आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

एक था गाँव: वरूण

हमारे देश में टीवी मेरे जन्म से बहुत पहले आया. हमारे घर में मेरे पैदा होने के ७ साल बाद. टीवी पर गाँव मैंने शायद टीवी आने के पहले दिन ही देख लिया (कृषि दर्शन मेरा पसंदीदा कार्यक्रम था, क्यूंकि इसमें आउट डोर बहुत दिखता था). असल ज़िंदगी में सचमुच** का गाँव अभी देखा है – सिर्फ तीन साल पहले. इस कथन में ‘सचमुच’ का क्या मतलब है, बस उसी पर बहस है. सारा खेल ‘कंडीशन अप्लाई’ वाले दो सितारों का ही है.

गाँवों की याद

वैसे इसे गाँव की ‘याद’ कहना गलत होगा. याद तब होती है जब आपके पास कोई सचमुच का अनुभव हो. मैं गाँव कभी नहीं गया था (३ साल पहले तक) लेकिन फिर भी मैं इसे याद ही कहता हूँ. ये उतनी ही साफ़ और गाँठों वाली थी. और मेरे पास बहुत से गाँव थे. भूगोल की किताब का गाँव – जिसमें रबी और खरीफ़, ज्वार और बाजरा, ट्रेक्टर की फोटो, और खेती के प्रचलित तरीकों का लंबा ब्यौरा था. एक गाँव था सी. बी. एस. ई. बोर्ड की हिन्दी की कहानियों वाला – थोडा सा उदास और बहुत-सी जटिलताओं वाला, सूखे, अकाल और गरीबी से जूझता. एक और गाँव, बहुत ही बोरिंग-सा, हमारी सिविक्स की किताब में भी था. इसमें गाँव सिर्फ नेहरु जी ने ही बनाए थे, और उन्हीं की दया से ये फल-फूल रहे थे. (इतिहास की किताब में शायद ही कोई गाँव था. सिर्फ ‘हमलों’ और ‘लूटने’ के प्रकरण में ही ‘गाँव के गाँव’ का ज़िक्र आता था.)

फिर एक गाँव, जो शुरू में मेरा पसंदीदा था और बाद में मुझे जिससे चिढ़ होने लगी, हिन्दी फिल्मों में था. इस गाँव में एक अदद गाँव की गोरी, एक अदद कमीना ठाकुर, एक अदद मेहनती नौजवान, और चंद अदद गुंडे ज़रूर होते थे. ये गाँव मुख्यतः हँसता-गाता होता था और इसमें मेरी भूगोल की पुस्तक का कोई चार्ट, आंकड़ा या नक्शा नहीं दिखता था. एक और बात जो ठीक से याद है, हालाँकि ये मैंने समझी बहुत बाद में, वो ये कि हिंदी फिल्म का गाँव अधिकतर गंगा-जमुना का ही मैदान होता था. सब ‘नैन लड़ जई है’ और ‘ओ री छोरी, मान भी ले बात मोरी’ जैसी भोजपुरी-टाइप भाषा में बात करते थे. यहाँ तक कि बिमल रॉय की फिल्म ‘दो बीघा ज़मीन’ में भी गाँव बंगाल का है लेकिन लहजा उत्तर-प्रदेश का.

और एक गाँव था, या मेरी यादों में होना चाहिए, दूरदर्शन का. लेकिन कहाँ था? क्यूँ इतना शांत था? ‘नीम के पेड़’ के बुधई सा! जैसे कहना चाहता हो हज़ारों कविताएँ लेकिन फटने से पहले ही कोई बात बदल दे. शायद यही मेरी सबसे बड़ी याद है दूरदर्शन के गाँव की. हमेशा शांत सा गुज़रता हुआ – सिर्फ बुलाने पर रुकने वाला, पूछने पर बोलने वाला, और टोकने पर टुक जाने वाला. आधा. शायद प्रामाणिक. लेकिन आधा.

‘हम लोग’ कितने हम लोग थे

दूरदर्शन जब आया, हिंदुस्तान अपने सबसे नीरस दौर में था. यहाँ मैं दूरदर्शन का आना १९८४ में हम लोग के शुरू होने को कह रहा हूँ. ख़बरों, संगीत, सम-सामयिक विषयों पर गंभीर चर्चाओं और सरकारी एजेंडे का डंका बजाने वाला दूरदर्शन इस से बहुत पहले से था (और आज भी मौजूद है), लेकिन दूरदर्शन पर कहानी ‘हम लोग’ से ही आयी. कहानी का आना दूरदर्शन का बड़ा होना था. वो बातें कह पाना जो तीखी, टेढ़ी, या अन-प्रोपेगैंडा के दायरे में आयें, कहानी से ही संभव हुआ.

उस दौर में, जब सिनेमा आज़ादी के बाद अपने सबसे बुरे सालों से गुज़र रहा था, देश भर के हास्य कवि-सम्मेलन राजीव गाँधी, विन चढ्ढा, और जेठमलानी के चुटकुलों से एक राष्ट्र-व्याप्त खोखलेपन में मनोरंजन तलाश रहे थे, सरकारी नौकरी का सपना सबसे बड़ा सपना था, और एक टेलीफोन कनेक्शन लेने में सालों लग जाते थे, दूरदर्शन ने एक नई खिड़की खोली. ये खिड़की जितनी हमारे घरों में खुलती थी, उतनी ही हमारे घरों से भी खुलती थी. ये जो है ज़िंदगी, बुनियाद, हम लोग – सब हमारे शहरों, कस्बों की कहानियाँ थीं. इन सबमें हिन्दुस्तान का मिड-लाइफ-क्राइसिस साफ़ झलकता था. आज़ादी के ४०-साल बाद आई उस अजीब-सी उमस को समझने की कोशिश थी. ये जो है ज़िंदगी में, करीबन हर कहानी में, ईमानदारी और कर्मठता (नेहरु जी के आदर्श) को निकम्मे साले राजा (राकेश बेदी) की दलीलों के ज़रिए फटकारा जाता था. हम लोग टूटते संयुक्त-परिवार और निजी-मोरेलिटी के पुराने आदर्शों के खत्म होने की कहानी थी. और बुनियाद, विभाजन का दर्द और दिल्ली में बसे रिफ्यूजी परिवारों की सफलता (भारत में जल्द ही आने वाले अमरीकी-स्टाइल लिब्रलाईजेशन के अमरीकी स्टाइल फायदों की पहली झलक) का लंबा धारावाहिक. इसके अलावा खानदान, रजनी, फटीचर और नुक्कड़ ने भी बदलते शहरों को पकड़ने की कोशिश की.

1985 से 1992-93 तक, ७-८ साल का ये एक ऐसा दौर था जो दुनिया के किसी भी देश में कभी कभी ही आता है. किसी मास-मीडियम का इस हद तक कंटेम्पररी होना कि लोग समाधान की खोज में अपनी निजी समस्याएँ तक लिख कर भेजें (हम लोग में अक्सर ऐसा होता था और हर एपिसोड के बाद अशोक कुमार के आने का एक मुद्दा ये भी था कि दर्शकों को बता सकें कि ये सिर्फ नाटक है, परेशान न हों और अपनी समस्याएँ भी ना भेजें. आगे चलकर वो ‘सखी’ और ‘सहेली’ नाम की दो संस्थाओं के भी पते देने लगे जहाँ समस्याएँ भेजी जा सकतीं थीं) और साथ ही इतना पोपुलर भी होना कि देश की सरकार भी उससे डरने लगे. (खून भरी माँग जब दूरदर्शन पर दिखाई गयी, शायद १९९१ में चुनाव से पहले, तो उसमें से विपक्षी पार्टी के शत्रुघ्न सिन्हा के सारे सीन निकाल दिए गए, जिनमें फिल्म का क्लाइमेक्स तक शामिल था)

दूरदर्शन जहाँ एक तरफ शहरों की परतें खोल रहा था, वहीं कस्बों के मटमैले-पन को भी जगह दे रहा था. लेकिन शहरों से थोड़ी कम, और थोड़े अधमने से. दक्षिण भारत के एक छोटे कस्बे की अनेकों कहानियों पर बना, आर.के.नारायण का लिखा, मालगुड़ी डेज़ अपने आप में अनोखा था. हालांकि इसकी अधिकतर कहानियाँ आज़ादी के पहले या तुरंत बाद के समय में सेट थीं, लेकिन हर कहानी का मूल कंफ्लिक्ट इतना मानवीय और ठेठ कस्बाई था कि ये एनाक्रोनिज्म कहीं कस्बे को समझने की कोशिश में आड़े नहीं आया. इसी तर्ज़ पर दूरदर्शन पर अनेक धारावाहिक और आये, और करीबन सभी किसी ना किसी मशहूर कहानीकार की कथाओं का ही चित्रण होते थे. और वही अधमने होने का प्रमाण भी थे.

जो आधुनिकता, सम-सामयिकता शहरों की कहानी में थी वो कस्बों में नहीं थी. किसी अंग्रेज सैलानी के आने पर शायद आज भी कस्बे वैसे ही हैरान होंगे जैसे ‘मालगुड़ी’ की एक कहानी में हुए थे, लेकिन वो अंग्रेज शिकारी की वर्दी पहन कर नहीं आएगा, और शायद अब वो अंग्रेज ही ना हो – इस्राइली से लेकर ऑस्ट्रेलियन तक कोई भी हो सकता है.

इससे भी बुरा हाल गाँव का था. ताज़ी कहानियाँ नहीं थीं – एक तरह का नोस्टैल्जिया था, एक पुरानी समझ थी जो गलत न होते हुए भी प्रामाणिक नहीं होती. बल्कि दूरदर्शन पर गाँव मैंने कब कब देखा था ये भी मुझे याद करना पड़ा. किरण बेदी की ज़िंदगी से मिलता-जुलता, कविता चौधरी का उड़ान गाँव में शुरू हुआ था. गाँव की लड़की थी जो बड़ी होकर कुछ बनना चाहती थी. लेख टंडन के फिर वही तलाश में भी लड़का गाँव से आया था – और शहर में अपने मकान मालिक की बेटी से प्यार करने लगा था. हृषिकेश मुखर्जी के तलाश में शहर का एक आदमी अपने खोए हुए भाई को ढूँढता हुआ गाँव पहुँच जाता है. और मनोहर श्याम जोशी के लिखे हमराही में एक विदेशी लड़की गाँव के एक संयुक्त परिवार में रहने आती है. इनके अलावा कथा सागर और लघु-कथाओं पर बने अन्य धारावाहिक थे जिनमें वही गाँव था जो मुझे अपने स्कूल की हिन्दी की किताब में मिलता था. इन सबमें गाँव था – या पीछे छूटे गाँव की याद या वैल्यूज़ थीं लेकिन किसी में भी गाँव की जटिलता नहीं थी. गाँव के स्टैंडर्ड नैतिक स्टैंडर्ड-पॉइंट्स थे, स्टैंडर्ड एम्बीशन थे – लेकिन सब कुछ कलेक्टिव था. कोई पर्सनल पेन, कोई इतनी छोटी कहानी नहीं थी कि वो बहुत बड़ी हो जाए. (सिवाय नीम का पेड़ के, राही मासूम रज़ा के उपन्यास पर आधारित, जिसमें आज़ादी से पहले और बाद के गाँव को बुधई राम के लगाए एक नीम के पेड़ की आँखों से दिखाया गया था.)

ये सरकार का दबाव था, या (शहर के मुकाबले) गाँवों में दूरदर्शन का ना के बराबर होना, ये नहीं कहा जा सकता. लेकिन सच यही है कि (नीम का पेड़ के अलावा) किसी ने भी कहा ही नहीं कि गाँवों में जात सबसे बड़ी पहचान, ज़रूरत और अभिशाप है. किसी ने नहीं कहा कि गाँव में किसी को ‘बिदेसिया’ (यानी शहर जाकर कभी ना लौटने वाला) कहना बहुत बड़ी गाली होती है. कभी नहीं दिखाया कि जैसे बड़े शहरों में अक्सर छोटे छोटे गाँव गाँव होते हैं, वैसे ही गाँवों में भी, कुछ लड़कों, दुकानों, और सपनों में छोटे-छोटे शहर होते हैं.

फिर प्रकट भये टी आर पी देवता

दूरदर्शन का एंटीना घर की छत पर लगता था. टाटा स्काई का डब्बा घर के अंदर तक आता है. गडबड़ी हो तो छत पर नहीं जाना पड़ता. डब्बे को थप्पड़ मारो या उसके तार निकाल कर फिर लगा दो. छत पर मत जाओ. छत से दुनिया दिखती है. घर में बैठो, हम दिखाएँगे दुनिया. छत पर मत जाओ. “वो” यही चाहते हैं.

कितने दिन, साल हमने मनाया कि हमारे घर भी ‘केबल टीवी’ आ जाए. हम भी रोज रोज दोपहर को एक बजे चलने वाली हिंदी फिल्म और कभी कभार रात में १२ बजे चलने वाली अंग्रेज़ी फिल्म देखें. इस चाहत का हमारे मन में आना, हिंदुस्तान का सोशलिस्ट जामा उतारना, दूरदर्शन का डावांडोल होना, और हिंदी फिल्मों और क्रिकेट का एक नया दौर आना – सब एक साथ हुआ. दंगे तो होते रहे, लेकिन दुनिया बदल गयी. रिएलिटी की जगह फैंटेसी ने ले ली. दूरदर्शन बुझ गया, ज़ी और स्टार उग गया.

टीवी से गाँव-कस्बे तो क्या, शहर तक गायब हो गए. बनेगी अपनी बात, जो बंबई के एक कॉलेज में सेट था, हमें समझ ही नहीं आया. ये लड़के-लड़कियाँ कौन सी भाषा बोल रहे हैं, क्यूँ इतने खुश हैं, और संबंधों को लेकर क्यूँ इतने परेशान हमें कुछ नहीं बूझा. लेकिन हम देखते गए, क्यूंकि परम सत्य या परम बकवास – सब यही था. धीरे धीरे आदत हो गयी. जब अन्ताक्षरी में ‘मेरे देश की धरती’ गाते हुए अन्नू कपूर रोता था तो हम भी रोते थे, लेकिन सोचते नहीं थे क्यूँ. लेकिन केबल टीवी चतुर था – है – कहानियों को इसने अपना मुख्य आकर्षण कभी बनाया ही नहीं.

फिल्मों को बनाया, गीत-नाच की प्रतियोगिताओं को बनाया, गृह-क्लेश को, और अब मकोड़े खाने और कुंठाओं की दुकान लगाने को बनाया, और इन सबको पिलाई अमर-बूटी ‘टी आर पी’ के नाम की. जो बिका, वो और बिका. और गाँव की कहानी, गाँव की स्मृतियों की ही तरह, गायब होती चली गयी.

कहने वाले वैसे बालिका वधु को गाँव की ही कहानी कहेंगे, और अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो और ना आना इस देस मेरी लाडो को भी. लेकिन उन्हें उतना ही गाँव का कहा जाएगा जितना आजकल बंबई में ‘हेल्थ फ़ूड’ के नाम पर धडल्ले से बिक रहे ‘रोस्टेड ज्वार’ और ‘मडुवे के चिप्स’ को. लेकिन फिर भी, फॉर द सेक ऑफ आर्ग्युमेंट, अगर मान लिया जाए कि सास-बहु के ढलते सूरज के बाद, टीवी पर गाँव एक बार फिर लौट आया है और ये सारे नए ‘सोप’ गृह-क्लेश की वही पुरानी कहानियाँ ना होकर सचमुच के गाँवों की सचमुच की कहानियाँ हैं तो भी, ये सवाल तो बनता ही है कि ये ‘बदलाव’ क्यूँ आया? कैसे अचानक से सैटेलाईट टीवी की कुंडली जागी और गाँव को वापस ले आया गया? जवाब टेक्नीकल है, लेकिन आसान भी है.

जीप पर सवार इल्लियाँ

शरद जोशी जी ने अपने एक व्यंग्य में लिखा था कि शहर जब गाँव की ओर जाता है तो सिर्फ जीप पर सवार हो, इल्लियों की तरह, चने के बूट खाने. यहाँ भी वही मामला है. केबल टीवी आया ‘९१ में, लेकिन पाँव जमाते, धंधा फैलाते ७-८ साल लगे. जब तक उनके पास स्पोंसर्स आये, तब तक इन्होने अपने देखने वालों की गिनती भी शुरू कर दी. जल्दी ही चैनल देखने वालों की संख्या (धंधे की भाषा में ‘नंबर’) बेचने लगा. जिसको जितने ज्यादा लोग जिस वक्त (स्लॉट) पर देखते, उसको उस स्लॉट के लिए सबसे अधिक दाम मिल जाता. समीकरण सीधा हो गया – नंबर दो, पैसा लो. उसके बाद शो क्या है, कितना लंबा, छोटा, चौड़ा है कोई मतलब नहीं. आज ‘सारेगामा’ चल रहा है तो सब ‘सारेगामा’ चलाओ, कल ‘फैमिली कॉमेडी’ जैसा कुछ चलेगा तो सब ‘फैमिली कॉमेडी’ करो.

यहाँ तक भी कला-भ्रष्टाचार के अंश नहीं दिखते लेकिन मामला आगे जाकर संगीन हो गया. हुआ ये कि एक कंपनी ने नए मीटर लगाने शुरू किये. ये मीटर, जो देश भर के चुनिन्दा घरों में लगने थे, दिन भर जितनी देर टीवी चला उतनी देर की हर हरकत रिकॉर्ड करने वाले थे. और ये मीटर, १९९९ के आस-पास सबसे पहले, ढेर सारे एक साथ, लगे गुजरात में. और यहाँ से शुरू हुआ टीवी पर गुजराती परिवारों की कलहों से भरे सोप्स का दौर. (ये कलह वैसे कहीं से भी गुजरात या भारत के किसी और हिस्से से सीधे नहीं जुड़ती थीं.) अगले ५-६ साल यही चला, यही चलाया गया. इसके चलते एक खास टीवी कंपनी को बड़ा फायदा हुआ और कुछ समय तक पूरी इंडस्ट्री उनके बनाए मापदंडों पर चलने लगी. मतलब गुजरात में और नए मीटर, और गुजरात के सिम्बल्स से भरे और सोप.

हाल ही में, करीबन २-३ साल पहले, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में नए मीटर लगने शुरू हुए. और यहाँ छुपा है राज़ बालिका वधू और अगले जनम का. एक तरह से चुनाव के पिछले दिन उम्मीदवार द्वारा गाँव में ‘देसी ठर्रा’ बंटवाने की पुरानी हिन्दुस्तानी प्रथा का मीडिया स्वरूप. मैंने ये शो नहीं देखे हैं, और ना ही ये कह सकता हूँ कि ये कितने सच्चे-झूठे-कन्फ्यूज्ड हैं, लेकिन ये ज़रूर कह सकता हूँ कि इनके होने की वजह मुझे पता है और वो वजह सरासर मैनिपुलेशन है. इसके अलावा जितने सालों तक ये खींचते हैं उससे साफ़ पता चलता है कि इनमें कहानी नहीं सिर्फ ढेर सारी कहानियों के ‘ट्रैक’ हैं – ज़मीन पर पानी से भरा मग्गा उलटने से बनी बेतरतीब पानी की धाराएँ जो कहीं भी जा सकती हैं, कहीं भी किसी और धरा में मिल सकती हैं, और बहुत चाहने पर भी वापस मग्गे के अंदर नहीं भरी जा सकतीं.

तो मैंने क्या देखा?

सवाल वाजिब है. मैंने सिर्फ ३ साल पहले, सिर्फ २ हफ्ते के सफर में, गाँव में ऐसा क्या ‘सचमुच’ का देखा है जिसके पैमाने पर पुराना-नया टीवी आज तक खरा नहीं उतरा. जवाब बहुत से हैं – लंबी लिस्ट जैसे, लेकिन मैं देना नहीं चाहता. आप जानना चाहें तो मैं अलग से दे सकता हूँ. (आजकल ईमेल से सब हो जाता है.) बस इतना ही कह सकता हूँ कि केबल-सैटेलाईट-डीटीएच ईमानदारी के धंधे नहीं हैं. और विडंबना कहिये या फॉर्म की अंदरूनी ताकत, लेकिन रियलिटी शो भले ही कितने झुट्ठेपने से बन जाएँ, मुकम्मल फिक्शन, सबसे झूठी कहानी सुनाने के लिए बहुत ईमानदारी लगती है. जो अब नहीं है, और जब थी (दूरदर्शन के ज़माने में) तब गाँव केन्द्र में नहीं था.

अब तो गाँव के नमूने ‘देसी गर्ल’ और ‘रोडीज़’ जैसे यूथ-रियलिटी शो में ही दिखेंगे. कहानी नहीं होगी, लेकिन कहानी किसे चाहिए.

2 comments
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  1. पिछले 4 -5 साल से गाँव नहीं गया हूँ, शायद जब से कॉलेज में आया. इस लेख को पढ़कर कुछ कुछ याद आया. टी. वी. पर देखा हुआ ही शायद. बचपन पूरा गाँव में ही गुजरा था,
    अभी तो सब जैसे दूसरे ग्रह का लगता है, पर एक बात जो बहुत दिन से मन में दबी थी, इस लेख ने जैसे परत दर परत उधेड़ दी हो. पुराने सूखे कुँए में बया के घोसले, या फिर गन्ने के खेत के बीच में नीलगाय के झुण्ड, काई से ढके तालाब में सिंघाड़े की खेती या फिर चप्पल से काटे गए गोल गोल टुकड़ों से बनी गाड़ी, ये सब तो बड़ी जमीनी चीजें हैं गाँव की. (उत्तर प्रदेश में कानपुर के आस पास के गाँव में मैंने यही सब देखा है, और कहीं पे कुछ अलग भी हो सकता है.) यही सब बातें टी. वी. पर कहाँ दिखती हैं, टी. वी. के गाँव के लोग तो अवधी भी नहीं बोलते.
    फिर और जटिल बातों के बारे में क्या बोला जाए. ठाकुर और नाई के बीच की अनबन, खेत की मेड़ काटकर पानी लगाने पर हुई लड़ाई, बँटाई के किसानों के बीच की उठापटक, शंकर जी मंदिर में डोमार के घुस जाने पर बवाल, एक भाई की भैंस दूसरे भाई की भैंस से ज्यादा दूध दे तो मतभेद. पडोसी का लड़का आम के पेड़ से आम तोड़ ले जाए तो कहासुनी, …….असली गाँव कहाँ दिखाई देता है इस बीस- बाईस इंच के डब्बे में.
    बहुत दिन हो गए टी.वी. भी नहीं देखा है, पता नहीं अब क्या दिखाते होंगे???? या फिर अब गाँव कैसा हो गया होगा???

  2. Ek samay tha jab mai bhi kavitaye likhta tha. Apki web site pratilipi.in se ne mujhe fir se likhne ko majboor kar diya hai. Haan mai utna achha nahi likhta jitne proffessional lekhak aur kavi likhta hain. Par mai aaj tak sirf 2 cheejo se likhne ke liye prerit hua hoon. 1st to “MADHU SANCHAY PAKSHIK” patrika se aur 2nd “pratilipi.in” se. Pratilipi ke liye shubhkamnaye.

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