रामपाली: प्रभात
राजस्थान के अजमेर जिले में, केकड़ी तहसील हैडक्वाटर से, छह किलोमीटर की दूरी पर स्थित है गाँव-रामपाली. केकड़ी से रामपाली आते हुए सड़क के दोनों ओर जहाँ तक निगाह पहुंच रही थी, सूखे काले खेतों के सिवा कुछ भी नहीं दिखाई दे रहा था. कहीं-कहीं जूली-फ्लोरा की झाड़ियां जरूर दिखाईं दी. ये झाड़ियां चूल्हे के ईंधन के सिवा किसी काम की नहीं. एक-दो जगह नील गायें दिखीं. एक सूखे खेजड़े के नीचे एक लोमड़ी कुछ तलाश करती चक्कर काटती दिखाई दी.
बारह साल पहले भी एकबार मैं इस इलाके में आ चुका हूँ . उस समय सूपा गाँव में कुछ बच्चों को मैंने जानवर के कंकाल से खेलते हुए देखा था. दो बच्चे उस कंकाल में बैठे थे, बाकी उसे खींच रहे थे. इस तरह वे गाड़ी में मौजी खाने का खेल रहे थे.
बारह साल बाद एक बार फिर मैं इधर रामपाली गाँव में घूम रहा था. एक घर के आगे दो औरतें अनाज बरसा रही थीं. वहीं एक एक-डेढ़ साल का बच्चा बकरी के बच्चे के साथ खेल रहा था. स्कूल से बंक मार कर आए तीन-चार बच्चे कंचे खेल रहे थे. अधेड़ अवस्था के एक सज्जन गोकुल जी बैठे हुए थे, मेरे साथी रमेश जी उनसे बातें करने लगे तो और लोग भी वहाँ आ बैठे. बातें चल निकली. कहने लगे गोकुल जी कि, ‘गार नाकबा जावां आखो दिन. छोरो काम पर जावै पावर हाउस पर. और तो फरतां फरां-पाणी भरल्यां. बड़ीतो ले आवां. पांच-दस मिन्ट बातां हो जाय.’ (कि दिन भर तो नरेगा में मिट्टी ढोते हैं. लड़का है वो पावरहाउस पर काम करने जाता है. बाकी तो फिरते हैं गाव में इधर-उधर. पानी भर लाते हैं. ईंधन ले आते हैं. लोगों से गपशप कर लेते हैं.) यहाँ जिससे भी बात की उसने यही जवाब दिया. उधर एक घर में लड़की मैना भी यही बता रही थी, ‘आखो दिन हूती री हूँ . झाड़ू निकाड़ा, बरतन माजां, गाया-भास्यां नै पाणी पावां. बुहारो-चूलौ लगावां. सब्जी-रोटी बणांवां. रोजगार गारंटी में जावां. चारौ-कूड़ौ नाकां.’ मैना से बातचीत में पता चला कि तेरह-चौदह साल का उनका इकलौता भाई ट्रक में चारा भरवाने के काम पर लगा है. गाड़ी के साथ-साथ चलता है. कई-कई दिनों में घर वापस आता है. यहाँ इस उम्र के बच्चों की मैना के भाई जैसी ही हालत है. कहीं न कहीं काम पर जाते हैं.
रामपाली में 175 परविार हैं और 1800 के आसपास जनसंख्या है. पूरे गाँव में से कुल दस लोग सरकारी नौकरी में है – मास्टर,पंचायत सविच, पुलिस आदि. गाँव में बैरवा गूजर,राजपूत, बनिया, ब्राह्मण, बागरिया आदि जातियां हैं. घर कच्चे हैं. मिट्टी और गोबर के बने हैं. छतें केलू की हैं. घरों के मुख्य द्वार बहुत बड़े हैं. उन पर वैसे ही बड़े लकड़ी के दरवाजे हैं. हर कोई वैसे दरवाजे नहीं बनवा पाते तो कुछ लोगों ने बांस की खपच्चियों के बड़े फाटक बनाए हुए हैं. इस दरवाजे से घुसते ही सबसे पहले पोरी (चारों ओर से बरामदे नुमा गलियारा) आती है. उसके आगे लम्बी-चौड़ी बाखड़ चारों ओर ऊँची दीवारें और ऊपर खुला आकाश. बाखड़ में ही मुर्गियां का दड़बा और बकरियों की गुवाड़ी. उठने-बैठने के लिए चारपाईयां, चूल्हे का ईंधन, कपड़े सुखाने के लिए खिंचा हुआ तार आदि होते हैं. बाखड़ से आगे कमरेनुमा कच्चे कोठार, रसोईघर आदि बने होते हैं. मिट्टी की कच्ची दीवारों में बांस की खपच्चियों की खिड़कियां.
कई घरों की बाखड़ में हमने देखा की बीच बाखड़ में एक ऊँचा बांस या डण्डा गाड़ा हुआ है. और उस पर साईकिल की रिंग लगाई हुई है. हमें लगा कि यह टीवी ऐंटेना के लिए किया गया लोक-आविष्कार है. पूछने पर पता चला कि यह मुर्गे-मुर्गियों के बैठने के लिए है. मुर्गे-मुर्गियों को इस पर बैठना अच्छा लगता है.
आमतौर पर एक परिवार का एक महीने में कितने में खर्च चल जाता होगा ? पूछने पर गोकुल जी ने बताया कि ‘एक परिवार में महीने में दो हजार रूपैये तो खर्च हो ही जाते हैं. बाकी तो ‘ज्यांनी उपत है, ज्यानीं खुपत होणा.’
नरेगा नहीं होता तब क्या करते हो ?
‘बरसात हो जाती है तो मूंग, उड़द, मक्की, ज्वार-बाजरा वगैरह करते हैं. कुंओं में पानी हो तो चड़स हांक लेते हैं सर्दियों में गेहूँ सरसों कर लेते हैं. रोजड़ा से रखवाली करते हैं फसल की.’
पर अभी तो न खेतों में कुछ है, न कुंओं में पानी ?
बाहर काम करने जाते हैं. चुनायी-भाटा का काम. मार्बल-बिछाने का, घिसाई का काम. कोटा साइड में गेहूँ काटने जाते हैं. वहाँ महीने-दो महीने रहते हैं. खेतों में ही रहते हैं. खेतों में डगड़ का चूल्हा बनाकर उस पर खाना पकाते हैं. गूदड़ा तो माथे पर और पीपो हाथ में. एक आदमी दो-दो बोरी ले आता है. छह महीना कढ़ जाता है. छह महीने बाजरा खाते हैं, छह महीने गेहूँ खाते हैं.
खेतों में मूंग, चौड़ा, ककड़ी काचरा, ग्वार फली हो जाती है तो इकट्ठा करके खाते हैं. बाकी के दिनों में बेसन,छाछ, मिर्ची के गट्टे बनाकर खा लेते हैं. और तो ये गाय, भेड़ बकरी हैं. बकरे बेच देते हैं. पाव डेढ़ पाव दूघ हो जाता है तो चाय बना लेते हैं.
आपकी उम्र पिचहत्तर-छियत्तर के आसपास है और दिनभर नेरगा में मिट्टी ढोना …?
कल दिन भर मिट्टी पटकी. आज सुबह उठा ही नहीं गया. नरेगा नहीं होता तो गाँव के गाँव खाली हो जाते.
कहाँ जाते हैं ?
शहरों में मजदूरी करने जाते ही हैं. सड़क पर काम करते हैं. बोरी पल्ली की झुग्गी -झूंपड़ी बना लेते हैं. उनमें रह लेते हैं. कुछ लोग छोटी-छोटी गुमटी बना देते हैं. उनमें सौ रूपैये किराये में रह लेते हैं.
गाँव छोड़कर छह-छह महीनों के लिए निकल जाते हो तो बच्चों की पढ़ाई …?
पढ़ाई छूट जाय. टाबरां नै ऐकला कळै छोड़ां. पाछै-पाछै रोता-खेलता फरै आखो दन. छोटक्या न राख ले.
यहाँ से लौटते हुए रास्तें के एक ओर दखणी बबूल की छाया में एक लड़की काम करते हुए एक कारीगर दिखाई दिए. बबूल के नीचे खाट बिछी थी. हम उस पर बैठे गए. कारीगर से बातें करने लगे. उस समय वह खाट का एक पैर बनाने में लगे हुए थे. काम करते जा रहे थे और हमसे बातें भी करते जा रहे थे. बताने लगे कि माचा, माख, हल, कुड़ी बैलगाड़ी वगैहरा का काम आ जाता है तो बनाते हैं. बदले में अनाज मिलता है जिससे रोटी का जुगाड़ होता है. एक हल बनाने के अस्सी रूपैये तक मिल जाते हैं. बैलगाड़ी बनाने का काम आए तो तीन से पांच हजार तक मिलते हैं. उसे बनाने में तीन से पांच महीने लग जाते हैं. और अब तो साल-दो साल में भी मुश्किल से ही कोई बैलगाड़ी बनवाता है.
जब यह पूछा कि साल भर में कुल कितनी आमदनी हो जाती है तो बताया कि ‘काम आ जावै तो हो जावै. दस-पांच हजार की.’’ फिर सूनी-सूनी आंखों से हमारे चेहरे को कुछ देर ताकने के बाद बोले-‘अभी तो एक महीना में एक फाटक बणायी. चार महीना में दो महीना ही काम आवै. गए चार महीने में दो सौ अस्सी रूपैये का ही काम आया. अब मेरी उमर पचास साल हो गई है. चालीस साल से काम कर रहा हूँ . दस साल का था तब से ही शुरू कर दिया था.
जानवरों के कंकाल से खेलते बच्चे, कच्ची उम्र में ट्रकों में चारा ढोते किशोर, शहरों में सड़कों के किनारे बोरी-पल्ली की झुग्गियों में रोते-फिरते बच्चे, गाँव में कारीगर के चार महीने के काम में दो सौ अस्सी रूपैये की आमदनी, छियत्तर बरस की उम्र में दिन भर मिटटी ढोने के बाद सुबह मुश्किल से उठ सकने वाले वृद्ध, सब्जी के लिए बारिश की बूंदों का इंतजार करती स्त्रियां, जिधर नजर डालो उधर यातना के सिवा कुछ भी नहीं दिखाई देता हो यहाँ. लगभग ऐसा ही है हमारे हमारे दूर देहात के तमाम गांवों का दृश्य, ऐसा ही उजाड़, बंजर, सुनसान वीरान, जीवन रामपाली गाँव के जैसा.
Mr. Prabhat’s passage through the village of Rampali made an eyecatching read. It was revealing to learn the degeneration of India’s real lap called village. Once what the cradle of knowledge, civilization and prosperity is fast turning into an extended shadow of urban slum. Something needs must be done for revival of village’s glory.
Shiv Charan Singh, Ranchi, Jharkhand (09955847993)