आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

गिव मी रेड, कॉमरेड: कुणाल सिंह

आदिग्राम उपाख्यान का अंश

एक सुबह जब कोई पाँच सवा पाँच बजे होंगे, आदतन बाघा की आँखें खुल गयीं. खटिये से उठा और दोनों कोठरियों के बीच की जगह में रखी बाल्टी से एक लोटा पानी निकालकर पिया. दक्खिना को आवाज़ दी, लेकिन भीतर की कोठरी में पूर्ववत सन्नाटा पसरा रहा. बाघा ने एक बार फिर से दक्खिना को पुकारा, अबकी ज़रा ज़ोर से, ‘‘दक्खिना, उठो भाई, सुबेरा हो गया.’’

भीतर से चूडिय़ों की खनक सुनाई पड़ी, गुलाब की दबी-दबी आवाज़ भी. वह दक्खिना को जगा रही थी. बाघा का काम पूरा हो गया. वह कोठरी से बाहर आ गया. यह रोज़ का ही नियम था. घड़ी की सुइयाँ जब ठीक सबेरे का पाँच बजा रही होतीं, आप से आप उसकी आँखें खुल जातीं. ‘हरि-हरि’ बोलते हुए वह खटिये से उठ पड़ता था. हाथ-मुँह धोते, कुल्ला करते वह दक्खिना को जगाता था और जब गुलाब घर बुहारने के लिए बढऩी उठा लेती, वह लोटे में पानी लेकर कान पर जनेऊँ चढ़ाता हुआ बाहर निकल पड़ता था. सी.पी.टी. कम्पनी के पिछवाड़े भगाड़ था, जहाँ गाँव के अधिकांश मर्द निबटान को जाते. औरतें घोष लोगों की बँसवाड़ी की तरफनिकल पड़तीं, या जिन दिनों कमर भर फ़सल खड़ी होती तो खेतों में ही.

लौटते हुए हराधन मिला तो बाघा को थोड़ा आश्चर्य हुआ. हराधन अक्सर फोटोग्राफर के घर के शौचालय का ही इस्तेमाल करता था. कभी-कभी ही इस तरफ आता. बाघा ने बीड़ी की टोंटी फेंकते हुए उसका हालचाल पूछा. रास्ते में एक-दो लोग और मिले. तब तक फजीरा नहीं हुआ था, अँधेरा ही था.

मातब्बर पंचानन बाबू के यहाँ रोज़ सुबह चाय बनती थी— बिना दूध की लाल चाय. इसके लोभ में रोज़ ही गाँव के कुछ लोग वहाँ जुट जाते. बाघा, बेनीमाधव महाशय, सुशान्तो बेरा, झोंटन मुकर्जी, चन्दन पाइन, पाँचू सरकार आदि डेली पार्टी के लोग थे. आज उनके साथ हराधन भी शामिल था.

सुबह के छह बज रहे थे, जब सब पंचानन बाबू के यहाँ पहुँचे. उनके दुआर पर सन्नाटा ही था. नीम के पेड़ के नीचे दो-चार कुत्ते गुटिआये हुए पड़े थे, भौंकने लगे, ‘‘ये साले कौन हैं जो आधी रात घूम रहे हैं?’’ बाहर की कोठरी में सोये बूढ़े दासू को जब लोगों ने जगाया तो वह अकबकाकर उठा. पूछा, ‘‘क्या बात है, इतनी रात को?’’

‘‘रात कहाँ है दासू, उठ सुबेरा होने वाला है.’’ बाघा ने कहा.

दासू ने आसमान की तरफ देखा. जाड़ों में अमूमन छह बजे तक उजाला हो जाया करता था, पर आज जाने क्या बात थी कि सूरज अभी तक नहीं उदित हुआ था. पूरब कोने में भी अभी रात की कालिख ही पुती थी.

दासू को असमंजस में पड़ा देख हराधन ने उसे अपनी घड़ी दिखायी.

‘‘नयी खरीदे हो? मुझे भी अपने जमाई के लिए लेनी है एक. कितने में आयी?’’ दासू उसकी कलाई पकडक़र घड़ी का मुआयना करने लगा.

झोंटन मुकर्जी को दासू की निर्बुद्धिता पर तरस आया. बोला, ‘‘तुझे घड़ी नहीं, टाइम दिखाया जा रहा है. छह बजकर…’’ उसने घड़ी की डायल पर नज़र डाली, अँधेरे में रेडियम की गोटियाँ जगमगा रही थीं. ‘‘छह बजकर पाँच मिनिट!’’

‘‘मुझे टाइम देखना नहीं आता. सूरज उगता है तो जान जाता हूँ सुबह भई, डूबता है तो रात होती है. तुम लोग जानकार हो, कहते हो तो मानने के सिवा कोई उपाय नहीं कि सुबह होगी, अभी नहीं तो फिर कभी.’’ वह कुनमुनाते हुए उठा और स्टोव में पम्प करने लगा. लोगों ने पंचानन बाबू की कोठरी की तरफ देखा. उन्हें आश्चर्य हुआ कि रोज़ गाँव में सबसे पहले उठ जाने वाले मातब्बर का अभी तक कोई अता-पता नहीं था. वे वहीं दुआर पर स्टोव के इर्द-गिर्द बैठकर आग तापने लगे. चाय का पतीला चढ़ाकर दासू भीतर निबटान के लिए चला गया.

इसी प्रकार आधा घंटा बीता, न सूरज उगा न उजाला हुआ. सबको शक़ पड़ा, कहीं उन्हें एक साथ धोखा तो नहीं हुआ! हराधन ने अपनी कलाई पर बँधी घड़ी को ठुकठुकाकर देखा, सेकंड की सुई बराबर परेड कर रही थी— लेफ्ट से राइट, राइट से और राइट.

तभी अँगोछे से हाथ-मुँह पोंछते हुए पंचानन बाबू निकले. शायद भीतर जाकर दासू ने उन्हें जगा दिया होगा और नित्यकर्म इत्यादि के बाद वे बाहर आये थे. बाकियों की तरह वे भी आश्चर्यचकित थे. मज़ाक के लहजे में बोले, ‘‘भइया ये सुरुज भगवान को अचानक क्या हो गया आज? हड़ताल पर चले गये हैं क्या?’’

‘‘लेकिन हड़ताल पर ये क्यों जाएँगे? जाड़े में तो ओवरटाइम बेचारे चन्दा मामा को करनी पड़ती है.’’ चन्दन पाइन ने कहा तो सभी हँस पड़े.

‘‘लगता है आसमान का भी अधिग्रहण किसी विदेशी कम्पनी ने कर लिया है. अब जब फैक्ट्री बनेगी तब न सूरज देव को ठेके पर नौकरी मिलेगी!’’ जब किसी ने कहा तो सबको जैसे हँसी का दौरा पड़ गया.

चाय तैयार हो चुकी थी. दासू ने स्टील की प्यालियों में सबको चाय बढ़ायी. चाय पीते हुए बातें होने लगीं. किसी की याद में अब तक कोई ऐसा दिन नहीं आया था, जब सूरज समय पर न उगा हो. उपस्थित लोगों में बेनीमाधव महाशय सबसे उम्रदराज़, लेकिन उतने ही मिथ्यावादी थे. उन्होंने झट एक ऐसे दिन का संस्मरण सुनाना शुरू कर दिया, जब सुबह के दस बजे तक सूरज नदारद था. दस बजे के बाद जो सूरज निकला भी, तो उसे देखकर लोगों को यक़ीन नहीं हुआ कि यह सूरज है.

‘‘दुबली पतली क्षीण मलिन काया, चेहरा पियराया हुआ भुरभुरा एकदम. पंचायत ऑफिस की बत्ती की तरह मरगिल्ली रोशनी करने वाला सूरज. देखकर सब चकित रह गये कि क्या यह वही अग्नि पिंड है जो प्राणी जगत में जीवन का संचार करता है! कहाँ गया वह उसका तेज? जैसे उसे पीलिया हो गया हो.’’ अपनी ही बात पर बेनीमाधव महाशय हँसने लगे. गाँव वालों को भी उनकी मिथ्या कथा से बतकूचन का रस मिलने लगा. अब तक दो-चार जने और इकट्ठा हो गये थे. किसी ने पूछा, ‘‘बाबा, यह कब की बात है?’’

‘‘एल्लो, पूछता है कि कब की बात है!’’ बेनीमाधव महाशय ने पूछने वाले चित्तो मलिक की तरफउपहास भरी नज़रों से देखा. बोले, ‘‘तू कब का छोरा है, अभी कल तक तो नाक से नेटा बहाता नंगे घूमा करता था. हुड़दंगिया एकदम. अगर मैं कहूँ भी तो क्या तू समझ सकेगा कि बहुत पुरानी बात है जब तू पैदा भी नहीं हुआ था!’’

किसी ने नकली गम्भीरता से चित्तो को डाँटा, ‘‘तू चुप कर. जब बड़े बोलते हों तो छोटे चुप ही रहा करते हैं.’’

चित्तो ने हाथ जोड़ लिया, ‘‘छिमा बडऩ को चाहिए!’’

अभी-अभी आये बंशी ने बेनीमाधव महाशय को प्रोत्साहित किया, ‘‘उसके बाद बाबा? उसके बाद क्या हुआ?’’

‘‘कौन? ओ तू भी आ गया? आ सुन. बात चल रही थी कि आज ही की तरह एक और बार जब सूरज दिन के दस बजे तक…’’

‘‘हाँ हाँ, उसने सुन लिया है. अब आगे की कथा कही जाए.’’ झोंटन मुकर्जी ने उन्हें टोका.

‘‘देख झोंटन, तू बीच में मत बोल. बंशी अभी-अभी आया है तो उसे पहले की कथा सुन लेने दे.’’

‘‘बाबा मैंने सुन लिया है, आप आगे की कथा ही कहिए.’’ बंशी ने कहा तो लोग हँसने लगे. सचाई यही थी कि सपन और फाटाकेष्टïो के साथ बंशी अभी-अभी आया था, लेकिन उसे शुरू से कथा सुनने में उतना मज़ा नहीं आता, जितना अभी बेनीमाधव महाशय को चिढ़ाकर आया.

बेनीमाधव महाशय को इससे कोई फ़र्क़ नहीं पडऩे वाला था. उन्होंने हठपूर्वक संक्षेप में पहले की कथा दोहरायी, तभी आगे बढ़े, ‘‘तब रानीरहाट में एक नामी ब्राह्मण और जोतिषी हुआ करते थे. दोहरा बदन, छह फुट से भी ज़्यादा ऊँचे. उमर सौ साल से ऊपर ही होगी. सिर के सारे बाल सफ़ेद, भौंहों और छाती के भी. तिस पर भी रीढ़ तनिक नहीं झुकी थी. चलते थे तो ऐसे एकदम तनकर चलते. क्यों न भला, ज्ञान-गुन में पूरे आर्यावर्त में उनकी टक्कर का कोई न था. गाँव के लोग उनके द्वार पर पहुँचे, हाहाकार करने लगे— तराहीमाम प्रभु, अब तुम ही निवारण करो. तब उन्होंने पत्रा बाँचकर कहा कि घोर कलजुग आने वाला है. सूरज जैसे महाप्रतापी पर भी राहु-केतु जैसे दुष्ट ग्रहों की छाया पड़ रही है. और तभी उन्होंने कहा था कि बहुत साल के बाद आज का दिन काला दिवस होगा.’’

‘‘यानी आप पहले से जानते थे कि आज सूरज नहीं निकलेगा?’’

‘‘हाँ, जानता था.’’

‘‘तो कल क्यों नहीं बताया आपने?’’ चित्तो मलिक ने चिढ़ाया.

‘‘क्यों बताता? मुझे क्या पड़ी है!’’ बेनीमाधव महाशय तुनक गये.

कथा जब इस अप्रिय स्थिति में ख़त्म हुई, लोगों का ध्यान पुन: मूल चिन्ता पर लौटा. नज़रें अनायास ही आसमान की तरफ रह-रहकर पड़तीं. पूरब कोने में अभी भी अँधेरा छाया हुआ था, तारे टिमटिमा रहे थे. किसी अनिष्ट की आशंका से सब घिरे हुए थे, लेकिन चुप थे. तभी वहाँ फोटोग्राफर का आगमन हुआ. वह सिर पर टोप और गले में कैमरा लटकाये, इस ‘काला दिवस’ का फोटो खींचते-खींचते तारक के साथ यहाँ पहुँच गया था. रतौंधी की वजह से उसने तारक को साथ ले लिया था. पंचानन बाबू के दुआर पर पहुँचने के बाद रेबा प्रसंग के कारण तारक वहाँ से खिसक गया तो असमंजस में पड़ा फोटोग्राफर जहाँ था, वहीं खड़ा रह गया. सबने उसकी तरफ जब देखा, तभी फोटोग्राफर की पीठ के ठीक पीछे दूर कुछ और दिखाई पड़ा.

‘‘ये कौन है?’’ किसी ने पूछा तो फोटोग्राफर ने कहा, ‘‘मैं हूँ, फोटोग्राफर.’’

‘‘नहीं, तुम्हें तो हम पहचानते ही हैं.’’ हराधन ने कहा. वह जानता था कि फोटोग्राफर को रतौंधी है, सो उसका हाथ पकडक़र बिठा दिया. ‘‘लेकिन वो जो आ रहा है, वह कौन है?’’

सब देख रहे थे, पूरब दिशा से एक दुबली-पतली काया घिसटती हुई चली आ रही थी. किसी ने उस तरफ टॉर्च की रोशनी फेंकी तो एक पल को ठिठकी, फिर निश्शंक बढ़ती गयी.

‘‘यह तो कोई अनचिन्हार आदमी लगता है.’’ सुशान्तो बेरा ने कहा, ‘‘पहले कभी नहीं देखा.’’

धीरे-धीरे वह काया जब पास आयी तो लोगों ने देखा कि लुगदियों में लिपटा वह एक बहुत बूढ़ा आदमी है. इतना बूढ़ा कि उसकी देह से बुढ़ापे की कसैली बास आ रही थी. ठुड्डी के पास बकरदाढ़ी. पोपला मुँह, हिलती हुई दाढ़ और देह की चमड़ी इतनी पारदर्शी कि नसें-शिराएँ साफ़-साफ़ दिख रही थीं. पैरों में बढ़े हुए गोखरू और गहरी बिवाइयाँ. लोगों के पास पहुँचकर उस बूढ़े आदमी ने सैकड़ों पैबन्द लगी अपनी पोटली को ज़मीन पर रख दिया और खाँसते-खाँसते वहीं बैठ गया. किसी ने उसे पानी लाकर दिया तो उसकी खाँसी थमी. बगल में ही उसने बलगम की उल्टी की और आँखें मिचमिचाकर बन्द कर लीं. मुँह खोलकर लम्बी-लम्बी साँसें लेने लगा. लोगबाग इन्तज़ार करने लगे कि वह सामान्य हो तो पूछा जाए, वह कौन है, कहाँ से आया है?

‘‘मैं एक किस्सागो हूँ. बहुत दूर से आया हूँ.’’ उसने आँखें बन्द किये-किये कहा तो लोग बेतरह चौंक गये कि इसने उनके मन की बात क्योंकर जान ली!

बूढ़ा हँसने लगा, पोपली और तरल हँसी. बोला, ‘‘आज के युग में मन की बातों की थाह पाना भला कौन-सा दुष्कर काम है!’’

लोगबाग फिर से चौंके. बेनीमाधव महाशय को समझते तनिक देर न भयी कि यह कोई सिद्ध पुरुष है. वर्ना आज ही के दिन इन्हें इस ग्राम में क्यों आना था भला! ज़रूर इनके प्रकट होने और सूर्य के ग़ायब होने में कोई कार्य-कारण सम्बन्ध है. वह तुरन्त अपनी जगह से उठें और इससे पेश्तर कि यह पुण्य कोई और ले जाए, बूढ़े के पैरों से रपट गये. बोले, ‘‘महाप्रभु, आपके दर्शन को पियासे इन नैनों को आज बिसराम मिला. आपके पैर पड़े, आदिग्राम की धरती पर सत उपजा. धन्न भाग हमारे!’’

‘‘अक्सर लोग ग़लती से मुझे कुछ का कुछ समझ लेते हैं.’’ बूढ़े ने खनकदार स्वर में बेनीमाधव महाशय को बरजा. उसके निरन्तर हिलती हुई दाढ़ से निकली ऐसी सधी वाणी लोगों को आश्चर्य में डाल गयी. उसकी आवाज़ का उसकी जईफ कद-काठ से दूर-दूर का रिश्ता न ठहरा. उसके स्वर में एक अजीब-सा सम्मोहन था, जिसे उसने अपने पेशे के मद्ïदेनज़र बहुत ही श्रमपूर्वक साधा था. बोला, ‘‘मैं स्पष्ट कर दूँ, मैं कोई साधू-महात्मा नहीं हूँ. एक विशुद्ध किस्सागो हूँ. मुझे भक्तों की नहीं, सच्चे श्रोताओं की तलाश है. अपनी तलाश में मैं पूरी धरती छान गया हूँ. दुर्गम पहाडिय़ाँ लाँघी, सँकरे दर्रों को पार किया, उफनती नदियाँ पाँझी, कितने ही चौरस-सपाट मैदान नाप डाले. चीन से लगाकर चिली तक, अफ्रीका से अफगानिस्तान तक ढेरों देश-दिगन्तर की ढेरों कहानियाँ हैं मेरे पास. ढेरों गाने हैं, हँसी रुलाइयाँ हैं, क़िस्से-किंवदन्तियाँ, क़सीदे और मर्सिया हैं.’’ सहसा बूढ़े पर फिर से खाँसी का दौरा पड़ा और वह हाँफने लगा.

खाँसते हुए उसकी पंजरियाँ तक हिल रही थीं. लोटे में बचे पानी को गटागट हल$क से उतारने के बाद जब वह स्थिर हुआ तो समवेत स्वर से लोगों ने उसे अपनी कला के प्रदर्शन के लिए न्योता. अब तक वहाँ अच्छी- ख़ासी भीड़ जमा हो गयी थी. पंचानन बाबू ने वहीं नीम-तले एक चौकी लगवा दी, उस पर दरी बिछवायी और बूढ़े को बैठने के लिए कहा गया. दासू उसे चाय की प्याली दे गया, उसके लिए अलग से अदरक वाली चाय बनाई गयी थी, ताकि दुबारे से खाँसी का दौरा न पड़े. वहीं चौकी के पास पंचानन बाबू, बेनीमाधव महाशय और गाँव के एक-दो अन्य उम्रदराज़ व सम्मानित लोगों के लिए कुर्सियाँ लगवाई गयीं. एक मोढ़े पर पल्टू ने गैस का हंडा लाकर रख दिया. चौकी के सामने भुँइये पर बाक़ी लोग बैठे और इन्तज़ार करने लगे कि बूढ़े की चाय ख़त्म हो और वह उन्हें देश-दिगन्तर की कहानियाँ सुनाना प्रारम्भ करे.

इससे पेश्तर जिस साफ़गोई का प्रदर्शन करते हुए बूढ़े ने खुद को महान बनाये जाने का विरोध किया था, और जिस विनम्रता से कहा था कि वह महज़ एक खानाबदोश किस्सागो भर है, अपने दुखियारे चींथड़ों में लिपटा, अनाम-अगाध व्याधियों से जूझता, गाँव वालों के मन में उसके प्रति सम्मानजनक निष्ठा का भाव पनप चुका था. इसके अतिरिक्त बूढ़े की उम्र कोई कम न थी, लोककथाओं की भाषा-शैली में कहें तो वह सौ साल से ऊपर का प्रतीत हो रहा था. ऐसे में उसकी जरा-जीर्ण काठी, असंख्य-अनगिन झुर्रियाँ, सिकुड़ी हुई त्वचा, हिलता हुआ दाढ़ अस्थि-पंजर, उसका फटेहाल होना, पैबन्द लगी उसकी पोटली आदि, बिना किसी प्रत्यक्ष कारण, सहसा उसकी वरिष्ठïता, विश्वसनीयता व ज्ञान के प्रतीक बन उभरी थीं. गैस के हंडे की रोशनी में लोगों को जब उसके लिलार पर कटे का गहरा निशान दिख रहा था तो कौन जाने यह उस घाव की वजह से हो जब बात-बात पर जालिम अँग्रेज सिपाही लोगों पर कोड़े बरसाने लगते थे. कौन जाने बूढ़े को बेहाल-बेदम कर जाने वाली यह खाँसी उस महामारी की बची-खुची देन हो जो नवाब सिराजुद्ïदौला के शासन में बंगोप सागर से उठने वाले चक्रवाती तू$फान के बाद पूरे बंगाल में फैली थी. गाँव वालों के समक्ष बैठे बूढ़े की जरा-जीर्ण काठी मानो इतिहास की भीषण आपदाओं का धधकता हुआ आगार थी जहाँ तुर्कों की गठिया, मुग़लों का चर्मरोग और अँग्रेजों की सिफलिस वास करती थी.

कहना न होगा, चौड़े उच्चारण वाले स्पष्ट शब्दों में बूढ़े द्वारा उसे देवता न समझे जाने की अपील के बाद भी, वह प्रकारान्तर से गाँव वालों के मन में उसी उच्च मंच पर प्रतिष्ठित हो चुका था, जो उसे किंवदन्तियों अथवा दन्तकथाओं की-सी महिमा से मंडित करता था. वह ऊँची चौकी पर ‘आसीन’ था, इत्मीनान से अदरक वाली चाय ‘ग्रहण’ कर रहा था, गैस हंडे की रोशनी से उसका आसपास ‘प्रदीप्त’ था और किसी दैवी चमत्कार की प्रतीक्षा में लोग उसका मुँह जोह रहे थे.

बूढ़े ने बहुत धीमी शुरुआत की. यह भी प्रकारान्तर से उसके पक्ष में ही गया. जब एक दीर्घ और उत्कंठित प्रतीक्षा के बाद लोगों के मन में एक फट पडऩे वाली शुरुआत की उम्मीदें कुलबुला रही थीं, बूढ़े ने अपेक्षाकृत ज़्यादा आकर्षक इसके विलोम को चुना. उसका स्वर इतना मन्द था कि बमुश्किल आगे की कतार तक पहुँच पाता. पीछे बैठे लोगों ने बूढ़े के इस दुस्साहसपूर्ण कृत्य के प्रति हालाँकि असीम धैर्य और शिष्टता का परिचय दिया और शान्ति बहाल रखी. बूढ़े ने निहायत ही अनुत्तेजित भंगिमा में कोई कहानी शुरू की थी, मानो गाँव वालों का मन रखने भर के लिए ऐसा कर रहा हो. एक-एक शब्द बड़े श्रमपूर्वक उसके मुख से निकलते और देर तक हवा में टँगे फडफ़ड़ाते रहते. शब्दों की निकासी में कभी-कभी इतना बड़ा अन्तराल आ जाता कि लोग उबासी लेने, एक-दूसरे से टाइम पूछने और पूरब आसमान को ताकने लग जाते. परिचितों से भेंटा-भेंटी हो जाती, तमाखू-बीड़ी का आदान-प्रदान होता. पंचानन बाबू अपने गाँव वालों के धैर्य की चरम बिन्दु से परिचित थे. उन्हें डर था कि कहीं प्रत्यंचा इतनी भी न खिंच जाए कि…. लेकिन तब तक बूढ़ा अपनी रौ में आ चुका था. उसका स्वर क्रमश: ऊँचा होते-होते वातावरण में एक वांछित सतह पा चुका था और अब चोर होने के नाते सबसे अन्त में बैठा बाघा भी उसके आरोह-अवरोह के साथ बेहतर तालमेल बिठाने में कामयाब हो चुका था.

पहली कथा के ख़त्म होने में कोई दस मिनट से भी कम समय लगा. यह जातक शैली की एकरेखीय कथा थी जिसमें शिक्षात्मक सहजता व नैतिक आग्रह कूट-कूट कर भरा हुआ था. बूढ़े ने इसके लिए नितान्त ही सुबोध व अनालंकृत भाषा का चुनाव किया था और कथा की समाप्ति के बाद उसने श्रोताओं पर पड़े इसके असर का गहरा अध्ययन किया. गैस हंडे की रोशनी में आधे लोग ही आलोकित हो पा रहे थे. बूढ़े को शायद इसका अफसोस हुआ कि पिछली पंक्ति में बैठे लोगों पर कथा का क्या असर पड़ा, इसे वह नहीं जान सकता. ‘‘ऐसा हमेशा ही होता है.’’ उसने मन ही मन सोचा, ‘‘कुछ लोग जो केन्द्र में होते हैं, उन्हीं की पसन्द के अनुसार कलाओं का प्रदर्शन-प्रसारण किया जाता है और पीछे अँधेरे में बैठे लोगों को उन्हीं कलाओं का आनन्द लेकर अपनी पसन्द का अनुकूलन-मानकीकरण करना पड़ता है.’’

बूढ़े द्वारा सुनाई गयी दूसरी कथा यथार्थ पर उसकी गहरी पकड़ का नायाब नुमाइन्दा थी. इसमें उसने एक किसान के दुखों का सूक्ष्मता से अंकन किया. अब तक आदिग्राम के लोगों ने कथा-कहानियों में राजाओं के जय-पराजय, साम्राज्यों का विस्तार-संकुचन, मन्त्रियों और सभासदों के छल-प्रपंच, ऋषियों के तपोबल व इन्द्र का सिंहासन, राजकुमारियों की अनिन्द्य सुन्दरता व तोते के मुख से उनके रूप का नख-शिख वर्णन सुनकर सात समन्दरों को लाँघ जाने वाले राजकुमारों के दुस्साहस का ही बखान सुना था. पहली बार उनके समक्ष उनके जैसा ही एक दीन-हीन किसान कथा का मुख्य प्रतिपाद्य बनकर उपस्थित था, जिसे धीरोदात्त कतई नहीं कहा जा सकता था. जो ज़मीदारों-महाजनों के शोषण के मकडज़ाल में आकंठ फँसा था, जो हारी-बीमारी से असमय बूढ़ा हो चला था, जिसे सूखे-पाले से उतना ही डर लगा करता था जितना उन्हें. लोगों को लगा, जैसे वे स्वयं कथा में शामिल हो गये हों. बावजूद इसके कथा में उनकी शमूलियत वैसी हरगिज नहीं थी, जैसा बचपन में परीकथाओं को सुनते हुए एक अद्भुत कल्पनालोक उनके समक्ष खुलता जाता था और सुन्न-से पड़े हुए वे कथा-तन्तुओं से जकड़ते चले जाते. घिसटते-लिथड़ते हुए वे अन्तत: वहाँ लहूलुहान पड़े होते जहाँ रानी को राक्षस के चंगुल से बचाने के क्रम में क्षत-विक्षत गरुड़ पड़ा होता. इसके विपरीत बूढ़े क़िस्सागो ने जैसे उन्हें एक नयी नज़र सौंप दी थी और वे अपने जीवन में झाँकने लगे. हाँ, वे पूर्णत: जाग्रत थे, उन्होंने कथा के किसान के साथ घटने वाली घटनाओं का पूरी चेतनता से अपने जीवन के विभिन्न पहलुओं के साथ मिलान किया. और ऐसा करना, निश्चित रूप से, कथा सुनते हुए महज़ हुँकारी भरने भर से नहीं होता.

कथा सुनकर आदिग्राम के लोग हतप्रभ रह गये कि क्या कथाएँ भी इतनी सजीव और मूर्त होती हैं! बूढ़े की इस कथा की भाषा भी पहली की तरह सुबोध और अनालंकृत थी— निहायत अभिधामूलक और कहीं-कहीं विवरणात्मकता की हद तक सपाट. लेकिन जो चीज़ इसे ख़ास बनाती थी, वह थी कि बिना किसी रूपक, प्रतीक व मिथक का सहारा लिये यह कथा अपनी प्रभावान्विति में मर्मस्पर्शी व बहुआयामी थी.

कथा की समाप्ति के बाद बूढ़े ने फिर से लोगों के चेहरों पर खेलने वाले भावों का मुआयना किया. इसे वह आत्मालोचन के लिए अनिवार्य मानता था. वह वर्षों से कथाएँ बाँचता चला आ रहा था और इस क्रम में उसने विभिन्न देशों की विभिन्न अभिरुचियों वाली जनता के समक्ष अपने हुनर का प्रदर्शन किया था. वह जहाँ भी होता, ग़ौर से लोगों की पसन्द-नापसन्द का अध्ययन करता, उसके अनुरूप कथ्य का चुनाव, शैली में शोधन करता. एक तरह से यह उसकी पुरानी खब्त थी और इसकी वजह से उसके पास कई बार एक ही कथा के एकाधिक प्रारूप होते. उसकी स्मृति विलक्षण थी, इसलिए यह असम्भव-सा था कि किसी एक प्रारूप के कुछ शब्द चोरी-छुपे दूसरे में सम्मिलित हो जाएँ.

हमने पहले ही कहा था कि लोककथा की शैली में बूढ़े की उम्र शताधिक थी, लेकिन वह अपने समय के उन शतायु बूढ़ों की तरह विनयशील हरगिज नहीं कहा जा सकता जो अपनी जि़न्दगी की हर उपलब्धि का श्रेय ऊपर वाले को देकर छुट्टी पा लेते हैं. ऐसा अगर वह कभी कहता भी था तो वह किसी प्रसंग के तात्कालिक प्रभाव को उदीप्त करने वाली महज़ एक विनम्र भाषा भर होती, जिसका एकमात्र उद्देश्य आस्तिक श्रोताओं को अपने वाग्जाल में और-से-और बाँधना भर होता. बूढ़े को अपने हुनर का मायावी प्रभाव भली-भाँति ज्ञात था और उसका अहं तब तुष्ट होता था जब वह अपने शब्दों के मोहपाश में बाँधकर लोगों के भावोद्रेक को मन-मर्जी से संचालित करने लगता था. उदाहरण के लिए, जब वह अपने कथा-नायक के दुखों का वर्णन करता तो बरबस ही वे अतिरेकी शब्द उसकी ज़ुबान पर खेलने लगते जो जनता की आँखों में आँसुओं की बाढ़ ला देते. कहना न होगा, तब उसकी ज़ेहन में कथा-नायक के दुखों का चित्रण एकमात्र लक्ष्य नहीं रह जाता, वह वहाँ से बहुत आगे निकल कर तब तक विशेषणों की कतार बाँधता रहता, जब जनता उफ्-उफ् न करने लग पड़े.

बूढ़ा चूँकि पेशेवर क़िस्सागोथा, उसने शास्त्रों-पुराणों का ही नहीं, साहित्य व इतिहास, लोककथाओं व लोकगीतों का भी गहरा अध्ययन किया था. वह अपनी कथा में विभिन्न ऋचाओं, श्लोकों को उद्धृत करता, कबीर और तुलसी की कविताई को सम्मिलित करता, टैगोर और गाँधी का हवाला देता और ऐसे में कुल मिलाकर एक अजीब जादुई परिवेश निर्मित हो जाता. कई बार उसकी कथाओं में बुद्ध और इन्दिरा गाँधी एक साथ मौजूद होते. वह अपने पात्रों के देशकाल में इस तरह के रचनात्मक व्यतिक्रम उपस्थित कर अपने मनमाने अन्त तक जब पहुँचता, श्रोताओं के पास सिवा एक सम्मोहित मूर्छावस्था में जाने के कोई दूसरा विकल्प न बचता. बूढ़े की अगली कथा को उसकी रचनात्मक प्रतिभा का अराजक प्रदर्शन ही कहा जा सकता था, जिसका शीर्षक था— तुम मुझे ख़ून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा.

इस कहानी में एक ऐसा विज्ञानवेत्ता था जिसे राजा का संरक्षण प्राप्त था. वैज्ञानिक ने कई वर्षों के अथक परिश्रम के बाद चट्टान के रवे और गन्धक के शोरबे को धीमी आँच पर पका कर ऐसे रसायन का अविष्कार किया जिसे सूँघ लेने भर की देर थी कि आदमी विकलांग हो जाता था. रसायन का असर दीर्घकालीन था, यहाँ तक कि प्रभावित व्यक्ति की सन्तानें भी संक्रमित हो जातीं. इस प्रकार अपंगता उसकी अनुवांशिकी में किसी शाप की तरह शामिल होकर पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित होती जाती. रसायन के आविष्कार के बाद राजा ने मदोन्मत्त होकर पड़ोसी राज्य पर हमला बोल दिया. उसने रातों रात वहाँ रसायन का छिडक़ाव कर दिया, फलस्वरूप वहाँ की समूची जनता विकलांग हो गयी. न सिर्फ़ लोगबाग, बल्कि वहाँ के ढोर-डंगर, वनस्पतियाँ, फ़सलें आदि भी नष्ट हुईं, त्राहिमाम मच गया. देखते-देखते सिर्फ़ उस रासायनिक हथियार के बल पर राजा ने आसपास के समूचे राज्यों को जीत लिया. उसके सैनिक जीते हुए देश के मर्दों को बन्दी बना लेते, स्त्रियों के गर्भ में भाला भोंक देते, बच्चों का सिर काटकर बन्दूक की संगीने तेज़ करते.

ऐसे-ऐसे बरस बीते, लगातार एक के बाद एक युद्धों में झोंके जाने के कारण राजा की सेनाएँ थक गयीं. तब उसके चतुर महामन्त्री ने सुझाव दिया कि राजा को अतिशीघ्र युद्धों का यह अनवरत सिलसिला रोकना होगा, वर्ना गुप्तचरों की यह खुफिया रिपोर्ट है कि सैनिकों में विद्रोह की भावना जाग सकती है. राजा को महामन्त्री का सुझाव पसन्द आया. दरअसल वह भी युद्ध के बाद एक और युद्ध से बुरी तरह ऊब चुका था, अब आराम करना चाहता था. तिस पर भी वह बहुत महत्त्वाकांक्षी था, विश्वविजेता बनने का ख़्वाब उसे दिन-रात अस्थिर किये रहता.

ऐसे में महामन्त्री व राजपुरोहितों से मन्त्रणा कर राजा ने एक अश्वमेध यज्ञ के आयोजन का विचार किया. घोड़े को सजा-धजाकर छोडऩे से एक दिन पहले ही अख़बार में एक अब तक अविजित देश द्वारा किये गये रासायनिक परीक्षण की सुर्खियाँ देखकर राजा बेतरह चौंक गया. उसने फौरन उस विज्ञानवेत्ता को पकडक़र हाथी से कुचलवा देने का फतवा जारी कर दिया, जिसने सम्भवत: उस देश को भी रासायनिक हथियार का फार्मूला बेंच दिया था. लेकिन बहुत ढूँढऩे पर भी उसके जाँबाज़ घुड़सवार उस वैज्ञानिक का पता न पा सके. हारकर राजा ने अश्वमेध के घोड़े का छोड़ा जाना फिलहाल के लिए स्थगित कर दोनों सदनों के सभासदों की एक आपातकालीन बैठक बुलायी. तीन दिन तक बैठक चलती रही और चौथे दिन राजा ने देश भर के पत्रकारों को बुलाकर महँगी शराब पिलायी. राजा ने प्रेस कांफ्रेंस में कहा कि वह युद्धों से थक चुका है. वह शान्ति का पहरुआ है. कई देशों के पास रासायनिक हथियार के होने का एकमात्र यही नतीजा निकलेगा कि विश्व का अस्तित्व ही मिट जाएगा. राज्यों के बीच यदि शक्ति संघर्ष छिड़ गया तो मानवता का विनाश हो जाएगा. इसलिए वह इस विश्व के समस्त देशों के बीच एक रासायनिक समझौता करना चाहता है.

इसके साथ ही राजा ने एक और घोषणा करते हुए कहा कि कुछ महीनों बाद मैं कलिंग पर हमला बोलने वाला हूँ और चूँकि मैं अब पूरी तरह बदल चुका हूँ, मैंने इस बाबत किसी भी गोपनीयता का निर्वाह न करने की ठान रखी है. तमाम चैनलों को इसकी खुली छूट है कि वे युद्ध के आँखों देखा हाल का प्रसारण करें. मैं पहले ही घोषित करता हूँ कि कलिंग में भीषण जनसंहार होगा और टेलीविज़न पर युद्धोपरान्त क्षत-विक्षत लाशों, विलाप करती हुई विधवाओं और अनाथ बच्चों का मुँह देखकर मेरा हृदय-परिवर्तन हो जाएगा. मैं कलिंग विजय को अपना अन्तिम अभियान घोषित कर हमेशा के लिए शस्त्र का परित्याग कर दूँगा, मांस-भक्षण छोडक़र सात्त्विक जीवन अपना लूँगा, तीन बेर खाता था तो अब तीन बेर खाकर अपना भरण-पोषण करूँगा, स्त्री-गमन छोड़ दूँगा, ब्रह्मचारी बन जाऊँगा, एक वस्त्र धारण करूँगा, घूम-घूमकर महात्मा बुद्ध के उपदेशों का प्रचार करूँगा.

लेकिन पहले कलिंग.

‘‘लेकिन उससे भी पहले एक छोटा-सा ब्रेक.’’ बूढ़ा क़िस्सागो हँसा. चौकी से उतरकर पंचानन बाबू के पास आया और धीमे स्वर में शौचालय की बाबत पूछा. पंचानन बाबू का संकेत पाकर दासू उसे भीतर ले गया.

कथा का प्रभाव इतना सान्द्र था कि कुछ देर तक तो लोग अपनी जगह पर ही जमे रहे. थोड़ी देर बाद जब उनमें जाग आयी तो आपस में बातें होने लगीं. अब तक लोगों में बूढ़े की क़िस्सागोई की बेहतर धाक जम गयी थी. सारे लोग उसकी प्रतिभा से चमत्कृत थे. सबसे ज़बर्दस्त थी बूढ़े के कहन की भंगिमा. जब वह युद्धों, विभीषिकाओं की कथा बाँचता, प्रतीत होता वह ख़ुद अपनी देह पर शत्रुओं के बल्लम-बर्छे झेल रहा हो. धीरे-धीरे उसकी आँखें अतीत के किसी चश्मदीद वृत्तान्त से चस्पाँ होने लगतीं. लेकिन ताज्जुब की बात है कि अपनी इस भयावह संलग्नता के बावजूद वह इतना शान्त और सन्तुलित कैसे रह सकता है!

हराधन ने ठीक कहा कि मानो वह अरबी का पत्ता हो जिसे कथा में बरसता पानी ज़रा भी भिगो नहीं पाता, जबकि बाक़ी सारे लोग लस्त-पस्त कीचड़-कादो में सन रहे होते. प्राचीन काल से सुनाई पड़ती आ रही बिजली के कडक़ने की आवाज़ शिद्ïदत से, साफ़-स्पष्ट सुनाई पडऩे लगती, मानो यह वर्षाकाल ही हो. कहीं मेंढक टर्राने लगते, धान रोपाई के गीतों की स्वर-लहरियाँ, ढाक बजने की आवाज़. तिस पर भी बूढ़ा इति नहीं करता, कथा में अविराम पानी बरसाता ही जाता. नदियों का जलस्तर ऊँचा हो जाता, बिल में पानी समा जाने से साँप-गोजर निकल आते, खेतों में छप्प-छप्प पानी, सारा कारोबार ठप्प. चारा नहीं मिलने से गाय-गोरू मरने लगते, घरों में क़ैद लोगबाग अनाज के बीज भी चट कर जाते, फिर भूखों मरने की नौबत आ जाती. देखते-देखते धरती बाढ़ से डूबने-डूबने को होती कि लोग देखते, बूढ़ा क़िस्सागोकथा में कोई दूसरा मौसम लिये चला आ रहा है. उत्तेजना को बढ़ाने के लिए ऐसा वह एकदम आख़िरी पल करता जब पानी बढ़ते-बढ़ते गले तक पहुँच गया होता, और प्रतीत होता डूबने में अब बस घड़ी है कि पल है.

हाँ तो कलिंग अभियान की कथा चल रही थी.

कलिंग चारों तरफ से दुर्गम पहाडिय़ों से घिरा हुआ था. वहाँ की ज़मीन अनुपजाऊ थी, इसलिए खेती-बाड़ी न थी, कोई कल-कारख़ाना भी न था. प्रकृति ने अगर इस दिशा से कलिंग को निराश किया था, तो दूसरी तरफ वहाँ अपना अकूत खज़ाना भी गाड़ रखा था. कहते हैं कि वहाँ की ज़मीन में हीरों की कई खान दबी पड़ी हैं, कुछ खोज भी ली गयी थीं. देखा जाए तो कलिंग की पूरी अर्थ प्रणाली इसी पर टिकी हुई थी. वह हीरों का निर्यात करता और बदले में गेहूँ, दाल, चावल, चीनी, तेल, दूध, कहवा, मिर्च-मसाले, काग़ज़, माचिस आदि मँगवाता. राजा ने सोचा कि यदि कलिंग पर उसका उपनिवेश क़ायम हो जाए तो उसके राज्य में धन-धान्य की कोई कमी न रहेगी, दूध-दही की नदियाँ बहेंगी और जल्दी ही उसका देश सोने की चिडिय़ा कहलाने लगेगा. यही सोच उसने कलिंग पर आक्रमण का विचार बनाया था. प्रत्यक्ष रूप से उसने यह बहाना किया कि उसके शत्रु उस विज्ञानवेत्ता को कलिंग ने अपने यहाँ शरण दे रखी है और कि कलिंग नरेश को एक पर एक कई वार्निंग दी जा चुकी है कि वह तुरन्त उस वैज्ञानिक का वीजा निरस्त करें और प्रत्यर्पण सन्धि के तहत उसे पकडक़र राजा के हवाले कर दें. यदि वे ऐसा नहीं करते हैं तो आक्रमण के लिए तैयार रहें.

कलिंग आक्रमण को विश्व मीडिया ने तीसरे विश्वयुद्ध की संज्ञा दी और उसका ख़ूब प्रचार-प्रसार हुआ. ‘मिशन कलिंगा’ की छाप वाली टी-शर्टों, जैकिटों से बाज़ार भर गया. कई विडियो गेम्स उतारे गये, कारों-मोटरबाइकों के रियर-व्यू ग्लास पर चिपकाने के लिए स्टिकर भी ख़ूब ख़रीदे गये. कई ऐसे देश थे जो खुलकर राजा के समर्थन में आये, इस प्रकार मित्र देशों का गठन हुआ. यह राजा का अन्तिम युद्ध था, और इसके बाद राजा एक तरह से संन्यासी का जीवन व्यतीत करने वाला था, इसलिए उस वर्ष राजा को शान्ति के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार से नवाज़ा गया.

चूँकि पर्वतीय अंचल होने के कारण कलिंग में ऐसी कोई खुली जगह नहीं थी जहाँ एकत्र होकर सेनाएँ एक दूसरे से जा भिड़तीं, तो जब राजा का सेनापति कलिंग के बॉर्डर पर पहुँचा, जैसा कि अब तक उसके साथ होता आया था, वहाँ पहले से कोई सेना नहीं खड़ी थी जिसके साथ उसे लडऩा हो. सशंकित सेनापति ने जेब से काग़ज की एक पुर्जी निकाली. ‘‘एड्रेस तो यही है.’’ उसने कहा.

‘‘अगर कलिंग के सेनापति का फोन नम्बर लिखा हो तो मिस्ड कॉल दो. शायद वे सुबह देर से उठे हों और तैयार होकर अभी आते ही हों.’’ उप-सेनापति ने सुझाया.

सेनापति ने उसके सुझाव को निरस्त करते हुए हाथ के इशारे से सेना को वहीं रुकने का निर्देश दिया और घोड़े से उतरकर पैदल ही कलिंग सीमा में प्रवेश कर गया. किसी ने रोक-टोक नहीं की, बल्कि रोक-टोक तो तब होती जब वहाँ कोई होता. वह हतप्रभ था कि ऐसा भी कहीं हो सकता है! उसे एक बच्चा दिखा तो उसने पूछा कि क्या उसे इस बात की जानकारी है कि कोई युद्ध होने वाला है!

‘‘युद्ध माने?’’

सेनापति सोच में पड़ गया कि बच्चे को युद्ध का क्या मतलब बताये. यह स्पष्ट था कि बच्चे को स्कूल में कभी युद्ध के बारे में नहीं बताया गया, न ही किसी वीर-बाँकुरे की जीवनी रटाई गयी है. बोला, ‘‘युद्ध माने यही सब मार-काट, हाथी-घोड़े, गोला-बारूद, धाँय-ढिसूम!’’

‘‘उँह फालतू! छोड़ो न, आओ गिल्ली-डंडा खेलते हैं.’’

सेनापति ने पूछा कि उसके माता-पिता कहाँ हैं. बच्चा उसकी उँगली पकड़ कर उसे अपने घर ले आया. बाहर उसकी माँ कपड़े पछींटकर सूखने के लिए डाल रही थी. परदेसी को देखा तो झट घूँघट की आड़ कर ली.

‘‘भाभीजी नमस्ते, भाई साहब कहाँ हैं?’’

अपरिचित आवाज़ सुनकर भीतर से एक आदमी निकला. सेनापति ने उसे अपना आई कार्ड दिखलाया. बोला, वह युद्ध करने आया है, किससे करे? आदमी उसे भीतर लिवा लाया. बिठाया, पानी पिलाया. सेनापति अपनी आवभगत से चकित था, सशंकित भी. जब उसने आदमी से भी वही सवाल किया तो उसने कहा कि हाँ, उसे युद्ध की बाबत जानकारी है. सेनापति ने उसके घर के रेडियो पर समाचार सुना. रोज़मर्रे की आम ख़बरों के बाद, यहाँ तक कि खेल समाचार के भी बाद वाचक ने कहा, ‘‘…और हाँ, कलिंग पर आज राजा का आक्रमण होने वाला है. और अब सुनिए मौसम का हालचाल….’’ सुनकर सेनापति रुँआसा हो गया.

जब पीछे से बच्चे की माँ ने बच्चे के पिता को आड़ में पुकारा तो सेनापति के कान खड़े हो गये. ‘‘ओह, इसका मतलब इन्तज़ार की घडिय़ाँ बीत ही गयीं. अन्तत: युद्ध की शुरुआत हुई. बस अब घड़ी भर की देर है. अभी यह औरत अपने पति से कहेगी कि वह मुझे घर से निकाल बाहर करे. उसका पति मुझे निकालने आएगा तो मैं अपनी म्यान से तलवार खींच लूँगा. गरजकर बोलूँगा, ख़बरदार! वह भी सन्दूक खोलकर तलवार लेता आएगा. और इस प्रकार युद्ध शुरू हो जाएगा.’’ सोचकर सेनापति की बाछें खिल गयीं. उसने अभी से अपनी तलवार की मूठ पकड़ ली.

‘‘ज़रा बातों-बातों में पता कीजिए कि सेनापति किस जात का है. अगर राजपूत हो और इसकी शादी न हुई हो तो अपनी निक्की के लिए कैसा रहेगा?’’

‘‘लेकिन भागवान, निक्की तो अभी बच्ची है!’’

‘‘बच्ची कहाँ है, इस बार सावन में बाईस पूरे कर लेगी.’’

सुनकर सेनापति ने अपना सिर पीट लिया. जब वह आदमी अकारण ‘हें-हें’ करता उसके पास आया, सेनापति उठकर खड़ा हो गया. बोला, ‘‘मैं और इन्तज़ार नहीं कर सकता. तुम्हारे पास कोई हथियार है?’’

आदमी अपनी जगह पर बैठा-बैठा उसे आश्चर्य से देख रहा था. ‘‘अजीब अहमक है!’’ कहते हुए सेनापति ने म्यान से तलवार खींची और एक झटके से उसे ज़बह कर दिया. कटे धड़ से ख़ून की पिचकारियाँ फूट पड़ीं. औरत दहाड़ें मारते हुए आड़ से निकली तो सेनापति ने एक ही वार में उसका भी काम तमाम कर दिया.

बाहर चबूतरे पर बच्चा अकेले ही लूडो खेल रहा था. भीतर का शोर सुनकर आने ही वाला था कि ख़ून से सना सेनापति आता हुआ दिखा. बच्चे ने पूछा, ‘‘क्या हुआ अंकल?’’

‘‘घर में तुम्हारे माँ-बाप के अलावा भी कोई है?’’

‘‘मैं हूँ न!’’

‘‘ये निक्की कौन है?’’

‘‘मामा की लडक़ी. मामा का घर उस पहाड़ी के पीछे है.’’

‘‘और कोई रिश्तेदार? चाचा, ताऊ आदि?’’

‘‘नहीं. …बात क्या है अंकल?’’

सेनापति ने बिना एक पल गँवाये बच्चे का सिर क़लम कर दिया और बाहर आ गया. राजा को एसएमएस कर दिया कि युद्ध की शुरुआत हो चुकी है.

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