आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

गाँव में पिता बहादुर शाह ज़फ़र थे: उमा शंकर चौधरी

वह मेरे गाँव की आखिरी असफल क्रांति थी
जिसमें मेरे पिता की मौत हुई
इसे आप मौत कहें या एक दर्दनाक हत्या.

मृत पिता का चेहरा आज भी
मेरी आंखों में जस-का-तस बसा है
वही पथरायी आंखें
वही सफेद चेहरा
चेहरे पर खून का कोई धब्बा नहीं है
किसी अंग की विकृति के कोई निशान नहीं
मेरी आंखों में मक्खियां भिनभिनाता
पिता का चेहरा आज भी ठीक उसी तरह दर्ज है.

मेरा गाँव , जहाँ थाना नहीं
सड़क नहीं, कोई अस्पताल नहीं, कोई सरकारी दफ्तर नहीं
वहाँ एक क्रांति हुई
सोचना बहुत अजीब लगता है
लेकिन वह भीड़, वह हुजूम, वह जनसैलाब
आज सोचता हूँ तो लगता है कितना सुकून मिला होगा
पिता को आखिरी सांस लेने में

मेरे गाँव में अस्पताल नहीं था और लोग जीवित थे
पूरे गाँव में एक धनीराम ही था
जो सुई देता था
चाहे वह गाय-भैंस-बकरी हों या आदमी
लेकिन उस गाँव में बच्चे पैदा होते थे
और किलकारियां भी भरते थे
यह सब जिस तरह का विरोधाभास है
उसी तरह मेरे पिता भी अजीब थे

मेरे पिता खेतिहर थे और इतिहास के बड़े जानकार थे
मैंने बचपन से ही उनकी खानों में
उनकी जवानी के दिनों की
इतिहास की मोटी-मोटी किताबों को देखा था
पिता सुबह-सुबह हनुमान चालीसा पढ़ते
और मैं गोद में ऊंघता रहता था
रात में पिता इतिहास के गोते लगाते और
हम सब भाई-बहन पिता के साथ
१८५७ की क्रांति की तफ्तीश करने निकल जाते
और फिर उस क्रांति की असफलता का अवसाद
इन वर्षों को लांघ कर
पिता के चेहरे पर उतर आता
पिता गमगीन हो जाते
और पिता की आंखों से आंसू झरने लगते थे

उस गाँव में हवाएं तेज थीं
लेकिन जिन्दगी बहुत ठहरी हुई थी
गाँव में बिजली नहीं थी और मैं
पिता को अपने कान में फिलिप्स का रेडियो लगाये
हर रोज देखा करता था
उस रेडियो पर पिता ने चमड़े का एक कवर चढ़ा रखा था
जिसे वे बंडी कहते थे

उसी रेडियो पर पिता ने
इंदिरा गांधी की हत्या की खबर सुनी थी
उसी रेडियो पर पिता ने
राजीव गांधी की हत्या की भी खबर सुनी थी
आज पिता जीवित होते तो देश से जुड़ने का सहारा
आज भी उनके पास रेडियो ही होता
वह रेडियो आज भी हमारे पास है
और आज भी घुप्प अंधेरे में बैठकर हम
उसी रेडियो के सहारे
इस दुनिया को भेदने की कोशिश करते हैं

पिता के साथ मैं खेत जाता
और वहाँ मेरा कई देशी उपचारों से साबका पड़ता
पिता का पैर कटता और मिट्टी से उसे ठीक होते मैंने देखा था
गहरे से गहरे घाव को मैंने वहाँ
घास की कुछ खास प्रजाति के रस की चंद बूंदों से ठीक होते देखा था
दूब का हरा रस टह-टह लाल घाव को कुछ ही दिनों में
ऐसे गायब कर देता जैसे कुछ हुआ ही नहीं था

वह हमारा गाँव ही था जहाँ
बच्चों के जन्म के बाद उसकी नली
हसुए को गर्म कर उससे काटी जाती थी

पिता जब तक जीवित रहे माँ बच्चा जनती रही
माँ ने ग्यारह बच्चे पैदा किए थे
जिनमें हम तीन जीवित थे
आठ बच्चों को पिता ने अपने हाथों से दफनाया था
और पिता क्या उस गाँव का कौन ऐसा आदमी था
जिसने अपने हाथों से
अपने बच्चों को दफनाया नहीं था.

हमारा गाँव कोसी नदी से घिरा था
और पिता के दुख का सबसे बड़ा कारण भी यही था
पिता १८५७ की जिस क्रांति के असफल होने पर
जार-जार आंसू बहाते थे
उन्हीं आंसुओं से उस गाँव में हर साल बाढ़ आती थी
कोसी नदी का प्रलय हमने करीब से देखा था
उस नदी के सहारे आये विषैले सांप
पानी के लौटते-लौटते दो-तीन लोगों को तो
अपने साथ ले ही जाते थे हर साल.

वह कोसी नदी मेरे पिता को
अपनी खेत पर मेहनत करने से रोकती थी
एक फसल कटने के बाद मेरे पिता
बस उस खेत पर कोसी नदी के मटमैले पानी का इंतजार करते थे
पिता अपनी खेत की आड़ पर बैठे रहते थे
और कोसी नदी का पानी
धीरे-धीरे उनकी ओर बढ़ता था
पहले एक पतली धार से पानी धीरे-धीरे घुसता था
और फिर एक दहाड़ के साथ.

उसी कोसी नदी के किनारे जो जगह थी
और जहाँ बहुत दिनों तक सूखा रहता था
मेरे पिता ने अपने आठों बच्चों को वहीं दफनाया था
और पिता ही क्या गाँव के हर आदमी ने अपने बच्चों को
वहीं दफनाया था
कहते थे अंधेरी रात में वहाँ एक औरत दिखती थी
एकदम ममतामयी
एक-एक कब्र से बच्चों को निकालकर दूध पिलानेवाली
अपनी पायलों की रुनझुन रुनझुन की आवाज़ के साथ

हमारे गाँव के सारे बच्चे तब तक
उस कब्र में सोते रहते थे और उस ममतामयी माँ के
आंचल से दूध पीते रहते थे
जब तक कोसी नदी अपने साथ उन बच्चों को
वापस नहीं ले जाती थी
कोसी नदी की बाढ़
उस जगह को खाली करती
और फिर कुदाल चलाने पर वहाँ कभी भी
बच्चे की खच्च से कटने की आवाज़ नहीं आती.

मेरे पिता जो इतिहास के जानकार थे
और जिनकी आंखों से १८५७ की असफल क्रांति को याद कर
झरते थे झर-झर आंसू
इस ठेठ गाँव में चाहते थे एक क्रांति
ठाकुर रणविजय सिंह के खिलाफ
जिनके नाम से इस कोसी नदी के विनाश को रोकने के लिए
बहुत पहले निकला था टेंडर
जिनके नाम से सरकारी खजाने से निकला था
सरकारी अस्पताल बनने का पैसा.

वह खुला मैदान हटिया की जगह थी
जहाँ मेरे पिता हर बृहस्पतिवार को तरकारी के नाम पर
खरीदा करते थे झींगा और रमतोरई
लेकिन पिता ने तब कभी सोचा नहीं था कि
ठीक उसी जगह पर एक दिन गिरेगी उनकी लाश
उनकी वह पथरायी लाश जो मुझे आज भी याद है
जस की तस.

पिता उस हटिया में हर गुरूवार को सब्जी खरीदते थे
और अन्य दिनों लोगों को करते थे इकट्ठा
वे कहते थे हमारी हल्की आवाज़
एक दिन गूंज में तब्दील हो जायेगी
पिता कहते थे, उस विषैले सांप के डसने से पहले
हमें ही खूंखार बनना होगा
उसी हटिया वाले मैदान के बगल वाले कुंए की जगत पर बैठकर
पिता हुंकार भरते थे
पिता का चेहरा लाल हो जाता था
और उनकी लाली से उस कुंए का पानी भी लाल हो जाता था
पिता कहते थे हमें कम से कम जिंदा रहने का हक तो है ही
तब कुंए का पानी भी उनके साथ होता था
और वह भी उनकी आवाज़ में अपनी आवाज़ मिलाकर
बाहर फेंकता था
पहली बार जब पिता नहीं जानते थे
तब इस दूसरी आवाज़ पर अन्य लोगों के साथ
पिता भी चौंके थे.

पिता की हिम्मत बढ़ती गई थी
उनके साथ कुछ आवाजें थीं
कुछ इच्छाएं और कुंए के पानी का साथ
तब पिता बहादुर शाह ज़फ़र बन गए थे
एक क्रांति का अगुवा
लेकिन पिता बहादुर शाह ज़फ़र जितने बूढ़े नहीं थे
न ही बहादुर शाह ज़फ़र के जैसी उनकी दाढ़ी ही थी.

जिस दिन पिता अपनी सेना के साथ
ठाकुर रणविजय सिंह की हवेली पर
अपने सवाल का उत्तर माँगने जाने वाले थे उसी दिन
पुलिस आयी थी
हमने पहली बार उसी दिन अपनी आंखों के सामने
नंगी पिस्तौल उस दारोगा के हाथ में देखी थी
वह पिस्तौल एक खाकी रस्सी से
उसकी वर्दी से गुंथी थी
और फिर पिता को गोली दाग दी गयी थी

गोली एक हल्की कर्र की आवाज़ के साथ
पिता के फेफड़े की हड्डी को तोड़कर घुसी होगी
और पिता एक गोली में ही मर गये
उसी हटिया में जहाँ वे तरकारी खरीदते थे
दारोगा की उस एक गोली ने पिता की ही नहीं
उस गाँव की उम्मीदों की भी मार दिया था

पिता का चेहरा विकृत नहीं हुआ था
लेकिन उस पर बहुत देर तक मक्खियां भिनभिनाती रही थीं

हमें पिता की लाश के पास आने नहीं दिया गया था
और फिर उस लाश को कहीं गायब कर दिया गया था

वह दारोगा जो इस गाँव के इतिहास में
सदा याद रखा जायेगा
को यह मालूम नहीं है कि उसने उस दिन मेरे पिता को नहीं
बहादुर शाह ज़फ़र को मार दिया था.

मेरे पिता की लाश का क्या हुआ
कुछ पता नहीं चला
उन्हें जलाया गया, दफनाया गया
कोसी नदी में फेंक दिया गया
या फिर चील कौओं ने उनकी बोटी-बोटी नोच ली
हम घरवालों के साथ-साथ हमारे गाँव वालों को भी कुछ मालूम नहीं है

लेकिन दारोगा की उस गोली के बावजूद
मेरे पिता मर नहीं पाये
मेरे पिता मर नहीं पाये लेकिन इसलिए नहीं कि
उन्होंने गाँव की क्रांति के लिए
इस अनुपजाऊ भूमि पर क्रांति का बिगुल फूंका था
बल्कि इसलिए कि मेरे पिता की मौत ने
सभी के दिलों में एक भयावह डर भर दिया था
सबके कानों में पिता के फेफड़े की हडि्डयों की
कर्र से टूटने की छोटी सी आवाज आज भी जस की तस बजती है

मेरे पिता को मरे वर्षों गुजर गये
लेकिन आज भी सब वैसा ही है
हवाएं तेज हैं लेकिन गाँव ठंडा है
उस हटिया में जब भी तरकारी लेने जाता हूँ तब हर बार
पिता की लाश से टकराता हूँ
हर बार पिता मुझसे कहते हैं
कम से कम तुम अपनी आवाज़ को ऊंचा करो.

मेरे गाँव में आज भी बिजली, अस्पताल, थाना नहीं है
और न ही कोसी नदी की विनाशकारी बाढ़ को रोकने का उपाय है
अब मेरे सहित मेरी उम्र के सभी लोगों के बच्चे
पट-पट कर मरना शुरू हो गये हैं
और फिर वही सब
कोसी नदी के किनारे दफनाने की प्रक्रिया
रात में दूध पिलाने वाली माँ का आना
और बच्चों का उस ममतामयी माँ का इंतजार करना
और फिर वही कोसी नदी का अपने लौटते पानी के साथ
बच्चों को अपने साथ ले जाना

मैं अपने रेडियो पर दुनिया की चमक के बारे में सुनता हूँ
और सोचता हूँ इस बाढ़ के मंजर को सुनना और देखना
कितना आनन्द देता होगा उनको

मैं जिस गाँव में हूँ सचमुच इस दुनिया की चमक के सामने
इस गाँव के बारे में सोचना भी बहुत कठिन है
मैं अभी जिन्दा हूँ
लेकिन मुझे अपने पिता का मृत चेहरा याद है
इसलिए इस गाँव मे कोई क्रांति नहीं होगी.

5 comments
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  1. tharra dene wali taakatwar kavita hai aapki .. bahut badi kranti ko nyotati …hui..

  2. मार्मिकता और इतिहास का अद्भुत सम्मिश्रण है आप की ये कविता ! इसमें कोई नया अथवा अपरिचित शब्द नहीं है लेकिन ये अपने अर्थ को नये तरह से व्यक्त करती है | किसी गाँव में विकास ,क्रांति या प्रगतिशीलता का न होना कोई अनजानी बात नहीं है लेकिन पिता की हत्या हो जाने के बाद भय की अंतर्वस्तु के रूप में उनका स्थायी रूप से अमर होते चले जाना संवेदना के इतिहास में उन्हें एक अलग ही स्थान दे देता है | ठीक बहादुर शाह जफ़र के सामानांतर ! बल्कि एक मायने में उनसे भी आगे क्योंकि वे (पिता) गाँव के अवचेतन में धीरे-धीरे कुछ इस तरह भय के रूप में बैठ रहे थे जैसे समकालीन मास मीडिया का मद्धिम प्रभाव ग्लोबल विलेज पर पड़ता है !
    एक अच्छी कविता के लिए बहुत बहुत बधाई

  3. bahut neek kavita ! badhiyan likhal!

  4. u hav carried the legacy of faniswar nath renu to a next level.aahan ke kavita padh ke kranti labai ke mon karai yai!

  5. excellent poem with a tinge of remoteness in it.’fefre ke haddi ki karr’ bahot dino tak kano me sunai degi.kavita padhai ke baad kranti aanai ke mon karai yai.

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