आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

पैदल पुलः एकांत श्रीवास्तव

पैदल पुल

(दंतेवाडा-बस्तर की डंकिनी शंखिनी नदी के तट से लौटकर)

बाँस का यह पुल
धीरे धीरे हवा में हिलता हुआ

बंधे हुए बाँसों के बीच से
नदी का बहता हुआ जल दिखता है
लाल है इस नदी का जल
लौह खदान को जो पार कर के आती है

बहते हुए जल को
बहते हुए लहू की तरह देखता हूँ
आदमी की धमनियों में
बहने वाले लहू को
आदमी के सीने में बने गोली के सूराख से
फूटते हुए देखता हूँ

हिलता हुआ हमारे समय का पुल
बहते हुए लहू के दर्द में सिहरता है

लहू जो प्यार और वसंत से
मिलकर बनता है
रोटी नमक और प्याज़
जिसे और सुर्ख करते हैं.

पीपल के पत्ते

अंधेरे में पीपल के पत्ते
इस तरह बजते हैं
जैसे बचपन के बुला दिये गये वाद्य हों
पुराने घर के बंद पड़े पखावज की तरह
नदी किनारे
झरबेरियों में फेंक दी गई
बचपन की बाँसुरियों से सुषुप्त स्वरों की तरह
जैसे कह रहे हों कि जिस घोर में
दमकते हैं तुम्हारे चेहरे
उसे हमीं लाये थे तुम तक

हीराः दो

शब्द का हीरा पत्थर हो गया
धीरे धीरे इस समाज में
और सचमुच का पत्थर हीरा
मैं लिखता हूँ कविता इसी कोशिश में
कि किसी तरह वापस लाऊँ
उस खोई हुई चमक को
जो शब्द के हीरे में थी
उसके पत्थर होने से पहले

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2 comments
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  1. sakaee peepal ke patte ko padhkar ,, yahi kahin ghoomta bachpan yaad aa jata hai aur usako laane kee ek asafal koshish .

  2. अलग भावबोध की जमीन पर अँखुआती कविताएँ.

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