किसी दूसरे कालखंड में: मिहिर पंड्या
“इस शहर में हर शख़्स परेशान सा क्यूँ है” (1)
“छोटे-छोटे शहरों से
खाली बोर दुपहरों से
हम तो झोला उठाके चले
बारिश कम-कम लगती है
नदिया मद्धम लगती है
हम समन्दर के अन्दर चले
हम चले, हम चले, ओये रामचंद रे…” – गुलज़ार. ’बंटी और बबली’, 2005 (2)
फ़िल्म में भी उनका नाम ’बंटी’ और ’बबली’ नहीं था. एक था फ़ुरसतगंज का राकेश और एक थी पंखीनगर की विम्मी. लेकिन वो दोनों ’बंटी’ और ’बबली’ हो जाना चाहते थे. और इसी ’बंटी’ और ’बबली’ हो जाने की चाहत के चलते उन्हें अपने ’छोटे शहरों’ की ’बारिशें कम-कम लगने लगी’ थीं और ’नदिया मद्धम लगने लगी’ थी. मेरे ही पुश्तैनी शहर से आई मेरी बचपन की क्लासमेट के साथ जब मैं एक दिन दिल्ली के कनॉट प्लेस में घूम रहा था तो उसने मुझे बताया था कि उसे ऐसी भीड़ बहुत पसन्द है जिसमें आपको कोई ना पहचानता हो. जिसमें आपके लिए खो जाना संभव हो.
आगे इस निबंध में बस इन्हीं वजहों की कुछ और तलाशें हैं…
अशोक वाजपेयी को कहते सुना था कहीं… (3) हमारी पीढ़ी कस्बों की पैदाइश है. कस्बे… छोटे-बड़े, नए-पुराने, बहुत सी कहानियाँ अपने में समेटे, सिमटे से बैठे कस्बे. लेकिन आज की पीढ़ी शहरों की पैदाइश है. शहर… जगमगाते, दूर से बुलाते, बने-ठने से. दिल्ली जैसे पसरते-फैलते शहर, मुम्बई जैसे खड़े, एक के बाद एक सीढ़ियाँ चढ़ते शहर. अब कस्बे वहाँ नहीं हैं. वे गायब हो रहे हैं. नक्शों से, फ़िल्मों से, यादों से. वे शर्माते हैं अपने होने पर, दरवाज़े की आड़ में छुपते, कनखियों से देखते. जैसे किसी सरकारी स्कूल में टाटपट्टी पर बैठकर पढ़े बच्चे को आप सीधा किसी ’सेंट ….. स्कूल’ की चलती क्लास के बीच खड़ा कर दें. वह चाहता है कि उसका अस्तित्व किसी अदृश्य शून्य में विलीन हो जाए. वो वहाँ न होकर कहीं और हो, काश वो वहाँ न हो. हमारे कस्बे कुछ-कुछ ऐसे ही हो गए हैं. और यह अहसास आपको वहाँ रहकर नहीं होगा. वहाँ जाकर होगा.
यह कोई जड़ों की ओर की गई यात्रा नहीं थी. वैसे भी कुल-जमा बीस साल कोई उमर भी नहीं जड़े तलाशने की. और फिर अलवर में मेरे बचपन का कोई हिस्सा भी नहीं बीता जिसे मैं सहलाकर याद करूँ. अलवर मेरा ननिहाल है, शायद यह मेरे लिए एक तथ्य से ज़्यादा कुछ नहीं रहा. मेरी माँ अपने माता-पिता की अकेली संतान थीं. मुझे मेरे नाना-नानी याद नहीं. मैं थोड़ा देर से आया था शायद. मैंने मेरे नाना की बड़ी-बड़ी फ्रेम में मढ़ी तस्वीरें देखी हैं जिनमें वे मेरे बड़े भाई को गोद में उठाए हैं, नीचे लिखा है, “पप्पू राजा, नाना का लाड़ला” मैंने सिर्फ़ नाना का घर देखा है और उसमें किन्हीं और लोगों को रहते हुए देखा है. उसे हमेशा किसी ’और के’ घर की तरह देखा है.
इस बार हमारे जाने का एक ख़ास मक़सद था. मेरे ’नाना के घर’ का सौदा तय करना था.
यह मेरी माँ का ही फ़ैसला था कि अब उस मकान को बेच दिया जाए. अब वो घर दीवारों से झड़ रहा है. किराएदारों के जाने के बाद धीरे-धीरे खंडहर होने के इन्तज़ार में. मालूम है कि जो भी खरीदेगा वो ज़मीन ख़रीदेगा, मकान नहीं और सबसे पहले इसे ही गिराएगा. लेकिन मेरी माँ शायद भावनात्मक रूप से मुझसे ज़्यादा मज़बूत हैं. मैं तो आज भी अपने बचपन को अपनी जेब में लिए घूमता हूँ कि जब जी किया निकालकर उसमें घुस गए. मेरा हर लेख न जाने क्यों संस्मरण बन जाता है. लेकिन हमारी माँएं ऐसे मामलों में हमसे ज़्यादा मज़बूत हैं, या शायद बन गई हैं. वे बस इतना चाहती थीं कि हम सब एक बार उस घर को देख लें जहाँ उनके जीवन के शुरुआती अट्ठारह साल बीते.
अलवर दिल्ली-जयपुर राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या आठ से थोड़ा दूर हटकर बसा है. जयपुर से दिल्ली के चमकदार ’चार-गलियों वाले’ रास्ते से बस अचानक एक कस्बाऊ सी सड़क पर उतर जाती है. कुछ दूर चलने पर आता है बैराठ. कहते हैं यही वो विराठनगर है जहाँ पाण्डवों ने अपना अग्यातवास बिताया था. ऐसे महाभारतकालीन अनेक किस्से अलवर के आस-पास के इलाकों, जगहों से जुड़े हैं. अलवर से कुछ ही दूरी पर है पाण्डुपोल जिसके बारे में मशहूर है कि यहाँ भीम ने अपनी गदा मारी थी जिससे झरना बह निकला. यही ’भीम की गदा’ से निकला झरना आजकल अलवरवासियों का पसन्दीदा ’गोठ’ स्थल है. मेरे एक मामा को तो ये जगह इतनी पसन्द है कि वो हर छ: महीने – साल में कोई ’सवामणि’ कर पाण्डुपोल में सारे समुदाय का जीमण कर लेते हैं. यूँ ही विराठनगर भी अब अपने बस स्टैन्ड पर मिलने वाली कुल्फ़ी के लिए ज़्यादा मशहूर है. अब उसे देखकर भरोसा नहीं होता कि यहीं कभी अर्जुन ’वृह्ननला’ का भेस धरकर राजकुमारी उत्तरा को नृत्य सिखाते थे. और उसके चिह्न तलाश करना भी शायद इतिहास में मिथक की मिलावट सरीख़ा कुछ होगा.
सरिस्का वन्य जीव अभ्यारण्य से गुज़रते हुए मुझे याद आया कि पिछले दिनों खबरों में सरिस्का और रणथंबौर बाघ अभ्यारण्य में बाघ नहीं होने की खबरों से बड़ा हो-हल्ला मचा था. फिर कहा गया कि रणथंबौर में तो बाघ हैं लेकिन सरिस्का में नहीं. एक जाँच समिति भी बैठी थी. लेकिन एक बार खबरों से जाने के बाद मुझे पता नहीं आगे क्या हुआ. शायद खबर वालों को भी नहीं पता होगा. वहाँ से गुज़रते हुए कभी-कभी हिरण और बहुत-बहुत बन्दर दिखे.
शायद शहर और कस्बों के दिन उतने जुदा नहीं होते जितनी रातें. जगमगाती, जागती रातोम वाले शहरों के मुकाबले कस्बों की रातें बुझी-बुझी सी होती हैं. रात होने के बाद वहाँ पहुँचना उस फ़ासले का अहसास करवा गया जो दूरी से ज़्यादा समय का है. पिछले कुछ साल में दिल्ली की चकाचौंध करीब से देख चुका मैं जब रात के नौ बजे अलवर के बस-स्टैन्ड उतरा तो अंधेरे का अहसास हुआ. और अगला दिन ये समझाने को था कि यह तो समय ही दूसरा है, A Diffrent Time Zone!
हम सुबह ही घर से निकल गए थे. नाना के घर पहुँचे. एक कमरे में अब भी पुराना सामान बंद है. जालों के बीच अलमारी से पुरानी चिठ्ठियाँ और तस्वीरें निकलीं. पोस्टकार्ड जिनके कोने दीमक खा चुकी थी. एक एक दिन का हाल बयाँ करते पोस्टकार्ड जिनकी शुरुआत आमतौर पर, “आज आपका 26/2 का पत्र मिला” जैसे वाक्यों से हुआ करती. पापा के लिखे ख़त जिनमें मेरे बड़े भाई के पहले जन्मदिन की तैयारियों का उल्लेख था. नाना की डायरी जिसके पन्ने पीले पड़ चुके थे और जिसके पहले पन्ने पर मेरे दादा के घर का पूरा पता लिखा था. शायद उनके लिए सपसे महत्वपूर्ण पता.
पूरे दिन शहर में घूमते हुए मैं देखता रहा. छोटे-छोटे बच्चों की एक दुकान के बाहर भीड़ थी. यहाँ वो 2-2 रु. में अपने पसन्दीदा वीडियो गेम्स ’मारियो’ और ’कॉन्ट्रा’ खेलने खड़े थे. मुझे एक कस्बेनुमा गाँव में मेरे स्कूल के पास की एक ऐसी ही दुकान याद आई. अभी तक यह छोटा सा शहर कम्प्यूटर गेम्स तक नहीं पहुँचा है. मुँशी बाज़ार में रिक्शे पर चढ़ते हुए जब पापा ने मेरा हाथ पकड़ा तो सामने गल्ले पर बैठा दुकानदार पूछ बैठा, “बाबूजी क्या घुटनों में तकलीफ़ रहती है?” और मैंने इस शहर-कस्बा द्वंद्व में एक और सबूत बटोर लिया. बहुत लड़कियाँ दिखीं गाड़ी चलाती, ज़्यादातर वो पैडल से चलने वाली मोपेड, लेकिन उनके चेहरे पर जो उपलब्धि का अहसास था वो मैंने दिल्ली जैसे महानगर में नहीं देखा. एक ही रिक्शेवाला दिन में दूसरी बार टकराया और पैसे की पूछने पर बोला, “क्या बात करते हैं बाबूजी. मैंने पहली बार ही गलती की जो आपको चलने से मना किया. अबकी पैसा नहीं बोथूँगा आपसे. जो आपको ठीक लगे, दे देना.”
(मेरी माँ आज भी उस शहर में बेटी हैं और मेरे पिता आखिर दामाद की हैसियत रखते हैं इस नाते वहाँ!)
सबसे कमाल तो गली-गली में खुले स्कूलों के नाम थे. आरक्षण पर चल रही बहस में यह उभरकर सामने आया है कि वंचित वर्ग के बच्चों के लिए शायद सबसे बड़ी बाधा भाषा बन जाती है. कांचा इलैया से लेकर चंद्रभान प्रसाद तक तमाम दलित चिंतकों ने सभी स्कूलों में अंग्रेज़ी की अनिवार्यता पर ज़ोर दिया है, ख़ासतौर से सरकारी स्कूलों में. उन्हें लगता है कि अंग्रेज़ी न जानना ही वो मुख्य वजह है जो वंचित समुदाय के बच्चों को आगे आ पाने से रोकती है. अंग्रेज़ी दरअसल एक ज़रिया है आज के ’एलीट’ में घुसने का. एक छोटे कस्बे का बाशिंदा, हर माँ-बाप का जोड़ा चाहता है कि उसका बच्चा भी उस सत्तासीन एलीट क्लास में घुस जाए. और यही ख्वाहिशमंद जोड़ा ’टारगेट ऑडियंस’ है उन दर्जनों निजी स्कूलों की जो अलवर की गली-गली में मैंने देखे. और इस ’निशाने पर दर्शक’ को अपना ’उपभोक्ता’ बनाने के लिए स्कूल के नाम से ही ’अंग्रेज़ीयत’ झलकनी चाहिए. गए तिलक और शास्त्री के ज़माने, एक स्कूल का नाम था ’ऐनी बेसेन्ट माध्यमिक विद्यालय’. और एक दूसरा था ’एबेनेज़र पब्लिक स्कूल’. और ये सब संकरी गलियों में, एक-एक, दो-दो कमरे के मकानों में चल रहे थे. लेकिन मुझे आश्चर्य भी क्यों हो, अब तो हम हिन्दुस्तान में दो कमरे के मकान में पूरा विश्वविद्यालय चलते हुए देख चुके हैं.
घूम-फ़िरकर हम वापस मामा के घर पहुँचे. यह नहीं कहूँगा कि मुझे मज़ा नहीं आया. जितने रिश्तेदारों के हम गए, सब मुझे जैसे पहली बार देख रहे थे. वो मेरे अस्तित्व से वाक़िफ़ थे लेकिन, “देखा आज पहली बार है.” मैंने कई बार सुना. रात बिस्तर पर लेटे मुझे अहसास हुआ कि दो-तीन दिन ठीक है लेकिन मैं शायद यहाँ रह नहीं सकता. मैं खुश था कि हम कल वापस जा रहे हैं.
लेकिन अभी इस यात्रा का सबसे महत्वपूर्ण पाठ बाक़ी था. सुबह कुछ ख़ास समझ में आना बाक़ी था.
अगले दिन हम हमारे एक और दूर के मामा से मिलने घर से निकले. ये मामा शहर के नए बसे बाहरी इलाके में रहते हैं. और अचानक… जाने-पहचाने से दृश्य दिखने लगे. सड़कें अचानक चौड़ी और सीधी हो गईं और उनके बीच दिन में जलती रोड-लाइटों वाला वही जाना-पहचाना डिवाइडर आ गया. सड़क के दोनों ओर एम.एन.सी. के जगमगाते बोर्ड दिखने लगे जो आज हर बड़े शहर के बड़े बाज़ार की पहचान हैं. एक फ़्लाईओवर भी नज़र आया जो यूँ तो जोड़ने को बना था लेकिन वहीं से चीज़ें अलग होना शुरु होती थीं. दरअसल मैं पिछले दो दिनों से अलवर के एक ख़ास पुराने हिस्से में घूम रहा था. मुंशी बाज़ार, होप सर्कस, त्रिपोलिया में घूमते हुए ऐसा ही लगता रहा जैसे बहुत सारे दरवाज़े एक साथ बन्द कर दिये गए हों. गली में चलो तो गली आपके सर पर आती थी. और अब इस घुटन से छुटकारा मिल रहा था. अब मैं एक सुस्त से शहर का फ़ुर्तीला हिस्सा देख रहा था. यह तो वही ’शहर’ है जो आजकल हर शहर में दिखता है. “जगमगाता, दूर से बुलाता, बना-ठना सा”.
तो क्या मैं इसे भूल से कस्बा समझ बैठा था?
नहीं. आख़िर जो पिछले दो दिन में मैंने महसूस किया वो भी तो सच था. दरअसल यह दो आपस में टकराते सच हैं जिन्हें जोड़कर ही हमारे आज के शहर की तस्वीर मुकम्मल होती है.
आज हमारा हर शहर दो अलग पहचानों में जीता है. उदारीकरण के बाद उसने एक मुखौटा लगा लिया है. यह मुखौटा किसी कलाकार की करामात नहीं, फैक्टरी में बनाया गया है. इसलिए हर मुखौटा दूसरे की हू-ब-हू नकल है. वो दिल्ली की आर. के. पुरम हो, जयपुर की मानसरोवर या उदयपुर की हिरण मगरी, शक्ल-सूरत में एक जैसी हैं. बस मुखौटे का आकार घटता जाता है. यह शहर का वो हिस्सा है, “जगमगाता, दूर से बुलाता, बना-ठना सा”. लेकिन इसी शहर का एक दूसरा चेहरा भी है. और यह चेहरा किसी फैक्टरी में नहीं बना. यहाँ हर चेहरे की अपनी पहचान है. यहाँ आप उन्हें चेहरे की खरोंच से अलग पहचान सकते हैं. यह शहर का वो हिस्सा है, “बहुत सी कहानियाँ अपने में समेटे, सिमटा सा बैठा”. और इसमें पुरानी दिल्ली की दरियागंज से जामा मस्जिद तक फ़ैली तंग गलियाँ, जयपुर के पुरानी बस्ती और चाँदपोल के समकोण पर काटते रास्ते और उदयपुर का पीछोला के किनारे वाला अजब उतार-चढ़ाव वाला इलाका शामिल है.
हमारे शहर दो दो हिस्सों में बंट गए हैं जिनमें तालमेल टूटता जा रहा है. और यह टूटन और अलगाव हर स्तर पर जारी है. शहर में, राज्यों में, देशों में. दक्षिण भारत के राज्य तथाकथित विकास की दौड़ में आगे निकल गए हैं और उनका कहना है कि उत्तर भारत के ’बीमारू’ राज्य ही देश के ’विकास’ में रोड़ा हैं. हालांकि वहाँ भी कई मुखौटे हैं और आधुनिक विकास के आदर्श राज्यों आँध्र प्रदेश और महाराष्ट्र में सर्वाधिक किसान आत्महत्या कर रहे हैं. विश्व स्तर पर भी विकसित देशों और विकासशील देशों के बीच की खाई चौड़ी होती जा रही है. कुल-मिलाकर सितार के तार इतने कस दिए गए हैं कि कभी भी टूट सकते हैं. और अगर यह तार टूट गए तो ’संगीत’ जाता रहेगा.
लेकिन शहर के इन हू-ब-हू नकल मुखौटों को जानकर भी हम उनसे सीधे नहीं टकरा पाए. हर शहर की मुख़्तलिफ़ पहचान खोने पर आँसू बहाते हममें से ज़्यादातर वहीं से भागे हुए हैं. जैसे ’बंटी और बबली’ भाग जाते हैं. जैसे ’वर्षा वशिष्ठ’ भाग जाती है. नॉस्टेल्जिया तर्क पर हावी है और हम उस सीधी टकराहट के ख्याल को खुद हाथ पकड़कर जंगल के बियाबान में छोड़ आते हैं.
लेकिन सोचिए, अगर उस बियाबान में उस ’कस्बेनुमा शहर’ से फिर मुलाकात हो जाए तो?
एक पचास साला प्रोफ़ेसर जिनकी रिहाईश आज दक्षिण दिल्ली में है इसी ’कस्बेनुमा शहर’ से मुलाकात करते हैं, “आज जब मैं पुरानी दिल्ली जाता हूँ, मुझे वाकई विश्वास नहीं होता कि यह वही जगह थी जहाँ मैं बड़ा हुआ, जहाँ मैं रहा, जहाँ की गलियों और बागों में मेरी परवरिश हुई. मैं तहेदिल से यह बात कह रहा हूँ कि आज उस घर के अन्दर जाने के बाद शायद अच्छा लगता है लेकिन बाहर बिलकुल नहीं. कई दफ़े मैं यह सोचता हूँ कि हम यहाँ कैसे रहे? और आज तो वहाँ रहना बिलकुल नामुमकिन सा लगता है. इतनी ज़्यादा भीड़, और उससे ज़्यादा गंदगी है. ऐसा पहले नहीं था.” (4)
ऐसा पहले नहीं था? क्या शहर बदल गया है? या हम बदल गए हैं? या फिर ताली दोनों हाथ से बजती है. क्रिकेट की हर ख़बर को चाट जाने की आदत के कारण मुझे मालूम है कि पठान, सहवाग, ज़ाफ़र और धोनी ने अपनी कामयाबी के साथ सबसे पहले शहर के उस हिस्से को छोड़ा जहाँ उनकी परवरिश हुई थी. पठान के पिता एक मस्ज़िद में मुअज़्ज़िन थे. सहवाग के पिता आटा-चक्की चलाते थे. ज़ाफ़र के पिता बेस्ट में ड्राइवर थे और धोनी के पिता एक सरकारी संस्था में छोटी सी नौकरी में. बहुत दिन हुए, सचिन भी अब उस मशहूर ’साहित्य सहवास सोसायटी’ में नहीं रहता. दरअसल शहर के इस हिस्से को जानने के लिए उसके भीतर धंसना ज़रूरी है. ’दूरी’ चीज़ों का तीख़ापन ख़त्म कर देती है.
लेकिन शहर से रंजिश की एक परम्परा चली आ रही है जो सिर्फ़ शहर के एकाकी मुखौटे को सामने रखती है. शहर और गाँव की ’विपरीत जोड़ियाँ’ बनाई जाती हैं,
“तुम्हारे शहर में बे-चेहरा लोग रहते हैं
कभी-कभी कोई चेहरा दिखाई देता है.” – जाँ निसार अख़्तर
“शहर में आके उन्हें भूल गए हम शायद
गाँव के लोग मिले थे वह गिला करते थे.” – निदा फ़ाज़ली
“तुम्हारा शहर क्या इसका बदल दे पाएगा मुझको
मैं अपने गाँव में सावन बरसता छोड़ आया हूँ.” – ज़फ़र वस्फ़ी (5)
गाँव से शहर की ओर हर पलायन में ’बरसता सावन’ छोड़ आने का दर्द छिपा है. लेकिन यह दर्द हमें कई बार शहर का भी नहीं होने देता. बकौल नरेश सक्सेना, ’पुल पार करने से सिर्फ़ पुल पार होता है, नदी नहीं’ और ’तुम्हारे शहर’ का ये भाव एक ओढ़ी हुई अजनबियत बनाए रखता है. गहरे धंसने के पहले ही चट्टान सामने आ जाती है,
“मैं दिल्ली में हूँ और मेरा मन कहीं
कहाँ हूँ मैं और यह ज़िन्दगी मेरी
कि जैसे रेशा-रेशा बिखरने को यहाँ
किससे कहूँ?
दोस्त वो कौन हो कि जो आधी रात को
तवज़्ज़ो दे कि मैं कितनी तक़लीफ़ में सचमुच
ये कैसा डर मैं ऐसा सोचता हूँ
कि मेरे इस तरह बेवक़्त फोन करने से
कहीं ख़त्म न हो बची-खुची दुआ-सलाम
फिर भी उठाता हूँ फोन कि इतना बेबस
और घुमाता हूँ जो भी नम्बर
वह दिल्ली का नहीं होता.” (6)
यहाँ शहर एक विचार है जिसके साथ बहुत सारी चीज़ें पहले से जुड़ी हैं. टिप्पणी उस विचार पर ही है लेकिन उसे शहर के साथ पहले ही जोड़ दिया गया है. कई बार इस विचार से टकराहट भी महत्वपूर्ण है. उदय प्रकाश की कहानी ’तिरिछ’ में शहर एक ऐसा ही ख़ौफ़नाक अमूर्त विचार है. वही एकायामी मुखौटा. लेकिन गड़बड़ वहाँ होती है जब हम शहर को एक ख़ास विचार से जोड़कर उस विचार से बाहर रह गए शहर को भूल जाते हैं. पहले खुद को शहर से अलगाकर फिर बात शुरु करते हैं.
शहर को सत्तातंत्र से जोड़कर देखने के साथ ही यह भी याद रखना होगा कि उसकी क्रूरता शहर का ही एक हिस्सा सहता है. और गाँव में भी एक ’सत्तातंत्र’ काम करता है. यह उतना स्याह-सफ़ेद नहीं है जितना कभी-कभी इसे समझ लिया जाता है. लेकिन यह गलती बार-बार दोहरायी जाती है. तभी तो अरुंधति जब ’मुख्यधारा’ मान ली गई विकास की अवधारणा पर सवाल उठाती हैं तो पहले स्पष्ट करती हैं, “शुरु में ही यह स्पष्ट कर देना चाहती हूँ कि मैं कोई नगर-निन्दक नहीं हूँ. मैंने भी अपना बचपन गाँव में बिताया है. मुझे उसके अकेलेपन का, उसकी असमानताओं का, उसके साथ की अमानवीयता का प्रत्यक्ष अनुभव है.” (7)
यह गाँवों को उस एकायामी नज़रिए से देखने का नकार है जिसे हम ’अहावादी’ नज़रिया कह सकते हैं. इसी के साथ शहर को भी ’आहवादी’ नज़रिए से देखना बंद करें. जैसा ज्ञानरंजन लिखते हैं, “हमारे साहित्यकार शहर में रहकर भी शहर से दूर हैं. आप किसी भी दिल्ली बसे लेखक से बात करें, मिलते ही वह सबसे पहले अपने ही नगर पर एक आघात भरी टिप्पणी करेगा. वह हमेशा चिढ़ा हुआ रहता है. वास्तव में वह प्रवासी है, उसने नगर को कभी स्वीकार नहीं किया और इसी को वह अपनी सार्थक आधुनिकता मानता है. उसे नगर की आलोचना करने की अपार फुर्सत है. …हम प्रचलित घड़ियों में समय देखना बन्द कर दें अन्यथा ग़लत समय का पता मिलेगा. …जब आप मीनमेख कर रहे होते हैं, कोसते रहते हैं, उस समय मत भूलिए कि शहर को असंख्य लोग प्यार करते होते हैं. असंख्य लोग उसी शहर में पनाह लेते होते हैं. ये ही लोग होते हैं जो नगरों को बचाते हैं.” (8)
शहर की छवि ’क्रूर हत्यारे’ की है. उदय प्रकाश की कहानी ’दिल्ली की दीवार’ को कौन भूल सकता है. उनकी ही लिखी एक छोटी सी व्यंग्य कथा ’विनायक का अकेलापन’ में दिल्ली पर कटाक्ष देखें,
“जो भी दुर्दिनों में घिरता है, दिल्ली उसे त्याग देती है.
विनायक दत्तात्रेय भी दुर्दिनों में थे. दिल्ली ने उन्हें त्याग दिया था. न उनके पास कोई आता था, न कोई उनका हाल पूछता था. टेलीफोन कभी बजता नहीं था. वे अकेले रह गए थे.
अकेलापन और दुर्दिन के दिन बिताने का तरीक विनायक दत्तात्रेय ने खोज निकाला था.
वे अपने कमरे के एक कोने में जाकर खड़े हो जाते और पुकारकर पूछते, “विनायक, कैसे हो?”
फिर दूसरे कोने पर खड़े होकर मुस्कुराते हुए कहते, “मैं ठीक हूँ, विनायक. अपनी सुनाओ. कभी-कभार आ जाया करो यार!” (9)
एक फ़िल्म बार-बार याद आती है. मैं इसे ’हिन्दी फ़िल्मों की तिरिछ’ की संज्ञा देता हूँ. ’दिल पे मत ले यार’ में रामसरन पांडे गाँव से शहर ’मुम्बई नगरिया’ आए हैं. शहर हैरान है रामसरन के होने से. वो उसपर आर्टिकल लिखता है, फ़िल्म बनाना चाहता है. रामसरन माँ, बाउजी को चिट्ठी लिखता है कि उसे प्यार हो गया है (जिसे चिट्ठी में ’आपके लिए बहु खोज ली है’ पढ़ा जाएगा.) और मुम्बई की रात में जागती सड़कों पर उछलता हुआ वो गाना गाता है. फिर शहर एक-एक कर अपने फ़न फ़ैलाता है. रामसरन इस शहर का सामना नहीं कर पाता. नायिका भी उसी सत्तातंत्र का हिस्सा है. दरअसल फ़िल्म में कोई नायिका नहीं है.
रामसरन का आत्महत्या कर लेना त्रासद अंत नहीं होता. अंत में रामसरन और उसका जिगरी दोस्त गायतोंडे दुबई सरीख़ी किसी जगह पर बसे अरबपति डॉन हैं. रामसरन का डॉन बन जाना ’रामसजीवन’ की आत्महत्या सरीख़ा है. रामसरन का अरबपति डॉन बन जाता दरअसल ’रामसरन’ नामक उस विचार की मौत है जो शहर के एकायामी मुखौटे से टकराता था. अंत में रामसरन है लेकिन उसका भाव नहीं. वह अपने ही दोस्त की हत्या करवा रहा है. शहर उन्हें निगल गया. इससे त्रासद फ़िल्में कम ही हैं हिन्दी सिनेमा में. यह है शहर की क्रूर-हत्यारी छवि.
लेकिन इस फ़िल्म की असल ख़ासियत फ़िल्म के एक छोटे से अंश में छिपी है जिसकी ओर मैं आपका ध्यान दिलाना चाहूँगा. नायिका पहली बार रामसरन के घर आई है. एक कमरा जहाँ 10-15 लोग एक साथ रहते हैं. वो रामसरन से उसके गाँव के बारे में पूछती है. इस उम्मीद के साथ कि वही चिर-परिचित याद रामसरन को भी सतायेगी. लेकिन अफ़सोस… रामसरन की याद में दूर-दूर तक नॉस्टेल्जिया का भाव नहीं है. नायिका पूछती है, “रामसरन, वापस जाने का दिल नहीं करता?” और रामसरन जवाब देता है, “मैडम, वापस ही जाना होता तो आते ही क्यों?”
यही निर्णायक क्षण है. जब हम शहर को कोसते हैं तो यह भूल जाते हैं कि अब तमाम रामसरन अपने अपने गाँव छोड़कर शहर आ गए हैं. और इसी शहर में एक पूरी शोषित पीढ़ी ने अपना भविष्य देखा. यह बात और है कि बाद में यह समझ आया कि वही शोषण चक्र एक परिष्कृत रूप में यहाँ भी मौजूद है. ’जूठन’ में ओमप्रकाश वाल्मिकी अपना गाँव छोड़कर शहर जाने वाला प्रसंग याद करते हुए लिखते हैं,
“देहरादून के लिए बस में बैठते हुए मन उदास था. लग रहा था जैसे ’बरला’ हमेशा के लिए छूट रहा है…” (10)
मेरे जैसे बहुत से पाठक यहाँ अपनी आदत अनुसार अगली पंक्ति में उन मीठी यादों की उम्मीद में होंगे जो अब बरला से जाने के साथ छूट रही हैं. लेकिन मीठी यादें वहाँ ही होती हैं जहाँ यादों में कुछ मीठा हो…
“…कड़वी यादों ने मन कसैला कर दिया था. यह कसैलापन अभी भी मन के किसी कोने में पसरा बैठा है जो मौका मिलते ही अपना रंग और स्वाद दिखा देता है.” (11)
यही गाँवो, कस्बों के असल रूप हैं. झज्झर, गोहाना, मुज़फ़्फ़रपुर, खैरलांजी, मिर्चपुर, कोडरमा आज के हिन्दुस्तान के गाँव-कस्बे हैं. समझ आता है कि क्यों अम्बेडकर-गांधी विवाद में अम्बेडकर शहर की तरफ़ खड़े थे. गाँव नरककुंड थे और शहर उम्मीद की किरण सरीख़े. लेकिन बाद में जो हुआ वो यह था कि शहर ने अपनी केंचुल उतारी और दलित युवक का शहर का सपना भी टूट गया. खुद ओमप्रकाश वाल्मिकी की आत्मकथा में शहर आने के बाद भी वही जातिगत भेदभाव बना रहता है. अनेक घटनाएं जिनमें से एक यह है,
“बात सन 1980 के आसपास की है. मैं और मेरी पत्नी चंद्रा राजस्थान भ्रमण से वाया दिल्ली चंद्रपुर (महाराष्ट्र) लौट रहे थे. जयपुर से पिंकसिटी एक्सप्रेस में सीट मिली थी. पास की सीट पर एक सभ्रांत परिवार, पति-पत्नी और दो छोटे बच्चे बैठे थे, जो जयपुर से नई दिल्ली जा रहे थे. बातचीत में पता चला कि पति किसी मंत्रालय में अधिकारी थे.
सामान्य बातचीत चल रही थी. मेरी पत्नी और अधिकारी की पत्नी घुल-मिलकर बतिया रही थीं. स्त्रियों में अपरिचय की दीवार जल्दी टूटती है.
अचानक बातचीत के बीच विषय बदल गया. अधिकारी की पत्नी ने मेरी पत्नी से पूछा, “बहन जी, आप लोग बंगाली हैं?”
मेरी पत्नी ने सहजता से जवाब दिया, “जी नहीं, उत्तर प्रदेश के हैं. मेरे पति आर्डिनेंस फैक्टरी, चंद्रपुर में पोस्टिड हैं.”
“कौन जात हो?” अधिकारी की पत्नी ने दूसरा सवाल दागा.
प्रश्न सुनते ही मेरी पत्नी का चेहरा फक्क पड़ गया और वो मेरी ओर देखने लगी.
सारा माहौल बिगड़ गया था. जैसे अचानक स्वादिष्ट व्यंजन में मक्खी गिर गई. जब तक मेरी पत्नी कुछ उत्तर देती, मैंने उत्तर दे दिया, “भंगी.”
’भंगी’ शब्द सुनते ही सन्नाटा छा गया.
रास्ते भर दोनों परिवारों में कोई संवाद नहीं हुआ. एक ऐसी दीवार बीच में खड़ी हो गई थी, जैसे हमने किसी चोर दरवाज़े से घुसकर उनकी हँसी-खुशी में खलल डाल दी हो. माहौल बोझिल हो गया था. बहुत तक़लीफ़देह हो गई थी यात्रा.” (12)
उम्मीद की किरण भी यूँ धीरे-धीरे साथ छोड़ जाती है.
फिर इतिहास देखें. सुनील खिलनानी ’भारतनामा’ में गांधी-अम्बेडकर के उस नज़रिए के फ़र्क को याद करते हुए लिखते हैं,
“गांधी के सामने स्पष्ट था कि उपनिवेशवाद को उसके आधुनिक दुर्ग – शहर – में ही परास्त करना होगा. लेकिन उनके लिए जीत का अर्थ अँग्रेज़ों द्वारा ख़ाली किए गए शहर में बस जाना नहीं था. उनके विचार से भारतवासियों के लिए आज़ादी का मतलब था शहर को अस्वीकार करना और भारत की चिरंतन सभ्यतामूलक शक्तियों को एक बार फिर हासिल करने के लिए गाँव के अभ्यारण्य में लौट जाना. गाँधी का आग्रह था कि ’शहर की इमारत का निर्माण जिस सीमेंट से होता है वह गाँव के रक़्त से बनाया जाता है.’ (13)
लेकिन गांधी के विपरीत दूसरे राष्ट्रवादी देहात और शहर के सहज विरोध का कुछ और ही मतलब निकालते थे. मिसाल के तौर पर आंबेडकर ने ही आज़ाद भारत के बारे में प्राचीन भारत के ग्रामीण भाईचारे पर आधारित गाँधी की ’असह्य स्वैर कल्पना’ का मज़ाक इन शब्दों में उड़ाया था, “गाम समुदाय के प्रति बुद्धिवादी भारतवासियों के लगाव को दयनीय न कहें तो भी उसकी मात्रा कुछ ज़्यादा ही है… आखिर गाँव स्थानीयतावाद के गर्त, अग्यान, तंगनज़री और सांप्रदायिकता के आगार के अलावा हैं ही क्या?” (14)
स्पष्ट है कि शहर के प्रति अपने नज़रियों को लेकर गांधी और अम्बेडकर दो विपरीत सिरों पर खड़े हैं. अंबेडकर ने शहर में शोषित पीढ़ी का भविष्य देखा था. और उनसे सीखकर आधुनिक दलित युवा शहर की ओर बढ़ा. लेकिन जैसा हमने ऊपर ’जूठन’ से लिए उदाहरण में देखा, ’दलित’ के लिए हिन्दुस्तानी शहर भी वो नहीं साबित हुए जिसकी उम्मीद उसने शायद गाँव से शहर की ओर एक स्वत: इच्छित विस्थापन के साथ की थी. जैसा अभय कुमार दुबे लिखते हैं, “गाँव के बाहर पड़ा रहनेवाला अंत्यज ऐसे स्थान की तलाश में निकल पड़ा जहाँ से उसे बहिष्कृत किया जाना संस्थागत रूप से नामुमकिन हो. यह नया स्थान शहर था जो आधुनिकता के घटनास्थल के रूप में उभर रहा था. दलित-चेतना उत्तरोत्तर नगर-केन्द्रित होती गई और दलित साहित्य नागरिकता की खोज में जाति पूछे जाने के औचित्य पर सवालिया निशान लगाने लगा. मराठी, कन्न्ड़, हिंदी, गुजराती और तेलुगू की दलित साहित्य-धाराओं ने बताया कि नए शहर की तलाश में आया हुआ दलित नायक नागरिकता के आवरण में भी अपनी नीची जाति छिपाने में नाकाम है.” (15)
दुबे ऐसी अनेक दलित कहानियों के उदाहरण प्रस्तुत करते हैं जिनमें कथानायक शहरी आधुनिकता में ’समरूपीकृत सार्वभौम नागरिक पहचान’ के भीतर अपनी जातिगत पहचान छिपाने की कोशिश करता है लेकिन उसकी यह कोशिश हमेशा नाकाम ही साबित होती है. बाबुराव बागुल की ’जब मैनें अपनी जात छिपायी थी’ इसका उदाहरण है. दुबे लिखते हैं, “बागुल का नायक ’नागरिक समाज’ की खोज में फ़िलहाल नाकाम हो चुका है. उसमें आधुनिकता के प्रति ललक है, लेकिन आधुनिकतावाद की चुकी हुई संभावनाओं के प्रति वह निराश है.” (16)
यह एंटी-क्लाईमैक्स है. जैसे गाँव के भीतर एक शहर घुस आया है,
“खेत तक भी आ गए बिजली के तार,
गाँव बिलकुल शहर जैसे हो गये.” – शकील जमाली. (17)
ठीक वैसे ही शहर ने गाँवों को अपने विशाल पेटे में समेट लिया है, अपनी तमाम स्मृतियों के साथ. जैसे शहर और गाँव एक-दूजे के चेहरे के सामने आईना रख रूपांतरित हो जाना चाहते हैं. और यह घालमेल एक ओर जहाँ ऐन राजधानी के बीचोंबीच ’इज़्ज़त’ के नामपर शादीशुदा जोड़ों की हत्या करवा रहा है वहीं गाँवों में लोग अब अंग्रेज़ी भाषा के आने के साथ आधुनिकता के शुरुआती पाठ पढ़ रहे हैं.
और इनके बीच कहीं हैं कस्बे, जो लगता है कहीं फ़िट नहीं होते. जो इस वजह से लगता है सर्वव्यापी हैं. जिनके लिए ’औरतों की मेज़ का कवि’ रिल्के आज से सौ साल पहले ठीक ही लिख गया था,
“इस शहर का अंतिम घर ऐसे खड़ा है अकेला
जैसे कि वह दुनिया का अंतिम घर हो.
हाइवे, जिसको यह छोटा शहर रोक सकता नहीं,
धीरे-धीरे धँसता है रात के भीतर.
छोटा शहर सिर्फ़ गुज़रगाह है –
चिन्तित और डरा हुआ, दो बड़े विस्तारों के बीच.
…पुल की जगह एक रास्ता…
बीच से घरों के गुज़रता हुआ.
और जो शहर छोड़ जाते हैं – दूर तक भटकते हैं
और कई मर जाते हैं सड़क पर.” (18)
लेकिन इस पूरी पक्ष-विपक्ष की बातों में एक और हिस्सा तो छूटा ही रहा. तो हाल में आई मेरी एक पसंदीदा फ़िल्म ’लक बाए चांस’ के अविस्मरणीय अंत की तरह मैं भी यहाँ एक ’चिपकाया हुआ अंत’ करूँगा, उल्लेख भर बस. कहते हैं समझदारों को इशारा काफ़ी होता है.
कॉलेज में हम साथ छ: दोस्त थे. तीन लड़के, तीन लड़कियाँ. बिलकुल नीलाक्षी की कहानी ’परिंदे के इंतज़ार सा कुछ’ के ’ना स म झ’ की तरह. तीन अलग-अलग पृष्ठभूमि से आए तीन लड़के. लेकिन न जाने क्या बात थी, लड़के तीनों अपने घरों को जाने को मरे जाते थे. या कुछ नहीं तो बार-बार उसी शहर में रहती अपनी बहनों के घर चले जाया करते थे. घर उन्हें छोड़ना चाहता था लेकिन वो अपने घरों को छोड़ते ही नहीं थे. और लड़कियाँ थीं कि बिलकुल अलग. एक शहर में ही घर होते भी जान-बूझकर अलग हॉस्टल में रहा करती. दूसरी उसी शहर में रहते सगे भाई-बहनों के घर महीनों में मिलने जाती, घर सालों में एक बार. और तीसरी मौत को चकमा देकर वापस लौट आई, इसीलिए क्योंकि उसे अपनी बाक़ी की उमर अपने शहर, अपने घर में नहीं रहना था.
’बंटी’ रह सकता है वापस जाकर अपने उस ’छोटे से शहर’ के घर, परिवार में. उसकी दैनंदिन ज़िन्दगी कमोबेश वही रहने वाली है. लेकिन ’बबली’ के लिए आज भी बहुत मुश्किल है पूरी ज़िन्दगी ’आम का अचार बनाते हुए’ बिताने के ख़्याल के साथ समझौता कर पाना.
उन तीन में से एक लड़का मैं था. अभी भी वैसा ही हूँ. लेकिन अब जानता हूँ कि शहर हो या कस्बा या गाँव… कौन कैसा है आपके लिए, यह इससे तय होता है कि आप ’कौन’ हैं उसके लिए?
सन्दर्भ
1. यह ’गमन’ फ़िल्म के एक गीत की पंक्ति है. लेकिन यहाँ इसका स्रोत ग्यानरंजन का ’कबाड़ख़ाना’ में संग्रहित लेख ’नगर में बसना भी तुम्हें नहीं आया’ है. ज्ञानरंजन लिखते हैं, “मुझे यह गाना अच्छा लगता है और यह पंक्ति कि इस शहर में हर शख़्स परेशान सा क्यूँ है, लेकिन इसका विचार मुझे नापसन्द है.” शायद इस प्रस्तुत लेख का पितृ-लेख भी यही है. देखें – कबाड़ख़ाना, ज्ञानरंजन, राजकमल प्रकाशन, पहला परिवर्धित संस्करण 2002, नई दिल्ली, पृष्ठ – 141
2. यहाँ इस गीत का असल स्रोत सराय का प्रकाशन ’दीवान-ए-सराय : शहरनामा’ है. सम्पादक द्वय अपनी भूमिका में ’शहर’ पर एक मुकम्मल बात की शुरुआत इन्हीं पंक्तियों से करते हैं. देखें – दीवान-ए-सराय 02 : शहरनामा, संपादक रविकांत और संजय शर्मा, वाणी प्रकाशन तथा सी.एस.डी.एस. सराय, 2005, नई दिल्ली, पृष्ठ – vi
3. अशोक वाजपेयी को मैंने यह कहते कुछ साल पहले सुना था. एनडीटीवी पर वो एक पैनल में बोल रहे थे. उपलक्ष्य था ’कथा’ द्वारा आयोजित एक अंतरराष्ट्रीय सेमीनार जिसका विषय उस बार ’शहर’ होना था.
4. यादों से रची दिल्ली, विनय श्रीवास्तव; दीवान-ए-सराय 02 : शहरनामा, संपादक रविकांत और संजय शर्मा, वाणी प्रकाशन तथा सी.एस.डी.एस. सराय, 2005, नई दिल्ली, पृष्ठ – 293
5. शहर-ए-याद, दीवान-ए-सराय 02 : शहरनामा, संपादक रविकांत और संजय शर्मा, वाणी प्रकाशन तथा सी.एस.डी.एस. सराय, 2005, नई दिल्ली, पृष्ठ – 281
6. लीलाधर मंडलोई, लघु-पत्रिका ’कथन’ (2006) में प्रकाशित कविता. संपादक – संज्ञा उपाध्याय
7. अरुंधति राय का यह बहुचर्चित निबंध ’बहुजन हिताय’ देखें उनकी पुस्तक ’न्याय का गणित’ में, अनुवाद – जितेन्द्र कुमार, राजकमल प्रकाशन, पेपरबैक पहला संस्करण 2005, नई दिल्ली. पृष्ठ – 35-38
8. कबाड़ख़ाना, ग्यानरंजन, राजकमल प्रकाशन, पहला परिवर्धित संस्करण 2002, नई दिल्ली, पृष्ठ – 141-42
9. दत्तात्रेय के दु:ख, उदय प्रकाश, वाणी प्रकाशन, द्वितीय संस्करण 2009, नई दिल्ली, पृष्ठ – 43
10. जूठन, ओमप्रकाश वाल्मिकी, राधाकृष्ण पेपरबैक, 2006, नई दिल्ली, पृष्ठ – 83
11. वही, पृष्ठ – 83
12. वही, पृष्ठ – 158-59
13. भारतनामा, सुनील खिलनानी, अनुवाद अभय कुमार दुबे, राजकमल प्रकाशन, पहला संस्करण 2001, नई दिल्ली, पृष्ठ – 141
14. वही, पृष्ठ – 141
15. नये शहर की तलाश, अभय कुमार दुबे; आधुनिकता के आईने मे दलित, संपादक अभय कुमार दुबे, वाणी प्रकाशन एवं सी.एस.डी.एस., तीसरा संस्करण 2005, नई दिल्ली, पृष्ठ – 115
16. वही, पृष्ठ – 130
17. फिर-फिर दीवान, देखें पृष्ठ – vi
18. अब भी वसंत को तुम्हारी ज़रूरत है (रिल्के की कविताएं), चयन एवं अनुवाद – अनामिका, साहित्य अकादमी, प्रथम संस्करण 2004, नई दिल्ली, पृष्ठ – 50
Priya Bhai Mihirji, Sadhuwad ! Ek bahut hi behtareen rachna dene ke liye.Sach adbhoot rachna hai jo sochne ko ooksati hai. Satik oodhharan dekar lekh ko aapne aur bhi garisht bana diya hai.(khan-pan ke vayvsaaye se jooda hone ke karan Garisht ) Aabhar PAVAN JHA ka jo mera mitr bhi hai. ooski badolat aise badhiya badhiya lekh padhne milte hai. Punh Badhai! Ashok Bindal
Mihir, nmain doob gaya aapko padhte-padhte. behatareen.
Marvalous, I am thankful to give such kind of information to young generation of India. I always salute you.