आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

आधा गाँव – दो पाठ और एक अधूरा साक्षात्कारः गिरिराज किराड़ू

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Over the years I have come to believe increasingly in the truth of Jacques Lacan’s formulation that each mode of discourse has its underlying fiction, and that the discourse collapses the moment the fiction is removed. The difference between literature and history rests on the supposition that history is a referential discourse while literature is non-referential. Those aware of the difficulties of non-referentiality in relation to a humanly created discourse prefer the term auto-referential. Whatever the description chosen, it serves to separate literature from history and the social sciences.

– Sudhir Chandra, History, Literature, Beliefs)

(i) आधा गाँव एक राष्ट्रीय आख्यान -राष्ट्रवाद- में कई  गौण  आख्यानों  के विसर्जन  की कथा  है. यह एक गल्पजीवी  सामुदायिक कल्पना में ‘इतिहास’ के प्रवेश करने की कथा है.

(ii) आधा गाँव विभाजन का  एक बहुस्तरीय रूपक है और गंगौली की कथा राष्ट्रीय आख्यान की  एक उप-कथा, एक प्रतिछविकथा है.  और जैसा हिंदी आलोचक हिमांशु पंड्या ने अपने लेख में   दर्शाया है आधा गाँव में विभाजन कथा में मौजूद एक कलात्मक प्रविधि भी है.

अपने प्रभाव में बंटवारे की कथा की तरह, एक त्रासदी की तरह, एक मर्सिये की तरह याद रहने वाला यह उपन्यास इन रेखाओं पर पढ़ा गया है. शुद्ध अकादमिक और शुद्ध साहित्यिक से लेकर शुद्ध समाजविज्ञानी उद्देश्यों के लिये इसे और कई तरह से पढ़ा गया है और पढ़ा जा सकता है. लेकिन यहाँ हम राष्ट्रवाद के साथ गंगौली के सम्बन्ध को समझने की दृष्टि  से समाजेतिहासकार सुधीर चन्द्र और हिमांशु पंड्या द्वारा किये गये इस उपन्यास के पठनों पर एकाग्र हैं. इस छोटी-सी कोशिश में हम खुद उपन्यास से अधिक इन पठनों के सम्मुख हैं. अन्य इतिहासकारों और समाज विज्ञानियों के बरक्स सुधीर का इस मुख़्तसर किस्से में होना इसलिए बहुत मानीखेज़ है कि वे बाईनरी ऑप्जिट्स में बात करने की समाज विज्ञानों की आदत और विवशता को रेखांकित करते रहे हैं और खुद उसके प्रति सतर्क रहे हैं. उनके विमर्शात्मक लेखन में न सिर्फ ‘एम्बिवेलेंस’ एक केन्द्रीय अवधारणा रही है बल्कि साहित्यिक कृतियों के अपने पठन में  भी वे साहित्य की  विलक्षणताओं को लेकर बहुत संवेदनशील रहते आये हैं.

आधा गाँव के सुधीर के पठन को दुबारा पढ़ते हुए मेरा ध्यान दो जगहों पर अटक गया. पहली बार अटकने का संबंध सिर्फ सुधीर के ही नहीं, इस उपन्यास के बाकी पठनों से भी है जिनमें खुद मेरा अब तक का पठन भी शामिल था. यह प्रभाव इस उपन्यास को पढ़ते हुए और इसके विभिन्न पाठों को पढ़ते हुए होता है कि गंगौली को जैसा वह था उस रूप में उसे नष्ट करने वाली शक्ति, उसे बाँट कर एक आधा गाँव बना देने वाली शक्ति राष्ट्र या राष्ट्रवाद का विचार है. क्या यह विचार, भारत जैसे सांस्कृतिक परिवेश में, सिर्फ तोड़ने का, बाँटने का काम ही कर सकता था/है?

Giriraj: You read Rahi Masoom Raza’s novel Aadha Gaon, besides other things, as a ‘national allegory’ in your essay The Harvest of Fear. Would you say that ‘the idea of nation or nationalism’, alien as it is to the residents of the village Gangauli, is responsible for ‘dividing’ them? Is it the idea of nation/nationalism that annihilates the village as it used to be?

Sudhir: If your clause ‘among other things’ is meant to say that I’ve in my essay read Adha Gaon as a national allegory, but not only as that, I’ll agree. Even in that reading, though, it would not necessarily follow that ‘the idea of nation or nationalism’, alien as it is to the residents of the village Gangauli, is responsible for ‘dividing’ them. Neither does the idea of nation or nationalism, per se, divide them, nor is it alien to them. It is the fractious nature of nationalism as it developed in India, and the divisive volatility it imparted to collective emotions around the time Adha Gaon is concerned with, that did whatever then happened [i].

अपने में राष्ट्र या राष्ट्रवाद का विचार नहीं, उसका वो विशिष्ट भारतीय संस्करण जिसका स्वभाव बाँटने वाला सिद्ध हुआ – सुधीर कहते हैं. क्यों? हिमांशु के लेख में इसका एक जवाब मिलता है.

भारतीय राष्ट्रवाद, राष्ट्र-राज्य के इस यूरोपीय मॉडल के प्रतिरोध में जाकर गैरपश्चिमी आधुनिकता के रास्ते तलाशता हुआ भी अंततः उसी अंधी गली में जाकर गुम हुआ………… राही मासूम रज़ा गंगा की लहरों की कहानियों को इतिहास की संज्ञा नहीं दे रहे हैं, वे  उन्हें इतिहास के बरक्स खड़ा कर रहे हैं………. इस एकरेखीय भँवर में अनेक धाराएँ हैं और इसलिए गंगा की लहरों की अनेक कहानियाँ इस इतिहास के लिए वह बहुलतावादी चुनौती है जिसे खारिज करके ही इसे अपने को स्थापित करना है. आधा   गाँव इसी विस्थापन के शनैः शनैः घटित होने की दास्तान है.

मुझे लगता है सुधीर और अन्य अध्येताओं द्वारा आधा गाँव के पठन का यह टर्मिनस है – उसे एक ‘नेशनल एलेगरी’ की तरह पढ़ना. उपन्यास को अब ऐसे पाठ की तरह भी पढ़ा जाना चाहिये जो राष्ट्रीय आख्यानों द्वारा अपने को इम्पोज़ करने की प्रक्रिया से ही नहीं उन प्रक्रियाओं से भी भिड़ा देता है जो अनहुए विकल्पों की तरफ ईशारा करती हैं – क्या राष्ट्र राज्य ही एक मात्र विकल्प था? क्या भारत में राष्ट्रवाद किसी और विधि भी घटित हो सकता था? क्या सभ्यता की कोई और कल्पना थी जो गंगौली में यूरोपीय औपनिवेशिक आधुनिकता के अतिक्रमण से पहले से सक्रिय थी? इसका एक संकेत हमें फिर हिमांशु के पठन में मिलता है जहाँ वे उपन्यासकार राही मासूम रज़ा को प्रथम पुरूष में उद्धरित करते हैं.

गंगौली से मेरा संबंध अटूट है. वह एक गांव ही नहीं है. वह मेरा घर भी है. घर! यह दुनिया की हर बोली हर भाषा में है और यह उसका सबसे खूबसूरत शब्द है. इसलिए मैं उस बात को फिर दोहराता हूँ. मैं गंगौली का हूँ क्योंकि वह केवल गांव नहीं है.

यह गाँव को संसार की तरह, घर की तरह, ‘मातृभूमि’ की तरह, ‘अपनी जमीन’ की तरह देखने वाली संवेदना है क्योंकि गाँव ‘केवल गाँव नहीं है. इस संवेदना के आधार पर क्या कोई राज्य व्यवस्था बन सकती है/ थी?

Sudhir: …..if the Nehruvian model of development had not won hands down vis-à-vis the Gandhian dream of free India, villages in India would not have met the fate they have. It is the Nehruvian vision – which then was the dominant vision and today perhaps the sole vision – which set out to recast the village in the mould of the city.

यह शायद एक दूसरे निबंध का विषय है कि नेहरूवादी विकास मॉडल के सम्मुख स्वाधीन भारत की गाँधी-कल्पना की पराजय नहीं हुई होती तो क्या होता?

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Giriraj: But you have also pointed out that it is ‘a novel which, in a powerful way, also suggests its own negation’. I read this alongside your observation that the title of the novel can also be interpreted the way the novelist/narrator suggests. The novelist/narrator says that he can only write about those parts of the village which are inhabited by the Muslims. He admits that he cannot understand the village as a whole. So, the village, in a sense, is already divided (due to what you call ‘traditional rivalry’). What is the difference between the already existing divide and the one imposed by the idea and reality of nation/nationalism?

Sudhir [ii]: I really cannot recall anything of what I could have meant by attributing the already existing division to ‘traditional rivalry’. If I used the word rivalry in the singular, I must have had something specific in mind. But I could not have meant – and if I did, I was mistaken – that the rivalry was entirely a function of communal divide. In any case, if I were to think of the question in a comprehensive historical conquest, I would talk of rivalries. And I would think of these rivalries in terms of ever-fluid configurations.

Whatever the theoretical positions regarding the author/narrator distinction, it is noteworthy that in Adha Gaon Rahi Masoom Raza makes a special effort to minimize the distinction between the two. The insertion in the middle of the fictive text of a ‘Preface’, duly signed by the novelist – is it an insertion or part of the narrative? – is but one formal example of that attempt. Read along with that ‘Preface’ – and how else can it be read? – the narrator’s confession, that he can only write about those parts of the village which are inhabited by the Muslims acquire a different meaning and resonance. For, the ‘Preface’ carries the novelist’s impassioned cry that India belongs to him and there is no power that can change this.

Whatever may have been the nature of traditional rivalries earlier, a cataclysmic change does seize Gangauli, giving it the appearance of an adha gaon. How permanent that abrupt and violent change would be is a different matter.

यह वो दूसरी जगह है जहाँ मैं अटक गया था. क्या राष्ट्र या राष्ट्रवाद का विचार दृश्य में आने से पूर्व, राष्ट्रवादी राजनीति के गंगौली में जगह बनाने से पूर्व भी गंगौली में वे कारक हैं, वे परिस्थितियाँ हैं जो उसे संभावित तौर पर एक आधा गाँव बना सकते हैं? गंगौली का विभाजन क्या पूरी तरह राष्ट्रवादी राजनीति की सफलता के कारण हुआ? हिमांशु के पठन में इसका भी संकेत हैः

ऐसा नहीं है कि गंगौली में मेलजोल के कोई आदर्श प्रतिमान बन गए हैं. वहाँ भिन्नताएं और समानताएँ स्पष्ट हैं. हाकिम अली कबीर ने तो पाक साफ बने रहने के लिए दरवाजे पर ही नहाने का हौज़ बनवा रखा है. गुलाम हुसैन जब हरनारायण प्रसाद के लिए मिठाई का टोकरा ले जाते हैं बातों ही बातों में बता देते हैं कि मिठाई झीगुरिया के यहाँ की है और उन्होंने छुई भी नहीं है. चमारों, राकियों, भरों, हज्जामों, जुलाहों की हैसियत के मुकाबले सैयदों, पठानों, ठाकुरों की अकड़ पूरे उपन्यास में देखी जा सकती है.

क्या इस पृष्ठभूमि के बिना राष्ट्रवादी राजनीति सफल हो सकती थी? हम इस किस्से में फिर से एक टर्मिनस पर हैं. क्या आधा गाँव के पठन इन पहले से उपलब्ध विभाजनों को अंडरप्ले नहीं करते ?

यह भी लेकिन एक दूसरे अध्ययन का ही विषय है कि यह पहले-से-विभाजित गाँव क्या उस सभ्यता का विकल्प हो सकता था जो उसके नकार पर विकसित हुई? क्या वह नेहरूवादी विकास मॉडल, इतिहास और राष्ट्रवाद (तीनों के मूल में यूरोपीय, औपनिवेशिक आधुनिकता है) के अतिक्रमण के बिना सदैव एक रह सकता था?

मुझे संदेह है कि आधा गाँव में इसका उत्तर सिर्फ ‘हाँ’ है.


[i] शीर्षक में जिस अधूरे साक्षात्कार का जिक्र है उसी से। सुधीर चंद्र से आधा गाँव के उनके पठन को लेकर यह बातचीत किन्हीं कारणों से पूरी नहीं हो पाई।

[ii] यह बातचीत करते समय सुधीर के पास अपना लेख और आधा गाँव दोनों उपलब्ध नहीं थे और वे स्मृति के सहारे बात कर रहे हैं।

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  1. adha gaon ko nehru aur gandhi, donon modalon se bacha kar padh kar dekhiye.

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