आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

जाना नहीं दिल से दूर: भूतनाथ

(A Tribute to Dev Anand, Sunset Boulevard & Moby Dick)

आप मुझे पाणिनि बुला सकते हैं. उस समय कॉलेज में मेरा दूसरा साल ख़तम हो आया था लेकिन और दोस्तों की तरह कुछ छोटी मोटी नौकरी ढूँढने के बजाये, मैंने घर बैठना बेहतर समझा. ठीक छह मई की सुबह माता जी ने कपड़े धोना छोड़ कर मुझे झिंझोड़ कर उठाया. अधखुली आँखों से मैंने उनके साबुन के झाग लगे हाथों में एक टूटी गीली सिगरेट देखी. उन्होंने मुझसे सवाल पूछे, जिसका मैंने थका हरा जवाब दिया कि लक्की ने मज़ाक में मेरे जेब में अपनी सिगरेट डाल दी थी. माता जी भी अड़ गयी थी कि ये सिगरेट लक्की ने हैप्पी, लक्की, या गुरमीत की जेब में क्यूँ नहीं डाली. बहनों ने भी धिक्कार भरी निगाहों से मुझे देखा, मानों संसार में पहली बार मैंने ही सिगरेट पीने का अपराध किया हो. मुँह हाथ धोने के बाद मैंने तय कर लिया कि अब बहुत हो गया, घर से बाहर निकल कर इन छुट्टियों में सचमुच की ज़िन्दगी बितायी जाए. मैंने जींस और टी-शर्ट डाली और माता जी को बता दिया कि मैं कुछ दिनों के लिए बाहर जा रहा हूँ. बिना और सवाल जवाब के मैं घर से बाहर ताज़ी खुली हवा में आ गया. मुझे पता था कि मुझे ढूँढने के लिए पड़ोस के लड़कों की मिन्नतें की जायेंगी. इससे पहले कि कोई कुछ सोचता, समझता, मैं सीधा स्टेशन आ गया. सामने कलकत्ता की ट्रेन प्लेटफॉर्म नम्बर १ पर खड़ी थी. साधारण दर्जे में ऊपर की सीट पर जा कर मैं सो गया. कभी जागते कभी सोते मैं सोचता रहा कि आखिरी मेरी यात्रा कहाँ ख़तम होगी. शाम को नीचे बैठे एक वृद्ध इंसान ने मुझसे पूछ लिया कि मैं कहाँ जाऊँगा. मेरे मुँह से निकला ‘कलकत्ता’.

सफ़र छत्तीस घंटे का था. बटुए में ज्यादा पैसे नहीं थे. मैंने भी सोच लिया था, किसी तरह पैसे कमाऊँगा. पैसे कमाने के मामले में मुझे हर रास्ता ठीक लगता है. इसके लिए खून करना, चोरी करना बेशक गलत है, पर मुझे व्यवसाय और ठगी एक जैसी लगती है. तरह-तरह से पैसे निकालने की तरकीबें हैं. पैसे कमाना ज़रूरी है, इससे आदमी को आज़ादी मिलती है. आदमी के लिए आज़ादी बहुत ज़रूरी है. हॉस्टल में दम घुटता था. दो सालों में किसी तरह नक़ल कर के मैं परीक्षाएं पास करता जा रहा था. अच्छी बात ये थी कि किशोरावस्था में ही मुझे दुनिया का सत्य पता चल गया था . तमाम जीवनियों, पत्र-पत्रिकाओं, उपन्यास पढ़ कर मुझे इतना समझ आ गया था कि ये सारी पढाई लिखाई किसी काम नहीं आने वाली. इस वृहत सृष्टि में विजय प्राप्त करने के लिए व्यावहारिक बुद्धि बहुत महत्वपूर्ण है. लोगो को समझना ज़रूरी है. पढ़ लिख कर लोग साफ़ सुथरे कपडे पहनने वाले मजदूर बनते हैं, जिनकी आत्मा मर चुकी होती है. उन्हें संगीत, साहित्य, फिल्मों में कोई रूचि नहीं होती. ऐसे लोग जीवन जीना नहीं जानते हैं. लेकिन मैं जान चुका था कि एक तरह जीवन निरर्थक है. हम में और जानवर में क्या ख़ास अंतर है? जानवर को उन बातों से कोई मतलब नहीं जिनसे हमें मतलब है. न उनके लिए संगीत चाहिए, न साहित्य, प्रक्रति में घूमो और अपना खाना उठा लो. न उनकी ज़िन्दगी बुरी है, न अपनी. अच्छी भी नहीं है.ऐसे ख्यालों से मैं सफ़र काटता रहा. थोड़े पैसे संभाल कर रखने थे, इसलिए मुगल सराय में पूरी-सब्जी खरीद कर खा ली. मैं ये सोच-सोच कर आतंकित और रोमांचित भी था कि बिना पैसों के मैं पंद्रह दिन कैसे गुजारूँगा, वो भी अनदेखे अनजाने कलकत्ता में?

कलकत्ता आने में कुछ घंटे बाकी थे. मैं साधारण दर्ज़ा छोड़ कर शयन यान में घूमने लगा. कोई सामान था नहीं, न पैसे. अब कोई पकड़ कर जेल भी ले चले तो ये भी देख लेंगे. घूमते-घूमते देखा, एक कम्पार्टमेंट में बड़ा शोर हो रहा था. वहाँ बीच में किसी ने शतरंज की बिसात बिछा रखी थी. उसे अगल बगल के लोग घेर कर खड़े थे. खिलाड़ी आमने सामने बिसात पर बिछी गोटियाँ देख कर सोच रहे थे. एक की हालत बहुत ही दयनीय थी. इस पर हारते हुए सरदार जी ने अपने बगल में बैठे लाल टीकाधारी पंडित से कहा, “पंडित जी, कि कहते हो तुसी? एथे काली गोटियाँ नूँ हारना जेड़ा पक्का है.” पंडित जी ने कहा, “कालचक्र की चाल देखते रहो.” सामने जीतने जाने वाला पैंतीस साल का हट्टा-कट्टा जवान था. उसकी मुस्कराहट कुछ और ही छा रही थी. मैंने जोर से कहा- “कच्चे खिलाड़ी से जीतना क्या रखा है. मुझे खेलने दो, इसी बिसात पे हरा दूँगा.”

उस जवान की भौहें टेढ़ी हुई. फिर उसने नज़रें ऊपर करके देखा- “आ बैठ.” चकित लोग मुझे घूर कर देखने लगे. मैंने कहा, “ऐसे नहीं. मैं मदारी नहीं हूँ. जीतने के पैसे लूँगा. पाँच सौ निकालो तो बुरी तरह हरा के दिखा सकता हूँ. मंज़ूर है तो बोलो.” सरदार जी भी मुझे देखने लगे. जवान ने कहा- “और हार गया तो, पाँच सौ देगा?”

मैंने कहा-“हार गया तो हज़ार दूँगा.” मेरे पास कुछ डेढ़ सौ के करीब रुपये थे. हारने पर कुछ नहीं दूँगा, ये मैंने तय कर लिया था. सरदार जी ने उठ कर जगह खाली कर दी. देखने वाले और गौर से, आँखें निकाल कर, देखने लगे. कोई मुझसे शतरंज न खेले, मैं ईश्वर से यही प्रार्थना कर सकता हूँ. अगले सात चालों में बाज़ी पलट गयी. जवान की सूरत रोनी हो गयी. उसने चुपचाप पाँच सौ रुपये निकाल कर रख दिए.

बगल में बैठे पंडित जी ने कहा, “आपसे पहले भी कहा था, मत खेलिए, आपका नुक्सान होगा. आप मान ही नहीं रहे थे.”

अगल बगल बैठे बदहवास लोगों के भयभीत और अचंभित चेहरे मैं भी देखने लगा.. मुझे गढ़वाली तांत्रिक याद आ गए. मैं पैसे ले कर जाने लगा कि उसने कहा, “उनकी फिल्म संभाल कर बनाना, पाणिनि.” मैं अचरज से पीछे मुड़ा. उसकी दो सुर्ख आँखों के दहकते अंगारे ने मुझे दो घड़ी के लिए जकड़ लिया..

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हावड़ा जंक्शन में बहुत भीड़ थी. लोग कुर्ते-पाजामें में, औरतें लाल-पीली साड़ियों में आ जा रही थी. कहाँ जालंधर के लम्बे चौड़े लोग, सलवार कुर्ते में औरतें, कहाँ यह छोटे दुबले-पतले लोग, और सादी साड़ियाँ पहनने वाली औरतें. इस रंगीन महानगर में मेरे पास इतने पैसे नहीं थे दो दिन भी गुजार सकूँ. ये थी असली ज़िन्दगी. जिसे इब्न-बतूता, ह्वेन त्सांग, मेगस्थनीज़ जैसे लोगों ने जिया था. मैं खुश था कि अब मैं शायद फुटपाथ पर सो सकता हूँ. मैं बिना किसी सहारे के कुछ पैसे कमाऊंगा, और तरह-तरह के लोगों को करीब से देखूंगा. जोश में मैं हावड़ा ब्रिज के चक्कर लगाता रहा. एक बार उधर, फिर इधर, फिर उधर, हुगली का पानी, आती जातीं गाड़ियाँ, शोर शराबा.

ज़िन्दगी कठोर होती है. सच कड़वा होता है. यह सब मुहावरे मुझे चखने थे, और इनके स्वाद  की मुझे आदत डालनी थी. पहला प्रश्न यह था कि रात का बसेरा कहाँ करूँ? शाम ढल गयी. सड़क के किनारे पड़े हुए भिखारी फिर अपना बोरा उठा कर चलने को हुए. बढ़ी हुई घिनौनी दाढ़ी, धूल में सना शरीर, आँखों में शून्य, समय की मार से झुकी कमर – जैसे चलती हुई तस्वीर मेरे आगे से निकल गयी हो. तस्वीर…फोटोग्राफी, ये था मेरा एक दिली शौक. इसके अलावा बहुत सी चीज़ों में छट-पट की थी. आदमी कभी एकदम नयी शुरुआत नहीं कर सकता. ज़िन्दगी के हर मोड़ पर, कहीं न कहीं उसका इतिहास खड़ा हो जाता है, और हर पल इस इतिहास में जुड़ता जाता है. जब कभी मैं किसी बूढ़े आदमी को देखता हूँ, तो मुझे ऐसा लगता है वो एक बड़ी मालगाड़ी का सबसे पिछला डब्बा है.

असली ज़िन्दगी में भूख और उसका दर्द ज़रूर होता है. हर इंसान को हर दूसरे दिन उपवास करना चाहिए. अपने उपनिषद और पुरानों में उपवास की बड़ी महिमा की गयी है. इस्लाम में भी रमजान के महीने के उपवास को बड़ा पवित्र समझा जाता है. इसके पीछे एक कारण यह हो सकता है कि जब पेट में तरह-तरह के रस और अम्ल निकल आमाशय में तांडव करते हैं, उस उत्पात को सहना, सहनशीलता की परीक्षा होगी. निरंतर अभ्यास और परीक्षा से इंसान शांत और विनीत हो सकता है. इसके तर्क में ये विचार भी रह रह कर उठता है कि आखिर इतनी परीक्षा क्यों? जब जब मानव को विपरीत स्थिति में ढकेला गया है, तभी उसने पाप किया है. मानव चित्त तो कभी भी चंचल हो सकता है. जब तक आवश्यकता नहीं हो, तो ऐसी परीक्षा बार-बार क्यूँ ली जाए?

विचार और सिद्धांत एक तरफ होते हैं, वस्तुतः स्थिति ये थी  कि भूख के मारे सर में दर्द हो रहा था. चक्कर आ रहे थे. बदन टूट रहा था. बार-बार पेट में अंतड़ियाँ चिल्लाती थी. दो दिन होने को आ गए थे, खाने के नाम पर बस थोड़ी पूरी सब्जी. दिन में दो-तीन सेर खाने वाला इंसान आखिर एकबारगी कैसे उपवास करे? जहाँ तक मुझे याद आया, किसी पुराण में लिखा है कि आपदधर्म यह है कि प्राण रक्षा के लिए सारे सिद्धांत छोड़ दिए जाए.

यूँ ही भटकते हुए रोड पर किसी होटल वाले ने आवाज़ दी, “साहेब, यहाँ खाना खा लो.” चलो कोई तो हिंदी बोल रहा था. वरना तब तक मैं बंगाली को समझने की कोशिश करते करते थक चुका था. सस्ता होटल दिख रहा था. मैंने भी अन्दर जा कर दाल चावल का आर्डर कर दिया. होटल बहुत ही ज्यादा छोटा था. कुल दो टेबल मिला कर केवल आठ लोग बैठ सकते थे. रिक्शा वाले, ठेले वाले यहाँ खाना खाने आया करते होंगे. दीवारें कब से रंगी नहीं गयी थीं. छज्जे की जगह पर किसी ने बिस्तर बिछा रखा था. मैंने रोटी देने वाले को बुलाया, “यहाँ रात में रुकने का कोई इंतज़ाम हो सकता है?” रोटी वाला लड़का अट्ठारह साल का रहा होगा. केवल एक धोती पहनी थी, पूरा काला था, और तेल में चुपड़े बाल.. उसे लगा मैं मजाक कर रहा हूँ. मेरे बारबार पूछने पर उसने बताया कि जगह तो नहीं है, पर अगर मैं बीस रुपये दूँ तो मैं उसके बिस्तर पे सो सकता हूँ, वो बाहर फुटपाथ पर सो जाएगा. मैं राजी हो गया.

सुबह सुबह चार बजे ही उस लड़के ने मुझे उठा दिया. बिस्तर समेट कर उसके बाकी के साथी नहाने धोने के लिए जाने लगे. मैं मूर्खों की तरह टेबल पर बैठा रहा. पंद्रह मिनट बाद मैं तंग आ कर बाहर चला आया. हावड़ा ब्रिज पर इक्का-दुक्का गाड़ियाँ अभी भी साएँ-साएँ आ जा रही थी. ज़िन्दगी के जो पंद्रह दिन मैंने ऐसे बिताने की सोची थी, मैं ऐसा मूर्ख भी नहीं था. इतना पता था, होटल में काम कर के, जूठी प्लेटें धो कर मुझे कोई असली ज़िन्दगी नहीं दिखेगी. मैं काम की तलाश में इधर-उधर भटकने लगा.

बस पकड़ कर मैं कलकत्ता की सडकों के किनारे निहारने लगा. दोपहर तक मैं विक्टोरिया मेमोरिअल के पास खड़ा वहाँ के सैलानियों को निहारता रहा. मुझे थोड़ा सा इस बात का भी डर था कि कहीं मुझे कोई जानने-पहचानने वाला न मिल जाए. हालांकि मेरे दूर दूर तक कोई दोस्त बंगाल के नहीं थे. क्या पता कोई छुट्टी मनाने यहाँ आया हो. सैलानियों की तस्वीरें लेने खड़े फोटोग्राफ़र बड़ी ही आशा से आते-जाते लोगों को देख रहे थे. डिज़िटल कैमरा तब नया ही आया था, लेकिन ये बात लगभग मानी जा चुकी थी कि फोटोग्राफर के दिन लदने वाले हैं. मैंने एक फोटोग्राफर से जा कर कहा कि मैं उसकी मदद कर सकता हूँ. पहले तो उसे कुछ समझ में नहीं आया. जब पूरी बात समझ में आई तो उसने मुझे तरेर कर देखा और हट कर बैठ जाने को कहा. मैं वहीं बैठा सूरज ढलते देखने लगा.

दोपहर के तीन बजे उसने अपने किसी साथी से बात की. फिर मेरे पास खींसें निपोरता आया. अपनी टूटी-फूटी हिंदी में उसने कहा कि अगर मैं वीडियो कैमरा संभाल सकता हूँ और वो मुझे एक मौका दे सकता है. मैंने फ़ौरन हाँ में सर हिला दिया. ये बात अलग थी कि मुझे कुछ आता-जाता नहीं था, लेकिन हौसला था कि कौन ऐसा काम है जो मैं सीख नहीं सकता. बर्तन धोने से अच्छा ही होगा. विडियो रेकॉर्डिंग करना, फोटोग्राफी करना, ये सब कला है. कला का दर्ज़ा शारीरिक और मानसिक श्रम से ऊपर होता है. फोटोग्राफर को धन्यवाद दे कर मैं उसके साथी के साथ उसकी मोपेड पर निकल पड़ा. रास्ते में उसने मुझे बताया कि कोई सनकी बूढ़ा है, जिसे वीडियो कैमरा सँभालने के लिए कोई लड़का चाहिए. अभी तक उसने चार भेजे हुए लड़कों के लिए इन्कार कर दिया है. अगर मुझे काम पर रख लेगा तो उसे सौ रुपये मिलेंगे. काम के पैसे अच्छे ही मिल जायेंगे. उसके बारे में मुझे खुद बात करनी होगी.

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तमाम गलियों, रास्ते, भीड़-भड़ाके के बाद खटारा मोपेड एक बड़े बंगले के पास रुकी. साथ वाले लड़के को दरबान शायद जानता था. अच्छे बड़े अहाते के बाद, बरामदा शुरू हुआ. इतने ऊंचे दरवाज़े के बाद सामने आलीशान हाल था. मैं विशाल दीवारों पर लगी बड़ी-बड़ी तसवीरें देखने लगा. ये बड़े-बड़े फोटोग्राफ पचास-साठ के दशक के थे. सामने किसी खूबसूरत जवान की तस्वीर थी. काला कोट, महँगी अंगूठी, उस पर राजसी मुस्कान मुझे बहुत प्रभावित कर गयी. बगल में उसी नौजवान की नेहरु के साथ तस्वीर थी. एक तस्वीर में वो दिलीप कुमार और राज कपूर के साथ खड़ा था. इस तरह की ढेरों तसवीरें थी. तभी तीखी आवाज़ आई- “किसको ले कर आये हो? ये है?”

मैंने हड़बड़ी में पलट कर देखा. उस बूढ़े आदमी की कद काठी अभी भी अच्छी थी. कम से कम छह फीट ऊँचाई तो होगी ही. सर पर सारे बाल सफ़ेद, भौंहें भी सफ़ेद, झुर्रियों से भरा हुआ चेहरा, तीखी नाक, लम्बा चेहरा, ये वही थे जिनकी तस्वीर यहाँ पर लगी हुई थी.

उन्होंने मुझसे कड़ी आवाज़ में कहा, “कभी कैमरा उठाया है?”

मैंने कहा, “नहीं!”

“फिर भी यहाँ आ गए?”

मैंने निर्भीकता से उत्तर दिया, “मैं कुछ भी सीख सकता हूँ. आप मुझे एक बार मौका दो दीजिये.”

बूढ़ा मेरी आवाज़ सुन कर चौंका. फिर मेरे पास आया, “तुम बंगाली नहीं हो. यहाँ क्या कर रहे हो?” बूढ़े की आवाज़ में भी कोई बंगाली पुट नहीं था. मैंने कहा, “नहीं. मैं काम की तलाश में आया हूँ.”

बूढ़ा थोड़ा हँसा- “कहाँ के रहने वाले हो? क्या करते हो?”

“जालंधर. कॉलेज में पढता हूँ. अभी छुट्टियों में घूमने निकला हूँ.”

बूढ़ा ने मुझे तरेर के देखा- “बिना पैसे के?”

“जी. बिना पैसे के. अगर आप काम दे सकते हैं तो बताइए. वरना मैं भी यहाँ वक़्त जाया करने नहीं आया हूँ.”

बूढ़ा सामने पड़ी एक कुर्सी पर बैठ गया. कुर्सी की मूठ पकड़ कर उसने अपनी लगी तस्वीरों पर एक नज़र दौड़ाई- “तुम जानते हो तुम किससे बात कर रहे हो?”

मैंने मन ही मन सोचा- “अगर यहाँ काम मिल जाए तो सबसे अच्छा होगा. रहने खाने का इंतज़ाम भी हो जाएगा. मौका मिले तो बूढ़े से पैसे ऐंठ कर कहीं और निकल लूँगा. है तो कोई बड़ा आदमी.” ये सोच कर मैंने कहा- “आप कोई बड़ी हस्ती हैं शायद. इतने बड़े बड़े लोगों के साथ आपकी तसवीरें हैं. नेहरु, राज कपूर, हेनरी कार्टियर ब्रेसों..”

“तुम ब्रेसों को जानते हो?”

“व्यक्तिगत तौर पर नहीं. पर पढ़ा है उनके बारें में.”

“कभी वीडियो रेकॉर्डिंग की है?”

“कभी नहीं. हाँ फोटोग्राफी की है थोड़ी बहुत.”

“कैसा कर लेते हो?”

मैंने संकोच से कहा, “अभी तो कोशिश कर रहा हूँ.”

“इस लड़के से कितने पैसे में बात हुई?”

“कोई बात नहीं हुई. आप बताइए कितने पैसे देंगे आप?”

बिना कुछ जवाब दिए बूढ़े ने साथ वाले लड़के को दो सौ रुपये पकड़ाए और जाने को कहा. उसके जाने की आहट जब ख़तम हुई तो मुझे देख कर उन्होंने कहा, “मैं तुम्हें पाणिनि नाम से पुकारूँगा. कुछ दिनों का काम है. कुछ दस दिन लग सकते हैं. तुम यहाँ रह सकते हो. बाकी बातें तुम्हें रामेश्वर समझा देगा. रात को खाने के टेबल पर तुमसे मुलाकात होगी.”

उनके उठ के जाने के बाद एक हट्टा-कट्टा नौकर आया. उसने मुझे मेहमान का कमरा दिखाया. मुझसे मेरे कपड़ों का नाप पूछा. मेरे कुरेदने पर उसने बताया कि वो यहाँ कुछ दस साल से काम कर रहा था. ‘बलराज साहब’ अधिकतर विदेशों में रहते हैं. यहाँ भारत में भी कम ही पाँव टिकता है. इनके बच्चे यहाँ नहीं आते. वो सब बम्बई में रहते हैं. कई शहरों में कई मकान हैं उनके.

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बलराज साहब डिनर टेबल पर अकेले ही बैठे थे. मेरे बैठते ही उन्होंने ठहाका लगाया, “तुम भी उस्ताद मालूम होते हो. बरखुरदार, अच्छे घर के मालूम पड़ते हो, ऐसा क्या शौक चर्राया तुम्हें?” मैंने सावधानी से कहा, “ऐसे लगा कि मैंने दुनिया अपनी नज़रों से देखी ही नहीं. एक दिन घर में उठा, और बिना-बताये यहाँ चला आया.”

“क्या पढ़ते हो?”

“इंजीनियरिंग कर रहा हूँ.”

“अच्छा है.” कह कर बलराज साहब खिचड़ी खाने लगें. मेरे लिए पुलाव बना था, जिसे मैं चाँदी के चम्मच से चुपचाप खाता रहा. जब उनकी खिचड़ी ख़तम हो गयी मैं तब भी खा ही रहा था. उन्होंने कहा, “जल्दी नहीं है. आराम से खाना खा लो फिर हम घूमने चलेंगे.” उन्होंने रामेश्वर को गाड़ी निकालने का हुकुम दिया.

अब तक मुझे तरह तरह के कौतूहल हो रहे थे. उनकी मर्सीडीस गाड़ी सड़क पर काफी तेज चलने लगी. मेरा तो मानना था कि बूढ़े लोग गाड़ियाँ बड़ी धीमी चलाते हैं,  खैर मेरी घबड़ाहट देख कर उन्होंने बताया कि दिल से अभी भी वो मेरी जितनी ही उम्र के हैं. वो चाहते थे कि मैं उन्हें अपना दोस्त समझूँ. मैंने झिझकते हुए उनकी उम्र पूछी, जो कि नब्बे साल निकली. यानी मेरे अंदाज़े से पंद्रह साल ज्यादा. पहला ख्याल ये आया कि इन्हें तो अब ज़िन्दगी की परवाह रही नहीं, मेरी ज़िन्दगी अभी भी कीमती है.

“ज़िन्दगी के बारे में क्या सोचते हो?”

मैंने जवाब दिया- “यही कि इसका कोई अर्थ नहीं हैं. जो मतलब निकालो, वो मतलब निकल आएगा.”

“हुह. तुम दार्शनिक हो? कितनी दुनिया देखी है तुमने?” बलराज साहब ने तेजी से गाड़ी को मोड़ा. मैंने खुद को सँभालते हुए कहा, “मैंने पढ़ा है.”

“ये बन्दूक किसी और की है जो तुमने अपने कंधे पर डाल रखी है. इसे उतार फेंको.” थोड़ा रुक कर कहा, “इन आँखों ने एक विश्वयुद्ध देखा है. एक देश का बँटवारा देखा है, फिर भी ये थकी नहीं हैं. तुम बीस साल में थक रहे हो? तुम्हारी उमर के लिहाज से तुम्हे कहना चाहिए था ज़िन्दगी रोमांचक होती है. खुशियाँ ही खुशियाँ भरी होती हैं. कितनी गर्ल फ्रेंड हैं तुम्हारी?”

मेरे ना को देख कर उन्होंने ज़बरदस्त ठहाका लगाया, “हा हा हा. दोस्त बनाओ. देखो मैं आवारागर्दी करने के लिए नहीं कह रहा, दुनिया देखने को कह रहा हूँ. दुनिया देखने के लिए घर से बिना पैसों के निकल कर घूमने की ज़रुरत नहीं, आँख-कान और दिमाग खोलने की ज़रुरत है.”

मैंने धीमे से कहा, “मेरे ऐसा सोचने से सच नहीं बदल जाएगा.”

ये सुन कर बलराज साहब ने कहा, “मेरा यार गुरुदत्त भी कुछ ऐसा ही सोचता था. उदासी को गले लगा कर उसने अपनी ज़िन्दगी में दुखों को केवल रोमांस से रचाया. ज़िन्दगी जीने के लिए है मेरे दोस्त. आखरी साँस तक अपनी और सबकी भलाई के लिए जियो, खुश रहने के लिए जियो. कुछ करो.”

“कुछ करने ही तो आया हूँ.”

“पाणिनि, सच ये है कि तुम कुछ करने नहीं, बल्कि अपना समय काटने आये हो. पीछे मुड कर देखोगे तो माँ आँचल फैलाये हुए खड़ी होगी, जिसके पल्लू में तुम फिर छुप जाने को चाहोगे.”

उनकी खरी-खरी बात सुन कर मेरा चेहरा उतर गया. मैंने कुछ ख़ास बात भी नहीं की थी, लेकिन ऐसा लगा कि बलराज साहब मेरी रग-रग से वाकिफ़ हैं.

गाड़ी समंदर के पास खड़ी कर के मैं बलराज साहब के साथ टहल रहा था. उन्होंने कई काम कर रखे थे. बातों से लगा वो किसी ज़माने में बहुत बड़े फोटोग्राफ़र थे. जिस तरह की बारीकियां, जिस तरह के नाम वो लेते थे, और जितनी प्रदर्शनी उन्होंने लगायी थी, अगर वो सारी बातें सच थी तो बलराज साहब बहुत बड़े इंसान रहे होंगे. उनका अपना बड़ा व्यापार भी था जिसे उनके बेटे, दामाद देख रहे थे.  काम की बात ये थी कि उन्हें अब एक फिल्म बनानी थी. ये श्वेत-श्याम में कुछ बीस मिनट की फिल्म बननी थी, जिसका नाम होगा- “जाना नहीं दिल से दूर.”

इस फिल्म की खासियत यह थी कि इसमें कुछ शूटिंग करनी थी. बहुत सारी पुरानी तस्वीरों को मिला कर कंप्यूटर पर मिक्सिंग करनी थी. इसके लिए उन्होंने कुछ लोग नियुक्त भी कर रखे हैं. लेकिन फिल्म के हर भाग में वो खुद जुड़े रहेंगे. यानी कि स्क्रिप्ट, संवाद, पार्श्व संगीत, संगीत, शूटिंग, निर्माण, निर्देशन, जहाँ तक संभव हो सब कुछ उनका खुद का किया हो.

उनकी सारी बातें जिंदादिल थी, ताजगी से भरी हुई. फिर भी न जाने कौनसी भयानक वह ख़ामोशी मैं सुनता था, जिसके गर्जन से मैं डर जाता था. मुझे ट्रेन में मिला वो पंडित याद आ गया. मुझे उससे कुछ पूछ लेना चाहिए था.

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सुबह जब शूटिंग के लिए मैं उनके साथ उनकी गाड़ी पर निकला तो उन्होंने मुझे एक कागज़ का पुलिंदा पकड़ा दिया. पहले कागज़ पर लिखा था- जाना नहीं दिल से दूर. पहली नज़र में ये पटकथा नहीं, बल्कि टुकड़ों में लिखी एक टूटी-फूटी कहानी लग रही थी.

जाना नहीं दिल से दूर

१९४९- कलकत्ता के बहुत सारे फोटोग्राफ. कृष्ण सागर के पास खड़ा. पीछे से गूंजती मर्दाना आवाज़ आती है- “उसने तुम्हे धोखा दिया है, तुम्हारी मोहब्बत को ठुकराया है. तुम्हारी दुनिया उजड़ गयी है. तुम किसके लिए अब जिंदा हो?”
सागर की लहरें सर पटक पटक कर नायक को परेशान करती जा रही हैं.
फ्लैश बैक- कृष्ण और मीना.  (ये पूरा कंप्यूटर से बनवाना पड़ेगा)
मीना कहती है- “कृष्ण, कभी-कभी मेरा जी यूँ ऐंठा जाता है. रह रह कर कोई खटका होता है, जैसे तुम्हे कोई मुझसे छीन ले जाएगा.”
“मीना, अगर हमारा तुम्हारा प्यार सच्चा है, तो दुनिया की कोई दीवार हमें नहीं रोक सकती. तुम्हारा हाथ अपने हाथ में डाल कर मैं एक वादा करना चाहता हूँ.”

पहले पेज पर सरसरी निगाह दौड़ाने के बाद मैंने बलराज साहब से पूछा- “इसमें तो कई बातों का ख़याल ही नहीं रखा गया है. जैसे कि अभिनेता कपड़े कौन से पहनेंगे? कैमरा किस कोण से रखा होगा.” बलराज जी ने कहा- “हम ऐसे ही फिल्म बनायेंगे. ये सब धीरे-धीरे तय होता जाएगा. ”

“और संगीत?”

बलराज ने मुस्कुरा कर कहा- “मेरे दोस्त गुरुदत्त ने कई फिल्में अधूरी बना कर छोड़ दी थी. मेरे पास उसकी ऐसी ही एक फिल्म का संगीत पड़ा है. उसे फिर सचिन दा ने कभी किसी फिल्म में लिया नहीं. एक बार रफ़ी ने उसका जिक्र किया था, गीता दत्त को वो गाना बहुत पसंद था. हो जाएगा अपना काम.”

मेरी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा. “आप रफ़ी से मिलें हैं? गीता दत्त से भी?”

“मिलना? उसके साथ बैठ कर महफ़िलें ज़मायीं हैं. गीता तो गुरु दत्त की बीवी थी. घर की बात थी.”

मेरा मुँह खुला का खुला रह गया. बलराज साहब आगे कहते रहे, “फोटोग्राफी के कारण ‘वी एस मूर्ति’ और गुरुदत्त से मेरी बहुत गहरी दोस्ती थी. बहुत से लोगों से घर का नाता रहा है.”

“आप कितने खुशनसीब हैं कि आपने गुरुदत्त को देखा, रफ़ी से बातें की, क्या आपने मीना कुमारी को देखा था?”

आखिरी पंक्ति को अनसुना कर के उन्होंने कहा, “खुशनसीब! बरखुरदार, ज़िन्दगी जीना ही खुशनसीबी है.”

मैंने रोमांचित हो कर उनकी तरफ मुड़ गया, “लेकिन आपने वो ज़माना देखा है जब फिल्म, संगीत, राजनीति, कला अपने स्वर्ण युग में थी.”

उन्होंने ज़ोरों का ठहाका लगाया. “तुम्हारे हिसाब से चालीस पचास के दशक से पहले आदिम युग था, फिर एक स्वर्ण युग आया, फिर अस्सी का दशक अन्धकार से भरा मध्य युग, अब धीरे-धीरे विकास करता हुआ आज का दौर? ”

मैं सोचता रह गया कि आखिर इस मरणासन्न बूढ़े को कितना ज्ञान है. मैं कहता एक बात हूँ, वो मुझसे चार कदम आगे बढ़ कर मुझे शह और मात दे देता है. मेरे ख़यालों से अनजान उन्होंने गाड़ी चलाते हुए कहा, “समय बदला है और कुछ नहीं बदला. एक इंग्लिश कवि थे, एलियट. भविष्य के बारे में हम ज्यादा नहीं जानते, बस इतना जानते हैं कि पीढ़ी दर पीढ़ी वही चीज़ें घटती जाती हैं. आदमी दूसरों के अनुभव से बहुत कम सीख पाता है. कला आज भी वैसी है. परिश्रमी और गुणग्राहक चाहिए. अगर प्रयास अपने उत्कर्ष पर हो, गुण ग्राहक हमेशा जन्म ले लेते हैं. तुम कोशिश करो तो तुम भी रफ़ी बन सकते हो.”

“रफ़ी जैसा कोई सदियों में पैदा होता है.”

“इसमें कोई शक नहीं कि रफ़ी महान गायक थे, लेकिन ऐसा ही लोग सहगल के बारे में भी कहा करते थे.”

“फिर भी लाखों में एक तो कोई एक ही होगा.”

उन्होंने मुझे ललकारते हुए जोश में कहा, “मेरे दोस्त, कोशिश करने में क्या हर्ज़ है?”

अपनी बातों को मैं कैसे गलत साबित करता? मैंने इतनी दुनिया देखी ही नहीं थी. मैं नब्बे साल का नहीं था. मैंने प्रत्युत्तर में कहा, “आप भी तो बड़े फोटोग्राफर रहे हैं. क्या आप अपनी जवानी जैसी फोटो ले पाते हैं? क्या आज भी लोग आपको आपके काम के लिए उतना ही चाहते हैं, जितना उस समय चाहते थे?”

“मैं अभी भी काम करता हूँ. लेकिन केवल अपने लिए. फोटोग्राफी छोड़े हुए ज़माना हुआ, मैंने पेंटिंग शुरू की है. कभी कभी फोटोग्राफी भी करता हूँ, लेकिन प्रदर्शनी केवल अपनी पेंटिंग की करता हूँ. वो भी यहाँ नहीं, अधिकतर पेरिस और रोम में.”

मैंने फिर पूछा, “लेकिन एक समय तो आया होगा कि जब आप अपने चरमोत्कर्ष पर थे.”

उन्होंने गाड़ी धीमी करते हुए कहा, “हाँ.ऐसा समय भी आया था.” मुझे आश्चर्य हुआ कि मेरी बात से वो ज़रा भी विचलित नहीं हुए.

उन्होंने अपनी गाड़ी रात वाली जगह पर रोक दी. वहीं समुन्दर का किनारा.

उन्होंने ट्राईपॉड निकाला. इसपर विडियो कैमरा लगा कर मुझे संचालन सिखाने लगे. अंततः बात ये आ गयी कि जब वो इशारे करें तब मुझे बटन दबाना होगा. इस तरह उन्होंने सागर की कई तसवीरें ली. कई जगह वो खुद का विडियो बनाया. अलग-अलग जगह जा कर ना जाने कितने विडियो हमने शूट किये. फिर उत्तर कलकत्ता में आ कर, मार्च पास्ट रोड, कालीबाड़ी, कई पुरानी जगहों की तसवीरें ली. इस तरह शूटिंग का पहला दिन पूरा हुआ.

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दूसरे दिन नाश्ते के बाद उन्होंने अपने कमरे में मुझे बुलाया. अपने कंप्यूटर पर वो पिछले दिन के खींचे विडियो पर कुछ काम कर रहे थे. मुझे देख कर कहा, “वहाँ मेरा पुराना अल्बम पड़ा है. उसमें कलकत्ता की पुरानी तसवीरें पड़ी हैं. ज़रा उनको देखो.”

मैंने एल्बम के पन्ने पलटने शुरू किये. बहुत सुन्दर तस्वीरें थी. विभाजन के समय की तस्वीरें, दक्षिणेश्वर मंदिर, सत्यजित रे शूटिंग के समय, बाबू बाज़ार. बलराज साहब ने कहा, “इसके लिए मुझे राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था.”

मैंने उत्सुकता से पूछा, “नए विडियो का पुराने कलकत्ता से क्या लेना देना?”

वो हँसने लगे और बोले, “तुमने पूरी स्क्रिप्ट नहीं पढ़ी. फिल्म में कृष्ण का रोल मैं खुद करूँगा. शुरुआत में, मैं अपनी पुरानी तस्वीरों और गानों का फ्यूजन कर के कृष्ण और मीना की प्रेम कहानी दिखालाऊंगा. मीना किसी कारण से कृष्ण से बिछुड़ जाती है. कृष्ण अपनी ज़िन्दगी के आखिरी दिनों तक मीना की आखिरी बातें याद करता है. ये आईडिया बहुत पुराना था. अब कंप्यूटर और तकनीक, इतने बढ़ गयें हैं कि मुझे लगता है मैं अपनी पहली फिल्म बना लूँगा.”

“ये आपकी पहली फिल्म होगी?”

उन्होंने लम्बी साँसे लेते हुए कहा, “ईश्वर ने चाहा था तो. शायद पहली और आखिरी.” उनकी अचानक से फैली ख़ामोशी से मैं थोड़ा डर गया. बाकी दिन मैं एक सॉफ्टवेयर पर उनकी पुरानी तस्वीरों को स्कैन कर के एडिट करता रहा.

शाम में उन्होंने मुझे टोका, “तुमने अभी तक घर फ़ोन नहीं किया?”

मैंने जवाब दिया कि मेरी ऐसी कोई इच्छा नहीं है. उन्होंने मेरी पीठ थपथपा कर कहा, “घर ही एक ऐसी जगह होती हैं जहाँ तुम जब कभी दस्तक दो तो उन्हें दरवाज़ा खोलना ही पड़ता है. घर फ़ोन कर लेना.”

दिन ख़तम होने पर उन्होंने कुछ विडियो के अंश दिखायें, जिसे देख कर मैं अचंभित रह गया कि ये मैंने ही रिकॉर्ड किये थे. बहुत सारे टुकड़े एक के बाद एक ऐसे लगाये हुए थे जो कि ‘मोंटाज़ वाद’ से प्रभावित लगते थे.

मैंने उत्सुकता से पूछा- “इस फिल्म में मीना का रोल कौन करेगा?”

उन्होंने ख़ुशी से बताया, “मीना कुमारी.”

अब जा कर मुझे पता चला कि फिल्म की अधिकतर तैय्यारी पूरी हो चुकी है. मुंबई में और न्यूयार्क में कितने इंजिनियर इस काम में लगे पड़े थे. मीना कुमारी की सारी फिल्मों से कितनी क्लिपिंग निकाल कर, उनको डिज़िटल एडिट कर के, काफी सारे दृश्य बन चुके हैं. जो बचा काम था वो ये कि पुराने कलकत्ता और नए कलकत्ता में चंद सेकंड में परिवर्तन. हर एक दृश्य बिलकुल बलराज साहब के नज़रिए से होनी चाहिए थी. उम्मीद है इस बीस मिनट के फिल्म के लिए इतने लोगों की तीन सालों की मेहनत सफल हो जाए. इस पर बलराज साहब ने कहा, “तीन साल कुछ लोगों के लिए होगा, मैंने तो अपनी ज़िन्दगी इसके लिए लगा दी है.”

तीसरे दिन बलराज साहब ने मुझे कई जगहों के पते दिए, और कुछ विडियो शूट कर के लाने को कहा. मेरी शंका थी कि ये काम बिना मतलब का होगा, वो मुझे शायद घर से दूर भेजना चाह रहे होंगे. कभी-कभी उनका इतना अजनबी बन जाना भी मुझे बड़ा अजीब लगता था. उन्होंने गाड़ी के साथ एक ड्राईवर भी भेज दिया. मुझसे फिर पूछा कि मैंने अपने बारे में इत्तला दी या नहीं. धर्मशाला पर गाड़ी पार्क करवा कर मैं चक्कर लगता रहा. मैंने घर फ़ोन कर के माता को बता दिया कि मैं सकुशल हूँ और कलकत्ता में काम कर रहा हूँ. दो मिनट तक मैंने उनका रोना सुना फिर फ़ोन रख दिया. भगवान् इन औरतों को सद्बुद्धि दे. जब पास रहो तो इतनी बातें सुनाएंगी कि रहना मुश्किल, और दूर जाओ तो रोना धोना. प्रकृति में स्त्री जाति जैसा विचित्र कुछ और नहीं.

रह रह कर मुझे बलराज जी का ख्याल आता. कभी कभी ऐसी ख़ुशी होती जो मैं बयान नहीं कर सकता. शायद ये फिल्म देश विदेश के समारोह में पुरस्कार जीतेगी तो मैं अपने दोस्तों से गर्व से कह सकूँगा कि मैंने इसमें कितना काम किया है. कभी ये भी ख्याल आता कि मैं कितना भाग्यवान हूँ जो ऐतिहासिक पुरुषों का अवसान देख रहा हूँ. वो सब जो सितारें और पूज्य हैं, जिनके कर्मों ने नए आयाम रचे, जिनकी रचनाओं ने जन-मानस में नया स्वर भरा, वो दीप जो आज शिथिल पड़ कर बुझ जाने वाला है, मैं उसका प्रत्यक्षदर्शी हूँ. विडम्बना यह थी कि मेरी ख़ुशी को समझने वाले, शायद मेरे हमउम्र कभी न होंगे. मैं उनसे कहीं आगे निकल गया हूँ. जिन को शायद इतिहास पुनरावलोकन में सम्मानित करे, जिसकी  चर्चा जब किवदंतियाँ बन जायेंगी, जो कहानियाँ जो बदल बदल कर लोक कथा या भ्रम बन जायेंगी, मैं वैसे इतिहास के सम्मुख हूँ. एक विचार यह भी आया, हमारे दादा नाना ने भी इतिहास देखा होगा. मैंने कितनी बार उनसे बातें की? बहुत ही कम! जो माता ने देखा होगा, वो भी कल इतिहास बनेगा, जो मैं करूँगा वो भी कभी इतिहास बनेगा. इतिहास पर इतना जोर क्यों?

दूसरी तरफ ऐसे उपयोगी और लुभावने विचार भी आते रहे कि अगर यह फिल्म दुनिया के महानतम फिल्मों में शामिल हो जायेगी तो मुझे फिल्मों में एंट्री मिल जायेगी. पैसे वैसे का सारा इंतज़ाम हो जाएगा. मैं इंजीनियरिंग छोड़ कर इसमें लग जाऊंगा. अगर बलराज साहब थोड़े मेहरबान हो गए तो क्या पता कलकत्ता वाला ये बंगला मेरे नाम कर देंगे. लेकिन ऐसी सम्भावना कम है.

शाम में वापस आने पर जब मैं उन्हें दिन भर की रिकॉर्ड की हुई वीडियो दिखाने गया, तब रामेश्वर ने बताया कि उनकी तबियत ठीक नहीं थी. वो ऊपर के कमरे में आराम कर रहे थे. वहाँ किसी के जाने की इजाज़त नहीं, मुझे भी नहीं. मैं धरातल पर आ गया. कहाँ मैं उनका वारिस बनने के सपने देख रहा था, और कहाँ मुझे उनसे मिलने की भी इजाज़त नहीं है. मुझे खुद पर बड़ी हँसी आई. जिस आदमी ने इतनी दुनिया देख राखी हो, क्या मैं सच में उसे मूर्ख बना सकता था? सच तो ये था कि मैं किसी को मूर्ख नहीं बना पाता था, बल्कि हमेशा खुद मूर्ख बनता आया था. दुनिया में कोई किसी को मूर्ख नहीं बना सकता, लोग खुद को मूर्ख बनाते हैं. मैं खुद से छल कर के, दूसरे के पैसे ऐंठने की हमेशा सोचता रहा. कभी कभी लगता है धिक्कार है मुझ पर, कभी-कभी लगता है दुनिया ऐसे ही चलती है.

**********

चौथे दिन दोपहर के समय बलराज साहब का बुलावा आया. वो अपने कमरे में बिस्तर पर लेटे हुए थे. अब तक मैंने उन्हें हमेशा साफ़ सुथरी महँगी शर्ट-पैंट में देखा था. पहली बार ऐसा लग रहा था कि वो सचमुच नब्बे साल के हैं.

तकिये को पीठ के पीछे लगा कर उन्होंने मेरी बनायी वीडियो देखने की इच्छा ज़ाहिर की है. मैंने उनके लैपटॉप पर जब विडियो दिखानी शुरू की, तब उन्होंने बड़े शालीनता से फटकारा. उन्होंने कहा कि बेहतर है मैं सड़क पर जा कर बर्तन धो लूँ, और जब अपना दिमाग इस्तेमाल करना चाहूँ तो दिल के साथ कोई काम करने आऊँ. इस तरह का काम उन्हें पसंद नहीं. फिर जब उनका ऐसा ठंडा गुस्सा शांत हुआ, तो उन्होंने कहा, “मैं भूल गया था कि मैंने तुम्हे केवल कैमरा पकड़ने के लिए रखा है. किसी से उसकी क्षमता से ज्यादा उम्मीद रखना, दोनों पक्षों को दुखी करती है.” उनके इस वक्तव्य से मैं कहीं ज्यादा दुखी हुआ. लेकिन सत्य यही था कि अभी मेरी क्षमता भी कम थी, और मैंने पूरी मेहनत भी नहीं की थी.

माहौल को हल्का करने के लिए उन्होंने मुझसे पूछा, “तुम्हें क्या लगता है, क्या ये फिल्म पूरी बन जायेगी?”

मैं उनके ऐसे सवाल से थोड़ा हैरान रह गया, “हाँ. अब तो बहुत कम काम बाकी रह गया है न.”

उन्होंने हाँ में सर हिलाया. मैंने पुनः कहा, “हो जायेगी.”

उन्होंने धीमी आवाज़ में कहा, “मैं भी उम्मीद करता हूँ.” कह कर वो बिस्तर में ढीले लेट गए. उनके करवट लेते ही मैं उनसे वापस जाने के लिए पूछ कर मैं नीचे उतरने लगा. नीचे उतरते समय मैंने उनके पढ़ने वाले कमरे को खुला देखा. शायद रामेश्वर बंद करना भूल गया था. उस रूम को देख कर ऐसा लगा कि जैसे कोई आवाज़ मुझे बुला रही है. चले आओ, चले आओ, चले आओ.

रूम के अन्दर आते ही मैंने दरवाज़ा बंद किया. यही खिड़की थी जिसके सामने बलराज साहब बैठना पसंद करते हैं. मैं क्या तलाशने आया था, मुझे भी नहीं पता था. कमरे में इधर उधर मैं कागज़ पलटने लगा. टेबल के दराज़ में मुझे “जाना नहीं दिल से दूर” की स्क्रिप्ट मिल गयी.

मैं आगे के पन्ने पलटने लगा. कहानी भले ही टूटी-फूटी थी पर बहुत मजेदार थी. शायद घंटे भर की फिल्म बनती. कृष्ण और मीना के कुछ मुलाकातें और गाने थे. कितनी बातें कृष्ण खुद-ब-खुद सोचता रहता है.

कृष्ण को पता चलता है कि मीना ने गीता पर हाथ रख कर कसम खायी है कि वो कभी कृष्ण से शादी नहीं करेगी. कृष्ण अपने दोस्त की बात पर विश्वास नहीं करता. वो मीना से मिलने उसी समंदर के किनारे जाता हैं जहाँ पहली बार मीना से उससे अकेली मिलने आई थी. मीना  कृष्ण से प्रार्थना करती है कि वो उसकी सहेली से शादी कर ले. वो अपने माता पिता के विरुद्ध नहीं जायेगी. कृष्ण उसे ज़लील करने की कोशिश करता है. मीना कहती है कि वो ज़िन्दगी भर विवाह नहीं करेगी. यही उसके सच्चे प्यार का सबूत होगा. कह कर वो अपनी चूड़ियाँ तोड़ देती है. कृष्ण ये देख कर बहुत शर्मिंदा होता है. वो मीना के चरित्र को अच्छी तरह जानता था कि मीना अपने बात कभी नहीं तोड़ेगी.

कृष्ण दुखी हो कर वहाँ से चला जाता है. गीली आँखों में कब नींद आ जाती है उसे पता नहीं चलता. वो सपने में देखता है कि घनघोर रात में मीना अकेली समंदर के किनारे बैठी है. कृष्ण उससे बहदवास पूछता है कि वो अकेले आधी रात में क्या कर रही है? मीना कहती है कि उसका प्रीतम उससे बिछड़ गया है, इसलिए उसके जीने मरने में कोई अंतर नहीं है. कृष्ण ये देख कर बहुत रोता है. मीना पत्थर सी पड़ी रहती है. जब कृष्ण अपना उद्वेग नहीं सह पाता तो वो सागर में कूदने की कोशिश करता है. यह देख कर मीना दौड़ कर उसे रोकती है. कृष्ण उससे पूछता है कि आखिर क्यूँ मीना उसके साथ नहीं चलती, उसे मरने भी क्यूँ नहीं देती. इस पर मीना मौन हो जाती है. मीना उसे हाथ पकड़ कर एक जगह बिठाती है.

मीना कहती है- “न सुख है, न दुःख है, न दीन है, न दुनिया, न इंसान न भगवान, सिर्फ मैं हूँ, मैं हूँ.” कृष्ण उसकी बातें सुन कर चकित हो जाता है. मीना आगे कहती है- “मैं तुम्हे अपने शरीर से दूर भेज रही हूँ, लेकिन तुम कहीं जाना नहीं दिल से दूर. मैं हमेशा तुम्हारे पास रहूँगी. कभी तुम्हारी बीवी में समा जाऊँगी, कभी तुम्हारी बेटी बन कर तुम्हारे बाँहों में झूलूँगी, कभी तुम्हारी कोई दोस्त बन कर तुमसे बातें करुँगी. तुम मुझे कितने नामों से पुकारोगे, पुकारते रहोगे. मैं प्यार का चेहरा हूँ, जहाँ भी रहूँगी तुम्हारे साथ रहूँगी. मैं शाश्वत हूँ, मैं सत्य हूँ. मैं तुममे हूँ, तुमसे दूर कहाँ रहूँगी? आज के बाद कभी मुड़ कर मत देखना. मुझे पुकारना भी नहीं. अगर तुम्हारा प्यार सच्चा है तो किशन, मुझे कभी मत बुलाना. कभी नहीं.”

ये सपना देख कर कृष्ण की नींद खुलती है. अभी सुबह नहीं हुई थी. वो सागर किनारे पहुँचता है. मीना वहीं किनारे बैठी हुई मिलती है, ठीक उसी तरह जैसे उसने सपने में देखा था. सारी रात वो वहीं समंदर के लहरों में भीगती रही, वहीं बैठी रही.

कृष्ण उसे देख कर वापस लौट आता है. कुछ दिनों बाद कृष्ण को उसके दोस्त बताते हैं कि मीना का स्वर्गवास हो गया. उनसे लोग पूछते हैं कि क्या वो मीना के अंतिम संस्कार में नहीं जाएगा? कृष्ण मना कर देता है. इस बात के करीब साठ साल बाद, कलकत्ता बदलता है. अनेको जगह की तस्वीरें बदलती हैं. कृष्ण एक बहुत बड़ा व्यापारी बन चुका होता है. एक सड़क दुर्घटना में उसकी बीवी, बेटी, दामाद और नाती का देहांत हो जाता है. कृष्ण वापस कलकत्ते में उसी समंदर के किनारे उसी जगह पर आता है. वो वहीं बैठा रहता है जैसे उसकी मीना पैंसठ साल पहले बैठी थी. इस तरह फिल्म ख़तम हो जाती है.

स्क्रिप्ट के साइडनोट पर बलराज साहब ने लिख रखा था, “मैं ये फिल्म कभी नहीं पूरा कर पाऊँगा. मुझे बार बार वो बातें याद आती है. मैं जानता हूँ मेरी नियति क्या है. फिर भी मैं इससे लड़ता रहूँगा. मैं अपनी जान दे दूंगा, लेकिन इसे पूरा करके दम लूँगा.”

***********

पाँचवें दिन बलराज साहब थोड़े स्वस्थ नज़र आ रहे थे. मैं देर से सो कर उठा था. रामेश्वर ने मुझे बताया कि बलराज साहब दो बार मेरे बारे में पूछ चुके थे. मैं बिना नाश्ता किये उनके कमरे में पहुँचा. उनके पास चार- पाँच लोग कोट-पैंट में खड़े थे. बलराज साहब शायद अभी अभी तैयार हुए थे. उनके चेहरे पर वही मुस्कान थी, जो चालीस साल पुराने तस्वीरों में थी. उन्होंने बातों-बातों में लोगों को गाने का विडियो दिखाने को कहा. रामेश्वर को एक नए कमरे को खोलने को कहा गया. इस बड़े कमरे में मैंने पहली बार कदम रखा, जो किसी थियेटर से कम नहीं था. बलराज साहब बीच में बैठ गए. उनके साथ आये विदेशी लोगों ने प्रोजेक्टर पर विडियो लगाया.

मैं भी पिछली पंक्ति में बैठ कर देखने लगा- कृष्ण और मीना पर फिल्माया गाना, रफ़ी साहब और गीता दत्त की आवाज़ में- जाना नहीं दिल से दूर.

मैं गाने की खूबसूरती देखता रह गया. बलराज साहब ने गाने के बाद अपनी टिपण्णी दी. वो इससे प्रसन्न नहीं थे, बल्कि उन्होंने कई जगह रोशनी डालने को कहा. कई जगह उन्होंने किसी और क्लिप को डालने को कहा. कई जगह उनके मनलायक ‘मीना कुमारी’ की क्लिप मौजूद नहीं थी. इस तरह की चर्चा चलती रही, और मैं देखता रहा कि इस उम्र में भी उनका काम करने का हौसला और तन्मयता. मैंने तो दिल से आज तक कोई काम भी नहीं किया था. इतना धैर्य कैसे? इतनी उर्जा कैसे?

शाम की चाय के बाद जब विदेशी चले गए, तो उन्होंने मुझसे पूछा- “पाणिनि, तुम में बहुत कुछ अच्छा है. ऐसे बुझे-बुझे मत रहो. मेहनत किया करो. ज़िन्दगी में अच्छी बातें देखो और आगे बढ़ो. दुखी रहने से काम नहीं चलेगा. बताओ तुम्हें वीडियो में क्या अच्छा लगा और क्या नहीं?”

“गाना बहुत अच्छा था.”

“वो तो बर्मन दा, रफ़ी साहब और गीता जी का चमत्कार था.”

“वीडियो में सही मूड नहीं आ पा रहा है. अगर हम मीना कुमारी जी की ‘परिणीता’ में से कुछ सीन उठा लें तो?”

“सीधे सीधे नहीं उठा सकते. वैसे मुझे नहीं लगता है कि परिणीता में वैसा कुछ मिलेगा, परिणीता मैंने बीस बार देख रखी है. मेरे पास मीना जी की फिल्मों का कलेक्शन है, तुम ज़रा देख कर बताना. और कोई कमी?”

“आप इस फिल्म से क्या कहना चाहते हैं?”

बलराज साहब ने मुझे गौर से देखा, “तुम क्या सोचते हो, मैं क्या कहना चाहता हूँ?”

“ज़िन्दगी का जो मतलब निकालिए, वो निकलेगा. वैसे मैंने पूरी फिल्म नहीं देखी है.”

बलराज साहब मुस्कुराये- “स्क्रिप्ट पढ़ लेने के बाद इतना तो कहा ही जा सकता है.”

मेरी चोरी पकड़ी गयी. मैंने बात सँभालते हुए कहा- “वो कल आपका कमरा खुला था तो मैंने…”

उन्होंने ना में हाथ हिलाते हुए कहा, “वो सुनने में मेरी कोई रूचि नहीं है. डरो मत, मुझे किसी ने ऐसा कुछ नहीं बताया. तुमने प्रश्न ऐसा किया है जो कोई पटकथा पढ़ लेने के बाद ही कर सकता है.”

फिर मेरा हौंसला बढ़ाते हुए कहा, “आओ, एक खेल खेलते हैं.”

मेरा हाथ पकड़ कर मुझे बैठक में ले गए. वहाँ उन्होंने ताश के पत्ते निकाले. मुझसे हँस कर कहा, “ये टैरो कार्ड हैं. इनसे खेलते हैं.”

“आप इन पर विश्वास करते हैं? आप इतने जिंदादिल इंसान हैं, फिर ये सब…?”

“ज़िन्दगी भी एक जुआ है दोस्त, जब इसमें जीत होती है तो मत पूछो क्या आलम होता है, लेकिन जब उतरता है तो…”

फिर मुस्कुरा कर कहने लगे, “छोड़ो. ये बस एक खेल है. तुम मुझसे कोई सवाल पूछते रहो, मैं जवाब देता जाऊँगा.” उन्होंने पत्ते काटे और और उन्हें वृत्ताकार सजा दिया.

“कुछ भी पूछ सकता हूँ?”

उन्होंने आगे बढ़ कर मेरे कंधे थपथपाए, “कुछ ऐसा मत पूछ लेना जो मैं बता नहीं पाऊँ.”

मैंने शरारत से कहा, “आपको कितनी बार प्यार हुआ?”

उन्होंने बिना घबराये बिना रुके फ़ौरन जवाब दिया, “अमा यार. मौका मिला है भविष्य जान लेने का, तुम बीते ज़माने के पीछे पड़े हो.”

अपने इतने बूढ़े जिंदादिल दोस्त से मैं भी खुल गया, “अच्छा ये बताइए, क्या मैं फिल्म डायरेक्टर बनूँगा?”

बलराज साहब ने रहस्मयी निगाहों से मुझे देख कर एक पत्ता चुनने के लिए कहा. ढलती शाम में अजब सा रंग आ गया था. ऐसा लग रहा था मानो अरबी संगीत बज रहा हो, और खलीफ़ा के सामने मेरे शतरंज की बाजी बिछी हो. मेरी एक गलत चाल पर मेरा सर कलम कर दिया जाएगा. मुझे ऐसा डर और रोमांच सरफिरा लग रहा था. रह रह कर ऐसा डर सताता था कि जैसे बलराज साहब मेरी नस नस से वाकिफ हैं. मेरी मक्कारी उनको पता है, सही मौके पर मुझे सज़ा दे दी जायेगी.

मैंने धड़कते दिल से एक पत्ता चुन लिया.

बलराज साहब ने पत्ता देख कर कहा, “गद्दार.. ये एक पाँव पर उल्टा लटका आदमी. इसका मतलब है..” फिर मेरी आँखों में झाँक कर उन्होंने अपने होंठ सिकोड़े, “इसका मतलब है, बलिदान के बाद नये लक्ष्य की प्राप्ति.”

“मैं कुछ समझा नहीं.”

“धैर्य रखो, इंतज़ार करो, किसी नए ढंग से चीज़ों को देखो. त्याग, और बलिदान से तुम्हें नया जीवन मिलेगा.” बलराज साहब ने अपने दोनों हथेलियों को जोड़ कर अपनी ठुड्डी पर ठोका.

मुझे लगा इस खेल में मैं जमूरा बन गया हूँ, और वो मदारी की तरह मुझे नचा रहे हैं. इसलिए भी मैंने कहा, “अब मैं पत्ते सजाता हूँ. आप चुनिए.”

बलराज साहब ने ठहाका लगाया. हलके से सर झटकते हुए कहा, “क्यूँ नहीं. बिलकुल.”

उनके चुने हुए पत्ते में ‘जादूगर’ निकला. जिसका मतलब मैंने बताया कि वो बहुत आत्म विश्वासी हैं. उनकी मेहनत से उनकी फिल्म ज़रूर सफल होगी. इसपर उनके चेहरे पर विषाद छा गया, जो कि देखते देखते ओझल भी हो गया. नब्बे सालों में उन्होंने अपने आप पर पूरा नियंत्रण करना सीख लिया था.

हम लोग इस तरह ये खेल खेलते रहे. उन्हें मेरे बोलने का अंदाज़ पसंद आया. मेरे कहे हुए कार्ड के मतलब उन्हें बहुत पसंद आये. मैंने कई सवाल पूछे, जैसे कि क्या मेरी शादी किसी सुन्दर नायिका से होगी? मैं विदेशों में घर बना सकूँगा या नहीं? क्या मैं ब्रिटेन के शाही परिवार के साथ रात्रिभोज करूँगा?

मेरे पूछे सवालों का वो घुमा फिर कर उत्तर देते रहे. ऐसे उत्तर जो सच में उत्तर थे ही नहीं थे.  दोनों सिरे से खुले हुए सन्देश, जिनका मैं जो मतलब निकाल लेना चाहूँ, वो निकालता रहूँ.

मैं अपने उत्तर में काफी स्पष्ट होता गया. मेरे जवाब आने वाले कुछ दिन, साल तक पूरे हो जाने की गारंटी देते रहे. जैसे दो साल बाद उनकी फिल्म को फ्रांस में चार, और इटली में पांच पुरस्कार मिलेंगे. ना जाने हमने कितनी बार पत्ते काटे. रात के ग्यारह बज गए. हम दोनों में से कोई भी खाने के लिए नहीं उठा. फिर भी मुझे यही लगता रहा कि अभी भी मैं खलीफ़ा के सामने हारने वाला हूँ. कोई मौका मिले और मैं यहाँ से भाग निकालू. कोई तो मौका मिले मैं पलटवार कर सकूँ.

मैंने पत्ते काटे. बलराज साहब ने मुझसे पूछा, “बताओ, मेरी कितनी ज़िन्दगी बाकी है.” उन्होंने जो पत्ता चुना वो शैतान का निकला.

जैसे कितनी शक्तियाँ मेरा गला घोट रही हों. मेरा हलक सूखा जा रहा था. उनकी आँखों में ना जाने क्या दौड़ रहा था. जैसे उनकी जीवन का आधार मेरे होठों से निकलने वाले अगले शब्द पर जा टिका हो.

मेरे मुँह से निकला, “चार घंटे, चालीस मिनट.”

आज तक मैं उस घड़ी को कोसता हूँ कि मैंने ऐसा क्यूँ कहा. बलराज साहब अचानक से उठे और अपने कमरे में चले गए. मैं बदहवास सा सोचता रहा कि मैंने क्या कह दिया. उन्हें क्या हो गया. बाहर बरसात हो रही थी. बलराज साहब जब रूम से बाहर आये तो उन्होंने ओवरकोट पहन रखा था. अपने साथ कैमरा और कुछ सामान ले कर आये थे. रामेश्वर को हिदायत दी कि वो सामान गाड़ी में रख दे. मुझे भी साथ चलने को कहा.

घनघोर बारिश हो रही थी. बलराज साहब ने ड्राईविंग सीट संभाली. जब उन्होंने अपना हैट पहना मुझे उनके चालीस के दशक के फोटो याद आ गए.

गाड़ी चलाते हुए उन्होंने मुझसे कहा, “पाणिनि, तुम्हारी इतनी भविष्यवाणियों में केवल आखिरी बात सही होगी. मैं ये फिल्म पूरी नहीं कर पाऊंगा. ये मेरे भाग्य में नहीं है.”

मैं हतप्रभ रहा गया. बहुत पूछने पर उन्होंने इतना ही बताया कि चालीस के दशक में जब वो पहली बार ट्रेन से कलकत्ता आ रहे थे, तब उनकी मुलाकात किसी ज्योतिषी से हुई थी. उसने कहा था कि वो जीते जी कभी फिल्म नहीं बना सकते. अच्छा होगा वो केवल फोटोग्राफ़र बन कर जीवन बिताएं. इसलिए पूरी ज़िन्दगी वो इस बात का इंतज़ार कर रहे थे कि कब वो मौत के लिए तैयार होते हैं.

“आज मैं मरने के लिए तैयार हूँ. मैं जानता हूँ ये फिल्म कभी पूरी नहीं होगी. लेकिन मैं अपने भाग्य से बड़ा हूँ. आज हम आखिरी सीन शूट करेंगे. आखिरी सीन, जिसमें कृष्ण बूढ़े हो जाने के बाद समंदर के उसी किनारे जाता है जहाँ वो मीना से आखिरी बार मिला था. ”

मूसलाधार बारिश में गाड़ी तेज गति से हिचकोले खाती हुई, समंदर के पास पहुँचने लगी. मैंने उनसे पूछा कि सारी शूटिंग के बाद क्या ये फिल्म उन विदेशियों को दे दी जाए. इसका उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया. मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि बलराज साहब आखिर क्या चाहते थे. एक तरफ पुरजोर कोशिश कि ये फिल्म शानदार बने, एक तरफ ऐसा मौन. ये मेरी मुँह से निकली कौन सी बात पर ऐसे बिगड़ पड़े. क्या सच में इनकी मौत होने वाली है?

समंदर तट पर भयंकर तूफ़ान आया हुआ था. बलराज साहब गाड़ी में से उतारे और कैमरा का सामान निकालने लगे.

मैंने उन्हें टोका, “सर, बहुत तूफ़ान आया हुआ है. हम थोड़ा रुक जाते हैं.”

उन्होंने मुझे जवाब दिया, “पाणिनि, मेरे पास ज़िन्दगी के केवल तीन घंटे, तीस मिनट बचे हैं.”

मेरे जी में आया कि कह दूँ कि शूटिंग में केवल एक-दो घंटे ही लगेंगे. हम तूफ़ान के रुक जाने का इंतज़ार क्यूँ नहीं करते. लेकिन उनके जोश-खरोश के आगे मुझे कुछ कहने की हिम्मत नहीं हुई. मैं भी गाड़ी से बाहर आ गया और उनकी मदद करने लगा. बहुत तेज़ बारिश हो रही थी. मिनटों में मैं पूरा भीग गया. मैंने बैट्री निकाल कर रखी. उसे प्लास्टिक से ढक दिया. इलेक्ट्रिक लाईट निकाल कर लगाने लगा.

भरी बरसात में बलराज साहब बताते रहे कि कैसे उन्हें फिल्माना है. कौन-कौन से बटन कब दबाने हैं.

जब वो दूर एक जगह पर बैठ गए, तो मैंने शूटिंग करनी शुरू की. मैं जोर से चिल्लाया, “कट.” बलराज साहब फिर भी नहीं हिले. अचानक समंदर में शोर उठा. मैंने देखा समंदर में एक बड़ी ऊंची लहर उठ रही है. मैं पूरी ताकत से चिल्ला उठा, “बलराज साहब, भागिए.” बलराज साहब पर कोई असर ही नहीं. मैं उनकी तरफ दौड़ा. वो मुझसे कुछ दो सौ मीटर दूर होंगे. तभी लहर इतने जोर से आई कि उसमें बलराज साहब समा गए.  मैं चीख उठा.

अगले ही क्षण मैं भी किसी बड़ी लहर की चपेट में आ गया. मेरे साथ कैमरा और इलेक्ट्रिक लाईट, सब बह निकले. वापस मुझे लहर ने किनारे पर पटक दिया. मेरे सर पर बहुत गहरी चोट लगी थी शायद.

सुबह जब मेरी आँख खुली, तो मैं समंदर के किनारे अकेला पड़ा हुआ. जैसे पिछली रात कुछ हुआ ही नहीं हो. बलराज साहब, उनकी गाड़ी किसी का कोई पता नहीं था. मैं सोचता रहा कि मैं वापस उनके बंगले पर जाऊं, या क्या करूँ? फिर ख्याल आया कि उनके बंगले पर जा कर मैं क्या कहूँगा? कुछ भी नहीं! मैं बहुत दूर पैदल चलता रहा.

मैंने तय कर लिया था कि सड़क पर किसी कुंजड़े के साथ मिल कर नारियल बेचूंगा. कुछ दिन असली ज़िन्दगी जियूँगा, फिर पैसे इक्कट्ठे कर के जालंधर लौट जाऊँगा.

4 comments
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  1. Surreal!! I loved it. Esp. the old man’s character

  2. अमृता जी की टिपण्णी अफ़सोस जनक है. भूतनाथ जी, क्या बेसिर-पैर की कहानी है? इसने बहुत समय बरबाद किया. आपसे अनुरोध है कि ऐसे बेतुके ट्रिब्यूट से बचें. कुछ आम जन जीवन से जुड़ा लिखा करें.

  3. kahani achhi hai bandhe rakhti hai ki aage kya hoga.mujhe achhi lagi

  4. Dev Anand Saheb… You will live forever…

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