आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

जो फड़ा सो झड़ा, जो जला सो बुझा: सच्चिदानंद सिन्हा से मनोज कुमार झा की बातचीत

मनोज

कहते हैं कि परिवेश बदलने के साथ और समय के साथ अलग अनुभव तो प्राप्त होते ही हैं, अनुभव-प्राप्ति का तरीका भी बदल जाता है, गाँव की तुलना में अनुभव-प्राप्ति का यह तरीका शहर के संदर्भ में कैसे बदलता है.

सच्चिदा बाबू

अनुभव साफ स्लेट पर लिखावट जैसा नहीं होता. जिस तरह कोई चित्र, फ़लक की पीठिका के रंग और उसे घेरने वाले आकारों द्वारा अपनी पूर्णता हासिल करता है वैसे ही हमारा अनुभव भी परिवेश के हिसाब से ही अपना रुझान और अपनी तीव्रता प्राप्त करता है. जीवन का हर क्षण पूर्वानुभवों के श्रृंखला की एक ऐसी कड़ी होता है जिससे अतीत के मीठे कड़ुए अनुभव मौजूद परिवेश के प्रभाव में एक परिपाक बनाते हैं. हर नया अनुभव अतीत के अनुभवों का वर्तमान के दबाव में तैयार हुआ ऐसा ही रुप होता है. समय के साथ पुराने अनुभव छीजते जाते हैं. जो नया है वही हमारे आकलन पर विशेष तौर से  हावी होता है. एक अर्थ में सब कुछ वर्तमान ही का हिस्सा है. यहाँ गाँव और शहर के अनुभवों में एक बड़ा फ़र्क होता है. गाँव के अनुभवों पर अतीत की छाया गहरी होती है. पेड़ पौधे नदी नाले और इनसे जुड़ी लोक कथाएँ – जिसमें आदमी के अपने पुरखे भी शामिल होते हैं – हमारे वर्तमान अनुभव से अभिन्न रुप से जुड़ी होती हैं. इसके विपरीत आधुनिक नगरों का कोई अपना अतीत – मानवीय आकलन के स्तर पर –  नहीं होता. हर नया विकास कुछ पुरानी बस्तियों और जीवन के क्रम को नष्ट करता चलता है. स्मृति चिन्ह नष्ट होते चलते हैं. कुछ बड़े मार्गों को छोड़ – जिन पर भी चलने वालों वाहनों और लोगों का रुप लगातार बदलता जाता है – कुछ भी अतीत से जुड़ा नहीं बचता. कुछ ऐसी इमारतें जिन्हें ध्वस्त नहीं किया जा सकता दूर अतीत में ढकेल दी जाती हैं. जिनका सिर्फ पुरातत्व से संबंध रह जाता है. यह भी बन्द किताब का एक पन्ना बन जाता है. जिन्हें हम गाहे बगाहे खोलते हैं और फिर बन्द कर देते हैं – या फिर सामूहिक जंग के लिए सबूत के रूप में इस्तेमाल करते हैं. इनकी कोई निजी स्मृतियां नहीं होती, इन्हें सप्रयास सामूहिक रूप से गढ़ा जाता है.

मनोज

गाँव और शहर के बीच जो फ़र्क माना जाता है, उनमें वानस्पतिक जगत की उपस्थिति-अनुपस्थिति एक प्रमुख तत्त्व है. अब तो प्रदूषण के रोकने के उपाय के रूप में और ‘सौन्दर्यीकरण’ के लिये शहरों में भी वानस्पतिक संसार पैदा किया जाता है. फिर भी गाँव के जीवन से वनस्पति का रिश्ता शहर के जीवन से वनस्पति लोक के रिश्ते से किस तरह भिन्न है?

सच्चिदा बाबू

जीवन के रूखेपन से मुक्ति के लिए और अब पर्यावरण की चिन्ता से शहरों के हरित पट्टियां बनायी जाती हैं. लेकिन यह सब लोहे और कंक्रीट के बीच कैद हरियाली होती है. गाँवों में अंतहीन हरियाली के बीच मानव रिहाइश होते हैं हरियाली में जीवन का विस्तार दिखाई देता है.

मनोज

गाँव के पेड़-पौधों के मनुष्य के साथ बढ़ते जाने से वृद्धि के उत्सव के साथ हम रुबरु होते हैं, यह हमारे जीवन के प्रति दृष्टिकोण को कैसे प्रभावित करता है?

सच्चिदा बाबू

इन गाँवों में पेड़ पत्तियों और मनुष्य के जीवन वृत्त संगीत के साज़ की तरह एक लय में बंधे लगते हैं जिसमें जीवन की नियति भी दिखाई देती है. गाँव में इस नियति के संबंध में एक कहावत भी प्रचलित थी – जो फड़ा सो झड़ा, जो बला सो बुझा.  आदमी, पेड़ पत्ते, सभी की समान नियति गाँव में  स्वाभाविक लगती है.

मनोज

जैसा कि कहते हैं ‘अनुभव’ और ‘ज्ञान’ के बीच आड़ा-तिरछा रिश्ता है. कभी ये एक दूसरे के साथ जुगलबंदी करते हैं तो कभी इनके बीच तनाव के तन्तु बनते हैं? क्या शहर और गाँव के संदर्भ में ‘अनुभव’ और ‘ज्ञान’ के बीच रिश्ता बदलता है? यदि हाँ तो किस तरह?

सच्चिदा बाबू

गाँवों में सामुदायिक अनुभव ही ज्ञान का आधार होता है और इसी की सार्वभौम सत्ता होती है. नगरों के विकास के क्रम में प्रायोगिक और आयतित अनुभव भी इसका आधार बन जाते हैं और औद्योगिक समानता के एक चरण में प्रयोगशालाओं से निर्गत ज्ञान ही सर्वोच्च ज्ञान मान लिया जाता है – बाकी चीज़ें गँवई-गँवारपन में शुमार होने लगती हैं.

मनोज

गाँव से संबंधित अधिकाश लेखन शहरों से ही हो रहा है. इनके द्वारा प्रकल्पित गाँव (‘इमेजिंड विलिज़’) वास्तविक के कितना करीब हैं? अब जबकि शहर और गाँव के बीच आवाजाही के बिना जीवन की कल्पना करना मुश्किल है, क्या “प्रामाणिक ग्राम्य जीवन” जैसी किसी चीज़ की कल्पना की जा सकती है.

सच्चिदा बाबू

आधुनिक सभ्यता नागर वर्चस्व की सभ्यता है. स्वाभाविक है गाँवों को नगर के नजरिये से देखा जाय. लेकिन गाँवों में भी शहरों को देखने का एक अपना नजरिया होता है. इस नजरिये वाले साहित्य भी लिखे जा रहे होंगे. यह साहित्य स्वयं एक खोज विषय हो सकता हो. मैनें कोई अध्ययन नहीं किया है जिससे एक निश्चित राय दे सकूं.

मनोज

मुझे लगता है कि दलितों का इमेजिंड विलिज़  भी एक तरह के नॉस्टेल्जिया  से ग्रस्त हैं जहाँ का दुखद जीवन दलितों के थोड़े बेहतर जीवन के संदर्भ बिंदु की तरह है. आप दलित साहित्य के इमेजिंड विलिज़  के बारे में क्या सोचते हैं?

सच्चिदा बाबू

मैंने दलित साहित्य का अध्ययन नहीं किया है, इसलिए विश्वास के साथ कुछ भी नहीं कह सकता. जो विवाद यदा कदा अखबारों में देखता हूँ. उससे लगता है कि अतिरंजना होती होगी. लेकिन ऐसा उचित भी है भले ही इससे श्रेष्ठ साहित्य नहीं निकले. एक टेढे बांस को सीधा करने के लिए विपरीत दिशा में अधिक झुकाना होता है. यह अतिवाद अगर बौद्धिक स्तर पर है तो इसका परिणाम सकारात्मक होगा. लेकिन अगर अतीत के अन्याय को वर्तमान में हिंसक प्रयासों से दुरुस्त करने की कोशिश हो तो फिर इससे हिंसा-प्रतिहिंसा का नया दौर शुरू हो सकता है. यह दुर्भाग्य पूर्ण होगा.

मनोज

क्या शहर गाँव की तुलना में दलितों-पिछड़ों के लिए वाकई बेहतर जगह है?

सच्चिदा बाबू

शायद इस अर्थ में हाँ कि वे गाँव से भिन्न हैं जहाँ उनके साथ भेदभाव की संस्कृति पनपी और जहाँ का सारा परिवेश उन प्रतीकों से भरा है जो उस अतीत की याद ताजा करते हैं.

मनोज

समय (‘टाईम’) के साथ शहरी जीवन का रिश्ता ग्रामीण जीवन के रिश्ते से किस तरह भिन्न है?

सच्चिदा बाबू

समय (टाइम) का अहसास तो आधुनिक यंत्र विज्ञान और इससे जुड़ी उत्पादन और विपणन की प्रक्रिया का प्रतिफल है. ‘घड़ी’ इसका सबसे महत्त्वपूर्ण प्रतीक है. घड़ी के अतिक्रमण के पहले गाँव की जिन्दगी सूरज के उदय-अस्त से जुड़ी थी. रात में सिर्फ कचपचिया पक्षी बीतते पहर का एहसास कराते थे. प्रात पौ फटने से गोधूलि तक कार्मिक जीवन का दिनमान का. सोना, जागना, कुछ करना सभी इसके लय से बंधे थे. शहर की जिन्दगी में चाँद, तारे, ऊषा, गोधूलि सब का लोप हो चुका है. घड़ी के कांटे के साथ जीवन का हर पल बंधा है. ‘टाईम इज़ मनी’. अंतहीन संचय में लगा रहना यही जीवन है.

मनोज

गाँव के जीवन को लेकर आपके मन में कोई ऐसी बातें/चीज़ें हैं जिन्हें आप शेयर करना चाहते हों?

सच्चिदा बाबू

लेकिन गाँव के बारे में यह सब कहना अतीत की बात ही है –एक नॉस्टेल्जिया. अब गाँव भी एक अदृश्य धागे से नागर जीवन के दुर्निवार क्रम से बंधा है. सभी तरफ बस, गाड़ी सवारी पकड़ने की भागम-भाग है. सबका अपना अपना गन्तव्य तो है लेकिन समग्रता में बस सभी ‘काल’ के गाल में समाये जा रहे हैं, यही दिखाई देता है.

3 comments
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  1. achhi aur jaruri batchit…..
    aur vistar se ek interview kijiye….. intjar rhega…

  2. Aapni Gawn ke yaad aa gai, Gawn ja kar bas jane ka man karta hai, aabhi tak sahar me koi thikana nahi banaya hai. After retirement Gawn hi jaunga

  3. मुझे एक नयी समझ मिली है इस पूरी बातचित को पढ कर.

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