है, परन्तु अगर हम योग और भक्ति के निहितार्थों की ओर उनके अंतर्विकसित के समग्र इतिहास को नजर से रखेंगे तो अर्थ पकड़ने-समझने में ज्य़ादा कठिनाई नहीं हो सकती.

तो हम यहाँ पुरुषोत्तम अग्रवाल की इस सलाह पर चलते हुए प्रस्थान करते हैं कि हमें कबीर को भक्ति के समग्र संदर्भ में पढ़ना चाहिये, प्रस्थान हमारा साझा है, परन्तु निष्कर्ष एक दूसरे से एकदम अलहदा हैं, क्योंकि सही अर्थ में कबीर भक्ति का अपने हिम में, रूपांतरित किसी भी तरह से ‘भक्तिवादी’ कवियों की कतार में खड़ा करना उचित नहीं है.

कबीर को भक्त मानकर, इस नजरिये से उनके काव्य की व्याखया करते हुए पुरुषोत्तम अग्रवाल जिस दिक्कत का सामना करते हैं, उसका हल वे इस रूप में खोजते हैं कि कबीर की भक्ति का अर्थ ‘समर्पण’ के रूप में न करते हुए ‘भागीदारी’ के रूप में किया जाये. भक्ति को भागीदारी के अर्थ में समझने की भी एक परंपरा रही है, परन्तु उसका अर्थ भी मूलतः ‘योग पदार्थ’ में भागीदारी के रास्ते निकालने में है. जैसे कबीर एक जगह इस अर्थबोध को व्यक्त करते हुए कहते हैं – ‘जो खाऊँ सो भोग लगे’. यह जो अर्थ है वह ‘भागीदारी’ अर्थ को भी, उसकी चरम-सीमा तक खींच ले जाता है. यहाँ  पहुंच कर अराध्य को भोग लगाने की जरूरत का अंत आ जाता है. तो इस दशा को भागीदारी कहना, बहुत सार्थक नहीं रह जाता. यहाँ  आत्मविस्तार की इंतहा है, जो अराध्य को भी खुद में समेट लेता है. आत्मविस्तार की का यह रूप ‘भक्ति’ की सीमाओं को लांघ जाता है. यह ‘हद अलहद’ दोनों लांघना है. यह योगमार्ग का ऐसा विकास या विस्तार है, जिसमें भक्ति को समेट लेने की कोशिश की गयी है. योग में ‘धारण’ के तल तक ‘नाम’ को स्वीकार किया जाता है. ‘ध्यान’ के तल तक ‘दो’ की मौजूदगी रहती है. परन्तु ‘सम्बन्ध’ में एक ही ……. है. नाम अनाम होकर वुजूद का पर्याय हो जाता है. तो कबीर जो रास्ता पकड़ते हैं, वह गोरख से भी अलग तरह का मालूम पड़ता है. गोरख योग के पुनरुत्थान के कवि हैं, जो भक्ति के साथ ‘पोलेपिक’ समीकरण बनाते हैं. परन्तु कबीर भक्ति को रूपांतरित करके योग के सांचे में ढालते हैं और इस तरह योग पहली दफा गृहस्थियों, कामगारों-शिल्पियों आदि के सामाजिक क्षेत्र की संपदा के रूप में विकास करता है. ऐसा होने की वजह से पहली दफ़ा यह मुमकिन होता है कि भक्ति ब्राह्मणों (भोग-वर्चस्वी वर्ग) के एकाधिकार से बाहर आ जाती है.

तथापि भक्ति का रिश्ता, भोग-संपदा पद सवर्णों के वर्चस्व को बनाये रखने वाली, जाति -व्यवस्था से टूट नहीं पाता. बस केवल इतना भर होता है कि कबीर-रैदास-नानक आदि के ज्ञान-चिंतन-विमर्शमूलक प्रयासों में, एक नया संतों का वर्ग जाति-व्यवस्था के बाहर खड़े होने की सामर्थ्य पा लेता है, ऐसा होने के बावजूद ऐसे हालात नहीं होते कि यह वर्ग, खुद को ‘वर्ग’ की तरह समाज के रूपांतर के काम में झोंक सके. पर यह संभावना बनी रहे, इसके लिये संत, खुद को अकेले या निहंग होने के रूप में पेश करते हैं. ‘संतों के नहीं लेहड़े, साधु न चले जमात’.

दरअसल उस दौर तक जाति-व्यवस्था, भारत की सामंतीय उत्पादन-व्यवस्था को बनाये रखने में प्रमुख भूमिका निभाती है. गरीब किसानी का काम, बहुत थोड़े प्रतिफल में सेवा या श्रम करने वालों की बड़ी तादाद के लोगों के, चल नहीं पाता. इस अंतर्विरोध का फ़ायदा सामंतीय वर्चस्व उठाता है और भोग-संपदा पर अपने एकाधिकार को बनाये रखने के लिये वह, भक्ति के आराध्य-देवों की मदद लेता है. देवों और देवतुल्य सामंतों की भोग लगाये बिना, समाज का काम चलता ही नहीं. और इसके बावजूद कि भक्तिकाल (?) में तुर्क आकर भक्ति के विधान की जकड़बंदी को ढीला करते हैं, परन्तु बड़ी जल्दी वे भारत के इन भक्तिवादी सामंतों से हाथ मिलाकर चलने में ही बेहतरी समझते हैं. इस पूरी आपसदारी व्यवस्था को सिवाय संतों के कहीं से चुनौती नहीं मिलती. परन्तु सब तरफ भक्ति की मानसिकता के हालात ……………… होने से, संत एक हर तक ही रूपांतर कर पाने लायक हो जाते हैं.

और जब भारत में औपनिवेशिक दौर की शुरूआत होती है, तब भी हालत बहुत नहीं बदलती. मुगल साम्राज्य का अंत हो जाता है और अंग्रेज़ साम्राज्य उसकी जगह पर आकर बैठ जाता है. दोनों शासन-व्यवस्थाओं में सांझी बात यह है कि इन दोनों का भारत पर नियंत्रण, भारतीय सामंतों के साथ हुए इनके समझौतों की वजह से होता है और इसलिये दोनों के पास उत्पादन व सामाजिक रिश्तों की संरचनाओं पर नियंत्रण रखने के लिये, सांस्कृतिक धरातल वाली भक्ति मुख्य हथियार साबित होती है. अंग्रेज़ इस बात को बड़ी जल्दी समझ जाते हैं कि भारतीय समाज को वश में रखने के लिये सांस्कृतिक चेतना का खास तरह का इस्तेमाल सबसे कमतर है. इसके लिये वे भारत के मध्यकाल के स्वर्णकाल के रूप में भक्ति को एक आंदोलन की तरह खड़ा करते हैं और वे जो योगमूलक धाराएं थीं – उनके चिंतनमूलक व रूपांतरकारी आधार को कमजोर करने के लिये वे उन्हें भी भक्ति के ही रूपों में शुमार कर लेते हैं. ऐसा करना अंग्रेज़ों के लिये और भी जरूरी हो जाता है क्योंकि उनके दौर में औपनिवेशिक कोटि का जो औद्योगिकरण आता है, उससे जाति व्यवस्था के बंधन कुछ शिथिल तो होते है, परन्तु जो निम्न वर्ग या जातियां थोड़ी आजादी पाती है, उनके लिये इस औपनिवेशिक आधुनिकता में समृद्धि के लिये कोई खास गुंजाइश नही निकलती. पारंपरिक उद्योग धंधों, दस्त शिल्प आदि लगान के बोझ से पस्त नजर आते हैं. ऐसे में शिथिल पड़ती भक्ति से इतर सांस्कृतिक परंपराओं के पुनरूत्थान की मदद से खुद को संगठित करने की कोशिश करती हैं. यहाँ  कबरी पंथ, रैदासी संप्रदाय, आदि धर्मी, वाल्मिकी मत या बौद्ध धर्म का पुनरूत्थान नये सांस्कृतिक-राजनैतिक रूप लेने लगता है. अंग्रेज़ एकता को तोड़ने के लिये करते हैं वे इन सबके एक-दूसरे से अलहदा परन्तु इन सभी के सारतत्त्व (कंटेंट) को वे भक्तिमूलक बनाये रखते हुए, इन्हें जाति-व्यवस्था से बाहर हो जाने लायक भी नहीं बनाते. जैसे कि बेहद प्रगतिशील धर्म की तरह उभरा सिख-मत, एक ओर खुद को जाति-व्यवस्था से ऊपर मानता है, परन्तु व्यवहार में उसके तमाम रीतिरिवाज, संस्कार आदि जातिगत श्रेणियों वाली व्यवस्था का सम्मान करने वाले होते हैं. यहाँ  तक कि समानता का उपदेश देने वाले गुरुओं में कोई निम्न जाति से होने या उन जातियों के शादी-ब्याह के लिये प्रस्तुत होने का उदाहण पेश नहीं करता. हालांकि सिख धर्म के लिये कुर्बानियां देने वाले पांच प्यारों के ज्य़ादातर लोग निम्न जातियों के दिखायी देते हैं.

तो, मुगलकाल और फिर औपनिवेशिक दौर में जिस तरह धीरे-धीरे कबीर, रैदास या नानक का रूपांतरकारी चिंतन, तब के हालात के मद्‌देनजर, भक्ति की चेतना की गिरफ्त में आता गया, उसी का नतीजा यह निकला कि औपनिवेशिक दौर में अंग्रेज, मध्यकाल की इन तमाम चिंतनधाराओं को, भक्ति के खूंटे से बांधे रखने में कामयाब हो गये.

इसलिये पुरुषोत्तम अग्रवाल के इस निष्कर्ष से तो सहमत हुआ जा सकता है कि भारतीय मध्यकाल, एक अपनी तरह की ‘देशज आधुनिकता’ के प्रकट होने का काल है और उसका नेतृत्व कबीर आदि संत करते हैं, जिसके विकास में आगे चलकर ‘औपनिवेशिक आधुनिकता’ उल्टे रूकावट बनती है, परन्तु इस बात की व्याखया के लिये जब वे कबीर-आदि संतों के ही ‘भक्त कवि होने’ होने की बात पर जोर देते हैं, तो उससे हमारी देशज आधुनिकता का स्वरूप् ही गड़बड़ा जाता है. दरअसल भारतीय चिंतकों का आधुनिकता को समझने का एक ही मॉडल है-जो मूलतः पश्चिमी स्रोत वाला है. यह वैज्ञानिक जिज्ञासा, तर्क-विवेक, प्रश्न उठाने के साहस व सामाजिक प्रच्च्नों को अहमियत देने आदि के लक्षणों से जुड़ी वस्तु मानी जाती है. कबीर में भी हमारे चिंतक ऐसी ही बातों की मौजूदगी को देखकर उन्हें आधुनिक घोद्गिात करते हैं. परन्तु यह ‘देशज आधुनिकता’ क्या है? क्या वह इन्हीं लक्षणों के स्थानीय हालात में जन्म लेने से ताल्लुक रखती है, या उसके बुनियादी लक्षण कुछ अलहदा हैं? हमारे तमाम आधुनिक चिंतक, उक्त पहली संभावना तक रुक जाते हैं और दूसरी संभावना की गहराई में नहीं उतरते. ऐसा ही कुछ यहाँ भी दिखाई देता है. योग या ज्ञानमार्ग के भीतर से, या बौद्ध स्रोतों से हमारे योगमूलक, देहवाद, अनुमूलक ज्ञान-जो तर्क का भी अतिक्रमण करता है और प्र…………… उत्पाद से आया परिवर्तनशीलतावाद या क्षणिकतावाद जैसी परंपराएं मौजूद रही हैं, जो कबीरादि संतों के द्वारा समतामूलक समाज व्यवस्था की संभावना की जमीन के रूप में नयी शक्ल पाती है. हमारी ‘देशज आधुनिकता’ के लक्षण और स्रोत यहाँ हैं; न कि आरोपित वैज्ञानिक वस्तुनिष्ठता वाली कसौटियों में – जो ‘औपनिवेशिक आधुनिकता’ को मूल्यविहीन व पतनशील जीवन-दर्शन की दिशा में घसीट ले जाती है.

इसका मतलब यह हुआ कि कबीरादि संतों के यहाँ जो देशज आधुनिकता दिखायी देती है, वह उनकी भक्तिरोधी चेतना के भीतर से या भक्ति को रूपांतरित करने वाली चेतना की वजह से विकास पाती है. आगे चलकर, कबीर, अकबर तथा उसके बाद के काल में इस देशज आधुनिकता को, भक्तिवादी यथास्थितिवाद छोड़ना आरंभ कर देता है. नतीजतन भक्ति रीतिकालीन पतनशीलता में गर्क होती जाती है. औपनिवेशिक काल में इसी भक्तिवाद का पुनर्गठन किया जाता है और यह इंतज़ाम किया जाता है कि हमारी यह देशज आधुनिकता की चेतना और गहरा कर, अंग्रेजी की लायी औपनिवेशिक दासता को गहराने वाली आधुनिकता का विकल्प न बन जाये. इसके लिये इन संतों को ‘ब्राह्मणवाद’ व ‘सांस्कृतिक अस्थितरतावाद’ के नये गढ़े या रचे गये अंतर्विरोधों के …. बना दिया जाता है. यह साबित करने की कोशिश होती है कि इन संतों का सामाजिक समतावाद अनगढ़ था और आर्य अगर कोई मानवीय सारतत्व था, तो वह भक्ति की संवेदना की वहाँ  मौजूदगी की वजह से था. व्याखया का यह रूप औपनिवेशिक आधुनिकतावादियों के लिये यह गुंजाइश पैदा करता था कि वे कबीरपंथ-आदि के आस-पास गठित ही रहे ‘सांस्कृतिक अस्थितावाद’ को भी मूलतः भक्ति की संवेदना से ओत-प्रोत कह और मान सकें. इससे भक्तिधारा की जो मुखयधारा थी, उसके ब्राह्मणवादी रूप के नवगठन में भी मदद मिली. आचार्य रामचंन्द्र शुक्ल के द्वारा कबीर को अटपटा घोषित करने और तुलसीदास के फोकस में लाने के पीछे इसी सोच की भूमिका को देखा जा सकता है. इस आधार पर शुक्ल जी कबीर को सांप्रदायिक मानकर, ‘कवि’ मानने से इन्कार कर देते हैं. दूसरी ओर सांस्कृतिक अस्थिरतावादी नजरिये को पकड़ कर हज़ारीप्रसाद द्विवेदी से लेकर अभी तक बहुत-सा पुनर्मुल्यांकन कबीर को भक्त और कवि-दोनों मानने की वकालत करता है. यहाँ  हम कबीर में मौजूद ‘प्रेम’ को भक्ति की संवेदना का सार मानते हुए, उनके सामाजिक समतावाद के क्रान्तिकारी पक्षों को ‘डायल्यूट’ करने वाली, औपनिवेशिक आधुनिकता की मानसिकता के असर को देख सकते हैं.

पुरुषोत्तम अग्रवाल की किताब का नाम है-‘अकथ कहानी प्रेम की’. बेशक कबीर के ‘चिंतनमूलक काव्य’ को – अगर उसे काव्य साबित करना इतना ज़रूरी मालूम होता हो-समझने के लिये यह काव्य-पंक्ति हमारी मदद बहुत दूर तक कर सकती हैं. परन्तु इसे काव्य के नये प्रतिमानों के तलाश की जरूरत से जोड़ कर पंगु बनाना जरूरी नहीं है. कबीर की ज्ञानधारा के प्रखर मौलिक चिंतक की तरह क्यों नहीं देखा जा सकता? यह मध्यकाल की सीमा है कि उसमें एक चिंतक को भी अपनी बात काव्यनुमा रचनाओं की मार्फत कह कर असाधारण तक पहुंचाना पड़ता है. शायद पुरुषोत्तम अग्रवाल की मंशा यहाँ  उन्हें ‘कवि’ साबित करने की उतनी नहीं है, जितनी कि उन्हें धर्म गुरू या प्रचारक वाली हैसियत से अलगाने की है. उन्हें लगता है कि इसके लिये काव्य का धर्मनिरपेक्ष ढांचा उनकी मदद कर सकता है, परन्तु कबीर को ठोक-पीटकर कवि साबित करने की बजाय बेहतर होगा कि हम उन्हें और रैदास व नानक जैसे संतों को ‘रचनात्मक चिंतकों’ के रूप में देखने-समझने का रास्ता पकड़ें. मौलिक चिंतन की महान रचनाशीलता, कविकर्म के मुकाबले में न हीन है और न ही किसी तरह की सांप्रदायिकता के आरोप से ग्रस्त. इसलिये यहाँ  हम कबीर के प्रेम की अकथ कहानी के उस रचनात्मक चिंतामूलक पहलू को देखना आरंभ कर सकते हैं, जो उन्हें ‘भक्ति संवेदना का कवि’ सिद्ध करने की बात से अलहदा करता है.

भक्ति धारा प्रेम की अभिव्यक्ति के लिये, मूलतः किसी ‘कथा’ को आधार बनाती है. कथा की मीमांसीय व्याख्या हमें बताती है कि कथा गहरे में समाज-व्यवस्था की संरचनाओं का पर्याय होती है. भक्ति कालीन कथाएं नायक-केन्द्रित ही नहीं, नायकग्रस्त कथाएं हैं. वहाँ  नायक ‘मनुष्य की कोटि से ऊपर उठकर’ ईश्वर’ का प्रतिरूप्  हो जाता है और उसकी मौजूदगी इतनी सर्वग्राह्य होती है कि वह पूरी कथा को ‘लीला’ में बदल देती है. इस तरह कथा में जो सामाजिक जमीन होती है, वह ईच्च्वर-नायक की मौजूदगी के महातर्क की वजह से लीला या खेल भी बन कर रह जाती है. यह समाज की सामंतीय एकाधिकारवादी संरचना का आदर्च्चीकरण है. यहाँ कथा है जरूर, पर दरअसल है उसकी लीलावादी कथा एक तरह से प्रेम को असंभव बनाती है. वहाँ  करुणा प्रसाद या कृपा जैसी चीजें तो हैं, परन्तु वे ‘प्रेम’ शब्द से चुकायी जाने भर से प्रेम नहीं हो जातीं. तो जो संत हैं; वे अपने ज्ञान-विवके से यह जान रहे हैं कि प्रेम के लिये समाज-संरचना का समतामूलक होना जरूरी है इसलिये कबीर प्रेम को ‘अकथ कहानी’ की तरह मुक्त करने की कोशिश करते हैं. भक्ति की कथा में जो लीला है, उसे ये संत क्षणिकता बोध की तरह पकड़ते हैं वे दिखाते हैं कि वर्चस्वी वर्गों की तमाम संपदा कैसे ‘पानी के बुलबुले’ की तरह पर ‘परभात के तारे’ की तरह जल्द ही मिट या छिप जाने वाली है. यहाँ  समाज का राजा-प्रजा का भेद ही इस क्षण-भंगुरतावादी बोध का हिस्सा है, जिसके गिरते ही ‘प्रेम’ प्रकट हो जाता है-‘राजा परजा हेहि सबे सीस देइ ले जाय’. यह जो अकथ-कहानी वाली संरचना है, वह भक्तिवादी लीलावादी ‘कथाभास’ से समाज को मुक्ति दिलाने की तरक़ीब है. और यह शायद संतों के द्वारा तैयार की गयी जमीन की वजह से मुमकिन हुआ है कि हम आपके मौजूदा दौर में कथा को संभव होता देख पा रहे हैं. और इसलिये यह भी मुमकिन हो पा रहा है कि हम भक्ति के दौर की रामकथा या कृष्णकथा के ज्ञानमीमांसीय पुनर्पाठ कर पा रहे हैं और समाज को उसकी ठोस कथा-स्मृति वापिस कर पाने में कुछ मदद का सकते हैं यह एक तरीका हो सकता है – कबीर आदि की देशज आधुनिकता के वास्तव-अर्थों को पहचान कर औपनिवेशिक आधुनिकता के आरोप से मुक्त होने की राह निकालने का; जहाँ  हम एक समतामूलक समाज की संरचना की ओर आगे बढ़ते हुए प्रेम को एक जमीनी संभावना बना पायें, उसकी ‘अकथ कहानी’ को कह पाने लायक हो सकें।

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  1. Want to understand Kabir’s philosophy and its revival in present day. Would like to get in touch with the author of this article if he will be willing to discuss.

  2. विनोद जी आपका विश्लेषण अत्यंत सराहनीय है. एक समग्र और सटीक दृष्टि आपके लेखन को इतनी धीरता और इतना संतुलन देता है…कि बस बहुत-बहुत धन्यवाद …आपकी पुस्तकों की जानकारी मिल सके तो मैं बहुत लाभान्वित हूँगा.

    महेश ०९०१३९६६१२३

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