आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

माँस की जमीन पर: तुषार धवल

कवि चित्रकार-अनुवादक-फिल्मकार दिलीप चित्रे)

दिलीप चित्रे की कविताओं को पढ़ना जीवन के दुरूह बीहड़ से गुजरने जैसा है। जीवन के जिन ऊबड़ खाबड़ और दुर्गम रास्तों से कवि गुजरा है उसी से उसने अपना सत्य, अपना अस्तित्व तलाशा है। चित्रे की कविताओं का जगत उलझनों, गहरी पीड़ा, आक्रोश और मांसलता का कार्यव्यापार है जो मृत्यु  से सम्वाद करता हुआ उसके समानान्तर चलता है। कवि की कविता क्लेश और पीड़ा की जमीन से उगती है। घनीभूत पीड़ा के गहन क्षणों में कवि व्यक्तिगत सीमाओं का अतिक्रमण कर समष्टि से मिल जाता है और अपने समय की विषमताओं को उघाड़ कर रख देता है। कविताएँ इसी तरह पीड़ाओं का समकाल रचती है।

दिलीप चत्रे की कविताओं में बिम्बों का कोलाज उभरता मिटता रहता है। कहीं यह अपने चित्रात्मक विस्तार में फैला हुआ किसी लैंडस्केप सा हमारी आँखों के आगे तैर जाता है तो कभी एक क्षणांश में उग कर दूसरे बिम्ब में समा जाता है। उनकी कविता में उनका वक़्त सघन अनुभूत बिम्बों में अपनी माँस मज्जा से निकल कर जीवित रूप में हमारी आंखों के सामने कुछ इस तरह से खड़ा हो जाता है कि जैसे मानों हमारी ही लहू पसीने मल वीर्य और कामनाओं के गहरे अन्तरतम से उगा हो। बिम्बों की सृष्टि में उनके चित्रकार और फि़ल्मकार मन को सहज ही देखा जा सकता है। कथ्य अक्सर चित्रों का रूप धर कर आते हैं और ये चित्र कभी कैनवास से निकल कर आये लगते हैं तो कभी कैमरे की आँख से। कथन की यह शैली उनकी कविता के शिल्प को कई परतों में ढाल देती है। एक ही कविता में कई मनोभाव एक ही साथ अलग अलग अर्थ व्यंजनाओं के साथ चलते हैं और अपनी अपनी दुनिया रचते हैं ऐसा खासतौर से उनकी लम्बी कविताओं में देखने को मिलता है।

बिम्बों की सबसे प्रखर अभिव्यक्ति मृत्यु या प्रेम की कविता में नजर आती है। प्रेम और मृत्यु चित्रे की कविताओं में कभी एक दूसरे में घुले मिले आते हैं तो कभी अलग अलग ध्रुवों पर खड़े मिलते हैं और इसी के बीच कवि का जगत साँस लेता है। समय के छोटे अन्तराल में ही कवि ने अपने युवा पुत्र समेत अपने सबसे करीबी लोगों को मौत देखा। यह पीड़ा उसे कभी असाहय बनाती है तो कभी मृत्यु से भिड़ने वाला विद्रोही। कवि कहता है :

मैं भिड़ना चाहता हूँ
खून की उस विकराल लहर से
जिसके उस पार है
वह रिक्त सागर

कवि फीनिक्स प्क्षी की तरह अपनी राख से फिर उठता है और कहता है :

मैं जीवन का स्वाद का खो चुका था
लेकिन मैनें अपनी जीभ को बचाये रखा
और यह सचमुच एक चमत्कार था

चित्रे के यहाँ जीवन के प्रति राग अपनी ऐहिकता-दैहिकता में व्यक्त होता है। खून पसीना वीर्य संभोग जीवन की पड़ताल के लिये जैसे कवि के मुख्य औजार हों। और इस सबसे एक स्पेस पैदा होता है जहाँ प्रेम के अलग अलग स्वर उठते रहते हैं। प्रेम जहाँ मांसलता में डूब कर अभिव्यक्त होता है वहीं मृत्यु और नश्वरता की चुनौती उसे जीवन के सूक्ष्म और शाश्वस्त तत्वों की तलाश में ले जाती है और यहीं कविता में आध्यात्मिकता का पुट भी आ जाता है। जगत जीवन की स्थूलता की गम्भीर पड़ताल अक्सर अनश्वर अनन्त तक ले जाती है। उद्दीपन की एकाग्र तीव्रता ऐसे ही अनुभव देती है जहाँ कामोत्तेजना के चरम क्षणों में प्रेमिका की देह गंध ‘पकते हुए माँस की गहरी गंध’ सी लगती है वहीं गहन प्रेम में अर्पित देह ‘मांस का नीला नैवेद्य’ (चन्द्रकान्त देवताले द्वारा अनूदित दिलीप चित्रे का एक काव्यांश) हो जाता है।

जहाँ इतनी गहन अनुभूति से कविता उगती हो वहाँ अभिव्यक्ति की ईमानदारी जरूरी है। कथ्य के सटीक चित्रण के लिये जो एकमात्र निर्विकल्प शब्द रह जाता है कवि उसे ही अपनी कविता में स्थान देता है। भले ही वह शिष्ट समाज की भृकुटियाँ तान देने वाला अपशब्द ही क्यों न हो। कवि के लिये कोई भी शबद वर्जित नहीं है क्योंकि कविता के लिये जीवन का कोई भी रूप, कोई भी रंग वर्जित नहीं है। बकौल कवि, नंगे को नंगा कहने के लिये उसे नंगा ही कहना होगा। पीड़ा, खीझ और असहाय अवस्था में मुँह से गालियाँ ही निकलती हैं इसलिये उस अवस्था की अभिव्यक्ति परिष्कृत शब्दों से नहीं हो सकती। भदेस भी जीवन का यथार्थ में एक अंग ही है। गुजरात दंगों पर लिखी कविता द रेप ऑफ गुजरात में दंगों के सूत्रधार और दंगाइयों के लिये यदि माँ-बहन को सम्बोधित गालियों का भीषण प्रयोग कवि ने किया है या फिर निरी दैहिकता वाले स्त्री-पुरुष सम्बन्धों के लिये जननांगों और उस दैहिक कृत्य के लिये भदेस शब्दों का प्रयोग किया है तो यह कहीं से भी आरोपित या अलग से चौंकाने वाला नहीं लगता है। यह भाव के सहज प्रवाह में आता है और अभिव्यक्ति के दायरे का विस्तार ही करता है।

दिलीप चित्रे संत कवि तुकाराम को अपना काव्य गुरु मानते हैं। उनकी कविताओं के अँग्रेजी में अनुवार `सेज़ तुका´ (तुका कहता है) के लिये 1994 में अनुवाद के लिये उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया। इसी वर्ष उन्हें अपनी मराठी कविताओं के संकलन एकूण कविता-1 के लिये भी साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। कवि के अनुसार तुकाराम की कविताओं के अनुवाद के दौरान उनके लेखन पर गहरा उस पर पड़ा जिसके फलस्वरूप् वे आतमकथात्मक और जीवनीपरक कवितायें लिखने लगे जिसमें उनका समय झलकता हो। गौरतलब है कि उनकी मराठी कविताओं का हिंदी में एक मात्र अनुवाद हिंदी के प्रसिद्ध कवि चंद्रकांन्त देवताले ने पिसाटी का बुर्ज़ नाम से किया है। राजकमल से प्रकाशित यह पुस्तक अब आउट ऑफ़ प्रिन्ट है।

2 comments
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  1. dilip chitre par ek zroori lekh. kya vo anuvaad (pisati ka burj ) Net pe kahin mil sakata hai, Tushar, Kiradoo bhai ? deotale ji ne mujhe vah padhane ke liye kaha tha. teen varsh ho gaye, mujhe prapt nahi hui.

  2. Sir, aapne Hindi aur Marathi ko ek bhashya ki mala me piro diya hai. Dhanyawad.

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