आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

एक नये अनृत का प्रस्ताव: मदन सोनी

औपन्यासिक वास्तविकता और औपन्यासिक कल्पना:

– पहली जो शुद्ध बौद्धिक वस्तु है; भाषादैहिक है; पाठ है; पठन, मनन, चर्वण, व्याख्या, के अधीन है; जिसमें भाषा एक विशिष्ट फलन में सक्रिय है; जिसमें भाषेतर पदार्थ-जगत के साथ भाषा का एक अद्वितीय सम्बन्ध विकसित है; जिसका अपना एक अभिसमय, अपनी एक वंशावली है जो उसकी पहचान का सन्दर्भ है, जो उन तमाम घटनाओं के बीच स्वयं भी एक घटना की तरह शामिल है जो उसके बाहर और उसके भीतर घटती है. जो एक निजी हस्ताक्षर को धारण करती है.

– दूसरी वह है जो अपने गुण धर्म में बिल्कुल वैसी ही है जैसी हमारी वह दुनिया जिसमें हम (जिनमें ज़ाहिर है लेखक और उनके लिखे उपन्यास भी शामिल हैं) रहते हैं, पर इस अत्यन्त निर्णायक भेद के साथ कि इस दुनिया के साथ हमारा सम्बन्ध उक्त पहली की मध्यस्थता के बिना नहीं बन सकताः ‘इस (कल्पित) दुनिया के साथ हम, इस दुनिया को जी सकने की अपनी क्षमता के सहारे नहीं बल्कि पढ़ने के माध्यम से सम्पर्क करते हैं… वह हमारे पठन के लिए अभिगम्य है, हमारे अस्तित्व के लिए नहीं.’

(मॉरिस ब्लांशो, ‘दि लैंग्युएज आफ़ फ़िक्शन, दि आर्क ऑफ़ फायर’)

ध्यान रहे कि ब्लांशो का कथन उपन्यास की कल्पित दुनिया (औपन्यासिक कल्पना) के बारे में है, स्वयं उस दुनिया के बारे में नहीं जिसमें यह कल्पित दुनिया अवकाश पाती है, जिसे हम औपन्यासिक वास्तविकता कह रहे हैं. यह औपन्यासिक वास्तविकता हमारे अस्तित्व के लिए उतनी ही अभिगम्य होती है जितनी कि वह दुनिया जिसमें हम ऐन्द्रिक रूप से रहते हैं. उपन्यास को पढ़ने की प्रक्रिया में हमारा सम्बन्ध उसमें कल्पित सृष्टि से ही नहीं बनता बल्कि इस सृद्गिट की मध्यस्थता करती, भौतिक रूप से वर्तमान पाठीय निर्मित से भी, जाने-अन्जाने, बनता है. और हालाँकि इसे भी हम ‘पढ़ते’ ही हैं पर पढ़ना यहाँ ‘माध्यम’ न होकर जीने का ही ढंग होता है.

औपन्यासिक वास्तविकता और औपन्यासिक कल्पना के इस भेद को रेखांकित करना यहाँ हमने इसलिए ज़रूरी समझा है क्योंकि ये दोनों परस्पर निर्भरता में उपन्यास नामक एक ही ज़िल्द में इस तरह बंधी होती है कि हम इनकी स्वतन्त्र सत्ता को अक्सर अनदेखा कर देते हैं, और यह अनदेखी प्रस्तुत उपन्यास खिलेगा तो देखेंगे में इसलिए उचित नहीं है क्योंकि इसमें इन्हीं दोनों के बीच का अवकाश वह घटना-स्थल है जहाँ वृत्तान्त के एक नये रूप में प्रारूप की सम्भावना घटित होती है.

खिलेगा तो देखेंगे में उपन्यास के ये दोनों पक्ष एक-दूसरे के साथ ऐसे सम्बन्ध में ले आये गये हैं कि दोनों एक-दूसरे पर अपनी छाया डालते हैं, एक-दूसरे पर खुद को आरोपित करते हैं, एक-दूसरे के रूपक बनते हैं. परिणामतः जो दुनिया इस उपन्यास में ‘कल्पित’ है, वह जैसे पाठ के रूप में हमें उपलब्ध होती है, वह जैसे हमें पठनीय हो जाती है, और उसी अनुपात में वह पाठ, जिसमें यह दुनिया कल्पित है, अपनी वास्तविकता खोकर एक कल्पित वस्तु के रूप में उभरता है. मानो जिसे हम पढ़ रहे थे वह उपन्यास नहीं, उपन्यास का भ्रम था, एक झूठा उपन्यास; और इसे पढ़ते हुए जिस दुनिया से हमारा सम्बन्ध बन रहा था वह एक कल्पित झूठी दुनिया न होकर एक पुस्तक थी, एक यथार्थ वस्तु.

खिलेगा तो देखेंगे का गाँव एक पुस्तक है, एक पाठीय, पठनीय गाँव जिसमें इस गाँव के लोग उनकी जीवन-स्थितियाँ, वातावरण आदि शामिल है, एक आईना है जिसमें जो शक्ल उभरती है वह एक पाठ की शक्ल है. जिस तरह सामान्यतः एक उपन्यास अपने पढ़े जाने की प्रक्रिया में अपने पाठक को अपने भीतर खुलती दुनिया में छोड़कर अदृश्य हो जाता है, कुछ उसी तरह यह गाँव अपने पढ़े जाने की प्रक्रिया में अपने पाठक को अपने भीतर उपन्यस्त पाठ के समक्ष छोड़कर अदृश्य हो जाता है.

इस गाँव की पाठीयता का एहसास सबसे पहले और सबसे अधिक इसकी भाषा-दैहिकता में होता है. भाषादैहिकता भाषाबद्धता से भिन्न है. आम आख्यान-वस्तुओं की भाँति वह भाषा ‘में’ बँधा हुआ नहीं है. उस तक हम भाषा के ‘सहारे’, अन्वय और सन्दर्भों के ‘सहारे’ ही पहुँचते हैं, पर इस तरह जहाँ या जिस चीज़ तक पहुँचते हैं, वह स्वयं भाषादैहिक निर्मित ही है; भाषा से निर्मित. किसी ऐन्द्रिक तन्त्र के भीतर संकल्पित न होकर वह स्वयं भाषा के गर्भ में विकसित गाँव है. इस गाँव में देखने, सुनने, छूने, चखने, सूँघने के संस्कार और अभिप्राय लगभग नहीं है. इनके बारे में बात हो सकती है पर ऐसे अवसर प्रायः दुर्लभ हैं जब किन्हीं ऐन्द्रिय स्थितियों या पात्रों की ऐन्द्रिय प्रतिक्रियाओं से हमारा सामना होता हो. अनुभूतियाँ चरितार्थ न होकर पठित है. पर यह ‘ऐन्द्रियता का अभाव’ (जैसी) अपकर्षात्मक स्थिति नहीं है इसलिए कि ऐन्द्रियता उसका संकल्प नहीं है. उसका संकल्प भाषा में विन्यस्त एक ऐसी संघटना होने का है जिसमें गुरूजी, कोटवार, जिवराखन, डेहरिन, मुन्ना, मुन्नी, पत्नी, पाठशाला, थाना, बन्दूक जैसे तमाम, लगभग पूरी तरह निराविष्ट, ‘शब्द’ मिलकर गाँव नामक ‘पाठ’ की रचना कर सकें-नितान्त अपनी शाब्दिकता के बूते पर, ऐन्द्रिय अनुभूतियों, भावनाओं, विचारों के संसाधन-तन्त्रों का किसी भी तरह सहारा लिये बगैर. जहाँ ‘प्रेम’ या ‘सुख’ या ‘गरीबी’ शब्द ही प्रेम या सुख या ग़रीबी हों और लकड़ी की बन्दूक के साथ बोला गया ‘धाँय’ शब्द ‘मृत्यु’ शब्द का कारण हो. पद के सहारे अर्थ को ही पदार्थ के रूप में पाने का संकल्प. विनोद कुमार शुक्ल उन सन्दर्भ-वाहिकाओं को लगभग काट देते हैं जिनके सहारे इस उपन्यास का गाँव किन्हीं दूसरे गाँवों (किन्हीं दूसरे उपन्यासों के भी गाँवों) से मिलकर अपनी पाठीय शुद्धता को दूषित कर सके.

यह भाषा को उसकी आत्यन्तिक अ-मानवीयता में चरितार्थ करने का जोख़िम और कौशल है. मानव-अस्तित्व और भाषा के बीच के उस वियोग को सामने लाने का, स्वयं भाषा में उसे उत्कीर्ण करने का कौशल जो हालाँकि शाश्वत है किन्तु जिसकी अस्वीकृति की कल्पना पर सम्प्रेषण का, आख्यान का सत्याभासी व्यवहार टिका हुआ है. इस उद्यम के सामाजिक-राजनीतिक मूल्य पर चर्चा करना यहाँ हमारा उद्‌देश्य नहीं है, सिर्फ इस संकेत को हम यहाँ लक्ष्य कर सकते हैं कि इस निराविष्ट अमानवीय भाषा को सामने लाते हुए विनोदकुमार शुक्ल, चाहे अनायास ही, हमारे अपने समय में मानव-अस्तित्व और भाषा के वियोग को उजागर करते हैं जो हमारे छलयोजित व्यवहार में दबा-छुपा रहता है. पर विनोद कुमार शुक्ल का अभीष्ट सम्भवतः यह नहीं है. आख्यान के स्तर पर उनका अभीष्ट, स्वयं इस वियोग का आखयान रचने का है. वे एक ऐसे गाँव की कल्पना करते हैं जहाँ यह वियोग अपने यथार्थ में प्रगट हो सके और परिणामतः जहाँ इस वियोग को कल्पित मानकर चलने की कल्पना का उच्छेद हो सके. विनोद कुमार शुक्ल इसके लिए इस वियुक्त भाषा के क्रीड़ातिरेक का सहारा लेते हैं और उससे ऐसी स्थितियाँ, ऐसे संवाद, ऐसे कथन रचते हैं जो चरम रूप से वाक्यात्मक हैं, जिन्हें किसी तरह की ऐन्द्रिय, आनुभूतिक इमदाद प्राप्त नहीं है, जो अपनी जीवनीशक्ति के लिए पूरी तरह भाषा पर निर्भर हैं. अगर ये स्थितियाँ, संवाद, कथन आदि हमें असहज या ‘सुर्रियल’ लगते हैं तो इसलिए कि हमारे समक्ष इस मानवीय भाषा की मानव-चरित्रों के साथ सन्निधि के नतीजे में प्रगट होते हैं. विनोद कुमार शुक्ल दोनों के इस वियोग को झुठलाये बगैर दोनों को एक-दूसरे के साथ रखते हैं. कुछ-कुछ उन ‘एनीमेशन’ फ़िल्मों की तरह जिनमें मनुष्यों की जगह मानवीय रेखांकनों की मानवीय वाणी बोलते हुए दिखाया जाता है – इस फ़र्क के साथ कि खिलेगा तो देखेंगे के इस एनीमेशन में चरित्र तो मानवीय है पर जो बोला जा रहा है वह स्वयं मानवीय वाणी का रेखांकन है.

इस उपन्यास के गाँव के मनुष्य इस अर्थ में उस मंचविधान और दृश्यबन्ध का हिस्सा हैं जहाँ भाषा का नाटक खेला जा रहा है, जिसमें निरूपाधि रूप से शब्द और वाक्य बाल रहे हैं. पर इस नाटक में जिस हर तक भाषा की इस विविक्त आवाज़ को सुना जा सकता है, उसी हद तक मनुष्य की, उतनी ही विविक्त, ख़ामोशी को भी. यह अपने में शायद विरोधाभास जान पड़े पर एक वस्तुस्थिति है कि आवाज़ यहाँ ख़ामोशी को पृष्ठभूमि है. एक मानवीय ख़ामोशी. एक ख़ामोश गाँव. खिलेगा तो देखेंगे के गाँव की पाठीयता का यह दूसरा लक्षण हैः उसकी यह ख़ामोशी, जो अग्रभूमि पर है. यह ख़ामोशी एक स्थैतिकता में फलित है. उपन्यास को पढ़ते हुए यह सहज ही लक्ष्य किया जा सकता है कि इसके आख्यात जीवन में गति का उल्लेखनीय अभाव है. उसका भू-दृश्य न केवल उच्चावचन-युक्त नहीं है, बल्कि अत्यन्त सपाट है. हम यहाँ एक ऐसे गाँव में हैं जो अन्यथा एकदम आम है, जहाँ वर्ग और वर्ण हैं, ग़रीबी है, साहूकार है, शोषक और शोषित हैं, शक्ति और निर्बलता है. यह भी कह सकते हैं कि जिस अनुपात में यह सब है उसी अनुपात में लोगों को इस सबका बोध भी है. यह सब उन तमाम गाँव-केन्द्रित हिन्दी उपन्यासों के इसी सब से किसी तरह कम नहीं है जो इसी सब के आधार पर अपनी सघन घटनात्मकता के लिये जाने जा सकते हैं. पर खिलेगा तो देखेंगे के गाँव में यह ‘आदर्श सामग्री’ ऐसी किन्हीं भी घटनाओं, परिस्थितियों, चुनौतियों में फलित नहीं होती जिनसे आख्यान का निबन्ध होता हो, उसे गति मिलती हो, जो उसके चरित्रों को भावनात्मक, नैतिक, बौद्धिक द्वन्द, ऊहापोह या या संकट की स्थिति में ले जाती हो और जिसके परिणामस्वरूप चरित्रों को ऐसा कोई परिप्रेक्ष्य प्रदान करती हो जिसमें उनकी व्यक्तिमत्ता, उनकी विशिष्टता, उनकी चारित्रिकता को आकार मिल सके, उनके संकल्प, उनकी वाणी, उनके निर्णय चरितार्थ हो सकें. कुल मिलाकर यह सामग्री ‘आदर्श’ होने के बावजूद ऐसे ढाँचे को नहीं गढ़ती जिसे हम हिन्दी उपन्यास की यथाशक्य विशिष्टताओं से युक्त वंशावली में शामिल पा सकें. इसके विपरीत वे परस्पर वियोजित हैं और इस वियोग को पर्याप्त ‘अण्डर प्ले’ करते हुए एक क्षैतिज विन्यास ‘स्थित’ हैं – गहराई को एक सतह में आयत्त करते हुए.

समूची घटना-प्रवण सामग्री के बावजूद इस गाँव में घटना का, परिवर्तन का अभाव इस गाँव को अपने में एक घटना में बदलता है. यह घटना हिन्दी उपन्यासों में चित्रित भारतीय गाँवों की घटनाशीलता और परिवर्तनशीलता के परिप्रेक्ष्य में जितनी उल्लेखनीय है, उससे अधिक स्वयं भारतीय गाँवों की घटनाहीनता के सन्दर्भ में उसका मूल्य है. क्योंकि इस घटनाहीनता का अनुकरण किये बगैऱ (यूँ भी आप किसी चीज़ के ‘अभाव’ का अनुकरण नहीं कर सकते) वह इसे एक घटना में बदलता है: इस घटनाहीनता के क्रीड़ातिरेक से, उसे एकाग्र साधे रखते हुए, कुछ भी घटने को कुछ भी अगला घटने में फलित न होने देते हुए, कुछ भी घटने को ऐसा कोई वक्र या घुमाव न लेने देते हुए जिससे उसमें किसी तरह के वृत्त की सम्भावना पैदा हो सके…. और यह इस गाँव की पाठीयता का एक और लक्षण है: जो नहीं है, जो ‘अभाव’ है उसे एक भाव की तरह जीने और जिलाये रखने की सामर्थ्य है. यह इस गाँव की पाठीय शक्ति ही है कि सन्दर्भात्मक तौर पर लगभग न होने के कगार पर भी वह अपना अत्यधिक होना दर्ज कराता है.

ऊपर हमने ‘संयोजक तत्त्व’ के अभाव की बात कही है. यह तत्त्व ‘समय’ है – समय जिसमें हर आख्यान का मूल आधारित होता है बल्कि जिसे हम आख्यान का मूल कह सकते हैं (‘मूल’ शब्द के उस गणितीय अर्थ को शामिल करते हुए जिसमें ‘वर्गमूल’ या ‘घनमूल’ जैसे पदों का प्रयोग किया जाता है) पर यह कहना सही नहीं है कि इस गाँव में ‘समय का अभाव’ है. अभाव दरअसल समय के उन रूपों का है जो समय को बाँधते हैं, जिनमें उसका संस्थापन और संहिताकरण होता है, जहाँ से उसका प्रवर्तन, परिचालन और नियमन होता है, जो अन्ततः आखयान के (और जीवन के भी) परिचालन, नियमन आदि में फलित होता है. इतिहास, राजनीति, मनोविज्ञान आदि समय को रूपायित, प्रवर्तित, परिचालित करने वाली ऐसी ही संहिताएँ हैं. कहने की आवश्यकता नहीं कि ये संहिताएँ समय को मनुष्यमूलक, मानवीय भी बनाती हैं.

इस उपन्यास के गाँव में समय के इस संहितात्मक बल का अभाव है. परिणामतः उसकी उपस्थिति में इतनी अल्पता, इतना लाघव है कि यह गाँव, उसके लोग, उनकी गतिविधियाँ अत्यन्त भारहीन रूप से समय में तैरती हुई प्रतीत होती है. वह स्वयं ‘ठहरा’ हुआ है, जैसा कि उपन्यास का नैरेटर एक जगह कहता है:

यहाँ क़रीब-क़रीब ठहरा हुआ समय होता, जो बदलता था वो इतना धीरे या कम था कि बदलाव मालूम नहीं पड़ता था. पन्द्रह-बीस साल में थोड़ा बहुत मालूम पड़ता हो. (पृष्ठ १९७)

इस ठहराव को हम बहुविध लक्ष्य कर सकते हैं. मसलन गाँव के लोगों की अपनी कोई स्मृतियाँ नहीं हैं, जातीय ही नहीं, निजी स्मृतियाँ भी. (यह तथ्य विनोद कुमार शुक्ल के कुल वांड्‌मय के बारे में भी इतना ही सच है. इस अर्थ में उनका लेखन स्मृति-हीन लेखन कहा जा सकता है जो अन्तर्पाठयीता के भी घोर अभाव के रूप में परिलिक्षित होता है.) उनका कोई ऐसा अतीत, ऐसा कोई विशिष्ट बीता हुआ निजी समय नहीं है जो उनकी गति को किसी भी तरह प्रभावित करता हो, जैसा मसलन, निर्मल वर्मा के पात्रों के साथ होता है जो हमेशा अपने बीते हुए समय से आविष्ट, उसका भार ढोते हुए दिखायी देते हैं, जो हमेशा अतीत और वर्तमान की सन्ध्या में, स्मृति के मुबहम में प्रगट होते हैं.

न ही वे भविष्य में रहते हैं – सामुदायिक या निजी, कैसे भी भविष्य में. किसी निजी या सामुदायिक संकल्प या आश्वासन से वे प्रतिश्रुत नहीं है.

किन्तु वे वर्तमान में भी रहते या जिस समय में वे रहते हैं, उसका होना, उसका वर्तमान होना, महज़ एक उपचार है. वस्तुतः वह एक अन्तरिम क़िस्म का कामचलाऊ वर्तमान है–इसी गाँव के उस थाने की तरह जिसमें गुरुजी और उनके बीवी-बच्चे रहते हैं. वह एक न्यूनतम उपस्थिति है, सिर्फ़ उनके होने मात्र के लिए अनिवार्य. उसमें, जैसा कि हमने ऊपर संकेत किया, संहिताबद्धता नहीं है – राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक…कैसी भी. लोगों के जीवन पर वह कोई ऐसा दबाव नहीं डालता जिसमें उनके जीवन में कोई उल्लेखनीय विचलन पैदा होता हो और जिससे वे उसकी उपस्थिति के प्रति सजग होते हों. यह गाँव प्रेमचन्द या रेणु का और व्यापक और भारतीय उपन्यास का गाँव जिन अर्थों में नहीं है उनमें एक यह भी है कि वह किसी भी तरह से उन राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक समय में स्थित नहीं है जो अपनी स्वरूप-भिन्नता के बावजूद इन गाँवों का वर्तमान रचता रहा है, जिसमें गतिशील होकर ये गाँव समय-मात्र में अपनी साझेदारी की एक रूढ़ि बनाते हैं. इस गाँव के लिए समय इसी के थाने के उस लॉकअप की तरह है जिसे गुरूजी की ही तरह वह भी जब चाहे खोलकर अपनी ‘स्वतन्त्रता का प्रदर्शन’ कर सकता है.

समय के साथ इस गाँव के सम्बन्ध को हम इस गाँव में घटित एक घटना के माध्यम से और स्पष्ट कर सकते हैं. उपन्यास का नैरेटर एक जगह कहता है, ‘जो काल अच्छा लगे उसे छाँट कर निकाल देना चाहिए, और जो बुरा हो, उसे दबा देना.’ (पृष्ठ ६०) उपन्यास का गाँव जैसे इस परामर्श से प्रतिश्रुत है. काल सचमुच इस गाँव की भूमि में दबा हुआ है. उपन्यास के बीचों-बीच एक रात सहसा लोग उसकी आवाज़ को सुनते हैं, जब पूरे गाँव के सन्नाटे को भरती हर जगह से उसकी टिक्‌-टिक्‌ उभरती है. यह टिक्‌-टिक्‌, जो घड़ी की टिक्‌-टिक्‌ से मिलती-जुलती है, इस गाँव में घड़ी की टिक्‌-टिक्‌ के उस अर्थ में सुनायी नहीं देती जिस अर्थ में सामान्यतः हम अपने ‘यथार्थ’ से उसे सुनते हैं. ‘यथार्थ’ में हम उसे उन्हीं तमाम शब्दों की तरह सुनते हैं जो सुनायी देने के अगले ही क्षण उन अर्थों की ओट में गायब हो जाते हैं जो हमने उन पर आरोपित किये होते हैं. इस गाँव के लोग, लेकिन, इस टिक्‌-टिक्‌ को शब्द की तरह, एक अर्थहीन शब्द की तरह (‘शब्द’ शब्द के व्याकरणिक नहीं बल्कि स्वरवैज्ञानिक अर्थ में) सुनते हैं. अब तक अनन्वित और असंहत एक शब्द. प्रकृत, अ-मानवीय. इसीलिए गाँव के लोग उसे ‘भ्रम’, ‘कीड़े की आवाज़’, ‘फाँफा’-टिड्‌डा जैसा कीड़ा’, ‘दीमक की कुतरने की आवाज’ जैसे अर्थों से छेड़ सकते हैं. वह प्रकृत है, उपमेय है, उपमान नहीं है. प्रतिमान नहीं है. ‘समय की पुकार’, ‘समय की आवाज़’ जैसे धमकाने वाले, दबाव डालने वाले आशय उसमें नहीं है. उसमें लाघव है और ज़मीन में कुछ लोटे पानी डालकर भी उसका शमन करने का यत्न किया जा सकता है. (यद्यपि ‘दीमक के कुतरने की आवाज़’ में निहित ध्वन्यर्थ का हमसे विपरीत पाठ भी किया जा सकता है पर उससे उस सम्बन्ध में कोई विचलन नहीं आता जिसका प्रस्ताव हम कर रहे हैं)

यह घटना, जो हमारे अपने यर्थाथ-बोध के सन्दर्भ में निश्चय ही एक फंतासी है, इस गाँव के जीवन में एक ‘सहज’ घटना है. वे इस घटना में कोई असहज, अयथार्थ, दिव्य संकेत नहीं ढूंढते. उनका विस्मय ‘सहज’ घटना है. यह एक पाठ ही है जिसमें एक फंतासी की अवधारणा इतनी सहज हो सकती है, किसी ‘मानवीय गाँव’ में नहीं. और यह पाठ ही है जो समय को को इस तरह अण्डरग्राउण्ड कर सकता है, जो इस तरह पाठमूलक बना सकता है कि उसकी ध्वनियाँ बहुव्याख्याप्रवण हो सके. समय में घटित होने और समय के हाथों परिभाषित होने के बजाय यह गाँव समय को एक सामान्य घटना में बदलता है, उसे परिभाषित करने का यत्न करता है.

और अन्ततः इस गाँव की पाठीयता का क्या यह भी एक लक्षण नहीं है कि यह स्वतः प्रमाणित, स्वतः प्रकाशित ‘होने’ की बजाय, ज्य़ादातर अपने पढ़े जाने की प्रक्रिया में, अपने पठन-सापेक्ष, पाठक-प्रमाणित होने में उद्‌घाटित होता है? यह पाठक जो इस गाँव को निरन्तर पढ़ता है, इस उपन्यास का आख्याता (नैरेटर) है. उपन्यास के आख्यात के सन्दर्भ में यह आख्याता अन्य उपन्यासों के आख्याताओं से इस मानी में भिन्न है कि यहाँ वह पूरी तरह एक पारदर्शी, प्रांजल उपस्थिति नहीं है, जिसके बावजूद हम उपन्यास के आख्यात को घटित होते देख सकें, जहाँ वह आख्यात का सिर्फ़ कथन कर रहा हो. उपन्यास का एक बड़ा हिस्सा उसके द्वारा घेरा हुआ है जहाँ से वह आख्यात के बारे में महज़ कथन न करते हुए उसे पढ़ता है, जहाँ वह आख्यात को एक पुस्तक की तरह अपनी ओट में ले लेता है. परम्परा, इतिहास, अतीत, भविष्य, वर्तमान के साथ इस गाँव के लोगों के सम्बन्ध के बारे में, उनके सुख, दुख और प्रेम के बारे में जो कुछ वह कहता है वह ज्य़ादातर घट्‌यमान रूप में हमारे सामने कभी प्रगट नहीं होता. हमें प्रतीति होती है कि उसके इन अनुभवों को जन्म देता ऐसा कुछ गाँव में है जिस तक सिर्फ़ उसकी पहुंच है जो सीधे-सीधे हमारे लिए अभिगम्य नहीं है.

(यहाँ यह स्पष्ट करना उचित होगा कि हमने इस निबन्ध में इस पाठक (उपन्यास के आख्याता) के पठन की गुणवत्ता, उसके सत्तात्मक या सौन्दर्यात्मक, मूल्य को लेखे में नहीं लिया है. यहाँ सिर्फ़ इतना कह देना उचित होगा कि इस गाँव की जीवन-स्थितियों और लोगों के बारे में उसकी अनेक व्यंग्यात्मक टिप्पणियाँ उसे हिन्दी के ‘नाईव’ प्रगतिशील पाठकों का प्रतिनिधि साबित करती हैं. पर यह एक स्वतन्त्र (और शायद रोचक) निबन्ध का विषय है.)

खिलेगा तो देखेंगे के गाँव से पलटकर जब हम स्वयं इस उपन्यास के पाठ पर गौर करते हैं तो पाते हैं यह अपनी बनावट में बहुत हद तक एक गाँव की तरह है. जैसे एक गाँव में हम उसकी किसी भी दिशा से प्रवेश कर सकते हैं और किसी भी क्रम से उसका अवलोकन कर सकते हैं, वैसे ही इस उपन्यास को हम कहीं से भी पढ़ना आरम्भ कर सकते हैं. उसका लगभग हर हिस्सा एक शुरूआत है और किसी भी हिस्से को उसके अन्त की जगह रखने में कोई गम्भीर फ़र्क नहीं पड़ेगा. उपन्यास में प्रदत्त क्रम एक उपचार-मात्र है जो एक छपी हुई पुस्तक होने के नाते अनिवार्य है. या, हम यूँ भी कह सकते हैं कि उपन्यास का प्रदत्त क्रम उसके आख्यात गाँव के पहले पाठ के परिणामस्वरूप बन गयी एक पगडण्डी मात्र हैं, जिस पर हम चाहें तो नहीं चल सकते हैं. हम अपना अलग रास्ता, अलग पड़ाव चुन सकते हैं. हम कई जगहों से बार-बार गुज़र सकते हैं और अनायास ही कोई हिस्सा छोड़ भी दे सकते हैं. हम जो हिस्सा छोड़ेंगे उसी से वंचित रहेंगे (यद्यपि यह वंचना कम न होगी), उसके कारण किसी दूसरे हिस्से से नहीं.

एक पाठ का यह बहुदिशात्मक खुलापन, अनुशासन-मुक्ति, विचरण की ऐसी गुंजाइश, अभिगमन की ऐसी छूट आदि इस बात का संकेत हैं कि यह एक संस्थापित, संहत, साहित्यिक संरचना – एक ऐसी संरचना जो ‘पाठ’ की आधुनिक अवधारणा से मेल खाती हो – नहीं है. और तब भी वह कोई परीकथा, कोई अनुश्रुत मौखिक आख्यान नहीं है. वह एक ‘लिखित’ पाठ ही है – इस अवधारणा के आधुनिक अर्थ में, अपने में एक अद्वितीय, निर्विवाद्य हस्ताक्षर लिये हुए. किन्तु इस फ़र्क के साथ कि वह एक विचलित पाठ है, अपनी पाठीयता की कीमत पर पाठ के अनुशासन को तोड़ता हुआ पाठ. जैसा कि हमने कहा, उसकी पाठीय वास्तविकता और उसके कल्पित आख्यात के बीच इस उपन्यास में एक उल्लेखनीय स्तर पर प्रतिस्थापनीयता घटित होती है. उपन्यास के पाठ का यह बहुदिशात्मक खुलापन आदि, इसीलिए एक गाँव का खुलापन है जो उसे एक गाँव का-सा रूप प्रदान करता है. हम अपने पिछले रूपक का प्रयोग करें तो कह सकते हैं कि इस प्रभाव के चलते यह बजाय एक ‘वास्तविक’ पाठ के एक ‘एनीमेटेड’ पाठ की प्रतीति देता है, पाठ का चल-रेखांकन. और इसी के परिणामस्वरूप, इसी अनुपात में इस पाठ का हमारा पठन भी एक ‘वास्तविक’ पठन होने के बजाय एक ‘एनीमेटेड’ पठन होता है.

गाँव जैसी संरचना कहते हुए हम उसके स्थलीय अर्थ को ही इंगित नहीं कर रहे हैं, हमारा इंगित उसकी प्रकृति की ओर भी है. वे सारे लक्षण जो इस संकेत का आधार हैं-बहुदिशात्मक खुलापन, अनुशासन के दबाव से मुक्ति, सहज अभिगम्यता, विचरण की गुंजाइश आदि, कहीं न कहीं उस भोलेपन, सरलता, अनभिज्ञता आदि के संकेत भी लिये हुए हैं जिनमें एक गाँव की प्रकृति प्रतिबिम्बित होती है. पाठ से सामान्यतः हमारी अपेक्षाएँ ये नहीं होतीं. सामान्यतः पाठ एक बौद्धिक रचना या उत्पाद है, मानवीय ज्ञान का एक, और सम्भवतः सबसे जटिल, सबसे प्रभविष्णु और प्रभावी रूप. पर इस उपन्यास का पाठ इस अवधारणा का उसके इस रूप में अनुमोदन करता प्रतीत नहीं होता. बौद्धिकता स्थितियों और मसलों को प्रगटतः बौद्धिक स्तर पर (ऐन्द्रिय स्तर पर विपरीत) ही उठाते हुए वह उन्हें एक ख़ास ढंग से मासूमियत, सरलता और भोलेपन के हवाले कर देता है. यह सरलता और अनभिज्ञता पाठ की बौद्धिक भूमि की कठोर सतह को भुरभुरा बनाती है. समय, परम्परा, पुरखे, इतिहास, अतीत, भविष्य, सभ्यता, संस्कृति, समझ, सुख, दुख, प्रेम, भय, हिंसा, आग जैसे बीसियों पद इस सतह पर आते हैं पर अपनी कठोरता की प्रतीति कराने से पहले ही ऐसे रूपकों या दृश्यों से विसर्जित हो जाते हैं जो अपनी सरलता, सादगी और अल्पज्ञता में ही सुन्दर हैं. वे छूते हमारी बुद्धि को ही हैं, पर इस सरलता और सादगी के सहारे ही.

उपन्यास के गाँव की पाठीयता की चर्चा के प्रसंग में हमने समय और घटनाओं के अभाव और परिणामतः इस गाँव के चरित्र में व्यक्तिमत्ता, विशिष्टता, चारित्रिकता आदि की कमी की ओर ध्यान आकर्षित किया था. इस तथ्य को हम इस गाँव के प्रमुख चरित्रों की व्यक्तिवाचक नामहीनता से भी प्रमाणित देख सकते हैं: गुरूजी, पत्नी, मुन्ना, मुन्नी, कोटवार आदि. इन चरित्रों, जिनके इर्द-गिर्द यह गाँव बसा हुआ है, के सन्दर्भ में व्यक्तिवाचक संज्ञाओं का यह अभाव कहीं न कहीं इस गाँव की मानवीय अकिञचनता का द्योतक है. पर इसमें निहित समाजशास्त्रीय संकेत की दिशा में आगे बढ़ने से पहले ही हम यह देख सकते हैं (भले ही यह अपने में कितनी भी भयावह और त्रासद बात क्यों न हो) कि अपनी व्यक्तिमत्ता का उत्सर्ग करते हुए यह गाँव स्वयं इस उपन्यास की व्यक्तिमत्ता को असाधारण बल प्रदान करता है. अपनी घटनाहीनता के बावजूद, बल्कि जैसे इसी के चलते, वह उपन्यास को एक बड़ी घटना में बदलता है.

इस तरह खिलेगा तो देखेंगे. मनुष्य को पाठ की तरह और पाठ को एक मनुष्य की तरह लिखने-पढ़ने का उद्यम है. विनोद कुमार शुक्ल इसके लिए आख्यात और आखयान को; उपन्यास और गाँव को; बोध, अनुभव, चित्रण आग्रह, दावे, प्रतिज्ञप्ति के प्ररूप और एक अनभिज्ञ मासूम, ख़ामोश मनुष्य-रूप को एक-दूसरे के साथ उद्भासित (एक्सपोज़) कर एक ऐसी छवि उभारते हैं जिसमें हम दोनों पक्षों को एक-दूसरे की छाया में सतत रूपान्तरित देख सकें. यह छवि हिन्दी में, निश्चय ही, वृत्तान्त का एक नया प्रारूप हैः एक नये ‘अनृत’ का प्रस्ताव, जैसा कि देरीदा ने कहा है, ‘जब आप वृत्तान्त का कोई नया प्रारूप खोज लेते हैं तो एक नये अनृत को जन्म देते हैं.’

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