आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

नाच (उपन्यास अंश): हरे प्रकाश उपाध्याय

आइए मिलिए इस गाँव से

स्कूल में संगीता मैडम के मिलते ही पचमा मास्साब ने शिकायत की, ‘‘लगता है कौनो गल्ती हो गई है हमसे, कि ना? तबे न आपलोग नहीं आए सादी मे?’’

इतना सुनते ही कमरे से बाहर निकलकर हस्तक्षेप किया हेड सर ने, ‘‘क्या बात कर रहे हैं साब? यहां सबकी नौकरी जाने का ठेकान थी और आप ऐसे बतियाते हैं. ई न पूछ रहे हैं कइसे मामला सलटाए? ऊपर-नीचे एक कर दिए. बड़ा तगड़ा कंपलेन डाला था रूप चउधरिया ने. माल बहुत लगा. आप शादी में लगे थे तो छेडऩा ठीक नहीं लगा. लेटर तो मिल ही गया होगा. एक फार्मल जवाब बना दीजिए. सब काम हो गया है. दो -दो हजार सबका खर्चा बैठा है. लेकिन अब थोड़ा ध्यान देना पड़ेगा…’’

पचमा मास्साब खुश तो हुए कि बिना भाग-दौड़ किए काम बन गया. नहीं तो पता नहीं कितनों के आगे-पीछे घूमना पड़ता. होता भी नहीं उनसे यह काम. जिसका मुंह नहीं देखना चाहिए उसको भी सलाम करना पड़ता. पर खर्च का नाम सुन उनको भीतर ही भीतर बहुत गुस्सा आया, ‘‘सार का मिला रूपवा के. बहिनचो के सिखाना पड़ेगा. बइठे-बइठे दो-दो हजार पर पानी फेरवा दिया न. सार के सब बढ़ल मन शांत होगा राम जी के दया से….’’ मामला तो सलट गया पर इस घटना के बाद रूप चौधरी न सिर्फ मास्टरों की आंखों में चढ़ गया बल्कि गाँव के सभी सवर्णों की आंखों की भी किरकिरी बन गया था. गाँव का जातीय आधार पर धुर्वीकरण होने लगा.

ज्वाला सिंह मुखिया स्कूल को और शिक्षकों को अपने हिसाब से यूज करते रहते थे. जैसे कभी बरसात में चारा रखने की जगह नहीं होती तो शिक्षकों की कृपा से स्कूल का कमरा उपलब्ध हो जाता. तरह-तरह के काम आते थे मास्साब लोग. इसलिए रूप चौधरी का कारनामा उन्हें भी बहुत बुरा लगा. गाँव के दूसरे सवर्णों से भी शिक्षकों ने कोई न कोई नातेदारी जोडक़र मधुर संबंध बना रखे थे और उनके घरों में इनका आना जाना था तो इसलिए रूप चौधरी के इस काम के बारे में गाँव के जिस बड़े ने सुना उसे बुरा लगा. शिक्षकों ने गाँव में घूम-घूम कर एक हवा भी बनाई. वैसे भी दलितों के हकों की बात करने को लेकर रूप चौधरी के प्रति गाँव के सवर्णों के मन में एक खुन्नस थी. इन लोगों का मानना था कि उसने बनिहार-चरवाहों का मन बढ़ा रखा था.

गाँव में दो टोले थे. गाँव के दक्षिणी हिस्से में रेज टोल और पूरब में बड़ टोल. रेज टोल में छोटी जातिवाले लोग थे. खासकर अनुसूचित जातिवाले और बड टोल में सवर्ण यानी भूमिहार, राजपूत, कायस्थ और दो घर ब्राह्मण. पिछड़ी जातिवाले और कुछ मुसलमान गाँव से थोड़ा हटकर उतर की तरफ एक टोले में रहते थे जो कि इसी गाँव का हिस्सा माना जाता था. गाँव के पश्चिमी हिस्से में एक मठ था और एक मस्जिद थी.

बड़ टोल में ही एक घर है लोटी राम का. लोटी राम दरअसल पहले लोटन चौबे हुआ करते थे. बताते हैं कि गाँव में इनके बाप का बहुत रसूख था. कोठी जैसा घर था और पूरा रेज टोल इनके घर में पकी पूड़ी-जलेबी से अघाया रहता था. बाजार का पहला फल और पहली सब्जी इन्ही के यहां आती थी. लोटन चौबे के बाप भुलेटन चौबे एक नंबर के ऐय्यास. बाभन होके भी दारू-मुर्गा रोज. खाते ही नहीं खिलाते भी थे. कमाते नहीं थे. उनके बाप ने उनके लिए बहुत कमाया था और वे उसका भरपूर उपभोग कर रहे थे. बहुत सुंदर बीवी थी भुलेटन बाबा की पर उनका मन नहीं भरता था उससे. सो रेज टोल में जो लडक़ी, बहू थोड़ी भडक़दार दिखती उसी पर रख देते थे हाथ और निभाये जाते थे साथ. जिस तरह अनाज के गोदाम में चूहे लग जाते हैं तो बड़ा से बड़ा गोदाम भी निपटा देते हैं, निपट रहा था घर भुलेटन बाबा का. उन्होंने मेहर की परवाह की न संतान की. बीवी ने भी खूब मनाई रंगरेलियां. पीकर रेज टोल में पड़े होते किसी के घर भूलेटन बाबा और उनके घर में उनकी बीबी अपने चरवाह से दबवा रही होती अपने पैर. बेटी बिना ब्याह के ही पेट से रह गई. बवाल मचा तो जहर खा ली. फिर भी बहुत खूब पीने-जीने को बचा था लोटन बाबा को और उन्होंने भी कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी. गाँव के ही सरला चमार के मरने के बाद उसकी नौजवान गोरी बीवी को घर बैठा लिया जिस पर गाँव के कई बबुआनों की निगाह थी. अब आगे क्या होना था. लोग बताते हैं लोटन चौबे हो गए एक दिन लोटी राम. रेज टोले से हो गया उनका भोज-भात और बड़ टोल के लोगों ने उन्हें कुजात काढ़ दिया.

गाँव में कायस्थो की गिनती नहीं थी. अव्वल तो वे गाँव के किसी भी मामले में पड़ते ही नहीं थे. पता नहीं क्यों? वे कलम-दवात की पूजा करते थे. गाँव में अलग ही थी उनकी पहचान. खेत साल के शुरू में ही बंदोबस्त कर कलम घिसाई के किसी न किसी काम में लगे रहते थे. गाँव के लोग भीतर ही भीतर उनसे डरते थे, लाला जात कलम का बड़ा ताकतवर होता है बाबू. सवा लाख की कोठी में पसीना चुआ देता है. पर बाहर से डराते भी थे, सात ठो लाला मिलकर गया एक मूली उखाडऩे फिर भी नहीं उखाड़ पाया.

सतरोहन लाल के बारे में कहा जाता है कि एक बार वे अपनी मलकिनी को लेकर नदी नहाने गए. उनकी मलकिनी पर नहाते समय एक केंकड़े का दिल आ गया. उसने पकड़ लिया उन्हें. लगी चिल्लाने सतरोहन लाल बो पर उनका चिल्लाना सुन सतरोहन लाल उन्हें बचाने की जगह सिर पर पैर रखकर भाग खड़े हुए. सतरोहन लाल अब हैं नहीं. गाँव से खेत-बधार बेचकर परिवार समेत जा बसे यूरोप. वे होते तो बताते कि यह बात झूठ है कि सच?

……………………….

रूप चौधरी एक पिछड़ी जाति से आता था और न सिर्फ पिछड़ों और मुसलमानों के बीच बल्कि गाँव के बहुसंख्यक दलितों यानी छोटी जातिवालों के बीच भी लोकप्रिय हो रहा था. उसने नेतागीरी के लिए प्रदेश की एक सत्ताधारी पार्टी को ज्वाइन कर लिया था जिसका मुखिया खुद एक पिछड़ी जाति से आता था और वह प्रदेश का मुख्यमंत्री भी था. उसका नाम था कालू यादव. उसने कभी जयप्रकाश नारायण के आंदोलन में उनका साथ दिया था और संपूर्ण क्रांति में यकीन करता था पर बाद में जैसे-तैसे सत्ता हासिल कर लेने के बाद उसका विश्वास दूसरे सभी नेताओं की तरह ही, सत्ता के अलावा और किसी भी चीज में नहीं रह गया था और किसी भी तरह सत्ता हासिल कर लेना ही उसका बड़ा मूल्य बन गया था. यों तो वह राजनीतिक कारणों से पिछड़ों और दलितों के कल्याण की बातें करता था पर प्रदेश में यह चर्चा थी कि सत्ता का अधिकांश लाभ वह अपने जातिवालों को ही लेने दे रहा था. सच्चाई अब चाहे जो हो पर पिछड़ों और दलितों का यकीन उसकी पार्टी में बना हुआ था. इसका कारण शायद यह भी हो कि वह पूरे प्रदेश में घूम-घूमकर दलितों-पिछड़ों और मुसलमानों के हक की बात बड़े ही उत्तेजक और मासूम ढंग से करता था और भूराबाल यानी भूमिहारों, राजपूतों, ब्राह्मणों और लालाओं यानी कायस्थों की सफाई की बात करता था.

रूप चौधरी थोड़ा पढ़ा-लिखा और तेज-तर्रार नेता था. वह गाँव के दलितों और पिछड़ों के बीच घूम-घूमकर उनके बीच अधिकार और स्वाभिमान की अलख जगाता था और उनका ब्लॉक आदि से छोटा-मोटा काम करा दिया करता था. यही कारण था कि गाँव के पिछड़ों-दलितों में वह लोकप्रिय हो रहा था और ठीक यही कारण था कि गाँव के सवर्णों की आंख का कांटा भी बनता जा रहा था.

गाँव में नौकरी पेशा कम थे या ज्यादातर छोटी-छोटी नौकरी वाले थे. कोई ज्यादा पढ़-लिखकर अच्छी नौकरी पा लेता वह गाँव को बाय-बाय बोलकर निकल लेता था. छोटी जातिवाले या पिछड़े लोगों में से भी कुछ परिवारों की स्थिति नौकरी-चाकरी की वजह से थोड़ी बेहतर हो गई थी. ऐसे परिवार दोनो ही खेमों से एक तरह से बनाकर चलते थे.

गाँव में ज्यादातर लोगों की जीविका का मुख्य आधार खेती थी. सवर्णों के पास खेत थे और छोटी जातियों के पास अपनी मेहनत मजूरी का ही आसरा था तो दोनो खेमों के लोग अपनी-अपनी जरूरतों के लिए एक दूसरे पर आश्रित थे. एक के बगैर दूसरे का काम चलने वाला नहीं था. तो एक-दूसरे खेमे से आपस में लगाव और तनाव दोनो लगे ही रहते थे. मजदूरी के सवाल पर छोटे-मोटे झगड़े होते रहते थे. वैसे पूरा गाँव आपसी संकट में परस्पर परोपकार और समरसता का परिचय देता था. पर जब से स्कूल वाली घटना घटी थी. माहौल भीतर-भीतर थोड़ा उत्तेजक हो गया था. वैसे गाँव के सब लोगों को आटा पिसाने के लिए रूप चौधरी का ही मुंह देखना था. गाँव में आटा पिसनेवाली मशीन सिर्फ रूप चौधरी ने ही लगा रखी थी. जीविका के लिए उसने आटा पिसने वाली मशीन के अलावा एक पान-सिगरेट की गुमटी भी लगाई थी.

लोग बताते हैं कि वह धीरे-धीरे अपने आटा मिल को अपनी पार्टी के स्थानीय कार्यालय के तौर पर विकसित करने लगा था.

ज्वाला सिंह का बेटा मनोज सिंह जो ज्वार में एक नंबर के लखैरा के रूप में प्रसिद्धि हो रहा था, रूप चौधरी के दुकान पर पान खाने गया. उसने अपने स्वाभाविक ठसक से रूप चौधरी से कहा, ‘‘रंगबाज रूपलाल जी जल्दी लगाओ तो दो ठो पान. एक खिला दो और एक बांध दो. और हां थोड़ा रंगबाजी कम करो.’’

रूप चौधरी समझ गया कि मनोज सिंह स्कूल वाले मैटर की वजह से ही उससे नाराज है. मगर उसे मनोज सिंह का इस तरह बोलना अच्छा नहीं लगा. वह पूछ बैठा, ‘‘मनोज भाई, ऐसे काहे बतिया रहे हैं?’’

‘‘कैसे बतियाएं? ब्लॉक से डिस्टीक लेभल पर जाने लगे तो तुम्हीं ढेर चाल्हाक हो गए. सबको मस्टरवन मत समझना….’’

‘‘हम कहां कुछ कह रहे हैं? सब तो आप ही कह रहे हैं.’’

‘‘कह नहीं रहे हैं. बता रहे हैं. तुम्हारे बाप का लिहाज करते हैं, नहीं तो तुमसे डर नहीं लगा है. सब हिसाबे हो जाता…’’

रूप चौधरी को गुस्सा तो बहुत आया पर वह सोचा कि ऐसे बदमाशों से बेकार का मुंह लगने से कोई फायदा नहीं है. वह गाँव में बदली हुई हवा से भी थोड़ा सचेत था.

रूप चौधरी के बाप का नाम था बुधन तेली. उसने अपनी उमर गाँव-जवार के बड़ी जातिवालों के संगत में ही गुजारी थी. चौहत्तर के आंदोलन में जब गाँव-जवार के कई सवर्ण लोग जेल यात्रा कर रहे थे तो वह भी उनकी सेवा-सुश्रुषा के लिए हमराही बन गया था. बातचीत और व्यवहारिक जीवन में वह बड़ा कुशल समझा जाता था. लोग बताते हैं कि पचमा मास्साब के पिता शिवबचन सिंह का तो वह लंगोटिया यार रहा है. अभी भी अक्सर वह अपनी लाठी लेकर उनके साथ ही अधिक निकला रहता था. कभी इस गाँव में सत्संग हो रहा है, कभी उस गाँव में रामायण गोष्ठी हो रही है. दोनो की जोड़ी थी- राम लक्ष्मण की जोड़ी.

गाँव-जवार के लोग दोनों की जवानी के दिनों की कई दिलचस्प गप्पें सुनाते हैं. एक बार शिवबचन सिंह के पीछे पड़ गया बुधन तेली, ‘‘मलिकार. चला जाय सलिमा देखने.’’

शिवबचन सिंह ठहरे धार्मिक आदमी. उन्हें लगा बुधन तेलिया मजाक कर रहा है. पहले तो उन्होंने उसे फटकारा पर जब वह भी अपनी जिद पर अडिग हो गया तो तैयार हो गए, ‘चल ससुर सलिमे कौन जिनिस चीज है. चल ऊ भी देख के गदह जनम छुड़ा लिया जाय.’

दोनो पैदल ही बोलते-बतियाते निकल लिए. पास में ही कस्बेनुमा शहर था पीरो जहां नए-नए बने सिनेमा हाल में चल रहा था भोजपुरी सिनेमा ‘भऊजी के नैहर.’ जब वे शहर में घुसने लगे तो सबसे पहले पड़ता था रेलवे लाइन. इस लाइन को लांघकर ही शहर में दाखिल होते थे लोग. इस लाइन पर पहुंचे शिवबचन सिंह और बुधन तेली तो रेलवे फाटक बंद था. शिवबचन सिंह ने पहली बार देखा था ये करिश्मा. अचरज में पडक़र पूछा बूधन तेली से, ‘‘का रे बुधना. ये तो रस्तवे बंद है. कौनो बात है का?’’

‘‘ना मलिकार. ट्रेन पास करने वाली है, इसीलिए फाटक गिरा हुआ है. जैसे ही ट्रेन पास करेगी, फाटक उठ जाएगा, आ रास्ता साफ हो जाएगा. जानवर चाहे आदमी के रखवारी के लिए है ई.’’

रेलवे के उस फाटक के प्रति आस्था उमड़ आई शिवबचन सिंह की. दोनो हाथ जोड़ लिए और पोल पर माथा सटाते हुए बोले, ‘‘धन हो फाटक महाराज, धन. आप कैसे बूझ जाते हैं कि गाड़ी आनेवाली है? आप न होते तो कितना लोग कट जाता रेल से हो विसकरमा भगवान.’’

बुधन तेली समझ नहीं पाया शिवबचन सिंह की उस आस्था को. मन ही मन भुनभुनाया, ‘मलिकारो नू कभी-कभी बड़ नवटंकी करते हैं.’

जब टिकट लेकर दोनो सिनेमा हाल में घुसे तो अंधेरा देखकर बिदक गए शिवबचन सिंह, ‘‘कारे बुधना कहंवा फंसा दिया? ई अन्हरिया में कहंवा ले आए हमको? सरवा फंसा दिया तुमने. अइसा सिनेमा के मां कि…’’

बहुत समझाने के बाद बैठे पर सिनेमा के शुरू में ही पर्दे पर नाग आकर लगा अपना जलवा दिखाने तो फिर बमक गए. कहा, ‘‘देख साला सिनेमा देख. बहिनचो जब नाग जान ले लेगा तो सब चला जाएगा रे….’’

कितना भी पकड़ा-समझाया बुधन तेली ने पर बिना सिनेमा देखे उसको रास्ते भर गरियाते लौट आए शिवबचन सिंह. बाद में पता नहीं उनका ज्ञान कैसे बढ़ा या क्या हुआ? उनके सामने जब इस घटना की चर्चा कोई चलाता तो उसे दो गाली देकर वे लजा से जाते.

रूप चौधरी को लेकर गाँव के बबुआन लोग कोई ठेन पसारते तो जाकर उनका पांव पकड़ लेते बुधन तेली. और अपने बेटे को धारा प्रवाह गालियां देते हुए कहते, ‘‘मलिकार अब कितना दिन रह गया मेरी जिनगी का. सब तो गुजर गया आप ही लोग की संगत में. कुछ दिन और मलिकार. आप ही लोग का दिया खाते हैं और आप ही लोग के आशीर्वाद से मेरा परिवार है.’’

मलिकार का लोगों के अहम पर जो चोट पहुंचाई होती थी रूप चौधरी ने, बुधन तेली की बातें उस पर दवा सी असर कर जातीं. और जख्म बढ़ नहीं पाता. निबहता चला जा रहा था गाँव.

रूप चौधरी कभी-कभी व्यंग्य में कहता था कि इस लफंडूसों के गाँव के पास गर्व करने लायक तीन ही चीजे हैं. अधीन-सिपाही, बजाड़ी पागल और लंगटू राम.

गाव के लोग कहीं भी और कभी भी अपने गर्व को प्रकट करने के लिए तीन कहानियां सुनाते थे या तीन में से कोई एक या दो. गर्व की कुल कहानी तीन ही थी. जिसमें गाँव वाले गजब का प्राण फूंककर ऐसे सुनाते थे कि सुननेवाला उसी लोक में नहीं रह जाता था जिसमें वह पहले होता था.

अधीन-सिपाही गाँव के एक जमाने के माने हुए चोर और छंटे हुए बदमाश थे. दोनो जुड़वा भाई थे. जब चाहते जहां चाहते सेंध लगा लेते. उनके नाम से इलाका थर्राता था. इलाके भर में जो मवेशियों की चोरी होती तो मुकदमे उनके पास ही पहुंचते और पीडि़त से कुछ ले-लिवा के चुटकी बजाते वे माल बरामद करवा देते. और क्या मजाल कि पुलिस तक उनकी कोई शिकायत पहुंचे. और पुलिस की क्या मजाल जो उन्हें पकड़ ले. एक बार पुलिस ने उन्हें पकड़ लिया तो उन्होंने अपनी-अपनी जेब से एक मुट्ठी धूल जिसमें मिर्ची के बुरादे मिले थे निकाली और पुलिस की आंखों में झोंकते हुए एक दम सामने से नौ-दो ग्यारह हो गए. इलाके में उनका पूरा सम्मान था, उनके नाम का डंका बजता था, उनके पेशाब से चिराग जलते थे. एक बार की बात है कि वे दोनो बगल एक गाँव नगरी में रात के दो बजे डाके डाल रहे थे कि थाना में नए-नए आए दारोगा को किसी ने इतिला कर दी और वह एक चुस्त टीम के साथ आ पहुंचा. कहते हैं अधीन-सिपाही एक छप्पर पर खड़े होकर पुलिस के साथ घंटे भर तक गोली बारी करते रहे और गाँव वालों को गरज-गरज कर गालियां देते रहे. गालियों के अलावा वे गाँव वालों को यह धमकियां भी दिए जाते थे कि आज अगर वे बच गए तो गाँव की बीज तक को भुनकर रख देंगे. तभी एक साथ दोनों की एक-एक टांग में पुलिस की एक-एक गोली लगी और वे दोनो एक-एक छप्पर से आंगन में लुढक़ आए. जब तक पुलिस उन लोगों तक पहुंचती, गाँव का बच्चा-बच्चा आंगन में जुटकर लाठियों से पीट-पीटकर उन दोनों को मार डाला. सेदहां वाले इस कहानी को पूरी कर नगरी गाँव के नाम पर एक बार थूक देते हैं.

बजाड़ी पागल अभी जिंदा हैं. पर उनके बारे में जो कहानी है उसकी सफाई देने की स्थिति में वे नहीं हैं क्योंकि वे पागल हैं. उनके बारे में कहानी यह है कि पागल होने के पहले गाँव की जिस गली से वे गुजर जाते थे, उसमें विदेशी सेंट की मह-मह गंध इस कदर फैल जाती थी कि गाँव की बहुएं (बेटियां नहीं) कामोत्तेजना से चरमराने लगती थीं. हालांकि अब वे जिस गली से गुजर जाते हैं उसमें नाली की कीचड़ जैसी गंध फैल जाती है और गाँव की बहूओं पर उसका कैसा असर पड़ता है, इस बारे में कोई कहानी अभी नहीं बनी है. तो बजाड़ी पागल के बारे में जो कहानी है, उसमें वे भारतीय सेना के राजपूत रेजिमेंट के बांके अफसर हैं और उनकी जैसी ख्याति है उसके अनुकूल ही उनके जैसी ही छह फीट की करीना कपूर जैसी उनकी बीवी है. जैसा कि स्वाभाविक है बजाड़ी को अपने देश से ज्यादा अपनी बीवी से प्यार है. चीन और भारत से भिड़ंत हो गई थी. बार्डर पर सन-सन गोलियां चल रही थी और बजाड़ी अपनी जान से ज्यादा बीवी के फिक्र में बेचैन हो रहे थे. मौका देखा और अच्छी शराब की चार-पांच बोतलों के साथ गाँव भाग आए. बार्डर से जो भागे तो गाँव के सिवान पर ही सांस लिया. और जब सांस लिया तभी एक सांस में एक बोतल चढ़ा गए. जब बोतल चढ़ा कर घर पहुंचे तो उनकी करीना कपूर जैसी बीवी पर उनके ही लक्ष्मण जैसे भाई शिव रतन चढ़े हुए थे. बजाड़ी ने पहले तो भाई की जमकर कूट्टम-कुटाई की फिर बीवी की. उसके बाद उस्तरा उठाकर बीवी के सारे बाल काट डाले जिस पर वह कभी अपनी जान छिडक़ते थे. उसके बाद बीवी को घर से भगा दिया और खुद पागल हो गए. अब वे घर से खा-पीकर दिन भर गलियों में अश्लील बतरस करते दिन बीता देते हैं. गाँव के मनोरंजन हीन संसार में मनोरंजन के वे अद्भुत साधन की तरह उपयोगी हैं. बात-बात पर उनका तकिया कलाम है-इतनी किसी की औकात नहीं. इस पंक्ति को बोलते हुए हर शब्द पर अच्छी-खासी ताकत और समय कुर्बान करते हैं. गाँव वाले न जाने किस लिहाज में उनके अतीत को अपने हिसाब से गढ़ कर उनका सम्मान करते हैं. और इस पर गर्व करते हैं.

लंगटू राम भी गाँव की जिंदा कहानी हैं. वे जिंदा हैं और ज्वाला सिंह के बनिहार हैं. पर वे परमानेंट बनिहारी नहीं करते. लगन के दिन में जलालु लौंडा नाच पार्टी के नचनिया का काम करते हैं. मस्तमौला दिखनेवाले लंगटू राम जब लौंडे का भेस धरते हैं तो उनकी काया में एक दूसरी ही माया उतर आती है, जो ठुमके मारते हैं कि ज्वाला सिंह साल भर उसके जादू से निकल नहीं पाते. लंगटू राम भले नाच पार्टी के लौंडा हैं पर गाँव वालों से पूछेंगे तो वे कहेंगे, नहीं लंगटू राम अव्वल तो ज्वाला सिंह के लौंडा हैं. ज्वाला सिंह बहुत काम नहीं लेते लंगटू से परसनल सेवा लेते हैं. समझ रहे हैं न आप. बहुत मानते हैं ज्वाला सिंह लंगटू राम को. गाँव में जब कोई आदमी किसी आदमी को प्रेम करने लगता है तो उसे वह अधिकार से अपना लंगटू राम कहता है.

नाच

आज पचमा मास्साब के बेटे की बारात जा रही थी और उन्होंने जिले की सबसे नामी पार्टी का लौंडा नाच किया था. बारात के पहले जितनी दौड़-भाग करनी थी कर ली थी. आज उन्होंने अपने बहनोई को सारी जिम्मेदारी सौंप अपनी बैठक शामियाने में जमा ली. नाच शुरू होने के पहले अंग्रेजी दारू का पौआ भी चढ़ा लिया. अब सामने चार लौंडे थे. नाच शुरू करने के पहले वे एक साथ देवी वंदना प्रस्तुत कर रहे थे, ‘‘रखो भवानी लाज, आज पड़ा है भारी काज. रखो दुर्गा देवी लाज. मां शारदे काली सब बाधा दूर करो. आज का गाना तुम मसहूर करो. मां भवानी….’’

पचमा मास्साब भावुक हो गए, ‘‘क्या रूप दिया है दईब ने. और जीभ पर सरसती विराज रही है. पहिला जनम में कौनो पाप किए होंगे कि लवंडा हुए….’’

लडक़ा का मामा बोला, ‘‘चुप ना रहिए पाहुन. आप भी न. दारू भीतर जाते मेहरारू हो जाते हैं. कमर देखिए कमर…माल टूटेगा?’’

‘‘चुप न रहो बहिनचोदा. दीदीया का कमर न देखतो हो. वो सब तुम्हारे दीदीया न लगेंगे.’’

उधर सामने की चौकी पर चोली में दो टमाटर लिए और घाघरा पहने लौंडा, ‘‘गौने की रात बीती जाइहो…सइयां हिले ना डोले.’’ और शामियाने के लोग बेकाबू होने लगे, ‘‘जीव..जीव रे झरेला. चल चल धन लिखी तोरा मतारी के..चल..’’

‘‘जीव..जीव..’’ ‘‘चल लिख दी टोपरा चल चल….’’

दूसरा लौंडा भी आ गया गोगल्स लगाए. जिंस टॉप में. गाना बदल गया…‘‘चल चल तोरा माई से कहतानी…चल चल… आग लागो राजा तोहरा जवानी में…हमरा के धइल खरीहानी में…’’ सीटियां बजा उठा हर नचदेखवा…

दो ताल नाच हुआ फिर तीसरा लौंडा आया. वह उससे भी सेक्सी. गाना का बोल निकाला…‘‘गोली चली जी गोली चली…आ राजा गोली चली…’’ और सचमुच गोली चली और जा लगी इस तिसरे लौंडे को. शोर करना छोड़ लोग भागने लगे. एक के ऊपर एक. एक बूढ़ा गिर गया और उसके ऊपर से छह मुस्टंड गुजर गए. वह अधमरा हो गया….

थोड़ी दूर पर खड़ी थी पुलिस की जीप. नाच में बवाल न हो इसलिए उन्हें न्यौता देकर बुलाया गया था. पर वे तो गांजा पी रहे थे जीप के बगल में गमछा बिछाकर. हल्ला सुनकर वे जीप में बैठ गए और अपना-अपना बंदूक सम्हाल लिया जो यकीनन जरूरत पड़ती तो न छूटती न उन्हें छोडऩा आता. इसलिए वे हनुमान चालिसा पढऩे लगे…भूत प्रेत निकट नहीं आवे हनुमान जब नाव सुनावे…. दारोगा ने धीरे से सिपाहियों से पूछा, ‘‘आज जान तो नहीं जाएगी भाइयो.’’ एक सिपाही ने भुनभुनाकर कहा, ‘‘बहिनचो तुम पूड़ी-जलेबी के लिए एक दिन हमारी जनानियों की मांग धुलवाओगे.’’

लोग भाग गए तो पचमा मास्साब थर-थर कांपते पहुंचे पुलिस के जीप के पास और हाथ जोडक़र हकलाने लगे, ‘‘आ..आ..आप लोग कुछ करिए…’’

दारोगा जान गया कि गए लोग. इसलिए अकडक़र बोला, ‘‘ऐ मास्टर हमसे पूछ के किए थे नाच? अब जाओगे भीतर. वहीं करना तुम समधी मिलन. अगर लवंडा मर गया होगा तो हम क्या हमारा बाप भी नहीं बचाएगा तुमको….’’ वह गुस्से से तमतमा गया और पचमा मास्साब के गाल पर अपना तमाचा दे बैठा.

और मौका होता तो अपना गाल पोंछते हुए पचमा मास्साब कहते, ‘अपना औकात मत भूलिए दरोगा जी. कौनो मास्टरे से पढक़र बने होंगे दरोगा आप.’ पर अभी तो उनकी सचमुच घिग्घी बंधी थी. बोलते कैसे?

दारोगा पचमा मास्साब का कालर पकडक़र शामियाने की ओर चला. जैसे किसी रंगबाज ने किसी पाकेटमार को पकड़ लिया हो. पीछे-पीछे सिपाही भी पूरी अकड़ में जैसे कोई वीरता का अवार्ड लेने जा रहे हों. शामियाने में पचमा मास्साब के परिवार और बेहद करीबी रिश्ते के ही कुछ लोग बचे थे और लौंडे को घेरे हुए खड़े थे. गोली नहीं लगी थी उसे. गोली छूते हुए निकल गई थी. वह बेहोश हो गया था. एक आदमी हवा कर रहा था गमछे से और एक आदमी पानी के छींटे मार रहा था उसके चेहरे पर. बाकी के लोग बाकी के लौंडों से सटने के लिए धक्का-मुक्की कर रहे थे. जिस चौकी पर नाच हो रहा था. उस पर नाच का जोकर चढक़र माइक के सामने भाषण देने लगा था. वह गुस्से में लगता था. वह कह रहा था, ‘‘सांस्किरतिक महफील का जिनको सहूर नहीं उन समाजविरोधी ताकतों को नहीं आना-जाना चाहिए कहीं. अभी नाच चलता तो सबको मजा आता. अंडा देती मुरगी को हलाल करनेवालों को सोचना चाहिए कि मुरगी मर गई तो फिर अंडा खाने का सवाद कइसे मिलेगा….’’ वह अपनी रौ में था कि पीछे से एक मरियल सिपाही ने दिया पूरी ताकत लगाकर उसके चूतड़ पर एक लात. वह संतुलन खोकर जमीन से जा लगा. लौंडे को जिंदा पाकर दारोगा जी में देखने वाली तेजी से उत्साह का संचार हुआ. वे सबको हडक़ाने लगे. नाच पार्टी के मालिक ने पैर पकड़ लिया. लोग बीच-बचाव करने लगे. बारात में कुछ नेता टाइप प्रभावी आदमी भी थे. दारोगा उन्हें पहचानता था. वे एक किनारे ले गए दारोगा को. वह पांच हजार की जिद कर रहा था. कुछ देर में ना-नुकुर के बाद दो हजार पर मान गया. पचमा मास्साब से दो हजार लेने के बाद वह कहने लगा, ‘‘मास्साब आप इज्जतदार आदमी हैं. जाइए, आगे से ध्यान रखिएगा. लंठ-लबार को नहीं न लाना चाहिए बारात में. अब गोली आप ही के आदमी ने न चलाई होगी. कोई मर जाता तो आप नहीं जानते हैं बहिनचो कितना टेंसन हो जाता. आज कल के जो नएका नेता सब है, जानते नहीं हैं..’’ दारोगा एक लौंडे को लेकर अपनी टीम के साथ जीप की ओर चला गया. नाच पार्टी दुख, करुणा और असहायता के अनेक भावों से घिरी अपना साजो-सामान समेटने लगी.

गाँव में मास्टरनी

संगीता मैडम के अनुमंडलाधिकारी ऑफिस के हेड क्लर्क की बीवी थीं. उनकी यह पहली पोस्टिंग थी. जिस दिन वे स्कूल में ज्वाइन करने आईं, गाँव-ज्वार में हल्ला मच गया. बस से जब वे सेदहां गाँव में उतरी, तभी गाँव में ‘लिलो-लिलो’ शुरू हो गया. दरअसल बस स्टैंड पर कई फुरसतिया टाइप के गंजेड़ी दिन-रात ‘बम भोले-बम भोले’ करते रहते थे और गंजा पीते रहते थे. वे अपना पॉकिट खर्च कुछ तो बस वालों से ही रंगदारी के नाम पर उमेठते थे, कुछ गाँव में लगने वाले बाजार में सामान बेचने आए छोटे-छोटे दुकानदारों से हफ्ता के नाम पर वसूलते थे. कुछ लोगों का कहना था कि वे रात में सडक़ों पर छीना-छोरी भी करते थे. जब इन लोगों ने बस से संगीता मैडम को उतरते देखा तो आपे से बाहर हो गए. संगीता मैडम ने जिंस-टॉप पहन रखा था और आंखों पर गोगल्स चढ़ा रखा था. गंजेडिय़ों ने देखते ही ‘जीव-जीव-जीव…’ कहकर आहें भरना शुरू कर दिया. संगीता मैडम ने माजरा समझा नहीं. स्कूल आईं तो लडक़े आंखे फाड़-फाड़ के देखे जा रहे हैं और लड़कियां शरमा रही हैं. पचमा सर ने लंबू जी की ओर देखकर एक आंख दबा ली. शाम होते-होते हर घर के लफंगे स्कूल पर जुटने लगे और अपने जलवे बिखेरने लगे तो हेड सर ने संगीता मैडम को समझाया, ‘‘देखिए. ई पिछड़ा इलाका है. इहां तनी संभर के चलना पड़ेगा. सार लंठ के कमी नहीं है. एक से एक भकठाइल राकस यहां रहता है. बुरा मत मानिएगा, साड़ी-वाड़ी ही इहां ठीक रहेगा. नहीं तो कुछ मिस हैपिनिंग हो गया, तो हम साहब को क्या मुंह दिखाएंगे?’’

संगीता मैडम शरमा गईं, ‘‘जी. ऐसा तो कुछ नहीं पहना है मैंने. वैसे मैं साड़ी भी ट्राई करूंगी. वैसे भी मुझे यहां कितना दिन रहना है गंवारों के बीच. मैं तो जल्द ही ट्रांसफर ले लूंगी.’’

संगीता मैडम बताने लगीं कि उन्हें आज जगदीशपुर शहर से यहां आते हुए कितनी मुसीबतें झेलनी पड़ीं, ‘‘ओ क्या है कि रोड की कंडिशन इतनी बैड है कि मेरी कमर में पेन हो रही है. कहीं हाई, कहीं इतनी लो. एग्रीकल्चर फील्ड से बस रन कर रही है. हेयर में इतनी डस्ट घुस गई है कि लगता है कल लीव लेनी पड़ेगी.’’

पचमा मास्साब को अंग्रेजी नहीं आती थी. उनकी समझ में पता नहीं क्या आया, क्या नहीं. पर वे घोंचु की तरह चुप कैसे रहते. वे संगीता मैडम को सलाह देने लगे, ‘‘जी कमर में पेन लाने की क्या जरूरत है. एक लेडिज पर्स रखिए. राम जी की दया से, फील्ड यहां दिन भर प्लेने रहता है. आप कुछ स्वेटर-वेवेटर बुनना जानती हों तो कुर्सी पर बैठ कर बुनिए. ऐसा स्कूल आपको नहीं मिलेगा. राम जी की दया से, यहां बड़ा भाग्यवाला के पोस्टींग होता है. लडक़ो की चिंता मत करिए. यहां वे अपने भाग्य से पढ़ते-लिखते हैं. न हो तो यही एक डेरा ले लीजिए. राम जी की दया से, कहिए तो खोजूं.’’

संगीता मैडम ने कहा, ‘‘फिल करूंगी तो आपको बता दूंगी. हसबैंड से भी पूछना पड़ेगा.’’

‘‘देख लीजिए. राम जी की दया से, कोई दिक्कत नहीं आएगी. हमारा इलाका है. हम मदद नहीं करेंगे तो आप भी कहिएगा, इधर कैसा आदमी है.’’ पचमा मास्साब ने उन्हें आश्वस्त करना चाहा.

हेड सर ने कहा, ‘‘पचमा जी इधर के धाकड़ आदमी हैं. थोड़ा क्या है कि एजुकेशन में इंटरेस्ट उतना नहीं हैं. बाकी किसी काम में इनका जवाब नहीं.’’

अगले दिन संगीता मैडम सचमुच नहीं आईं.

हेड सर ने पचमा मास्साब को टहोका मारा, ‘‘का जी? मैडम को कहां डेरा दिलवा रहे हैं? देखिएगा मरखंडी गाय लगती है.’’

पचमा मास्साब ने हँसते हुए कहा, ‘‘पर मास्साब, देखे नहीं उसका थन. राम जी की दया से, गाय तो दुधारू है और दुधारू गाय का लातो भला.’’

हेड सर ने पचमा मास्साब को झाड़ पर चढ़ाया, ‘‘वैसे भी आपसे बच के कहां जाएगी? आप तो एक से एक गाय-भैंस दूह चुके हैं. मगर देखिएगा तनी सम्महर के साहब की बीवी है.’’

पचमा मास्साब ने डींग हांकी, ‘‘आरे रहने दीजिए. राम जी की दया से, हमको बाघिन दूहना आता है.’’

अगले दिन जब संगीता मैडम स्कूल आईं तो उन्होंने साड़ी पहन रखा था और उनके हाथ में एक झोला था जिसमें ऊन और सलाइयां थी. प्रार्थना के बाद संगीता मैडम जाड़े की धूप का मजा लेते हुए बाहर बैठकर स्वेटर बुनने के काम में तन्मय लग गईं. पचमा मास्साब के यहां गन्ने की पेराई हो रही थी, वे उधर ही निकल गए. कुछ काबिल किस्म के लडक़ों ने पढ़ाने का काम सम्हाल लिया तो हेड सर ने भी हाजरी बही वगैरह देख-दाख कर संगीत मैडम की ओर रूख किया. एक कुर्सी लेकर वह भी उनके बगल में ही जा जमे. संगीता मैडम बुनाई का काम समेटने लगीं तो हेड सर ने उनका संकोच दूर करते हुए कहा, ‘‘आरे नहीं…नहीं, आप तो बुनते ही रहिए. भीतर थोड़ी ठंड पड़ रही थी, तो सोचा कि आपके पास चलकर थोड़ा गरमा लूं. और बताइए, किसके लिए स्वेटर बुन रही हैं? ऊन तो बहुत अच्छा लग रहा है.’’

‘‘जी, वैसे ही. क्या है कि मेरे कॉलेज के एक फ्रेंड हैं, उन्हें मैंने इस साल अपने हाथ से बुनकर स्वेटर देने का प्रॉमिस किया है.’’

‘‘क्या करते हैं आपके फ्रेंड? मैंने तो सोचा अमित बाबू के लिए….’’

‘‘नहीं, वो क्या है कि अमित तो रेडिमेड ही पहनते हैं. वैसे भी उन्हें मेरे हाथ का कुछ अच्छा कहां लगता है? मेरे फ्रेंड इधर ही जेठवार में डॉक्टर हैं. जगदीशपुर में ही रहते हैं.’’

‘‘हां, हां…अखिलेश बाबू की बात कर रही हैं? बड़े सज्जन आदमी हैं. अच्छा आप उनके साथ पढ़ी हैं. इस गाँव में तो आते ही रहते हैं. यहां के लोग दवा-दारू के लिए जेठवार ही तो जाते हैं…वो….’’

‘‘….’’

‘‘अमित बाबू तो बड़े सज्जन मालूम पड़ते हैं. उन्होंने मुझसे कहा था कि मैडम का ध्यान रखिएगा. आपसे लगता है कि जमता नहीं है. मेरे ख्याल से आपलोगों की शादी का भी दो-तीन साल ही हुआ होगा…’’

‘‘क्या बताएं सर, तीन साल हुए शादी के और तेरह करम हो गए. उनका कहना है कि मुझमें फर्टीलिटी ही नहीं है जबकि अखिलेश से चेकअप कराया तो कहने लगे अमित में ही कमी है. मैं किसी से कुछ कहती नहीं, परसनल मैटर है. सर प्लीज आप किसी से कुछ कहिएगा नहीं…आपने छेड़ दिया तो…’’

‘‘अरे राम…राम, हमारा यही काम रह गया है कि इधर की बात उधर…लगता है कि अमित बाबू के ऑफिसवा में भी कुछ सेटिंग है, नहीं?’’

‘‘सर, जब आप पूछ ही रहे हैं तो…उनके यहां एक रजनी नाम की लडक़ी है. अनुकंपा के आधार पर उसकी पिछले साल नौकरी लगी है. इन्हीं लोगों ने उसका पेपर-वेपर बनवाया था. अपनी मां के साथ ही जगदीशपुर में रहती है…बिचारी का जीवन बर्बाद कर रहे हैं अमित जी. दफ्तर के बाद पहली चाय वह उसके घर ही पीते हैं. रोज उसके घर ड्रॉप करते हैं. इधर तो अपने घर भी लाने लगे थे. मना करने पर वही कलह मचता. रोज-रोज की कलह से मैंने भी सोचा सर्विस कर लूं. घर पर कम रहूंगी तो टंटा भी कम होगा.’’ संगीता मैडम की सारी पीड़ा घाव के मवाद की तरह बह निकली,‘‘वे सारी लिमिट क्रॉस कर चुके हैं उस बेहूदी के साथ और एक बार उनकी अनुपस्थिति में अखिलेश जी मेरे घर आ गए तो उन्हें देखते ही वे आग-बबूला हो गए. उनके सामने ही मुझे बुरा-भला कहने लगे.’’

‘‘राम राम… ऐसा तो नहीं होना चाहिए. औरत-मर्द को बराबरी का हक होना चाहिए. वह जमाना थोड़े है कि औरत को गाय बनाकर जहां चाहिएगा, बांध के दूहिएगा और खुद सांढ़ की तरह जिस खेत में मन करेगा मुंह घुसा दीजिएगा…राम राम….’’ हेड सर ने संगीता मैडम को इस तरह कुरेदा जिससे पूरी ताप बाहर निकले.

‘‘नहीं, बात दूसरी है कि सबकी अपनी डिग्निटी होती है कि नहीं? आप किसी को एक हद तक ही हंट कर सकते हैं. औरत भी हाड़-मांस की बनी है और मर्द भी. उस दिन तो अखिलेश भी कुछ कह ही देते…मैने ही इशारा कर दिया…’’

‘‘ऐसा थोड़े होता है, आप पढ़ी-लिखी महिला हैं. उनको ख्याल तो रखना ही चाहिए.’’

‘‘नहीं उनको तो रजनी के सिवाय कुछ दिखता ही नहीं. उसका भी जीवन नासेंगे. सर, बात बहुत आगे बढ़ चुकी है. शायद उसकी मां भी तैयार है. मै ही राह की रोड़ा हूं. मैं भी अखिलेश के बारे में सोच रही हूं सीरियसली…कास्ट भी प्राब्लम नहीं है. यही है कि अपने यहां औरत की दोबारा शादी का विधान नहीं है. फिर भी देखेंगे. पानी सिर के ऊपर जा चुका है. बिना शादी के ही रह लेंगे….’’ संगीता मैडम को हेड सर पर भरोसा हो गया था. वे टूटी हुईं थीं. थोड़ी सी सहानुभूति का स्पर्श पाकर बिखरने लगीं.

‘‘ओहो..हो…मर्द जात भी बड़ा चांडाल होता है. आपने बिल्कुल ठीक सोचा है. एक दिन उनको भूल का अहसास होगा जब जवानी का पानी बह जाएगा. अभी लेने दीजिए मजा उनको. आप तो ले लीजिए यही किराया पर मकान. यहां की लड़कियां बड़ी सेवा करेंगी आपकी. बड़ा भला गाँव है श्रीमती जी.’’

‘‘मैं भी यही सोच रही हूं. उनको तो अच्छा ही लगेगा…राह का रोड़ा हटेगा.’’

एक दिन स्कूल में संगीता मैडम को लैट्रिन लग गई. पहले तो शरमाईं, किससे कहें? कुछ देर तो थामे रहीं पर आखिर कब तक? स्कूल की छुट्टी तो चार बजे होती थी पर अभी तो दो ही बज रहे थे. और चार बजे छुट्टी होते ही घर कैसे पहुंच जातीं? कुछ देर बड़ी उलझन में रहीं. कभी कक्षा में जाएं, कभी बाहर. कभी बाहर, कभी कक्षा में. पचमा मास्साब बड़े गौर से उन्हें देख रहे हैं. उनसे नहीं रहा गया. पास जाकर बोले, ‘‘देख रहे हैं मैडम, कौनो परेशानी है? राम जी की दया से बताइए जो होगा हम देख लेंगे. अपना परिवार ही मानिए हमको.’’

‘‘नहीं…नहीं कोई प्रॉब्लम नहीं है.’’ संगीता मैडम बताएं तो क्या बताएं, कैसे बताएं? वे तो लगी थीं उपयुक्त प्रसाधन की खोज में जो उन्हें कहीं दिख नहीं रहा था.

इधर पचमा मास्साब हर हाल में मदद करने को बेचैन. मदद हो न हो कम से कम माजरा तो समझ में आए. बोले, ‘‘देखिए मैडम, राम जी की दया से आपको कौनो ना कौनो परेसानी तो हइए है. बताइए चाहे मत बताइए. आप असहीं गरम गाय…( वे कहना चाहते थे कि गरम गाय की तरह क्यों इधर-उधर आ-जा रही हैं. पर लगा कुछ गलत बोल रहे हैं तो चुप हो गए.)’’

संगीता मैडम को तो बुरा लगा ही. उनकी त्यौरियां चढ़ गई. गजब आदमी है. मैं कुछ भी करूं, इसे क्या. बोलने का तो शऊर नहीं, बड़े आए परेशानी पूछनेवाले. उनकी चढ़ी हई त्यौरियां देख पचमा मास्साब ने भी मदद का विचार त्याग दिया. संगीता मैडम क्लास में आईं और साक्षी को लेकर बाहर गईं. कुछ और आगे चलकर उससे उन्होंने अपनी समस्या से उसे अवगत कराया. साक्षी ने उन्हें क्या कहा, पता नहीं. शायद साक्षी ने इस समस्या के संबंध में गाँव की समस्या से उन्हें अवगत कराया होगा.

इस गाँव के पुरूषों के लिए यह समस्या कोई समस्या नहीं थी. वे तो जब चाहते एक लोटा पानी लेकर खुले में खड़े-खड़े धोती या लुंगी ऊपर उठाकर…बैठ लेते. गाँव में सुबह और शाम का नजारा तो अलग रोमांचक होता. गाँव से खेतों की ओर लोटा लिए हुए लोगों की लाइन लग जाती. किसी खेत में कभी पांच-दस लोग ऐसे बैठे मिलते जैसे अति विशालकाय मुर्गे दाना चुग रहे हों. और इस गाँव की अधिकांश औरतें सूरज के निकलने के बहुत पहले ही या सूरज के डूबने के बाद ही अपनी इस समस्या से निबटती थीं. गाँव से सटे एक गड़ही थी. गड़ही के पास एक झाड़ी थी. गड़ही और यह झाड़ी ही इस मामले में गंाव की महिलाओं के देवी-देवता थे. पर दिन में गाँव की औरत अपने इन इष्ट की ओर निकल जाए तो शर्तिया छिनाल. अगर बीच में आपात स्थिति पैदा होती होगी तो क्या करती होंगी गाँव की औरतें? कौन जानता है?

लोग बताते हैं कि बहुत समय पहले की बात है. इस गाँव के टेंगर पासवान विधायक हो गए. गरीब आदमी थे. वह जमाना दूसरा था. तब गोली-बारूद और धन-दौलत ही सब कुछ नहीं हुआ करता था. सत का जमाना था. टेंगर पासवान के पास एक जोड़ी धोती थी और एक कुरता था. दस गांवों में घूम-घूम कर मालिक लोगों का आशीर्वाद ले लिया और वे विधायक हो गए. वे विधायक हो गए तो पटना में एक फ्लैट मिला जिसमें कायदे की एक लैट्रीन भी थी. टेंगर पासवान लोटा लेकर पाखाना जानेवाले आदमी ठहरे, वे क्या जानें लैट्रीन-वैट्रीन. उन्होंने समझा कोई विदेशी टाइप का चूल्हा है. चार लकडिय़ां लाए और बोझ दी उसी में. पर यह तो पुरानी बात है जब गाँव में धोती बहुत कम थी और लोग गमछा लपेट लेते थे. देह पर कुरते की जगह बहुत हुआ तो जनेऊ पहन लेते थे. नहीं तो वह भी नहीं. जनेऊ भी सबके बूते की न तब थी न अब है. खैर…

कुछ संपन्न घरों में इधर सुलभ शौचालय या कोई वैकिल्प टाइप का प्रबंध की कोशिशे शुरू हो चुकी थीं. साक्षी के यहां ऐसा ही कोई प्रबंध था. संगीता मैडम साक्षी के घर चली गईं.

इधर पचमा मास्साब को उनका कौतूहल उन्हें और बुरी तरह तंग करने लगा था. वे हेड सर के पास गए, ‘‘देखिएगा सर, राम जी की दया से, मैडमवा चालू आयटम लगती है.’’

हेड सर रजिस्टर में कुछ ‘करामात’ कर रहे थे. उन्हें पहले तो झुंझलाहट हुई. इसलिए थोड़े झल्लाहट के साथ ही बोले, ‘‘आप भी न भाई, हद्द करते हैं. का चालू है? आ चालूए होके क्या उखाड़ लेगी?’’

‘‘हेंहेंहें…राम जी की दया से गरमाते काहे हैं? कुछ पेल रहे थे क्या?’’

हेड सर जानते थे. यह आदमी बगैर अपनी घुसाए, टलेगा नहीं. इसलिए रजिस्टर में कलम डालकर बंद करते हुए बोले, ‘‘क्या हुआ?’’

‘‘अरे सब हो गया….राम जी की दया से. गई मैडमवा….’’

‘‘आरे कहां गई भाई…? आपो न कभी-कभी हद्द करते हैं. कहां गई मैडमवा…?’’

‘‘कहां गई, नहीं जानते हैं. पर राम जी की दया से गई…सक्छीयो के ले गई संगे.’’

‘‘आरे कहां जाएगी? अभी आए चार दिन नहीं हुए…’’

‘‘अरे कहीं चली जाएगी….जवान है और जबरदस्त है…राम जी की दया से. जानते नहीं हैं इस गाँव के दो तिहाई ज्वान ‘बंड’ (अविवाहित प्रौढ़) हैं…. वैसे ऊ उधर गई है…बाहर निकलिए उधर…’’ पचमा मास्साब ने जेठवार गाँव की ओर ऊंगली उठाई.

‘‘जेठवार की ओर…?’’

‘‘हां…हां..उधर गई. गई अखिलेसवा के होस्पीटल में…’’

‘‘हम बर्दाश्त नहीं करेंगे. ई ठीक नहीं है कि स्कूल के टाइम में ऐय्यासी हो. हम शिकायत करेंगे अमित बाबू से. ई सचमुच ठीक औरत नहीं है.’’

‘‘अमित बाबू से शिकायत करके क्या उखाड़ लीजिएगा? अमित बाबू कौन सरीफ के पेलल हैं. राम जी की दया से…वह तो चाहिए न रहा है कि ई गाय कौनो दोसर खेत देख ले कि ओकरो जंजाल छूटे. नहीं तो शहर से अच्छा बड़ा सेदहें था…राम जी की दया से आप ही न बता रहे थे….’’

‘‘नहीं…नहीं ऐसे कैसे होगा. हम मीटिंग बटोर लेंगे…ऊपर तक मामला उठा देंगे….’’ हेड सर पता नहीं क्यों तैश में आ गए थे या तैश में आने का अभिनय कर रहे थे जो कि उनके व्यक्तित्व की खास उपलब्धि थी. उन्होंने सुभाषचंद्र बोस की तरह ऊंगली उठाकर ‘दिल्ली चलो’ वाली उनकी भंगिमा भी अख्तियार कर ली थी. और पचमा मास्साब उकड़ूं होकर एक विदूषक की तरह उनका चेहरा घूर रहे थे. प्रथम दृष्टया दोनो काफी तनाव में दिखाई दे रहे थे. इसी बीच दो घटनाएं घटीं. एक तो यह कि एक उड़ता हुआ कौआ पचमा मास्साब के ठीक नाक पर वह काम कर गया जो काम करने संगीता मैडम साक्षी के घर गईं थीं. दूसरी यह कि उसी पल हेड सर को संगीता मैडम साक्षी के साथ हंसते-मुस्कराते आती दिखीं. हेड सर के मुख से तत्क्षण निकला, ‘‘धत् साला…’’ उनकी हालत वैसी हुई जैसे किसी हस्तमैथुन करते युवक ने अपने बाप को अचानक पास खड़ा पाया हो.

पचमा मास्साब को समझ में नहीं आ रहा था कि ये औरत यूं गई तो यूं आई क्यों? साली ने अपना तो कुछ नहीं गंवाया, उनके अनुमान का कबाड़ कर दिया. क्या सोचेगा हेडवा? पहले तो उन्होंने हाथ से नाक की सफाई की, फिर हाथ की कुरते से. फिर पूरी बेशर्मी से दांत निपोरते हुए बोले, ‘‘लगता है मैडम थोड़ा गाँव घूमने गईं थीं, नहीं…?’’

मैडम क्या बोलतीं? चुप रहीं. हेड सर जल्दी-जल्दी थोड़ा आगे चलकर उकड़ूं बैठकर खुले मैदान में लघु शंका करने लगे.

स्कूल की छुट्टी हो गई.

उस दिन के बाद दो-तीन दिन छुट्टी पर रहीं संगीता मैडम. फिर अगले सप्ताह आईं तो प्रार्थना के बाद हेड सर से पहली चर्चा अपने डेरे को लेकर चलाया उन्होंने. हेड सर रजिस्टर निकालकर हिसाब-किताब देखने लगे. पचमा मास्साब आए ही नहीं थे. एक अगुवई में गए थे. जिन लडक़ों के नाजुक कंधों पर पढ़ाई का भार था, उन्हीं में से कुछ ने पढ़ाने का काम सम्हाल लिया. बाकी पढऩे लगे या पढऩे का अभिनय करने लगे. संगीता मैडम हेड सर के पास एक कुर्सी खींचकर बैठते हुए बोलीं, ‘‘सर आपको भी कितना बर्डन उठाना पड़ता है, नहीं? सारी जिम्मेदारी तो आप पर ही है न. यह पेपर तैयार करो, वह पेपर भेजो…’’

हेड सर ने चेहरे पर सचमुच के काम का तनाव बिछाते हुए चश्मे के नीचे से अपनी आंखें संगीता मैडम के उन्नत उरोजों में धंसा दी और बड़े इत्मीनान से सुनाने लगे, ‘‘क्या बताएं मैडम. ऊपर से नीचे तक जैसा सिस्टम है. सब जाहिल लोग भर गए हैं. किसी को कोई काम नहीं आता. अव्वल तो कोई करना ही नहीं चाहता. सारे पेपर तैयार कर लो और टेबुल के नीचे से माल पकड़ा दो, तो साले चिडिय़ा बैठा देंगे. कमीशन तो सबको चाहिए पर काम करेंगे हमारे लिंगास्वामी.’’

संगीत मैडम जान गईं थीं कि इस आदमी की बात में वे उलझीं कि गईं. सारा दिन ले लेगा यह आदमी. बिना मतलब की दुनिया जहान की बेसिर-पैर की कहानी सुना देगा. हर दो मिनट पर अपनी तारीफ करेगा और अपशब्दों के इस्तेमाल के बगैर तो कोई दो वाक्य भी नहीं बोल पाएगा. उन्होंने बिना देर किए अपने मतलब की बात छेड़ दी,‘‘सर, अपने स्कूल में एक बाथरूम तक नहीं है. स्कूल के बच्चों को स्कूल आवर में बहुत परेशानी होती है….’’

हेड सर ने बीच में ही बात को पकड़ते हुए कहा, ‘‘आरे, नहीं नहीं. काहे के परेशानी…गड़ही है न बहरवा. उधरे चले जाते हैं.’’

संगीता मैडम ने प्रतिवाद किया, ‘‘नहीं सर, वो क्या है कि बड़ी क्लास की जो लड़कियां हैं…’’

हेड सर तो जैसे ‘हर फिक्र को धुएं में उड़ाता चला गया’ वाले अंदाज में पूरी तरह तैयार थे, ‘‘अरे आप भी क्या बात करती हैं मैडम. आप इतना भी नहीं जानतीं, ये गाँव-गिरांव की लड़कियां हैं. इन्हें हर समस्या झेलनी आती है. कह सकती हैं कि इनके लिए कोई भी समस्या कोई समस्या नहीं है. ये पहले से सजग रहती हैं कि समस्या सामने पड़े ही नहीं. पड़ भी जाए तो ये दाएं-बाएं से कन्नी काटकर निकल लेती हैं. नहीं समझी?’’

संगीता मैडम सचमुच नहीं समझीं.

28 comments
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  1. इस उपन्यास का इंतज़ार रहेगा हरे भाई…अंश रोचक है

  2. मन रम गया इसे पढने में. वरना आजकल कथा पढने में विश्व साहित्य की ढेर सारी जानकारी और अतिरिक्त बौद्धिक तैयारी की ज़रुरत होती है. हरे को बधाई हो. इस उपन्यास की जल्दी से छपाई हो.

  3. tantr ke bhitar ki tantrika ka rochak prvah hai,,,,,,,,,,pura padane ki chahat hai

  4. मान्यवर ,उपाध्याय जी ,अपनी ज़मीन से जुड़े इस उपन्यास को पढ़ कर अच्छा लगा .एक साथ पढ़ कर और भी अच्छा लगेगा आप को हार्दिक बधाई.

  5. हरे प्रकाश, मित्र, उपन्यास जब सिगरो रचा जायेगा तो खूब भायेगा। रजधानी से ले के गांव तक ले जवन रजनीतिया पसरी भई है, आ ओकरे भीतर जवन साजिस सडंत्र चलाता है लोग, ऊ सबका पर्दाफास करेगा ई। बहुते नीक लगा भाई, जेतना पढि पाये, ऊ बहुते रोचक और भंडाफोड़्कारी है। बधाई लें हमार। पूरा होइ जाय त एक ठो कापी हमार पता पर रजिस्ट्री जरूर करें भाई जान।

  6. dilchasp hai…upanyas ka intezar hai…

  7. Bahut dinon baad kuchh achha padha.. badhayee.

  8. रोचक।
    पूरा होने की प्रतीक्षा।
    बधाई।

  9. भईया मज़ा आ गया. हमें तो उपन्यास का इंतजार है. गाँव कि जातिगत समीकरण और राजनीति का खूब वर्णन होगा.

  10. Rochak. Ak bar mai padh gaya,bhasha akharti hai ,lekin kahani ke prabah mai jaruri hai.

  11. bahut achha khel rahe hain. badhai,
    neelam tiwar

  12. uttar-puttar aadhunik lekhan ke is dour me apni hi jameen par bahut achhi rachana hai yah,
    shashi bhooshan dwivedi

  13. bahut achha likha aapne aur ek dam sach hai ye
    vandana tiwari

  14. hare ji , gajab ka lekhan h aapka. kuch bhi kehte nahi ban raha. ab to bus pustak ka wait kiya ja sakta h …
    aap ke lekhan lajvaab h.
    badhayeeeeeeeeeeeeeeeeeeeee

  15. shaili achhi hai. jab chhape to bataiyega. subhkamnayein. ek sujhav hai, anavashyak bold sambhashan se anand khandit hota hai kahin kahin. waise aap convinced ho to jaisa hai waisa hi rahne dein.

  16. हरे भाई की भाषा उस लोकेल के भदेसपन और ठेठ स्थानीयता का अद्भुत रोचक चित्रण करती है. व्यवस्था के प्रदुषण को उजागर करती रचना, पठनीयता से सरोबार है. श्रीलाल शुक्ल के “राग दरबारी” के शिल्प की याद आ गयी. इसके सम्पूर्ण रूप में आने का इन्तजार है. जरूर बताईगा, जब प्रकाशित हो जाए. मेरी शुभकामनाएँ.

  17. नाच उपन्यास अंश पढ़ा . व्यवस्था का जो कैरिकेचर आपने खींच दिया है भाषा के शेड्स ने उसे ज़बरदस्त बना दिया है . बधाइयाँ ! इति तक हम प्रतीक्षारत हैं .

  18. हरेप्रकाश के उपन्‍यास की प्रतीक्षा रहेगी…

  19. kitani besabri se intejar hoga aapke upanyas ka

  20. mujhe lagta hai aap ise ek bar aour padhengen.ye antim draft nahi lagta.vishay vastu bahut achchi hai …per shuru me hi mai tha shabd ke atyadhik prayog se ub gayi….bhasha per aour kam/mehnat ki jarurat hai….waise mai ek pathak hun aap aalochakon ke sujhaw per amal karen.

  21. padhna shuru kiya ek sur me padhta chala gaya. bhojpur ke gramin mahaul ki jiwamt jhalak mili is upanyas ansh me. pura novel padhne ki ichha jagrit ho gayi. chhapne ke bad yah nishit roop se hindi upanyas ki duniya me Ek landmark hoga.

  22. हरे , यह उपन्यास का बहुत रोचक अंश है और पूरा उपन्यास पढ़ने की लालसा उत्पन्न करता है । इसके संवादों का वाचिक रूप से मैंने पाठ किया अद्भुत ध्वनि इनमें उत्पन्न होती है । एक और बात , दृश्य रचने की तुम्हारी क्षमता भी अद्भुत है । बहुत सूक्ष्म विवरण भी इनमें उपस्थित हैं ।

  23. उतान होती ताजगी है कहने के ढंग में जिसका विषय अपने पतन में कुलेल करती हमारी खूब जानी-पहचानी दुनिया है।

    लेकिन कवि, आखिरी प्रशंसा की छींट भी 6 अक्तूबर 2010 को पड़ी थी।

  24. “पचमा मास्साब खुश तो हुए कि बिना भाग-दौड़ किए काम बन गया. नहीं तो पता नहीं कितनों के आगे-पीछे घूमना पड़ता. होता भी नहीं उनसे यह काम. जिसका मुंह नहीं देखना चाहिए उसको भी सलाम करना पड़ता. पर खर्च का नाम सुन उनको भीतर ही भीतर बहुत गुस्सा आया, ‘‘सार का मिला रूपवा के. बहिनचो के सिखाना पड़ेगा. बइठे-बइठे दो-दो हजार पर पानी फेरवा दिया न. सार के सब बढ़ल मन शांत होगा राम जी के दया से….’’ मामला तो सलट गया पर इस घटना के बाद रूप चौधरी न सिर्फ मास्टरों की आंखों में चढ़ गया बल्कि गाँव के सभी सवर्णों की आंखों की भी किरकिरी बन गया था. गाँव का जातीय आधार पर धुर्वीकरण होने लगा.”

    शिक्षा व्यवस्था को सुधारने का प्रयास किया भी चौधरी ने , पर २-२ हज़ार रुपये देकर भ्रष्ट लोगो ने उस मुद्दे को ही दबा डाला. ऊपर से गाँव का जातीय आधार पर धुर्वीकरण होना और उसके तमाम दुष्परिणाम निकलना लाज़मी है. कथानक बहुत सोच-समझकर चुना गया है. इस उपन्यास का यह अंश ही इतना प्रभावशाली है तो निश्चय ही पूरा उपन्यास पढ़ने पर पाठक को प्रेरित करेगा. इस उपन्यास की एक प्रति मेरे लिए भी बुक करने की कृपाकरें.

  25. शिक्षा व्यवस्था को सुधारने का प्रयास किया भी चौधरी ने , पर २-२ हज़ार रुपये देकर भ्रष्ट लोगो ने उस मुद्दे को ही दबा डाला. ऊपर से गाँव का जातीय आधार पर धुर्वीकरण होना और उसके तमाम दुष्परिणाम निकलना स्वाभाविक है. कथानक बहुत सोच-समझकर चुना गया है. इस उपन्यास का यह अंश ही इतना प्रभावशाली है तो निश्चय ही पूरा उपन्यास पढ़ने पर पाठक को प्रेरित करेगा. इस उपन्यास की एक प्रति मेरे लिए भी बुक करने की कृपा करें.

  26. रोचक और सारगर्भित लेखन.

  27. इस उपन्यास का इंतज़ार रहेगा…

  28. अत्यंत रोचक और बेबाक। इसमे राग दरबारी बनने की संभावना है। कम से कम दो ढाई सौ पृष्ठ लिखिए।
    मज़ा अधूरा न रह जाए.

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