आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

नेह छोह: शोभाकान्त

दिन भर की प्रचंड गर्मी, देर रात की ठिठकी हवा और उसके बाद निशा-शेष में जब दक्षिण पवन ग्रीष्म ऋतु की श्रान्त और शिथिल अलस प्रकृति नदी के सिमटे हुए आँचल को फहराने लगता तो ‘छिवही‘ आम के विशाल वृक्ष की निस्पन्द टहनियां उच्छवासित हो उठती ….. टप-टप-टप करके आम गिरने लगते. ठीक उसी वक्त आसमान के पूर्वी छोर पर शुक्रतारा अपने उज्ज्वल प्रकाश से दिग्वधुओं को ललचाता हुआ प्रकट हो जाता. कहीं से कोयल की मधुर स्वर दूर-दूर तक फैल जाती और यही क्षण होता, जब ठक्कन की आँखें खुल जाती. मातृहीन को दुलार के साथ जगाने वाला तो कोई था नहीं. उसे तो स्वयं ही सोना और उठना होता. रोज ही वह आँखें मलते-मलते आँगन के पूबरिया घर के पिछबाड़े तालाब के कछेर से सटा छिवाही के पेड़ के पास लघुशंका के लिए जा बैठता.

आम के मौसम मे भी दस वर्ष का ठक्कन उस पेड़ के नीचे वाली जमीन को पूरी चौकसी सेदेख लिया करता. उस वृक्ष को वह बहुत ही ममता से देखता-निहारता रहता यह ‘छिवही’ आम आकार में गोल और छोट-छोटे हुआ करते. पकने पर उठल के चारों ओर पीला और शेष भाग लाल हो जाता. स्वाद में हल्का कड़काया हुआ घी की खुशबू लोग कहा करते कि ठक्कन के दादी ने इस इंठिया (बीज) आम का नाम ‘छिवही’ रखा था. इस पेड़ को किसी ने लगाया नहीं था. जाने कब किसने कहीं से आए आम चूस कर गुठली फेंकी और उससे जनमे पौधे को किसी ने उखाड़कर फेंका नहीं. लाल लाल पत्तों वाला वह पौधा तालाब के जल से शायद बिना दो बित्ता दूर रहा हो. बरसात के दिनों इस वृक्ष का दो तीन हाथ तना पोखर के पानी में रहता. फलता भी खूब था. हजारों दानें तो पकने पर तोड़े जाते. आँधी और तेज हवा से हजारों कच्ची अंगियां गिरती सो अलग. न जाने कितने दाने पानी के अन्दर समा जाते. पका ‘छिवही’ आम का रस गाढ़ा और गुठली छोटी होती. पेड़ की आधी डले पानी के उपर छाता की तरह फैले थे. तरोनी गाँव में कौन ऐसा होगा, जिसने छिवही आम के दस-बीस दाने न चूसें हों. इसका अमावट तो ठक्कन के आँगन में साल-दो साल तक खाया जाता. जब आम पकने लगता तो यह पेड़ उसे कल्पवृक्ष सा लगता.

उस दिन अहल भोर ठक्कन ने देखा कि पचासों कच्चे आम गिरे पड़े हैं. उसका रोम-रोम पुलकित तो उठा. बाल सुलभ चंचलता से वह तय नहीं कर पाया कि पहले किधर से आम चुना जाए. बीस पचीस आम चुनने के बाद झुकते समय अचानक पीठ का दर्द सुई की तरह जोर से चुभने लगा. वह बैठ गया और कराह उठा. दाहिने हाथ को बायीं ओर से पीछे ले जाना चाहता ताकि किसी तरह पीठ से सहला सके. उसे रात में पिता से लगी पिटाई याद हो आई …..

पिछली शाम को पिता की नजर बचाकर उसने थोड़ी से भंग पी ली थी. कोठी पर लोटा में दूध-बदाम-इलायची वाली भांग की मोहक खुशबू से कारण दो-तीन घूंट चख लिया था. उसके बाद वह मित्रों के साथ ‘बाबाजी पोखर’ की ओर खेलने निकल गया. वह पोखर गाँव के उत्तरी छोर पर था. उसके एक भींडा को बच्चों ने खेलने का अपना मैदान बना रखा था. खेलने के बाद संगी सुरेन्द्र के साथ उसके दालान पर गिरी उपेन्द्र, सुरेन्द्र बच्चा आदि के साथ न जाने क्या-क्या बतियाता रहा. उस समय बतियाने से मन कहाँ भर रहा था. जब भूख महसूस हुई और उपेन्द्र लाई लालटेन लेकर पढ़ने के लिए उठे तो वह भी अपने आँगन की ओर आया था.

आँगन में आकर देखा कि पिता बीच आँगन में चटाई पर लेटे पड़े थे. चाची वहीं पास ही पीढ़ा पर बैठी तकली काट रही थी. साथ ही उसके पिता से हंस-हंस कर बात करती जाती. खिली चांदनी में सब कुछ साफ-साफ झलकता था. ठक्कन को देखकर पिता बैठ गए और बोले- ‘कहाँ चला गया था? भात-दाल ओर आलू का चोखा बना रखा है.’’

ठक्कन ने घड़ा से एक लोटा पानी ढ़ालकर आँगन के दक्षिणी पूर्वी कोने में जाकर हाथ-मुँह धो आया. फिर एक लोटा पानी लेकर मुँह पर जमकर छींटा मारा . ओसारे पर खम्भेली से लगी तीन पीढ़ी में से दो लाकर आँगन में बिछाया. दो लोटा पानी वहाँ रखा और इस बीच पिता फूलही थाली में खाना निकाल लाए. बड़ी थाली अपने लिए और छोटी पुत्र के लिए. पिता-पुत्र भोजन के लिए बैठे. चाची अपने पूबरिया घर जाकर आम की चटनी ले आई और दोनों के थाली में डाल दी. दो-चार कौर खाने के बाद पिता ने पूछा – ‘‘नमक तो ठीक-ठाक है न ? ’’

ठक्कन सिर झुकाए हुए, मुँह चलाता हुआ स्वीकारात्मक ढ़ंग से गर्दन हिलाया. पिता उसकी भी गर्दन घुमाए हुए थे. देखा, लड़का दाल-भात का कौर मुँह के बजाए कान में डालने की कोशिश कर रहा था. अन्न के दाने कन्धे से होता हुआ नीचे जमीन पर गिरता जा  रहा था. भांग के पुराने पियक्कड़ और अनुभवी भंगेड़ी गोकुल बाबू समझ गए कि बेटे ने निश्चय ही भांग पी रखी है. तेजी से गोकुल बाबू पीढ़ा छोड़ उठे और दोही छाप में ओसारे पर जा पहुँचे. चूल्हे से बुझी हुई जलावन वाली लकड़ी चैली बायें से उठाया और तेजी मुड़कर पुत्र के पास पहुँच कसके प्रहार किया उसके पीठ पर . पहला ही प्रहार में ठक्कन ऐंचकर लगा आँगन में लोटने. उसकी चीख सुनकर चाची पूबरिया ओसारे पर से दौड़ी. अपने देवर के हाथ से जब तक चैली छीन पाती तब तक दूबारा चैली पीठ पर चल चुकी थी. रात के सन्नाटे में ठक्कन की चीख टोल भर में गूंज गयी. गुस्साये पिता ने आँगन में लोटते-चिल्लाते ठक्कन को एक लात और लगया और लोटा उठाकर एक तरफ जाकर हाथ पर पानी उड़ेला फिर दो-तीन बार कुल्ला किया. पीठा के पास आकर दांत पीसकर लगे बोलने – ‘गाँव भी टंडेली करता फिरता . बित्ता भर का हुआ और भांग पीना सीख लिया …. पाजी कहींका ! नम्बरी खच्चर हो गया है. ’’ क्रोध से कांपते हुए पैर से धाली को मारा और आधे आँगन भात फैल गये. गोबर से लिपे पुते आँगन भात के सफेद दाने चांदनी में चमक उठे .

चीख सुनकर पड़ोस के आँगनों से तीन-चार महिलाऐं दौड़ी आयीं. पूरे टोल में एक ही खानदान के परिवार थे तो टुगर ठक्कन को सबों का स्नेह दुलार मिला करता. अक्सर ठक्कन के बचाव में अड़ोस-पड़ोस की महिलाएं गोकुल बाबू से जमकर लोहा लेती रहती. जब तक वे सब आकर मामला समझती तब तक चाची ठक्कन को हाथ मुँह धुलवाकर चटाई पर लिटा चुकी थी. गोकुल अपने ओसारे पर बैठकर तिनका से दांत खोदने लगे थे. सामने फैले-छितराये भात पर निगाह पड़ी तो क्रोध फिर भड़क उठा – ’’गदहा! फिर कभी तू ने भांग पी तो कुल्हाड़ी से गरदन काट लूंगा.’’

एक हम-उम्र महिला आँगन में पैर रखते ही गोकुल को फटकारा – ‘‘ खुद जो पीते हो भर-भर लोटा.’’

अब गोकुल बाबू को लगा कि आँगन में रहना ठीक नहीं है. टोले के रिश्ते में भाभी और चाची के सामने उनकी बकार बंद हो जाती. घर के भीतर जाकर चादर और तकिया लेकर बड़ बड़ाते हुए आँगन से बाहर हो गए – ‘‘मैं अभिमंत्रित करके पीता ताकि नशा कम हो’’ ………..

चाची अपने घर से पथरौटी वाली कटोरी में सरसों का तेल ले आयी. ठक्कन को पेट के बल लिटाकर लगी पीठ मलने. एक ने बालों में तेल डालकर ठक्कन के सिर को धीर से रगड़ने लगी. उसको घेरकर महिलांएं बैठ गयी. कोई प्रांव दबाने लगी तो कोई बांही की मालिश. पीठ पर तेल मलती हुई चाची बोली – ‘‘सोन-सा बच्चा को रूई की तरह धुन दिया!’’

एक ने कहा – बिना माँ के बच्चा को जिन्दा हीं नहीं रहना चाहिए. कहावत है – माँ मरी और बाप गोतिया! ’’

तीसरी भला चुप रहे – ‘‘एक तो टुगर, उपर से कमजोर. ऐसे में भला ऐसी पिटाई! राम राम !!’’

चाची बोली – ‘‘बाप नहीं राक्षस है. ‘‘यह सुनकर एक अन्य ने कहा – ‘इतना गोऊ सा सन्तान पाकर भी बाप नहीं सुधरा तो क्या कहा जाए!’’ फिर अपने कपार ठोकती हुई बोली – ‘‘बेचारी सतलखावाली की आत्मा कहीं न कहीं तो इस समय रो ही रही होगी … देखना तुब सब यही ठक्कन अपने बाप को ठीक करेगा और मोक्ष भी दिलाएगा. कहा जाता है – अपने जन्म से ही लोग ठीक होते हैं!’’

तभी  एक अन्य महिला बोली – ‘‘नहीं बहना ! वह मर्द अब क्या सुधरेगा! छछुन्दर की तरह छुछुआता रहता है. बीबी यह सब जानने लगी तो पीट-पीटकर मार ही डाला …. अब सन्तान को पीटने लगा है …. बाप रे ऐसी पिटाई ! मैं यदि उस वक्त यहाँ होती तो उसी चैली से उलटा देती!’’ वह यह कर चाची की ओर देखने लगी.

चाची को यह समझते देर न लगी कि बातों की दिशा अब उसकी ओर मुड़ने लगी है तो वह बोल उठी – ‘‘मर्द का गुस्सा क्या किसी से छिपा है ……. वह भी ठक्कन के बाप का ! भला मैं कर भी क्या सकती. बेटा भी तो उसी का है न!  मै. कैसे संभालूं इन दोनों बाप-पूत को ’’ ….. इतने में सौराठ वाली एक गिलास गरम दूध लेकर आयी . यह प्रौढ़ महिला रिश्ते में ठक्कन की भाभी लगती थी. वह उसे मानती भी खूब थी. वहाँ जितनी महिलाएं बैठी थी, सभी रिश्ते में सौराठ वाली की सास लगती. अतः वह उन सब की बातों में कुछ बाली नहीं. उसने ठक्कन को एक माँ की तरह अपने में समेटने की कोशिश की. अपने हाथों से गिलास उसके मुँह में लगाया. हल्का गरम भैंस का गाढ़ा दूध पीने के बाद ठक्कन को थोड़ी राहत महसूस हुई वह भाभी के गोद में सिर रखकर लेटा था. वह महिला उसके सिर को स्नेह से सहलाती रही. माँ की प्रति छाया वाली महिलाओं के मुलायम चिकने हाथों के स्नेहपूर्ण स्पर्श से उसे सन्तोष के साथ उर्जा मिल रहा था.

चाची की बातों को पकड़ते हुए एक ने कहा – ‘‘अरे सुनो तो भला इसकी बात ! ठीक है बेटा ‘गुरू’ बउआ का है पर तुम तो शयद माटी की मूरत हो इस आँगन में. सब जानते हैं कि तुम स्त्री हो वह भी विधवा और वह मर्द है विधुर ….. तुम्हें जो सब नहीं बतियाना चाहिए, वह सब तो खुसुर-फुसुर खूब करती हो उससे! अरे, सारा गाँव इस बात को जानता है कि ठक्कन के पिता तुम्होर इशारों पर नाचता है. तुम यदि चाहो तो ‘गुरू’ का भला क्या मजाल कि ठक्कन पर उंगली रखे. सोचो तो बेटा और भतीजा में क्या अन्तर होता है भला ? ’’

अब तो चाची को काटो तो खून नहीं . यह सब सुन-सुन सच ही वह माटी की मूरत हो चली थी. सोचा न जाने सबेरे-सबेरे आज किस का मुँह देखा कि टोल भर की औरतें एक साथ एक ही बात के लिए मिल बैठ गयी. उस दिन देवर से कुछ कहा भी तो नहीं था. पिता किस बात के लिए पुत्र कसे नाराज था – कौन भला बताए! फिर चाची ने मन ही मन कहा- काश तुम सब अलग अलग होती और ठक्कन नहीं होता इस वक्त तो बता देती कि अपने अपने देवरों से कौन क्या-क्या खुसुर-फुसुर करती रहती. यों चाची ठक्कन के पिता को लेकर कुछ भी बोलने में परहेज करती. तकली काटने वाली चाची जाती थी कि और अर्थ को तकली की सूत की तरह खिंचती चलती है. वह इस घिराव से बचने को सोच रही थी.

यह रसभरा प्रसंग ने जाने कब तक चलता ….. भला हो टोलक के उन दो कुत्तों का जो बिखरे चावल को दाने को लेकर झाऊं-झाऊं करने लगे. चाची ने राहत की सांस ली, तात्कालिक मुक्ति सामने ही थी. वह ‘‘हाँ-हाँ’’ कर बगल में पड़ी लकड़ी वाली चैली लेकर उठी. फिर सब उठने लगीं. ठक्कन की आँखें झिपकने लगी. उसने इतना अवश्य सुना – ‘‘ इस बच्चे को जरा भी कष्ट होता है तो सारा दोष गाँव के लोग तुम्हें ही देंगे …. इस आँगन मे तुम आँगनवाली हो और इस ठक्कन का बात आँगन वाला …… ’’

सुबह जब ठक्कन की नींद खुली तो उसने देखा कि उसके बदन पर एक पतली चादर पड़ी थी. चाची स्वयं अपने पूबरिया ओसारे पर चटाई बिछा कर सोई पड़ी थी. शायद चाची ही उसके देह पर चादर तान गयी रात में. यों पिता से पीटकर अक्सर ठक्कन पूबरिया घर के पिछबाड़े इसी छिवही आम के पेड़ के नीचे आकर आँसू बहाया करता. वह तब तक पेड़ से पीठ सटाकर पूरब मुँह होकर तालाब के पानी को एकटक देखता रहता जब तक कोई उसे आवाज न देतां घंटों वहीं बैठा रहता खोया खोया और कभी-कभी अचानक एक ही झटके में उठा करता और पूरी ताकत लगा कर मिट्टी का एक छोटा ठेला तालाब के जल में फेंकता ….. मानो परिस्थिति को दूर फेंक रहा हो. वहीं बैठकर ठक्कन देर रात तक अपनी माँ की छवि को याद किया करता. माँ की याद आते ही पिता के प्रति वितृष्णा और गुस्सा से भर उठता वह. उस क्षण उसकी मुट्ठी बंध जाती. माँ की तो वह कल्पना ही कर सकता …. यादगारी के रूप में जो कुछ था उसके पास वह कैसा तो था . उसको चाह कर भी किसी से कह नहीं पाता. पर एक मात्र हदय के अलावे और कुछ उभरता नही नहीं….. माँ को दमा का रोग था. ज्यादा समय वह लेटी ही रहनापसन्द करती. गैर श्याम रंगवाली कपार छोटा और आँखें न बड़ी न छोटी थ. नाक-नक्श आकर्षक. उसके बगल में लेटकर ठक्कन कहानी सुन-सुनकर न जाने कहाँ खो जाया करता. कभी कभी वह भोला बाबा की गीत गाती और रोती रहती ……

उस सुबह वह माँ की याद में रो पड़ा . उसके कानों में गूंजने लगा बिना माँ के बच्चा को जिंदा नहीं रहना चाहिए. … वह सोचने लगा कि वह भला क्यों जिन्दा है. पिता की पिटाई से वह मर क्यों नहीं जाता. मर कर वह भी माँ के पास ‘सर गौली हाट’ जाना चाहता. वहाँ उसे कोई कुछ नहीं कहेगा. माँ होती तो शायद ही पिता एक थप्पर लगा पाते. इतनी छोटी उम्र में ही वह समझने लगा माँ से लिपट जाने के बाद कोई कुछ नहीं कर सकता. दुलार तो टोले भर की चाची, बुआ और बहनें करती ही रहती पर पिता की मार से बचाने के लिए कोई बाहों से कहाँ घेरती. माँ से लिपटने का सुख अब उसके भाग्य में नहीं है. दुलार के साथ चोट सहलाने वाला हाथ न जाने क्यों अलग हो गए. रात की चोट के साथ माँ के प्रति पिता की उपेक्षाउकसे मन को भारी बनाने लगे … पिता से तिरस्कृत और उपेक्षित उवं अपमानित होकर ही माँ मरी थी …

जब भी माँ की याद आती तो एक डरावना दृश्य आँखों के सामने नाचने लगता. वह नहीं चाहता कि वह दृश्य स्मृति पटल पर उभरे. आँख मूंद लेने से वह चित्र और भी साफ और भी सजीव होकर उसके सामने साकार होने लगते. आँखें खुली हो या बंद उस दृश्य से पिता से पीटने के बाद सामना हो ही जाता. उस दृश्य को याद करने से जितना दूर होना चाहता, भूल जाना चाहता, तो वह उतना ही पीछा करती. उस दिन भी दर्द उठते ही याद हो आया ….. बीमार माँ बिस्तर पर उतान लेटी पड़ी थी. पिता रूद्र रूप धारण करके बेचारी के छाती पर बैठे थे. एक हाथ में कुल्हाड़ी था और दूसरे से उसका गला दबाने की कोशिश कर रहे थे. कुल्हाड़ी से गला रेतने की तैयारी थी. बीमार और शक्तिहीन माँ घिघिया रही थी. उस समय आँगन में उस नरमेघ को रोकने वाला कोई नहीं था. चाची अपने घर में दरवाजा सटाकर शायद सो रही थी. दोपहर का समय . साढ़े चार साल का अवोध ठक्कन उस दृश्य को देखकर दम साधे आतंकित-सा घर के कोने में कुठारों के पीछे छिपा था. पिता कड़ी नजरों से उसे देख लिया करते. उससे नहीं रहा गया तो चीख उठा. पिता ने लपक कर तावरतोड़ चार-पाँच थप्पर लगाया. माँ उस हालत में भी फुर्ती से उठी और उसे गोद में समेटकर ढ़ाल बन गई. माँ की चर्चा जब कहीं भी सुनता तो वही दृश्य समृति के पटल पर उभर आती. फिर तो मन में पिता के प्रति प्रतिहिंसा की आग भड़क उठती. अक्सर वह चढ़ी भौंहें और कड़ी नजरों से पिता को घुरता रहता. अब तो उसे यह देखकर आश्चर्य ही होता कि उसके पिता आँगन वाली चाची तथा गाँव की के अन्य चार-पाँच औरतों से तो हमेशा मुस्करा-मुस्करा कर बातें किया करते पर ठक्कन की माँ के साथ उनकी उन्मुक्तता न जाने कहाँ चली जाती.

ठक्कन अपने पिता से खूब डरा करता. छोटी-छोटी बातों पर पिता उसे मार बैठते. पिटते वक्त यह नहीं देखते कि वह बच्चा है मात्र नौ-दस वर्ष का. कोमल शरीर पर चोट ज्यादा असर करती. छड़ी, पैना, लाठी, कलछल, बेलन, लोढ़ा या लोटा जो भी हाथ लगता उसी से मार बैठते. उसका अपराध क्या होता, ठक्कन खुद नहीं समझ पाता. जिन छोटी-मोटी बातों के कारण वह पिटता वैसे बातें तो उसके सभी मित्र हमेशा किया करते. मसलन खाना खाते समय कौर दो कौर भात थाली में रह जाना, कभी कभी हाट पर अधन्नी का कुछ खा लेना, नहाते वक्त तैरना, पेड़ पर चढ़कर अमरूद तोड़ना, वह मित्रों के साथ किसी दलान पर तास या सतरंज का खेल भी पिता के डर से नहीं देख पाता. बालोचित चीखना-चिल्लाना तो दूर की बात खिल-खिलाकर हंस भी नहीं पाता अपने आँगन में.

लोग ठक्कन को चुप्पा समझते. चाची तो उसे ‘गुम्मा बाघ’ ही कहा करती यदा कदा.

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One comment
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  1. अच्छी प्रस्तुति। शोभाकांत जी के बारे में सुना है, आज उनको पढ़कर अच्छा लगा। बाबा की इस जीवनी का इंतजार रहेगा। उम्मीद करता हूं कि जल्दी ही वह जीवन हम पाठकों के हाथों में होंगी।

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