आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

चुपचाप: देसराज काली

मैं अपनी पत्नी से दूर होता जा रहा हूँ. इसका कारण कहीं रजवंत तो नहीं? नहीं नहीं, उसने तो अभी कोई सीधा हुंकारा भी नहीं भरा. क्या पता उसके मन में यह बात न ही हो. मैं तो पूछ नहीं सका उससे. मुझे दरअसल खुलकर पूछ लेना चाहिए था. वैसे मेरी पत्नी तो खुद मुझ से दूर होती जा रही है. इसकी चाल ढाल ही तो मुझे दिनोंदिन समझ में नहीं आ रही. मैं व्यस्त भी तो बहुत रहता हूँ. पर इसके पीछे इसकी उपेक्षा का कारण नहीं. बल्कि इसका वहमों में फंसते जाना ही एकमात्र कारण है. अब भी तो मैं इनके साथ सात काम छोड़कर आया हूँ, लेकिन ये है कि अब खुद सराय में महात्मा के प्रवचन सुनने में मग्न है. इसे तो यह भी नहीं कि इनके संग घूमूं-फिरूँ, इससे प्यार बढ़ता है. इसके लिए तो बस महात्मा ही सब कुछ है.

”तुम कभी मेरी मान कर तो देखो… मैं तो अब ज़रूर इकतालीस दिन जोत जगाऊँगी. महात्मा कहते हैं…” मैं सोचता था, यह क्यों इतनी अंतर्मुखी हो जाती है. किस चीज़ का अभाव है जो इसे ये सब पाखंड करने पड़ रहे हैं.

”मैं तुझे नहीं रोकता, पर तू तो इन कामों में बुरी तरह फंसती जा रही है. यह कोई बहुत अच्छी बात नहीं. ऊपर से तेरी बेटी तेरे बराबर होने लगी है. तू संभाल अपने आप को…” वैसे मैं यह कहना चाहता था कि तू मेरे से दूर होती जा रही है. पर कह नहीं सका. असल में, आदमी बहुत कुछ नहीं कह पाता. अब कई बार मेरा मन करता है कि रजवंत से कह दूँ कि मैं बाल बच्चेदार हूँ, ये सब बातें… मैं अपनी पत्नी से धोखा नहीं कर सकता. उसका विश्वास नहीं तोड़ सकता. पर चुप लगा जाता हूँ. क्यों?

कई बार सोचता हूँ कि अगर उसे मेरे प्यार के दो शब्दों से सुकून मिलता है तो इसमें हर्ज़ क्या है? पर बहुत बार उसकी सायकी मेरी समझ में नहीं आती. ऐसा लगता है मानो ज़िंदगी मेरे विरुद्ध षडयंत्र रच रही हो. फिर उसकी हर बात उलझी हुई प्रतीत होती है.

”यार, मैं नहीं आ सकूँगा शनिवार.”

”क्यों, क्यों नहीं आ सकते तुम?” उसका प्रश्न सुनते ही मेरे जेहन में पत्नी का चेहरा घूम गया था. वहमों में फंसती जा रही पत्नी का. एक बार मेरी बेटी ने तेल वाली बाल्टी उठाये जा रहे ‘शनि देवता’ वाले को आवाज दी. वह आगे निकल चुका था. पत्नी बहुत बुरी तरह उसके पीछे पड़ गई-

”तूने उसे क्यों आवाज़ लगाई?”

”फिर क्या हो गया?” मैंने तल्ख़ी से पत्नी से पूछा.

”तुम्हें नहीं पता, शनि ने तो खुद शंकर भगवान को नहीं बख्शा.”

मैं सिर्फ इतना ही सोच सका कि उसका ध्यान इस तरफ ही क्यों है?

”अब अगर तुम न आए तो मैं नाराज़ हो जाऊँगी.” मैंने रजवंत की ओर निगाह भर कर देखा.

”तुम किन सोचों में डूबे हुए हो?”

”शनि देव की…” मैं हैरान रह गया, यह मैं क्या कह बैठा?

”शनि देव की?”

”नहीं… नहीं… मैं तो यूँ ही…” मुझे यह भी समझ में नहीं आया कि मैं उस वक्त रजवंत से क्या छुपा गया था या फिर मैं भटक रहा था. किधर जा रहा था? मेरी मंज़िल किधर थी? क्या था?

”मुझे तुम्हारा यह सवाल जैसा मुँह अच्छा नहीं लगता. तुम्हें मालूम है, यह पहाड़ जितना घर मुझे कितना डरावना लगता है. कई बार तो अपनी ही साँसों से डर जाती हूँ.” कमाल है यह औरत ! एक मर्द को अपने घर में बुला रही है और फिर डरती किससे है?

”तुम्हारे माता जी भी तो साथ होते हैं.”

”कौन साथ होता है, यहाँ तो भीड़ में भी अकेले ही जाना पड़ता है. बाजार में भी सब चेहरे होते हैं… खाली नकाब. भूसे से भरे हुए पुतले… एक वो है जो विवाह करवा कर पाँच महीने बाद ही इंग्लैंड चला गया. लौट कर आने का नाम ही नहीं… मेरे पास ये सास का डंडा पड़ा रहता है.” ये बातें रजवंत ने नहीं कहीं, पर उसके मन में ऐसा ही कुछ होगा. सोचता था, इसकी सास की एक रग अधिक चलती है. वह बात समझने में एक सेकेंड लगाती है. बात की निचली तह पर तुरंत पहुँच जाती है.

”लो, डाक्टर साहब…मैं दवाई ले आई हूँ.” वह बहुत कम समय में दवाई ले आई थी. अंधी होने के बावजूद इतनी फुर्ती !

”लाओ…ठीक है…यह दे दो…” वहाँ से उठने का उस दिन मन नहीं कर रहा था, पर उठना तो था ही.

”डाक्टर साहब, इस झोटी को मैंने बच्चों की तरह पाला है. इसे जल्द ठीक कर दो. कहते हैं – गाभिन को बुखार चढ़ना अच्छा नहीं होता.” रजवंत के इन शब्दों में कितना दर्द था. पता नहीं उसकी अंधी सास की रग इन शब्दों की गहराई तक पहुँची थी या नहीं.

”तुम चिंता न करो.” और भी बहुत कुछ था मेरे मन में रजवंत को कहने के लिए, पर कह नहीं सका. आदमी बहुत कुछ नहीं कहता. बहुत कुछ क्या, कुछ भी नहीं कहता, जो वह कहना चाहता है. वह वही कहता है जो उसने नहीं कहना होता.

”पापा, इन पहाड़ियों में आना कितना अच्छा लगता है.” मेरी बेटी का झकझोरना मुझे पता नहीं कहाँ से खींच कर वर्तमान में ले आया है॥

”हाँ, हाँ. विज्ञानी कहते हैं, पहाड़ों की सैर करने से व्यक्ति के मनोविज्ञान पर बड़ा बढ़िया असर पड़ता है.” मैं यह जानता हूँ कि मैं ये बातें नहीं करना चाहता, पर कर रहा हूँ. मैं तो यह भी नहीं चाहता था कि इनके साथ वैष्णो देवी की यात्रा पर आऊँ. पर… ”पापा, अम्मा अभी भी महात्मा के वचन सुन रही होंगी?” शुक्र है, मेरी बेटी भी मेरी तरह ही सोचती है.

”बिलकुल.”

”पर वो महात्मा है बड़े कमाल के. बड़ी पते की बातें करते हैं. मेरा भी मन करता था कि उनके वचन सुनती रहूँ.” पता नहीं क्यों, मन में आया है कि मेरी बेटी जो बोल रही है, उसका मन उसके उलट है. वह भी मेरी तरह सोचती है, पर वह बोलती नहीं और जो बोलती है, सोचती उसके बिलकुल उलट ही है. फिर भी दिल को ढाढ़स नहीं बंध रहा. रह रह कर रजवंत का ख़याल भी भटका रहा है. इसमें बेटी की बातें तो बहाना लगती हैं. भला मैंने उस दिन रजवंत को कह क्यों नहीं दिया कि मैं आ नहीं सकूंगा. मैं कह ही नहीं सकता था. वह अवश्य प्रतीक्षा कर रही होगी. हो सकता है, उसकी सास ने कहीं बाहर जाना हो. ऐसे अवसर पर उसके घर में आसानी से जाया जा सकता है. वैसे उस बाहर की तरफ़ बनी हवेलीनुमा कोठी में आना-जाना कोई कठिन काम नहीं, पर ये विचार कभी भी मेरे ज़ेहन में नहीं आए. मैं क्या उसके साथ ऐसे ही व्यवहार रखना चाहता हूँ? पर वह क्या चाहती है? बहुत कुछ उलझा -सा पड़ा है. मैं उस वक्त कुछ भी समझ नहीं सका था जब गाँव भर में घूमने वाली मिंदो ने उसके बारे में कहा था- ”देखना डाक्टर, वह कुछ ज्यादा ही हठी है.” मैं उस पर खीझ उठा था. यह सभी को अपने जैसा ही समझती है? पर चुप्पी लगा गया था. उसकी बात में मुझे वज़न भी लगा था. रजवंत का जाब्ता मुझे अपनी ओर खींचता था. समय की मार देखो, उसका दर्द क़यामत था. पर उसने कौन-सा मुँह सिल रखा था. मैं स्वयं को उसके सामने समर्पित कर बैठा था. मिंदो वाली बात मुझसे कोसो दूर थी. पर वह मुझ में दिलचस्पी क्यों ले रही थी? मैं आठों पहर उसके बारे में सोचने लगा था. उसकी बातों के अर्थ समझने की कोशिश करने लगा था. मैं उसका रहन-सहन और उसकी मानसिकता जानने-समझने की कोशिश करता. वह कितनी सहज थी. हर वस्तु बेहद सहज ढंग से रखी हुई. उसका पूरा घर ही ‘सहजावस्था’ प्रतीत होता. उसके पहरावे में सहजता. बोलचाल में धैर्य. पर एक बात हैरान करने वाली थी. जब उसकी भैंस बीमार हुई थी तो उसकी सारी सहजता काफूर हो गयी थी. उसकी हर हरकत में से एक बेचैनी झलक रही थी.

”डाक्टर… मेरी झोटी को बचा ले…” उसकी ऑंखों में पानी था.

”तुम घबराओ नहीं… दवा चल रही है… मैं खासतौर पर इसे देखने के लिए आया हूँ.” हैरान भी था कि इतने धीरज वाली रजवंत इस तरह दिल छोड़ बैठी थी.

”तुम नहीं जानते डाक्टर साहब… मैंने बच्चों की तरह पाला है इसे… यह मेरे…” मैं उसका अन्तर्मन पढ़ नहीं सका था. पर उसकी तरफ मेरा खिंचाव ज़रूर बढ़ गया था. आखिर कितना दर्द होगा इस औरत के अन्दर?

आते समय मैंने फिर आस पास निगाह भर के देखा. उनकी कोठी के सामने शो केस में एक फौजी की तस्वीर लगी हुई थी. बहुत ही खूबसूरत फ्रेम में मढ़ी हुई. बड़े साइज़ में. हाथ में रॉयफल, कुंडलदार घनी मूंछे, पूरे फौज़ी रौ में खड़ा था फौजी !

”यह किसकी फोटो है?”

”मेरा भतीजा है.” उसने रौब में कहा. मुझे लगा उसकी छाती तन गयी है. मैं उस फोटो के बारे में सोचने लगा. इस सूने घर में यह फोटो इसका हौसला है. मनुष्य कैसे-कैसे जीता है. कितना कुछ मन में पालता है. कितना कुछ घटित होता है, उसके मन के अन्दर, इसकी थाह नहीं पाई जा सकती.

कई दिन मैं उसके बारे में ही सोचता रहा. कभी दिल होता, इसे बांहों में भरकर चूम लूँ, पर फिर डर जाता. वह फोटो मुझे डराती थी या किसी से डर लगता था, मैं स्वयं नहीं जानता था. मैं तो रात में सपनों में भी डर जाता रहा हूँ.

”पापा, कई महात्मा तो डरावने-से लगते हैं, पर कई तो जैसे हमारे ही परिवार के मैंबर हों. अब ये जो महात्मा सराय में हमें मिले थे, उनकी रूह बड़ी पवित्र दिखती है.” मैं पूरी तरह डर गया हूँ. मेरी बेटी की शब्दावली ही बदल गयी. अपनों की संगत का इस पर असर पड़ गया तो…? पता नहीं, यह सब कुछ इसके लिए कैसा होगा?

”पापा, हम चरण पादुका मंदिर भी देखकर ही चलते हैं.” मेरी बेटी झकझोर कर हिला रही है मुझे.

”चलो, तुमने जिधर जाना है, चले चलो.”

”पापा, तुम खोये हुए लगते हो.”

”नहीं, नहीं.”

”तुम्हें पता है, मैं कौन-सा मंदिर देखने जा रही हूँ?”

”कौन-सा ! जिसका तूने अभी नाम लिया था.”

”कौन-सा भला?”

”चरण पादुका, और कौन-सा.” मेरी बेटी को इन बातों में इतने गहरे नहीं उतरना चाहिए.

”तुम्हें इस मंदिर का इतिहास पता है?”

”नहीं, तुझे पता है तो बता.”

”कहते हैं जब कुआंरी वैष्णो माता के पीछे कामातुर भैरों दौड़ा आ रहा था, तो सारे ब्रह्मंड का चक्कर काटने के बाद यहाँ आकर माता ने पीछे मुड़कर देखा था. वहाँ अभी तक उनके पैरों के निशान बने हुए हैं.” माँ से सुनकर घोटा लगा रखा था उसने. भला इसे, पीछे मुड़ कर देखने वाली बात की क्या समझ? सोच पलों में ही किधर की किधर चली जाती है. अब मन कर रहा है कि रजवंत भी कभी पीछे घूम कर देखे.

”पापा, हम इसी मंदिर में बैठेंगे… जब अम्मा आ जाएगी, तभी उनके साथ चल पड़ेंगे.” नहीं नहीं, मेरी बेटी… पर मैं यह किस भटकन में हूँ? मेरा मन किससे भयभीत हो रहा है? कहीं रजवंत के बारे में मेरा निर्णय? पर नहीं… मैं जाकर उससे पूछ ही लूंगा. यूँ ही मन पर मुफ्त का बोझ उठाये घूमने से दो टूक बात हो ही जानी चाहिए.

”पापा, तुम कहाँ खोये हुए हो?”

”नहीं नहीं, कहीं नहीं. मैं चाहता था, हम अब वापस चलते हैं. वहाँ से तेरी अम्मा के साथ ही चलेंगे.” मेरी ज़बान में कंपकंपी क्यों?

”पर क्यों?”

”मुझे डर लगता है.” मेरी बेटी मुझे भीतर तक पढ़ने की कोशिश करती है. उसकी दृष्टि का मैं सामना नहीं कर पा रहा हूँ. अब सोच रहा हूँ, मैं अपने मन की बात कैसे कह गया?

*

यह कैसे सोच लिया डाक्टर ने? मेरे मन में तो ऐसा कुछ भी नहीं है. पर अगर मन में कुछ नहीं तो मैंने डाक्टर को क्यों बुलाया? पर इसका मतलब यह भी तो नहीं कि मैं उसकी तरफ खिंच गई हूँ. यह बात अलग है कि कई बार मन का रहस्य आदमी खुद भी नहीं समझ सकता. पर डाक्टर को मैंने बस यूँ ही सरसरी तौर पर निमंत्रण दे दिया था. फिर वह इसे इस नज़रिये पर कैसे ले गया. यह भी तो हो सकता है कि डाक्टर ही आकर्षित हो गया हो. मिंदो की बात सच हो सकती है. वैसे वह बड़े पते की बात करती है. कहती है- ”बीबी, अकेली औरत को देखकर तो निकम्मा आदमी भी हाथ डालने को फिरता है.” पर ये सब हाथ डालने को ही क्यों फिरते हैं? इनकी सोच सिर्फ़ एक ही धुरी पर क्यों टिकी रहती है? क्यों इनके हर शब्द के पीछे सिर्फ़ जड़ सोच ही बोल रही होती है?

”घर बैठा पढ़ा-लिखा बंदा तो यूँ ही जड़ हो जाता है.” आखिर डाक्टर के मन में है क्या कुछ?

”नहीं नहीं, डाक्टर साहब, ऐसी कोई बात नहीं. दरअसल, मेरे सामने परिवार की यह इच्छा है कि मैं नौकरी न करूँ. वैसे भी हमें किसी बात का अभाव नहीं है.” यह भी तो जानता ही है कि मुझे नौकरी की क्या ज़रूरत?

”पर अगर औरत नौकरी करती है, तो वह अपने आप को बंधन में नहीं महसूस करती. आर्थिकता की कुंजी तुम्हारे हाथ में हो, तो तुम अपने आप को सेफ समझते हो, नहीं तो आदमी खुद-ब-खुद ही गुलाम बनकर रहता है. बेशक यह अहसास उसे नहीं भी होता हो, पर होता वह गुलाम ही है. और फिर नौकरी करने वाले के विज़न में वृद्धि होती है. घरेलू औरतें तो बस घरेलू ही होती है. अब तुम इतने पढ़-लिखकर घर में बैठे रहते हो… बिलकुल घरेलू औरत की तरह… वही फियूडल ख़यालों वाली…”

”तुम उस दिन आए क्यों नहीं?” यह सवाल मैंने क्यों कर दिया. क्यों मैं डाक्टर की बातों को काटने वाला जवाब नहीं दे रही? आखिर, क्या है जो मुझे बोलने नहीं दे रहा?

”वैसे ही, हम वैष्णो देवी की यात्रा पर निकल गए थे.”

”कमाल है, तुम तो अपने आप को तर्कशील कहलाते हो. फिर…?”

”पर मैं किसी का दिल नहीं तोड़ता. घरवालों का विचार था कि यात्रा पर निकला जाए और मुझे संग चलने की हिदायत थी. सो, मैं चला गया.”

”एक मिनट बैठो, मैं चाय बनाकर लाती हूँ. बातों-बातों में याद ही नहीं रहा.” वैसे यह ना कर दे और चला जाए तो ठीक है.

लेकिन यह बात मेरे अंदर क्यों उठ रही है. यह जो भय है, मेरे मन-मस्तिष्क पर प्रेत के साये की भांति छा गया है. कहीं डाक्टर की वह बात सच तो नहीं? कहीं मेरे मन के किसी कोने में से कुछ सरक गया हो. मनुष्य के मन का क्या पता. कहीं मैं बातों-बातों में कोई संकेत तो नहीं दे बैठी? पर मैं पूरी तरह सचेत हूँ. हाँ, पूरी तरह जाग्रत अवस्था में किसी से बात करती हूँ. हाँ, अब भी जाग रही हूँ. अब मैं चाय बना रही हूँ. चाय में उबाला आ चुका है. मैंने फ्रिज में से दूध का गिलास उठाकर उबलती चाय को शांत कर दिया है. उंगली डुबो कर मीठा देखती हूँ. बिलकुल ठीक है. डाक्टर इसी तरह की चाय पसंद करता है. यह क्या? मैं डाक्टर की पसंद को इतना बारीकी से समझ गयी हूँ ! कुछ तो है जो मेरे अवचेतन को अपने वश में कर रहा है. कहीं वो डाक्टर की ओर तो नहीं खुलता? कई खिड़कियाँ बहुत सूक्ष्म होती हैं. पर नहीं, मैं इतने छोटे-छोटे विवरणों में क्यों खोती जा रही हूँ?

”लो, चाय पियो. तुम्हारे टेस्ट की है.” न चाहते हुए भी टेस्ट की बात कैसे कर गयी मैं? पर इसका अर्थ यह तो नहीं कि मैं डाक्टर को चाहती हूँ और डाक्टर भी बात का यही अर्थ निकाले. पर कुछ भी हो, मुझे इस बात का सिरा ज़रूर खोजना चाहिए जिसके कारण डाक्टर ने इतनी बड़ी बात बड़े सहज तरीके से कह दी.

”एक बात और है. इस अकेलेपन में तुम जीती कैसे हो?” डाक्टर बहुत गरम चाय पीने का आदी लगता है. उसने तो चाय खत्म भी कर दी.

”बस, यूँ ही… पर मुझे तो कभी अकेलापन महसूस होता ही नहीं. मैं छोटी-छोटी चीज़ में खुशी ढूँढ़ लेती हूँ. मुझे पशुओं से प्यार करके खुशी मिलती है. मैंने कुत्ता पाल रखा है. घर में छोटे-छोटे फंक्शन करती रहती हूँ. सहेलियाँ भी आती-जाती हैं. वक्त का पता ही नहीं चलता. और फिर मेरे पास मेरे माता जी हैं…उन्होंने आज तक कभी अकेला महसूस नहीं होने दिया.” यह सारा झूठ मैंने डाक्टर से क्यों बोला? क्यों नहीं मैं सब कुछ सच बता देती? अब मन बेचैन हो रहा है. अब तो डाक्टर यहाँ से चला ही जाए. और अब तो माता जी के भी आने का समय हो गया है. मिंदो भी गोबर-कूड़ा करने आने ही वाली है. वह तो पता नहीं, क्या का क्या बनाती रहती है. पर यह तो लगता है, अपनी बात के जवाब की प्रतीक्षा कर रहा है. यह भी क्या जबरदस्ती है? एक खामोश दबाव… इसे अब चले जाना चाहिए. घबराहट-सी महसूस हो रही है. डाक्टर से कह दूँ… पर इसे यह सब समझना चाहिए. भला हर बात बंदा मुँह से तो नहीं कहता.

”अच्छा जी, मैं चलता हूँ. मेरी कोई बात बुरी लगी हो तो…”

”नही नहीं, डाक्टर साहब…” कोई तो कारण होगा ही जो उसने ऐसी बात कही होगी. नहीं तो कोई आदमी इतना मूर्ख नहीं होता. वह पढ़ा-लिखा है. वैसे भी बहुत सारे पढ़े-लिखों से ज़हीन है. वह आदमी के दिल की बातें समझता है. आदमी को बहुत कुछ की ज़रूरत होती है. अकेली पैसे की दौड़ ही तो सब कुछ नहीं… पैसे के बगैर भी तो ज़िंदगी में बहुत कुछ घटित होता है. उसे समझने के लिए मानव वाला विवेक भी तो आदमी में होना चाहिए. इतनी बारीक तांतें हैं आदमी के मन की !

डाक्टर को लेकर सोचना खत्म ही नहीं होता. मिंदो आ गयी है. चाय पीते हुए पूछती है-

”बीबी जी, मुझे एक बात समझाओ. बात यूँ हुई कि अपना ये जो डाक्टर है, वही जो अपनी झोटी की दवा-दारू करता है, वो किसी के साथ बात कर रहा था. कहता था- अंधे तो अंधे होते ही हैं, कई आँखों वाले भी अंधे होते हैं. मुझे उसकी इतनी बात ही सुनाई दी. मैं तब से सोचे जा रही हूँ कि भई इसका क्या मतलब हुआ.”

मैं तो चाहती थी कि मिंदो डाक्टर की बात न छेड़े, पर इसने तो आते ही वही बात शुरू कर दी, जिसकी आस ही नहीं थी. ‘कुछ लोग आँखों वाले होते हुए भी अंधे होते हैं’ नहीं, उसे कहना चाहिए था कि वो अंधे होने का ढोंग करते हैं. बिलकुल इसे ढोंग ही कहना चाहिए था. यहाँ तो बल्कि अंधे भी अंधे नहीं होते. अब मुझे इस बात का पूरा भय है कि मेरी सास को इस बात की अवश्य भनक पड़ जाएगी कि मेरा डाक्टर के प्रति कोई रुझान है. पर जब ऐसा नहीं है तो मुझे यह कौन सा वहम चिपट गया है? पर क्या मालूम, वह यही सोचती हो. वह जब कुछ नहीं बोल रही होती, उस वक्त उसके अंदर बहुत कुछ उबल रहा होता है. उसके मन का भी पता नहीं चलता. वह तो पता नहीं, कहाँ-कहाँ से बातें निकाल लाती है. सामने वाले के पेट की बात बता देती है… अब तक तो मैं बची रही हूँ, पर पता नहीं कब, किस समय वह बरस पड़े. मेरे विवाह के बाद जब तक वो घर पर रहे, तक तक इसका व्यवहार कुछ और ही था. पर उसके जाने के बाद अब बिलकुल बदल गया है. पहले तो जैसे मैं इसकी सौतन थी, उनसे मुझे अलग करती रहती थी. बात बात पर उन्हें मेरे खिलाफ भड़काती रहती थी. वो जितना मेरे से दूर रहते, यह उतना ही खुश होती. पहले तो बिलकुल ही डर गयी थी और वह डर अभी भी बना हुआ है. पर अब जबसे वो बाहर गए हैं, इसके स्वभाव में अजीब परिवर्तन हुआ है. पर फिर भी इसे कभी-कभी दौरा-सा उठता है. मन में हर समय धक्-धक्-सी लगी रहती है. पर मेरी किसी-किसी बात पर खुश भी हो जाती है. जब मैं अपने मायके से डरते-सहमते कुत्ता लेकर आयी थी तो इसने बुरा कहने की बजाय अच्छा ही कहा था. मेरी साँस में साँस आयी थी. फिर इसने उसे स्वयं बड़े लाड़-प्यार से पाला. अब भी यह कुत्ते के बग़ैर दो पल नहीं रहती. मुझे अच्छी लगती है, पर फिर भी…

”बीबी जी, क्या सोचने लग पड़े?” मिंदो ने पूछा है.

”कुछ नहीं… मैं तेरी बात के बारे में सोच रही थी. असल में डाक्टर के कहने का मतलब होगा कि कई आदमी अपनी माया के गुरूर में अंधे हो जाते हैं.” क्या मुझे यही कहना था? क्या मिंदो की बात का यह उत्तर था? दूसरा भी हो सकता है. इसके लिए यही ठीक है. पर क्या यह ठीक है? बहुत कुछ हो सकता है, डाक्टर की बात के पीछे. पर मैं उसके बारे में क्यों सोचती रहूँ? दूसरे काम भी करने हैं. लेकिन कामों के साथ सोचने का तो कोई वास्ता नहीं. क्यों नहीं वास्ता? मैं पूरी तरह जागते हुए सारा काम करती हूँ. मैं अंधों वाली ज़िंदगी नहीं जीती.

माता जी लौट आए तो मिंदो चली गयी. चलो, एक बात तो अच्छी हो गयी, नहीं तो वह न जाने क्या अनाप-शनाप बकती रहती. क्या मालूम डाक्टर के बारे में ही कोई बात छेड़ बैठती, यह तो ‘बुढ़िया’ को भी ‘कमले चाचा’ के साथ जोड़ कर बातें बनाती रहती है.

”पुत्त, मुझे तो रोटी खाकर आराम करना है. तू सब कुछ संभाल कर पड़ जाना. मैं थोड़ा थकी हुई हूँ.”

”कोई बात नहीं माता जी, आप आराम करो, मैं खुद संभाल लूँगी.”

”खड़के का ध्यान रखना पुत्त, मैं ज्यादा थकी हुई हूँ.”

”कोई नहीं…” अच्छा हुआ ये थकी हुई है. आज मन कहीं टिक नहीं रहा. नहीं तो इसने किसी न किसी बात पर पकड़ लेना था. इसके आगे झूठ भी कोई नहीं बोल सकता. पता नहीं, कैसे इसे कोई महक आ जाती है. फिर तुम इसकी अंधी आँखों का भी सामना नहीं कर सकते. आज अगर इसे डाक्टर के आने का पता लग जाता, तो पता नहीं क्या का क्या बना छोड़ती. पता नहीं इसे… पर अच्छा हुआ, थकी हुई आई है. अब सो जाएगी. पर क्या मैं सो सकूँगी? लगता है, आज की रात भी… डाक्टर ने भी अजीब सवाल मेरे सामने रख दिए हैं. मुझे कोई बात समझ में नहीं आ रही. इससे तो मिंदो अच्छी है. वह फैसले तो फटाफट लेती है. घरवाला शराबी-कबाबी है. खुद घर चलाती है. पर क्या मैं डाक्टर की बातों का समर्थन कर रही हूँ? नहीं नहीं, यह गलत है. तुम सिर्फ़ मर्द की किसी खास इच्छापूर्ति की खातिर ही नहीं जीते. क्या व्यक्ति की सिर्फ़ एक ही इच्छा होती है? औरत भी क्या मर्द की तरह सिर्फ़ उसी इच्छा के लिए ही जीती है? नहीं नहीं, यह नहीं हो सकता. हर बात, हर शब्द का अर्थ सिर्फ़ वही नहीं होता, जहाँ बंदे की सुई अटकी हो. उसके और भी बहुत सारे अर्थ हो सकते हैं. पर मैं क्या यही सोचती रहूँगी या…

अरे ! यह क्या ! ये खटका कैसा हुआ है? कमाल है, इतना मोटा चूहा ! यह बाहर से खेतों में से आया है. ”शी…ई…ई…” यह तो डरता ही नहीं. आगे से आँखें निकालता है. यह तो घर में ऊधम मचा देगा. ”शी…ई…ई…” फिर नहीं टला. चलो, गया परे. पर अगर रसोई में चला गया तो कहीं बर्तन ही न तोड़ डाले. अगर कहीं माता की नींद टूट गयी तो… लो, फिर वापस आ गया. क्या पहलवानों की तरह चक्कर लगा रहा है. पूंछ भी कितनी बड़ी है, काली स्याह. इतना बड़ा चूहा तो मैंने कभी नहीं देखा. अगर लाईट न जल रही होती तो मेरी तो जान ही निकल जाती. देखूँ, क्या करता है? हाय, मेरे बिस्तर पर न आ जाए. लो, ये तो प्लेट के साथ खेलने लग पड़ा. इसके पैरों में तो प्लेट भी छोटी लग रही है. ”शी…ई…ई…”

”बेटी रजवंत, क्या हुआ?” लो वही बात हो गयी.

”कुछ नहीं माता जी, चूहा आ गया मोटा. बाहर से आया है.”

”पुत्त, इसके जूती मार… यह तेरी शी..ई…ई से नहीं भागने वाला?” अब इसकी नींद खुल गयी है. यह सोने नहीं देगी. मेरी तो शामत आई समझो. धीरे-धीरे पता नहीं यह कब पूछ लेगी, ”आज डाक्टर आया था?”

”ऊई…” डर गयी हूँ. पता नहीं कब माता ने छित्तर मार कर शिकार को पहली बार में ही चित कर दिया है.

”यह तो मर गया.”

”तो तू क्यों डर गयी. जा, अब चिमटे से पकड़ कर बाहर फेंक आ.” बस, अब तो पूरी तरह फंस गयी. नींद भी पता नहीं कहाँ चली गयी है. डाक्टर को खुद ही सोचना चाहिए था. ऐसे भी क्या कोई किसी को फटाक से कुछ कह देता है. पढ़ा-लिखा है. इस तरह किसी की नींद हराम करने का किसी को क्या अधिकार? दूसरा पता नहीं अपने घर में कैसे रहता है, कैसे नहीं रहता है.

”बत्ती बंद कर ले अब.”

”अच्छा जी…” इसे कैसे कहूँ, मुझे डर लगता है आज. पर इसे बत्ती से क्या? इसके लिए तो अंधेरा ही अंधेरा है. फिर यह… चलो, अपनी आँखों पर पट्टी बाँध कर देखती हूँ. सचमुच, सब कुछ ही गायब हो गया है. अंधेरा ही अंधेरा. कैसे जीते हैं ये नर्क की ज़िंदगी? मेरा तो दो मिनट में ही मन बेचैन होने लगा है. पर अब मैं यह पट्टी नहीं खोलूँगी. क्या मालूम, खेल खेल में ही नींद आ जाए.

*

”मुझे तो चलो दिखता नहीं, कुत्तों को तो रात में भी दिखता है. नींद तो आ ही नहीं रही. अगर इसने किसी खटके का ध्यान ही नहीं रखना तो इस कुत्ते को रोटी डालने का क्या फायदा. सारी रात मुझे आहट सुनाई देती रही और इसने कान ही नहीं धरा. कुत्ते तो यूँ ही हवा को भौंकते रहते हैं.” मन तो करता है, रजवंत को वो सब कुछ सुना दूँ, पर क्यों? वैसे इसे भनक तो लग जानी चाहिए थी. अब भी बोली नहीं. कोई बात तो है ज़रूर. नहीं तो इसने ज़रूर कुछ कह देना था. रात से अजीब सी घूम रही है. सेहत तो ठीक लगती है, पर सारी रात करवटें बदलती रही है. मिंदो ने भी कोई बात नहीं की, नहीं तो वह कुछ न कुछ खबर दे जाती थी.

”माता जी, आप कुत्ते की बात कर रहे थे?”

”तो और क्या…तुझे भी शायद पता नहीं चला. सारी रात कोई पराई शै घूमती रही है.” यह ज़रूर सोचेगी, बुढ़िया के कान बजते हैं. नहीं बेटी ! मैंने ज़िंदगी यूँ ही नहीं गलाई है. अब तक जून नरक में काटी है. यह तो मुश्किल से बेटे ने गाड़ी पटरी पर बिठाई है. उसके बाप ने तो मुझे अंधा कर दिया. अच्छी भली खाते-पीते घरों की बेटी ने कौन-से पापड़ नहीं बेले, इस घर में आकर. पर रब्ब ने क्यों, मैंने तो खुद अपनी दुश्मन ने अपनी आँखें गवांई है. नहीं तो देख सकती इस तरह उसे किसी दूसरे के साथ… पर वो भी क्या करता? फिर भी अगर मुझे रोग ही इस तरह का लग गया था तो मैं क्या करती? अब यह तो रब्ब के वश में होता है. अगर बंदे के वश में हो तो और बात है. अब वो वक्त याद करती हूँ तो रोयें खड़े हो जाते हैं. रब्ब ने उस बीमारी से छुटकारा भी कब दिलाया, जब वो हमसे दूर चला गया. पता नहीं, क्या अचानक दु:ख का पहाड़ हम पर टूटा? फिर तो दु:ख पर दु:ख. पुत्त, हमारे जितने दु:ख तो वैरी दुश्मन पर भी न पड़ें. अच्छा भई दाता ! अब तो तू ही टूटे हुए को जोड़ने वाला है. सब कुछ तेरे ही हाथ है. अगर बंदे के हाथ में हो तो वह न्याय की तराजू में सुख ही सुख तोले, दु:ख का निशान न रहने दे.

”भाभी… हम तुम्हें सरपंची के लिए खड़ा कर देंगे. फिर तो हमारे लिए पेटी शराब की आएगी.” ले, इस कमले ने भी मार लिया. अब पता नहीं कहाँ से आ गया, आलतू-फालतू मारने को. बेचारा. इसके भी अगर चार खेत होते तो ब्याहा जाता.

”रजवंत ! बेटी ! ये अपने चाचा को चाय पिला. ये मेरे लिए लाया है, सरपंची का टिकट. क्या पता ये प्रधानमंतरी बन जाए… फिर इससे ज़रूरत पड़ेगी.”

”नहीं भाभी, हमने तुमको बता दिया. तुमने जितना काम किया, जिंदगी में उसके बदले मुझे तुमको सरपंची देनी है… और शराब का ट्रक… और फिर ये सामने वाली सड़क उनके बाप की है? मुझे कहते हैं- इस पर न चल. मैंने तो खूब गालियाँ सुनाई हैं उनको. मुझे पता है, अगर तुम सरंपच बन गए…”

”अरे ! अगर मैं सरपंच बन गयी तो लोग कहेंगे कि अंधा बांटे रेवड़ी, मुड़-मुड़ अपनो को दे.”

”पर तुमने तो शराब बांटनी है.. और लाओ जी, चाय का गिलास… गिलास तुम्हें परसों लौटा दूंगा.. तुम बनना सरपंच और लोगों के कराने फैसले…” इसने तो गुण गाते हुए ही जाना है. इसे कमले को क्या पता कि फैसले करने कितने कठिन होते हैं. एक एक बोल तोल कर बोला जाता है. लोगों की आँखें चारों तरफ लगी होती हैं, जैसे खा जाना हो. आजकल किसी को तो क्या, तुम अपने बेटा-बेटियों को कुछ नहीं कह सकते. यहाँ तक कि तुम जुबान नहीं खोल सकते. बस, अन्दर ही अन्दर खौलते रहो. अगर किसी को अक्ल की बात कह दी, तो वे टूट कर पड़ जाते हैं. या तुम्हारी बात सुनेंगे ही नहीं. कभी-कभी तो लगता है, ऐसे जीने से तो मरना बेहतर… तुम अपनी बात भी नहीं कह सकते. भला इसमें उसकी भलाई ही है. कोई किसी का दोषी तो नहीं होता. पर हम तो अंधे हैं, इन आँखों वालों को ही ज्यादा दीखता होगा. ये भी तो संसार को देखते हैं. अब इसका खसम है, वो आने का नाम तक नहीं लेता. अगर किसी और को बुलाकर उसे चिट्ठी लिखवाऊँ तो फिर बखेड़ा पड़ेगा… अगर इसे सीधे-सीधे कहूँ तो…

”भाभी…” लो, फिर आ गया.

”आजा… आजा… हाँ, बता.”

”मैं तुम्हारा गिलास लौटाने आया था, जो चाय परसों ले गया था… और फिर सड़क उनके…”

”रे, चाय तो तू अब लेकर गया था और बात कर रहा है परसों की.”

”ओए, चलो कोई बात नहीं… पर तुम बताओ कि कोई तुम्हें कहे कि तुम दो नावों में पैर रखो और सरपंची करो… फिर तुम क्या कहोगे?” पता नहीं इसकी आत्मा कैसी है. मैंने तो कई बार प्रत्यक्ष देखा है. यह सहज भाव ही कुछ कहे, पर होती इसके मन की है. उस परामात्मा की भी किसी ने थाह नहीं पायी. भला इस भले मानस को कौन बताये, कि बंदा जानबूझ कर भी कभी कुछ करता है. वो तो बहुत कुछ ही सारी उम्र अपने साथ लिये घूमता है. अब वो आप मर गया, पता नहीं कितना कुछ था मन में उसके. अगर बता देता तो शायद… कम से कम मेरे मन को ही तसल्ली हो रहती. बंदे के वश की बात नहीं होती मूर्ख. विधि का विधान होता है. उसके मुताबिक ही सारी कायनात बसती है. वही दुखों-सुखों का मालिक है. बंदा तो कुछ भी करने लायक नहीं, अगर कुछ करता है, वो ही करता है…

”चाचा जी, रोटी ला दूँ.”

पता नहीं, आज यह उखड़ी-उखड़ी किस बात पर है. अगर मैंने इस हालत में इसके साथ बात की तो कहीं… नहीं नहीं, वैसे इतनी बुरी नहीं है. बड़े-छोटे की समझ है. शायद, औरतों वाले हाल में हो. पर यह पहले तो ऐसे उखड़ी-सी नहीं हुआ करती थीं इन दिनों. हाँ, ढीली-सी चला करती है. क्या पता कुदरत का? पर ये मेरे साथ बात करे. घरवाला दूर बैठा है तो क्या हुआ, मैं तो नज़दीक हूँ. वो भी मेरे आसरे छोड़ गया है इसको.

”लो जी, माता जी आपको भी डाल दूँ रोटी.”

चलो, अब रोटी खाने जब बैठेगी तो फिर बात करुँगी. बात करने में वैसे हर्ज भी क्या है. जो होगा, देखा जाएगा.

”अच्छा, डाल दे फिर. अपने लिए भी डाल लेना.”

और फिर, यह कमला भी पास में है. अगर बुरा लगेगा तो ऊँची आवाज़ में भी नहीं बोलेगी. दिल पर पत्थर रख ही लेगी.

”लो, माता जी.”

”बैठ जा पुत्त. मुझे तेरे साथ एक बात करनी है.”

”एक मिनट, मैं पानी ले आऊँ.”

”अच्छा ले आ.” यह अभी भी उखड़ी-उखड़ी है. कहीं कोई ज्यादा…?

”लो जी… बताओ, आप कोई बात करने लगे थे.”

”पुत्त…पुत्त… यह तेरा चाचा जब भी आया करता है, इसे रोटी-पानी दे दिया कर. क्या पता, रब हमें इसके पैरों के बहाने देने लगा है.”

पता नहीं क्यों मैंने अपने आप को ढक लिया है? इसे कह नहीं सकी कुछ भी. यह मेरे वश में नहीं. हाँ, अपने आप को ज़रूर आग की भट्टी में फेंके रखूँगीं. सारी उम्र ऐसे ही तो गुजारी है.

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