आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

कबीर काव्य – संवेदना का ‘महावृत्तान्त’: राजेन्द्र प्रसाद पाण्डेय

कबीर एक विचारक, क्रान्तिकारी और समाज परिवर्तन के महत्त्वपूर्ण कारक के रूप में हिन्दी भाषी जनता ही नहीं सम्पूर्ण भारतीय जनमानस को प्रेरित-प्रभावित करते रहे हैं. कबीर को दलितों और वंचितों की आवाज़ के रूप में समझकर पढ़ा जाने लगा. कुछ के लिए कबीर एक रहस्यवादी कवि के रूप में महत्त्वपूर्ण रहे और उनकी आध्यात्मिक चेतना ही कबीर काव्य का मूल समझी गई. कबीर का ‘आविष्कार’ आधुनिक परिप्रेक्ष्य में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने १९४१ में कबीर पुस्तक के रूप में किया. उसी तरह जिस तरह सूरदास और तुलसीदास के भक्तों की कोटि से ऊपर उठाकर उन्हें महत्त्वपूर्ण कवि के रूप में प्रतिष्ठित किया आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने. शुक्ल जी ने मलिक मुहम्मद जायसी को हिन्दी के श्रेष्ठतम कवियों में शामिल कर सूर और तुलसी के समकक्ष रखा. कबीर की काव्य-प्रतिभा के कायल होने के बावजूद शुक्ल जी तुलसी और सूर, जायसी की भांति कबीर काव्य के साथ न्याय नहीं कर सके बल्कि कबीर उनके कोपभाजन ही बने रहे- कारण वही कबीर की सामाजिक प्रतिबद्धता तथा वर्णाश्रम और जाति व्यवस्था के साथ-साथ उनको वैद्यता प्रदान करने वाले शास्त्रों का भी प्रबल विरोध. यद्यपि शुक्ल जी के परिवार से जुड़ी तथा चिन्तामणि भाग-४ की सम्पादक कुसुम चतुर्वेदी शुक्ल जी की अप्रकाशित पाण्डुलिपियों के हवाले से यह सूचना देती रहती हैं कि अन्तिम दिनों में शुक्ल जी कबीर पर पुस्तक लिख रहे थे, पर जो नहीं छप सकी, जो नहीं लिख सके उसके बारे में टिप्पणी नहीं की जा सकती. बहरहाल ‘कबीर’ को कवियों की श्रेष्ठतम पंक्ति में शामिल करने वाले हजारी प्रसाद द्विवेदी भी कबीर के अक्खड़पन, उनके सामाजिक सरोकारों, अनुभवगत  सत्य आदि की प्रशंसा करने तथा उन्हें ‘वाणी का डिक्टेटर’ बताने के बावजूद कबीर को मूलतः और प्रथमतः कवि नहीं मानते. उनकी कविता तो ‘बायोप्रॉडक्ट’ है. उनकी आध्यात्मिक रस की गगरी से कविता की कटोरी में भी कम रस इकट्‌ठा न हुआ. पर भी वह कटोरी ही, गगरी नहीं. इस प्रकार कबीर रस अभी तक एक वस्तुनिष्ठ, समग्र और समावेशी पाठ अभी भी अध्येताओं की चिन्ता का विषय नहीं था. कबीर को सब अपनी-अपनी तरह से साध रहे थे-एप्रोपिएट कर रहे थे. इस ओर ध्यान गया आलोचक पुरूषोत्तम अग्रवाल का.

सद्यः प्रकाशित पुस्तक अकथ कहानी प्रेम कीः कबीर की कविता और उनका समय में विद्वान लेखक और कृति आलोचक पुरूषोत्तम अग्रवाल ने कबीर काव्य के सम्बन्ध में अनेक भ्रमों का निराकरण कर कबीर का एक महावृत्तान्त प्रस्तुत किया है. जिसमें कबीर की कविता को उसके केन्द्र में रखा गया है. वे सामाजिक यथार्थ, व्यवस्था परिवर्तन, आध्यात्मिकता आदि की छानबीन के साथ-साथ कबीर की सामाजिक प्रतिष्ठा जो उन्हें उनके काल में भी मिली थी (शायद तुलसीदास से भी ज्यादा) और उनके जीवन काल के बाद भी बनारस और मगहर ही नहीं मालवा से लेकर गुजरात तक आदि का उल्लेख करते हुए कबीर और भक्त कवियों की आधुनिक चेतना का विस्तृत वर्णन करते हुए देशज आधुनिकता की अवधारणा प्रस्तुत करते हैं.

यह पुस्तक इस अर्थ में न केवल कबीर काव्य के अध्ययन के क्षितिज का विस्तार करती है अपितु आधुनिकता की अवधारणा और भारतीय आधुनिकता, देशज आधुनिकता को औपनिवेशक आधुनिकता के बरक्स रखकर प्रस्तुत करने और इस क्रम में १९वीं शताब्दी के नवजागरण और ब्रिटिश राज के अनेक पहलुओं को व्यापक परिप्रेक्ष्य में लाने का एक सार्थक और गम्भीर प्रयास करती है. कबीर काव्य को समझने में इस पुस्तक की महत्ती भूमिका हो सकती है. अपनी प्रस्तुति और सरोकारों तथा विवेच्य बिन्दुओं की दृष्टि से यह कबीर पर लिखी गई पुस्तकों में अद्वितीय है. यह विद्वान लेखक की तीन दशकों से अधिक लम्बी साधना, गम्भीरता पूर्वक किये गये शोध और विदेशी विद्वानों की पुस्तकों के अध्ययन और लेखक के मौलिक चिन्तर के सार्थक परिणिति है. चार सौ से अधिक पृष्ठों में फैली इस पुस्तक में जिस तरह से कबीर रचे बसे हैं, गंभीरता से कबीर काव्य के विभिन्न पक्षों का विवेचन जिस तरह से इसमें किया गया है वह विस्तृत विवेचन की मांग करता है.

प्रस्तुत विवेचन में मैं इस पुस्तक के प्रमुख प्रतिपाद्यों, उसकी प्रमुख स्थापना को समझने का प्रयास करूंगा. प्रस्तुत अद्योपान्त विमर्शात्मक प्रवृत्ति का बोध कराती है. तथ्यों और तर्कों का सुसम्बन्ध संयोजन और प्रस्तुतिकरण पुस्तक की विशेषता है. पुस्तक की एक अन्य उल्लेखनीय विशेषता है विचारपूर्णता के बावजूद पठनीयता और रोचकता. कबीर काव्य में निमग्न होकर लिखी गई इस पुस्तक में जिज्ञासाएं और समस्याएं हैं, रामानन्द और कबीर, कबीर की साधना, कबीर की कविताई, भक्ति माने भागीदारी जैसे महत्त्वपूर्ण अध्यायों के अतिरिक्त अत्यन्त चर्चित और महत्त्वपूर्ण स्थापना पर केन्द्रित ‘देशज आधुनिकता और भक्ति का लोकवृत्त’ शीर्षक अध्याय है. पुस्तक का वैशिष्ट्य इस बात में ही नहीं है कि वह कबीर का नया पाठ प्रस्तुत करती है अपितु वह सही मायने में कबीर के काव्य चिन्तन का विस्तार करती है. कबीर की काव्य संवेदना का वास्तविक अर्थों में उद्‌घाटन करती है. उन्हें वर्ग विशेष के प्रतिनिधि या हाशिये की आवाज़ तक सीमित नहीं करती अपने अन्तर्विरोधों के साथ प्रस्तुत करती है. उनका एक सम्यक पाठ प्रस्तावित करती है.

मेरी समझ से पुस्तक का केन्द्रीय अध्याय है- ‘संतो जागत नींद न कीजै’ देशज आधुनिकता और भक्ति का लोकवृत्त. अत्यन्त शोधपूर्ण लिखे गये इस अध्याय में सात उपशीर्षक हैं. इन शीर्षकों के माध्यम से कबीर को केन्द्र में रखकर बात करने की बजाय लेखक समूची भक्ति संवेदना को समझने का उपक्रम करता है और प्रस्तावित करता है कि जब यूरोप में आधुनिकता आई तब भारत जड़ता और अज्ञानता की अंधेरी रात में नहीं सो रहा था. आधुनिकता की ज्योति वहां भी फैल गई थी-भक्तों-संतों की कविताओं में, जीवन और लोक के स्तर पर, जनमानस की अपनी बोली और मुहावरों में. १२वीं- १३वीं शताब्दी में डॉ. रामविलास शर्मा पूंजी और व्यापार के प्रचार प्रसार की बात करते हैं, उससे आगे बढ़कर समूचे समाज और भक्ति संवेदना के स्तर पर पुरूषोत्तम अग्रवाल आधुनिकता के देशज प्रतीकों, उसकी भारतीय अभिव्यक्तियों का तथ्यात्मक वर्णन और सामाजिक स्तर पर घटित हो रहे हैं. परिवर्तनों का विश्लेषण प्रस्तुत करते हैं.

औपनिवेशिक राजव्यवस्था ने हमें इस हीनता बोध से भर दिया है कि हम अपने अतीत और इतिहास को धिक्कारने लगे. लेखक गंभीर तथ्यान्वेषण के आधार पर यह साबित करता है कि लोकतान्त्रिक और उदार कहे जाने वाले यूरोपीय समाज की तुलना में भारतीय समाज ज्यादा संयत, सभ्य तथा उदार था. इस संबंध में सुविस्तृत अध्याय से दो एक उदाहरण ही तस्वीर उभारने में काफी होंगे.

मार्टिन लूथर जैसे सुधारक और विचारक की जीवन के अन्तिम वर्षों अर्थात अपनी उम्र और समझ की परिपक्वता की स्थिति में लिखी गई पुस्तक यहूदी और उनके झूठ में अपने लोगों को धिक्कारा गया है. शर्म करो यहूदी जिन्दा हैं और आह्‌वान कि इन ‘ज़हरीले कीड़ों’ के घरों, उपासना स्थलों और पवित्र पोथियों को जला दिया जाये. और ‘कुरान’ का अनुवाद किया ताकि लोग जान सके कि इस कविता में कैसी कैसी शैतानी खुराफ़ातें भरी हुई हैं, और इनका अनुसरण करने वाले किस हद तक शैतान की गिरफ़्त में है. (पृष्ठ ६५) पुस्तक का सामूहिक दहन करने का आचरण न तो कबीर ने किया न ही तुलसी ने. लेखक ने बड़ी सूझ बूझकर इस पर टिप्प्णी की ‘कबीर शाक्तों से काफ़ी चिढ़ते थे और तुलसीदास निर्गुण पंथियों से, लेकिन अपने प्रशंसकों को दोनों में से किसी ने नहीं धिक्कारा कि शर्म करो, चिढ़ाऊ लोग ज़िंदा हैं.’ (पृष्ठ ६६) पुरूषोत्तम जी ने अनुसंधानपूर्वक यह तथ्य सामने रखा कि यहूदी विरोधी विचार जो लूथर ने व्यक्त किये थे, उसे १९९४ में जाकर अमरीका के ९वें एवेंजिलिकल लूथर चर्च की कौंसिल ने रद्द किया वह भी आंशिक रूप से. यही नहीं यूरोप के आधुनिक काल के आरंभिक काल और ४८० और १७०० के बीच एक लाख औरतें सताई गईं और ज़िन्दा जलाई गईं. विपथगामियों को सन्मार्ग पर जाने वाली एक संस्था ही खड़ी कर दी गई थी. (पृष्ठ ६७) विद्वान लेखक ने तर्क पूर्ण ढंग से यह दिखाया कि किस प्रकार यूरोकेन्द्रित आधुनिकता और उत्तर आधुनिकता के मकड़जाल में हम फंस गये हैं. इस आधुनिकता ने केवल भारतीय इतिहास का मनमाना चित्र नहीं बनाया बल्कि स्वयं यूरोप के इतिहास का धवल चित्र प्रस्तुत किया उसकी कालिमा को ज़रा भी प्रकट होने नहीं दिया. भारतीयों को सुसंस्कृत बनाने तथा उदारता का पाठ पढ़ाने वाले यूरोप और अंग्रेजी राज ने भारत ही नहीं गैऱ यूरोपीय दुनिया को अपने इतिहास के तहखाने नहीं दिखाए जहाँ कब्रगाहें थीं (ये शब्द मेरे हैं लेखक के नहीं) लेखक याद दिलाता है कि ‘हालत यह थी कि बीसवीं सदी के दूसरे-तीसरे दशकों तक अमरीका के दक्षिणी राजयों में बकायदा ‘लिंचिंग कार्निवल’ हुआ करते थे, जहाँ अश्वेत लोगों को मौत के घाट उतारा जाता था लिंचिंग के विज्ञापन छापे जाते थे, लिंचिंग साईट पर खाने पीने की चीजों के स्टाल लगते थे. मारे गए लोगों की लाशों का डिसप्ले कई दिनों तक चलता था.’ (पृष्ठ ८९) जाहिर है यह ज्ञान लेखक को उसी यूरोप के आत्मान्वेषणपरक लेखन से हुआ (देखें आब्जर्वर, लन्दन १२ जून २००५ को एविस टॉमस-लेस्टर और मार्क टाउन संडे का लेख अमेरिका एपॉलाइजेज फॉर हारर्स ऑंफ लिंचिंग).

लेखक ने यह साबित किया कि किस प्रकार १७९४ में अंग्रेजी राजव्यवस्था ने भारतीय समाज को मनु द्वारा अनुशासित बताने के लिए विलियम जोंस के प्रयत्नों से अनेक स्मृतियों में एक की हैसियत रखने वाली ‘मनुस्मृति’ को भारतीय विधि संहिता का दर्जा दे दिया. (पृष्ठ ७५)

इन बातों को पढ़कर लगता है कि आधुनिक भारत के ‘कॉमन सेंस’ के निर्माण में किस प्रकार अंग्रेजी राजसत्ता और औपनिवेशिक आधुनिकता ने अपना अपूर्व योगदान किया-हमारे मनोमस्तिष्क पर भारतीय अतीत की जो छवियां उन्होंने निर्मित की उसे ही मान बैठे. और तो और पुरूषोत्तम जी जाति संकल्पना के आधुनिक प्रत्यय को भी खोजने का वस्तुनिष्ठ ढंग से प्रयास करते हैं-”जाति पहले भी थी, लेकिन शाश्वत ब्राह्मण सर्वोच्चता की कल्पना का तो वास्तविकता से दूर-दूर का भी संबंध कभी था ही नहीं.’  व्यापार जनित गतिशीलता के कारण स्वयं ब्राह्मण व्यापारी भी बन रहे थे, मजदूर भी और आदिवासी गोंड राजाओं के स्तुतिगायक भी. जातियों के नस्लाधारित होने की कल्पना का तो औपनिवेशिक आधुनिकता के पहले कहीं अता-पता नहीं चलता.” (पृष्ठ १२३)

कहना न होगा कि यदि लेखक की स्थापनाओं से हिन्दी भाषी समाज ही नहीं भारतीय समाज ने ज़रा भी सीख ली तो इतिहास की अनेक व्याधियों से छुटकारा मिल सकेगा. समाज के विभाजन की रेखाएं भी धूमिल पड़ेगी. काश! इन आँख खोलने वाले तथ्यों और तर्कों का प्रभाव खाँचों और खानों में बाँटकर लेखन करने वाले रचनाकारों और उनके प्रवक्ताओं पर पड़ता – ख़ासतौर पर कबीर को हाशिए की आवाज़, दलित चिन्तन के उत्प्रेरक साबिन करने वाले आलोचकों को कबीर के इस मर्मज्ञ अध्येता की बात का संज्ञान ज़रूर लेना चाहिए जो कबीर को ‘मानवीय चैतन्य का साझा सपना’ रचने वाले कवि बताते हैं. कबीर को उपेक्षित सिद्ध करने और हाशिए की आवाज़ बताने वाली परम्परा विछिन्न आधुनिकता के अध्येताओं ने संवेदना विच्छेद के उपक्रम के रूप में भारतीय समाज का अध्ययन करके कबीर की यह मूर्ति गढ़ी. वर्तमान दलित विमर्श और कबीर के रणनीतिक पाठ का उल्लेख करते हुए प्रो. अग्रवाल लिखते हैं, ”जुलाहे का दुख केवल जुलाहा ही समझ सकता है’ यह आजकल का ज्ञान है. जाति के जुलाहे और मति के धीर कबीर का ज्ञान जुदा किस्म का था. वे जानते थे कि सिर्फ़ अपना और अपने जैसों का ही नहीं, बल्कि अन्यों का भी दुख समझने की कोशिश किए बिना, परकाया प्रवेश की साधना किए बिना कविता न लिख जा सकती है, न सुनी जा सकती है.” (पृष्ठ ३८)

कबीर की कविता को केन्द्र में रखने और उनके सामाजिक विचारों और घट-साधना आदि संबंधी मान्यताओं को कविता के आलोक में देखने का प्रस्ताव करते हुए कबीर काव्य चिन्तन की बल्कि कबीर काव्य के अध्ययन की परम्परा में पहली बार कोई आलोचक प्रस्ताव करता है, ”कबीर को अंगुली पकड़ाकर चलने की बजाय, उनकी कविता की अंगुली पकड़कर चलें,” (पृष्ठ २३). तब इस प्रस्ताव का महत्त्व और भी बढ़ जाता है जब लेखक स्वयं एक्टिविज़्म से गहराई से जुड़ा रहा हो और कविता को कृति केन्द्रित न मानकर सामाजिक सांस्कृतिक सन्दर्भों में समझने देखने की वकालत करता रहा हो. यहाँ भी समाज और संस्कृति से निरपेक्षता नहीं है लेकिन बलाघात दूसरा है. कविता के माध्यम से समाज और देश को समझने का प्रस्ताव. कविता से उसको समझने के सूत्र तलाशने का प्रस्ताव न कि पूर्व निर्धारित निष्कर्षों का प्रक्षेपण. यहीं भक्ति भागीदारी बन जाती है. यह संवेदना का विस्तार भी है. चिन्तन की मुक्त दृष्टि भी. इस अर्थ में कबीर का नवीनतम ही नहीं अपूर्व पाठ भी है ‘अकथ कहानी प्रेम की’.

कबीर काव्य विमर्श का सचमुच यह महावृत्तान्त है. कबीर के नारीरूपक का विश्लेषण नारी निन्दा तथा स्वयं नारी के रूप में भक्ति की भूमिका के विरोधाभास को समझने का प्रयत्न है. बालम आव हमारे ……. इस विस्तृत अध्याय में लेखक तुलसी, मीरा, कबीर आदि की नारी सम्बन्धी दृष्टियों का तुलनात्मक विवेचन भी करता है, ”कबीर में यह अनोखी बात है कि उनकी कविता अपने उपदेश रूप में तुलसी की नारी-निन्दा के निकट पड़ती है, और अपनी प्रेमानुभूति में मीराबाई के”. (पृष्ठ ३६४) साथ ही लेखक यह मानता भी है कि नारी निन्दा और नारी रूप का सह अस्तित्व कुछ लोगों को बिगूचन लग सकता है. वह है भी. लेकिन कबीर नारी रूप का धारणा साभास या सोद्देश्य नहीं करते अपितु वे ‘कविता के लक्षणों में शाश्वत स्त्रीत्व को अपने आपमें व्यापने देते हैं. कहना न होगा कि कबीर के नारी संबंधी अन्तर्विरोध की यह नई व्याख्या है.

इस अध्ययन का एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण पक्ष है कबीर के कवि-रूप की प्रतिष्ठा. क्रान्तिकारी, समाजसुधारक, संत, रहस्यवादी आदि रूपों में कबीर का कवि-रूप कहीं खो सा गया था. स्वयं कबीर के व्यक्तित्त्व का अनूठा चित्रण करने वाले हजारी प्रसाद द्विवेदी भी कबीर की कविता को ‘बॉय प्रॉडक्ट’ ही मानते हैं. मुख कस्तूरी महमही: कबीर की कविताई शीर्षक अध्याय में कबीर के काव्य वैशिष्ट्‌य का गहन विमर्श प्रस्तुत किया गया है. कबीर के कवि-रूप का रेखांकन करते समय लेखक कबीर के काव्य में उपलब्ध काव्य-गुणों को तलाशता है. लेखक इस क्रम में शब्दों की साधना को रेखांकित करता है. ”कविता की प्राथमिकता पहचान है भाषा की सर्जनात्मकता. रोजमर्रा के शब्दों से लेकर दार्शनिक विमर्श तक के शब्दों का ऐसा प्रयोग कि उस प्रयोग से कुछ अनपेक्षित सा हो उठे. जो शब्द अर्थ खो चले हैं उनका पुनः अनुसंधान.’… कबीर यह सब करते हैं, शब्दों के जरिए. वे घट साधक, मिस्टक होने से पहले, स्वभाव से ही शब्द साधक-कवि हैं” (पृष्ठ ३९८). कबीर काव्य की दूसरी बड़ी विशेषता है कि वह आपको संबोधित ही नहीं करता, आपको विषय भी बनाता है. कबीर काव्य में विभिन्न रागों पर आधारित पदों का रेखांकन कर लेखक काव्य की ध्वन्यात्मकता (जिसे रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में नाद सौन्दर्य कह सकते हैं) के महत्त्व को बताता है.

कबीर के काव्य को समझने के क्रम में पुरूषोत्तम जी को यह बात स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ती है कि कबीर ‘सुनने और सुनाने के कवि हैं’. कबीर की अब तक गढ़ी मूर्ति पर चुटकी लेते हुए लेखक कहता है, ”विद्वान बताते हैं कि कबीर निरक्षर थे, ठीक ही बताते होंगे. यह भी शायद कभी विद्वान लोग ही बता पायेंगे कि कबीर ने संगीत की बकायदा साक्षरता हासिल की थी या नहीं, लेकिन यह सही है कि पंद्रहवीं सदी से लेकर आज तक वे गायकों के सर्वाधिक प्रिय कवियों में से एक हैं. कारण यही कि कबीर पढ़ने से बहुत पहले सुनने और सुनाने के कवि हैं.” (पृष्ठ ४०८) कबीर के कवि रूप की खोज में इस पुस्तक की यात्रा उलटबांसियों के अर्थ-निर्धारण और मृत्यु के सामने कविता की कबीर काव्य में स्थिति पर विचार भी है. जीवन के अनेक प्रश्नों को सुलझाने के साथ-साथ मृत्यु के साक्षात्कार का बड़ा उत्कट प्रमाण कबीर काव्य में मिलता है. आलोचक की स्थापना है ”बिना रूपासक्ति के कोई कवि नहीं होता; और बिना मृत्यु की आँखों में आँखे डाले कोई बड़ा कवि नहीं होता’. कबीर जिस तरह प्रेम और विरह में डूबते हैं वैसे ही मृत्यु में भी. देह की नश्वरता की भी बात करते हैं और देह में सभी तीर्थों का निवास भी देखते हैं.” (पृष्ठ ४१६) इसी प्रकार उलटबांसियां कबीर काव्य की सीमा नहीं उसकी एक प्रमुख विशेषता है. उलटबाँसी कबीर के हाथों, अर्थ-व्यर्थ के के सतत संवाद का खुला आकाश रचने वाली लाज़वाब प्रविधि में बदल जाती है’ (पृष्ठ ४१३)

इस प्रकार समूची पुस्तक में कबीर काव्य चिन्तन के आज तक के अध्ययन का लेखाजोखा है, देशी ही विदेशी विचारों का भी गहन अध्ययन इससे मिलता है. मुक्त और वस्तुनिष्ठ दृष्टि से कबीर की कविता और उनके समय को समझने की कोशिश है. जिसमें भक्तिकालीन समाज के साथ उसके १९वीं शताब्दी में हुए मूल्यांकन का भी मूल्यांकन है. पुस्तक कबीर को समझने की नई दिशा तो देती ही है. १९वीं शताब्दी के भारत की छवि को भी पुननिर्मित करने का प्रस्ताव करती है जो संवेदना-विच्छेद नहीं परम्परा और संवेदना सातत्य के साथ ही संभव है. यदि हम लेखक द्वारा दिए गए तथ्यों और तर्कों तक विश्वास कर सकें तो निश्चय ही हमारे अध्ययन की दिशा भी बदल जाएगी और हमारा सांस्कृतिक राजनीतिक एजेण्डा भी.

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