आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

कसूरवार: भगवंत रसूलपुरी

आंगन में पैर रखते ही ऊबड़-खाबड़ छोटी-छोटी ईंटों से ठोकर खाकर गिरने लगती हूँ. मुश्किल से बची हूँ, नहीं तो राख के ढेर पर गिर जाती और सारा सिर जो कल धोया था, राख में सन जाता. ठोकर लगने से दिल की धडक़न और बढ़ जाती है. रज्जो के घर से आते हुए ही टांगे फूलने लगी हैं. आश्चर्य हो रहा है कि दो-दो मील से घास का गट्ठर सिर पर रख कर लाने पर भी कभी टांगे इस प्रकार नहीं फूलीं थी. रज्जो का गाढ़ा लहू मेरी आंखों में जमा पड़ा है, जो मैं देख कर आई हूँ. लहू ही नहीं, दढ़ से कटा सिर भी लहू से भीगा हुआ देखा है. मैंने ही नहीं पूरे गाँव ने देखा है. तौबा-तौबा… रज्जो कटी-पिटी फर्श पर चारों खाने चित्त पड़ी थी. कुछ क्षण ही मैं देख सकी थी. लोगों की भीड़ में से हाय-हाय… बख्श देना नीली छत्तरी वाले… जैसे शब्द मेरे कानों में अभी भी गूंज रहे हैं. अपनी महराज के घर से जब निकली थी तो गाँव के लडक़ों के बोल मुझे चुभे थे, ‘अच्छा हुआ इसका किस्सा खत्म हो गया… ससुरी ने गंदगी फैला रखी थी, अब तो घर ही… गाँव का जीना हराम… ’

फिर एक और पड़ोसी कहता है, जिसके बार में मैं रज्जो से अक्सर सुना करती थी, पर दर्शी ने जरा लेट कर दिया… दस साल पहले हिम्मत कर लेता तो… खैर माँ का बेटा हिम्मत कर ही बैठा.

मैं कांप गई थी, उनके बोल सुनकर, जैसे वे बोल मुझे सुनो गये हों. रज्जो जिसे इस मौत के मुंह में डालने वाली मैं स्वयं हूँ… पहले पहल रज्जो दिन ढिड्डल के पास दूध लेने आया करती थी… मैं होती तो बातें करने बैठ जाती… एक दिन जब काम बहुत बढ़ गया तो दित्तू ढिड्डल को चारा लाने के लिए कह दिया था. यद्यपि रज्जो का पति बैंक में चपरासी था, फिर भी गुजारा ही मुश्किल से होता था और फिर रज्जो को मना कर मैंने दित्तू के पास काम करने को लगा दिया था… वह दित्तू के साथ चारा लेने जाती रही… फिर उसकी बातें भी गाँव में होने लग गई. दर्शी को तो वह जूती की तली समझती थी… वह सीधा साधा बगुला भगत जो था.

… दो कदम चलते ही ईंटों की ठोकर खा कर गिर ही पड़ती हूँ, ये ईंटें जिन पर मेरी हथेली है, डेरी वालं ढिड्डल के मुसलमानों के पुराने लाहोरी ईंट के बने कोठे की हैं, जो उसने वहां दो मंजिला मकान बनवाने के लिए गिरा दिया था. मुझे ही पता है कि मैंने कैसे सिर पर टोकरियों में रख-रख कर ईंटें ढोई थीं, मेरे सिर की खोपड़ी दुखने लगी थी. नाजर को जब ईंटें ढोने के लिए कहा था तो वह नल पर नहाते हुये मुझ पर बिफट पड़ा था, ‘ढोती फिर जा के ईंट, तेरा नौकर नहीं हूँ… तुझे इससे महल बनाना है… हूँ?’

वह नहा कर पास के गाँव में मेले में हो रहे दंगल देखने चला गया था, और मैं उसे बुरा भला कहती हुई टोकरी उठा कर ईंट लेने चल दी थी.

वह भैंसों की डेरी वाला दित्तू ढिड्डल हमारी ही बिरादरी का है. जब से इसने भैंसों की डेरी खोली है, इसकी तोंद निकलने लगी है. देखने में लाला जैसे लगता है. जीता रहे दित्तू… उसकी मेहरबानी से बरसात में कीचड़ होने से बच गई है. स्नानघर में कपड़े धोती बहु बिना कुछ देखे कपड़े धोये जा रही है. लग रहा है जैसे थापी मेरे सिर में ठक-ठक करके बज रही है. खूंटे से बंधी रौमी मुझे देख कर भौंकती है. हांफती हई उठकर मैं रौमी के पास चली जाती हूँ. वह मेरे पैर चाटने लग जाती है, मेरे पैरों में लेट-लेट जाती है… मैं उसके नर्म-नर्म मटमैले बालों पर खुरदुरे हाथ फेरती हूँ. उसकी चईं-चईं में कितना दर्द निकलता लगता है. वह कान झिडक़ती है और पूंछ बार-बार फर्श पर पटकती है… मुझे अपने बेटे नाजर पर बहुत गुस्सा आता है जो काम पर जाते समय रौमी को जंजीर से बांध कर जाने की अपनी पत्नी को आदेश देता है. मोह वश ही रौमी को खोल देती हूँ और वह उछलती हुई बाहर भाग जाती है. मुझे कुछ चैन आता है. बहू स्नानघर से तार पर खेस सुखाने को डालने आई है मुझे आंख दिखाते हुए कहती है, ‘छोड़ दिया ना अपनी कुलक्षणी को… अब बाहर आवारा कुत्तों के साथ घूमती फिरेगी… मुश्किल से ही तेरे बेटे ने लाकर बांधा था… और तुमने झट से जंजीर खोल दी… परसों सारे कुत्ते इसके पीछे आ गए थे… लोग कहते थे भई इसे बांध कर रखो… हमारे घर में भी बहन बेटियां हैं… और बहु फिर स्नानघर में जाकर कपड़ों पर जोर-जोर से थापियां मारने लगी. इसके कड़वे बैन सुन कर मेरा मुंह नहीं खुलता… डरी-डरी सी ऐनक में से स्नानघर की ओर झांकती हुई परेशान हो जाती हूँ.

रोटी खाने को भी मन नहीं करता. ठंड दिन चढऩे के साथ भी घटती नहीं है. कोठरी में जाते समय जंजीर पैर में लग कर खडक़ती है. जंजीर में से अजीब-सा संगीत निकलता है. भीतर से चिलम ला कर चूल्हे के आगे ठण्डी हो चुकी राख गिरा देती हूँ. तम्बाकू डाल कर लकड़ी के कोले की आग रखती हूँ. भीतर आकर अपनी खाट पर बैठ कर खेस लपेट कर हुक्की पीने लगती हूँ. लगता है पेट में गैस भरी हुई है. हुक्की पीते ही ध्यान सामने शीशे में मढ़ी फोटो पर चला जाता है. यह मेरी ही जवानी के समय की फोटो है, मेरे साथ है नाजर का बाप लच्छू. मन में लच्छू का नाम आते ही मुंह कड़वा हो जाता है. फोटो में तो लच्छू अच्छा लगता है पर विवाह के बाद नित्य दारू पीने के कारण कुछ ही दिनों में कमजोर तिनका सा हो गया था और मेरी आंखों के आगे लच्छू का सूखा सा शरीर आ जाता है. पर यह नाजर का बाप नहीं है… लोगों के लिए दोनों बाप बेटे हैं. सच तो मुझे या लच्छू को ही पता है. मैंने यह सच आज तक किसी को नहीं कहा, भला कैसे बता सकती थी कि यह नाजर, डेरी वाले दित्तू ढिड्डल का बेटा है और रानी भी. अपने सिर में राख डालने वाली बात थी. मैं जब से ब्याह कर आई हूँ लच्छू कौड़ी का काम नहीं करता था, अगर करता भी तो स्वयं खा पी डालता. सास-ससुर ने तंग आ कर हमें अलग कर दिया. मेरे भाग्य में ही मुसीबत थी, मुझे ही मजदूरी करनी पड़ी. मैं कौन-सी नयी नवेली रह गई थी. पांच साल तो हो गये थे आये, पर गोद अभी खाली थी… बीस पच्चीस भैंसों का मैं और उसकी पत्नी काम करतीं. एक दो नौकर भी थे. उसकी पत्नी के जोड़ों में दर्द रहता था. इस दर्द ने उसे खाट से लगा दिया था. उठते-बैठते हाय-हाय करती रहती दित्तू ढिड्डल ने एक नौकर और रख लिया. मैं भैंसों का गोबर बटोरती, पेशाब साफ करती, भैंसों को नहलाती और उसका दूध दुहती, नौकर मेरी सहायता करते. उसके पास चार-पांच एकड़ जमीन भी ती. वहां वह चारा उगाता, मैं भी अपनी भैंस के लिये चारा का गट्ठर ले आती. भैंसों का गोबर ला कर अपने पाथन स्थल पर कंडे पाथ लेती. घर की गाड़ी चलने लग गई थी. फिर मेरा काम केवल भैंसों को नहलाना और दूध दुहना रह गया था.’

दित्तू ढिड्डल की पत्नी तो खाट पर पड़ी कराहती रहती. उसके बच्चे स्कूल-कालेज में पढऩे चले जाते. दित्तू अपनी पूछ हिलाता हुआ मेरे पीछे लगा-लगा स्वयं भी छोटे-छोटे काम करने लगा था. कभी-कभी-कभी लच्छू दारू पी कर मुझे डेरी जाने से रोकता, ‘अमरो मेरी बात सुन ले कान खोल कर… आज से साले ढिड्डल की डेरी पर मत जाना… वह ससुरा कुत्ते की औलाद है… बस तू जाना मत.’

मैं उस समय चुप हो जाती थी. दित्तू घूमता फिरता हमारे घर आ जाता. सबकी राजी खुशी पूछ जाता. तंगी-फंगी के समय हमें पैसे भी दे जाया करता. तब लच्छू भीगी बिल्ली बन जाता. बाद में पागल कुत्ते की तरह मेरे पीछे पड़ जाता. मुझे दौड़-दौड़ कर मारने आता. मैं डेरी मं भी समय कुसमय काम कर आती. जब कभी भैंस दुहानी होती, वह नौकर के हाथ खबर भेजकर मुझे बुला लेता फिर हमने बस स्वाभिक तौर पर ही एक गिलास में दूध पीना शुरू कर दिया… एक ही थाली में रोटी खाने लग गये थे. मुझे उन क्षणों में दित्तू फरिश्ता जैसा लगा था, जो हमारे पूरे परिवार का पेट भरने लगा था. डेरी में काम करते हुए मेरी गोद में नाजर आया था… फिर एक लडक़ी हुई और फिर एक और फिर एक और. बच्चों को खुला दध नहीं मिलता था, पर लच्छू तो अक्सर ही बीमार रहने लग गया था. कभी-कभी में दूध या चारे का गट्ठर ले कर आती तो लच्छू बकने लग जाता. बोलते ही उसे हौंकनी चढ़ जाती थी… शीशे में मढ़ी फोटो पर चिडिय़ा आकर बैठ जाती है. वह मेरा ख्याल तोड़ देती है. हाथ से उड़ाने से उसकी चोंच के कुछ तिनके खाट पर आ गिरते हैं, और कुछ चिलम में, चिलम के तिनकों में आग नहीं लगती. मुझे यह देख कर ख्याल आता है कि चिलम की आग ठंढी हो गई है… मैं तो यूं ही कश खींचे जा रही हूँ.

बहू की ठक-ठक वैसे ही जारी है. मुझे अपने कपड़ों का ख्याल आता है वो कितने दिनों से मैले पड़े हैं. मैं बहू को धोने के लिये देने का मन बनाती हूँ. हुक्की रख कर खाट से उठने लगती हूँ तो घुटनों में चटाक सा होता है. पीड़ा की लहर रीढ़ की हड्डी से होती हुई, पूर शरीर में पहुंच जाती है. खिडक़ी के पास गड़ी कील पर से कपड़े उतारते समय निगाह ताकी से बाहर चली जाती है. रौमी बाहर चौबारे वालों के कुत्ते के साथ गेहूँ के खेतों में खेल रही है. अन्य कुत्ते दूर-दूर हैं. रौमी खेतों मं छलांगे लगाती हुई मुझे अच्छी लगती है. फिर वह रौमी को कमर से पकड़ कर अजीब हरकतं करता है. मेरे मन को कुछ नहीं होता क्योंकि इस प्रकार तो ढिड्डल की डेरी में आमतौर से होता रहता था, नया दूध करवाने के लिए लोग दित्तू के पास ही भैंसे ले कर आते रहते थे. चौबारे वालों की कालेज में पढऩे वाली लडक़ी यह तमाशा चौबारे में खड़ी छिप-छिप कर देखती है. कुत्ते की हरकतों से मुझे बाबा कांशी की याद आ जाती है.

… जब मेरी बेटी रानी को मिर्गी के दौरे पड़े थे तो हम बहुत परेशान हुये थे. जवान जहान लडक़ी पास के गाँव के बाबा कांशी के पास जाने के लिए लोगों ने कहा था. कांशी रानी की झाड़-फूंक करने लगा था. उसने रानी को भीतर करके हमें आंगन में कर दिया था. जब पहलने दिन ही कांशी अंदर से झाडफ़ूंक करके बाहर निकला था. तब मैंने उसे इस तरह करते देख लिया था, जो अब चौबारे वालों का कुत्ता… मैं गुस्से से भरी हुई अन्दर पहुंच गई थी. कांशी खिसयाई हंसी हंसा था कि कांशी का ईंट मार कर सिर फोड़ दूं… फिर कांशी हमारे घर अक्सर ही आ जाता. रानी कुछ ठीक हो गई थी. फिर तो मुझे बाबा कांशी शक्ति सम्पन्न बाबा लगा था. तब लगा था कि कांशी मेरे पति को भी ठीक कर सकता है, अपने मंत्रों से, पर ऐसा नहीं हो सका.

… दोनों की कमर मुड़ जाने पर मैं खिडक़ी बंद करके बहु को कपड़े देने बाहर निकल जाती हूँ. डर जाती हूँ कि यदि बहू का ध्यान बाहर चला गया तो मेरी बुरी फीजहत हो जायेगी. कपड़े देते समय मुझे उन कपड़ों की बात याद आ जाती है, जो हमारे बिरादरी के लडक़ों ने मेरे और दित्तू के एक साथ पड़े कपड़े उठा लिये थे. हमें तो कोई इसका ज्ञान ही नहीं था. तब मुझे बहुत डर लगा था, अपनी बदनामी से. फिर दित्तू ने अपनी पत्नी के कपड़े लाकर मुझे दिये थे और मैं गोधूलि के बाद घर आई थी. उस दिन लच्छू और अपने बेटे का सामना मैं नहीं कर सकी थी.

… कपड़े पकड़ा कर आंगन में छांव में पड़ी खाट धूप में खींच लेती हूँ. बैठने लगती हूँ तो हुक्की पीने को जी करता है. दोबारा आग डाल कर धूप में बैठ जाती हूँ और करना भी क्या है… मुझे उन सिगरटों का ध्यान आता है, जो सिगरटे बाबा कांशी ने मुझे पिलाई थीं. मैं उस दिन चारा खोद कर घर आ रही थी. उन दिन मैं स्वयं ही दित्तू ढिड्डल की डेरी में जाना बन्द कर दिया था. भैंसों के दूध से कुछ पैसे आ जाते थे. मुझे चारा सिर पर लाते हुए देखकर भट्ठे के पास शमशान घाट के पास एक दिन उसने साइकिल खड़ी कर दी थी. हम टाहली वृक्ष की छांव में बैठ गये. उसने जेब से कीमती सिगरटों की डिब्बी निकाली थी और सिगरेट ला कर मुझे दे दी थी. थोड़ी सी पीकर मैंने फिर उसको पकड़ा दी थी. उसके पास अमरूद भी थे. हम अमरूद खाने लगे थे. वे अमरूद वह निकट के बाग से लेकर आया था. हम बैठे हुए थे कि दानिही ओर के ईख के खेतों से हमारी बिरादरी की बुढिय़ा गर सिर पर धरे निकलती हुई मेरी नजर में पड़ी थी. मेरा ख्याल था कि वह घास ले कर चली गई है पर… फिर मैं गाँव से बाहर होकर घर पहुंची थी. जैसे चोर छिप-छिप कर आता है… उन्होंने आ कर हम दोनों की मिट्टी पलीद की थी. मेरे घर पहुंचने से पहले ही बात घर पहुंच गई थी. नाजर ने तो मुझे दो चार घूंसे-थप्पड़ भी मार दिये ते. वह बहुत नाराज हो रहा था, ‘तुमने गाँव में हमारा जीना हराम कर दिया है… मर क्यों नहीं जाती…? उसने चीख चीख रक कहा और फिर फूट-फूट कर रोने लगा था. उसकी पत्नी उसे चुप कराने आई थी तो नाजर ने दो चार थप्पड़ उसकी गर्दन में भी जड़ दिये थे. लच्छू भी घूंसा तान-तान कर मेरी ओर आता था. उस दिन मेरा मन डूब मरने को किया था. क्या लेना देना था ऐसी जिन्दगी से… इस बात के बाद लच्छू बहुत गिर गया था. हर समय खाट पर बैठे-बैठे बड़बड़ाता रहता और चिडिय़ां-कौओं को गालिया बकता रहता फिर तो एकदम से खाट से लग गया था, जब खांसता तो चेहरा लाल हो जाता. फिर वह जोर-जोर से सांस भीतर खींचता… ऐसा दिन में कई बार होता… अब काम करने वाला कौन था? नाजर तो जितने पैसे कारखाने से लाता, अपना ही जेब खर्च चलाता था. रानी के बाद छोटी बेटी भी जवान होने लगी थी. पेड़ की तरह… पहले पढऩे बैठाया… फिर फेल होती गई अंत में लच्छू ने हटा लिया…. घर में खाली बैठे पहले तो वह फुटबाल के खोल सीती रहीं, फिर जब इनका काम कम हो गया तो मजदूरी करने जाने लग गई. नाजर का ब्याह भी मैंने इधर-उधर से पैसे माँग के किया था, यद्यपि उसने कभी मुझसे सीधे मुंह बात नहीं की. साल भर बाद ही मैं दादी बन गई थी… दोनों लड़कियां जो पैसे मजदूरी के लातीं उनसे ही घर का खर्च चलता था. वे अक्सर सब्जी भी ले आती थीं और भैंस के लिए चारा भी.’

रौमी के भीतर आने पर मेरा ध्यान टूट कर रौमी की ओर चला जाता है. बहू को रौमी को देखकर गुस्सा आ जाता है. वह चूल्हें में आग बालती हुई फूंकनी उठा कर रौमी को मारती है. रौमी पें-पें करती मेरे काठ के नीचे आ घुसती है. मुझसे बोले बिना रहा नहीं जाता, ‘क्यों बे जुबान को पीटती है?’

बहू जैसे भरी भराई बैठी है. मुझसे गुस्से में कहती है, ‘तुम्हें बहुत हेज आता है… बड़ी दानी को… तुमने जग जीत लिया है न जंजीर खोल कर… जब इनके बेटे को पता लगेगा तो वह उसे जिन्दा नहीं छोड़ेगा.’

आखिर वही बात हुई थी, जिसका मुझे डर था. बहू को पता लग ही जाता है… आंगन में धूप हट कर पिछले टाहली के पेड़ों पर चली जाती है, और शाम होती देखकर खाट भीतर कर लेती हूँ. रौमी को जंजीर से फिर बांध देती हूँ. लड़कियां भी आलुओं के स्टोर से मजदूरी करके वापस आ जाती हैं. रानी ने पल्ली की गांठ जैसी अंदर लाकर रख दी है. शायद आलू है. बहू रोटी पकाते हुए, भट्टी के नीचे आग भी जलाने के लिये मुझसे नहीं कहती.

मैं भीतर से टूट गई महसूस करती हूँ. इतना तो तब भी नहीं टूटी थी, जब मेरे पति लच्छू का देहांत हुआ था. मुझे तो उल्टी उस समय राहत मिली थी. अचानक ही मुझे ख्याल आता है कि तम्बाकू वाला डिब्बा तो खाली पड़ा है. मैं छोटी बेटी को दुकान से तम्बाकू लेने भेज देती हूँ. तभी नाजर का बेटा घिसटता-घिसटता मेरे पास आ जाता है. मैं डरती-डरती उठा लेती हूँ. मेरा ध्यान बचपन की ओर चला जाता है.

… बचपन बस आम सा, साधारण सा, आम लड़कियों जैसा जब छोटी थी, माँ मुझे बहुत मारा करती थी. जब स्कूल न जाती तो मुझे रास्ते भर घसीटती हई ले जाकर स्कूल में छोड़ कर आती थी. धक्का मर के मुश्किल से पास होती थी… तब मैं छठी-सातवीं कक्षा में पढ़ती ती, जब मेरे पिता को अधरंग हो गया था. सारी कमाई बंद हो गई थी… और माँ ने मेरा नाम स्कूल से कटा कर मुहल्ले की औरतों के साथ खेतों मं मजदूरी करने भेज दिया था. स्कूल से हट कर मुझे लगा था, जैसे माँ ने मुझे अंधेरी कोठरी से बाहर निकाला हो. सबसे छोटी होने के कारण मुझे मजदूरी के पैसे भी कम ही मिलते ते. फिर माँ ने मुझे मजदूरी पर जाने से रोक कर विलायती के घर बर्तन माँजने और सफाई का काम करने पर लगा दिया था. घर के लोग दयालु थे. वे मुझे रोटी भी दे देते और पुराने कपड़े भी. उनके कालेज में पढ़ते लडक़े के आगे मैं लाचार सी हो कर रह गई थी… उन क्षणों को याद करके अक्सर मन तडफ़ उठता है. वह मुझे घर वालों से चोरी-छिप्पे खाने की चीजें भी दे देता और पैसे भी फिर मुझे सब अच्छा-अच्छा लगने लग गया. उन्हीं दिनों में मैं लच्छू के लड़ बंधी थी, शायद विलायती की कूबड़ वाली बुढिय़ा ने माँ से कोई बात बता दी थी और माँ ने तुरन्त मेरा रिश्ता कर दिया था. विलायती के घर से हटा कर मुझे घर में बिठा लिया था. जब यहां ब्याह कर आई थी तो यहां भी गरीबी की दलदल थी.

… पोते को मैं छाती से लगा लेती हूँ. उसे कलेजे से खींचते हुए लग रहा है, जैसे वह मेरा बचपन हो… पोता रोने लग जाता है. शायद मैंने ज्यादा ही भींच दिया है. उसे चुप करवाती हूँ रानी रोटी लेकर आ जाती है. ‘अम्मा, रोटी खा लो पहले.’

उसके बोल सुनकर चौक कर मैं उसकी ओर देखती हूँ. उसका चेहरा देख कर मुझे बहुत तरस आता है, और मुझे ख्याल आता है कि मैं बचपन में नहीं बुढ़ापे में पहुंच चुकी हूँ. रोटी खाने को मन नहीं करता. तरी वाली सब्जी है. लग रहा है जैसे टोरी में तरी नहीं लहू पड़ा है, ग्रास लगाते ही चौंक पड़ती हूँ… हैं लहू! यह कटोरी में कैसे आ गया, यह तो रज्जो के घर के फर्श पर फैला हुआ था… रज्जो का लहू… कटू हुई गर्दन… लहू के छिछड़े… उफ मेरे हलक मं से ग्रास निगला नहीं जाता… फिर साइकिल खडक़ने की आवाज आती है. शायद नाजर काम से वापस आ गया है. यह सोचकर तो और भी डर जाती हूँ कि रौमी का क्या होगा? मुझे रौमी पर बहत तरस आता है. बहू ने शायद सब कुछ बता दिया है, तभी तो वह इतने गुस्से में बोल रहा है. उसके बोल मेरे कानों में जमते जाते हैं, ‘इस बुढिय़ा की भी गर्दन रज्जो की तरह कट जाती तो अच्छा था… ’

मेरा ही बेटा कह रहा है. हां, वह ठीक ही तो कहता है, रज्जो को यहां तक पहुंचाने वाली मैं ही तो हूँ. दित्तू ढिड्डल की भैंसों का दूध दुहना मैंने ही रज्जो को सिखाया था और फिर वह पेशाब से सने गंदे हाथ पैर धो कर घर के दूध को डोल लेकर आना स्वयं ही सीख गई थी. मैंने तो छोड़ दिया था, रज्जो फिर भी जाती रही थी. मुझे भी ऐसे ही मार देना चाहिए… चाहे लच्छू ही मार देता… मर तो जाना हो था से… या नाजर ही मेरी गर्दन काट देता. खुद ही उसे गाँव वाले बचा लेते. जैसे अब रज्जो के पति को गाँव वाले बचा लेंगे… पर कोई मारता तो सही?

… रोटी बीच में ही छोड़ कर थाल धरती पर रख देती हूँ. भला लहू से कहीं रोटी खाई जाती है? मेरे हाथ में भी लहू लग गया है. मैं अभी लहू पोछने ही चली हूँ कि नजर हांफता हुआ मेरे पास आ जाता है, ‘बुढिय़ा यह तूने क्या किया. क्यों रौमी की जंजीर खोल दी हैं?… हमें तुम इस गाँव में रहने दोगी कि नहीं?… बताओ पहले मुझे… हैं? वह गुस्से में फूंकता है. मैं कुछ नहीं बोलती. मैं जानती हूँ इसके सामने बोलना, भैंस के आगे बीन बजाना है. पर आज कुछ ज्यादा ही गर्म है.’ शायद आज जुए में भी पैसे हार कर आया है. हांफता हुआ ही बाहर चला जाता है. घबरा कर उठती हूँ… भाई जी यह क्या किया तुमने? लड़कियों की आवाज सुनकर मैं सहम जाती हूँ. तेजी से बाहर चली जाती हूँ. और तडफ़ रही रौमी पर नजर गढ़ जाती है. उसके बदन से गर्म खून तेजी से बह रहा है… मैं उस पर गिर जाती हूँ ‘अरे पापी, तूने यह क्या किया… बता इस बेजुबान को मार कर तुझे क्या मिला… तेरा सत्यानाश हो, मैं रोने लगती हूँ. रौमी का धड़ तडफ़-तडफ़ कर स्थिर हो जाता है. लड़कियां भी सुबकने लगती हैं. सारे पड़ोसी कोठों पर चढ़ कर तमाशा देख रहे हैं. मुझे लग रहा है, जैसे कह रहे हों, ‘नाजर ने ठीक किया, इसने तो लड़कियां का बाहर-भीतर आना जाना दुभर कर दिया था.’… मुझसे तो जैसे सांस-सत ही नहीं रहा. शरीर जैसे मिट्टी हो गया है. लड़कियां मुझे भीतर खाट पर डाल गईं… कुछ देर बाद मुझे होश आता है. कपड़ों पर लहू लगा देख कर, रौमी का तडफ़ रहा धड़ मेरी आंखो के आगे फिर आ जाता है. पागलों जैसे ख्याल मुझे आ घेरते हैं, पर मैं पागल नहीं हूँ. नाजर जरूर पागल है… मेरा दो बार कत्ल हुआ है, पर फिर भी मैं जीवित हूँ. मैं जीवित क्यों हूँ. मैं मर क्यों नहीं जाती?… पूरा परिवार शायद अपनी-अपनी जगह सो गया है. मैं भी लेटने का यत्न करती हूँ. जब लेटती हूँ तो मेरी पीठ मं कीटे चुभते हैं. मुझे हुक्की की जरूरत महसूस होती है. मैं तम्बाकू वाला डिब्बा ले कर चौंके में आ चिलम में आग रखने लगती हूँ. जल रहे अंगारे को फिर भूभल में दबा देती हूँ. कछ देर हुक्की पीने से कुछ राहत मिलती है. मेरी रात की इस गुडग़ुड़ से रानी आदि खींजती हैं कि मैं सारी रात गुडग़ुड़ करी रहती हैं. उन्हें सोने भी नहीं देती. सुबह कोठरी धुएं से भरी होती है. सांस घुटती है. अन्य गंदी आंदतों की तरह यह आदत भी मुझसे चिपकी हुई है. यह आदत मेरी माँ ने मुझे लगाई थी. वह मुझसे ही चिलम में आग रखवाती रहती थी, फिर कहती इसे ताजा भी कर दे. मैं हुक्की पर हाथ रख कर दस बारह कश खींच कर माँ को पकड़ा दिया करती थी. हुक्की के नेचे का कपड़ा भी पुराना हो कर गल गया है. मैं नित्य नाजर से नेचे पर नया कपड़ा चढ़ाने को कहा करती हूँ. कल पोते ने चिलम फैंक कर उसका किनारा तोड़ दिया. मेरे तरह हुक्की की भी कितनी बुरी दशा हो गई है.

… मेरी आंखों के आगे फिर रौमी आ जाती है. धड़ से रिसता हुआ खून. जब गाँव में चोरों का बहुत आतंक हो गया था तब नाजर कारखाने के मालिक से पैसे लेकर रौमी को खरीद कर लाया था. रौमी बहुत होशियार कुतिया थी. घर में किसी गैर आदमी को घुसने हीं देती थी. मैं जब उसे पुच्च-पुच्च करके पास बुलाती तो वह अपने खड़े कान नीचे करके मेरे पैर चाटने लगती थी…. कूं-कूं करने लगती थी, मैं व्यग्र से उसके मटमैले बालों पर हाथ फेरने लगती थी. यदि आज वह चौबारे वालों के कुत्ते के साथ फिरती थी तो क्या उसे जान से मार डालना चाहिये था. यह नाजर को क्या पता है कि जानवर कैसे रखे जाते हैं… गले में जंजीर बांध कर रोटी डाल देना, यह भी कोई बात हुई… मुझे अपनी ही सोच पर हंसी आ जाती है, जैसे मुझे पता हो कि जानवर कैसे रखे जाते हैं.

फिर मुझे लगा जैसे मेरे भीतर से कोई औरत बोल रही है… जिसे मैं मायके में छोड़ आई हूँ… पता नहीं माँ है या नीचे दरवाजे वालों की किस्सों है या नाइयों की लम्मों पंचनी है… जो मेरी नसों में रेंगने लगी हैं. ‘… देख अमरो, अपनी ओर… किसके लिये तुम इतना सब करती रही… अपने इस परिवार के लिये ही ना? और ये गाँव के बेहया लोग निरे मिट्टी के कुल्हड़, बरसाती मेंढकों की तरह टर्र-टर्र करने वाले… कोई आंख तो मिला कर देखे मुझसे… ’ अंति शब्द मुझे लम्मों पंचनी के लगते हैं.

… अगर उन दिनों दित्तू ढिड्डल की डेरी में न जाती तो परिवार एक सूत्र में ना बंध पाता. घर के लोग दर-दर की ठोकरें खाते, मैं ही थी जिसने कोठरियां बनवाईं. लडक़े का विवाह किया. पता नहीं यह पेट का, पैसे का, या किसी रूह का रोग है, जो मेरे साथ चिपका हुआ है या मेरी आदत जो मुझसे थू-थू करवाने वाले काम करवाती गई. फिर अब मुझे पीड़ा सहनी पड़ रही है. इससे तो मैं मर जाना चाहती हूँ. चाहे रौमी वाला गंडासा ही मुझे मार दिया जाता… या फिर रज्जो के पति की भांति लच्छू… उस समय चूहा छलांग लगा कर डिब्बे पर आ गिरता है. डिब्बा टेढ़ा हो जाता है. सड़ी हुई तेज गंध मेरी नाक में भर जाती है. खाट के नीचे झुक कर देखती हूँ. पेशाब वाला डिब्बा है, जो चूहे ने उल्ट दिया है. बाहर ठण्ड में निकलने की बजाय मैं भीतर ही डिब्बा रख लेती हूँ. कल से वैसे का वैसे ही पड़ा है. दिन में ध्यान ही नहीं रहा पेशाब फैंकने का. ध्यान कैसे रहता… सुबह हो तो रज्जो के कत्ल की खबर फैल गई थी. इतनी बदबू है कि हुक्की पीना बीच में छोड़ कर खाट में उठ खड़ी होती हूँ. बत्ती जला कर किवाड़ खोल कर मुड़ कर देखती हूँ… मुझे लगता है कि जैसे पेशाब नहीं लहू बिखरा पड़ा है… डिब्बा नहीं रज्जो का सिर पड़ा है. धड़ से अलग होकर मैं घबरा जाती हूँ… यह तो मेरा ही सिर पड़ा है… धड़ से अलग होकर, कितनी शांति मिली है, अपना कटा हुआ सिर देखकर… मेरा लहू इतना ही गंदा है जो इतनी बदबू दे रहा है. बदबू के कारण लड़कियां भी कुलमुलाती हैं. बड़ी वाली मुंह में ही कछ हती है, पता नहीं लगता. मुझे ठंड लगती है. मैं किवाड़ बंद करके फिर रजाई में आ दुबकती हूँ. थोड़ा गर्म होने के लिए हुक्की पीती हूँ पर आग ठण्डी हो गई लगती है. चिलम ताजी करने के लिए मैं बाहर चौंके मं जाने के लिए बत्ती जलाती हूँ. बाहर से आ के झक कर हुक्की पर चिलम रखती हूँ तो बत्ती जलती देखकर मेरी पीठ के पीछे ही नाजर आ जाता है. मैं उसको अचानक खड़ा देखकर चौंकती हूँ.

‘बुढिय़ा काहे की बदबू आ रही है… क्या गिराया है यहां?’

‘हैं… क्या बेटा?… यह लहू है मेरा, बदबू मारने लग गया है शायद… तू भी मेरा लहू है… तू?’ मेरे मुंह से पता नहीं कौन से शब्द निकल गये हैं. मुझे चक्कर आने लगते हैं. लग रहा है, जैसे मैं लहू के तालाब में बैठी जोर-जोर से हुक्की पी रही होऊं.

‘हूँ, पागल ! कह कर वह वापस लौट जाता है. फिर दरवाजे में खड़ा होकर तल्खी से कहता है, ‘बुढिय़ा अब बत्ती बुझा कर सो जा और लड़कियों को भी सोने दे.’

पर मुझे तो नाजर पागल लगता है. मेरे जहन में रज्जो का लहू से लथपथ शरीर है. रौमी के धड़ से बह रहा गर्म खून है, जो मुझे सोने नहीं दे रहा है.

(अनुवाद: घनश्याम रंजन)

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