आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

भिखारी रामपुर : बोधिसत्व

भिखारी रामपुर

हर बारिश में
ढहता है कोई पुराना घर
उठती है नयी बखरी.

हर साल उखड़ता है कोई बूढ़ा वृक्ष
लुटती है किसी की गठरी
हर साल उगता है नया अमोल
हर साल पड़ती है खेतों में मेंड़.

हर साल मिटते हैं कुछ नाम
कुछ नये रखे जाते हैं
ऐसे ही चल रहा है
मेरे गाँव भिखारी रामपुर में
सब बतियाते हैं.

तुम्हारा रूप

अभी थोड़ी देर पहले निर्मल था आकाश
फिर आए पूरब से उमड़ते-घुमड़ते बादल
और छा गए मेरे गाँव के आकाश पर.

फिर उन बादलों में दिखा मुझे तुम्हारा रूप
उमड़ती-घुमड़ती तुम्हारी मुख छवि
जिसे उड़ा ले गई हवा
पच्छिम की ओर.

अब न बादल हैं आकाश में
न तुम्हारा रूप
वे भूरे काले बादल बसरने को आतुर
जो घिरे थे मेरे गाँव के आकाश पर
चले गए कहीं और
उनके साथ ही
तुम्हारा रूप भी घुल गया आकाश में.

गाँव में सूर्यास्त

दिन डूब रहा है
जगह-जगह हो रहा है खेल
अजीब रोर है दिन के डूबने का.

एक सजी-सँवरी बच्ची
अपनी भेड़ों को हाँकते हुए
ला रही है घर,

सूरज जा चुका है
घास के किसी और मैदान में
शिकार करने,

नभ में पता नहीं किसके
खून का धब्बा रह गया है
जिसे मिटाना भूल गए हैं लोग
दिन डूब रहा है
गाँव का दिन.

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3 comments
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  1. बहुत सुन्दर कवितायें…सिंफनियां जो उदास करती हैं…देर तक गूंजती रहती हैं…

  2. bhaisahab bahut achhi kavitaon ke liye bahut bahut badhai

  3. ye naa poonchhe koi kyo paresan hain
    aap hi ki taranh hm bhi insan hai
    kuchh aisa hi bayan krti hai aapki kavitaye
    aajke is jeevan men bhartiyata jb pashchim kee taraf palayan kr rhi hai tow ”jo ghire the mere gaanw ke aakash pr chale gaye kahin aur ,,yahi n sonchata hai mn . kya gajab kaha hai apne . dhanyawad

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