जख़्मों के रास्ते से: देसराज काली
मैं धृतराष्ट्र नहीं, बस यूँ ही अंधा होने का ढोंग रचा रहा हूँ. संजय एक कोने में बैठा मन कुरुक्षेत्र का दृश्य देख रहा है. परंतु वह कुछ भी नहीं बोल रहा… या मैंने उसको चुप रहने की हिदायत दे रखी है. यह दृश्य मैं नहीं सुन सकता…. संजय के मन की आंखें देख सकती हैं…. मैं उसको एक तरफ जाने का आदेश देता हूँ.
वह दृश्य का विवरण बताने लग पड़ा है, ‘वो देखें अश्वत्थामा…. उसके माथे का रिसता जख़्म…. उसके हाथ में मरहम का कटोरा है…. वह बार-बार उसमें से मरहम निकाल कर अपने जख़्म पर लगा रहा है….
मुझे लगता है अश्वत्थामा अपने जख़्म पर मरहम नहीं लगा रहा, अपितु अपने तेज़ नाखूनों से जख़्म को कुरेदता जा रहा है. जख़्म को और गहरा कर रहा है…. अशांत है. सीने में उसके ज्वाला है. पता नहीं कब मेरी अंधी आँखों का दबाव बढ़े और मेरी तीसरी आँख खुल जाए.
लो कर लो बात… साला दो टके का आदमी नहीं होता, आपको आपकी जाति बता औकात दिखा जाता है…. मैं कहता हूँ यह साली….’ यह इसी तरह ही आता है. अशांत . जैसे अभी-अभी किसी से लड़ कर आया हो. इसका यही स्टाइल है. फिर धीरे-धीरे सहज होगा.
‘योगेश, चलो चलें,’
‘कहाँ बाज़ार को…? जिस्मों के बाज़ार में रूहों को ढूंढ़ने…? यह पंक्ति उसने किसी कहानी में पढ़ी थी. उसने मुझे स्वयं ही बताया था. फिर वह आगे बढ़ेगा और रास्ते में कहेगा, ‘योगेश, मैंने अब सभी नशे छोड़ देने हैं….’ और लकड़ी के खोखे से सिगरेट लेकर लंबे-लंबे कश लगाएगा.
क्यों किसलिए छोड़ देने हैं?
‘बस कह दिया’
एकबार ऐसे ही उसे दौरा पड़ा था. तब इसके पिता का मर्डर हुआ था. इसके पिता सरकारी डिस्पेंसरी में डॉक्टर थे. उनका किसी से झगड़ा हो गया, जिसका परिणाम उसके पिता के कत्ल से निकला.
‘योगेश, काहे की ज़िंदगी है…. इधर हमारे पिता की डैड बॉडी पड़ी है.. उधर पोस्टमार्टम के वक़्त पुलिस हमसे पैसे माँगती हो… साली मानवता नहीं है जरा भी इनमें. कैसे आदमी हैं…. बता, तू बता, बड़ा कहानीकार बना फिरता है…. इन पूंजीवादियों का कहना है ‘भूल जाओ मनुष्यता को? इन देशों में तो पहल मनुष्यता को देते हैं… और यहाँ… इसके बिल्कुल उलट है…. आदमी की कोई कीमत नहीं….‘ वह निरंतर बोलता जा रहा था.
फिर उन्हीं दिनों वह पिता की अस्थियां ठिकाने लगाने बनारस गया, वहाँ से लौटा तो और भी परेशान था. एक दिन शाम को वह आया. अपने नियमित आने के समय के मुताबिक, जब मेरी छुट्टी होने में अभी पंद्रह मिनट बाकी थे. वह आया बिल्कुल उसी तरह बेचैन-
‘यार…’ उसके मन में पता नहीं क्या चल रहा था.
‘क्या हुआ?’
‘यह पूछ क्या नहीं हुआ. मैं तुझे कहता था न, तू नहीं माना. वहाँ गए थे अस्थियां लेकर…. मैं पहले भी माँ को मना करता था. परंतु वह तो बस रोती ही जा रही थी. उसकी रुलाई बंद होने का नाम नहीं ले रही थी. वह तुम्हारी खातिर सारी उम्र काम करता रहा, अब तुम लोग उसकी मृत आत्मा की गति भी नहीं करवा रहे…. मैं उसके साथ चला गया. वहाँ तो एक पंडा कह रहा था, ‘कौन हो?’
मैंने कहा, ‘हम मेघ हैं.’
‘आ जाओ. भारगो कैंप से आए हो?’
‘हाँ जी.’
‘मेरा मुँह खुले का खुला रह गया. वही हमारा पंडा था. लो जी उसने मेरे बाप का नाम पूछा. बाबे का पूछा. फिर बही-खाता खोल कर बता दिया दस पीढ़ियों का अता पता. पता है हमारे पूर्वजों के क्या नाम थे? कहा, फग्गण मल, मींह मल, मिलख मल और हमारे परदादे के पास आकर ही यह ‘मल’ शब्द हमारे नाम से गायब हुआ… तुम्हें पता है. इस मल का क्या अर्थ है…?’ ‘….’ मैं अवाक् उसके मुँह की ओर ताकता रहा.
‘इसका अर्थ ‘रिकार्वं है. गंद. अब बता कामरेड, क्या सभी मुसीबतों की जड़ पूंजी है..? ओए तुम्हें क्या पता वहाँ क्या-क्या पकता है….’
उसकी बातों से हट कर मेरा ध्यान दो दिन पहले पढ़ी पुस्तक की ओर चला गया. वहाँ लिखा था, ब्राह्मण के नाम का पहला भाग मंगल-सूचक, क्षत्रिय का शक्ति-सूचक, वैश्य का धन सूचक और शूद्र का कुछ ऐसा हो जो तिरस्कार का सूचकहो….
ब्राह्मण के नाम का दूसरा भाग सुख, शांति-सूचक, क्षत्रिय का रक्षा-सूचक, वैश्य का सुभाग सूचक और शूद्र का दास सूचक होगा.
‘ओए, बोलता नहीं अब?’ मैं सोचों में डूब-सा गया. ‘मैंने अगर कहा, तो कहता है मैं कैसे इस विषय पर कहानी लिखूं?’
मैंने उसकी बातों पर उस दिन ध्यान नहीं दिया था, परंतु वह सोचने लगा था कि वह मेरी कहानी का पात्र अवश्य बनेगा…. मैं उसकी धमनियों में एक गहरी तड़प महसूस कर सकता था. उस दिन से उसके आने की आहट भी मुझे अर्थ से भरपूर लगती है. मैं उसकी धमनियों में बहते खून की टिक-टिक अपनी घड़ी की टिक-टिक से मिला कर सुनता हूँ.
उस दिन के बाद से मैं इसके इतिहास को समझने का प्रयत्न कर रहा हूँ. एक दिन वह मेरे पास आया तो उसके तेवर कुछ और थे.
‘आज कैसे हो?’ मैंने मज़ाकिया लहजे से कहा.
‘अच्छा… चलो आज फिर….’ उसकी पुतलियां नाचीं.
‘आज कोई सार्थक बात न हो, अगर….’ मैंने उसे दफ़्तर में ही रोक लिया.
‘इससे बढ़िया बात और क्या हो सकती है….’
‘पहले तुम यह बताओ कि तुम्हारी बैक-ग्राउंड क्या है…?’ मेरी दोस्ती उससे बहुत पुरानी नहीं थी. एक कवि सज्जन ने मिलाया था और फिर मुलाकातों का सिलसिला शुरू.
‘हमारी…. कहानी क्यों लिखेंगे आप…. न न यह कहानी न लिखना. यह तो मैं लिखूंगा. परंतु फिर भी मैं तुम्हें बता देना चाहता हूँ. हम आए हैं पाकिस्तान से उजड़ कर…. बुज़ुर्ग हमारे हाथ-करघे का काम करते थे. या जुलाहे कह लो….’
‘साले दूसरे लोगों को तो कह रहे हो… तुम लोग कौन-सा दूसरों से कम हो…. तुम भी तो चूहड़े-चमारों को अपने लड़के-लड़कियाँ नहीं ब्याहते….’
‘हाँ, हम भी तो स्वयं को चमारों से थोड़ा ऊँचा समझते हैं…’ उसने मेरी ओर झाँका.
‘ओए हाँ….’ और फिर हम दोनों हंस पड़े. यह हमारा आपसी राज है, किसी और को इसका भेद हम नहीं बताते.
‘फिर बंटवारा हुआ. कत्ल हुए. हम उजड़ के यहाँ आ गए. यह सारा इतिहास मैंने लिखना है….’
‘परंतु यार जब तुम्हारे पिता का सोलहा पढ़ना था, उस समय तो हवन-यज्ञ करवाया था… इसका क्या….’
‘ओए हम आर्य समाजी हैं…. बहुत समय पहले के…. यह जो प्रधानमंत्री बने घूमते हैं, इनको कौन पूछता था…. हमारे परदादों से चली आ रही है यह बात…. अब भी जो मंत्र पंडित पढ़ते हैं, मुझे याद हैं.’
‘ओउम भूज्भूर्वज् स्वज् तत्सवितुर्वरेर्णयं भर्गो देवस्य धीमहि….’ वह सचमुच मंत्र रटने लग पड़ा था.
‘दरअसल में विभाजन के बाद यह सभी आ टिके थे, बलüटन पाकü…. सारी मेघ बिरादरी यहीं आ ठहरी थी. तब होते थे दो बुज़ुर्ग… राधो और साधो. उन्होंने संध्या करना, हवन यज्ञ करना.’
‘यह संध्या क्या होती है?’
‘संध्या होती है… यह तप होता है. संध्या करने वाला व्यक्ति कुएं की दीवार पर बैठकर सांस ऊपर को चढ़ा कर तप करता था. वे दोनों बहुत एक्सपर्ट थे. एकदिन राधो ने अपनी श्वास इतनी ऊपर चढ़ा ली, कि फिर वह नीचे नहीं आ सकी. चल बसा वह. तब से ही सभी बिखर गए. उसके बाद तो पचासों आर्य समाज बन गए थे…’ वह पल भर के लिए रुका.
‘लो और सुन फिर… अब आकर बखेड़ा खड़ा हो गया…. यह सभी अपने नाम के साथ आर्य रतन लिखते थे, रिजर्वेशन लेते थे मेघ के नाम तले. हमने यह बखेड़ा खड़ा कर लिया कि हम आर्य रतन नहीं, मेघ लिखेंगे खुद को और लालों से पूछा हिसाब…. शिवरात्रि पर, दशहरे पर अर्थात सभी कार्यक्रमों पर जो पैसा इकट्ठा होता था वह कहाँ है…? बस फिर हो गया तमाशा शुरू. हम बागी करार. पुलिस केस बनने लगे…. इनके कॉलेजों से हमारे नाम काटे जाने लगे… हम और तगड़े हो निकले. यह तुम्हारा भाई सबसे आगे था. चार बार पुलिस आई हमारे घर. लोगों को भी यही लगा कि इनके साथ ही चलना चाहिए. फिर क्या था हमारी कमबख्ती आ गई. फिर हमने कई फैसले लिए. इनमें एकथा कि ’हमें अपनी पहचान बनानी है….’ यह सबसे अंतिम मुद्दा था, प्रथम में पढ़ाई बगैरह के लिए अलग स्कूलों का निर्माण या कुछ और…. बाद में यह पॉलीटिक्स का मेन मुद्दा बन गया. सभी ने कहा हमने न आर्य रतन बनना है, न चमार बनना और न ही कुछ और बनना… तो फिर बनना है, तो क्या बनना है? फिर उसमें निकला कबीरपंथी…. आह, कबीरपंथ चला न, सभी यह कहते हैं. हम जुलाहे हैं, जुलाहों का गुरु कबीर है. फिर यह कबीरपंथ चला. इन्होंने कबीर पंडित बनाएं. परंतु मर्यादा वही रही. मैं फिर इनसे पीछे हट गया. अब नहीं पता यह क्या करते हैं…. हमारे परिवार वाले अब भी यही रस्में निभाते हैं.’
अश्वत्थामा की आवाज़ में कंपन है- ‘मेरे लिए मर्यादा है और कोई मर्यादा में नहीं रह सकता? मेरे पिता का वध… भीम ने दुर्योधन को मारा…?’ उसकी कनपटी की फटती धमनियाँ.
‘ख़ामोश गुस्ताख.’ मैं पता नहीं किधर गुम हूँ.
फिर उसको पता नहीं क्या याद आया. वह उठकर चला गया. मैं अपने अंदर भरमराने लगा. अंधकार और गहरा होता गया. मैं और गहराई में गिरता जा रहा था.
‘साहब आज छुट्टी करने का इरादा नहीं’… चौकीदार की आवाज़ सुनकर मैं चौंक गया.
‘जाना है यार…. लो कर लो ऑफिस बंद’ कहकर मैं उठा, पंरतु अंदर से बाहर नहीं निकल सका. गहन अंधेरे में जैसे भटकगया था.
घर गया तो भी वही हाल. मैं चुपचाप लेट गया. पत्नी चाय बना कर लाई. मैंने चाय पी ली, परंतु पता नहीं चला मैंने चाय पी भी है या नहीं….
गांधारी की आंखों पर पट्टी बंधी हुई है. वह भी नहीं देखना चाहती. मैं अंधा विमूढ़ मुझे तो नकार ही कुछ नहीं आता. नहीं, मैं ढोंग करता हूँ. सब कुछ तो संजय मुझे बताता जा रहा है.
‘संजय चुप कर जाओ… यह हस्तिनापुर नरेश का आदेश है.’ उसकी ज़बान बंद नहीं हुई.
‘तू पाँडवों के पक्ष में है या कौरवों के….’
‘मैं कौरवों के पक्ष में हूँ.’
‘मेरी नसें तन गईं. तुमने तो सदैव धर्म का पक्ष लिया है… परंतु….’ मेरा मुँह कड़वा हो गया. वह ऊँचे स्वर में हंसा. शायद मेरे अंधेपन पर हंसा.
‘तुम मेरा अपमान कर रहे हो.’
वह और ऊंचे स्वर में हंसा.
अंधकार गहराता गया. मेरे अंदर इतना अंधेरा. जंगबंदी का ऐलान तो कब का हो चुका था. संजय चुप था. परंतु उसके स्वर अभी भी मेरे अंदर कहीं चल रही जंग पर तेल उड़ेल रहे थे. जंग कभी नहीं रुकती… रात को भी नहीं…. जंग तो राख के भीतर दबा दी जाती है.
‘सुनो! पिताजी कह रहे थे कि तुझे आग दबाने का ढंग आ गया है.’ पत्नी ने मुझे झकझोरा.
मैं चौंककर उठा हूँ.
‘क्या?’
‘मैंने कहा पिता जी कहते थे कि तुझे आग दबाने का ढंग आ गया है. अब उन्हें हुक्का भरने के लिए आग जलाना नहीं पड़ता. चूल्हे से निकाल लेते हैं.’
मुझे ख़याल आया कि पत्नी आज ही गाँव से लौटी है. गाँव में पिताजी बीमार थे, तो मैं उसे वहाँ छोड़ आया. यह भी शहर की होने के कारण चूल्हे-चौके का काम कम जानती थी. धीरे-धीरे सीख गई है. पिताजी हुक्का पीते हैं. माँ तो चौबीस घंटे चूल्हे में आग दबा कर रखती थी, परंतु उसके मरने के बाद पिताजी को बोरियां फाड़-फाड़ कर काम चलाना पड़ा था. अब यह गई तो उन्होंने कोई तरीका सुझाया होगा.
‘तुमने सुबह मेरे साथ अच्छा नहीं किया….’
‘आप दफ़्तर से लेट होते थे. फिर अगर आपको नींद आ जाती…?’
‘हाँ… तुमने मुझे तंग ही करना था… नींद तो….’
‘जब तुम मेरी भावनाएं जगा कर स्वयं फ्री होकर सो जाते हो…?’
वह ख़ामोश था. मैं ख़ामोश था.
सारी रात मैं संजय को गालियां निकालता रहा. अपनी आँखों के ऊपर पट्टी और कस ली. गांधारी मेरे मन से विस्मृत हो चुकी थी. हस्तिनापुर नरेश जंग कभी बंद नहीं होती. कृष्ण सिर्फ लीला करता है…. वह कैसे चख-चख कहता रहता है.
‘आ जाओ भाई साहब आ जाओ…. अंदर ही हैं महाराज… अभी तक सोए पड़े हैं.’
यह दूसरे दिन सुबह ही आ टपका. उसका मन भरा पड़ा था. हाथ में भी कुछ था.
‘आ जा… आ जा….’ वह अंदर आ गया.
‘आज नाश्ता नहीं दिया घर वालों ने….’ पत्नी ने मज़ाक किया.
‘भाभी जी, जब तक आप हैं, नाश्ते की क्या चिंता….’
‘बैठ जा….’ मैंने पैर खिसका लिए, ‘रमा चाय ला हमारे लिए….’
‘हाँ जी….’ उसने भी हाँ की.
‘अच्छा जी.’ कहकर वह रसोई की ओर चली गई.
‘कैसे आना हुआ?’
‘यार मुझे आजकल नींद नहीं आ रही. चौबीस घंटे आत्ममंथन करता रहता हूँ. कल जब मैं तुम्हारे पास आया तो पूछ मत रास्ते में क्या हुआ…’
क्या छुपा है इसके दिमाग में.
‘यह जख़्म मेरे इतिहास के खंडहरों तक पहुंचने का रास्ता है.’ उसने कहा.
‘क्या कहाँ’ मैं जैसे सब कुछ कल्पना में बिठा रहा था.
‘यार कल जब मैं तुम्हारे पास आ रहा था तो जिस रिक्शा से घर जा रहा था, उसको चलाने वाला बीएएलएलबी था. पता है, उसने क्या कहा, मैं अपने भाई की तलाश में इधर आया था. उसको गुम हुए दस साल हो चुके हैं.’
‘फिर मिला उसका भाई.’
‘हाँ मिला…. परंतु अब भी वह वापिस जाने को तैयार नहीं. उसका भाई किसी लड़की से विवाह करना चाहता है, लड़की दूसरी जाति की है. वह कहता है कि अगर उसने विवाह किया तो वह उसका कत्ल कर देगा.’
‘लो चाय पीओ.’ पत्नी ने ट्रे बैड के ऊपर रख दी.
‘भाई साहब वह आपका टरमैस्टर कंपलीट हो गया.’
‘अभी कहाँ…. हाई कोर्ट में केस चल रहा है….’ उसने गहरी सांस छोड़ी.
वह बी.एस-सी. कर रहा था. कहीं किसी प्रोफेसर से जाति-बिरादरी की बात चली तो झगड़ पड़ा. उसके विरुद्ध ऐजीटेशन करवा दी. यूनिवर्सिटी में उसके पोस्टर चिपका दिए. बस वह पीछे ही पड़ गया जैसे. फिर डी ग्रेड लग गया. तब से लटकता घूम रहा है.
‘फिर तो विवाह अभी नहीं होने वाला….’ पत्नी ने उसकी उदासी तोड़ने के लिए दूसरा लहजा अपनाया.
‘काहे का विवाह…. योगेश, तब एक होती थी लड़की… अब वह डॉक्टर बनी हुई है. वह कहती थी निरंकारी बन जा, सब कुछ हो जाएगा…. तब बस अकड़ गए हम… यार सियालकोटिया बन जाए निरंकारी… जो आर्य रतन नहीं बना, वह निरंकारी कैसे बन जाए. बस अकड़ गए… नहीं तो आज हमने कहीं से कहीं होना था, उसके बाप की चलती बहुत थी.’
‘चंगा फिर पकड़े रहो अपनी अकड़. ओए उसने ही तुझे मरवा देना… साले क्या जाता तेरा अगर थोड़ा ढीला पड़ जाता.’
‘ओए हम नहीं रह सकते. तू काहे का कामरेड ओए. समझौते करते फिरते हो तुम. मैं नहीं समझौता कर सकता. कम से कम इस मामले में तो कभी नहीं.’
‘अच्छा चल छोड़. मैं एक कहानी लिख रहा हूँ. तुम एक बात बताओ कि महाभारत में अगर तुझसे पूछूं कि तुम्हें कौरवों और पांडवों के पक्ष में से एक का पक्ष लेना है, तो तुम किसका पक्ष लोगे?’
‘कौरवों का.’
‘वह क्यों….’
‘यह पता नहीं…. मैं तुम्हारे जैसा कहानीकार नहीं, जो शब्दों द्वारा अपने दिल की बात बता सकूं.’
‘ठीकहै, ठीकहै… भाई साहब, यह मुझसे भी व्यर्थ के ऊंट-पंटाग सवाल पूछते हैं,
गांधारी की तरह तुमने भी पट्टी बांधी हुई है… कई बार तो ऐसा लगता है कि इनकी बात सच्ची है… फिर दिल करता है कि बंधी रहे….’ कह कर पत्नी ने ग्लास उठाए और रसोई की ओर चली गई.
‘यार आज वह कविता सुना.’ वह दूसरे मूड में आ गया.
‘कौन-सी?’
‘वही जो उस दिन सुनाई थी….’
‘किस दिन….’
‘जिस दिन मैं पार्टी में आया था.’
‘उस दिन तो तुम ज़्यादा ही उदास थे… ऐसा क्यों था?’
‘यार कभी कभी मैं भीड़ में अकेलापन महसूस करता हूँ. बहुत ही अकेला…. मेरा दिल करता है कि कहीं अशांत पानी में जाकर समा जाऊं. मेरे मस्तिष्क में उबलती हुई इच्छाएँ उस तरह ही पानी में जज्ब हो जाएं… फिर पानी में उबाल आए… मेरी इच्छओं की ज्वाला पानी भी उबाल सकती हैं…. फिर क्यामत आए…. गर्क हो जाए सब कुछ….’ कई बार वह हिंदी कहानी की ऐसी पंक्तियाँ दुहराता है.
‘बस कर, बस कर….’
‘यार पता नहीं किसलिए मुझे बहुत बार यह अकेलापन बड़ी शिद्दत से महसूस होता है.’
‘फिर तो तुमने मेरे विवाह में भी अकेलापन महसूस किया होगा.’
‘ओए क्या बात कर दी तुमने. मुँह संभाल कर बोल…. भले आदमी वह भीड़ तो मेरे अंदर समाई हुई थी…’
‘मैं भला उस दिन अकेला क्यों महसूस करता… आह! बाकी भीड़ों में तो मैं होता हूँ अकेला.’
मुझे अहसास हुआ. आदमी कई बार बिल्कुल अकेला होता है. उसका आपा भी उसके पास नहीं होता. भीड़ उसके वजूद के गिर्द बिखरी होती है.
मैंने जल्दी से कागज़ कलम उठाई और उस पर लिख दिया- ‘प्रत्येक क्षण इतिहास बदलने का क्षण होता है.’
‘तुमने कविता तो सुनाई नहीं.’
‘कौन-सी?’
‘वही धरेजे वाली.’
‘अच्छा-अच्छा…. लो सुनो.
-जड़ों को देख
अपने पूवर्ज धरेजे का मुख नकार आता है
जिससे हमारी बेल बढ़ी थी
मैं इन जड़ों का ही बीज हूँ
कोख में गिरा उस मिट्टी माँ का बालक हूँ
जुग-जुग जीने वाला
उसकी जड़ें मेरे लहू में बह रही हैं
जड़ों को देख
मृत बाप का हाथ याद आता हैं
‘योगेश, यह मृत पिता का हाथ मेरा पीछा नहीं छोड़ता. प्रतिदिन मैं सपने में यह हाथ देखता हूँ. जब हम गंगा गए थे किरिया के लिए तो हमें पहेवे भी जाना पड़ा था. उसने कविता आधे में ही बंद करवा दी थी.’
‘अच्छा…’
‘वहाँ जाकर बहुत कुछ करना पड़ता है…. वहाँ वही जाते हैं, जिनके आदमी की डैथ अननैचुरल हुई हो… या खाट पर मरा हो….’
मेरा ध्यान उसकी बात से उखड़ा. हिंदू जब मरने के किनारे पर पड़े आदमी को खाट से उतार कर जमीन पर लिटाते हैं तो उसकी मनोस्थिति क्या होगी…? क्या सोचता होगा वह उस समय. सिरहाने टिमटिमाते दीप की लौ उसके अंदर झोंकों से ही डोलती होगी. गीता के श्लोकों का अर्थ उस समय सर्वनाश ही होता होगा. कुरुक्षेत्र का मैदान होगा घर पांडव कौरव सभी युद्धरत होंगे. मरने वाले के बारे में नहीं सोचा जाएगा. क्योंकि युद्ध सदैव अंधा होता है. कोई भी मर सकता है युद्ध में, घर के भी, उस समय लक्ष्य सामने होगा, रिश्ते नहीं….
‘वहाँ गए तो पंडित के लिए कुछ करने के बाद मुझे कहा तुम्हारी हजामत करनी है. मैं अड़ गया. मैंने कहा कुछ भी हो जाए मैंने अपनी चांद नहीं निकलवानी… माँ रोती रही. फिर यह समझौता हुआ कि चलो इस नाम पर थोड़ी-सी दाढ़ी ही हल्की करवा ली जाए. उसके बाद भैया कहने लगे एक गंदे तालाब में नहाओ. मैं डरा कहीं इनफैक्शन न हो जाए. माँ रोती रही, मैं तो फंस गया था. उसके समीप ही कुत्तों ने मल त्याग किया हुआ था. फिर जैसे तैसे मैं उसमें उतर गया. भैया ऐसा हाल वहाँ होता है…. मैंने तब सोचा था कि वहाँ यह सब पाखंड न करूं…. इन सभी पाखंडों से मेरे बाप की आत्मा का कुछ भी बनना-बिगड़ना नहीं था. मुझे सब पता था, परंतु मैं फिर भी सब कुछ करता चला गया.’
‘मेरी माँ के बहते आँसू मुझसे यह सब करवाते रहे… या मेरे अचेत मन में कुछ अटका हुआ था….’ वह लगातार बोलता चला जा रहा था.
‘किन झंझटों में फंस गए आप?’ पत्नी की रसोई से आई आवाज़ ने दोनों को जैसे हिलाया. नाश्ता बनने की महक आ रही थी.
‘अच्छा मैं चलता हूँ.’
‘क्यों? बैठ जाओ नाश्ता करके जाना…. तुमने कहीं अंडे खाने तो नहीं छोड़ दिए…’
हम दोनों हंस दिए. पत्नी नाश्ता ले आई.
‘चाय एक बार और चलेगी?’
‘क्यों नहीं चाय और विवाह की इच्छा है….’ पत्नी ने मीठी झिड़की दे अपनी मुस्कुराहट बिखेरी.
‘यह पहली तो संभाली नहीं जाती….’
‘क्यों अब मैं काटने दौड़ती हूँ.’
‘कसर तो छोड़ती नहीं.’
‘चलो छोड़ो यार, मुझे काट लिया करो.’
‘लो यह साला मुफ्त में ही स्वाद लेने जा रहा है.’
वह खिलखिला के हंस पड़ा.
उसके जाने के बाद मैं तैयार होकर दफ़्तर जाने लगा तो पत्नी धीरे से बोली- ‘मुझे लगता है चक्रव्यूह की कहानी सुनने वाला आपका अभिमन्यु धीरे-धीरे मेरी नसों की आवाज़ से मिट रहा है.’
मैं चौंका.
‘तुमने यह खुशखबरी, इतने मनहूस उदाहरण से क्यों सुनाई..?’ मैंने पत्नी को झिड़की पिलाई.
वह पता नहीं क्या करने लगी. मैं दफ़्तर की ओर निकल आया.
अभिमन्यु. क्या मेरा पुत्र चक्रव्यूह में फंस कर मर जाने के लिए जन्मेगा. क्या मेरे पिता की बेल आगे नहीं सरकेगी? क्या उसका कोई पोता अपने पूवजों का नाम इन खातों में जा कर नहीं ढूंढ़ेगा? क्या वह जड़ों की ओर नहीं लौटेगा? सवाल दर सवाल, पर मेरा मस्तिष्क पता नहीं क्या सोचता जा रहा है. क्या जरूरत है यह गड़े मुर्दे उखाड़ने की? परंतु यह क्यों नहीं कविता सुनते मुझसे बार-बार…? क्यों उस कवि मित्र ने लिखी यह कविता? क्या टूटा नहीं जा सकता जड़ों से? क्या अमरबेल नहीं जीती जड़ों के बगैर? परंतु.
‘यार क्या है यह समाज? क्या परिवर्तन आया. क्या साईंस ने ग्लोबल चेतना पैदा की? कहीं यह जाति-बिरादरी और सांप्रदायिकता कम हुई..?’ इसकी जोरदार आवाज़ ने मुझे जगाया.
‘क्या बात हो गई आज… लड़ पड़े हो किसी के साथ…’ मैंने कहा.
‘नहीं यार. तुम्हें पता है मुझे क्यों फेल किया गया क्योंकि मैं रिजर्व कैटेगरी में आता था. प्रोफेसर के गलत व्यवहार के विरुद्ध बोला था. मैं कहीं कोई लेख पढ़ रहा था, किसी हिंदी के विद्वान का था. उसने लिखा था कि औरत को सैक्स और आदमी को उसकी जाति याद करवा कर, दो टके का आदमी भी उसकी औकात दिखा देता है…. साला क्या समाज है यह…?’
‘परंतु हुआ क्या है? पता भी तो चले.’
‘खाक होना है. यह जो मैडम थी साली बड़ी सभा की प्रधान बनी घूमती है. उसक का ट्रीटमेंट चलता था मेरे द्वारा…. पहले तो मैं उसके सोफे पर भी बैठता था. चाय भी मिलती थी मुझे… बातें भी होती थीं मेरे साथ.. पूरी तरह खुल जाती थी… आज कहा वैसे आप होते कौन हैं, मैंने कहा हम मेघ बिरादरी के होते हैं…. तुम सच मानना योगेश उसके चेहरे का स्टाइल देखने वाला था…. कहा, डॉक्टर प्लीज आप रहने दें, लगता है यह आपके बस के बाहर की बात है.’
मैं ख़ामोश हूँ. सोचता हूँ इसका यह जख़्म मुझे किस गुफा की ओर ले जाएगा?
मेघ भगत समाज का उल्लेख करती इतनी सुंदर रचना मैंने पहली बार नेट पर देखी. आपको और लेखक को बहुत बधाई. इसे मैंने http://meghbhagat.blogspot.com पर आपके साभार पोस्ट किया है.
Beautiful presentation.
पहली बार पढी है देस राज काली जी की कहानी। बहुत अच्छी लगी। धन्यवाद।
बहुत अच्छी लगी ये कहानी।
पढते हुए लग ही नही रहा था कि कहानी पढ रहा हूँ
ऐसा लग रहा था कि फिल्म देख रहा हूँ, आँखो के आगे चित्र का खिचता चला गया। एक-एक शब्द आखिर तक जोडे रखता है