आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

कुदाल की जगह: कृष्णमोहन झा

क्या कभी कविता नमक की तरह अनिवार्य हो सकती है? कम से कम आधुनिक युग के तुमुल कोलाहल कलह में व्यस्त तथा अभिशप्त जीवन में इसकी संभावना नहीं दीखती. बल्कि ऐसा सोचना भी अटपटा और बचकाना लगता है. कहना कठिन है कि विगत में कभी कविता को ऐसी भूमिका निभाने का अवसर मिला या नहीं. लेकिन यह कहना मुश्किल नहीं है कि समकालीन हिन्दी कविता के परिदृश्य में केदारनाथ सिंह की कविता लगभग नमक की भूमिका निभाती रही है. एक तरफ़ उन्हें पढ़-गुनकर परवर्ती कवियों की कम से कम दो पीढ़ियों ने अपनी रचना-सामग्री,कविता के लक्ष्य और उसके तापमान को निर्धारित और निर्देशित करना सीखा है, तो दूसरी तरफ़ कई कोटियों में विभक्त पाठकों ने अपनी-अपनी काव्य-रुचि की लक्ष्मण-रेखा को पारकर उन्हें अपनाया है,उनकी कविता को प्यार किया है. वे सबके कवि हैं. वे सब के प्रिय कवि सिर्फ़ इसलिए नहीं हैं कि उनकी कविता आधुनिक भारत के गाँव और शहर के तनावपूर्ण संबंध को बहु्त मार्मिकता,गहराई और नज़ाकत से उकेरती है,बल्कि इसलिए भी कि वे ‘यथार्थ’ के हाहाकार से निर्मित कविता के विपरीत बहुत आत्मीयतापूर्वक जीने के लिए ऊर्जा और आश्वासन देती हैं. उनका काव्यकर्म वस्तुत: अस्तित्व के पोषक तत्वों की पहचान है. जड़ उनकी कविता का बीज-शब्द है. नहीं,सिर्फ़ कविता का नहीं, उनकी चेतना का भी. अपने एक साक्षात्कार में वे कहते हैं-“ मैं गाँव का आदमी हूँ और दिल्ली में रहते हुए भी एक क्षण के लिए भी नहीं भूलता कि मैं गाँव का हूँ. यह गाँव का होना कोई मुहावरा नहीं है,बल्कि इसके विपरीत मेरे जीवन की एक लगाव-भरी सच्चाई है,जिसे मैं अनेक स्तरों पर जीता हूँ. … मुझे लगता है कि मेरे भीतर एक सहज किसान के लगाव काम करते हैं और यह अकारण नहीं है कि उससे जुड़े हुए अनेक संकेत शायद मेरी रचना में भी ढूँढे जा सकते हैं. इसके साथ ही एक और बात मैं महसूस करता हूँ और वह यह कि हिन्दी कविता की अपनी परंपरा शुरू से ही गाँव से जुड़ी रही है. मैं आज की कविता को जब अत्यधिक नागरिक होते देखता हूँ तो मुझे कई बार अपने भीतर एक डर पैदा होता है कि कहीं वह अपना जातीय स्वरूप खो न दे. यह तय है कि आज हम उस तरह गाँव की तरफ़ नहीं लौट सकते,जैसे मध्ययुग के कवि लौट सकते थे. पर यह मुझे बराबर लगता है कि गाँव की चेतना और आधुनिक जीवन की वास्तविकता के बीच एक संतुलनपूर्ण तनाव समकालीन हिन्दी कवि के लिए ज़रूरी है. ”

केदार जी की कविता कुदाल इसी ‘गांव की चेतना और आधुनिक जीवन की वास्तविकता’ की रगड़ से पैदा हुई है, इसलिए न यहाँ उनका वह प्रसिद्घ मनुष्य के मस्तक पर अटल भरोसा दिखता है और न किसी अन्य किस्म का आश्वासन. बल्कि यह संभव ही इसलिए हुई है क्योंकि आश्वासन के सारे आधार चरमराकर टूट चुके हैं. वे बचे रहते तो प्रस्तुत कविता लिखी नहीं जाती. यों कवि और कुदाल के बीच कोई गहरा रिश्ता रहा है ज़रूर, नहीं तो वह उसके अस्तित्व के प्रश्न को लेकर इतना व्याकुल और चिंताग्रस्त नहीं रहता. लेकिन अब किसी गहरे विक्षोभ से तड़ककर वह रिश्ता टूट चुका है. उसके टूटने की आवाज कविता के आरंभ में ही सुनाई पड़ती है —

उसे दरवाजे पर रखकर
चला गया है माली
उसका वहाँ होना
अटपटा लगता है मेरी आँखों को
…………………………. …………
सोचता हूँ उसे वहाँ से उठाकर
ले आऊँ अन्दर
और रख दूँ किसी कोने में

चलो,दरवाजे पर रखी कुदाल का अटपटा लगना तो एक हद तक ठीक है, लेकिन उसके बारे में कुछ इस तरह सोचना कि वह बाहरी चीज़ है,कि वह कवि के अनुकूलित संसार में एक हस्तक्षेप है,यह प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त है कि कवि और कुदाल के बीच का सहज सम्बन्ध खत्म हो चुका है. या तो कवि का कुदाल की संस्कृति से बहिर्गमन हो चुका है या कुदाल अपने परिवेश से कट गई है. दोनों स्थितियाँ एक ही चीज को जन्म देती हैं,और वह है अलगाव. अपनी जड़ से विच्छिन्न हो जाना. कवि के लिए कुदाल अब अन्य हो चुकी है. एक समय था जब कुदाल परिवार का अनिवार्य हिस्सा होती थी, घर में उसका एक नियत स्थान था. मगर अब कुदाल की स्थिति शोचनीय हो गई है. समस्या यह है कि उसे रखा कहाँ जाए. यहाँ भीष्म साहनी की कहानी चीफ की दावत की माँ याद आती है. जो चीज हमें अर्थ देती है उसीके लिए हमारे घर में कोई जगह नहीं रहती. आखिर ये किस तरह के घर होते हैं?

यों ऐसा नहीं कि कवि को यह मालूम नहीं कि उसके घर में कुदाल रखने की जगह नहीं है. कविता के आरंभ में ही हम देख चुके हैं कि कवि की परिष्कृत सौन्दर्याभिरुचि को दरवाजे पर रखी कुदाल अटपटी लगती है. दरअसल कुदाल रखने की जगह के बारे में सोचते हुए,और उसके बहाने,कवि खुद को अलगाता-कोड़ता है. अपने छूटे हुए से पुनः खुद को जोड़ता है. इसलिए ‘उसकी वह अजब अड़बंग-सी धूलभरी धज आकर्षित करती है’’ उसे. याद कीजिये विजय देव नारायण साही का ऐतिहासिक निबंध लघुमानव के बहाने हिन्दी कविता पर एक बहस, जिसमें उन्होंने प्रतिपादित किया है कि किसानी और दर्शन भारतीय चेतना की मूल वृत्ति है. उनका दृढ़ विश्वास है कि हमारे देश के नागर और अत्यंत अभिजात रचनाकार के भीतर भी एक किसान-दृष्टि क्रियाशील रहती है. प्रस्तुत कविता में कुदाल की जगह निश्चित करने में असमर्थ कवि को उधेडबुन में छोड़कर एक किसान-मन सामने आता है —

अंत में कुदाल के सामने रुककर
मैंने सोचा कुदाल के बारे में
सोचते हुए लगा उसे कंधे पर रखकर
किसी अदृष्य अदालत में खड़ा हूँ मैं
पृथ्वी पर कुदाल के होने की गवाही में

लेकिन यह तो किसानी-चेतना की स्थूल खोज हुई. कला में दृष्टांत खोजने का यह तरीका ठीक नहीं. वस्तुतः यहाँ उसका कोई प्रयोजन भी नहीं है. सिर्फ़ कोशिश है इस कविता की ताना-भरनी को समझने की. कहना होगा कि प्रस्तुत कविता एक विकट साभ्यतिक संकट को अपना प्रतिपाद्य बनाती है. एक स्तर पर यह व्यक्ति के अपने परिवेश से उन्मूलित होने और खुद को खो देने की करुण कथा कहती है, तो दूसरे स्तर पर, लोक-जीवन के सिकुड़ने, उजड़ने और लगातार नगर के उपनिवेश बनते चले जाने की विडम्बना को बहुत कुशलतापूर्वक वाणी देती है. कविता में कुदाल को रखने की जगह की खोज वृहत स्तर पर विकास के मानचित्र में ग्रामीण भारत के लिए जगह की खोज बन जाती है. लेकिन उस खोज का परिणाम क्या निकलता है!

बहुधा कविता पढ़ते हुए कोई कहानी याद नहीं आती,लेकिन कुदाल पढ़ते हुए प्रेमचंद की महान कहानी पूस की रात बरबस याद आ जाती है. क्या इन दोनों रचनाओं की ज़मीन एक ही है? अस्सी-नब्बे वर्ष पहले अपने ही खेत में,अपने ही सामने हलकू ने अपने स्वप्न के संसार को लुटते देखा था. एक तरफ़ से जीने का बचा-खुचा आधार उससे छिन रहा था तो दूसरी ओर से प्रकृति की मार उसे मिटा रही थी. अस्सी-नब्बे वर्षों बाद आज क्या कोई बता सकता है कि हल्कू की संताने कहाँ हैं? हल्कू का नाम किसी इतिहास में दर्ज नहीं है. लिहाजा उसकी संतानों के बारे में भी किसी को कुछ नहीं मालूम. सिर्फ यह कविता उनके बारे में कुछ संकेत करती है. यह बताती है कि उनमें से कुछ पढ-लिख कर जीविकोपार्जन के लिए, और फिर न कभी लौटने के लिए, शहर चले गए और जड़ से विच्छिन्न हो गए. शेष प्रगति की प्रतियोगिता में पिछड़ गए और ‘भारत की आत्मा’ के साथ गाँव में निवास करने के लिए छूट गए. यह छूटी हुई जगह ‘अहा ग्राम जीवन भी क्या है!’ के यथार्थ से बाहर की सुनसान और अंधेरी जगह थी जिसे हम ग्रामीण भारत के नाम से जानते हैं. अशिक्षा और अभाव में डूबा भारत. आत्महत्या के उद्योग में सक्रिय भारत. कालान्तर में उसे तथाकथित मुख्यधारा से जोड़ने की कोशिश इसलिए की गई ताकि शहरों का काम सुगमतापूर्वक सम्पन्न हो सके. अन्तत: प्रगति के नाम पर हमारे गाँव शहर की कॉलोनी बन गए. अब गाँव का मतलब है आलू-प्याज-टमाटर,फल और मजदूर. शहर में गाँव का मजदूर विघटित होकर कुदाल बन जाता है.

लेकिन कविता यहीं खत्म नहीं होती. केदार जी अगर सामान्य कवि होते तो युगीन संकट का चित्रण करके अन्त में उसे किसी राजनैतिक उक्ति में विसर्जित कर देते. मगर वे ऐसा नहीं करते हैं. उनकी विलक्षण काव्य-दृष्टि इस संकट को भेदना बखूबी जानती है. वे देखते हैं कि अंधेरे में धीरे-धीरे कुदाल का क़द बढ़ता जा रहा है और वह चुनौती बनती जा रही है. आखिर किसके लिए वह बनती जा रही है चुनौती?

मुझे यह कहते हुए कोई संकोच नहीं हो रहा कि कुदाल केदार जी की एक प्रतिनिधि रचना है. उनकी सारी रंगत यहाँ मौजूद है.

वे यहाँ रीझते हैं,खीझते हैं,रुकते हैं,ठठाकर हँस पड़ते हैं,अवाक् हो जाते हैं और फिर आगे निकल जाते हैं. एक कविता में इतनी क्रियाएँ और इतनी भंगिमाएँ!और ताज्जुब है कि कथ्य की तनी हुई रस्सी कहीं ढीली नहीं पड़ती. वह ढीली पड़ जाए तो केदार जी की कविता कैसे कहलाएगी.

One comment
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  1. kudal kavita par likhi yah tippani behad acchhi lagi. yah islie ki isme na to aalochana ki ubau bhasha hai aur na hi koi atipath. ek tathyatmak, tarkik aur sarthak pathan prastut kiya gaya hai lekhak ke dwara. darasal kavi jab alochana likhta hai tab bina padhe raha nahin jata. uski bhasha mein ek kasaab hota hai. is disha mein ekant bhi atikathan nahin karte. KrishnaMohan jee ko badhai.

    Arun Hota

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