आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

गति के महाआख्यान में फुर्सत का खंड: हिमांशु पण्ड्या

मित्रो, अस्सी का अपना शब्द कल्पद्रुम है- दुनिया जानती है। इसके पास और कुछ नहीं, शब्दों की ही खेती है। वह इसी फसल के अन्न का निर्यात करता है देश-विदेश में। आज से पचास साल पहले अपने ‘फार्म हाउस’ में उसने दो शब्द उगाए थे- ‘व्यवस्था’ और ‘कार्यक्रम’। कार्यक्रम उसे अपने काम का नहीं लगा। कार्यक्रम माने दारू। बोतल खोलिए, गिलास में डालिए, चुस्की मारिए! कार्यक्रम चलाइए – देश को अस्थिर और तबाह कीजिए। अगर मुल्क को व्यवस्थित और स्थिर देखना हो, तबाही और बर्बादी से बचाना हो तो भाँग लीजिए! भाँग दारू की तरह कोई तैयार माल नहीं है कि खोली, डाला और पिया। व्यवस्था करनी पड़ती है इसकी। भिंगोने-धोने की, छानने-घोटने की, सिलबट्टे की। घंटों लगते हैं। इसलिए व्यवस्था माने भाँग! भाँग के लिए समय और इत्मीनान चाहिए। कार्यक्रम उनके लिए जिनके पास समय नहीं है, पादने तक की फुर्सत नहीं है।

इसीलिए ‘व्यवस्था’ अपने पास रखी ‘कार्यक्रम’ दिल्ली पार्सल किया। तभी से दिल्ली में कार्यक्रम चल रहे हैं और वहीं से देश में चलाए भी जा रहे हैं! [1]

राजधानी और काशी का फर्क- यह दरअसल दो भिन्न जीवन दृष्टियों का फर्क़ है। यदि आप राजधानी की दृष्टि से काशी की व्यवस्था का आकलन करेंगे तो वह आपको निठल्लापन, निकम्मापन और खतरनाक [2] नजर आएगी। क्या इसका हल यह है कि काशी की दृष्टि से काशी का आकलन किया जाए? यह आसान नहीं है, सच पूछिए तो वह लक्ष्य भी नहीं है। काशी का अस्सी (आगे-काकाअ) के संदेश को अरहस्यीकृत करने का प्रयास फिर से उसी आधुनिक समझ [3] के घेरे में आना होगा जो औपनिवेशिक मानस के पंजों से निकल नहीं पाई है। यह इकहरा रास्ता कार्य-कारण-परिणाम की व्यवस्थित त्रयी के एकमात्र एकरेखीय रास्ते पर चलने की हमारी आदत के कारण होता है (जो न जाने कब हमारी सीमा भी बन जाती है)। जब कबीर ऐसी वैज्ञानिक आलोचनाओं से नहीं बच पाए तो काशीनाथ सिंह क्या चीज हैं। अत: इस रचना का लक्ष्य काकाअ के उद्देश्य व सफलता का आकलन करना नहीं है बल्कि उस बिंदु की खोज करना है जहाँ एक का सर्वस्व दूसरे को निरुद्देश्यता प्रतीत होने लगता है।

IV अस्सी का कालबोध

अस्सी का दिल है पप्पू की दुकान-पीने को महज चाय और भाँग, पाने को सारी दुनिया। [4] यहाँ काल की प्रचलित अवधारणा ठहर जाती है। इसे समझना हो तो सिम्पोजियम, सेमिनार, परिसंवाद, संगोष्ठी आदि के लिए अस्सी का गढ़ा गया पारिभाषिक शब्द देखें- गँड़ऊ गदर। गँड़ऊ गदर इसलिए कि तमाम बहसों का नतीजा टाँय-टाँय फिस्स! इसके बावजूद अस्सी की नजर में यह लोकतंत्र की सबसे बड़ी खासियत है- क्योंकि रोटी दाल की हाय हाय में सुबह आठ से शाम आठ तक मराने वालों से दुनिया नहीं चल रही है। लोकतंत्र हमसे है जिनके पास फुर्सत ही फुर्सत है। कोई आश्चर्य नहीं कि इसके तत्काल बाद की पंक्ति में लेखक की टिप्पणी है, शास्त्रों का मत है कि काल दुनिया का चक्कर मारकर यहीं विश्राम करता है- भाँग-बूटी छानकर। [5]

इस फुर्सत  का छत्तीस का आँकड़ा है- स्वातंत्र्योत्तर भारत की विकासगति से- और स्पष्टता से कहे तो विकास के नेहरूवादी ढाँचे से। कोई गलतफहमी न रह जाए इसलिए काशीनाथ सिंह ऊपर उद्धृत संवाद कड़ी के अगले ही पैरेग्राफ में फुर्सत के विरुद्ध षड्यंत्ररत षड्यंत्रकारियों की श्रेणी में पहला नाम लेते हैं नेहरू का जिन्होंने कहा था, आराम हराम है। इस पर अस्सी की प्रतिक्रिया बड़ी साफ थी- हराम उनके लिए जो हरामी थे… [6]

तद्भव- 18 में अखिलेश ने सम्पादकीय में चीन में आयोजित ओलम्पिक खेलों के आयोजन एवं वहाँ तीन सौ पचास मील प्रति घंटा दौडऩे वाली ट्रेन के उदाहरण के जरिए गति को आज के अपरिहार्य मूल्य के रूप में स्थापित किया है। वे लिखते हैं, गति के बढऩे का अर्थ किसी समाज का जीवंत होना, अग्रगामी होना और क्रियाशील होना है। [7] अखिलेशजी इसका उल्लेख करते हैं कि एक जमाने में साइकिल के अपने (यहाँ) आवागमन का सर्वाधिक प्रचलित साधन होने में गौरवान्वित महसूस करने वाला चीन आज तीन सौ पचास किमी प्रति घंटे के वेग से चलने वाली ट्रेन को प्रतिष्ठा प्रतीक के रूप में प्रदर्शित कर रहा है। इसके अगले ही वाक्यों में साइकिल प्रचलन निष्कर्षात्मक रूप से समाज के पिछड़ेपन का प्रतीक बन जाता है, हमारा आशय यह नहीं है कि चीन को अभी भी साइकिल युग में रहना चाहिए या भारत को बैलगाड़ी युग में वापस चले जाना चाहिए। ऐसी कामना न केवल पश्चगामी मानसिकता है बल्कि वह दिमागी दिवालियेपन का सबूत भी होगी।

भारत को इक्कीसवीं सदी में ले जाने का सपना देखने वाले युवा प्रधानमंत्री ने भी इसी दृष्टिटकोण से कम्प्यूटर को चरखे की जगह प्रतिस्थापित करने की बात कही थी। [8] वे ये समझने में असमर्थ थे कि गाँधी ने चरखे को प्रतीक रूप में अपना अस्त्र इसलिए बनाया था कि वह आम आदमी की पहुँच में था (जो बात साइकिल के बारे में भी सही है।) [9] पेंच यही है- (राष्ट्र की) भौतिक/यांत्रिक सम्पन्नता यह नहीं सुनिश्चित कर सकती कि समाज में उसका उचित बँटवारा होगा बल्कि इसके उलट, संभावना (आंशका) यही है कि पहले से सम्पन्न तबका भौतिक/यांत्रिक प्रगति के मानकों को अपने हित में संचालित करे। एक उदाहरण के रूप में दिल्ली मैट्रो को लिया जा सकता है। सार्वजनिक परिवहन के इस नए सुगम और तेज वाहन का किराया अमूमन है। यह इसका एक तिहाई हो सकता था, यदि वातानुकूलन की अपरिहार्य सुविधा को न रखा जाता। (किसी भी ट्रेन में स्लीपर क्लास और वातानुकूलित डब्बे के न्यूनतम दर्जे- III AC के तीन गुना अंतर के आधार पर मैं ये बात कह रहा हूँ।) कलकत्ता में आज भी मैट्रो के ट्राम में एक से दूसरे सिरे पर जाया जा सकता है। पर दिल्ली में ऐसा नहीं हुआ, परिणामस्वरूप मैट्रो अमूमन उस वर्ग के काम आती है जो अपनी कार मैट्रो स्टेशन के बाहर पार्क करके अंदर जाता है। सार्वजनिक परिवहन के एक महत्त्वपूर्ण साधन को (जो अपने नाम के अनुसार ही आम आदमी की परिवहन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए होना चाहिए) जानबूझकर आम आदमी की पहुँच से दूर बनाकर सुविधापरस्त वर्ग के लिए सुरक्षित कर दिया गया। [10]

ठीक इसी प्रकार भौतिक/यांत्रिक सम्पन्नता को समाज की प्रगति मान लिए जाने का अर्थ हो जाता है सकल राष्ट्रीय उत्पाद को प्रगति का पैमाना मान लिया जाना जो कि असमान रूप से बँटे समाज में सबसे बड़ा छल होता है। [11] इस तर्क शृंखला में गति प्रेम तीव्र औद्योगीकरण समर्थक ढांचे और फिर अंतत: भूमंडलीकरण का समर्थन बन जाता है। गतिप्रियता के तर्क से ही संसाधनों के वितरण को सार्वजनिक से निजी क्षेत्र में लाया जाता है। इस गतिशील विकास के लिए ऊर्जा का निजीकरण आवश्यक हो जाता है, बड़े बाँध आवश्यक हो जाते हैं, परमाणु परीक्षण आवश्यक हो जाता है, विशेष आर्थिक क्षेत्र आवश्यक हो जाते हैं। जल्दी ही, इसके वरुद्ध बोलने वाले लोग राष्ट्रद्रोही की श्रेणी में आ जाते हैं। [12] अखिलेशजी की भाषा भी अंत तक आते आते बदल जाती है, इसलिए चीन या भारत या विश्व के किसी भी देश में गति का विरोध करने का अर्थ है उसके जीवन को अवरुद्ध करने का अपराध। जिस तरह हृदय गति, सांसों की गति को रोकना व्यक्ति के जीवन को रोकना है उसी तरह विकास और विज्ञान की गति का विरोध समाज को मृत्यु की ओर धकेलना है। [13] गति की तीव्रता का आग्रह लाभकारी से एकमात्र वरेण्य विकल्प में बदल जाता है। हालाँकि इसके बाद वे यह भी जोड़ते है, इसके बावजूद यह आग्रह अनुचित नहीं होगा कि गति के फलस्वरूप समाज जो उपलब्धियाँ अर्जित करता है उसमें पूरे समाज का हिस्सा हो।

इसके लिए विश्व बैंक ने ज्यादा अच्छा पद गढ़ा है- Development with a human face ब्रिटिश आगमन भी इसी सभ्यता मिशन के तर्क से चला था। कोई आश्चर्य नहीं कि तद्भव में 1857 की क्रांति के सूत्रधारों के पुरातनपंथी होने के सबूत दिखाने वाले एकाधिक लेख छपते रहे हैं। [14] दरअसल यह वही इतिहास की रैखिक दृष्टि है जो पूंजीवाद की प्रगति को अपरिहार्य विकास के साथ जोड़कर इस प्रक्रिया को (अंतत:) कल्याण की दिशा में देखने (और इसीलिए इसके प्रतिकार को स्वाभावत: पुरातनपंथी मानने) की वकालत करती है।

उत्तर भारत के धान के कटोरे कहलाने वाले गऊपट्टी के प्रांत औद्योगिक प्रगति के यूरोपीय मॉडल के लिए हमेशा सरदर्द रहे। तीसरी दुनिया के देशों में यूरोपीय विकास का मॉडल वहाँ की उत्पादन प्रणालियों को बहिष्कृत करने के बाद ही कल्याणकारी भूमिका में आया है। अध्येताओं ने दिखाया है कि अफ्रीका में भी विकास नियोजकों द्वारा ऐसी भूनीतियाँ बनाई गईं कि चरवाहा सभ्यता, जो अपने आप में आत्मनिर्भर और टिकाऊ थी, के लोग शनै:-शनै: अप्रासंगिक हो गए और उन्हें अपनी परम्परागत जीवनशैली छोड़कर कृषकों या बंधुआ मजदूरों में तब्दील हो जाना पड़ा। [15] एशियाई कृषि आधारित ढांचे का मॉडल तीवग्रति युक्त यूरोपीय मॉडल से मेल नहीं खाता। प्रथम दृष्ट्या यूरोपीय मॉडल अधिक गतिशील और इसलिए अधिक लाभकारी भी दिखता है। कृषि उत्पादन प्रणाली में प्रगति क्षैतिज होती है, वह वर्ष दर वर्ष बढ़ती नहीं है जबकि औद्योगिक प्रणाली में प्रगति ऊध्र्वाधर होती है जो अगले बरस दुगुनी या तीन गुनी छलांग लगा सकती है। उद्योग की ऊर्ध्वाधर प्रगति समाज की ऊर्ध्वाधर प्रगति का प्रतीक नहीं है, यह मैंने पहले ही स्पष्ट करने का प्रयास किया है। पर ऊर्ध्वाधर प्रगति के स्वप्न में एक दुर्दम्य आकर्षण तो है ही। अत: शासकीय नीतियाँ भी इसके समर्थन में उतर आती हैं। क्षैतिज नदी को ऊर्ध्वाधर बाँध में बाँध दिया जाता है। ऐसे लोग जो अपनी क्षैतिज प्रगति वाली जीवन शैली में प्रसन्न थे, अचानक आपके प्रगति के मानदंडों पर पिछड़े, कमजोर प्रतीत होने लगते हैं, उनका विस्थापन उन्हें सुधारने के अभियान का हिस्सा बन जाता है।

सुंदरलाल बहुगुणा नाम का एक बुड्ढ़ा पहले समाचारों की सुर्खियाँ बनता है, फिर हमलों का शिकार होता है, बाद में इतना अप्रासंगिक हो जाता है कि पाँचवे पेज के छठे कॉलम में भी अखबार उसे जगह देने को तैयार नहीं। जब प्रगति विरोध को अपराध मान लिया गया हो तब यह बुड्ढ़ा जिसकी बातें कभी अव्यावहारिक किंतु-सोचो तो-तार्किक लगती थीं, अब शनै:-शनै: क्रोध नहीं तो कम से कम खीझ का सबब तो बन ही जाता है। गोरख पांड़े के गीत की चिडिय़ा की भांति अक्षम यह व्यक्ति जब किसी सहारे की उम्मीद में, दाँये बाजू के निकट जाता दिखता है, तब हम आधुनिक प्रगतिशील लोग जिन्हें अपनी ऐतिहासिकता के सुव्यवस्थित क्रम में वह पहले ही असुविधाजनक लगता रहा था, अब खुशी से चहकते हैं- देखा हम न कहते थे…

… क्या नाम था इस बूढ़े आदमी का- सुंदरलाल राय या रामजी बहुगुणा या तन्नी सिंह या काशीनाथ गुरु…? (ऊ तुमको किधर से लेखक कवी बुझाता है जी… ई भोंसड़ी के अखबार पर लाई-दाना फइलाय के एक पुडिय़ा नून और एक पाव मिरचा बटोर के भकोसता रहता है! कवी-लेखक अइसै होता है का?) [16]

III  निरगुन का अरथ?

नवजागरणकालीन विमर्श में आधुनिक बरास्ते यूरोप आई और इस में राष्ट्र का हित वस्तुत: उस सवर्ण अभिजात पुरुष का हित था जो अपने बाहरी/भौतिक दरवाजे आधुनिकता के लिए खोल रहा था और भीतरी सांस्कृतिक दरवाजे और कसके बंद कर रहा था। धीरे-धीरे एक ऐसी समरूपीकृत सांस्कृतिक पहचान का सिलसिला शुरू हुआ जिसमें भिन्नताओं को मानक की कसौटी पर अपने को तराशना था (मानक किसने निर्धारित किया था, यह बताने की जरूरत नहीं)।

अंतोनियो ग्राम्शी ने उत्पादन संबंध-संस्कृति के मध्य आधाराधेय सम्बन्ध की प्रचलित अवधारणा में पहली बार संशोधन किया। पहली बार उन्होंने ही शासक वर्ग द्वारा अपनी संप्रभुता के स्थापित किये जाने में संस्कृति के कारक तत्त्व बनने/बन सकने की प्रक्रिया को रेखांकित किया साथ ही उन्होंने इस वर्चस्व के विरुद्ध उठने वाली (कुछ हद तक बिखरी) आवाजों को व्याख्यायित करने का ऐतिहासिक दायित्व भी परिवर्तनकारी शक्तियों पर डाला। रेमंड विलियम्स का कथन द्रष्टव्य है, (ग्राम्शी के मुताबिक) आधुनिक समाजों में क्रांतिकारी सामाजिक परिवर्तन की कुंजी, मार्क्स ने जिस विश्लेषक वर्गचेतना के स्वत:स्फूर्त उभार की भविष्यवाणी की थी,उस पर नहीं बल्कि उस ‘ऐतिहासिक खेमे’ की पूर्व निर्मिति पर निर्भर करती है जिसने अपना एक सगुम्फित दृष्टिकोण स्वत: ही विकसित कर लिया था। [17]

संस्कृति भौतिक परिस्थितियों से अविच्छिन्न रहती है, यह एक अति है और संस्कृति, भौतिक परिस्थितियों पर आधाराधेय रूप से आश्रित होती है, यह दूसरी अति है। इसीलिए सांस्कृतिक मोर्चे की लड़ाई सबसे जरूरी हो जाती है क्योंकि यह गुरिल्ला युद्ध शैली की तरह शत्रु के कमजोर मोर्चों पर फतह करके नहीं जीती जा सकती। [18]

काकाअ में (ग्राम्शी द्वारा व्याख्यायित) उपरोक्त दोनों प्रक्रियाएं देखी जा सकती हैं, दूसरी कुछ ज्यादा ही। इसमें मानस की पोथी समेटे, जनेऊ से पीठ खुझाते, मक्खियाँ मारते, [19] पुराने जमीदारों ताल्लुकेदारों की जगह टाटा बिरलाओं जैसे नए जमीदारों की आवभगत करते बाभन देवता [20] तो हैं ही वहीं उससे ज्यादा रोचक है, तुलसी के लिए होने वाले हुआँ हुआँ के जवाब में अस्सी का भौं भौं और उसका औघड़पन। [21] तुसली यहाँ शास्त्रीय परम्परा के प्रतिनिधि हैं, जिनके प्रतिकार में उठने वाली अस्सी की औघड़ आवाज (जो अपनी परम्परा कबीर से संयोगवश ही नहीं जोड़ती [22]) उन्हीं बिखरी प्रतिरोधी आवाजों का प्रतिनिधित्व करती हैं जो सामाजिक परिवर्तन हेतु खड़े होने वाले सामूहिक प्रतिकार की पूर्व शर्त है। काशीनाथ सिंह स्पष्ट कर देते हैं, यह भौं भौं कभी आकाशवाणी के रूप में गूँजता है, कभी भविष्यवाणी के रूप में, लेकिन ज्यादातर लोकवाणी के रूप में। [23] (बल मेरा)

हुआँ हुआँ के जवाब में भौं भौं- यही लोकवाणी अस्सी की जान है। यहाँ अयं महात्मा करपात्र दंडी, यदाकदा गच्छति दालमंडी! कहने वाला ही संभव है उस अज्ञातकुलशील टिप्पणीकार पर थूँकता-सरापता पूरे नगर में घूमता फिरा हो। [24] यहाँ तुलसी के संतत्त्व की अंतर्कथा भी आ जाती है, [25] पांड़े जी के स्वप्न में शिव भगवान शिवालय को मूत्रालय में तब्दील करने का आदेश भी दे देते हैं [26] और अस्सी साल के पगलाए कुँआरे ब्राह्मण को नचानचाकर चूतिया बना रहे भजपैयों की तिकड़में भी खुल जाती है। [27] आध्यात्मिकता यदि वाराणसी के तीर्थ-धर्म-मोक्षरूपी विश्वकल्याण का आधार है तो पप्पू की दुकान में बैठने वाले आप्रवासी अस्सीवासी चूतियों की निगाह में यह धन्धा है। [28] इन औघड़ लुच्चों का क्या कीजिए? इस लुच्चई का मेरा एक और प्रिय उदाहरण है-

वन् 90 के अयोध्याकांड के दिनों में जब पूरे नगर में घंटा-घडिय़ाल बज रहा था, अटारियों और भवनों पर बंदनवार और बिजली के लट्टू लटक रहे थे- चमचम टिमटिम, मंदिरों के सिंगार हो रहे थे और कीर्तन मंडलियाँ बाजों गाजों के साथ सड़क पर घूम रही थीं- किसी और लुच्चा किस्म के नेता ने एक नारा ललकारा- ‘बच्चा बच्चा राम का, लंड न कवनो काम का!’ और सुबह होते होते गूँज गया पूरे जनपद में। [29]

इस खंड के प्रारंभ में जिस समरूपीकृत संस्कृति की मैंने बात की उसे सर्वाधिक चुनौती यू.पी. बिहार से ही मिली है जहाँ चतु: या पंचकोणीय मुकाबले देखने को मिलते हैं। काकाअ में यह बहुलता हर जगह मिलती है। काकाअ में जिन मित्रों को स्पष्टता का अभाव लगता है, वे इसे संस्कृति को रामनामी दुशाले की तरह ओढऩे वाले किसी महापुरुष को पढ़वा कर देख लें तय हो जाएगा कि काकाअ की पक्षधरता क्या है?

देखिए मैं फिर वही गलती कर रहा हूँ- काकाअ को अरहस्यीकृत करने का प्रयास…। ग्राम्शी की पूर्व निर्मिति यहाँ निरगुन बन जाती है और निरगुन अरथ करने से ज्यादा गुनने की चीज है।

II अस्सी बरक्स अड्डा

प्रसिद्ध चिंतक दीपेश चक्रवर्ती ने अपनी पुस्तक प्रोविंशियलाइजिंग यूरोप में अड्डा संस्कृति पर एक लेख लिखा है। अड्डा- यानी घनिष्ठ मित्रों के बीच निर्बंध गपबाज के सिलसिलों का ठिकाना- बंगाल में तेजी से विलुप्त हो रही संस्था है। [30] ये भी मानते हैं कि यह बंगाली अस्मिता की विशिष्ट पहचान है और अपने आप में विशिष्ट संस्था है। [31] मैं भी दीपेश जी से सहमत हूँ, मेरा भी अस्सी और अड्डा को समतुल्य साबित करने का कोई इरादा नहीं है। मेरे लिए जो सवाल महत्त्वपूर्ण है, वह यह कि उन्हें अड्डा संस्कृति के विश्लेषण की जरूरत क्यों महसूस हुई? वह सवाल है- पूंजीवादी आधुनिकता (जो बकौल दीपेशजी बरास्ते यूरोप आई- लेखक) के साथ हम घर सरीखा सम्बन्ध कैसे बनाएँ? [32] यह सवाल बहुत महत्त्वपूर्ण है क्योंकि आधुनिकता का भारतीय जनमानस मे प्रवेश जिस बाहरी/भौतिक और भीतरी/सांस्कृतिक के भेद के साथ हुआ था, अड्डा उसे छिन्न भिन्न कर देता है। ऐसा इसलिए क्योंकि अड्डा आधुनिकता की दिक्काल (समय और स्थान की) चेतना की बिल्कुल उलटी सिद्धांतिकी वाली संस्था है। [33] बात को और अच्छे से समझना हो तो यूरोपीय आधुनिकता के सबसे बड़े पुजारियों में से एक नीरद सी. चौधुरी द्वारा की गई (और दीपेश चक्रवर्ती द्वारा उद्धृत) आलोचना को देखा जाए। नीरद सी. चौधुरी अड्डा को निठल्लापन, ऊर्जाहीनता ही नहीं, हिंदुस्तानियों में बची रह गई पशु प्रवृत्ति (Herd Instinct) का प्रतीक भी मानते हैं। यह पशु प्रवृत्ति है- सामुदायिकता सुख। [34] दीपेश इसकी व्याख्या करते हुए कहते हैं कि वैयक्तिक विकास/स्वतंत्रता के जिन उच्चादर्शों को यूरोपीय पूंजीवाद ने छुआ था, अड्डा में नीरद सी. चौधुरी को उसका पतन नजर आया। [35] यह आदर्श एक नियंत्रित पूंजीवादी समाज था जिसमें भावनाएँ व्यक्ति के निजी वृत्त का हिस्सा थीं। चूंकि इस आधुनिकता बोध में आनंद व्यक्ति के निजी वृत्त का हिस्सा था अत: तार्किक रूप से उसे घर का हिस्सा होना चाहिए था, बाहर का नहीं। [36] दूसरे शब्दों में कहें तो व्यक्ति के आनंद या दुख में शरीक होने की कामना/प्रयास उसी मध्यकालीन ताकाझांकी वाली मानसिकता का अंग थी जिससे मुक्त होना किसी परिपक्व पूंजीवादी समाज के लिए आवश्यक था।

दूसरा तर्क उसी गतिप्रिय परिणामोत्पादक उद्देश्यवाद (टेलियोलॉजी) से उपजा था। सार्वजनिक वृत्त में यदि लोग मिले बैठें तो उसका कोई स्पष्ट उद्देश्य होना चाहिए; गति/सक्रियता की परिणामोत्पादकता की एक तार्किक अन्विति होनी चाहिए। पश्चिम में पब्लिक स्फीयर की अवधारणा का एक स्पष्ट उद्देश्य था। क्लब और रांदेवू सरीखी संस्थाएँ जनमत निर्माण के उद्देश्य से अस्तित्व में आईं थी (जो उन्होंने निभाया भी) जबकि अड्डा का घोषित एजेंडा ही एजेंडाविहीनता थी। (हाय! फिर वही बात! निरगुन का अरथ कैसे समझाया जाय?)

असल में पूँजीवादी औपनिवेशिक सिद्धांतिकी में लेज़ी नेटिव यानी सुस्त/निकम्मे देशज के लिए खास जगह थी। सभ्यता मिशन का औपनिवेशिक विस्तारवादी तर्क इसी विचार से खूराक पानी पाता था।

अब भिन्नता-अड्डा उस बंगाली भद्रलोक की सांस्कृतिक अस्मिता का हिस्सा थी जो आधुनिकता के साथ कदमताल मिला रहा था जबकि अस्सी के पास इस आधुनिकता प्रोजेक्ट में न जगह है न विकल्प- जो पठितव्यं तो मरितव्यं, न पठितव्यं तो मरितव्यं, फिर दाँत कटाकट क्यों करितव्यं? [37] बंगाली भद्रलोक चूंकि इस नियंत्रित पूँजीवादी आधुनिक समाज का हिस्सा बन कर औपनिवेशिक प्रगति के लाभ में अपना हिस्सा ले रहा था अत: उसके लिए इस नियंत्रण से बाहर निकल सकने की संभाव्य आकांक्षाएँ स्वत: ही सीमित हो जाती थीं। आश्चर्यजनक रूप से यह दीपेश चक्रवर्ती की दृष्टि की भी सीमा बन जाती है जब वे अड्डा को बंगाली मानस की एक विशिष्ट संस्था के रूप में बारबार रेखांकित करते हैं। यूरोपीय आधुनिकता के साथ गलबहियाँ डालकर चल रहे बंगाली भद्रलोक [38] के लिए अड्डा को एक परिघटना के रूप में नहीं बल्कि स्थानिक सांस्कृतिक चिह्न के रूप में ही बचाना सुविधाजनक था जबकि काकाअ में इस बात का गहरा अहसास है कि अस्सी एक जगह मात्र नहीं, एक परिघटना है। [39] विडम्बना देखिए कि अड्डा जो किसी जगह से सम्बद्ध नहीं था, एक प्रदेश विशेष से सम्बद्ध होकर रह गया जबकि अस्सी जो व्युत्पत्ति की दृष्टि से भी एक जगह विशेष से सम्बद्ध है, इस सीमा को लांघकर एक परिघटना के रूप में सामने आता है।

अस्सी एक जगह मात्र नहीं, यह एक परिघटना है। इस परिघटना को यदि घाटों की जजमानी प्रथा तक सीमित करके देखेंगे तो बहुत आसानी से पुरातनपंथ विरुद्ध आधुनिकता के द्विआयामी सरलीकृत खांचे में फँस कर फैसलाकुन राय देंगे। अस्सी घाट-जजमानी-पंडिताई नहीं है, वह सामुदायिकता और आनंद के मेल का दस्तावेज है। यूरोपीय आधुनिकता का बोध की गतिप्रियता इस ठलुआपने को नहीं समझ सकती (या उतनी ही हैरत से देख सकती है जितने घाटों पर फिरंगी) [40]

I फुर्सत

अस्सी एक जगह मात्र नहीं यह एक परिघटना है। इसे सबसे स्पष्टता से समझा जा सकता है अंतिम अध्याय कौन ठगवा नगरिया लूटल हो से। नगरिया यानी अस्सी के विनाश के लिए ठगों ने अस्सी को मुख्य दुश्मन के रूप में चिह्नित करके उस पर हमला नहीं बोला। उन्होंने मुख्य शत्रु चिह्नित किया शाम को। शाम माने सबसे मुश्किल, सबसे बीहड़, सबसे खतरनाक वक़्त। शाम माने बहुत कुछ। [41]

और लोगों के रूप में चिह्नित होते हैं जवान और अधेड़। दोनों मिलकर एक घातक सम्मिश्रण तैयार होता है,यह वही वक़्त है जब वे दफ्तर और रोजगार कार्यालयों से घर लौटते हैं- थके माँदे, झुँझलाए और चिड़चिड़े। [42] कौन हैं ये लोग? पहचानों इन्हें। ये वही चौराहे के लोग हैं जिनके पास फुर्सत ही फुर्सत है चाय की दुकानों और कॉफी हाउसों में बैठने की; गुमटियों, सड़कों और फुटपाथों पर खड़े होने की; सरकार और तुम्हारी छीछालेदार करने की। ये वही लोग हैं जो भूखे रहकर भी- आधा पेट खाकर भी आपस में हँसी मजाक करते हैं, ठिठोलियाँ करते हैं, ठहाके लगाते हैं। यह लोग भी हैं और वे लोग भी जिन्हें शाम निरंकुश और मुक्त छोड़ देती है। [43]

[यहाँ काकाअ की मुख्य आलोचना का बिंदु भी आ जाता है। समस्या बच्चों, लड़कियों, बीवियों और बुढ्ढे-बुढ्ढियों से नहीं है सिर्फ जवानों और अधेड़ों [44] (यानी पितृसत्तात्मक संरचना के प्रधान) से है क्योंकि इन्हें ही शाम निरंकुश और मुक्त छोड़ देती है। यहाँ समस्यामूलक तो बच्चों और लड़कियों के अलग-अलग खाँचे (और इस प्रकार बच्चों=लड़कों का सरलीकरण) भी है पर उससे भी ज्यादा समस्यामूलक है अस्सी (और वैसे अड्डा का भी) पुरुषवादी चरित्र। शाम के इस सामुदायिक आनंद में घर-बाहर का परम्परागत विभाजन शामिल था जिसे यूरोपियन विक्टोरियन नैतिकता के मानदंडों ने पुष्ट ही किया। आश्चर्य नहीं कि काकाअ में प्रभावी भूमिका में दो ही महिला चरित्र हैं और दोनों विदेशी हैं- मादलेन और कैथरीन। हमारे एक मित्र का तर्क तो यह भी है कि एजेंडा-विहीनता की बात कोरी बकवास है- अस्सी/अड्डा का एजेंडा है और वो है अपनी मर्दवादी भड़ास का उत्सर्जन। सार्वजनिक वृत्त में महिलाओं के आने का इतिहास एक शताब्दी से ज्यादा पुराना है, इसके बावजूद इसके कारण पैदा हो सकने वाले तनाव की काकाअ में झलक भी नहीं है। पर मैं फिर अपने मुख्य तर्क पर लौटता हूँ- ज्ञानोदय में बसा समानता का मूल तत्त्व सर्वाधिक ग्राह्य था और है पर हमारे यहाँ आधुनिकता के वाहक रहे औपनिवेशिक प्रभुओं ने परम्परा के वर्चस्ववादी पक्ष के साथ गठजोड़ ही किया और स्त्री पुरुष समानता का प्रश्न औपनिवेशिक काल के राष्ट्रवादी अभियान की चिंता का मुख्य बिंदु भी नहीं बना। [45] आज भी विज्ञापनों में करवाचौथ की महिमा देखी जा सकती है और इंटरनेट के समतायुक्त आभासी जगत में सबसे बड़े सामुदायिक ब्लॉग का नाम ही भड़ास है [46] जिसके यौनिक संदर्भों में आधुनिक मानस की कंदराओं में बैठी पैतृकता को देखा जा सकता है। अत: परम्परा विरुद्ध आधुनिकता का सरलीकृत ढाँचा यहाँ भी अपर्याप्त है]

शाम- इस समस्या का हल व्यवस्था ने यह ढूंढा कि उन्हें, दिन और रात से शाम हटानी पड़ी। [47]

दिन और रात के मध्य से शाम का हटना यह किसी कालखंड का विलोपन नहीं है, यह अनुत्पादक फुर्सत का विलोप है। प्रसिद्ध समाजशास्त्री योगेन्द्र सिंह के अनुसार हमारे यहाँ आनंद कर्म से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है और उसका सामुदायिक चरित्र रहा है। कृषि कर्म से जुड़े अनेक गीतों, उत्सवों में यह चरित्र देखा जा सकता है। [48] यहाँ (मेरे द्वारा गृहीत आनंद के लिए) योगेन्द्र सिंह ने जो शब्द काम में लिया है वह है- लेज़र (Leisure)। यूरोपीय आधुनिकता बोध में लेज़र का एक खास अर्थ है। एक मानक अंग्रेजी शब्दकोष में लेज़र का जो अर्थ मिलता है वह है- टाइम फ्री फ्रॉम वर्क ऑर अदर ड्यूटीज़; स्पेयर टाइम। [49] यानी आनंद कर्म से पृथक अवधारणा है। कर्म के साथ-साथ दायित्व से भी अलगाव, यानी यह परिभाषा गहरे नैतिक बोध से निहित है जिसमें आनंद में समाया ठालापन गलत नहीं तो उपेक्षणीय तो है ही। योगेन्द्र सिंह जी जब यह विश्लेषण करते हैं तो ठीक ही करते हैं कि हमारे यहाँ आनंद का जैविक सामुदायिक चरित्र रहा है और आधुनिक औद्योगिक समाज के आने के साथ पारम्परिक कर्म-आनंद-अभिन्नता वाला दृष्टिकोण जाता रहा। [50] पर वे ज्ञानोदय को मानवता को सबसे बड़ी देन मानते हैं [51] (अर्थात् ज्ञानोदय की सार्वभौमता को स्वीकार कर उसे एक द्वंद्वरहित अवधारणा के रूप में देखते हैं) इसलिए वे समस्या को वहाँ से नहीं पकड़ते या पकडऩा चाहते जो हमारा अभीष्ट है। (यही कारण है कि) वे मीडिया और बाजार को इसके लिए उत्तरदायी ठहराते हैं कि उसने व्यक्ति को दर्शक में बदल दिया या कहें कि उसे आनंद के सकर्मक से अकर्मक भोक्ता के रूप में बदल दिया। [52] काकाअ में भी अंत में टीवी और बाजार को मुख्य शत्रु के रूप में चिह्नित करने को निष्कर्षात्मक सा रूझान दिखता है पर साथ में यह संकेत भी हैं कि इसके सूत्र कहीं और हैं।

टीवी और बाजार ये मर्ज नहीं है लक्षण हैं। समरूपीकृत संस्कृति का निर्माण, सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के विश्वविजय के अभियान का हिस्सा है और मीडिया फिलवक़्त उसका सबसे बड़ा हथियार- पर यह समीकरण सार्वकालिक, सार्वभौम नहीं है और न लड़ाई इतनी इकहरी है। नॉस्टेल्जिया, करुण विलाप और हाय तौबा चीजों को स्याह सफेद में देखने से पैदा होता है। अस्सी के सन्तों के पुरखे जानते हैं, जिंदगी हायतौबा मचाने के लिए नहीं, मस्त रहने के लिए मिली है। जीने के लिए गंगा का पानी भले हो, पीने की चीज तो आँखों के आँसू ही है। [53] सांस्कृतिक मोर्चे पर लड़ाई लम्बी और जटिल है और उसके लिए प्रतिरोध के प्रतीकों को चिह्नित करना सबसे जरूरी है इसलिए काकाअ का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण राजनीतिक बयान है- हँसी का दूसरा नाम लोकतंत्र है। [54]

(उप) संहार

और अंत में, काकाअ से प्रेरणा लेते हुए एक किस्सा जो दस बरस पहले सुना था और लोकवाणी बनने के बाद तो इसके सत्य होने में कोई संदेह ही नहीं रहा।

किस्सा यूँ है कि एक बार ईश्वर ने तय किया कि बस बहुत हुआ- अब दुनिया काफी चल ली, अब किस्सा खत्म किया जाए। अब ईश्वर भी तो मॉडर्न हुए तो नोटिस दिया जाना चाहिए, नोटिस पीरियड होना चाहिए, चल रही व्यवस्था यूँ ही थोड़े ही खत्म की जा सकती है। सो ईश्वर ने तीन लोगों को चुना। पहले हुए ओबामा (मूल किस्से में ये क्लिंटन थे) उन्हें बुलाया, बताया और कहा कि अपने लोगों को समझा दो कि भई चलाचली की बेला है…। ओबामा ने सीएनएन पर दुनियाभर में सीधे प्रसारण के जरिए लोगों को संबोधित किया। उन्होंने कहा, मेरे पास आपको देने के लिए दो खबरें हैं- एक अच्छी एक बुरी। अच्छी यह है कि मुख्य बहस हमने जीत ली है। ईश्वर है। बुरी खबर यह है कि वह दुनिया का अंत कर रहा है।

दूसरे थे चीन के राष्ट्रप्रमुख (हमारे जमाने में यह कास्त्रो थे, अब जाहिर है गति से आक्रांत मैने चीन को चुन लिया है)। उन्होंने भी सीधा प्रसारण किया – मेरे पास आपको बताने के लिए दो खबरें हैं- एक बुरी एक बहुत बुरी। बुरी यह है कि मुख्य बहस हम हार गए। ईश्वर तो (कमबख़्त) निकला। बहुत बुरी यह कि वह दुनिया का अंत कर रहा है।

तीसरे शख्स थे बिल गेट्स (इस परिवर्तनशील किस्से में यही एक नाम स्थिर रह गया है, या इसे मेरी अज्ञानता मान लें) उन्होंने फौरन अपने विश्वव्यापी जाल का सहारा लिया। गेट्स साहब ने कहा, मेरे पास आपको देने के लिए दो खबरें हैं- एक अच्छी दूसरी बहुत अच्छी। पहली खबर ये है कि ईश्वर सोचता है कि दुनिया के तीन सबसे महत्त्वपूर्ण लोगों में से एक मैं हूँ। दूसरी खबर यह है कि- माइक्रोसॉफ्ट 2007 (तब विंडोज-98 का शोर था) का नया संस्करण बनाने की जरूरत नहीं है। दुनिया खत्म जो हो रही है, जाओ, सब मजे करो…।



संदर्भ

1.      काशीनाथ सिंह, काशी का अस्सी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. 74
2.      वही, पृ. 156
3.      यहाँ सबसे पहले यह स्पष्टीकरण जरूरी है। मेरा इरादा सार्वभौम के आवरण में छुपी यूरोकेन्द्रिकता को प्रश्नचिह्नित करने का है। यह आधुनिकता मात्र का विरोध नहीं है। सबाल्टर्न इतिहास लेखन ने यह काम बड़े पैमाने पर किया है (बेशक उनके यहाँ आधुनिकता/तर्क विरोध तक जाने की अतियाँ भी मिल जाती हैं) और अब तो परम्परागत मार्क्सवादी खेमा भी उनके इस तर्क को स्वीकार करके ही बहस को आगे बढ़ा रहा है। उदाहरण के लिए सबाल्टर्न इतिहास के एक आलोचक की यह स्वीकारोक्ति देखें- आधुनिकता मात्र और विधेयवादी, युयुत्सु, असहिष्णु आधुनिकतावाद, जो धीरे-धीरे इससे उभरा और जिसने उन्नीसवीं सदी के अंतराल में इसे प्रतिस्थापित किया तथा इसे लौकिक, यांत्रिक तार्किकता के सर्वसत्तावादी आधिपत्य के रूप में चिह्नित किया था, इनके बीच (जैसा कि पॉवर, हेबरमास और बाद में टॉरेन आदि चिंतकों ने दिखाया था) भिन्नता को रेखांकित किया जाना चाहिए। इस आधुनिकता के नकार का अर्थ तर्क मात्र का नकार या ज्ञानोदय के विचार में बसे उदारवादी तत्त्व का नकार नहीं है। जैक्यूस पोउचेपदैस, सबाल्टर्न स्टडीज एज़ पोस्ट कोलोनियन क्रिटीक ऑफ मॉडर्निटी, जैकी असैयग और वेरोनीक बेनेइ, रिमैपिंग नॉलेज- द मेकिंग ऑफ साउथ एशियन स्टडीज इन इंडिया, यूरोप एंड अमेरिका (19th -20th सेंचुरी), थ्री एसेज कलेक्टिव, नई दिल्ली, 2005, पृ. 126 (यहाँ और लेख में अन्य सभी जगह, जहाँ पृथक उल्लेख नहीं है, अनुवाद मेरे द्वारा किये गये हैं।)
4.      काकाअ, पृ. 41
5.      वही, पृ. 75
6.      वही, पृ. 76
7.      अखिलेश, तदभव-18, जुलाई, 2008, लखनऊ, पृ. ढ्ढढ्ढढ्ढ
8.      राजीव गाँधी के नाम लिखे एक खुले खत में प्रभाष जोशी ने इस विडम्बना को चिह्नित          किया था। उल्लेखनीय यह भी है कि उन्हीं दिनों शिक्षा विभाग मानव संसाधन विकास        विभाग में बिला गया था। अत: लेख के अंत में प्रभाष जी ने उचित ही लिखा था- आपका   संसाधन! प्रभाष जोशी, मसि कागद, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली, 1998, पृ. 142
9.      इस गाँधीवादी ढाँचे से मेरी भिन्न असहमतियाँ है किंतु उनका वर्णन यहाँ अभीष्ट नहीं है।
10.    यह तर्क (संभवत:) प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री अनिल सद्गोपाल का है जो मुझे उनके मेधावी     शिष्य वीरेन्द्र सिंह रावत से सुनने को मिला था, उनका आभार।
11.    इस तर्क का विस्तृत रूप अमत्र्य सेन की पुस्तक के अध्याय इनक्वालिटी ऑफ व्हाट में      देखा जा सकता है। देखें, अमर्त्य सेन, इनक्वलिटी रिएक्जामिंड, ओयूपी, नई दिल्ली,    1997
12.    पोखरण विस्फोट के समय कहा गया था- यह मात्र परमाणु परीक्षण नहीं राष्ट्रवाद के भी          परीक्षण है। हाल ही में संसद में परमाणु समझौते पर चली बहस में भी राष्ट्रवाद केन्द्रीय        धुरी रहा था। दूसरी ओर अरुंधति राय को सरदार सरोवर बाँध सम्बन्धी निर्णय की    आलोचना को न्यायालय की अवमानना मानते हुए दंड सुनाया गया। इन मुद्दों के सबसे        प्रखर विश्लेषण हेतु देखें- अरुंधति राय, न्याय का गणित (अनु.-जितेन्द्र कुमार), राजकमल      पेपर बैक्स, नई दिल्ली, 2005
13.    अखिलेश, वही, पृ.  IV
14.    देखें, वीरेन्द्र यादव, 1857 का मिथक और विरासत: एक पुनर्पाठ, सं. अखिलेश, तद्भव- 15, जनवरी, 2007, पृ. 125-154
15.    देखें, एलेन वाल्डविन आदि, इंट्रोड्यूसिंग कल्चरल स्टडीज, प्रेंटिस हॉल यूरोप, 1999,   पृ. 16
16.    काकाअ, पृ. 17
17.    देखें- http:/www.theory.org.uk/ctr-gram.htm#hege
18.    यह प्रसिद्ध कथन भी ग्राम्शी का ही है जो नामवर सिंह द्वारा उद्धृत किया गया है। देखें-           नामवर सिंह, कविता के नए प्रतिमान, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, चौथा पुनर्मुद्रित संस्करण, 1995, भूमिका
19.    काकाअ, पृ. 14
20.    वही, पृ. 102
21.    वही, पृ. 39
22.    वही, पृ. 38
23.    वही, पृ. 39
24.    वही, पृ. 36
25.    वही, पृ. 37
26.    वही, पृ. 132
27.    वही, पृ. 61, इस संवाद में राष्ट्रधर्म के नाम पर शादी न होने देने की एक पूर्व प्रधानमंत्री          की पीड़ा पर एक पात्र महाकवि कौशिक की व्यंजना है जो मेरे लिए इसलिए महत्त्वपूर्ण    नहीं है कि वह एक राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी का मखौल उड़ाती है बल्कि इसलिए महत्त्वपूर्ण    है कि वह (मेरे तर्क को पुष्ट करते हुए) दैनंदिन जीवन के प्रश्नों को राष्ट्रवाद से ऊपर रखती है।
28.    वही, पृ. 118
29.    वही, पृ. 36
30.    दीपेश चक्रवर्ती, अड्डा: ए हिस्ट्री ऑफ सोश्यलिटी; प्रोविंशियलाइजिंग यूरोप-पोस्टकोलोनियन थॉट एंड हिस्टोरिकल डिफरेंस, ओयूपी, नई दिल्ली, 2000, पृ. 181
31.    वही, पृ. 182, दरअसल यह आग्रह दीपेश चक्रवर्ती के पूरे लेख में समाया है। अंत में वे    लिखते भी है कि अड्डा ने बंगाली आधुनिकता पर बंगाली का रंग चस्पा करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस तर्क की सीमाओं पर लेख में आगे चर्चा है।
32.    वही, पृ. 180, दरअसल उस सवाल जिसकी दीपेशजी के यहाँ बारम्बार काव्यात्मक      आवृत्ति हुई है, का (मेरे द्वारा) अनुवाद उस भाव को पूरी तरह व्यंजित नहीं कर पा रहा है जो इसमें निहित है। सवाल है- हाउ टू बी एट होम विद माडर्निटी? – यहाँ एट होम में      एक चैन अथवा तादात्म्य का भाव निहित है।
33.    वही, पृ. 204
34.    वही, पृ. 184-185
35.    वही, पृ. 185
36.    आश्चर्य नहीं कि नीरद दा को लगता है कि अड्डा ने गार्हस्थ जीवन को नष्ट कर दिया।       वही, पृ. 185
37.    काकाअ, पृ. 14
38.    गो कि हिन्दी क्षेत्र के नवजागरण में वाराणसी के भद्रलोक की भी ऐसी ही भूमिका थी    पर अस्सी की औघड़ संस्कृति इस भद्रलोक से भिन्न है।
39.    वे देख रहे थे कि चीजें बदल रही हैं और वह बदलाव बाहर नहीं उन्हीं के घर में हो रहा   है- इसके होने न होने पर उनका कोई वश नहीं है, उनके न चाहते हुए भी होता जा रहा     है, वे देख रहे थे कि अस्सी के भीतर से ही एक नया नगर उग रहा है- धीरे-धीरे उग रहा    है और वह दिन दूर नहीं जब वहीं नहीं, सारे गुरु अपना-अपना अस्सी सँभाले हाशिए पर     चले जाएँगे- वहाँ जहाँ नगर के कूड़े-कचरे का ढेर है। काकाअ, पृ. 152
40.    वही, पृ. 103-04
41.    वही, पृ. 143
42.    वही पृ. 145
43.    वही
44.    वही, पृ. 144-45
45.    देखें पार्थ चटर्जी, नेशन एंड इट्स फ्रैग्मेंट्स, ओयूपी, नई दिल्ली, 1995, अध्याय, नेशन एंड इट्स वीमेन
46.    देखें विजेन्द्र सिंह चौहान, साझे ब्लॉगों का दौर, जनसत्ता, 4 जनवरी 2009
47.    काकाअ, पृ. 156
48.    योगेन्द्र सिंह, कल्चर चेंज इन इंडिया, आइडेंटिटी एंड ग्लोबलाइजेशन, रावत      पब्लिकेशंस, जयपुर, पृ. 230
49.    ए.एस. हॉर्नबी एवं अन्य, ऑक्सफोर्ड एडवांस्ड लर्नस डिक्शनरी, ओयूपी, 1996, पृ.      674
50.    योगेन्द्र सिंह, वही, पृ. 231
51.    वही, पृ. 228
52.    वही, पृ. 235
53.    काकाअ, पृ. 100
54.    वही, पृ. 156

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    thanks.

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