आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

यात्रा: चरण सिंह पथिक

पिछले कई दिनों से दो चीजें गाँव में लगातार उद्घोषणाएं करती हुई घूम रही हैं. एक जीप अगर आठ बजे सुबह गाँव का चक्कर लगाती तो दूसरी जीप नौ-दस बजे चक्कर लगा जाती. दोनों में ही लाउडस्पीकर लगे हुए हैं. दोनों के बोनट पर झंडा लगा हुआ है. एक पर सनातनी भगवा झंडा तो दूसरी पर लाल झंडा जिसके किनारों पर चमकीला गोटा लगा हुआ है. आजू-बाजू की जगह बैनरों ने घेर रखी है.

पूरा गाँव पोस्टरों, पम्फ्लेटों और बैनरों से अटा पड़ा है. शाम तक या कभी-कभी तो देर रात गए तक उद्घोषणा यु़द्ध चलता रहता. लोग ऐसे सहम जाते जैसे कि गाँव में कर्फ्यू का ऐलान हो रहा हो.

जीप में लाउडस्पीकर पर गिर्राज भक्त मण्डल के प्रचारक का स्वर हवा में गूंजने लगता है, ‘‘भाईयों और बहिनों! बड़े हर्ष के साथ आप सभी गाँव वालों को सूचित किया जाता है कि गिर्राज भक्त मण्डल के तत्वाधान में और श्री श्री 1008 संत श्री बजरंगदास जी की छत्र-छाया में श्री गोवर्धन महाराज की प्रथम पदयात्रा का आयोजन किया जा रहा है. जो अमुक तारीख को फलां समय पर दाऊजी के मंदिर से प्रस्थान करेगी. यात्रा में नाश्ता-भोजन और चिकित्सा का प्रबंध भक्त मण्डल की तरफ से किया जाएगा. यात्रियों को बोनस के रूप में भण्डारे का अंतिम भोजन भी भक्त मण्डल की तरफ से दिया जाएगा. यात्रा का शुल्क मात्र दो सौ एक रूपैये रखा गया है. भक्त गण कृपया गिरधारी लाल मेडिकल स्टोर और लाला प्रभु दयाल थोक मर्चेन्ट से रसीद कटा कर यात्रा का पुण्य प्राप्त कर सकते हैं.”

लोग ठीक से इस उद्घोषणा को सुन पाते और उस पर अपने घरेलू स्तर पर कुछ विचार-विमर्श कर पाते इससे पहले ही दूर से फिर एक और उद्घोषणा की आवाज नज़दीक आती सुनाई देती है. गाँव का टेढ़ा-मेढ़ा भूगोल…! एक ढाणी मुख्य बस्ती से एक किलोमीटर दूर तो दूसरी-तीसरी ढाणी दो किलोमीटर दूर…! पास आती आवाज पर लोग फिर कान लगाते.

‘‘माताओ-बहिनों और मेरे बुजुर्ग एवं नौजवान बंधुओ! बड़े गर्व के साथ आप सभी को सूचित करते हुए हमे अपार खुशी हो रही है कि अन्य गांवों की तरह आप के गाँव से मां दुर्गे भक्त मण्डल के सौजन्य और भगत शिरोमणी लंगड़े बाबा के सान्निध्य में कैलादेवी की प्रथम पदयात्रा का आयोजन किया जा रहा है. हम सभी गाँववासियों के लिए बड़े सौभाग्य और गर्व की बात है कि इस पर्व पर हमारी बस्ती पर भी मां दुर्गा की कृपा दृष्टि हुई है. आप सभी से निवेदन है कि आप इस पदयात्रा में ज्यादा से ज्यादा संख्या में भाग लेकर इसे सफल बनावें. और पुण्य लाभ प्राप्त करें. भाइयो, पदयात्रा का शुल्क मात्र डेढ सौ रूपये रखा गया है. डेढ सौ रूपया कोई माई-बाप नहीं होता इसलिए आप दुर्गा खाद-बीज भण्डार एवं भवानी जनरल स्टोर से डेढ सौ रूपये की रसीद कटाकर पुण्य का अवसर हाथ से न जाने दें.”

उद्घोषणा बंद होते ही लखवीर सिंह ‘लक्खा’ और चंचल की आवाज में शेरों वाली मां के भजन हवा में गूंजने लगते.

लोग असमंजस में है कि किधर जाया जाए…? कहीं जाया भी जाए या नहीं….? गाय-भैंसों के लिए घास-पात भी लाना जरूरी है. बच्चों को वक्त पर स्कूल भी भेजना है. तिल, मूंगफली और बाजरे की फसलों की रखवाली भी करनी है. घर की सुरक्षा भी सभी के दिमाग में है. चोरों का हल्ला रोज ही सुनाई देता है. एक दिन की बात तो है नहीं कि सुबह गए और शाम को लौट आए. चार-पांच दिन पैदल चलना है. वापस आने पर तीन-चार दिन तक यात्रा कि थकान रहेगी. कुल मिलाकर आठ-सात दिन का काम छूटना ही छूटना है. लोग अपनी-अपनी सुविधा के मुताबिक व्यवस्था का हिसाब लगाते हैं.

सास, बहू को समझाती है, ‘‘तू अगले बरस चली जइयो. इस साल मैं हो आऊं.”

बहू भी सुझाव देने में कहां पीछे रहती, ‘‘आप गोवर्धन हो आओ. मैं कैलादेवी….”

‘‘और घर का काम…?’’ सास आंखें तरेरती.

‘‘जीजी है ना”. बहू विकल्प तलाश लेती.

‘‘ना बहू! मैं तुझे अकेली नहीं जाने दूंगी.” सास अब नया पैंतरा बदलती है.

‘‘अकेली कहां…! इतने सारे औरत-मर्द तो जाएंगे.‘”

‘‘जमाना जाए जी हमें क्या…. मेरा तो फिर भी जी नहीं करता. नई नवेली को जोड़ा से जात करनी चाहिए. उस यात्रा का पुण्य ज्यादा होता है. अब बेटा नौकर्या है. जब छुट्टी आये तब जोड़ा से जाना ठीक रहेगा.‘‘ सास तर्क पर तर्क देकर बहू को पस्त कर देती है. ये घर-घर में है. बाप-बेटे में सामंजस्य नहीं बैठ पा रहा है. कहीं बच्चे साथ चलने की जिद ठाने हुए हैं. किसी की गाय-भैंस आजकल में भ्याने को है. किसी की बहू का पेट दर्द पिछले तीन-चार दिन से हो रहा है. किसी को मोटापे और किसी को बुढापे की वजह से तीन-चार दिन पैदल नंगे पांव चलना मुश्किल लग रहा है तो किसी किसी का बदन ज्वर-जुकाम से अकड़ा हुआ है. मगर फिर भी जाना तो होगा. बड़भागन से पुण्य का मौका मिला है. धर्म की जड़ सदा हरी रहती है. ज्वर-जुकाम, काम-धाम तो जिंदगी भर चलता ही रहता है और मरने तक चलता ही रहेगा.

‘‘माया-मोह में भूला भक्ति

बंद कर लै भजन हरि का….’’

ताई गुलकन्दी जब-तब औरतों में भक्ति की शक्ति का महत्व बताती रहती है. उसके पास धन्ना भगत, सदन कसाई, गणिका जैसे भक्तों के बहुत सारे किस्से हैं. पूरे गाँव में वह ‘भगतिन’ के नाम से पहचानी जाती है. अब तो उसके गाँव से एक ही दिन, एक ही साथ दो पद-यात्राएं जा रही हैं. वह तो दोनों का ही प्रचार करेगी. इसलिए उसे चैन कहां….!!

लेकिन जाएगी किसी में नहीं. आठ-सात दिन बहू को अकेली कैसे छोड़े…? जमाना खराब है भैया. उमर हो गयी देखते-देखते. अपना जमाना और था. अब तो नाशजायों में इतनी गरमी भरी है कि जहां-तहां पिचर-पिचर करते रहते हैं.‘‘ दादी गुलकन्दी रास्ते में मिली अपनी हम उम्र एक पड़ौसन को समझा रही थी.

‘‘सही बात है भैणा. मेरा भी जाना नहीं होगा. बहू को बाल-बच्चा होने वाला है.”

‘‘दिन पूरे हो गये?‘‘ ताई गुलकन्दी ने भक्ति की शक्ति को परे धकेलकर पूछा.

‘‘दस दिन ऊपर चढ़ गए जीजी.”

हाय मैया!! आजकल की इन दारी चिड़ियाओं की यही तो मुसीबत है. डाक्टर को दिखाते.

‘‘दिखाया.”

‘‘फिर…?”

‘‘फिर का चीरा लगाना पड़ेगा.”

‘‘राम-राम. चीरा को नाम सुण के मौकू तो भैया जाड़ो सो लग्यायौ. पर चिन्ता ना कर. कैला मैया सब भलो करैगी.‘‘ कहकर ताई गुलकन्दी आगे बढ़ गई. जब तक यात्रा नहीं जाएगी तब तक वह ऐसे ही रमठल्ला लगाती घूमेगी.

लोगों में हलचल है. शाम को आंगन में, बैठक में, चूल्हें से लकर बिस्तर तक यही चर्चा रहती.

लेकिन मूळया ऐसा नहीं सोचता. चार-पांच लोग इकट्ठे नजर आने पर वह चर्चा में जबरन शामिल हो जाता.

‘‘सब राजनीति है.”

‘‘धर्म के काम में काय की राजनीति….” सूंड्या सेठ तमक उठता है.

‘‘बणिया का जाणैं गाँव की राजनीति. तू तो डंडी मारना जाणता है सो मारे जा.”

‘‘देख मूळया, नेम की बात कर. धंधे और जात पर मत उतर.”

‘‘अरे हम सबकी जात औकात जानते हैं. धंधा भी समझते हैं. भोजन का राशन तुम्हारी दूकान से ही तो तय हुआ है.”

‘‘इसमें काय की राजनीति…? मेरे यहां से नहीं लेते तो कहीं से भी लाते तो सही?’’

‘‘जरूर लाते भैया. पदयात्रियों को भूखे थोड़े ही रखते. पर धंधा तो तुम्हारा ही हुआ.‘” मूळया अब भी अड़े हुआ था.

‘‘ये सब छोड़ मूळया. तू तो वो राजनीति वाली बात बता…..” रत्तिराम ने कहा.

‘‘ये सब संयोजक-आयोजक, व्यवस्थापक अगली सरपंची के दावेदार हैं. यात्रा के बहाने थोड़ी जन सेवा हो जायेगी. धर्म सेवा हो जायेगी.” मूळया ने रूपा की ओर आंख झपका कर अपनी जांघ पर थप्पी मारी.

‘‘हमें क्या मतलब?‘‘ रूपा ने महफिल भंग करते हुए कहा. वह डरकर जाने लगा तो एक-एक कर सभी चलने को हुए. जितने मुंह उतनी बातें. कहीं धर्म की चर्चा होती. कहीं राजनीति का गणित फलाया जाता. कहीं यह कि लोग कौनसी यात्रा में ज्यादा शामिल होंगे.

तीन दिन शेष रह गये थे.

दोनों भक्त मण्डल अपनी कार्यकारणी की अंतिम मीटिंग की व्यवस्था करने में व्यस्त थे. किसी को घंटे भर की दम मारने की छुट्टी नहीं है. सभी बिन्दुओं पर विचार अन्तिम रूप से होना तय है. रथ का डिज़ाइन कैसा होगा? इस पर पूरा ध्यान है. यात्रा की शोभा रथ का डिज़ाइन ही तो है. पानी का टेंकर. रसोइया. राशन. गैस सिलेण्डरों की व्यवस्था. तीन या चार किसान बुग्गा भी तय करने होंगे. रास्ते में कहां-कहां रात्री पड़ाव डाला जाएगा वे स्थान भी पहले से ही तय करने होंगे. यात्रा को हरी झंडी कौन दिखाएगा…? वो नेता भी पहले से ही तय कर सूचित करना होगा. हर कार्यकर्ता के पास मोबाइल सेट भी जरूरी है ताकि सम्पर्क बना रहे.

गिर्राज भक्त मण्डल की बैठक पीपली वाले बालाजी पर तय थी और मां दुर्गे भक्त मण्डी की बैठक करील वाले भैंरों बाबा के स्थान पर.

गाँव में सुबह से ही हलचल है. दोनों भक्त मण्डलों की कार्यकारिणी के पदाधिकारियों के मोबाइल झनझना रहे हैं.

‘‘पहुंचे-पहुंचे.’’

‘‘जल्दी पहुंचो मीटिंग तो शुरू भी हो चुकी है.‘‘

‘‘हैल्लो अरे वो कोषाध्यक्ष कहां अटक गया? क्या…? उसकी बीबी को आफरा चढा है.” अध्यक्ष तमक रहा है.

‘‘धर्म-कर्म में किसी की रूचि ही नहीं है. तभी तो धरती पर पाप बढ रहा है. अकाल पड़ रहे हैं.” केशव पंडित सभी को समझा रहा है.

शिवजी काना अलग से सुर लगा रहा है, ‘‘वो दुर्गा भक्त मण्डल वाले तारीख और समय आगे-पीछे नहीं कर सकते क्या…?”

‘‘वो तो यात्रा सम्पूर्ण होने पर उन्हें भी देख लेंगे. फिलहाल महाभारत की नींव क्यों लगाते हो? ” अध्यक्ष ने शिवजी काना को तसल्ली देकर शांत किया.

दोनों की मीटिंग में गहमागहमी है. तर्क-वितर्क हैं. छोटी-बड़ी आपसी खुन्नसें हैं. अलग-अलग गुट हैं. इन सबके बावजूद भी अजीब-सा घालमेल है. चचेरा भाई दुर्गा भक्त मण्डल में है तो ताऊ का लड़का गिर्राज भक्त मण्डल में शामिल है. एक मीटिंग में बाप गया है तो दूसरी वाली मीटिंग में बेटा…. सलाम की खातिर मियांजी को क्यों नाराज करें. कोउ नृप होय हमें का हानि? ये काम धर्म का ठहरा. एक तीन लोक का स्वामी है. एक सबकी महतारी. जय दुर्गा, जय गिरधारी. मनोहरी नाथ एक चक्कर अपनी साइकिल से दोनों क मीटिंग में लगाकर घर आया. शाम का झुटपुटा होने को था.

मटकी से एक लोटा पानी पिया. एक बीड़ी जलाकर चारपायी पर पसर गया. बीबी ने चाय का कप रखकर पूछा, ‘‘क्या निर्णय हुआ दोनों में…?”

‘‘निर्णय का राख होगा…. दोनों की वही जिद.”

‘‘फिर….?”

‘‘फिर क्या….. एक ही तारीख को एक ही समय दोनों यात्रा रवाना होंगी. कोई भी छोटे बाप का बनने को तैयार नहीं है. हम जैसे बीच वाले फालतू में कांय-कांय करके आ गए.”

‘‘सबको वोट चाहिए ना…!” उसकी बीबी ने कहा.

‘‘सही बात तो यही है. बाकी सब तो पोपलीला है. हम क्यों बुरे बनें.”

‘‘ठीक है. मैं कैलादेवी हो आऊँगी. मस्टरोल वोले पैसे भी मिल गये हैं.”

‘‘ये ही तो बात है. बड़ी मुश्किल तो एक बार तेरा नम्बर आया था. दो सौ रूपये तो वो मेट ही चट गया. तब जांच कार्ड बनाया. ये ससुरे देवी देवता क्या निहाल करेंगे.” दोनों यात्राओं में गाँव का कोई पांच लाख रूपया फुंकेगा. देख लेना” मनोहरी नाथ खीझ उठा.

‘‘बिना पैसे तो कफन भी नहीं मिलता. जिसमें ये तो धर्म का काम है. शुभ-शुभ बोलो. गई साल लाला की बीमारी पर माई की एक जात्रा बोली थी. इस बहाने वो हो जायेगी.” उसकी बीबी ने मन ही मन कैलादेवी का सुमरन कर माफी मांग कर कहा. सुनकर मनोहारी शांत हो गया. उसके लिए तो यही कैलादेवी से कम नहीं थी.

मगर उसके पड़ौस में रहने वाली कमली ताई अब भी जोर-जोर से बड़बड़ा रही थी. सुमेर ने आकर पूछा, ‘‘क्या हुआ ताई…?”

‘‘होगा क्या….! बहू को ज्वर चढा है और वो गैबी, निकम्मा, कुम्हेर्या अभी भी बालाजी पर पड़ा हैं.”

‘‘मीटिंग तो कभी की खतम हो चुकी है.” सुमेर ने बताया

‘‘तू भी था क्या…? ”

‘‘मैं तो दुर्गे भक्त मण्डल वाली में था. फोन कर पूछूं क्या….? ”

‘‘पूछ बेटा…… ” कमली ताई ने बहू के माथे पर गीला कपड़ा रखते हुए कहा.

सुमेर ने फोन लगाया

उधर से आवाज आयी, ‘‘कौन…? ”

‘‘मैं हूँ सुमेर. भाभी को ज्वर चढा है. ”

‘‘लो… आज मैं नहीं हूँ तो ससुरा बुखार चढ गया. कभी भूत प्रेत चढता है, ठीक होती है तो सिर चढता है. कोई उतरता भी है ! ”

‘‘तुम्हें मजाक सूझ रही है. ताई से बात कराऊँ क्या….? ”

‘‘रहने दे…! मैं यहां बालाजी पर हूँ. बाबा ने रोक लिया था. केशव पंडित भी साथ है. ”

‘‘तो फिर…? ”

‘‘अरे फिर फिर क्या…. तू भरोसी कम्पाउंडर को दिखा दे. मैं तो अब सुबह आऊँगा. ठीक है ना…! ”

‘‘ठीक है ठीक है. पर भैया ये तो बता तुम्हारी मीटिंग में क्या हुआ….?”

‘‘जो तुम्हारी में हुआ वही हमारी में होगा….. दो के साथ एक फ्री. दस साल तक के बच्चा-बच्ची की कोई रसीद नहीं.”

‘‘तो फिर हम अब दो के साथ दो फ्री करेंगे.” सुमेर ने दांव मारा.

‘‘कर लेना. कार्यकारिणी की सब पाद निकल जायेगी.”

‘‘वो तो बाद की बात है भैया! बंद करूं अब…?”

‘‘ओ. के…..” कुम्हेर ने अपने पास लेटे केशव पंडित पर एक नजर डाल कर कहा. दोनों की बातें सुनकर केशव के पेट में मरोड़ सी उठने लगी थी. लेकिन वह कुछ बोला नहीं. दोनेां ने एक-एक बीड़ी सुलगायी. बाबा ने बम-बम करते हुए लम्बी डकार ली. केशव पंडित को पुकारा, ‘‘पंडित, जरा पेट की मालिश कर दे.”

बाबा अन्दर वाली कोठरी में पीछे एक तख्त पर चित्त लेटा हुआ था. वे दोनों बाहर दालान में पक्के फर्श पर बिस्तर लगाकर लुढ़के हुए थे.

‘‘बाबा को मालिश के लिए एक चेली रखनी थी.” कुम्हेर ने केशव के कान में कहा.

‘‘है तो सही…..”

‘‘कौन है..?”

‘‘माया…..” केशव ने धीमी आवाज में बताया.

‘‘माया….” सब झूठ है यार.

‘‘जनेऊ की सौं…. मैने एक दिन आंखों से देखा था.” केशव ने दृढ़ होकर जोर से कहा.

‘‘धीरे बोल यार ! बाबा सुन लेगा.”

‘‘बाबा क्या घंटा काटेगा. तू कर दे मालिश.” केशव ने बुरा सा मुंह बनाया.

‘‘मुझसे नहीं होगा. तेल लगाना पंडित अच्छी तरह जानते हैं. बाबा भी पंडित ठहरा.”

‘‘अरे साधु की क्या जात यार. सबके सब तीन-तेरह हैं.”

‘‘लंगड़ा बाबा भी…?”

‘‘बिल्कुल…! वो तो और भी ऊंचा खिलाड़ी है.”

‘‘तू तो सबकी दाई निकला पंडित.”

‘‘मैं तो वहां भी जाता रहता हूँ. कभी-कभी रुक भी जाता हूँ. थोड़ी बहुत दान-दक्षिणा हाथ लग ही जाती है. क्या करें यार….. ये पंडिताई का धन्धा ही ऐसा है. साधु संत के बाने में जो आता है उसका आसरा लेना पड़ता है.”

बाबा ने फिर हांक लगायी.

‘‘अभी आया. दिशा मैदान हो आऊं. दाल में मिर्च ज्यादा डल गयी आज.” केशव जनेऊ कान में लपेटता हुआ बड़बड़ाया. फिर कुम्हेर के कान के पास अपना मुंह ले जाकर कहा, ‘‘लंगड़ा तो सटोरियों, चिलमियों का उस्ताद है. रात-बिरात अड्डा जमा रहता है.”

‘‘अब जो करेगा वो भरेगा यार.”

‘‘वो तो है ही. रोज टीवी और अखबारों में पोल खुल रही है.” केशव ने लोटे में पानी भरकर एक बीड़ी सुलगाई. बिना बीड़ी पिये प्रेशर बने तो कैसे? ढाणी और गाँव के बीच बालाजी का मंदिर. चारों तरफ तिल-बाजरे के खेत. उमस से बेहाल लोग घटाएं उमड़ती और चिड़िया की तरह मूत कर बिखर जाती. परसों यात्रा जानी हैं कल का दिन बीच में है.

नये सिरे से पम्फ्लेट छपवाये गए.

‘‘दो के साथ एक फ्री. दस साल के बालक-बालिका का कोई शुल्क नहीं.”

‘‘गिर्राज भक्त मण्डल का स्पेशल ऑफर. भक्तगण लाभ उठाएं. चलो गोवर्धन.

खुशखबरी…….. खुशखबरी…….. खुशखबरी…..!!!

‘‘यात्राओं के इतिहास में एक बेमिसाल धमाका. मां दुर्गा भक्त मण्डल का गाँव वालों को बेहतरीन तोहफा.”

‘‘दो के साथ दो फ्री. साथ में बारह साल तक बालक बालिकाओं की निःशुल्क यात्रा.” ऐसा अवसर बार-बार नहीं आता. भक्तगण जल्दी करें.

जय दुर्गें. जय अम्बे.

गाँव की हर कच्ची-पक्की दीवार ऐसे इश्तिहारों से भरी हुई थी. गली-गली में बैनर टंगे हुए थे. किसी में श्री कृष्ण अर्जुन के सारथी बने हुए थे. किसी में रासलीला में मगन थे. किसी में मां काली अपने चण्डी रूप में थी तो किसी में शेर पर सवार थी. देखते, पढ़ते. अखबारों के स्थानीय संस्करणों में दो-तीन दिन से खबर भी दोनों के द्वारा छपवायी गई. यात्रा की रवानगी के अवसर पर स्थानीय संवाददाताओं को भी हार्दिक आभार सहित बुलवाया था.

जिस दिन यात्रा जानी थी वो दिन भी आ गया. जैसे चुनाव में वोटिंग से पहले वाली रात होती है. कुछ ऐसी ही रात थी ये. जैसे सद्यःप्रसूता और उसके परिजनों के लिए जापे की छठवीं रतजगी. जैसे कि कत्ल की रात. जिनको जाना था उन्होंने सुबह चार बजे ही बिस्तर छोड़ दिया था. दिशा मैदान से फारिग हो स्नान ध्यान किए. यात्रा की जरूरत के मुताबिक सामान भी तो जमाना है. कांख में चौंसा, किसका भरोसा. खुद की चीज होगी तो मनमर्जी से इस्तेमाल कर सकेंगे. नहाने धोने के कपड़े, दरी-चद्दर, लोटा-गिलास, छोटा-मोटा सामान रखने के लिए एक थैला. दोपहर और शाम का भोजन. पहले-पहले दिन तो खुद को ही भुगतना होगा. मण्डल वालों की व्यवस्था तो होते से ही होगी. चार पांच सौ लोगों की व्यवस्था यूं ही है क्या…. बारात से भी बढ़कर नखरे होंगे. अब व्यवस्था कोई हलवे का गास तो है नहीं कि गप्प से गटका और जै गिर्राज जी की….

घर-घर में घंटोलीराम और झालरबाई टनटना रहे हैं. बाखर-बाखर बा-खबर है.

‘‘अरे, मेरी चड्डी कहां गई…?” किसी की चड्डी सुबह-सुबह आंख मिचौली खेल रही है.

‘‘मेरा वो हरे रंग वाला पेटीकोट तो…..! ये लाल वाला तो मैचिंग नहीं कर रहा है.” सुबह के पांच बजने वाले हे. लैम्प की मटमैली रोशनी में कहीं बहू तो कहीं सास मैचिंग के कपड़ों की जुगत में खीझ रही हैं. पतिदेव फनफना रहे हैं, ‘‘यात्रा में जा रही हो या गौने में….?”

‘‘तो नंगी चली जाऊं क्या…? रात को बहुत मना की. मगर तुम्हें तो दूधिया पीर चढा था ना.” पत्नी आंखे तरेरती है. पति चुप.

किसी को लोटा नहीं मिल रहा है. किसी को पैसे कम पड़ रहे हैं. कहीं-कहीं आंगन में गिलास ढनढना रहा है. कहीं बच्चे चलने की जिद में रोते चीखते दगड़े में लोट-पोट हैं.

जाने वालों के लिए देशी घी के परांठे बन रहे हैं. मिर्ची, कैरी, नींबू का अचार ढूंढ कर, मांग कर पाराठों के साथ बांधा जा रहा है. पड़ौस से जो मांगना है आज ही मांग लो. धर्म के नाम पर मना नहीं करेगा. धर्म की जड़ सदा हरी है भैया.

‘‘ये हल्दी का भी चख के देखना. बहू के मायकों वालों ने भेजा है.”

‘‘नींबू? मिर्ची का बहुत है काकी.”

रख ले, रख ले, किसी और के भी काम आएगा. सभी के घर अचार कहां रखा है.”

इसरार है. मनुहार है. घर घर जगार है.

‘‘धर्म का काम है वरना आडे दिन कौन कहे..? कौन पूछे लल्लू.”

‘‘आन्सी (पिछले) जन्म में जो किया वो अब भोग रहे हैं. जो अब करेंगे उसका फल अगले जन्म में भोगना होगा.”

जय हो पार्वती के ढोला. बम बम भोला. शिव… शिव…. शिव….

जाने वालों में जोश है. उमंग है. जो नहीं जा रहे हैं वे भी रात को ठीक से कहां सो पाए. उत्तर-दक्ष्णि दिशाओं में बजते लाउडस्पीकरों ने उन्हें जगाये रखा था दोनों भक्त मण्डल के पदाधिकारियों को तो नींद आने का सवाल ही नहीं था.

तीन चार दिन का राशन खरीद कर उसे किसान बुग्गे में लादना है. गैस सिलेण्डरों की ठीक से गिनती कर सावधानी से उन्हें रखना है. पानी का टैंकर भरना है. रथ में बाबा के साथ सेवक कौन होगा. यात्रा को हरी झंडी दिखाने वाले नेताजी को सुबह फिर से फोन कर वक्त पर पधारने का निवेदन करना. संवादाताओं को भी एकबार याद दिलाना होगा. अगैरह-वगैरह सब काम करने हैं. बहुत काम है जी. काम ही काम. घिसते-घिसते आदमी छोटा हो जाए, मगर काम ओछा नहीं होता. एक को याद करो तो चार पांच आ जाते हैं.

‘‘जै कैला मैया. पार लगाना.”

‘‘जय हो गोवर्धन गिरधारी.”

विदा करने वालों में सब्र है, इस बरस तुम जाओ. जिये-मिले तो हम अगली बरस जाएंगे.

‘‘गिर्राज भक्त मण्डल का प्रस्थान मुहूर्त केशव पंडित ने बारह बजकर बीस मिनिट बताया है. एक सौ एक रूपैया जजमान.” केशव पंडित ने हाथ पसारा.

‘‘मां दुर्गे भक्त मण्डल का मुहूर्त पौन बजे का निकला है. पंडित रामस्वरूप कथावाचक ने पंचांग देखकर बताया. “पौन बचे मंगल की बेला है. महिसासुर मर्दनी का फेरा है. दक्षिण की यात्रा शुभ है. दो सौ एक रूपया.‘‘ पंडित रामस्वरूप ने कोषाध्यक्ष की तरफ मुंह फाड़ा. दोनों तरफ जाने वाले यात्रियों ने सोच लिया था कि गाँव से यात्रा निकलते-निकलते तीन तो बजेंगे ही. इसलिए दोपहर के लिए रखे परांठे वहीं बैठकर हजम भी कर लिए थे. लोटे से पानी पीकर लम्बी लम्बी डकार लेते,‘‘जय अम्बे. जय मुरारी.”

ताई गुलकंदी को सुबह से ही चैन नहीं है. दोनों मंदिरों पर एक-एक चक्कर पहले ही लगा चुकी थी. अब जा के पेट में कुछ डाला है. ढोर डंगरों की व्यवस्था चाक चौबंद कर बहू को हिदायत देने लगी, ‘‘यात्रा जाने ही वाली है. मैं जरा तमाशे देख आऊं. घर खुल्ला मत छोड़ियो. कुत्ता बिल्ली घुसेंगे.” चलते-चलते बहू से पूछा, ‘‘कै बजे हैं?”

‘‘बारह में पांच मिनट कम है.” बहू ने मोबाइल में समय देखकर बताया.

‘‘ह…ओ..! पहुंचुगी तब तक मुहूर्त का टैम भी हो लेगा.”

गाँव के बीच चौक में दाऊजी का मंदिर है. वहीं से प्रस्थान करेगी गिर्राज भक्त मण्डल वालों की यात्रा. खूब सारी भीड़ है. जयकारे हैं. रथ पर बाबा बजरंगदास विराजमान हैं. खुली जीप में रथ का डिजाइन बनाया गया था. दोनों तरफ लकड़ी के कटआउटों पर श्रीकृष्ण और अर्जुन के चित्र बने हुए हैं. कुरूक्षेत्र का दृश्य है. बाब बजरंग दास की ऊँची मखमली कुर्सी के पीछे भी एक बड़ी तस्वीर रखी है जिसमें श्रीकृष्ण रासलीला में मगन हैं. केशव पंडित बाबा का सेवादार बना है. रथ के पीछे सामानों से लदे किसान बुग्गे और पानी से लबालब टेंकर हैं. शोरगुल बढ़ता जा रहा है.

ठीक बारह बजकर बीस मिनट पर प्रधान जी यात्रा को हरी झण्डी बताकर रवानगी का इशारा करते हैं. कैमरों की फ्लैश चमकी है. संयोजक, अध्यक्ष, कोषाध्यक्ष सहित सभी का फोटो खींचा जा रहा है. कल अखबार में छपेगी फोटो सहित खबर. ताई गुलकंदी भौंचक है. रथ में लगा डेक जोर-जोर से बज रहा है. गलाफाड़ जयकारे. किसी की बात सुनने के लिए ध्यान से कान सटाना पड़ रहा है. वह भीड़ को चीरती अपने लिए जगह बनाती रथ के सामने हाकर हांफती हुई बाबा को प्रणाम कर केशव पंडित से बोली,‘‘कैसिट बदल….”

‘‘कौनसी लगाऊं ताई…?”

‘‘दहीयै पी गयौ सर र र र वाली लगा.”

केशव पंडित ने कैसिट बदली.

‘‘रात श्याम सपने में आयो….

रात श्याम सपने में आयो……”

ताई रथ के आगे थिरकने लगी. गोल घेरे में औरत मर्द, जवान, बूढे, बच्चे सबके सब एक लय में ताली बजाने लगे. थिरकते-थिरकते ताई ने तेज आवाज में हांक लगाई, ‘‘अरी ओ कमला, विमला, गेंदी ग्यारसियो….. दारी जैमतियो, मेरे दाऊ की लुगाईयो,….. नचती क्यों नहीं….? हाथ-पांव फरैरे हो जाएंगे.‘‘ वह फिर घेरे में जबरन एक-एक को खींच-खींचकर लाने लगी.

‘‘रात श्याम सपने में आयौ….” पर कुदन्ना हो रहा है. मैंणीं, बरैंणी और केसर पंडिताइन के बुलबुले शरीर एक लय में थिरक रहे हैं. जोश के मारे कुछ नए पटेल और नए नेता भी ठुमके लगाने लगे हैं. बड़ी धूम है. धकचक है. अजगर की तरह रेंगती यात्रा है. ताई गुलकंदी नाच शुरू करवाकर घेरे से निकल बाहर आयी.

मां दुर्गें भक्त मंडल वालों का मुहुर्त भी तो साधना है उसे. गाँव के उत्तर में सेढ माता के मंदिर से रवाना होगी यात्रा. पौन बजने वाला है. पहुंचने तक एक बजेगा. वह लम्बे-लम्बे डग भरती हुई सेढ माता के मंदिर की तरफ चल पड़ी.

जब पहुंची तो देखा मुहुर्त सध भी चुका है. यात्रा को हरी झंडी दिखाकर जिला प्रमुख जी जा चुके हें. फोटो-वोटो भी खिंच-खिंचा गए हैं. भव्य रथ में लंगड़ा बाबा एक ऊँचे आसन पर शोभायमान हैं. पीछे मां काली कलकत्तेवाली की बहुत बड़ी तस्वीर है. गले में मुण्डों की माला है. एक हाथ में खप्पर है. पैरों तले महिसासुर है.

ताई ने हाथ जोड़े जय हो जगदम्बा.

डैक ऊँची आवाज में चिंघाड़ रहा है, ‘‘चलो बुलावा आया है माता ने बुलाया है…. चलो बुलावा….” यात्री मां की भक्ति में डूबे झूम रहे हैं. एक लय में सैंकड़ों सिर हिल रहे है. सभी के माथे पर जयमाता दी लिखी हुई लाल गोटेदार चुनरी बंधी हुई है.

‘‘ऊं ऊंहू, ये भी कोई भजन है ससुरा. लांगुरिया वाली कैसिट नहीं है क्या?” ताई ने बात बात में जय माता दी करने वाले सवाई सिंह को झिंझोड़ा.

‘‘है, ताई.”

‘‘है तो उसे लगा. ये छोरी-छापरी, ये जोगनी फिर कर नचैंगी…?”

अब डैक और भी ऊंचे स्वर में बजने लगा.

‘‘दो दो जोगनी के बीच अकेलो लांगुरिया रे…अकेलो लांगुरिया…दो दो जोगनी के बीच……”

गोल घेरे के बीच अब कई जोगनी ठुमकने लगी हैं.

‘‘कैसे आयो महल जनाने म बतायदै लांगुर मोय… कैसे आयो…..”

‘‘मैया लांगुरियाय समझाय लै फंस गयो डिस्को फैशन म…. मैया…..” एक के बाद एक लांगुरिया. एक के बाद एक जोगनी. ताई गुलकंदी ताली बजा-बजाकर सबका हौसला बढ़ा रही हैं. रथ में विराजमान लंगड़ा बाबा का चिमटा खनक रहा है.

रथ एक-एक कदम आगे बढ़ने लगा है.

गाँव उमड़ रहा है. आकाश में घटाएं छा रही है. पुरवाई चलती तो खेतों में तिल बाजरे की फसलों में लहर सी उठती. लाउडस्पीकरों की तेज आवाज और भीड़ का शोरगुल सुनकर मोर आकाश की ओर देखते और काली घटाएं नजर आते ही कुहुकने लगते, ‘‘केंओं… केओं….’’

गाँव से पहली बार दो यात्राएं जा रही है. दोनों रथों के पीछे सैंकड़ों लोग हैं. रथों के आगे-आगे नाचने वाले पसीना पसीना हैं. पीछे दूर तक दोनों तरफ किसान बुग्गे हैं. पानी के टेंकर है. बच्चों में कुतुहल है. सहकारी समिति के माल गोदाम के सामने दोनों रथ आमने सामने हैं. लोग आपस में टकराते, धक्के खाते, अब थम से गये हैं. बचने को आजू-बाजू इंच भर जगह नहीं है. आसमान ऊपर से कब टपक पड़े पता नहीं. सावन का महीना चल रहा है. दो से ऊपर का वक्त हो चला है. एक तरफ गोवर्धन गिरधारी का रथ है तो दूसरी तरफ सामने जगत जननी मां जगदम्बा है.

जैसे कुरूक्षेत्र में अर्जुन, कर्ण के रथ आमने सामने हों.

पीछे कौन हटे…?

दोनों तरफ के डैक अब फुल वोल्यूम में बजने लगे हैं. नाच तेज से तेजतर होता जा रहा है. औरतों के घेरदार घाघरे घूम रहे हैं. साड़ी और लूगड़ी के पल्लू पुरवाई में लहराने लगे हैं. ताई गुलकंदी दोनों ही संयोजकों से कई बार आग्रह कर चुकी है कि मेहतरों वाली गली में रथ मोड़कर बचा जा सकता है. मगर पहले कौन मोड़े…?

दोनों रथों पर लगी पताकाएं हवा में फड़फड़ा रही हैं. दोनों ही तरफ जयकारे गूंज रहे हैं.

बोल,‘‘कैला मैया की….”

‘‘जय जय जय….”

जवाब में दूसरी तरफ जयकारा लगता, ‘‘बोल गोवर्धन महाराज की….

‘‘जय जय जय….”

चार बज चुके हैं.

केशव पंडित रथ से कूदकर भीड़ को चीरता हुआ मां जगदम्बे वाले रथ में विराजमान लंगड़ा बाबा के सेवादार पंडित रामस्वरूप से कड़कती आवाज में बोला, ‘‘रथ मेहतरों वाली गली में घुमाकर रास्ता दो! वरना यहीं सांझ होगी.”

‘‘तू क्यों नीं घुमाता….’’ पंडित रामस्वरूप भी कड़का.

‘‘मैं क्यों घुमाऊं…?’’ तुम तो रामायण महाभारत सब पढ़े हो.

‘‘हां तो..?”

‘‘तो क्या…? कहीं लिखा है कि किशन जी का रथ पीछे हटा था?”

‘‘आज हटेगा !” पंडित रामस्वरूप ने ऐंठ कर कहा.

‘‘कभी नहीं….” अब केशव पंडित के साथ रत्तीराम भी बोला.

‘‘तुम चूतिया जाणते क्या हो….? मां जगदम्बे से बड़ा कौन है? देवियों के आगे भगवान हो या इंसान. सतयुग हो या कलयुग. कभी टिके हैं क्या…? सती अनुसुइया ने तीनों देवों को नंगा कर बच्चा बना दिया था. समझा कुछ…?”

‘‘अब तो पंडित जी शासन ही देवियों का है. हर जगह लिखा भी रहता है लेडीज फस्ट.” प्रहलाद ने देर होते देख खीझते, हंसते हुए कहा.’’

दोनों तरफ भयानक कोलाहल है. कोई किसी की नहीं सुन पा रहा है. भीड़ के किसी कोने में तनातनी है. कहीं गाली-गलौंच है. कहीं धक्का-मुक्की हो रही है. दिन ढलने लगा है. पीछे हटने पर बहस अब तेज हो चली है. ताल ठोकी जा रही है. यात्री खीझने लगे हैं. उमस और तनातनी से ऊब कर कुछ धीरे-धीरे खिसकने लगे हैं. एक तरफ चाचा हैं, तो एक तरफ भतीजा है. एक तरफ ननद है, तो दूसरी तरफ भौजाई है. कौन किसे समझाये…? दोनों संयोजक कई बार भिड़ते-भिड़ते बचे हैं. समझाने वाले थकहार कर निराश हो चुके हैं.

गुलकंदीबाई, कलावती काकी,लाडकंवर, ठकुराइन और रामपति बड़बड़ाती हुई लौटने लगी हैं. गाना अब बंद हो चुका है. भीड़ छंटने लगी है.

‘‘ये गैबी पंडित ले बैठे! मुहूर्त ही गलत निकाला होगा.‘‘ काकी कलावती बोली.

‘‘सही बोली भैणा! इनकू तो भोंटी सी तलवार सूं काटैं.‘‘ लाडकंवर भनभनायी.

‘‘सब सरपंच बणवौ चावै. इनकी भैंण की…..‘‘ रामपति को कैलादेवी नहीं जा सकने का बहुत मलाल था.

‘‘सबसे चोखौ आंपणो घर है. मेरो तो आज कौ घास भी छूटगौ. भैंस भूखी डकराती होगी. ताई गुलकंदी ने गली से गुजरते हुए गंडक को एक संटी जमाकर अपना गुस्सा ठंडा किया.

किसान बुग्गे अब खाली होने लगे थे. कोई इस गली से गया. केाई उस गली से. दोनों बाबाओं की भौंहें आपस में कई बार तनी और नीची हुई. यात्रियों को रोकने के सारे हथियार दोनों ही तरफ के धुरन्धरों के विफल हो चुके थे.

कलजाये अंधेरे में कटआउट में बने अर्जुन का चेहरा अब और भी मलीन नजर आ रहा था. काली कलकत्ते वाली का रौद्र रूप और भी ज्यादा रौद्र लगने लगा था. दूर कहीं तेज आवाज में बिजली कड़कती तो लोग सहम जाते. धीमी-धीमी बौछारों और कड़कती बिजली के प्रकाश में दोनों रथ अब भी ऊंघते हुए आमने-सामने थे. एकदम खाली. बाबाओं का कहीं अता-पता नहीं था.

बरसात अब और तेज हो चली थी.

2 comments
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  1. मस्त कहानी है मजा आया

  2. Bahut sundar kahani hai Charan singh ji….satya

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