आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

जहाँ रोउं तो गिरे आँसू: मनोज कुमार झा

प्रतिमान

वो एक पुरानी दुकान बब्बन हलवाई की
वहां मिठाइयों से मिक्खयां भगा रहे एक वृद्ध
स्वाद बचाने का कोई व्रत हो कदाचित.
कहते हैं सन बियालीस की लड़ाई में इनकी टांग टूट गई थी
गोतिया था लिखने-पढ़ने में होशियार सो उठा रहा स्वतन्त्रता-पेंशन.

इनके जीभ में किसी जिन्न का वास है
        तुरन्त बता देंगे किस दुकान का है पेड़ा.
बाइस कोस से आता था इनको न्योता
तीस साल से था इनके हाथ में पीतल का लोटा सवा किलो का
        दो साल पहले कोई छीन ले गया धुंधलके में.
चौक के तीन-चार हलवाई इनसे पैसे नहीं लेते
        आखिरी टिकान इनकी हुनर की इज्जत का.
खानें की चीजें अब बहुत दूर से आने लगी हैं
इन्हें अच्छे लगते डिब्बे-कागज में बंधा रंगों और अक्षरों का गुच्छा
एक बार एक लड़के ने दिया था कुछ निकालकर
        तो इन्हें अच्छा लगा था स्वाद-थोड़ा नया थोड़ा परदेसी-सा
मगर ये अचरज में कि डिब्बे से पता चलता है स्वाद
थे हैरान सोचते हैं कि कहां कहां से आता होगा अन्न,
कहां कहां से शक्कर
कितने बड़े होंगे कड़ाह और फिर कैसे फेंटता होगा कोई
कि बराबर डिब्बे में बराबर स्वाद
और क्या घोल देते हैं जिह्वा-द्रव में कि मुड़ा हुआ स्वाद भी लगे सीधा.

हमारे इस संसार की छाया में खड़े वे हाथ हिला रहे हैं
जगमग रोशनियों और चकमक अक्षरों के पीछे थरथरा रही इनकी देह
दो बांचने इनकी आंखों को भी दुनिया और इनके जीभ को स्वाद.

प्रारंभ

बार बार घड़े में अशर्फियों की आस
बार बार धरती पर उम्मीद की चोट
बार बार लगती पांव में कुदाल
बार बार घड़े में बालू का घर

बार बार बैठता कलेजे पर गिद्ध
बार बार रोपता छाती पर ताड़

बार बार माथे पर रात की शाख
बार बार कंठ में नीन्द का झाग
बार बार भोर में औस और सूर्य

बार बार खुरेठता आंगन को कुक्कुर
बार बार लीपना हरसिंगार की छांह

बार बार सोचना क्या रहना ऐसी जगह
बार बार बदलना खिड़की का पर्दा

बार बार शोर कि नहीं बचेगी पृथ्वी
बार बार जल अड़हुल की जड़ में.

कल मरा बच्चा आज कैसे रोपूं धान

हर जगह की मिट्टी जैसे कब्र की मिट्टी
पांव के नीचे पड़ जाती जैसे उसी की गर्दन बार-बार
उखड़ ही नहीं पाता बिचड़ा अंगुलियां हुई मटर की छीमियां
        कुछ दिनों तक चाहिए मुझे पोटली में अन्न
        कुछ दिनों तक चाहिए मुझे हर रात नीन्द
        कुछ दिन तो हो दो वार नहान
पीपल के नीचे से हटाओ पत्थरों और पुजारियों को
        फूटी हुई शीशियों और जुआरियों को
ना ही मिला कोइ अपना कमरा
        मगर पाऊं तो बित्ता भर जमीन जहाँ रोउं तो गिरे आँसू
        बस पृथ्वी पर किसी के पांव पर नहीं.

Tags:

2 comments
Leave a comment »

  1. तीसरी कविता तो कमाल है…

  2. तीनू कविता पढलहुँ, बहुत नीक लागल, बेरबेर पढब हमरा त। खजाना हाथ लागल.!

Leave Comment