आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

किस्सा बेसिर पैर: प्रभात त्रिपाठी

मैं उन दिनों परेशान था. बल्कि बेचैन. बेचैनी के पीछे की वज़ह सिर्फ वह नहीं थी. उसका जाना तो सालभर पहले तय था. और मैं यह भी जानता था कि साथ-साथ मरने का रोमान मुझसे नहीं सध पाएगा. मरने के कुछ दिनों पहले, जब हम उसके जीजाजी की अंतिम बीमारी में बरगढ़ गए थे, तो सम्बलपुर में अपने भाई के यहाँ रुके थे. भाई खुद इतनी थका देने वाली बीमारी की गिरफ़्त में था कि उसे देखकर ही मन डिप्रेशन हो जाता था. उसकी पत्नी बड़ी सफाई पसन्द थी. सो रात जब उनके घर रुकना पड़ा तो, उसे एक के बाद एक कई उल्टियाँ हुई और वह भी बेसिन के बाहर एक अँधेरी परछी के चारों तरफ. जरूरी था कि सफाई पसन्द औरत की नाक को न सही आँख को गंदले दृश्य से बचाया जाए, ताकि सुबह होते ही वह अपनी जेठ-जेठानी की मजबूर गन्दगी पर नाक-भौं सिकोड़कर यह न ज़ाहिर करे कि शरीफ आदमियों की यह तो सोचना चाहिए कि मेहमान बनकर दूसरों के घर में कैसे रहा जाता है. यह उसकी आखिरी उल्टियाँ थीं, जिसे पूरी रात हम पानी और कपड़े के पोंछे से साफ करते थे. सुबह जीजाजी खतम. फिर महीने भर बाद वह खुद. पर जब हम जीजा के दगीज में जा रहे थे, तो बरगद ले जाने वाली उस खस्ताहाल टीन के टपरे जैसी सत्तावन की मॉडल की बस की पिछली सीट में, उसने बड़ी शांति के साथ कहा था कि शी हैज नो रिग्रेट्स. बीच-बीच मे इस तरह उसका अंग्रेजी बोलना, और वह भी जाने-जाने के समय, मुझे थोड़ा विस्मित जरूर करता था, पर लगता नहीं था, कि ऐसा करती हुई वह कोई नाटक कर रही है. अपने शहर में नाटक के लिए विशेष पुरस्कार जीतने के बावजूद उसके स्वभाव में नाटक कहीं भी नहीं था. मन की बात मन में ही दफ़नाकर चेहरे को शान्त बनाए रखने का खालिस मध्यवर्गीय शिष्टाचार का नाटक वह जरूर करती थी, और जरूरत से कुछ ज्यादा ही करती थी, पर यह हार्मलेस व्यवहार था. सिवा अपने, किसी दूसरे की रत्ती भर भी दुख देने की कल्पना से भी कोसों दूर। एक स्त्री का बरसों का साथ जब छूटा, तो बेचैनी का कारण बड़ा अजीब सा था. यह कि मै किसी भी एक जगह में कुछ पलों के लिए अपने को स्थिर नहीं रख पाता था. दूसरा यह कि वह बिल्कुल अप्रत्याशितत ढंग से मुझे दीवाल पर छपी सी नज़र आने लगती थी. बल्कि कई बार तो लगता था कि वह बात कर रही है. पर अक्सर तो मेरा दिमाग उससे बहुत दूर रहता था . बल्कि उसके जाने के बाद से तो मेरी यौन कल्पनाएँ कुछ ज्यादा ही विशद और ज्यादा ही तीव्र हो गयी थी. इतनी कि मेरा दिमाग तनने लग जाता था, और मैं उससे भागने की कोशिश में मानसिक दौड़ लगाने लगता था. पर कोई इसे जान नहीं पाता था. न मेरे घर के लोग, न मेरे दोस्त यार. सब समझते थे कि पत्नी वियोग को यह आदमी बड़े संयम के साथ बर्दाश्त कर रहा है. पर अपनी हालत में अच्छी तरह से जानता था, कि कहाँ हूँ मैं इस वक्त और जहाँ हूँ वहाँ भी क्यों नहीं हूँ, जैसे अभी.

मै अपने ड्राइंग रूम में आनन्द के साथ बैठा था. तभी एक छोटा चमगीदड़ कमरे में घुसा और गोल-गोल चक्कर लगाने लगा, आनन्द ने कहा, मुझसे इससे बहुत डर लगता है, तो आनन्द की बात सुनकर भी मैनें नहीं सुनी थी. मैं बिल्कुल दूसरी दुनिया में था, हालाँकि चमगीदड़ के चक्कर की वजह से मैं भी डर रहा था, पर मेरा असली ध्यान उसी पर था. मैं बहुत पहले के दिनों के बारे में सोच रहा था. सोच मे मैं कोवलम बीच में उसी के साथ था. यह उसकी बड़ी बहन की मृत्यु के बाद की हमारी पहली लम्बी यात्रा थी. हमारा बेटा भी हमारे साथ था. पर वह कोवलम बीच में नहीं था. वहाँ केवल हम दोनों थे वह नहाने को तैयार नहीं हो रही थी क्योंकि मै सोच रहा था कि नहाते वक्त हम लोग समुद्र के भीतर कुछ इतने करीब आ जाएंगे कि और करीब आने की इच्छा होगी, जैसे उस विदेशिनी को हो रही थी, जो कलकत्ते के एक मारवाड़ी छोकरे के साथ नहा रही थी. पता नहीं छोकरे को कैसा लग रहा था, पर मेरी इच्छा हो रही थी, याने बद्दुआ की तरह मेरे मन में यह बात आ रही थी कि अगर यह यहीं डूब के मर जाता-ऐसा सोचते हुए मुझे यह भी डर लगा कि मैं कहीं खुद भी न डूब जाऊँ, हालाँकि मुझे तैरना आता था, लेकिन यहाँ आने के पहल ऊपर पक्की सड़क पर ही मैनें चेतावनी पढ़ी थी, कि यहाँ नहाना मना है क्योंकि खतरा है. इसलिए वह मुझको बार-बार टोक रही थी, कि यह नहाने की जगह नहीं है. पर विदेशिनी मस्त नहा रही थी. फिर मैनें यह भी देखा कि वहाँ ‘बीच’ पर चेन्ज करने लिए ही नहीं, बल्कि ठीक से नहाने के लिए भी छोटे-छोटे बाथरूम बने थे. और ठीक हमारे पीछे एक बार था. दरअसल मैं चाहता था कि उस बार में जाकर थोड़ा पी लें, पर शराब से वह चिढ़ती थी, लेकिन मैनें उस विदेशिनी को मुँह में बियर की बोतल के साथ समुद्र में घुसते देखा था, तभी से मेरे मन में इच्छा सुगबुगाने लगी थी, कि अगर मैं उसके साथ नहा सकता लेकिन वह उस मारवाड़ी छोकरे के साथ मस्तियाती नहा रही थी. किनारे पर इधर-उधर घूमते हुए मैं उन्हें कनखियों से देख रहा था. और कुढ़ रहा था. तब उसने शायद मुझे उन लोगों के तरफ घूरते देख लिया. उसके बाद मैनें जब उसे बहुत जोर दे कर साथ नहाने के लिए कहा, तब उसने बताया कि उसने सारे पैसे ब्लाउज के नीचे रखे हैं. सौ-सौ की, डेढ़ सौ नोटों की गड्डी को उसने किस तरह से ब्लाउज के भीतर रखा होगा यह मेरी समझ में नहीं आया. लेकिन यह समस्या जरूर समझ में आ गई कि वाकई इतने पैसों को न तो उतारे गए कपड़ों के साथ किनारे की रेत पर छोड़ा जा सकता है, और न ही उनको साथ लेकर समुद्र में स्नान किया जा सकता है.

लेकिन अभी आनंद की बात सुनकर मैनें उससे पूछा था, तुमको और किस चीज़ से डर लगता है. मैनें आनन्द की ओर देखा. उसकी तीखी नाक जरूरत से ज्यादा तीखी लगी मेरी खाट पर मेरे साथ उसका सटकर बैठना मुझे किन्हीं और ख़यालों में ले जाए, उसके पहले ही उसने मुझे ध्यान से पढ़ने के बाद कहा, “तुम अचानक कभी-कभी एकदम चुप कैसे जो जाते हो ?” मुझे अच्छा लगा अभी दो पल पहले मैनें उससे कहा था कि अगर हम दोनों दोस्त हैं´, तो तुम्हें मुझे तुम कह कर बात करना चाहिए, और मेरा नाम लेकर पुकारना चाहिए.

“ठीक है, मैं आज से तुमको तुम कहूँगा,” उसने कहा था और वह अपनी बात याद रखे हुए था कि कब मुझे मौका मिले और वह मुझे तुम कहकर पुकारे.

“मैं कुछ-कुछ सोचने लगता हूँ आनंद” मैनें धीरे से कहा.
“क्या ?´
“कुछ भी.”
“कुछ भी तो मैं भी सोचता रहता हूँ. सोचते-सोचते खाट से उठ जाता हूँ, फिर तुरंत चादर ओढ़ लेता हूँ.” आनंद ने कहा.
“क्यों ? चादर क्यों ओढ़ लेते हो ?” मैनें पूछा. हालाँकि मेरा ध्यान अपने सवाल पर नहीं था. मैं अपनी अर्धसैनिक छुट्टी के बारे में सोचने लगा था. इसके अलावा अपनी पुश्तैनी जायदाद की बिक्री से होने वाली सम्भावित आमदनी की बात भी दिमाग के किसी कोने में थी. बिल्कुल ऊपरी सतह पर कल की शराब और खाने-पीने के खर्च का हिसाब था. और इसलिए एक बार मेरे मन में ये ख़याल भी आया था, कि पर्स निकालकर पैसे गिन लेना चाहिए. फिर अपनी फिक्र को भगाने के चक्कर में मैनें यह सोचा कि अभी इतनी रकम तो होगी ही, कि मैं एक महीने और छृट्टी ले सकूं. लेकिन उसके ठीक बाद मैनें यह सोचा कि मुझे अपने साहब से माफी माँग लेनी चाहिए, क्योंकि यह छुट्टी मैनें इस स्वाभिमानी जिद में ले रखी थी, कि साहब से मेरा झगड़ा हो गया था. शायद इसके ठीक पहले मुझे अपने बेटे की याद आयी थी, जब मैनें ऊँचे मकानवाली उस लड़की को, इस मुहल्ले की सबसे ऊँची छत से पश्चिम की ओर ताकते देखा था. पश्चिम की ओर उस लड़के के लगभग जर्जर मकान की छत थी, जो खपरैलों के बाजू से संकरी गली के आकार में थी. यह बात मैं बचपन की अपनी स्मृति के आधार पर कह रहा हूँ. लेकिन उस लड़की को देखकर, बेटे की याद आने का कारण यह है कि बेटे ने उसके साथ गरमी की किसी रात को आकिस्मक दोस्ती की बात किसी गप की तरह सुनाते हुए, आधे किस्से में अपनी बात तोड़ दी थी. कहा था, “तुमको कोई भी बात बताने में खतरा है पापा! तुम आकाशवाणी की तरह उसे मुख्य समाचार बनाकर प्रसारित करने लगते हो.” इसके बाद आधे किस्से की खुजली जगाकर वह चला गया था. हालाँकि यह लगभग तीन साल पहले की घटना है. मेरा ख्याल है कि इन तीन सालो में, मैनें इस अजीब सा पोनी टेल बनानेवाली कुछ उभरे मुँह वाली लड़की को, तकरीबन तीन सौ से ज्यादा बार देखा होगा. और जितनी बार मैंने उसे देखा, उतनी बार मुझे बेटे के बताये आधे किस्से की याद आयी थी, लेकिन यह स्मृति खुजली जैसी नहीं लगी थी. इस बार उसे छत में देखकर, और पश्चिम की तरफ ताकती देखकर मुझे उस दूसरी लड़की की याद आयी थी, जो निचली छत पर बने कमरे में रहने वाले चौरसिया बाबू की इकलौती लड़की थी. वह बिला नागा सुबह नौ और शाम पाँच के पहले सबसे ऊपरी छत पर जाती थी. और एक बार उसकी माँ ने मुझे बताया था कि वहाँ वह पढ़ती थी. पर मैनें उसे हमेशा तब देखा था, जब वह गली की विपरीत दिशा की मुंडेर पर खड़ी होकर पश्चिम की ओर ताकती रहती थी, जहाँ वह लड़का अपनी एकदम संकरी और नीची वाली छत पर खड़ा रहता था. आनंद ने मुझे बताया था, कि उसी लड़के के साथ इसका चलता है. इसका याने उस घोड़े की पूँछ जैसे बालों वाली लड़की का नहीं, वो तो अब तीसेक की हो गयी थी. हाँ यह जरूर है कि उसे ही देखकर मुझे अपने बेटे की याद आयी थी.

मुमकिन है कि बेटे की याद, मुझे उस लड़की के दिख जाने की वजह से ही नहीं, बल्कि पैसों के बारे में, सोचने की वजह से आयी हो. मेरा बेटा आर्टिस्ट बनाना चाहता था और कमर्शियल आर्ट के किसी इंस्टीट्यूट में दाखिले के लिए उसे एक लम्बी रकम चाहिए थी. मैं छुट्टी पर था, और मेरे दिन आनंद के साथ कट रहे थे. ऐसी स्थिति में बेटे की याद से तकलीफ़-सी हुई. हालाँकि इसे ठीक-ठाक तकलीफ़ की तरह देखना मेरे लिए मुमकिन नहीं था, पर दूसरे ही मिनट मुझे लगा कि यह शारीरिक तकलीफ़ नहीं बल्कि हैंगओवर है. मैनें याद करने की कोशिश की कि रात पीते समय मैनें कौन सी बातें की थीं, तो मुझे याद नहीं आया. कल की ड्रिंक्स इस मायने में अलग थी कि लगभग पच्चीस बरस के बाद मैनें अपने बचपन के एक दोस्त के साथ शराब पी थी. पीने की योजना, परसों पीते रहने के दौरान ही बनी थी. और परसों का पीना इस अर्थ में अचानक पीने जैसा था कि उसकी कोई योजना नहीं थी. यह हमारे शहर और हमारी जात में शादी के मौसम की शुरूआत का वक़्त था. और एक ऐसी शादी वाले घर में मुझे जाना था, जहाँ मेरी बुआ की लड़की ब्याही गयी थी. जब मैं शाम को बाहर निकलता रहा था, तो माँ ने मुझे याद दिलाने सा पूछा था कि क्या मैं शादी घर जाऊँगा. माँ को पता है कि इन दिनों मेरा दिमाग काफी अस्थिर चल रहा है, और संभव है कि मैं शादी घर के भब्बड़ में जाना पसन्द न करूँ. इसके अलावा, उसे यह भी पता था कि मेरी छोटी बहन तो जायेगी ही, इसलिए मेरे न जाने से भी चलेगा.लेकिन बुआ की लड़की याने मेरी कजिन जिस घर में ब्याही गयी थी, उस घर से, बल्कि उसके पति से, मेरी बचपन की जान-पहचान ही नहीं बल्कि थोड़ी बहुत दोस्ती भी थी, क्योंकि स्कूल के दिनों में हम अक्सर वाद-विवाद में भाग लेते थे और कभी वह अव्वल आता था तो कभी मैं. सो मैनें अपने एक दूसरे दोस्त से स्कूटर माँगा था, क्योंकि उसके ठीक बाद मुझे अपने मुहल्ले के रईस की लड़की की शादी की परधनी में जाना था. इस दूसरी शादी में जाने की मेरी इच्छा के पीछे मेरे मुहल्ले की लड़कियाँ थी, जिन्होंने हफ्ते भर पहले ही मुझसे यह प्रॉमिस करा लिया था कि अंकल आपको इस शादी में चलना ही है. खासकर इसलिए कि हम उस दिन साड़ी पहन कर वहाँ आने वाली हैं. यह बात उन तीनों में से उस लड़की ने कही थी जो सबसे लम्बी थी और उम्र में सबसे छोटी. वही एक थी जो कभी-कभार जीन्स पहनती थी और जिसे तब देखकर लगता था कि यह उन लड़कियों में से एक है, जिसके अगले और पिछले भागों में गजब की तारतम्यता है.

किस्सा मुख़्तसर यह कि इस दूसरी शादी में भाग लेने के इरादे से पहली शादी को महज रिहर्सल या भूमिका की तरह लेने के लिए मैं स्कूटर लेकर उस इलाके की ओर निकला जिसे यहाँ की भाषा में बैकुण्ठपुर कहते हैं. चूँकि इतने बरसों के परदेस-प्रवास या निवास में मैं यह भूल गया था या कहूँ कि मुझे ठीक-ठाक याद नहीं था कि बुआ की लड़की की ससुराल किस तरफ है, इसलिये मैनें अपने साथ संजय को भी ले लिया था. अब यहाँ संजय के बारे में यह बताना जरूरी है कि वह हमारे घर में झाड़ू पोंछा और बरतन माँजने का काम करता है, बल्कि कहें कि इन कामों में अपनी माँ का हाथ बंटाता है, और अभी नवीं कक्षा में पढ़ रहा है. लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि वह आनंद के खास दोस्तों में से है और उससे भी खास बात यह कि वह जिस इलाके में रहता है याने नवागढ़ी में, वहाँ की रंगीनी और कमसिनी के किस्सों को वह अब एन्द्रिक स्तर पर भी जान चुका है और इस बात को लेकर थोड़ा गर्वित भी है कि अंकल याने उसके मालिक, उसके किस्सों में दिलचस्पी लेते हैं.

लेकिन यह उसका दुर्भाग्य था कि उस दिन उसे किस्सा सुनाने का मौका नहीं मिला क्योंकि अपने शहर को लगभग भूल चुके अपने मालिक को भूगोल बताने के काम में पूरी चौकसी से लगा था. यहाँ से बायां ले लीजिये, वहाँ से दायां, सुनते-सुनाते कोई दसेक मिनट बाद हम उस जगह पहुँचे, जहाँ मुख्य मकान की गली के मुहाने पर एक लड़की के हाथ के साथ पाणिग्रहण की मुद्रा में लड़के के हाथ के ऊपर शुभविवाह लिखा हुआ था. उस पर इतनी तेज रौशनीवाला बल्ब लगाया गया था कि सामने या शायद बाजू की दीवार पर गेरु रंग से लिखी इबारत, ‘दाद खाज खुजली हो या उल्टी दस्त मितली’ के स्थानीय विज्ञापन पर ध्यान जरूर जाता था. मैनें संजय से कहा कि वह वहीं खड़ा रहे, मैं व्यवहार निभाकर दस मिनट में लौटता हूँ.

वहाँ पहुँचने पर पता चला कि हमारे बहनोई याने बुआ की लड़की के पति, ऊपर छत पर हैं, और बारात की आगवानी की तैयारी में लगे हैं. वहीं पर बचपन का बहुत पुराना दोस्त भी था. बहनोई उसी के साथ थे. बुआ का बड़ा लड़का भी वहीं मिला था. उसने पहली सूचना यह दी कि बारात में डेढ़ सौ बाराती की जगह चार सौ लोग आ गये हैं सो उसने जीजा से कहा कि कुल तीन सौ के खाने का इंतजाम है, जिसमें डेढ़ सौ घरात वाले होंगे. जीजा के बाजू में वह खड़ा था. जीजा अपने योगाभ्यास के बावजूद अभी इतने मोटे थे, याने गर्दन के पास की जगह इतनी मोटी थी, कि गर्दन घुमाकर देखते समय ऐसा लगा कि गर्दन के साथ-साथ वे पूरा का पूरा घूम गये हैं. हम छत पर तने शामियाने के नीचे थे. बहनोई ने एक बार मेरी तरफ देखा और फिर उस जगह की ओर बढ़े जहाँ रसोई बन रही थी. इस पर बुआ के लड़के ने प्रस्ताव रखा कि अभी तो बारात आने में बहुत देरर है . फिर उसने मेरा नाम लेकर कहा कि अगर मैं चाहूँ तो हम सब समय का सदुपयोग कर सकते हैं. उसका संकेत पैसों की तरफ था. चूंकि मुझे लगा कि बचपन का मेरा बहुत पुराना दोस्त भी उसी मूड में है, तो मैनें पूछा था कि जगह कहाँ है ? मैं इस बीच अपने पर्स में रखे सौ-सौ के तेरह नोटों को मन ही मन छूकर देख चुका था, और हिसाब लगा चुका था कि बार में अगर गये तो संभावित खर्च दुगुना होगा. इसीलिए मैं जगह कहाँ है पूछकर यह जान लेना चाहता था कि कहीं वह बार में जाने को तो नहीं कह रहा है. तभी बचपन के दोस्त ने कहा कि वहीं दारू की दुकान के बाजू से एक ठेला है, उसके पीछे इत्मीनान से खड़े होने की जगह है, और ठेलावाला अंडे के अलावा तली मछली भी बेचता है, बेशक वहाँ बैठने की कोई सुविधा नहीं है. बचपन के दोस्त ने जब अपना कथन पूरा नहीं किया था, तभी मुझे इस बात की खुशी हुई थी वह उसी जगह चलने को कह रहा है, जहाँ मैं तकरीबन रोज अपने से कम उम्र के एक वकील दोस्त के साथ पीता हूँ. और जब हम लोग वहाँ जाने के लिए तैयार होने लगे तो मुझे इस बात का अफसोस भी हुआ कि अगर मुझे पता होता, तो मैं उसे सूचित करने के बाद इस शादी वाले घर की ओर आया होता. बहरहाल.

तो हम लोगों ने इस बगैर पूर्व योजना के पहले या दूसरे पैग के बाद यह योजना बनाई थी कि दूसरे दिन हम फिर एक साथ मिलेंगे और सरकारी रेस्ट हाऊस में पियेंगे. “मुरगा मेरी तरफ से”, बचपन के दोस्त ने कहा था. तो मैनें उसी रात ओल्ड मॉन्क की पूरी बोतल खरीद कर रख ली थी. दूसरी रात, बुआ का लड़का किसी जरूरी सरकारी काम से फंस जाने की वजह से नहीं आ सका था, लेकिन कुछ साल छोटा और लगभग रोज का हमप्याला वकील दोस्त हमारे साथ था. हम शहर से एक किलोमीटर दूर जिस ढाबे में पी रहे थे, वह हमारे ही मुहल्ले के एक लड़के का ढाबा था. और इसके बाद मुझे यह बिल्कुल याद नहीं आ रहा कि पीने के बाद हमने कौन सी बातें की थीं.

अभी लिखते हुए इतना जरूर याद आया कि पी चुकने के बाद, एक और दूसरे बचपन के दोस्त के यहाँ हम गये थे. हमारे साथ हमसे कम उम्र वाला दोस्त भी था, जिसने दूसरे बचपन के दोस्त का दरवाजा खटखटाया था. उस समय रात के बारह बज चुके थे. वह गली सन्नाटे से भरी लगती थी. वह मकान बहुत पुराना मकान था. खपरैलों वाला. बहुत पास एक दुकान भर को जगह खाली थी, जहाँ कचरा भरा पड़ा था. शायद इस गली में कचरा फेंकने की जगह यही थी, जिसे देखकर मुझे लगा याने याद आया कि हमारी गली में सारे लोग दूसरों के घरों के सामने याने मोरी के बाजू से कचरा फेंकते हैं. चाहे कारण जो भी हो, किन यह बात मुझे तब याद आयी, जब उसने तीसरी बार उस घर का दजवाजा खटखटाया, जहाँ से रात के बारह बजे ‘आषाढस्य प्रथम दिवसे श्लोक के जोर से आवृत्ति किये जाने की आवाज आ रही थी. “दरवाजा उसने नहीं तुमने खटखटाया था” मेरे बचपन के दोस्त ने कहा. वह यहाँ नहीं था. याने उसकी याद से मुझे यह सच्चाई दिखने जैसी याद आयी थी दरवाजा मैनें खटखटाया था और यह बात भी कि जब मैं दरवाजा खटखटा रहा था, तो मंदिर के बिल्कुल बाजू वाले मकान से, याने मकान की प्रवेश गली से, एक बूढ़ा आदमी निकला था, और तपाक से रिक्शे पर बैठ गया था. मंदिर के बाजू वाले उस मकान के बारे में सनसनीखेज किवदन्तियां थीं, लेकिन रिक्शे पर बैठे बूढे को देखने का मौका हममें से किसी को नहीं मिला. मेरे दोस्त ने, यह सुझाव दिया था कि चूँकि हम सब लोग इसी मुहल्ले के हैं, इसलिये हम चाहें तो गली के भीतर वाले मकान में घुसकर यह पूछ सकते हैं कि आधी रात के बाद के समय में यह बूढ़ा है कौन, क्योंकि निश्चित रूप से वह इस मुहल्ले का आदमी तो नहीं है. लेकिन तभी कम उम्र के दोस्त ने हमें चेतावनी देने सा याद दिलाया कि हम लोग अभी पिये हुए हैं और अगर वहाँ कुछ हो-हवा गया, तो ……… उसने वाक्य पूरा नहीं किया था.

तभी रिक्शा, हमसे विपरीत दिशा में जाने के बजाय हमारी तरफ आता दिखा. मैनें दरवाजा खटखटाना बंद किया, और चश्में के भीतर की आँखों की चौकन्ना करने की कोशिश की. रिक्शे और हमारे बीच की दूरी फर्लांग भर से कम थी. और रिक्शा ढलान पर था. हम लोग ढलान के लगभग आखिरी छोर पर थे. कायदे से रिक्शे को हम तक आने में मिनट भर से भी कम वक्त लगना चाहिए था. उसे धड़धड़ाते हुए आना चाहिए था. लेकिन फर्लांग भर से भी इस कम दूरी को रिक्शावाला अभी तक पार नहीं कर सका था. जबकि उसके धड़धड़ाते आने और सवारी को देख सकने की अपनी तत्परता में, हम लोग उस संकरी गली के एक कोने में खड़े हो गये थे. मुझे अचानक लगा कि रिक्शावाले ने रिक्शा रोक दिया है और सवारी उससे कुछ बात करने लगी है. अपने दूसरे साथियों के साथ, उस आवाज़ के सहारे आदमी को पहचानने की कोशिश में मैं अपने कान खड़े किये था कि आनंद ने टोका अंकल आप बिलकुल बहरे हो क्या ?

मैं मुस्कराया. मैनें उसे थोड़ी लाड़ में अपनी तरफ खींचा और कहा कि तुमने बताया नहीं कि तुम चादर क्यों ओढ़ लेते हो ?

क्योंकि मुझे डर लगता है, उसने लड़कियों के से नखरे में कहा.

किससे ?
भूत से, आनंद ने फिर तपाक से कहा, तो मैनें भी तपाक से पूछा, तुमने देखा है?
‘हाँ’
कहाँ ?
सपने में, आनंद ने कहा. वह आदमी और औरत दोनों था अंकल और कभी उसका सिर होता था, और कभी नहीं होता था. बड़ा भयानक लग रहा था, आनंद ने सचमुच के डर के स्वर में अपनी बात यह कहकर पूरी की अपने कल वाला हॉरर शो देखा था ?

“मैं टी.वी. नहीं देखता,” मैनें कहा “चलो बाहर चलते हैं”
“नहीं,” आनंद ने तुनककर कहा. मैं उस तुनक के पीछे का कारण जानता था कि बाहर जाने के बाद जब हम गली के पेंवठे पर बैठेंगे, तो मेरा ध्यान आनंद से हटकर दूसरी तरफ याने अपनी मित्र-त्रिमूर्ति की तरफ चला जायगा. आनंद थोड़ा अतिरिक्त टची लड़का है, और अंकल पर पूरा एकाधिकार रखना चाहता है.
जबकि बाहर जाने की यह बात, मैं किस्से के लिये कोई दूसरी पगडंडी तलाशने के चक्कर में सोच रहा था. और इसी बात मुझे अपने रूम पार्टनर की याद आयी थी. वह भी अभी थेड़ी देरर पहले मुझे किस्सा ही सुना रहा था, हालाँकि जो वह सुन रहा था, वह उसकी आत्मा में रची बसी बात थी, और बयान के वक्त उसकी आँखों में लगभग आज की निर्मल चाँदनी-सी चमक रही थी. मैं एक दूसरी चाँदनी की स्मृति में लगभग छै महीने से परेशान था. जबकि ठीक दो मिनट पहले हॉरर शो में देखे भूत की स्मृति से डरकर, आनंद चादर ओढ़कर सो चुका था.

मैं उससे बहुत दूर पार की संकरी गली में अकेले बैठा था. घर के प्रवेश द्वारा के सामने बने चौंतरे जैसी पक्की जगह पर. मेरी बायीं तरफ नन्हू लाला घर के मकान के ऊपर, दो घड़ी चाँद निकल रहा था और लगभग गोल था. उसे पल भर ताकने के बाद मैंने सामने के मकान की ओर ताका. वहाँ बाजू के मकान की एक लड़की, माँ बन चुकी दूसरी औरत, जो लड़की की तरह ही लग रही थी, के साथ बैठी थी और उसके बच्चे को लाड़ कर रही थी. वह मकान के नाम पर एक कच्चा कमरा भर था, जिसके बाजू से एक कच्चा पखाना भी अभी हाल में बनाया गया था. पता नहीं क्यों मेरे दिमाग में यह बात आयी कि टी.वी. देखती इस औरत को ऐन इसी वक्त अगर डायरिया हो जाये तो … ? मेरे इस तरह के ख्याल के कारण शायद यह है कि जिस तरतीब के साथ, मैं बदहवासी की कथा लिखना चाह रहा हूँ, वह मुझे इस मकान, याने इस कमरे की उस माँ बन चुकी औरत में नज़र आ रही है. औरत में नहीं, उसके आँचल में ढंपी-मुंदी.

सोचकर मैनें औरत की ओर देखना चाहा. तो औरत अपने आप मेरी उस बुआ में बदल गयी जिसके निर्देशन में मैनें आँचल के भीतर के जादू का पहला दृश्य देखा था. बुआ बहुत सुंदर थी. वह अपनी छत से दूर की छत के एक सुंदर लड़के को अपलक ताक रही थी. मैं उससे छोटी बुआ (ये सारी बुआएँ दूर के रिश्ते की बुआएँ हैं, और यह बात मैं इसलिये लिख रहा हूँ कि सरकार या समाज की दीगर संस्थाएं मुझ पर इंसेस्ट होने के आरोप न लगायें, जो कि मैं हूँ) को बीजगणित समझाता, उसके नीचे छत पर था. और जिस मुद्रा में बैठा था, उसे कोई तस्वीर देखकर ही समझ पायेगा. मैं अधलेटा और अधकरवट, उसे अपनी कमर और टांगों के धनुष में तीर-सा चढ़ाता सवाल हल कर रहा था, तो ऊपर की छत से बड़ी बुआ के गुनगुनाने की आवाज आयी, ‘आज सजन मोहे अंग लगा लो जनम सफल हो जाये.’ छोटी बुआ को अंग्रेजी पढ़ने के लिये, बाजू के मकान में जाना था, मुझे और ऊँची छत पर. बड़ी बुआ काले रंग का ब्लाऊज पहने थी. उसने दो चोटियां बनायी थीं. उन्हें दुहरा किया हुआ था. उसकी गोद में और बड़ी बुआ की नन्हीं बच्ची थी. उसका आँचल एक ओर खिसक गया था. काला ब्लाउज झीना रहा होगा. क्योंकि ब्रा की सफेद पटि्टयाँ नज़र आ रही थीं, हालाँकि जिन दिनों का यह किस्सा है, उन दिनों बॉडिस कहा जाता था. मैं गया और बच्ची या गुड़िया या बेबी या मुन्नी को लाड़ करने लगा, तभी बड़ी बुआ ने सिखाया. वह उंगलियों की अनजानी जानकारी थी, जो अभी इस औरत को देखकर अचानक अनुभूति-सी हो गयी. शायद इसी तार्किक संगति या अतार्किक हारमोनी की वजह से मैंने इसे देखना शुरू किया था. तभी बहन की लूना, ठीक मेरे सामने रुकी. वह अस्पताल से लौट रही थी. बगल में बैठ गयी, ‘गये नहीं?’

उसने पूछा. असके सामने बैठी बड़े दाँतों वाली उस लड़की ने मेरे सामने आकर, त्रिभंगी मुद्रा में खड़ी होकर यही सवाल पूछा था. फिर अपने खुले बालों में से चेहरे पर आ जाते एक एक गुच्छे को फेंकने की अदा दिखाती, उसने अपनी आँख ऊपर उठायी थी. पहली मंजिल पर मेरा भतीजा अपनी टूटी टांग लिये, अपने मित्रों सहित कोई ऐसा गीत गुनगुना रहा था, जो किसी फिल्म का नहीं होते हुए भी पूरमपूर फिल्मी था, लेकिन फिल्म का नहीं हो सकने की अपनी नियति में बेसुरा और बेजान भी.

तभी उस लड़की ने दूसरा सवाल पूछा था, जो मैं सुन नहीं पाया था. बीच में मैंने अपना ध्यान, याने अपनी नज़र याने अपनी गर्दन और मुंडी, दाहिनी ओर, याने नान्हू लाला के मकान की विपरीत दिशा की ओर सोद्देश्य घुमायी थी कि वह दिख जाये, जिससे बात करने, जिसे छूने जिसके साथ रमण करने की कल्पना में, निरंतर असफल होता हुआ मैं, इतनी सारी बातें गोदने के फिजूल काम में लगा हुआ हूँ, लेकिन वह नहीं दिखी, तो दुहराये जाने पर मुझे सामने वाली इस लड़की का दूसरा सवाल सुनाई पड़ा और सुनने के साथ ही मैनें देखा कि उसके फिर ऊपर ताकने की कोशिश की. उसके सवाल का जवाब दिये बिना मैनें भी उसके अनुकरण में, या अपनी कमीन जिज्ञासा के जोर पर, ऊपर ताका तो (मुझे लगा कि मेरी गर्दन अकड़ने सी लगी है और हो सकता है कि यह स्पांडेलाइटिस की शुरूआत हो) बालकनी की कमर भर ऊँची रेलिंग से टिका मेरा आधा भतीजा नजर आया. अंधेरे की वजह से मैं ठीक-ठाक यह नहीं देख पाया कि उसकी आँखें लड़की की पल भर के लिए ऊपर उठी आँखों से कुछ कह रही थीं या नहीं, पर यह जरूर लगा कि वह मुस्करा रहा था. सामने की लड़की भी मुस्करायी थी, ‘आज आप अकेले बैठे हैं?’ यह दूसरा सवाल था, जिसके जवाब में मैनें हाजिरजवाबी की अदा में कहा था, ‘अकेला कहाँ हूँ, तुम जो साथ में हो.’

इस पर वह थोड़ा झेंपी, थोड़ी रीझ भी उसके चेहरे पर आयी, उसके बड़े दाँत प्रगट हुए पर यह सब मुझे इतना साफ-साफ नहीं दिखा, क्योंकि मेरी निगाहें उसके उभारों की माप तौल में लगी थीं. मेरी दृष्टि के जाहिर पाप से घबराकर ही, शायद वह उस कमरे में चली गयी, जहाँ से आयी थी, हालाँकि यह कमरा उसका घर नहीं था. पड़ोस था, लेकिन यह एक ऐसी जगह थी, जहाँ आप कमरे में बैठकर ही सड़क या सड़क के थोड़े ऊपर के होने वाली हरकतों पर नज़र बनाये रख सकते हैं. सो जहाँ से वह सड़क और सड़क के बाजू के मकान की पहली मंजिल पर नज़र जमाये हुई थी, वहीं वह माँ बन चुकी लड़की यानि औरत अपनी अधउघरी टाँगों पर अपनी बच्ची को बिठाकर अपूर्व कौशल से हगा रही थी. उसे देखकर दुबारा मुझे इस तथ्य की याद आयी कि लगभग खाते-पीते लोगों के इस मुहल्ले में यह मकान ही अकेला ऐसा मकान है, जहाँ अभी तक विलायती किस्म का वैज्ञानिक पखाना नहीं बना है.

इतनी सारी बातें याद करने में मुझे एक मिनट से कुछ ज्यादा समय लगा और मैनें बहन के सवाल का जवाब देते हुए कहा, ‘मैं शोले देख रहा था’

‘आज?’ उसने आश्चर्य से पूछा. गणतंत्र दिवस के दिन शोले फिल्म दिखायी गयी थी. और मैनें अपनी बहन से यह नहीं कहा कि मैं शोले देख रहा था, लेकिन मैनें उसके सवाल ‘गये नहीं’ को याद किया, तो मुझे वह लड़की छत पर दिखती सी लगी. उसने बाल धोये थे. और वह शोले की जया भादुड़ी की होलीवाली शक्ल-सी लग रही थी. याने मुझे बहुत पहले का वह दिन याद आया था, जब मैनें होली के रंगों में सराबोर देखा था. खुल-खुल जाते रेशमी बाल, गोरे चेहरे पर कई-कई रंगों में, कई-कई और रंग मिलाती, समवयस्कों से घिरी वह कमसिन, मुझे लगभग उदासीनता से एक बार देखकर, कहीं दूर बहुत दूर चली गयी और तब मैनें गहरी साँस लेकर अपनी बहन से कहा था, ‘रात मुझे बिल्कुल नींद नहीं आई’ “एलप्रोजोलाम लिया था?” मेरी बहन ने पूछा. मुझे थोड़ी चिढ़-सी हुई. उसका ध्यान मेरी चिढ़ पर तो क्या जाता, मेरे पिछले बयान के दुख पर भी ठीक से नहीं गया था. और ऐसे में मैं अगर उससे कहता कि कल रात भर मैं अजीबोगरीब सपने देखता रहा तो वह यकीनन मुझे साइकेट्रिस्ट से मिलने को कहती, हालाँकि उसने यह नहीं कहा, बल्कि अस्पताल के ताजा ख़बर के लहजे में बताया कि इंसान भी कितना क्रूर जानवर है. फिर ख़बर का खुलासा करते हुए उसने ब्यौरा दिया कि पास के किसी गाँव में एक आदमी ने अपने बच्चे को उठाकर पटक दिया है. बच्चा अभी सिर्फ दस महीने का है. हालत संगीन है. मैनें उसके क्रोध का कारण जानना चाहा तो बहन ने बताया कि मर्द शराबी है और शराब पीकर अपनी औरत को मारता है. यहीं पर मैं उसे टोकने वाला था कि औरत को पीटने की घटना तो सदियों से चली आती एक आम घटना है. शायद मैनें यह नहीं कहा था, लेकिन जब बहन ने आगे का ब्यौरा देते हुए बताया कि कल रात जब वह घर आकर, अपनी औरत को तंग करने लगा तो उसकी औरत ने कहा कि ठीक है जब उस का बच्चा बड़ा हो जायेगा तो माँ पर हुए अत्याचार का बदला जरूर लेगा. इस बात पर मर्द ने बच्चे की ऊपर उठाया और सीधे फर्श पर पटक दिया. जैसे ही बहन ने खबर का खुलासा समाप्त किया, या उससे पहले ही जब उसने, मर्द के द्वारा बच्चे को ऊपर उठाकर पटके जाने की क्रिया को, ड्रॉ करने-सा बताया. तो मुझे कृष्ण-जन्म की कथा की याद आयी. बहुत सोचने पर भी यह याद नहीं आया कि कंस कौन बना था, या फिल्म किस हॉल में लगी होगी, लेकिन यह दृश्य जरूर याद आया था कि आठवें गर्भ की संतान को नष्ट करने के लिए मूछों वाला कंस कारागार में गया हुआ है. देवकी से बच्चा छीन रहा है. उसे ऊपर उठाता है. मार डालने के लिए जमीन पर पटकता है. तो जोर की बिजली चमकती है और आकाशवाणी होती है कि आठवें गर्भ की संतान से कंस-राज का अंत होगा. इतना सोचकर मैं इस कदर थक गया कि मुझे नींद आ गयी.

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