आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

परछाईं की नाँव: शुभाशीष चक्रवर्ती

नये सिले कपड़े की खुशबू उसके पास से आती है. एक वृद्ध महिला के साथ वह सीढ़ियाँ संभलकर उतरती है. वह जेनेट है, मैं जानता हूँ. उसकी कहानी ‘एनडेन्जर्ड लव’ का अनुवाद मैंने पढ़ा है. कहानी की शुरूआत एक युवक के परिचय से होती है. वह एक छात्र है जो अपनी प्रेम कहानियाँ जेनेट को सुनाता है.

1.

वह हर सुबह फूल चुनते हुए मेरी खिड़की के पास से गुज़रती है. मैं स्वप्न में उसे देखता हूँ. स्वप्न के अंतिम पड़ाव में मैं काली सँकरी सुरंग से गुज़रता हूँ. वह हर रोज़ उस छोर पर मेरा इन्तज़ार करती है. उसका चेहरा और पीछे से आती रोशनी मेरी आँखों का पहला दृश्य बनता है. बहुत मुश्किल होती है समय पर उस तक लौट पाना. मैं वहाँ अचानक उठकर चला आता हूँ. हर रात मुझे वापस लौटने में तकलीफ होती है.

आना ही पड़ता है. उसके पास. कई कारणों में से एक कारण मुझे पता चल पाता है. पूरी रात मेरा मन अनगिनत बिखरे हुए स्वप्न देखता है. स्वप्न स्थायित्व की खोज में एक सुरंग से निकलता है जिसके छोर पर वह खड़ी होती ह. एक झूले पर बैठा मेरा शरीर-एक ओर स्वप्न जिसे मैं ठीक से देख नहीं पाया और दूसरी ओर वह जो मेरे स्वप्न सुनने के इन्तज़ार में वहाँ खड़ी है. बीच का सफ़र काफी सुस्त है. रास्ते पर दूरी चुप-चाप लेटी है. मैं उसकी ओर चल देता हूँ. रुक-रुककर स्वप्न के टुकड़े बटोरता हूँ. उस तक पहुँचते-पहुँचते एक स्वप्न मुझे गढ़ना होता है जिसमें मेरा इन्तज़ार करती है.

वह मुझसे पहले हमारे मिलने की जगह पहुँच गई है. उसके बालों पर ठहरी रोशनी में फूल तैर रहे हैं. वह उन्हें सहेजकर आँचल में रख रही है. अब बचे-खुचे फूल ही बाक़ी रह गये हैं. मैं अभी तक नहीं पहुँच पाया हूँ. वह यूँ ही अपने बालों को छू रही है. वह रास्ते को दूर तक देख रही है. मैं आज नहीं लौट पा रहा हूँ. किनारे लगे दरख़्तों का हरा रास्ते पर बिछ रहा है.

मैं रास्ता भूल गया हूँ. उसके बालों से रोशनी झर रही है. इंतज़ार का आँचल खुल रहा है.समय रास्ते में फैल रहा है. वह मुझे रास्ता बता रही है. मैं स्वप्न में उसके ईशारे याद कर रहा हूँ. वह लौटने को मुड़ रही है.

वह परछाई की नाव पर बैठ गयी है. काले पेड़ की टपकती छाया से गुज़र रही है. नदी नीली पड़ गयी है. पतवार को पकड़े हाथ नीले हो गये हैं. पानी में बहता रेत का भूरा पहाड़ों में चिपक रहा है. पहाड़ धीरे धीरे नदी में बैठ रहा है. टीले का मंदिर पानी की सतह पर आ गया है. वह मंदिर पर पानी उड़ेल रही है. मंदिर धुल गया है. वह उसकी ओट खड़ी है. वह पत्थर की हो गइ है.स्वप्न रुक गया है.

2.

बहुत दिनों बाद एक पहचानी-सी आवाज़ फोन उठाते ही कान के दरवाज़े खटखटाने लगी. ‘क्या थोड़ी देर के लिये मिल सकते हो?’ उसने यही कहा था. उसकी आवाज़ थोड़ा भारीपन ओढ़े थी लेकिन कहने के लहज़े से तुरंत पहचान में आ गई. उसकी शक्ल मैं भूल गया हूँ. जब कभी उसकी याद आती है, एक मानव आकृति उसके नाम को पहने सामने खड़ी हो जाती है. उसके चेहेरे का तीखापन यानी बनावट मुझे याद नहीं है. बस एक साँवला रंग मेरी आँखों मे उतर आता है. और दूसरी चीज़ों को देखकर उस रंग को आँखों में बुहारने लगता है लेकिन आस-पास गुज़़रती कोई भी साँवले रंग की चीज़ उसकी याद मेरी आँखों में छिड़क जाती है. मैं आँखों को थोड़ी देर ढंक लेता हूँ. सूरज को एक-टक देखता हूँ. धीरे-धीरे आँखों के सफेद हिस्से पर तैरता सांवला रंग भाप में बैठकर कहीं आस-पास छिप जाता है. (वह) मुझे डराता है, मेरी ओर दीवारों के फाँक से झाँकता है, मुझ पर हँसता है और मैं सूरज ढूँढने लगता हूँ.

कई घंटे बीत गए हैं.  घड़ी की सुई अपनी परिधि में अलग अलग शक्ल बना रही है.  समय धीरे धीरे सरक रहा है. ट्यूब की रोशनी दीवारों को छूकर  मेरे सामने खड़ी है. बाहर का अँधेरा मुझे ताक रहा है. मैं रात के सो जाने का इंतज़ार कर रहा हूँ. दरवाज़े और खिड़की के पर्दे एक दूसरे का स्पर्श कर रहे हैं. बस यही आवाज़ पंखे के साथ घुलकर कमरे में फैल रही है. घोंसले में पक्षियों की सुगबुगाहट मैं महसूस कर रहा हूँ. उनके पर तिनकों से टकरा रहे हैं. सुबह होने का अंदेशा हो रहा है. एक ही वाक्य दीवारों पर सांप की तरह रेंग रहा है. वह गोल गोल घूम रहा है. मेरी आँखें एक-टक उसका पीछा कर रही हैं. हर शब्द अपना नाम पुकार रहा है. वर्णों को जोड़कर अपनी शक्ल को आवाज़ में बदल रहा है. शब्द आँखों के रास्ते कान में प्रवेश कर रहे हैं – ‘क्या थोड़ी देर के लिए मिल सकते हो?’ मैं ‘हाँ’, हाँ” चिल्ला रहा हूँ. शायद उसे सुनाई नहीं पड़ रहा है. वह फिर से उसी वाक्य को थोडा हिला डुला कर बोल रहा है. मैं तेजी से सर हिला कर ‘हाँ’ वाली शक्ल के शब्द आस पास बिखेर रहा हूँ. (ताकि शब्दों के साथ इशारे के लेप से वह समझ सके.)

लेकिन कहाँ, मैं धीरे से बुद-बुदा रहा हूँ.

पी.एस.आर…..

कहाँ….?

वही पार्थ सार्थी रॉक, जो बड़ी झील के पास है.

ठीक है, लेकिन कब…..

सूर्योदय के वक्त….

रात पंजों के सहारे बिना आवाज़ किए चली जा रही है. सूरज धीरे-धीरे घरों की ईंट- ईंट चढ़ रहा है. मस्जिद का गुम्बद हवा में लटक रहा है. उसके खम्भों पर अभी भी अन्धेरा चिपका है. मैं तेज़ क़दमों से उससे मिलने जा रहा हूँ. उसी पहचानी सड़क पर दौड़ने के अन्दाज़ में चल रहा हूँ. किनारे पर लगे बड़े-बड़े विज्ञापन ‘क्यों’, ‘कहाँ’, जैसे कई प्रश्न पूछ रहे हैं. सड़क को छोड़कर हरियाली के बीच मिट्टी की सँकरी साफ़ दिखाई देती रेखाओं पर दौड़ रहा हूँ. पत्थर ओर पेड़ चुप-चाप खड़े हैं. उनकी ख़ामोशी मेरी साँसों की आवाज़ सोख रही है. पक्षी घोंसले से निकलकर पेड़ की शाखाओं पर आ गये हैं. वे फुदक रहे हैं. उसमें से कुछ आँखें मूँदे सूर्योदय के इन्तज़ार में मन्त्रोच्चारण कर रहे हैं. घोंसले में बचे-खुचे साथियों को जगा रहे हैं. मोर नाच रहे हैं. लोग कबूतरों को दाने खिला रहे हैं. कोई टहलते हुए बच्चों को एक-दो-तीन की गिनती सिखा रहा है. मैं उसकी ओर भाग रहा हूँ. मैं पहुँच गया हूँ लेकिन वहाँ कोई भी नहीं है. आँखों में कुछ पुरानी तस्वीरें ठहरी हैं. कुछ चॉकलेट के रैपर्स, कुछ टूटे बाल और किसी की दो तीन बारिशों में धुल चुकी तस्वीर मेरे पैरों के पास पड़ी है. समय का कोई हिस्सा अब भी ठहरा हुआ है. बाक़ी का समय आगे बढ़ रहा है. घबराहट, हँसी, चुप्पी, अवसाद और बेबसी –  दृष्टि के एक हिस्से में बुत बने खड़े हैं. तितलियों की गिरती रंगों की छाया से वे थोड़ी देर चमकते हैं और फिर अपने ही मौन रंग में डूब जाते हैं. मैं उसकी बेबसी के पास जाता हूँ. अब उसमें जीवन नहीं है, वह मर चुकी है. चुप-चाप है लेकिन बेबस नहीं है. घबराहट, अब बैचेन नहीं है, वह तेज़ साँसे नहीं लेती. कोई आवाज़ नहीं है. चुप्पी और अवसाद कुछ खो जाने का भाव नहीं दिखाते हैं. वे सममतल और बेफ़र्क हैं. अब वह काफी खुश होगी. अब उसका अपना कुछ भी नहीं होगा. समय ने उसे जीना सिखा दिया होगा.

3.

कई कहानियाँ मिलजुल कर इस कहानी को लिख रही हैं. हो सकता है कि यह आखिरी कहानी हो या फिर कुछ दिनों बाद यह कहानी भी पुरानी कहानियों के साथ मिलकर फिर एक आखिरी कहानी लिखेगी.

हवा बह रही है, साल के पत्ते एक दूसरे को छू रहे हैं. कुछ गिर रहे हैं और कुछ गिरने गिरने को हैं. पत्तों की तरह कहानियाँ भी वक़्त के शाख से छूट रही हैं.  कुछ छूटना चाहकर भी छूट नहीं पा रही हैं. उसी शाख पर सूख रही हैं और वही कोई एक बीती कहानी की तरह उम्र भर साथ चल रही हैं.  शायद वही बीती हुई कहानी को भूल जाने की कोशिश में एक नई कहानी जो आखिरी कहानी हो, खुद को पुरानी कहानियों के सहारे स्थापित कर रहीं हैं.

मैं पहाड़ को पूरी तरह नहीं देख पा रहा हूँ .

कुछ  युक्लिप्टस और कुछ जंगली पेड़ बीच में खड़े हैं . ऐसे  ही तुम भी खड़े थे जब एक बार तुमने मुझे पहाड़ के साथ अपनी तस्वीर उतरने को कहा था. तुमने यह भी कहा था कि “तुम्हारा क्या है, तुम एक नई कहानी लिख लोगे . लेकिन  अभी तो यह कहानी पूरी नहीं हुई है –  यह आखिरी कहानी.  कहानी जैसे ही जमने जमने को होती है तुम आकर उसे छू देती हो और धीरे से कहती हो ” जिसे जमना होता है वह जम ही जाता है.”

मुझे बचपन के वे दिन याद आने लगते हैं जब हम आईसट्रे में आईस जमाया करते थे और उसके पूरी तरह जम जाने के पहले ही छू छू कर देखते थे.

बर्फ में ऊँगली धस जाती थी . मैं चौंककर तुम्हे देखने लगता हूँ.

तुम हंसकर कहती हो ” जयादा दिमाग मत लगाया करो, जिसे जमना होता है वह जम ही जाता है.”

तुम पानी पर बिछे पत्तों पर संभल कर चल रहे हो. मैं तुम्हारे चलने की आवाज़ सुन रहा हूँ. मैं इस आवाज़ में लिपटे पानी के घेरे में तुम्हारी धुंधलाती प्रतिबिम्ब को ठीक से देखने की कोशिश कर रहा हूँ.

पानी की अस्थिरता में मेरी आँखें तैर  रही हैं. मैं तुम्हे एक टक देख नहीं पा रहा हूँ . तुम दिखती हो और फिर खो जाती हो . आँखें स्थिर तुम्हे ढूँढ रही हैं . आँखें बंद हो रही हैं.  मैं अँधेरे से घिर रहा हूँ. तुम्हें  ढूँढ रहा हूँ . तुम अँधेरे को ओढ़े कांप रही हो . मैं अँधेरे से तुम्हें देख रहा हूँ.  सिर्फ तुम्हारी आँखें दिखाई दे रही हैं . आँखों से पानी गिर रहा है .

नदी के बीच से सूरज निकलता हुआ दिखाई पड़ रहा है . तुम किनारे पर धीरे धीरे चल रही हो . तुम किसी नई भाषा में बातें कर रही हो. मैं तुम्हारी बातें नहीं समझ पा रहा हूँ. मैं तुम्हे अपनी कहानियाँ सुना रहा हूँ . शायद तुम भी कुछ नहीं समझ पा रही हो. तुम एक-टक जमीन को ताक रही हो . तुम तुम नहीं लग रही हो. तुम फिर से अँधेरे की ओर बढ़ रही हो . अस्थिरता भी अँधेरे में कहीं खो रहा है . स्तब्ध ताकता आकाश का प्रतिविम्ब तुम्हारे साथ घुलकर कहीं खो रहा है.

One comment
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  1. kamaal ka likha hai… samajh nahi aata hai ki main koi ‘painting’ dekh raha hoon ya koi kavita padh raha hoon… vaqai.. kriti ki sabhi kalayein ek hoti si maloom padti hain..

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