आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

लमही वतन है: व्योमेश शुक्ल

लमही वतन है। दूसरी जगहें गाँव घर मुहल्ला गली शहर या जन्मस्थल होती हैं, लमही वतन हो जाती है और लेखक को अपने वतन लौटते रहना चाहिये। लेखक को दूसरे लेखकों के वतन भी लौटना चाहिए। जाँच-परख या टीका-टिप्पणी करने नहीं, रहने के लिए। जितनी देर तक वहाँ ठहरिये, रह जाइये। वतन जाकर रहने से कम कोई काम क्या करना ?

लेकिन किसी लेखक के पैदा होने या रहने लगने से कोई जगह वतन नहीं हो जाती। चतुर्दिक फैले हुए कर्म और मानवीय सम्बन्ध उसे वतन बनाते हैं। माला में मोती पिरोने, अनवरत खाँसने और किसी कम ज़रूरी काम में लगे रहने से, आधी रात में जागकर ट्यूबवेल चलाने और ग्राम प्रधान के देर रात तक सुरा और संभोग में व्यस्त रहने जैसी अनन्त वजहों से कोई जगह वतन बन जाती है। ऐसी ही वजहों से कोई गाँव लेखक का गाँव बन जाता है, कोई जगह वतन बन आती है और प्राइमरी स्कूल का एक मुदर्रिस उपन्यास-सम्राट बन जाता है।

जबकि हमारे यहाँ वजहों को भूलकर या कुछ नकली किताबी वजहें खोजकर लोगों को और चीज़ों को समझने-समझाने की कोशिश की जाती है। ये कोशिशें दूर से गुज़र जाती हैं और असर पैदा नहीं कर पातीं। कई बार ये वस्तुस्थिति को बीमार बनाने का काम करती हैं। ये नई समस्याएँ पैदा कर देती हैं। लमही उदाहरण है। यहाँ मुंशी प्रेमचन्द के अमरत्व को उनके रोज़मर्रा मरण से अलग कर दिया गया है। कुछ सरकारी और अकादमिक क़िस्म के विभाग बन गये हैं जहाँ एक विभाग में प्रेमचंद सुबह पैदा होकर शाम को मर जाते हैं और पड़ोस के विभाग में वह 1936 से आज तक एक नुमाइशी ज़िन्दगी जी रहे हैं। लमही में प्रेमचन्द के जन्म, जीवनयापन और महानता को वहाँ के लोगों के जीवन-संघर्ष से अलग किसी संसार की तरह बसाने के प्रयत्न अब तक होते आये हैं और राजनीतिक पैंतरेबाज़ी ने रचनाकार को स्थानीय आत्मसम्मान का मुद्दा नहीं बनने दिया है। यह बात हमेशा कही जानी चाहिए कि किसी स्थान के साथ लेखक के संबंधों की पद्धतियाँ तय करना सत्ताओं के बस की बात नहीं है। ये संबंध वृहत्तर जनता की कोख़ से निकलते हैं और वहीं से नियमित होते हैं। इसलिए, आदर्श स्थिति तो यही है कि कोई कमबख्त, लेखक और जनता के बीच में न आए।

अब तक की बातों से साफ़ हो गया होगा कि सत्ता के विभिन्न संस्करणों में लमही का ‘उद्धार’ कर डालने की कितनी होड़ रही है। बीते साठ सालों से लगातार चलती इस प्रतियोगिता में भाग लेने वाली चार प्रमुख टीमें इस प्रकार हैं – १. केन्द्र सरकार, २. राज्य सरकार, ३. नागरी प्रचारिणी सभा और ४. प्रगतिशील लेखक संघ। इन टीमों ने वहाँ प्रतियोगिता के सभी क़ायदों का जुलूस निकाल दिया है और श्रेय लेने की जगहें लगातार ढूँढती रही हैं। प्रेमचन्द के वंशजों ने पैतृक सम्पत्ति सरकार को दान देकर ख़ुद को दौड़ से बाहर कर लिया है। वे कभी-कभार अतिथि की तरह वहाँ पधारते हैं और उनमें से आलोक राय और सारा राय जैसी छवियाँ गाँव के धूलपसीनामग्न माहौल में ख़ासी सिनेमाई लगती हैं। नागरी प्रचारिणी सभा का संगठन जर्जर और मृतप्राय होकर किनारे लग गया है और सिर्फ़ 31 जुलाई को होने वाले वार्षिक कर्मकांड में हिस्सा लेने योग्य बचा है। उसने प्रेमचन्द के मक़ान के ठीक सामने अपने छोटे से किन्तु ऐतिहासिक महत्व के ‘कंपाउंड’ को ज़िले के प्रशासन को दान में दे दिया। यह छोटी सुंदर संपदा ‘सभा’ को अरसा पहले प्रेमचन्द के परिवार द्वारा ही दान में मिली थी। दान में मिली वस्तु को दान कर डालने की यह अद्भुत घटना, ऐसा लगता है, कि बनारस की ही किसी संस्था द्वारा अंजाम दी जा सकती थी जहाँ शायद दान के कोई पारलौकिक आशय नहीं बचे हैं। बहरहाल, इसी परिसर में पहले राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद ने मुंशी प्रेमचंद स्मारक का शिलान्यास किया था और शिलान्यास का शिलापट्ट यहाँ से गायब है। स्थानीय मीडिया के लिए यह बात लमही के दुर्भाग्य की स्थायी ख़बर है। बनारस रहकर जवान होते हुए इस बात को प्रतिवर्ष कम से कम दो बार अखबारों में पढ़कर मनहूस हुआ जा सकता है। उसी परिसर में लगी प्रेमचन्द की पत्थर की मूर्ति की आँखें या तो टूट-फूट गई हैं या गाँव के शरारती बच्चों ने निकाल ली हैं। यह दृश्य न्यूज़ चैनल्स के काम का है। दृश्य की विकृति देखने-दिखाने वालों के लिए है। चार साल पहले 31 जुलाई के आसपास लमही में घूमते हुए इन पंक्तियों के लेखक ने देखा कि ‘स्टार न्यूज’ के उत्साही फोटोग्राफर दौड़-दौड़कर गाँव के भीतर से कपड़े धोते बच्चों को मूर्त्ति के करीब ला रहे हैं और उनसे वहीं बैठाकर कपड़ा धुलवा रहे हैं।.कमाल का दृश्य था। बग़ैर साफ़ पानी के, सिर्फ़ साबुन के झाग से कपड़ा धुल रहा था क्योंकि बच्चे पानी की बाल्टी लेकर नहीं आए थे। वाशिंग पाउडर निर्माता कंपनियों को तत्काल स्टार न्यूज से सम्पर्क करना चाहिए।

फ़िलहाल सरकार की सरपरस्ती में यह छोटा-सा परिसर पहले से अच्छी हालत में है। दीवारों से लगी व्यवस्थित हरियाली और प्रेमचन्द की कहानियों, जीवन-प्रसंगों और दूसरे रचनाकारों के प्रसिद्ध वाक्यों पर आधारित पोस्टर्स हमें भटका देते हैं। हमारा ध्यान बदनसीबी से हट जाता है। इस परिसर का रखरखाव निहायत स्वयंभू तरीके से प्रेमचंद-साहित्य के एक स्थानीय मुरीद  ‘दूबे जी’ कर रहे हैं। वे पड़ोस के गाँव से साइकिल चलाकर रोज़ सुबह-शाम लमही आते हैं, पेड़-पौधों की सेवा करते हैं, प्रतिमा और चबूतरे को पानी से धोते हैं। परिसर में स्थित दो कमरों और लम्बे बरामदे को उन्होंने प्रेमचन्द की किताबों, प्रेमचन्द के बारे में लिखी गई किताबों, डाक टिकटों और प्रेमचंद के कथासाहित्य की नुमाइंदगी करने वाली अमर वस्तुओं – चिमटा, चरखा, हुक्का, गिल्ली-डंडा आदि से सजा दिया है। उन्होंने बताया कि ये पुस्तकें आस-पास के गाँवों के बच्चों और अन्य लोगों को पढ़ने के लिए दी जाती हैं । इन्हीं में से एक कमरे में उन्होंने अपना एक दफ्तर जमा लिया है और वहाँ कुर्सी-मेज पर बैठकर वह कुछ और आत्मविश्वास के साथ प्रेमचंद के बारे में पिटी-पिटायी बातें करते हैं, हालांकि उनकी इस निःस्वार्थ और गैरकानूनी कोशिश में सेवा और कर्त्तव्य के असली तत्वों की झलक है। उनसे मिलकर ऐसा लगता है कि एक दिन नागरिक किसी न किसी तरीके से सरकार को पीछे करके सुधार के काम अपने हाथ में ले लेगा – अपनी सारी सीमाओं और सरकार की सारी शक्तियों के बावजूद। ऐसे व्यक्ति लमही, गढ़ाकोला और अगोना (बस्ती) जैसी जगहों में पहली-पहली बार दिखना शुरू हुए हैं। यह सुखद अभिनव विकास है। तंग आकर जनता कुछ ऐसे ही हिस्सेदारी करने लगती है।

प्रेमचन्द के पुश्तैनी मकान को राज्य सरकार ने पर्याप्त पैसा खर्च करके नया बना दिया है; उसके मूल रूप को यथावत रखने की विफल और सतही कोशिश भी इस निर्णय में हुई है। लेकिन इतना तय है कि दुर्दशा पर सालाना आँसू बहाने वाले लोग अचानक बेरोजगार हो गये हैं, कि अब किस बात पर अफसोस किया जाय। बड़े मकान की सुरक्षा और रखरखाव का स्थाई इन्तजाम नहीं है और स्वयंसेवी ग्रामवासी सोत्साह ‘गाइड’ की भूमिका निभाने लगते हैं। खिड़कियों से धूल और उजाला लगातार भीतर आता रहता है। दरवाजे भी हमेशा हर किसी के लिए खुले हैं। मधुमक्खी के बड़े-बड़े छत्ते हैं और सफेद दीवारों पर आशिकों और दिलजलों ने अपने नाम और मोबाइल नम्बर खून के रंग में लिख डाले हैं। पूरे मकान में बिजली की वायरिंग की गई है लेकिन बल्ब और पंखों वगैरह का कहीं पता नहीं है।

गाँव में – हालाँकि लमही को गाँव मानना मुश्किल है; वह बनारस का एक बिगड़ा हुआ मुहल्ला .ज्यादा लगता है – मुख्य रूप से तीन जातियाँ हैं – गोड़, कुनबी और कायस्थ। प्रायः सभी कायस्थ खुद को प्रेमचन्द का दूर या नजदीक का रिश्तेदार बताते हैं। समृद्धि और भोग के मामलों में पटेल (कुनबी) समुदाय के लोगों ने सबको पीछे छोड़ दिया है। वे दरअसल प्रदेश की सबसे ताकतवर जातियों में से एक हैं। प्रेमचन्द के मकान के ठीक बाहर एक शिव मंदिर है। उसके निर्माण की दास्तान तथाकथित रूप से 150 साल और वास्तव में 5 साल में फैली हुई है। लगभग 5 साल पहले 31 जुलाई के आसपास वहाँ एक शिवलिंग खुले में रखा हुआ था। एक साल बाद वहाँ पहुँचने पर इन पंक्तियों के लेखक ने देखा कि वहां दरो-दीवार का इंतजाम हो गया था। दीवार पर मोटे-मोटे हर्फों में लिखा हुआ था  – ‘ 150 साल पुराना मंदिर – प्रेमचंदेश्वर महादेव।’ एक शराबी ने झूमते हुए बताया कि यह महान मंदिर मुंशी प्रेमचन्द द्वारा स्थापित है। हमने शराबी से नाम पूछा तो उसने कहा कि ‘प्रेमचंद’। हालाँकि इस बीच वहाँ जाने पर देखा गया है कि ‘प्रेमचंदेश्वर महादेव’ के ऊपर पुताई करा दी गयी है और लिख दिया गया है – ‘बाबा भोलेनाथ मंदिर, लमही’,  और कम से कम दर्जन भर शिवलिंग और स्थापित कर दिये गये हैं।

प्रेमचंद और शिवरानी देवी के प्रकाशन-समूहों में काम कर चुके कुल दो बुजुर्ग अभी जीवित हैं। दोनों सज्जन मृत्युशय्या पर हैं। पत्रिका आदि के लोकार्पण के लिए ये दो लोग उपयुक्त सर्वहारा मुख्य अतिथि और अध्यक्ष रहे हैं। हालाँकि दोनों को काफी ऊँचा सुनाई देता है और याद रखने लायक सभी बाते ये बहुत पहले भूल चुके हैं। उनके चेहरों और जीर्ण जीवन को कोशिश करके बिकाऊ बनाया गया है. लेकिन खरीदने वाली ताक़तें आशंकाओं से ज़्यादा चंचल और कंजूस साबित हुई हैं.

लेकिन अंदरूनी तब्दीलियाँ बेसंभाल ढंग से घटित हो रही हैं. समझदार लोग अंदाज़ा नहीं लगा पा रहे हैं या उलझना नहीं चाहते, इसलिए के सूत्र कम से कम उपलब्ध हैं. दरअसल नेतृत्व बदल गया है. इसे ३१ जुलाई को शिद्दत से महसूस किया जा सकता है, लेकिन शायद उस दिन लोग उत्सव में गाफ़िल रहते होंगे. आयोजन की सूची बड़े ज़ोरदार ढंग से घोर साहित्येतर लोगों के हाथ में जा रही हैं, बल्कि चली गई हैं, ये लोग राजनीति या समाज के दूसरे मंचों के उजले लोग नहीं, दिलजले हैं – चिढ़े हुए, शोर्ट टेम्पर्ड और अत्यन्त निराशावादी. लेकिन यह तय है कि ये अपना, प्रेमचंद और लमही का सबसे बड़ा दुश्मन वहाँ आकर भाषण देने वालों को मानते हैं. बीती ३१ जुलाई को इन्होने पर्याप्त सांस्कृतिक उपद्रव किया. वहाँ इस बार प्रगतिशील परंपरा के घुटे हुए भाषणबाज़  वहाँ किनारे कर दिए गए थे और उत्तर भारत के बड़े बिरहा गायक मंच की शोभा बढ़ा रहे थे. दसियों हज़ार लोगों की भीड़ के सामने शहरी साहित्यकारों की हवा गुम होने को थी. बग़ल के एक विद्यालय में भंडारा चल रहा था, यहाँ अज्ञात लोग इंतज़ाम में लगे हुए थे और लेखकनुमा लोगों को आदर सहित बुलाकर बाटी-चोखा खिला रहे थे. मेरे ख़याल से यह निरादर की हद है और अकर्मण्यता का सच्चा पारिश्रमिक. अब लेखक मेहमान हैं या दामाद हैं व्यापक समाज के.

१०

बनारस की ख़ास अपनी दिक्क़तें अलग भूमिकाएं निभाती रहती हैं. विराट अतीत प्रायः विपत्ति है. अकेले प्रेमचंद ही शोभा नहीं हैं, प्रसाद हैं, भारतेंदु हैं, और पीछे जाइए तो कबीर, तुलसी, रैदास, रामानंद. नागरी प्रचारिणी, शुक्ल और द्विवेदी; हिंदी विभागों की अपनी ऐतिहासिकता को छोड़कर भागना आसान नहीं है. आधुनिक काल के अपने संकट हैं. सबके प्रति आभारी होना, या दिखना हिंदी वाले का कर्तव्य है. धूमिल , त्रिलोचन, गिन्सबर्ग, शिवप्रसाद सिंह – सबके अपने-अपने प्रकोष्ठ हैं. पार पाना आसान नहीं, गंगा एक आग का दरिया है और उसमें सिर्फ़ डूबके नहीं, मर के जाना है, तभी मुक्ति है. इसलिए अभिनवता के मोर्चे कभी खुल ही नहीं पाते और रचनाकार स्वप्न देखता रह जाता है.

मसलन कवि अपनी कविता में लिखता है:

छोटे से आँगन में माँ ने लगाए हैं तुलसी के बिरवे दो
पिता ने उगाया है बरगद छतनार
मैं अपना नन्हा गुलाब कहाँ रोप दूं? (केदारनाथ सिंह)

११

कभी-कभी लगता है, हम काम के भीतर से राह निकलना भूल गए हैं. हम विचारमग्न या चिंतित होना चाहते लोग हो गए और हमें पता ही नहीं चला. यह हार थी. कुछ संकल्प होते ही ऐसे हैं कि उन्हें बैठकर दिमागी ताक़त से साधा नहीं जा सकता. लेकिन कौन याद दिलाये किसे? ऐसे मुद्दों पर हमारा शरीर सोचता है, वह आवाहन करता है दिमाग़ का, तब तानाशाही चलना बंद होती है, लेकिन ऐसा कभी-कभी होता है.

१२

प्रेमचंद की कहानी सिर्फ़ गाँव की कहानी नहीं है, वह शहर में भी फ़ैली हुई है, उनसे जुडी हुई चीज़ों और जगहों को सँभालने और पहचानने का काम शर्म और आलस्य से भर गया है. उनकी ग़रीबी को मिथक के वज़न पर प्रचारित किया गया, जबकि यह अकाट्य है कि एकाध मौक़ों को छोड़कर प्रेमचंद ज़िन्दगी में कभी विपन्न नहीं रहे. पता नहीं इस झूठ से किसी को क्या फ़ायदा हुआ होगा, लेकिन यह चेतना के बालीवुड़ीकरण का प्राचीन प्रमाण है. ऐसे लोग अभी जीवित और सक्रिय हैं मसलन जिनके मक़ान में रहकर प्रेमचंद ने निर्मला की रचना की थी, उनका वह कमरा अभी भी वैसा ही है. उन्होंने अपने पिता के हवाले से लगभग शर्माते हुए बताया कि मुंशी जी समय से किराया नहीं देते थे और इस मुद्दे पर झक-झक होती रहती थी. बनारस में जिस जगह उनका निधन हुआ वहाँ एक शिलापट्ट तक नहीं है.

3 comments
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  1. लमही की वास्तविकता को आपने पेश किया है, बधाई. अपने पुरोधा साहित्यकार के प्रति उपेक्षा या दोहरी मानसिकता अपने ही जड़ों में मट्ठा डालने के बराबर है.

  2. अब क्या कहें हम। लमहीं का हाल तो हर जगह है। संग्रहणीय लेख।

  3. aapke premchand par likhe is sansmaran/lalit nibandh ne kam se kam filhaal ke liye to bahut se bhulon ke liye aekbaar fir se “lamhi ko hmaara mahbub vatan to bnaa hi diya hai”

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