आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

नोबडीज़ डिट्रॉइट: फिलिप लवीन

मैंने डिट्रॉइट 1954 में छोड़ा था. तब मैं छब्बीस साल का था और मैंने अंग्रेज़ी में बीए कर रखा था. मैंने वह नौकरी छोड़ी जो मुझे पसंद थी, हर साइज़ की इलेक्ट्रिक मोटरें सुधारने वाली एक कम्पनी के लिए “ट्रक चलाना” – जैसा कि उन दिनों कहा जाता. वह नौकरी मुझे ताज़ा  हवा में ले जाती बशर्ते कारखानों वाले किसी क़स्बे की आबोहवा को ताज़ा माना जाए. मुझे मशीनरी की छोटी-छोटी दुकानों, कल-पुर्जे बनाने वालों, टूल-एंड-डाई वालों के यहाँ जाना पड़ता जो हमारे ग्राहक हुआ करते. और  दिन ख़राब हुआ तो जाना पड़ता बदसलूकी और बदसूरती के साम्राज्य यानी फोर्ड रिवर रोग, जो उस समय दुनिया का सबसे बड़ा औद्योगिक काम्प्लेक्स हुआ करता था.

अट्ठाईस सालों बाद  वेन यूनिवर्सिटी (जो कालांतर में वेन स्टेट यूनिवर्सिटी बन गई थी) में मेरे प्रिय अंग्रेज़ी के प्रोफ़ेसर के सेवानिवृत्ति  समारोह में बोलने के लिए मुझे आमंत्रित किया गया. मुझे सरप्राइज़ गेस्ट होना था- कार्यक्रम की महत्त्वपूर्ण हस्ती. बॉस्टन से, जहाँ मैं उस वक़्त रह रहा था, मुख़्तसर-सी फ्लाईट थी और लैंड करते ही मैंने अपने लिए नियुक्त ड्राइवर को खोजा. मेरे नाम की तख्ती हाथों में लिए एक आकर्षक युवती खड़ी थी. ना! वह मुझे शहर में ले जाने के लिए नहीं थी; वह डेल्टा एयर लाइंस से थी और मेरे लिए उसके पास था एक बंद लिफ़ाफ़ा. लिफ़ाफ़े में अंग्रेज़ी विभाग के अध्यक्ष का मेरे नाम पत्र था जिसमें बस द्वारा शहर पहुँचने के निर्देश थे और  दोपहर में आयोजित सम्मान समारोह के लिए कहाँ पहुँचना है यह बताने के लिए एक बहुत बुरे ढंग से बनाया गया नक्शा भी था. चूँकि मेरे अध्यापक जे को मेरे आने की ज़रा भी भनक न थी मेरा इरादा समारोह के भोज को छोड़ने का और वहाँ सबसे अंतिम संभव क्षण पहुँचकर, अपना भाषण देकर, एक कविता पढ़कर, मेरे पुराने गुरु को गले लगाकर रफूचक्कर हो जाने का था. उम्मीद थी कि निर्णायक क्षण तक मेरी अनुपस्थिति से अध्यक्ष महोदय को अधिक से अधिक उत्कंठा प्राप्त हो जाएगी.

बिताने के लिए मेरे पास चंद घंटों का वक़्त था. शहर के पश्चिमी तरफ से प्रवेश कर मैं बेसबाल स्टेडियम के पास बस से उतरा. बदकिस्मती यह कि बेसबाल सीज़न ख़त्म को चुका था और उस साल डिट्रॉइट टाइगर्स के लिए कोई पोस्ट-सीज़न भी न था. स्टेडियम के दक्षिण में आधा मील दूर स्थित एक प्लम्बिंग पार्ट्स बनाने वाली फैक्ट्री,जहाँ मैंने साल भर काम किया था, अब वहाँ नहीं थी. उस जगह अब सिर्फ झाड़ियों, घास-फूस से भरी ज़मीन थी जहाँ तीन खटारा कारें खड़ी थीं जिनके टायर नदारद थे. मैं दक्षिण की तरफ  कुछ और बढ़ा, नदी की ओर, और एक बड़े से बाड़-लगे बगीचे को पाकर ताज्जुब हुआ – टमाटर, मक्का, कुम्हड़ा, और सुन्दर ज़िनिया की कतारें, वह सारी चीज़ें जिन्हें दूसरे विश्व युद्ध के दौरान अपने विक्टरी गार्डन में उगाने का असफल प्रयास मैं कर चुका था. न जाने कहाँ से माली प्रकट हुआ और मुझसे पूछने लगा कि क्या मैं बगीचे को और करीब से देखना चाहूँगा. ऐसा कहते हुए उसने फाटक खोल दिया, जिस पर कोई ताला नहीं लगा था. वह मुझे क्यारियों में ले गया और फसलों के नाम बताते हुए अपने टमाटरों के उम्दा होने की डींगें हाँकने लगा -“इतने अच्छे कि याद दिला देते हैं टमाटरों का स्वाद” – और अंततः मुझे वह जगह दिखाई जो उसने शीत ऋतु की फसल के लिए बचा कर रखी थी. ना, उसके पास नगर पालिका की अनुमति नहीं थी,  नगर पालिका से इन दिनों कोई किसी भी बात के लिए नहीं पूछा करता. किसी वक़्त इस जगह पर एक बढ़िया दुमंजिला मकान हुआ करता था पर अब वह जा चुका था, ऐसे ही उठा और चला गया, और फिर ज़मीन खाली हो गई तो क्यों न उसका उपयोग किया जाए. कुत्तों को दूर रखने के लिए वहाँ बाड़ लगाई गई थी. हम दोनों को स्मरण हुआ कि यह बिलकुल ग्रेट डिप्रेशन के दौर जैसा था, जब मालिकों द्वारा खुले छोड़ दिए गए जंगली कुत्तों के झुण्ड के झुण्ड खाने की तलाश में तबाही मचाते यहाँ-वहाँ भटकते. उसने कहा, “यहाँ जिंदा रहने के लिए हम सब भी तो यही करते हैं.” मौसम के हिसाब से दिन अधिक गर्म हो चला था इसलिए हम सड़क की दूसरी तरफ बने बरामदे की  छाँह में चले गए. मैं नहीं जानता उसने कैसे अनुमान लगाया कि मैं डिट्रॉइट से हूँ, वह यह जानने के लिए उत्सुक था कि मैंने कब यहाँ से गया और लौटकर क्यों आया हूँ.जब मैंने उसे बताया कि मैं यहाँ अपने पुराने अध्यापक के सेवानिवृत्ति समारोह में हिस्सा लेने आया हूँ तो वह क्षण भर के लिए आगे-पीछे हुआ और फिर कहने लगा, “अति सुन्दर, यह तो बिब्लिकल है.” मेरी ज़िन्दगी के कुछ दुर्लभ क्षण हैं जब मुझे पता होता है कि जो मैं जी रहा हूँ वह कविता में है जो मैंने अब तक नहीं लिखी. हम दोनों खामोश बैठे रहे, मैंने उस दृश्य को भरसक अपने अन्दर लिया जब तलक मेरी आँखें देखने से इतनी भर गईं कि मुझे अंततः उन्हें बंद करना पड़ा.

इस गली में सात मकान
अब भी शेष हैं गिने जाने के लिए
और गर तुम गिनो
झोंपड़ियों को  जहाँ पाली जाती हैं अवैध मुर्गियाँ,
कुत्तों के बाड़े को, छोटे से सूअर-बाड़े को तो वह आधी गुफा है…
अगर तुम गिन पाओ उन्हें
तो गिन सकते हो उस कोने में खड़े ऊँचे दरख़्त पर
बने कौवे के घोंसले को, बीच सुबह के उजाले में
ताम्बई लगते उस दरख़्त को तुम उस विशाल जहाज़ का मस्तूल मान सकते हो
जो हम सबको वापिस ले जा रहा है सोलहवीं सदी में
या फिर वर्तमान युग की अंतिम खोज में.

उस सुबह के मेरे गाइड का नाम टॉम था; मैंने उसे ‘जेफ़रसन’ सरनेम दे दिया और उसे ‘अ वॉक विद टॉम जेफ़रसन’ शीर्षक वाली कविता में रख दिया. हमारे शहर के लिए उसकी विज़न का लब्बो-लुआब  सी लगती उसकी एक टिप्पणी को मैंने छोड़ दिया था. टॉम द्वारा उस गली में बचे रह गए सात मकानों को छोड़कर गायब हो गए  अन्य मकानों को गिनवाने जाने के बाद कुछ बेहतर कहने की चाह में मैंने टिप्पणी की, ” कुछ नहीं टिकता सदा के लिए.” उसने अपना झुर्रियों से भरा चेहरा मेरी ओर घुमाया और मेरे निर्णय में संशोधन किया: “कुछ नहीं टिकता.”

मेरे शहर लौटने का न तो वह पहला मौका था और न आखिरी, मगर संभवतः सबसे यादगार था, और मुड़कर देखने पर लगता है कि वह आखिरी मौका था जब मुझे सचमुच वहाँ घर जैसा लगा. और ऐसा निश्चित ही हुआ उस बुढ़ाते काले आदमी के चरित्र के कारण- जो एक रिटायर्ड ऑटोवर्कर था और जिसने लौटने पर मेरा स्वागत किया था. अंग्रेज़ी विभाग के समारोह के लिए चलने से पहले मैंने टॉम से कहा कि किसी और ज़िन्दगी के लिए डिट्रॉइट छोड़ने के लिए कई लोग मुझे भगोड़ा मानते हैं. उसने मुझे ऐसी प्रतिक्रियाओं को नज़रंदाज़ करने की सलाह दी और कहा कि वे  टुच्ची और ईर्ष्याग्रस्त बातें हैं. “सारे स्मार्ट लोग चले गए”, उसने आगे जोड़ा. दीगर वापिसियों और उस लौटने में जो समानता थी वह यह कि परिवर्तन का एक बढ़ता अहसास और परिवर्तन भी बेहतरी के लिए कदाचित ही. कुछ चीज़ों में सुधार हुआ: वेन स्टेट यूनिवर्सिटी एक नयी लाइब्ररी और एक साफ़-सुथरे और विस्तारित कैम्पस के साथ दुनिया में उभरी है, वुडवर्ड अवेन्यू पर कम ट्रैफ़िक था- बेशक वहाँ होने की वजहें भी कम हो गई थीं- फिशर थियेटर की मरम्मत हो गयी थी और मेरी पिछली यात्रा के दौरान वहाँ एक नया बेसबाल स्टेडियम बन गया था. तीन सालों पहले जब मुझे कविता पाठ के लिए बुलाया गया था तब मुझे भरोसा था कि चीज़ें बेहतर हो रही हैं, पर वहाँ पहुँचने पर मेरी आँखों ने कुछ और ही मंज़र दिखाया.

इतालवी कवि ज्युसेप्पी उन्गारेती ने अपने शहर सिकंदरिया  के बारे में लिखा था, ” मेरा शहर क्षण प्रति क्षण अपने आपको विनष्ट करता है, खुद का संहार करता है”. उन्होंने अपना शहर 1912 में छोड़ा था जब वे एक युवा, महत्त्वाकांक्षी लेखक थे पर वे ताउम्र उस शहर को अपने साथ ढोते रहे. उनके लिए तो वह पहले ही एक प्राचीन और मिथकीय शहर था, रेगिस्तान के मध्य उभरा हुआ बंदरगाह जिसकी नींव उसके क्लैसिक नामकरण से काफी पहले रख दी गई थी. दिलचस्प यह कि उनकी कल्पना तक में वह शहर अपने आपको संशोधित करता रहा, और उन्गारेती ने अपनी बाकी ज़िन्दगी अपने बचपन और जवानी को फिर-फिर जिया उस सिकंदरिया में जो किसी उत्कृष्ट और स्वप्नमयी जगह में रूपांतरित हो चुका था.

भुतहा तुम्हारी नींव पर ढहते हुए
मैंने तुम्हे देखा, सिकंदरिया
उजालों के भुतहा आगोश में
मेरे लिए एक याद बनते हुए.

यह पंक्तियाँ उन्होंने लिखी थीं अपने आरंभिक प्रस्थान के बीस वर्षों बाद, अपने घर की संक्षिप्त यात्रा के बाद. तब तक मॉडर्न युग, घर के भूगोल के प्रति उदासीनता के साथ, अपने पूरे जोर पर था. मैं इस बात से विस्मित रहा हूँ कि 1932 में जब वे वापिस लौटे तब भी क्या वे वह शहर देख पाए जो उस वक़्त वहाँ था, या उनकी कल्पना के विज़नरी शहर ने उसे ऐसी तीव्रता से विस्थापित कर दिया था कि सख्त हक़ीक़तों का कोई अर्थ न रहा. अपनी ज़िन्दगी के आखिरी दौर में लिखी एक कविता में वे शहर का दीवानावार और ऐन्द्रजालिक नज़ारा करवाते हैं जैसा कि वह उनकी पैदाइश के दिन था.

मिस्र में सिकंदरिया में उस रात
आई एक आँधी, बरसी जमकर
सफ़ेद घोड़े पर सवारी गांठे  एक बच्चा
और उसके इर्दगिर्द इकट्ठी भीड़ में लोग
नजूमियों के घेरे में सटे खड़े थे….

कविता में अचानक ही प्रकट होती हैं उनकी माँ, एक वास्तविक इंसान, “एक लुकेसी”, कमतर नहीं (उनकी माँ का जन्म लुका में हुआ था); वे हँसती हैं और एक पुरानी देहाती कहावत सुनाती हैं: ” फरवरी में अगर उफनती बहती हैं गलियाँ/भर देती हैं हर घर को धन-धान्य से”. अपनी “भदेस अकलमंदी” के वे टुकड़े माँ फिर सुनाती हैं जिन्हें उनके बेटे ने कभी गंभीरता से नहीं लिया, और दुस्वप्न का तिलिस्म टूट जाता है. यह रूपांतरण किसी जादू या ख़ास टोटके से नहीं  बल्कि आम भाषा की एक आम कहावत से होता है. और अब कवि सृजन के सतत प्रवाह में लौट आया है  या गार्सिया लोर्का के शब्दों में कहें तो- वह “नव सृजित वस्तुओं के अनंतिम बप्तिस्मा” का साक्षी हो गया है.

उन्गारेती ने जब यह पंक्तियाँ लिखी थीं तब वे लगभग मेरी ही उम्र के थे (वे बयासी की उम्र तक जिये); वे फिर कभी सिकंदरिया नहीं लौटे. मगर थोड़ी खुशकिस्मती से, अगर उसे खुशकिस्मती कहा जा सके, मैं फिर डिट्रॉइट लौटूंगा. क्या मिलेगा मुझे? मुझे पता है कि पिन्ग्री स्ट्रीट पर मौजूद वह घर, मेरी प्रारम्भिक स्मृतियों का घर, अब जा चुका है- मतलब अब वह घर नहीं रहा. 1967 के ग्रेट रिबेलियन (जिसे अखबारों ने “दंगों” की संज्ञा दी थी) के चालीस वर्षों बाद शहर पर बनी एक फिल्म में मैंने उस घर को देखा था. सिर्फ ईंटें, ज़ीना और काली पड़ चुकी चिमनी बची थी वहाँ. मैंने फिल्म को जब भी रीप्ले किया, वह (घर) फिर-फिर नज़र आया, किसी श्वेत-श्याम छायाचित्र की तरह. ऐतिहासिक सा बन चुका था वह, सदी की किसी एक लड़ाई में पीछे छूटा हुआ गुमनाम खँडहर, महान चेक कवि मिरोस्लाव होलुब की कविता “फाइव मिनट्स आफ्टर दि एयर रेड” द्वारा अमर हो गए मकान जैसा कुछ.

वह तीसरी मंज़िल पर चढ़ी
सीढ़ियों से ऊपर
जिनके सिवा घर में कुछ न बचा था
उसने खोला दरवाज़ा
एकदम आसमान के मुँह पर
खड़ी रही किनारे पर मुँह बाए
क्योंकि दुनिया ख़त्म होती है जहाँ
यही वह जगह थी.

जनरल मोटर्स के उन दो प्लांट्स में, जहाँ मैंने काम किया था, किसी एक को ढूँढूँ भी तो नहीं पा सकता; दोनों ढहा दिए गए हैं. मेविस न्यू-आइसी बॉटलिंग कंपनी, जहाँ सोलह की उम्र में मैंने एक डॉलर प्रति घंटा कमाया था, जमींदोज कर दी गई और मलबा भी ढोकर हटवा दिया गया. हालांकि माल-धक्के  तक पहुँचने वाली रेल की पटरी अब भी वहाँ थी. डौली बेसिल, जिसे दो महीनों तक मैंने सच्चा प्यार किया था, के घर ने सिक्स-लेन हाइवे को जगह दे दी थी. बचपन के छोटे-छोटे दृश्य जो इतने वर्षों से मैं अम्बर में लिए घूमता रहा मानों अनिवार से बचाने वाले तावीज़ हों वे, वे बिम्ब जो कभी मुझे बताते थे कि  मैं कौन हूँ और अब किसी दूसरे  की या “कोई नहीं” की आत्मकथा का हिस्सा हैं- निश्चित ही वे अब मुझे नहीं मिलेंगे.

*

(दामियानी द्वारा शीघ्र प्रकाश्य एंड्रयू मूर के छायाचित्र-संग्रह ‘डिट्रॉइट डिसअसेम्बल्ड‘ की भूमिका से; प्रथम प्रकाशन हार्पर्स मैगज़ीन के मार्च 2010 अंक में)

(अंग्रेजी से अनुवाद: भारत भूषण तिवारी)

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  1. मैं आज ही अपने पुराने घर से लौटा हूं और वहां जो माता-पिता के न होने से जो उजाड़ पैदा हो गया है वह मुझमें रह रह कर गूंजता है। यह पढ़ा तो अपने घर की पुरानी स्मृतियां मुझे कतई राहत नहीं दे रही, बल्कि वे ऐसी रगड़ मार रही हैं जिसकी जलन बहुत देर तक बनी रहती है।
    यह बहुत ही मार्मिक पीस है। अनुवादक संपादक को बधाई।

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