मृत्यु-भोज: मक्खन मान
जैला पूरी तरह टुन्न हो चुका था. नाजर सिंह ने एक और तगड़ा-सा पैग भरा और जैला की ओर बढ़ाते हुए बोला, ‘लो बड़े भाई.’
वह बड़ी मुश्किल से गिलास मुँह तक ले गया. घूंट मारते ही वह एक और को लुढक़ गया.
‘लो यह तो गया! जाओ ड्राईवर को बुला लाओ.’ नाजर सिंह ने जैले को ठीक से लिटाते हुए तारा से कहा.
तारा ने दरवाजे में खड़े होकर ड्राईवर को आने का संकेत किया और फिर उल्टे पैर भीतर आ गया.
दोनों ने जैले को उठाकर कार की पिछली सीट पर लिटा दिया.
नाजर सिंह ने कार में बैठते हुए तारा को इशारे से पास बुलाकर धीरे से कहा, ‘आढ़तियों के पास हो आ. मैं इसे तुम्हारे फूफा के हवाले कर आता हूं, वह सुबह तक का$गज तैयार कर लेंगे.’
‘चलो भई करो स्टार्ट.’
कार पल भर में ही आंखों से ओझाल हो गई. तारा ने अंदर आकर सुरजीत के कान में धीरे से कुछ कहा. साइकिल उठाई और शहर की ओर चल दिया.
तारा गाँव से कोस भर ही गया होगा कि सूरज की लाल टिकिया आसमान के पैरों में खो गई. जाड़े के ये दिन भी कैसे है, आंख झपकते ही शाम हो जाती है. उसने हैंडिल मजबूती से पकड़ा और फुर्ती से जोर-जोर से पैडल मारने लगा. वह साइकिल को जितना भी तेज करने की कोशिश करता, साइकिल की ब्रेक घूं-घूं करती हुई आगे वाले पहिए को पीछे ढकेल देती.
‘इसे क्या हो गया है आज, अभी कल ही तो ठीक करवाई थी.’ तारा ने साइकिल को रोक कर पहिए से घिसटती रबर की गुल्लियों को मरोड़ कर पहिए से अलग किया और बिना समय गंवाए टांग उठा कर गद्दी पर बैठ गया.
जाड़े में भी वह पसीना-पसीना हो गया था. उसकी टांगे दुखने लगी. दम लेने का मन भी किया पर फैलते अंधेरे को देखकर उसके दिमाग की नसों में खून की गति तेज हो गई. कही मीहमल दुकान ही न बंद कर जाऐ- यह बात उसे बार-बार परेशान किए जा रही थी.
अब अंधेरे ने उजाले को पूरी तरह अपनी गिरफ्त में ले लिया था पर तारा इन विचारों में डूबा हुआ था कि यदि आढ़तिए ने दुकान बंद कर दी या उसने पैसे देने से मना कर दिया तो सुबह जैले से जो जमीन की रजिस्ट्री करवानी है उसका क्या होगा? यह ख़याल उसके मन में गोली की तरह घुसा.
इस प्रकार, कच्चे पक्के विचारों को चबाता हुआ आखिरकार तारा शहर पहुंच ही गया. शहर की जगमगाती बत्तियों और बीच-बीच में बंद होती दुकानें कभी उसे आशा बंधाती और कभी बहुत ही निराश करती. वह शहर वाली भीड़ को चीरता हुआ मंडी वाली सडक़ पर हो लिया. मंडी उससे कोई बहुत दूर नहीं थी पर डूबते हुए मन को मंकिाल अभी भी दूर दिखाई देती थी.
उसने इन्ही चिंताओं में मंडी का मुँह देखा. आधी खुली और आधी बंद मंडी देखकर उसकी जैसे जान निकल गई. वह साइकिल खंभे से खड़ी करके बिना ताला लगाएं तेजी से एक तरह से दौड़ ही पड़ा. दूर से ही दुकान खुली देखकर उसकी जान में जान आई और उसका चेहरा खुशी से खिल उठा.
‘मैं तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा था. बहुत देर लगा दी.’ मीहमल ने उसे देखते हुए पूछा.
‘जैले ताऊ को भी किसी ठिकाने लगाना था न. सुबह से पीने बैठा था, शाम को जाकर लुढक़ा.’
‘हां भाई जमीनों के काम ही ऐसे है.’
‘लाइऐ शाह जी पैसे दे दीजिए.’
‘ठहर जा बेटा, दम तो ले ले. इतनी उतावली भी काहे की है. इतनी दूर से आऐ हो. अरे रामू चाय देना दो कप.’ इतना कहकर लाला गल्ले में से पैसे निकाल कर गिनने लगा.
‘लो भई, तुम्हारा काम कर दिया. तुम मत कहना लाला काम नहीं आया. यह लो पहले बही पर दस्तखत कर दो.’
‘दस्तखत… दस्तखत चाहे जितने करवा लो.’ तारा ने कलम पकड़ी और अंग्रेजी में दस्तखत कर दिए.
‘बेटा पैसे गिन लो.’
‘लाला जी, आपने तो गिने ही है.’ उसने बिना गिने ही जेब में रख लिए. इतने में चाय आ गई और तारा चाय के घूंटों में पैसे मिल जाने की खुशी घोल-घोल कर पीने लगा. चाय का आखिरी घूंट भरते हुए उसने कहा, ‘अच्छा लाला जी, अंधेरा बहुत हो गया है. गाँव भी पहुंचना है. रकम भी जेब में है.’ उसने नमस्कार किया. साइकिल उठाई और मंडी से बाहर हो गया. जी.टी. रोड से शार्टकट अंदर की तंग गली से होता हुआ वह बनिया मुहाल में आ गया.
यह मुहल्ला है कि कनॉट प्लेस. इतनी भीड़. इससे तो अच्छा था वह बाहर ही बाहर से निकल लेता.
बनिया मुहल्ला से बाहर आकर उसने राहत की सांस ली. तौबा-तौबा, फिर इधर नहीं आऊंगा. सामने ठेका था. उसने साइकिल खड़ी की. अद्धा लिया और अहाते में आ गया.
उसने पैग उंडेला ही था कि उसकी निगाह सामने बैठे बाबुओं पर पड़ी जो अंतिम पैग डबल ढाल रहे थे. उनमें से एक बोला, ‘अरे तू ता पटियाले को भी लंघ गया. यह दारू है कि गन्ने का रस. ऐसे ही ढकेले जा रहा है.’
‘जल्दी-जल्दी निबटो और खिसको यहां से. कल बाईपास पर एक आदमी मारा गया है. बेचारा साइकिल से जा रहा था. हमारे पास के गाँव का था.’
तारा को यह शब्द जैसे अंदर तक हिला गए. उसने जल्दी-जल्दी दो कुज्जे लगाए और अहाते से बाहर आ गया. जाना तारा को भी बाईपास से होकर ही था. उसे नशा उतरता हुआ लगा था. उसने अपने में हिम्मत समेटी-देखा जाऐगा. एक बार जेब पर हाथ फेरा और गाँव की ओर चल दिया.
गाँव में प्रवेश करते ही ताई देबो उसके सामने पड़ गई. उसका माथा ठनका, सिर शर्म से झुक गया- लानत है ऐसी जमीन के…
खुले बाल और बुरा हाल. लम्बड़ों के पिछवाड़े वह तंदूर जलाऐ बैठी थी. वह पागलों की तरह तंदूर में ईधन झोकती जैसे मुर्गे की गर्दन मरोड़ रही हो. ऐसा वह बार-बार करती, तंदूर में से आग की लपट निकल कर दूर तक अंधेरे का गला घोंटती हुई चौतरफा रोशनी फैला देती.
‘आ गया जीते बेटा.’ ताई ने तारा को दूर से ही आते देखकर होठों पर मुस्कराहट लाते हुए पूछा.
यह सुनकर तारा का चेहरा उतर गया.
‘आ जा तंदूर ताप ले. भूख लगी होगी तुझे. अभी बनाऐ देती हूं रोटी. अरे तू कहां चला गया था? मुझ अकेली माँ को छोडक़र.’
तारा का गला भर आया- ‘हम क्या करने जा रहे है इस $गरीब के साथ. बेटा रहा नहीं. पति नसेड़ी है और यह… बेचारी पुत्र के वियोग में पागल…’
जीता मेरा दोस्त था. दोनों साथ-साथ पढ़ते थे. एक दूसरे के बिना सांस नहीं लेते थे. तारा सिंह तुझे शांति कहां मिलेगी?
यार मरा नहीं, तू चला उसकी जमीन हथियाने, चुल्लू भर पानी में डूब मर. क्यों बाप की हां में हां मिलाए चला जा रहा है. अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है. रजिस्ट्री सुबह होगी.
‘आ भी जा अब. यहां क्या टकटकी लगाकर देख रहा है.’
तारा ने दो-तीन बार सिर झटका.
‘ताई पैर पड़ूं, मैं तारा हूं.’ बहुत मुश्किल से उसके मुँह से निकला पर वह ताई की आंखों की ताब न झेल सका.
‘अरे बेटा, मेरा जीता कहां है? जा, ले आ उसे ढूंढ कर, कई दिनों से घर नहीं आया. दोनों भाई मिलकर खाना रोटी. आटा गंूध रखा है.’
‘ताई, जीता अब नहीं आऐगा. वह तो खाकी वर्दी वालों ने निगल लिया.’ आखिर तारा ने ताई को सच्चाई से अवगत करवाने में ही बेहतरी समझी. शायद पुत्र की मौत सुनकर ताई रो पड़े तो ठीक हो जाऐ.
‘नहीं, तुम झूठ कहते हो, मेरा जीता जरूर आऐगा?’ उसकी वाणी में ढृढ़ता थी.
‘नहीं ताई, जीता नहीं आऐगा, वह हमसे बहुत दूर चला गया है.’ तारा की आंखें भर आई. वह धीरे-धीरे मुर्दो की तरह साइकिल घसीटता हुआ घर की ओर चल पड़ा.
घर आकर तारा ने साइकिल एक ओर खड़ी की. चूल्हे के आगे बैठी सुरजीत को भीतर आने का संकेत किया. बीस हजार उसके हाथों में थमाते हुए स्वयं बुझा-बुझा सा चूल्हे के आगे आ बैठा. सुरजीत प्रसन्न थी कि काम हो गया.
‘अब क्या बात है? पैसे का इंतजाम तो हो गया है. अब काहे की चिंता में हो?’
‘चिंता काहे की है? बाहर लंबड़ा के पीछे ताई देबा बेचारी…?’
‘उसकी बातें छोड़ो, वह तो पागल है. हाथ पैर धोने हो तो पानी गर्म करने को रखा दूं.’
‘पानी को छोड़, जा अंदर से रजाई निकाल ला.’
‘वह किसलिऐ?’
‘ताई को दे आऊं. चिथड़ों में बेचारी के पैर भी नंगे है. ठण्ड भी ऊपर से कितनी पड़ रही है.’
सुरजीत भीतर से रजाई निकाल लाई. तारा रजाई लेकर ताई की ओर चल पड़ा. ताई तो वहां थी ही नहीं. तारा ने गाँव में दबे पैर चक्कर लगाया पर ताई नहीं मिली. अंत में थक हार कर वापस घर लौट आया.
सुरजीत दरवाजे पर खड़ी प्रतीक्षा कर रही थी. ‘क्या हुआ, रजाई वापस ले आऐ.’
‘पता नहीं कहां चली गई. सारे गाँव में ढूंढ मारा.’
‘जनको बता रही थी कि गुरुद्वारे में ताई की खाट रखी है. जब ढंड लगती है स्वयं ही वहां चली जाती है. वैसे भी उसे कौन रोकता है. जिस घर में चली गई, वहीं बिस्तर मिल जाऐगा. मैंने शाम को तुम्हारे जाने के बाद स्वयं ही बुलाकर उसे चाय का गिलास भर कर दिया था. बुरा हुआ. जवान बेटे की मौत ने…’ उसने गहरी सांस ली.
कुछ क्षण के लिए दोनों चुप रहे. उस चुप्पी को तोड़ती हुई सुरजीत बोली, ‘बापू इंतजार कर-कर के हवेली की ओर चले गए. वह ताऊ को फूफा के सुपुर्द कर आऐ है. फूफा कहते थे- तुम्हारे आने तक मैं सारे का$गज तैयार करवा रखूंगा.’
तारा को इन बातों में कोई दिलचस्पी नहीं थी.
‘रोटी गर्म कर दूं कि अभी पैग…’
‘रोटी मैंने शहर में ही खा ली थी.’ वह झूठ बोल गया. उसका मन इन सब कामों से उचाट हो गया था. वह खाट पर आकर लेट गया.
उसने छत की कडिय़ों को देखा. कडिय़ां उसे खेत की मेड़ों सी लगने लगी. नछत्तर सिंह के शब्द उसके कानों में गूंजे, ‘तारा, भूल जा जैले की जमीन को और बेकार में मेड़ें छोटी न किए जा. टैक्स देते हैं इसका.’
‘हरामी, कहता था जमीन पर दांत न गड़ा, टैक्स देते हैं.’
फिर विचारों ने करवट बदली.
इस नछत्तर ने तो हमें भी मकाबूर कर दिया. वर्ना हम ताई की जमीन कभी भी… अब क्या किया जाऐ? अगर रजिस्र्ट्री नहीं करवाते है तो नछत्तर जमीन हड़प जाऐगा. हमारी तो वह दशा है जैसी सांप के मुँह में छछूंदर… खाऐं तो कोढ़ी हो… ना खाऐ तो कलंकी. पर नछत्तर को तो सबक सिखाना ही पड़ेगा. तब वह ससुरा कह रहा था- जाट के गुस्से को तो तुम अच्छी तरह जानतें ही हो.
ताई को मैं ऐसे नहीं छोड़ूंगा. अपने घर ले आऊंगा. शहर के अच्छे डॉक्टर से उसका इलाज कराऊंगा. अगर जीता नहीं रहा तो क्या हुआ, मैं तो हूं. इस प्रकार, वह अपने मन में बातें करता-करता पता नहीं कब सो गया.
‘तारा उठ भई, कितना दिन चढ़ गया है.’ इतना कहकर नाजर सिंह अलमारी में काग़ज ढूंढने लगा.
नाजर सिंह का$गज निकाल कर लंबड़ के घर की ओर चला गया. तारा का मन तो किया बापू से कह दे- हम नहीं करवाऐंगे रजिस्ट्री. हमारे पास गुजारे भर की जमीन बहुत है. पर वह कह न पाया.
धुंध भी आज गकाब की थी. दस बज गए थे पर, धूप का नामोनिशान नहीं था. वह अभी गाँव की पगडंडी भी परा न कर पाएं थे कि पीछे से चन्नू चौकीदार की आवाज कान में पड़ी.
‘लंबरदार जी, बूढ़ी देबो कल रात गुजर गई. वह बरगद के पेड़ के नीचे पड़ी है.’
‘हे ईश्वर!’ नंबरदार के मुँह से इतना ही निकला.
यह सुनकर तारा एकदम भीतर तक हिल गया और बरगद की ओर चल दिया. ताई की लाश ठण्ड से अकड़ी पड़ी थी. तारा की आंखों के आगे कल रात जो घटा था, वह सामने आ खड़ा हुआ. उसे लगा, देबो की मृत्यु का जिम्मेदार वही है. उसने ताई का सिर अपनी जांघों पर रख लिया और फूट-फूट कर रोने लगा.
यह देखकर चन्नू की आंखें भी भर आई- ‘तारा सिंह यह बुरा हुआ. बहुत भली थी, बेचारी को ंिचंता खा गई.’ चुन्नू ने साफे से आंखें पौछते हुए कहा.
देखते ही देखते गाँव इकट्ठा हो गया. सब देबो ताई की बातें करने लगे.
नाजर सिंह ने नंबरदार को एक ओर ले जा कर कहा, ‘नंबरदार जी, यह तो अपशगुन हो गया. अच्छे काम के लिए निकले थे, ईश्वर की जो इच्छा, अब क्या किया जाएं. रजिस्ट्री का काम निबटा आऐं ताकि दाह-संस्कार से पहले ही लौट आऐं. कही जैला देबो की मृत्यु का समाचार सुनकर भाग ही न आऐ गाँव को. तारा को बुलाओं, अब चलें.’
नंबरदार ने बहुत ठसके से तारा के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, ‘चल भाई जवान, यह तो बेचारी मिट्टी में मिल गई. उठो, हम भी अपना काम निबटा आएं.’
नाजर सिंह को तारा पर गुस्सा आ रहा था कि इसे अच्छा भला पता है कि रजिस्ट्री करवानी है, वे लोग वहां प्रतीक्षा कर रहे होंगे. कई दिनों से इसके पीछें लगे हुए है. इसे देखो कैसा बुढिय़ों की तरह रो रहा है जैसे इसकी ही माँ मर गई हो.
तारा चाहता तो था कि कह दे बापू से- हम नहीं करवाऐंगे रजिस्ट्री. पर पता नहीं उसका मन किस मिट्टी का बना था. वह उठा और पीछे-पीछे चल दिया. उसकी आंखों के आगे अतीत के कई दृश्य नाच गए.
जब देखो ताई जवान घोड़ी की तरह दौड़ी-दौड़ी डोलती थी. काम खत्म हो जाता पर ताई न थकती. ताऊ नसेड़ी था. दिन दिन भर नशा खाकर निठल्लों के साथ बैठा रहता था.
एक बार चाचा हरनामा ने जैले ताऊ के बारे में बताया था. विभाजन का समय था. तब ताऊ एकदम जवान था. जवानी में उसे एक शौक था मालिश करना, दण्ड-बैठकें लगाना और अखाड़े में लडऩा. उसके लट्ठे जैसे बाहु और पहाड़ जैसी छाती देखकर प्रतापी, जो अपने समय की सबसे सुन्दर लडक़ी थी, ताऊ पर लट्टू हो गई. दोनों छिप-छिप कर एक-दूसरे से मिलने लगे. लोगों की जबान पर इनके प्रेम की बातें अभी चर्चा में आई ही थी कि विभाजन हो गया.
प्रतापी का कहीं कोई पता न लगा. वह कहां चली गई. जीती है कि मर गई. स्यालकोट से यहां आकर ताऊ उदास रहने लगे. उसे हर समय प्रतापी की याद आती रहती. सारी-सारी रात ताऊ जाग कर आहें भरते रहते. गम से छुटकारा पाने के लिए वह कभी अफ़ीम खाते और कभी शराब पी लेते. ताऊ के पिता ने जब अपने बेटे की यह दशा देखी तो उसका विवाह कर दिया. पर ताऊ प्रतापी को न भूल सके. प्रतापी का स्थान नशे ने ले लिया. ताई बहुत यत्न करती, उन्हें खुश करने के लिए, पर ताऊ न खुश हुए. नशे ने उनका सारा शरीर खोखला कर दिया और वह कुछ वर्षों में हड्डियों का ढांचा बन कर रह गए.
जीते के मन में पिता के प्रति क्रोध था और माँ के साथ अनंत मोहा. वह अपनी माँ के लिए बहुत कुछ करना चाहता था, पर कुछ कर नहीं पाया.
दसवीं पास करके वह खेती बाड़ी में फंस गया. और जीत… घर में ग़रीबी होने के बावजूद पढ़ाई के लिए शहर चला गया. पहले तीन वर्षों में उसने बहुत पुरस्कार प्राप्त किए. हाथ पैरों का मजबूत था, बिल्कुल अपने पिता की तरह.
कई कुश्तियां जीती थी उसने और फिर कालिज की तरफ से कुश्तियां लडऩे लगा. कालिज का बेस्ट खिलाड़ी भी निर्वाचित हुआ. बी.ए. के अंतिम वर्ष में वह अपने सहपाठियों के जोर देने पर स्पोट्र्स कालेज को छोडक़र खालसा कालेज में आ गया. खालसा कालेज में उसे कुछ महीने ही बीते थे कि पूरा सिख बन गया. गझिन दाढि़ में वह एकदम जत्थेदार मालूम होता था. अखाड़े में उसका जाना छूट गया था.
वह अंधेरे उजाले अपने साथियों के साथ गाँव आता, थोड़ी देर रूकता और चला जाता. उसे हमेशा जाने की जल्दी रहती थी.
नछत्तर तो पहले ही उसके हिस्से की बची खुची जमीन पर आंखें गड़ाऐ था. उसने लोगों के कान भरने शुरू कर दिए. लोग जीता से दूर रहने लगे.
वह छुट्टियों में पूरे पंद्रह दिन गाँव में रहा था. वह जब भी अपने गाँव के किसी साथी या रिश्तेदार के चाचा ताऊ या भाई को बुलाता तो वे उसकी बात पर ध्यान न देते, डरते हुए खिसकने की सोचते. कई बार तो उसे सामने आता देखकर अपना रास्ता बदल देते. वह यह सब देखकर बहुत दुखी होता. मेरे साथ अपना दुख बंटाता. मैं सब कुछ जानते हुए भी उसका मन रखने के लिए कहता-‘नहीं जीता, यह सब तुम्हारे मन का वहम है.’
छुट्टियों के बाद जीता अब महीनों बाद गाँव आने लगा. किसी को कोई ख़बर नहीं लगती. देबो ताई उससे झगड़ पड़ती, ‘देख बेटा, मैं तेरी पढ़ाई बंद कर दूंगी. तू घर आ जा. मुझसे ये बुरे दिन तेरे बिना नहीं काटे जाते. तेरा पिता तो किसी काम का रहा नहीं. तू ही कुछ घर का ख़याल रख.’
‘माँ, बस थोड़़े दिन की बात और है, फिर तो कॉलेज से फ्री हो जाऊंगा. तुम चिंता मत करो. अपनी कौन किसी से दुश्मनी है. क्या तुम्हें अपने बेटे पर भरोसा नहीं है?’ वह ताई को भरोसा भी दे जाता, हिम्मत भी बंधा जाता और जाते समय मेरी ड्यूटी भी लगा जाता- ‘माँ का ख़याल रखना, पढ़ाई जोरों पर है.’
एक रात जीता घर आया ही था कि पुलिस की कितनी ही जीपों और सैकड़ों की संख्या में बाकी वर्दी वालों ने गाँव को घेर लिया था. जीतो को हथकड़ी डालकर ले चले थे. किसी की हिम्मत नहीं पड़ी थी कि पुलिस से पूछे-जीते का कसूर क्या है?
देबो ताई अंधों की तरह जीप के पीछे भागी. थानेदार ने राइफल की बट मारी तो ताई वहीं ढेर हो गई. उस दिन के बाद आंधी आए तूफान आए, देबो ताई गाँव -गाँव, गली-गली, घर-घर भटकने लगी.
फिर वही हुआ जिसका डर था. एक हफ्ते के बाद अख़बार के मुख पृष्ठ पर जीता की लाश की फोटो छपी थी. उसे पढक़र पूरा गाँव हिल गया था.
‘अरे नाजर सिंह, लेट हो गए.’ तारा के फूफा घुम्मण सिंह ने उन्हें तहसील में आते हुए देख कर दूर से ही आवाज लगाई.
तारा के विचारों की श्रृंखला टूट गई. उस पता ही नहीं लगा कि वह तहसील में कब पहुंच गए थे.
‘घुम्मण सिंह, देबो का स्वर्गवास हो गया.’ नाजर सिंह ने पास आकर उसके कान में धीरे से कहा.
‘ओ हो, बहुत बुरी ख़बर है यह तो. अच्छा काग़ज तैयार है. जैले के दस्तखत हो चुके हैं, आओ फटाफट.’
वे चारों अर्जी-नवीस की बैच पर बैठ गए और काग़ज पूरे करवाने लगे.
दोपहर ढल गई थी. रजिस्ट्री हो चुकी थी और वे वापस लौट रहे थे.
‘बापू यह लो झोला.’ तारा ने दुखित-सा हो कर रजिस्ट्री वाला झोला ऐसे पकड़ाया जैसे चीज गले से उतार दी हो और स्वयं नहर के किनारे-किनारे कब्रों की ओर होते हुए चल दिया.
धूं-धूं चिता जल रही थी. तारा को ऐसा लगा जैसे वन में से एकमात्र बचे पेड़ को तोड़ कर चिता में चुन दिया गया हो. उसने एक लकड़ी उठाई और चिता पर रख दी. उसके मुँह से स्वयं ही चीख निकल गई. वह कितनी ही देर तक फफक-फफक कर रोता रहा.
शाम घने अंधकार में बदल गई थी. वह मुड़ा तो क्या देखता है कि पीपल के पेड़ के नीचे जैला ताऊ गुम-सुम बुत बना हुआ बैठा है. उसकी दाढ़ी में कितने ही आंसू अटके हुए है. ‘ताऊ!’ इतना ही उसके मुँह से निकला. वह उनके गले से लिपट गया और दहाड़ मार कर रोने लगा.
‘चलो ताऊ, घर चलो.’ तारा स्वयं को सामान्य करता हुआ बोला.
‘नहीं बेटा, मैं अभी नहीं जाऊंगा.’ उसने जेब में से रूपए निकाले और तारा के हाथों में पकड़ाते हुए कहा, ‘ले बेटा, इन्हें संभाल, इनसे नाजर सिंह को मृत्युभोज दे देना.’
(अनुवाद: सुभाष नीरव)