बदला बहरूपिया: अजय नावरिया
1
‘गुनाह बहुत लुभावना होता है और बदला बहुत बहरूपिया…’ फादर की आवाज़ आ रही थी … डूबती …. टूटती …. जैसे पहाड़ी नदी में लट्ठे बहते आते हैं …. ‘पटेल के सन से झगड़ा नहीं करना है’ वह लभगभ चीख़ी थी, उसकी आँखों में मनचाहा पाने का आश्चर्य था. यू आर रियली ए डेविल. लगभग पैंतालीस-छयालीस साल की मिसेज देशमुख के मुंह से निकला. उसके चेहरे पर गाढ़ा मेकअप था. मैं साले सुनेजा को बताऊँगी …. इतना बढ़िया माल अब तक कहाँ छिपा रखा था. फिर वह घूम गई थी. मेरे मन में आया था कि मैं उसके एक ज़ोरदार लात मारूं पर मैनें उसे हल्के से ठोकर दी थी, लात से. ‘वेट… वेट… मैं थक गई’. ठोकर लगते ही उसके मुँह से यह शब्द ऐसे बाहर आ गिरे जैसे दस्त लगने पर बिना दबाव के ही मल निकल जाता है. मेरे मुँह में थूक भर आया था.
2
मेरा गाँव बहुत सुंदर था. तीन राज्यों की सीमाएँ मेरे गाँव को छूती थीं. सामने पहाड़ों में गढ़चिरौली था जो महाराष्ट्र में पड़ता था और दक्षिण में आंध्रप्रदेश के चन्द्रू पटिया क़स्बे की सीमा थी. गाँव के लोगों को यही पता नहीं था कि जिला क्या होता है? फ़ादर आते थे पहाड़ पर. वही बताते थे कि हमारा गाँव मध्यप्रदेश के दंतेवाड़ा जिले में आता है. तब छत्तीसगढ़ नहीं बना था. वही बताते थे कि जगदलपुर पहुँचने से पहले चंद्रपुर पहुँचा जा सकता है. पहाड़ के इधर के गाँव दांतेवाड़ा में और उधर के गढ़चिरौली में थे. नदी के उस पास चन्द्रूपाटिया था. पहाड़ पर हमारा गाँव था … पचास घरों का… भिनसा. पिता कई काम करते थे. पशुओं की खाला खींचते थे, शहद के छत्ते तोड़ते थे, ताड़ी बनाते थे और पहाड़ के नीचे पटेल के खेतों में मजदूरी भी करते थे. मां बहुत पहले कभी मर चुकी थी और मैं उसका चेहरा भी याद नहीं कर पाता था.
मैनें पिता को कभी समय से खेत पर पहुँचते नहीं देखा. बाक़ी लोग हमेशा समय से पहुँचते. पटेल गाली देता, ‘पेतुरा साले, हरामी… फिर देरी से आया.’ पिता पटेल के सामने उसकी तारीफ़ी के गीत गाने लगता और फिर उसकी चारपाई के नीचे बैठकर बीड़ी पीने लगता. कुछ देर बाद पटेल चला जाता तो पिता पटेल का नाम लेकर उसकी नक़ल उतारते. ‘साला बाजीराव आज तुमको फिर संडास नहीं आया … बस ज़ोर से पाद आया … भों.’ पिता मुंह से आवाज़ निकालते. सब ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगते. वह धोती की लांग उठाकर एक पैर बाजीराव की नक़ल करते. ‘ये धरती हमारी है, पटेल कौन होता है हम पर हुकम चलाने वाला.’ फिर वह सबके साथ खेत में काम करने लगते. बाजीराव गाँव के मंदिर के अलावा आस-पास के मंदिरों का प्रधान भी था. उसके माथे पर लगा त्रिपुंड उसके रूप को और भयानक बना देता था. गाँव के मंदिर के छोटे पुरोहित की बीवी के साथ मैनें उन्हें ज़बरदस्ती करते भी देखा था. छोटे पुरोहित संध्या-बाती के लिए गए थे. वह दिशा-मैदान के लिए गई थी. पटेल के सामने मैनें उसे हाथ जोड़ते देखा था, पर पटेल नहीं माना था. उसकी चीख़ उस सुनसान में पटेल की हाँफ के नीचे दब गई थी.
मैं फादर के स्कूल जाता. स्कूल चर्च के पास था. दसवीं कक्षा. अंग्रेज़ी पढ़ता. अंग्रेज़ी थोड़ी-थोड़ी बोलता. ‘तुम बड़ा आदमी बनेगा एक दिन. मेहनत करो, ख़ूब पढ़ो’ मैं फ़ादर से बहुत प्रभावित था. वे कहते, ‘अंग्रेज़ी सीखो…अंग्रेजी से ही आदमी बड़ा बनता है, मदर लेंग्वूज के लिए काम ज़रूर करो पर अंग्रेज़ी ही आदमी को शेर बनाता है’ बहुत बाद में मैनें जाना कि यही बात डॉ अंबेडकर ने भी कही थी. मैं कुप्पी की रोशनी में रात-रात भर पढ़ता.
दसवीं के परीक्षाओं के दिन क़रीब थे. स्कूल दूर था… दो किलोमीटर…पहाड़ से उतरकर, पैदल-पैदल. बीच में छोटा-सा जंगल, अपना जंगल, अपनी धरती. स्कूल जाते. दिनखा नवीं कक्षा में था. उस रोज़ दिनखा नहीं आया था. स्कूल की छुट्टी हुई. मैं घर की तरफ़ निकल पड़ा. दिनखा के बिना खाली-खाली लग रहा था. रोज़ साथ-साथ बातें करते चलते तो वक़्त का पता ही नहीं चलता था. पर आज रास्ता बहुत लंबा लग रहा था. लगता था कि यह रास्ता ख़त्म ही नहीं होगा.
दूसरा पहर ख़त्म होते-होते मैं जंगल पहुँच गया था. सामने पहाड़ दिखने लगा था. ‘ अबे रुक…कहाँ भागा जा रहा है क्रिस्तान’ पटेल का लड़का विनायक गाँव के दूसरे चार-पांच लड़कों के साथ पेड़ की झुकी मोटी डाल पर बैठा था. ‘मैं क्रिस्तान नहीं हूँ मालिक.’ मैं आगे बढ़ गया था. ‘तुझे जाने को किसने कहा बे, तेरी यह मजाल…इधर आ.’ विनायक झुकी डाल से चीचे कूद गया था. ‘तेरा झोला दिखा. क्या चोरी करके लाया है?’ उसने मेरा बस्ता छीन लिया. सारी नोटबुक धरती पर पलट दी. ‘मालिक छोड़ दो…ख़राब हो जाएंगी…फादर गुस्सा करेंगे’ मैनें हाथ जोड़ दिए थे. ‘तेरा पैंट तो बहुत बढ़िया है…कहाँ से चुराया?’ पैंट को पेट से पकड़कर वह हो-हो करके ज़ोर से हँसा. उसके सारे साथी हँसने लगे. ‘फादर ने दिया है मालिक, फट जाएगा.’ मैनें पैंट छुड़ाते हुए कहा. ‘और क्या-क्या देता है तेरा फादर.’ उसने आँख मारते हुए अपने साथियों की तरफ़ देखा था. वे फिर हँसने लगे थे. ‘ला ये पैंट हमें दे दे.’ वह बहुत नाटकीयता से बोला था. मैनें पैंट को कसकर पकड़ लिया. ‘उतार लो इसकी पैंट.’ वे मुझे अपने शिकंजे में कसते हुए उंगलियों से कोंचने लगे थे. ‘मालिक मेरे पास कच्छा नहीं है नीचे.’ मैनें याचना में हाथ जोड़ते हुए कहा था. इसके बाद वे पाँचों मुझ पर पिल पड़े थे और खींच-खींचकर ज़मीन पर गिरा दिया था. ‘इतना बड़ा, कटवा है ये है ये साला तो.’ उनकी आँखों में अचरज था. वे सन्न खड़े रह गए थे. उनकी फटी आँखों में मेरे जननांग का भय था.
एक-दो पल बाद आँख ही आँख में उन्होंने एक-दूसरे को इशारा किया. चारों ने मुझे धरती पर ज़बरदस्ती चित्त कर दिया. पटेल के लड़के की सांस मेरे कान के पास टकराई थी. दूर मेरे गाँव से ढोल की आवाज़ आ रही थी, धप-धप-धप, गडर-गडर-गडर ढफली की आवाज़…पड़-पड़-पड़, उधर हमारे लोग ढफली बजा रहे थे. गुंटया ने मेरे सिर को ऊपर उठाकर नाक पर ज़ोरदार मुक्का मारा था. मैं जितनी ताक़त से चीख़ सकता था, चीख़ा…पर मेरी चीख़ जंगल लील गया था. मुझ पर बेहोशी छाने लगी थी. होश आया तो कानों विनायक की आवाज़ पड़ी थी, ‘तेरी बारी गुंटया.’ ‘नहीं’ गुंटया की आवाज़ निकली. ‘फिर मारो साले की दुकान पर लात.’ आवाज़ के साथ-साथ एक ज़ोरदार लात मेरे पीछे पड़ी थी. ‘बड़ा हथियार फेल.’ धप-धप-धप, गड़र-गड़र-गड़र, पड़-पड़-पड़. ढोल-ढफली की आवाज़ अब भी आ रही थी गाँव से. वे जा रहे थे. हमारे लोग ढोल बजा रहे थे. अपनी-अपनी ढफली बजा रहे थे. ताड़ी चढ़ा रहे थे.
मैं घर लौट आया था. सारी दुनिया जैसे मुझे मुँह चिढ़ा रही थी. किसी से कह भी नहीं सका था. पर कोई मेरी तरफ़ देखता तो लगता जैसे उसे सब पता है. मैं मर जाना चाहता था पर जाने क्यों मर भी नहीं सका. कुछ दिनों बाद परीक्षाएं शुरू हो गई थी. स्कूल नहीं गया था उसके बाद. परीक्षाएँ देने गया था. दिन ऐसे ही निकल गए थे. परिणाम आया तो पास हो गया था पर बहुत अच्छे अंक नहीं आए थे. फादर बहुत उदास थे. नवीं मे सबसे अधिक मेरे ही अंक आए थे. उन्होंने बहुत पूछा था. मैं उन्हें क्या बताऊँ ‘मैं यहाँ नहीं रहना चाहता फॉदर, मुझे कहीं भेज दो.’ मेरी बार-बार की रट से फादर परेशान हो गए थे. आख़िरकार उन्होंने मुझे एक चिट्ठी और एक पता दिया था. चन्द्रपुर से उन्होंने मुझे नागपुर की बस में बैठा दिया था. चिट्ठी नागपुर के एक मिशनरी स्कूल के प्रिंसिपल के नाम थी.
मैं जब वहाँ पहुँचा तो दोपहर हो गई थी. पूरी रात के सफ़र को मैनें आँखों ही आँखों में काट दिया था. ये बरसात के दिन थे और जब मैं बस अड्डे पर उतरा तब भी हल्की बूंदा-बांदी हो रही थी. स्कूल पहुँचकर मैंने चिट्ठी फादर सेमुअल को दिी. उन्होंने बिना किसी हुज्जत के मुझे ग्यारहवीं में प्रवेश दे दिया था. चिट्ठी में जाने क्या लिखा था, फादर पढ़कर मुस्कुराए थे और नज़र उठाकर मेरी तरफ़ देखा था. मैंने रास्ते भर चिट्ठी नहीं खोली थी, मेरे ख़्याल में ही यह बात नहीं आई थी. पर जब फादर सेमुअल मुस्कुराए तो एक बारगी लगा था कि क्या फादर ने वही बात लिखी है. हॉस्टल में रहने की जगह मिल गई, पहनने को कपड़े भी. खाने का इंतजाम मैस में हो गया. वक़्त यादों पर पारदर्शी परतें भी बिछाता रहा और जिस तरह बहुत सारी पारदर्शी परतें भी एक धुंघ बना देती है, उसी तरह मेरी यादें भी धुंघआती गई. बारहवीं में प्रथम श्रेणी से पास हुआ और कॉलेज में समाजशास्त्र में प्रवेश ले लिया.
यह बिल्कुल अलग दुनिया थी. लड़कों की कोई चिंता नहीं थी. वे रोज के लिए जीते थे. कल की उन्हें कोई चिंता नहीं थी. कुछ महार थे, उनका अपना अलग एक ग्रुप था. उनमें से अधिकांश मुझे अपना न मानते थे. सवर्ण लड़कों की तरह वे भी मुझे क्रिस्तान कहते थे. सवर्ण लड़कों की तरह बातों ही बातों में उन्होंने भी मेरी जाति पूछी और फिर पीछे हट गए थे. महार लड़कों का पहला सवाल मेरा एससी या एस टी होना पूछना था. फिर उन्होंने उपजाति पूछी थी जबकि सवर्ण लड़के सिर्फ़ आरक्षित वर्ग का सुनकर पीछे हट गए थे. मांग-महार लड़कों में से कुछ फिर भी मुझसे साथी की तरह व्यवहार करते थे परंतु सवर्ण अधिकांश दूर रहते थे अध्यापकों का रवैया भी कुछ-कुछ वैसा ही था.
उस दिन एंथ्रोपोलाजी का पीरियड था. कुलकर्णी सर मानव नस्लों के बारे में पढ़ा रहे थे. नीग्रो नस्ल. मोटे-मोटे होंठ. फैली नाक. उभरा माथ. गोल खोपड़ी. पर ये लंबा कुछ ज़्यादा है. कहकर वे मुस्कुराए थे. सारे छात्र-छात्राएं खिलखलाकर हँस पड़े थे. पर दलित लड़के-लड़कियाँ हँस नहीं पाए थे. उनमें से अधिकतर मुझसे मिलते-जुलते थे. कुलकर्णी सर भी हँस पड़े थे. हँसते हुए उनकी छोटी-मोटी आंखें बंद हो गई थीं. पीला-पीला रंग…दबी छोटी नाक…पिचका माथा…बिल्कुल मंगोलियन नस्ल की तरह…चंगेज खां संतति…मंगोलिया से महाराष्ट्र तक के सफ़र की थकान का प्रसाद. मैनें उन्हें हँसते देख सोचा था. घंटी बज गई थी. कुलकर्णी सर चले गए थे.
सवर्ण लड़कियां मुझे घूर-घूरकर देखतीं. उनकी आँखों में अजीब भाव थे, लालसापूर्ण घृणा के. मुझे पिता याद आए थे. उनका क़द छोटा था, नाक लंबी थी. उनके होंठ पतले और सुर्ख थे. उनका माथा ख़ूब उभरा हुआ था. माई पतली और लंबी थी. उनकी नाक फैली हुई और होंठ मोटे थे. मैंने उन दोनों से जो सुंदरता पाई थी, वह कुरूपता थी और वही कुरूपता मेरी सुंदरता होती है. यह रूपांतरण मैंनें देखा था. डिफरेंटली ब्यूटीफूल.
फादर की तरफ़ से जब स्कॉलरिशप आना बंद हुई, तब मैं द्वितीय वर्ष में था. वे नागपुर मिलने आते थे और यीशु का मार्ग अपनाने को कहते तो मैं टाल जाता था. मुझे धर्म में कोई रुचि नहीं रह गई थी. सारे धर्म एक जैसी शक्ल के लगते फादर को धर्म और परमेश्वर के अलावा किसी बात में रुचि नहीं थी. अंतत: उनका आखिरी जवाब आ गया था. ‘चर्च आगे स्कॉलरिशप देने में हैल्पलैस है. परमेश्वर तुम पर कृपा करें.’ मैं पहले ही अंदाज़ा लगा चुका था. मैं फादर का ऋणी था. यह उनका ही उपकार था कि मैं यहाँ तक पहुँचा था. पर क्या धर्म मेरे लिए कोई मायने रखता था? धर्म से ज़्यादा मुझे रोटी और इज़्ज़त की ज़रूरत थी. चाचा पॉल तो शेफर्ड बन गया था पर गाँव का पंडित तो उसे अब भी ‘मातंग की औलाद’ पुकारता था. किसी पराए के नाम से पहचाने जाने से बेहतर बेनामी ज़मीन बने रहना था.
जीसस मुझे अच्छे लगते थे. फादर मुझे जीसस से भी सुंदर लगते थे. फादर की शांत आँखें मेरे मन की सारी अशांति पी जाती थी. जैसे दरिया बड़े दरिया में मिलकर खुद को खो देता है. पर चर्च मुझे भुतहा लगता था. सूना-सूना, और उदास. वहाँकोई जीवन नहीं था. कोई उमंग और उत्साह नहीं था. चर्च का घंटा शांति में डर पैदा करता था. वहाँ सुकून देने वाली शांति नहीं थी, जैसे गाँव के मंदिर में थी. वहाँ जीवन भी था, उत्साह और उत्सव भी. पर मंदिर के भगवान और उत्सव हमसे दूर थे. महारों और मांगों की तरह हम भी उन्हें छू नहीं सकते थे. फादर की अंतिम चिट्ठी आने से पहले ही मैं ट्यूशन पढ़ाकर गुजारे लायक कमा चुका था.
इस बीच मैं बीए करके मुंबई चला गया था. यूनिवर्सिटी में प्रवेश भी ले लिया था. एक चाल में छोटा-सा कमरा हम दो लोगों ने मिलकर ले लिया था. इसी तरह दो-तीन महीने बीत गए. गाँठ की पूंजी चुकने लगी थी. मैनें आसपास कई लोगों से काम के लिए कह दिया था. दो नंबर खोली में तीन लड़कियाँ थीं ये. लंबी,ख़ास गोरी और नीली-नीली आँखों वाली. बिल्कुल अंग्रेजों जैसी. मैनें पढ़ा कहीं कि महाराष्ट्र में योरोपियन सबसे पहले रत्नगिरि के घाट पर ही उतरे थे. वहीं से वे आगे बढ़े थे. वे भी कॉलेज में पढ़ती थीं और रात को बार में डांस करती थी. शारदा ने ही मुझे मसाज पार्लर में पार्ट टाईम काम दिलाया था. ‘जब तक कोई काम नई, तब तक करने का बाद में छोड़ देने का’ उसने उसने बहुत बेलौस ढंग से मेरा कंधा थपथपाया था. ‘जेब में पैसा रहने का तो अच्छा-बुरा टाइम में काम आने का.’ मजबूरी में मैनें मसाज पार्लर का काम शुरू कर दिया था. नागपुर की तरह मुझे यहाँ ट्यूशन भी नहीं मिल रहे थे. बारहवीं तक मैनें विज्ञान पढ़ा था परंतु बिना पैसे के आगे विज्ञान की पढ़ाई संभव नहीं थी. समाजशास्त्र मैनें इसीलिए लिया था. ट्यूशन देने से पहले सब मेरी पढ़ाई के बारे में पूछते थे. मजास पार्लर में चार बजे से दस बजे तक के सौ रुप्ये मिल जाते थे. ये थोड़े पैसे नहीं थे. मेरी ज़रूरत के हिसाब से कुछ ज़्यादा ही था. पैसा हमेशा थोड़ा ही होता है क्योंकि उम्मीदें हमेशा उससे ज्यादा की होती हैं.
दिन पहले से बेहतर गुज़रने लगे थे. मुंबई का आज़ाद माहौल अच्छा लगता था. यहाँ कोई किसी से किसी की जाति नहीं पूछता था. इस दुनिया में खुलकर साँस ली थी. अपने फेफड़ों में नई ताजगी भरी थी. शहर का सुख था यह. विनायक को किसी भी तरह मैं भुला देना चाहता था पर उसकी याद प्रेत की तरह पीछे लगी रहती थी. शायद मुझे ही अतीत की क़ब्र खोदने की लत लग गई थी. ट्यूशन एकाध मिले पर उससे ज़्यादा पैसे, वह भी कम समय में मुझे मसाज पार्लर से मिल जाते थे. ट्यूशन के पैसों का कोई भरोसा भी नहीं था, कई बार लोग देते भी नहीं थे. कुछ महीनों चक्कर लगवाते, पैसा टूट-टूटकर आता जो जो किसी मतलब का नहीं रहता और जहाँ राशन की उधारी चलती, वह अपनी टेक अलग रखता. ज़िंदगी वाले बहाने कहाँ सुनते हैं. इसीलिए मैंने ट्यूशन नहीं पकड़े थे.
सुबह से दोपहर दो बजे तक कॉलेज रहता. वहाँ से घर वापस आता. शारदा,पद्मिनी और रेवती भी तब तक आ चुकी थी. आते ही सबसे पहले मैं स्टोव पर भात चढ़ाता और फिर कपड़े बदलता या हाथ-मुँह धोता. कभी-कभी शारदा अपने यहाँ बुला ले जाती थी. लड़कियाँ बहुत सलीकेदार होती हैं, यह मुझे उन्हीं दिनों पता चला था. भात के साथ अचार, पापड़, दाल, सब्जी सब रखती थी शारदा. उस दिन भी रखा था उसने सब, पर उसके चेहरे पर उदासी़ थी. ‘तबियत ठीक नहीं क्या.’ मैनें पूछा था. ‘हाँ ऐसा इ लगता. कॉलेज नई गई’ उसकी आँखों में उदासी का वाष्प घनीभूत हुआ था. ‘दवा लेने का. चल मैं ले के चलता है.’ खाना खाते हुए मैनें कहा था. मैं कोशिश करके उनकी भाषा बोलता. ‘नई रे सब ठीक हो जाएगा. परवा नहीं.’ उदास स्वर में ही उसने कहा था.’ आई का याद बोत आता है.’ कहते हुए उसने अपने टी शर्ट के दो बटन खोल दिए थे. अंदर उसकी काली ब्रा गोरी चमड़ी पर चमक रही थी.
‘तेरा काम कइसा चलता है.’ उसने अपनी प्लेट में भात डाला था. ‘ठीक’ मेरी नज़र उसकी छाती पर पड़े एक हल्के घाव पर पड़ी थी. ‘ये क्या हुआ’ ‘कुछ नहीं. एक कस्टमर का सिगरेट से जल गया.’ उसने उसे हल्के से ढंक लिया था. ‘रेवती और पद्मिनी तेरा रिलेटिव है न’ मैं ख़ासतौर से रेवती के बारे में जानना चाहता था. रेवती मुझे अच्छी लगती थी. अच्छी लंबी. और एकदम गोरी. उसकी आँखें बहुत उदास थी और चेहरा छोटा तिकोना. उदास होने पर भी वह लटककर लंबा नहीं होता था. पर जाने क्यों रेवती कभी-कभी बुरी तरह चीख़ने लगती थी, उसकी चीख़ हलाक होते पशु की तरह होती थी. उसके साथ बलात्कार हुआ था. उसी के किसी रिश्तेदार ने यह किया था. तब वह बारह-तेरह साल की थी. शारदा ने ही मुझे बादम में एक दिन बताया था यह सब. पद्मिनी भी गोरी और लंबी थी पर वह मुझे आकर्षिनहीं करती थी. शारदा में एक विचित्र किस्म का मातृत्व मुझे मिलता था. वह इन सब बातों से परे थी. रेवती के रंग में आभा थी.
‘नई पद्मिनी मेरे गाँव की, रेवती पास गाँव की. हम इदरई मिले. मैं पद्मिनी के पास में आई. रेवती पहले से थीं. इदरई. हम सब एक जात न.’ वह मुँह में भात घुमा रही थी. जाति की बात चलते ही मैं चुप हो गया. मुझे लगा कि वह मेरी भी जाति पूछेगी. मैं दिमाग़ दौड़ाने लगा कि मैं क्या बताऊँगा? ब्राह्मण नहीं बताऊँगा, उसमें पकड़े जाने का ख़तरा था. क्या पटेल? अपने लंबे क़द को याद किया था मैंने. अपनी असलियत छिपाना ठीक नही. मुझे कौन सी रिश्तेदारी करनी है. भात न खिलाए तो न खिलाए, भूखा कोई मर रहा हूँ मैं. मैंने इसी बीच मन ही मन तय किया था. पर उसने कुछ भी नहीं पूछा था. ‘कस्टमर साथ में डांस करता था क्या?’ मैंने उसी जले हुए निशान की तरफ़ देखा था. ‘तू बहुत भोला है.’ टी-शर्ट से अच्छे से ढका था उसने उसे. ‘तेरा सचाई मेरे कू बहुत अच्छा लगता पन ये यहाँ नई चलने का. थोड़ा स्मार्ट बनने का. यह गाँव नई, शहर है.’ वह मुस्कुराई थी. शारदा, पद्मिनी और रेवती के मुस्कुराते और लिपे-पुते चेहरों के पीछे एक घुटी-घुटी चीख़ मुझे सुनाई देने लगी थी. यह बिल्कुल वैसी ही थी जैसे किसी का गला दबते वक़्त निकलती है.
पार्लर का काम करते हुए तीन-चार महीने ही बीते थे पर मिस्टर सुनेजा जो पार्लर का मालिक था, बहुत विश्वास करने लगा था. वह पंजाबी था, ज़ाहिर है बहुत प्रोफ़ेशनल. शायद धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलने से मेरा रुतबा बढ़ गया था. उसने कई बार इसे स्वीकारा था. मैंने अपना नाम बदलकर टायसन रख लिया था. यह व्यवसायिक ज़रूरत थी. मैं व्यवसाय में बईमानी नहीं करता था. ईमानदारी जब नीति हो तो बेईमानी में सुविधा हो जाती है. सुनेजा कई बार आजमाने के बाद आश्वस्त हो गया था. मैं व्यवसायिकता सीखने लगा था. शहर बहुत कुछ चुपचाप सीखने देता है. सुनेजा मुझे अब ‘एक्सक्लूसिव’ ग्राहकों के घर भी भेजने लगा था. कभी-कभी औरतों की मसाज के लिए भी. बड़े-बड़े बंगलों में अकेली और डरावने कुत्तों के साथ पड़ी मोटी-मोटी औरतें. ज़्यादातर मारवाड़ी,मद्रासी और पंजाबिनें थीं. कुछ महाराष्ट्रीयन भी. बार बार जाने पर वे मुझे पहचानने लगी थीं. उनके डरावने कुत्तों ने भी भौंकना बंद कर दिया था. कुत्ते मेरे आने पर पूँछ हिलाने लगते. क्या यह कोई अपनापा था?
ऐसे ही एक बार वह मिला था. मलयालयी था. सब उसे पिल्लै बुलाते थे. दिसंबर का महीना था. हल्की ठंडी की मस्ती मुंबई पर छाने लगी थी. जब मैं होटल के रूम पर पहुँचा, तब दोपहर के तीन बज चुके थे. बेल बजाई. दरवाज़ा खुला तो सामने चालीस वर्ष के आसपास का एक आदमी सफेद लुंगी लपेटे खड़ा था. ‘सुनेजा…’ मेरा इतना कहते ही स्त्री सुलभ लचक के साथ वह ‘कम-कम’ कहते हुए एक ओर हो गया था. ‘सिट, मैं अभी आता हूँ’ वह बाथरूम की तरफ़ चला गया था. मैंने उसकी हास्यास्पद चाल को पीछे से निहारा था. मुझे उसकी चाल रेवती से मिलती-जुलती लगी थी. सामने टेबल पर कई तस्वीरें थीं. विभिन्न नृत्य-मुद्राओं में. भारी मेकअप में भी मैं उसे पहचान गया था. ये उसी के थे. ‘ये आपके…’ तस्वीरें अभी मेरे हाथ में ही थी. ‘यस-यस, मैं डांस टीचर फि़ल्म एक्ट्रेस को डांस सिखाता है.’ उसका लहजा दक्षिण भारतीय था. उसने अदा से अपनी उंगलियाँ चटकाई थी. मुझे फिर रेवती याद आई थी.
वह औंधे मुँह बेड पर लेट गया था. मैं चुपचाप उसकी मालिश करता रहा. अचानक वह उठा और मुझे बेतरह चूमने लगा. मैं एकदम से समझ नहीं पाया पर पूरी ताक़त से उसे बेड पर फेंक दिया. ‘नो, नो मैं एक्स्ट्रा पे करेगा’ मैं बैग में सामान पैक करने लगा था. ‘वन मिनट’ कहकर वह मुड़कर आलमारी तक गया था. उसने सौ-सौ के नोटों की तीन गडि्डयां मेरे हाथ में रख दी. ‘रक्को. और दूंगा’ मैं तय नहीं कर पा रहा था कि चाहता क्या है. तीनों गडि्डयां हाथ में रखते ही उसने एक भद्दा इशारा किया तो मैं समझ गया कि वह क्या चाहता है? इतना रुपया मैंने तब तक फि़ल्मों के अलावा कभी एक साथ नहीं देखा था. विनायक से बदला लूंगा. पैसा गाँव पिता को भेजंगा, फादर का उधार चुकाऊँगा, रेवती के लिए एक ड्रेस खरीदूंगा, सबसे बड़ी बात पढ़ाई के लिए साल भर के ख़र्च की छुट्टी.
बैड पर औंघा पड़ा पिल्ले मुझे पटेल का लड़का विनायक दिखा था. मुझे दूर कहीं ढोल की आवाज़ आ रही थी. ढम ढम ढमाढम. ढफली बज रही थी, पड़-पड़-पड़र. पहाड़ था, जंगल पसरा पड़ा था. मैं हिंस्र पशु की तरह दनदनाता जंगल में दौड़ रहा था. ‘सुनेजा को नई बताना…ये तुम्हारा मेहनत का कमाई.’ उसने आँख दबाई थी. यह मेहनत थी. श्रम…पहली बार मैंने जाना कि शहर में श्रम की कितनी सुविधाएँ हैं जिस वजह से गाँव में मैं मर जाना चाहता था, वहीं शहर में मेहनत थी. उसका भुगतान था. यहाँ श्रम का मूल्य था. यह नई दुनिया थी. शहर का यह मेरे लिए नया मिज़ाज था. तीन दिन बाद वह लौट गया था. ‘कोई काम पड़े तो मिलना’ जाते हुए उसने मुझे मिसेज देशमुख का नंबर और एक चिट्ठी दी थी. तीसरे दिन मेरे पास काफ़ी रुपया था. क्या यह तीसरा दिन मेरा ‘तीसरा’ था? यह तब मैं नहीं जान पाया था.
हफ़्ते भर क्रिसमस की छुटि्टयाँआ गई थीं. मैं मिसेज देशमुख से मिलने नहीं गया था. कोई काम भी नहीं था. पढ़ाई के लिए मेरे पास ज़रूरत से अधिक पैसा था. पिता बहुत याद आए थे, फादर उनसे भी ज़्यादा. जब तक नागपुर में था, फादर गाँव की, पिता की ख़बर महीने-दो-महीने में ले आते थे. पर मुंबई आने के बाद उनकी कोई ख़बर नहीं मिल सकी. पता नहीं वे ज़िंदा भी होंगे या नहीं. मैंने उस दिन सोचा था. गाँव लौटाने से पहले मैंने पिता और फ़ादर के लिए दो-तीन महंगी शराब की बोतलें और पिता के लिए कई जोड़े कपड़े खरीदे थे. पिता मिले तो खुशी से पागल हो गए. सबसे पहले वह मुझे ऊपर पहाड़ पर बनी बाबा की कुटिया में माथा टिकाने ले गए थे. बाबा धुजानाथ को मैंने अपने बचपन से यहाँ देखा था. वह कहीं आते-जाते नहीं थे.
पिता ने एक बोतल शराब बाबा को दी थी. बाबा बकरी को भगाते हुए बोले, ‘पेतुरा यह बोतल तो मैं नहीं लूंगा’ फिर बकरी को बुलाते हुए उन्होंने मेरी मेरी तरफ़ देखा था, ‘लौट आ बेटा’ बकरी लौट आई थी. ‘पेतुरा तू तो जानता है रे खरच करते रहे तो कुबेरे का ख़जाना भी रीत जाता है. तेरा बेटा कमाकर लाया है.’ बाबा ने पिता का नाम लिया था पर देख वह मेरी तरफ़ रहे थे. ‘पेड़ ज़मीन से रस नहीं खींचे तो सूखकर गिर पड़ता है. संभालकर खर्च करना चाहिए मरद को अपना धन.’ बाबा की रूखी, उदास आँखों में एक स्थिर भावव था. फिर हम लौट आए थे. ‘तू कल मेरे पास आना.’ बाबा ने चलते वक़्त मुझसे कहा था. ‘भूख में जीव को ज़हर नहीं खाना चाहिए. चल इधर आ.’ बकरी को पत्ते खाने से रोकते हुए बाबा की आवाज़ पीछे से सुनाई पड़ी थी. क्या वाकई यह सब बकरी से बोल रहे थे बाबा?
बाबा से मिलने के लिए जाने की हिम्मत मैं नहीं जुटा पाया था. मैं जानता था कि बाबा बकरी से नहीं मुझसे बात कर रहे थे. पिता भी रास्ते भर उनकी शक्तियों की कहानियाँ सुनाते रहे थे. जिसको हम जान नहीं पाते, उसकी ताक़त का डर ही हमें नतमस्तक किए रहता है. भगवान और मुंबई के भाई लोग यानी गुंडे एक ही तरह से डराते हैं. बाबा ऐसे नहीं थे, वे बहुत प्रेमपूर्ण थे. उनका प्रेम ही मुझे डराता था. किसी बहुत बड़े के सामने भी हमारे भीतर एक डर समा जाता है. यही वजह थी कि मैं बाबा के पास नहीं जा सका था. फादर ने शिक्षा की ताक़त सिखाई थी और शहर ने पैसे की. पैसे का नशा मुझे अब कुछ भी सोचने की मनाही करता था. मुंबई से लौटने के बाद गाँव मुझे उजाड़ लगा था. पटेल का लड़का विनायक मुझे मिला था रास्ते में. शायद वह जान-बूझकर ही आया था वहाँ. मेरे गले में सोने की मोटी चेन थी. उंगलियों में सोने की अंगूठियां चमक रही थी. विनायक कुछ कह नहीं पाया था. वह मुस्कुरा भी नही सका था. मेरे सामने वह बिल्कुल भिखारी लग रहा था. उसकी आँखों में मैंने मात देखी थी. फिर मैं लौट गया था. मैं और पैसा कमाना चाहता था. मैं विनायक को बिल्कुल हारा हुआ देखना चाहता था. इसके लिए सिर्फ शहर था. जाने कब पढ़ाई दूसरे नंबर की चीज़ हो गई.
मिसेज देशमुख से मैं मिला था. वह बहुत चालाक महिला थी. वह पैसे एक-एक कोर वसूलती थी. वह बहुत ग़रीबी से यहाँ तक पहुँची थी, ऐसा उन्होंने बताया था. मिस्टर देशमुख उनसे पच्चीस साल बड़े थे. वह उनकी ब्याहता नहीं थी परंतु उन्होंने समझदारी से काम लिया था और उनकी करोड़ों की संपत्ति अपने नाम करा ली थी. इसी समझदारी ने उन्हें सिखाया था कि किसी का विश्वास नहीं करना चाहिए. मैं उन्हें देखता तो मुझे उन पर दया भी आती थी. जब हम किसी का विश्वास तोड़ते हैं तो सबसे पहले शायद अपना विश्वास तोड़ देते हैं. हम अपने ही विश्वास के धाती होते हैं. मिसेज देशमुख ने अपना विश्वास तोड़ लिया था. वे बहुत अकेली और असुरक्षित हो गई थी. विश्वास का तोड़ना हमें अकेला और असुरक्षित भी बनाता है, यह मिसेज देशमुख को देखकर मैंने जाना था. क्या किसी का विश्वास तोड़ने से पहले हमें किसी और की नहीं अपनी ही ख़ातिर सौ बार नहीं सोचना चाहिए? पर पद्मिनी इसे समझदारी कहती थी. वह उसे शहर की ज़रूरत मानती थी और इसीलिए वह मुझे बेवकूफ समझती थी. हालांकि उसने कभी कहा नहीं था, पर मुझे देख उसकी आँखों में तैरता अफ़सोस यही बताता था.
मिस्टर देशमुख अब चल-फिर नहीं पाते थे. पहली बार भी जब मैं उनके घर गया था, तब वे वैसे ही निश्चल बैठे थे अगर उनकी पलकें न झपकतीं तो शायद वे शव की ही तरह दिखते. एक जीवित बुत. उनकी साँस भी इतनी धीमी चलती थीं. कि छाती तक में कोई हलचल नहीं होती थी. अभी दो साल पहले तक देश के हर शहर में उनकी औरतें थीं. शायद देश के बाहर भी. यह मुझे मिसेज देशमुख ने बताया था.
मिसेज देशमुख ने एक दिन मुझे उनके सामने खींच लिया था. देशमुख की उपसिथति मुझे हताश कर रही थी. वे वृद्ध थे. ‘ऐसा है?’ देशमुख को दिखाते हुए मिसेज देशमुख ने मेरा गुप्तांग हथेली मे भरकर ऐसे उठाया था जैसे भाला उठाते हैं, फेंकने से पहले. देशमुख की आँख एक बारगी पूरी खुली थी, फिर मुंद गई थी. आँख की कोर से दो बूंद चू गई थी चुपचाप. मिसेज देशमुख ने भी देखा था. मिसेज देशमुख के चेहरे पर मैंने एक आध्यात्मिक सुकून देखा था. यह प्रतिशोध का सुकून था या प्रतिशोध की आध्यात्मिकता. ऐसा ही आध्यात्मिक सुकून मैंने हमेशा बाबा के चेहरे पर भी पाया था. उस दिन उन्होंने मुझे ज़्यादा पैसे दिए थे. मैंने चुपचाप पैसे रख लिए थे पर आँखों में सवाल चुपचाप नहीं बैठे थे शायद उन्होंने वह इबारत पढ़ ली थी. ‘तुम मेरे प्रतिशोध में सहयोगी बने इसलिए.’ वह बोली थी.
मिस्टर देशमुख अब भी सामने थे. पलकें मुंदी हुई, एक अलग बुत की तरह. ‘किसी की इच्छा के विरुद्ध हमें उसे अपना नहीं बनाना चाहिए. समझे तुम.’ वह मिस्टर देशमुख की तरफ़ देखकर चीख़ी थीं. यह एक अजीब रहस्य था. मैं पूछना चाहता था पर यह मेरे पेशे के नियम के बाहर था. मिस्टर देशमुख ने सुनकर आँखें खोली थी. उनकी आँखों मे ंसबसे पहले मैं अटका था. आश्चर्यजनक रूप से उन आँखों में मेरे लिए नफ़रत नहीं थी. एक अपनापन-सा था, जैसे हमराहों में होता है. फिर उन आँखों में मिसेज देशमुख उलझ गई थी. वे बहुत निरीह हो गए थे, जैसे योद्धा के सामने शस्त्रविहीन शत्रु हो जाताा है. उनकी आँखों में आत्मसमर्पण था, त्रास से मुक्ति की चाह थी और मिसेज देशमुख की आंखें किसी हिंस्र पशु की तरह चमक रही थी. भवों के पास आध्यात्मिक शिथिलता अब भी थी.
ज़िदगी मुझे बहुत तेज़ी से सिखा रही थी. हम जिन्हें पाप कहते हैं, शायद पाप के वही रास्ते ज़िंदगी को हमें बेहतर और मुकम्मल तरीक़े से सिखाते हैं. क्या निष्पाप होने की मंज़िल भी पाप के रास्तों से ही हमें मिलती है? क्या सभी पुण्यात्माएं इन कथित पापों की राहों से गुज़रकर ही वहाँ तक पहुँची हैं? क्या मिस्टर देशमुख वाकई राग-द्वेष से पार हो गए थे? क्या मिसेज देशमुख भी एक दिन वहीं पहुँचेगी? मेरा क्या होगा? ये सवाल लगातार मेरी चेतना में हथौड़े मारते. मैं जिन रास्तों पर था, वह मुझे लगातार समझदार बनाना चाहते थे पर मुझे पिता याद आते. फादर याद आते. बाबा और उनकी बकरी भी याद आती. ‘भूख में कोई ज़हर नहीं खाता.’ पर अब तक मैं यह ज़रूर समझने लगा था कि शक्तिशाली बनने का रास्ता सीधा नहीं है. वह घुमावदार, ऊबड़-खाबड़ और घाटियों से भरा है. पर मुझे अपने दृढ़ निश्चय से उसे हासिल करना था.
मिसेज देशमुख ने मुझे अपने ही घर में रख लिया था. महीने की पगार बांध दी थी. यह मेरे लिए अतिरिक्त सुविधाजनक था. मुझे पढ़ाई के लिए समय मिलने की संभावना बढ़ गई थी. वेला मेरी पढ़ाई की भी चिंता करती थी. उनकी बार-बार की ज़िद पर अब मैं उन्हें मिसेज देशमुख की जगह वेला पुकारने लगा था. उन्होंने बताया था कि उनका नाम वेलम्मा है. वह महाराष्ट्र की नहीं आंध्रप्रदेश की रहने वाली थी. ‘मैं तुम्हें प्यार करने लगी हूँ’ वह मुझे अक्सर कहतीं. मुझे लगता कि उन्हें खुद भी इन शब्दों पर विश्वास नहीं है. उनकी ज़िंदगी में इन शब्दों के अर्थ कभी के छीज चुके थे. खुद को विश्वास दिलाने के लिए वह इसे बार-बार दोहराती. उनके चेहरे पर इस मेहनत की थकान और हताशा मैनें हमेशा देखी थी. मुझे लगता कि एक ज़िद्दी बच्चे की तरह वह अपने खिलौने को अपना प्रेम समझा रही थीं. इस ज़िद के अलावा वहाँ कुछ था तो रिक्तताबोध और अकेलापन. वह मुझसे सिर्फ इसे भर लेना चाहती थी. पैसे को लेकर वह हमेशा सतर्क रहती और यही सतर्कता उन्हें किसी पर भी भरोसा नहीं करने देती थी.
‘तुम कुछ बड़े होते तो मैं तुमसे शादी कर लेती.’ मिस्टर देशमुख की मौत होने के दस मिनट बाद उन्होंने मुझसे कहा था, मिस्टर देशमुख का शव बिस्तर पर पड़ा था. यह बुत की एक अलग मुद्रा थी. डॉक्टर ‘ही इज नो मोर’ कहकर निकल गया था.
वक़्त का बिलौटा, दबे पांव मरियल चूहों की तरह पड़े दिनों, हफ़्तों और महीनों को उठाकर ले जाता रहा. इस बीच दो बड़ी घटनाएँ हुई. एक, मेरा एम ए प्रीवियस प्रथम श्रेणी से हुआ, दूसरा मैं सिविल में पास हो गया. फादर याद आते कि पढ़ाई एक बड़ी शक्ति है. सत्ता और पैसे के साथ मिलकर यह महाशक्ति बन जाती है. शहर में रहकर मैंने यह जान लिया था. भविश्य की असुरक्षा भी मुझे इस तरफ़ कुछ चाक-चौबंद रखती थी. इन्हीं दिनों मुझे वह मिली थी.
वेला के यहाँ किसी ने पार्टी दी थी. वह पार्टी में आई थी. उसकी उम्र बीस-बाईस साल की रही होगी. साड़ी लिपटी उसकी देह का मैंने अनुमान कर लिया था. वैसे ही जैसे पिता बकरे की रान को दबाकर ही उसके वजन का. अनुभव ने मुझे यह सब सिखा दिया था. इन पार्टियों में में मेरा काम शराब में धुत्त औरतों को उनकी कारों या बिस्तर तक पहुँचाना होता था. इस काम में वह किसी को नहीं बुलाती थी. वह मुझे साथ रखती और मुझे एक पल भी अकेला नहीं छोड़ती. यह सब अपने सामान की चौकसी करने जैसा ही था. ‘डीसीपी वरुण की वाइफ है’ मुझे उसकी तरफ़ देखते हुए उन्होंने पकड़ लिया था. ‘गोली मार देगा.’ तब मुझे नहीं पता था कि यह शब्द भविष्य की कोख से पैदा हुए हैं. पुलिस का नाम सुनकर मैं वाकई कुछ सकपका गया था. पर बाद में हालत कुछ इस तरह बने कि उसे छोड़ने के लिए मुझे ही घर जाना पड़ा जिस पुलिसिया कार में वह आई थी, ख़राब हो गई थी. वरुण शहर में नहीं थे. वेला ने मुझे भेजा था, साथ ही ताकीद किया था कि रास्ते भर उससे बात न करूं.
वह मुझे इतनी भली लग रही थी कि मैं वेला की चेतावनी भूल गया. शुचिता नाम बताया था उसने. जबलपुर की रहने वाली हूँ – कहा था उसने. फिर वह ख़ामोश हो गई थी. उसके बोलने और ख़ामोश रह जाने के बीच मैं उसकी ठोड़ी देखता, भरी-भरी ठोड़ी. मैं उसकी नाक के नथुने देखता जो किसी गुस्सैल बच्चे के नथुनों की तरह फूले हुए थे. भवों के ऊपर माथे पर फैली रोओं की हल्की रेख को देखता. उसकी आँखों में बड़ी उदासी थी जो रेवती की आँखों में थी. रेवती की प्रतिकृति सी थी वह. रेवती मेरी नहीं हुई थी. वह किसी की नहीं हुई थी. उसने आत्महत्या कर ली थी. वह पोंगापंथियों के पुनर्जन्म की अंताक्षरी में विश्वास करती थी. यही विश्वास उसे ले डूबा था.
रेवती ज़िंदगी के दुखों से हार गई थी. काश कि वह लड़ पाती. क्या यह रेवती की तरह आत्महत्या की तैयारी कर रही है? उसकी बुझी आँखों ने मेरे मन में सवाल सुलगाया था. मुझे उदास लोग आत्महंता दिखते थे. पर मैं उसे बचाना चाहता था. मैं उसे बताना चाहता था कि ज़िंदगी सिर्फ दुख नहीं है, सुख भी नहीं है-वह दोनों है और शायद दोनों ही नहीं भी है. वह शायद जिए चले जाने की एक टेक भर ही है. उसको मेरे और वेला के रिश्तों के बारे में शायद कुछ पता था या मेरे स्वरूप् से वह मेरे प्रति बहुत विरक्त थी. वह बहुत चुप थी. उस दोपहर उसके घर छोड़कर लौटते वक़्त मुझे अंदेशा नहीं था कि यह उपेक्षा और नफ़रत ही कौतूहल बनकर उसे मेरे पास खींच लाएगा.
कुरूपता फिर अपरूपता बनी थी. सबसे धारधार हथियार. क्या औरतों के लिए आदमी के सुंदर होने से अधिक समर्थ और औरतों में बदनाम होना ज़्यादा अहमियत रखता है़? औरतें बदनाम आदमी के सामने कपड़े उतारने में कम समय लगाती हैं? क्या उपेक्षा भी जुड़ाव की ही अदृश्य सीढ़ी है? क्या रस के विद्वानों ने श्रृंगार के रंग को काला हमारी काली चमड़ी और मर्दाना ताक़त के चलते ही माना था? क्यों वेतविर्णयों ने फिर श्रृंगार का रंग काला माना था? क्या ये हमारी ही औरतें थीं जिनका अपहरण इन्द्र ने किया था, ऋग्वेद में जिनके शोकगीत दर्ज हैं? क्या वे औरतें अपहरण के बाद भी रंग के प्रति अपने पुराने मोह को छोड़ नहीं पाई थीं? सवालों के जाले मे ख़ुद को एक मामूली कीड़े की तरह हाथ-पांव मारते देखा था मैंने. मेरे मन में पोंगा-पंडितों और शास्त्रों के लिए सिर्फ नफ़रत थी. शुचिता, वेला, रेवती सब मेरे लिए सिर्फ शरीर थीं.
फिर वह मुझे मिलने लगी थी. बहाना वह वेला का करती थी. मिलने को लेकर मैं बहुत उत्सुक था पर पहल उसी ने की थी और वह मिलने में कोई उत्सुकता नहीं दिखाती थी. क्या वह ज़रूरत के सिद्धान्त से बंधी थी? पाँच-सात मुलाक़ातों के बाद उसका सोच बदलने लगा था. उसने मुझमें अपना प्रतिबिम्ब देखा था. इसे क्या कमी हो सकती है? मैं उसके बारे में सोचता. शायद उसका आदमी नपुंसक होगा –
मैं सामान्य युवा की तरह उसके बारे में सोचता. आखिर जब्त करते-करते भी एक दिन यह सवाल जबान से उछल गया था. एक ही आंवे में तपते दो रूप थे हम.
उसने भी समाजशास्त्र में बी.ए. किया था. फिर आम भारतीय लड़कियों की तरह उसके माता-पिता ने उसके हाथ पीले कर गंगा नहाई थी. यह एक पातक की तरह था, उसके पिता के लिए. वह एक निम्नमध्यमवर्गीय परिवार की लड़की थी. डीसीपी वरुण जिस जाति से संबंध रखते थे, वहाँ ऐसी सुंदर लड़कियों का लगभग अकाल था. शुचिता के ‘शर्मा’ उपनाम के कारण मैं उसे ब्राह्मण ही समझता था. पर खुद को वह ब्राह्मण नहीं मानती थी. उसने पांचवीं-छठी मुलाक़ात में बताया था, ‘हम अलग तरह के ब्राह्मण हैं.’ उसके चेहरे पर शर्मिंदगी नहीं थी, उपहास था. ‘ब्राह्मण हमें ब्राह्मण नहीं मानते. पर क्या करें? यहाँ बड़ा दिखने का मॉडल ब्राह्मण ही है.’ उस दिन मुझे बी का अपना दोस्त गिरीश शुक्ला याद आया था. उसने मुझे सलाह दी थी कि मैं अपने नाम के पीछे कोई ब्राह्मणी उपनाम लगा लूं. फिर मेरा रंग, मेरी विरूपता, मेरी भाषा, मेरा व्यवहार मेरी विशेषता में बदल जाएगा. वह उपनाम मुझे ताक़त देगा. पर मेरा अन्तर्मन इसकी गवाही न दे सका. गिरीश शुक्ला होकर भी एक होटल में बेयरे की नौकरी ही कर रहा था. उसके पिता किसी पावललूम में मैकेनिक थे. क्या शुक्ला ने उनकी ग़रीबी और जलालत को ढंक दिया था? ग़रीब ब्राह्मण होने से अमीर अछूत होने में मुझे सार्थकता दिखी थी. मुझे अपनी जाति का ताक़तवर बनाना था ताकि पटेल उन पर अत्याचार न कर सके, ताकि महार और खटीक उनसे मैत्री कर सके.
वरुण इस शादी के लिए तैयार न थे. उन्होंने पिता के इस फै़सले को सिरे से ख़ारिज कर दिया था. फिर माँ एक प्रशिक्षित पालतू पशु की तरह आगे आई थी. उसने पिता और कुल की इज़्ज़त की बात उठाई थी,मरने की धमकी दी थी. ‘जिसे तुझे रखना हो, रख ले, पर शादी इसी लड़की से करनी होगी.’ वरुण मान गए थे. उन्होंने माँ की दोनों बातें मान ली थी. शुचिता ने टुकड़ों में अपनी दास्तान सुनाई थी. ‘तुम्हारे सामने वरुण बहुत हल्का है.’ मैंने निहितार्थ समझ लिया था. ‘वेला ने कई बार तुम्हारी ताक़त के किस्से सुनाए थे’ वह मुस्कराई थी. वेला उन दिनों मुझ पर खूब झल्लाती. उन्हें पता चल गया था कि वह पीठ पीछे मुझसे मिलने आती है. कभी-कभी वह मेरे सामने रोने लगती, ‘तुम्हें प्यार किया, तुम भी अपनी नहीं हुए.’ वेला का यह व्यवहार मुझे एक ज़िद से ज़्यादा कुछ नहीं लगता था. वेला का शरीर उम्र के इस दौर में भी गठा हुआ था. वह देखने में किसी भी तरह पैंतीस से ऊपर नहीं दिखती थी. परंतु इस दिखने की भीतरी सच्चाई खुद वेला से ज़्यादा कौन जानता था. एक असुरक्षा-बोध, एक हीनताबोध, उसे अंदर ही अंदर कुतरता रहता था. अंतरंग क्षणों में भी वह मेरे साथ क्रूरता से पेशा आने लगी थी. उधर शुचिता और अधिक कृतज्ञ भाव से पसरने लगी थी. वेला की मैं एक बड़ी ज़रूरत था, इसलिए वह मुझे छोड़ नहीं सकती थी … अधिक से अधिक वह एक बनैले पशु की तरह हिंसक हो सकती थी…और जिसे अंतत: मन मारकर, छटपटाकर चित ही होना था.
क्या शुचिता की भी मैं ज़रूरत भर हूँ – मैं सोचता तो जैसे कलेजे मे एक हूक-सी उठती. मैं मन को दिलासा देता. बार-बार यह दिलासा छोटा पड़ता जाता. क्या किसी तरह शुचिता मेरी नहीं हो सकती? पर उसके पुलिसिया पति के बारे में सोचकर रुह कांप जाती. कई बार बैंक अकाउंट में जमा पैसे देखता. पिछले छह महीनों में वह दो लाख से ऊपर नहीं जा रहे थे. शुचिता को ज़िदगी में आए भी छह महीने ही हुए थे.
‘मुझे यहाँ से ले जाओ.’ शुचिता ने उस दिन मेरी बाँह पकड़कर कहा तो जैसे मुझे मनचाही मुराद मिल गई थी. वरुण पाँच दिन के लिए ऑस्ट्रेलिया गए हुए थे. वेला से जो पैसा मिलता था, वह सब शुचिता पर ख़र्च हो जाता था. होटल के जिस कमरे में हम रुकते थे, उसका किराया ही तीन हज़ार रुपये प्रतिदिन था. शुचिता इतनी सीधी थी कि वरुण से पैसा भी नहीं मांग पाती थी.
उस दिन सुबह से बारिश हो रही थी. बारिश मूसलाधार थी. कमरे के छज्जे पर रखे गमले पानी से लबालब भर गए थे. शीशों के पार सामने वाले कमरों के दो छज्जों पर कुछ अरब आदमी बारिश का आनंद ले रहे थे. उनके साथ औरतें हिंदुस्तानी थी. रेगिस्तान के ये बाशिंदे सिर्फ़ बारिश का लुत्फ़ लेने के लिए इतनी दूर मुंबई चले आते हैं हर साल. सरकार और निजी क्षेत्र अपने ग्राहकों के लिए विशेष ‘मानसून ऑफर’ घोषित करते हैं. क्या अरब के गरीब लोग और औरतें बिना बारिश देखे ही मर जाते होंगे? क्या ग़रीब की कोई जाति, धर्म या देश होता है? रेवती तो ब्राह्मण थी, फिर वह क्यों मर गई?
उधर वेला कुढ़ती जाती. उनकी भावुकता बढ़ती जा रही थी. उनकी उम्र भी बढ़ती जा रही थी. उनके मन के कोनों में बैठा खौफ़ भी बढ़ता जा रहा था. मेरे मन में उनके लिए न नफ़रत थी, न करुणा. मैं उन्हें एक स्थायी ग्राहक से ज़्यादा कुछ समझ ही नहीं पाता था. ग्राहक से दुकानदार का क्या कोई भावात्मक संबंध होता है? पर क्या मैं दुकानदार था? क्या वेला ग्राहक थी? मुझे लगता कि हम दोनों ही उत्पाद हैं या किसी अप्रत्यक्ष दुकानदाराना नियम के तहत हम दोनों ही कच्चे माल से उत्पाद, उपभोक्ता और उत्पादक प्रक्रिया में गोल-गोल घूम रहे हैं.
‘मैं शुचिता से शादी करना चाहता हूँ’ मेरे छब्बीसवें जन्मदिन पर वेला द्वारा लाए केक का काटते हुए मैंने कहा था. यह केक लाना उसकी मेरे साथ ज़बरदस्ती थी. यह सुनकर वह कुछ पर चुप रह गई थी. ‘बास्टर्ड.’ वेला एकबारगी ज़ोर से चीख़ी और एक झन्नाटेदार थप्पड़ मेरे कान पर मारा था. ‘इससे कुछ बनने-बिगड़ने वाला नहीं है.’ वेला के हाथों को मैंने अपने हाथों में दबाया था. वह बच्चों की तरह बिलखकर रोने लगी थी. उन आँसूओं में पहली बार मैंने विमल होती वेलम्मा को देखा था. रोते हुए यदि वह यह कहती कि ‘मैं तुम्हारे बिना मर जाऊंगी तो यह मेरे लिए मुश्किल नहीं था बल्कि आसान ही था कि मैं जान जाता, यह सब झूठ है, यह आँसू एक मुद्रा भर है. परंतु कुछ रो चुकने के बाद हिचकियों और आंसुओं के बीच जो अस्फुट शब्द तैरते थे, वे वेला के शरीर से नहीं वेलम्मा के मन से आए थे. ‘मैं तुम्हारे सुख से दुखी क्यों हो रही हूँ? यह बात मुझे खाए जा रही है.’ फिर वह देर तक रोती रही थी.
वरुण अभी आस्ट्रेलिया में ही थे. शुचिता रात भर मेरे साथ रही. जन्मदिन के लिए यह पहले से तय था. हम देर रात तक गेटवे ऑफ इंडिया पर बैठे रहे. आसमान में धुंधले तारे थे. वहाँ बहुत सारे जोड़े थे. क्या वे सब भी हमारी तरह टूटे हुए, मिसफिट और व्यर्थ थे? दो बजे हम होटल के लिए वापस लौट पड़े थे. शुचिता ने रास्ते भर चुप्पी ओढ़े रखी थी. मैं ही कुछ-कुछ बोल लेता था, बीच-बीच में. मुझे मेरा बोलना बहुत ऊपरी लग रहा था. शायद वह सुन नहीं रही थी, शायद मैं कुछ बोल भी नहीं रहा था. बिना सार्थकता के क्या कोई शब्द शब्द नहीं हो सकता है? वे सब वैसे ही निरर्थक शब्द थे जैसे गेटवे ऑफ इंडिया के पास समुद्र के किनारों पर झाग थे. निरर्थक, अलक्षित और क्षणिक. ताप तो उसी शब्द में या उसी शब्द से होता है जो अपने सान्द्र रक्त से बोला या लिखा गया हो.
‘उन्हें मेरी ज़रूरत नहीं है.’ उसने चादर पैरों पर डाला था. फिर अपना सिर पीछे सिरहाने पर टिका दिया था. ‘उनकी पिस्तौल में रखी बुलेट की तरह हूँ मैं. उन्हें बुलेट की ज़रूरत कभी नहीं पड़ती. आखिर जब वे ‘एक्पायर्ड’ हो जाती हैं तो फेंक दी जाती हैं.’ शुचिता की आँखों में पीड़ा थी. उसका छोटा-सा चेहरा लटककर कुछ लंबा हो गया था. शुचिता मुझे अच्छी लगती थी इसमें उसका छोटा सा चेहरा भी जिम्मेदार था. मुझे छोटे चेहरे वाली स्त्रियां दिलकश लगती थी…छोटे बच्चों के चेहरों की तरह. मैं ऐसी स्त्रियों के लिए कल्पनाा करता था कि मैं उनके ऐसे चेहरों को अपनी हथेलियों में भरकर चूमता रहूँ. यही मैंने शुचिता के साथ किया था. पहली बार मैंंने उसे ऐेसे ही चूमा था, तब वह बहुत देर तक रोती रही थी. उसके रोने में मैंने उम्मीदों को भाप देखी थी. दिन निकलने से पहले मैं उसे उसके घर छोड़ आया था. ‘तुम वरुण से तलाक़ ले लो.’ मैंने रास्ते में कहा था.
‘वह मुझे मौत दे सकते हैं पर तलाक़ नहीं देंगे.’ वह लगभग चीख़कर बोली फिर कुछ पल शांत रह गई. ‘वे अपने जीते-जी मुझे किसी दूसरे की होते नहीं देख पाएंगे. यह बिल्कुल उस तरह है जैसे कोई दुष्ट बच्चा अपने खिलौने को दूसरे के पास जाता देख तोड़ देता है और खुशी महसूस करता है.’
‘मैं क्या करूं? मैंने उस वक़्त भी अपने खाते में जमा पैसे का ध्यान किया था. उसके दम पर कोई भी बड़ा क़दम उठाया जा सकता था.
‘तुम कुछ मत करो. अपनी पढ़ाई पूरी करो.’ यह सहजता में ताना था. मैंने बातचीत में कई बार अपनी पढ़ाई में अवरोध की बात कही थी…जो मेरा मक़सद था, जो मेरी मंजिल थी, जो मेरी ज़िंदगी में साँस की तरह था, जिसके लिए मैंने सब कुछ सहा था, उसी के हाथ से छिटकते जाने से मुझे कोफ्त होती थी. वेला से जुड़ने और जुड़े रहने में भी यह लालच था. शुचिता के अलावा दिल की बात मैं किसी से नहीं करता था सब. शारदा तो कुरेद लेती थी. पढ़ाई की बात भी मैंने शुचिता के अलावा सिर्फ़ शारदा से की थी. शुचिता भी पहले मेरे लिए एक देह भर थी पर जाने कब वह मुझे अपनी लगने लगी थी. पटेल के लड़के की हरकत तो मैं किसी से भी कह नहीं सकता था. उसके बारे में सोचता तो एक सनसनाहट सारे शरीर में फेल जाती, जैसे सारे शरीर पर चींटियां रेंग रही हों. यह गुस्सा भी था, नफरत भी और डर भी. मैं इसे अकेले कैसे झेल पा रहा था, मैं भी नहीं जानता था?
वरुण ऑस्ट्रेलिया से लौट आए थे. शुचिता का आना बदस्तूर जारी था. वेला की बेचैनी कभी-कभी बेहद बढ़ जाती थी. वह मेरे हाथों को हाथों में भरकर कई-कई बार रोई थी, जब-जब वह रोती, मुझे वेला की प्रसव-पीड़ा से वेलम्मा के जन्म लेने की आस बंधती पर लगता था कि वेलम्मा पेट में ही उलट गई थी. उलटा बच्चा! इसमें जान जाने का ख़तरा था. मुझे वेलम्मा की चिंता होती! वह मुझे पढ़ने की ताकीद करने लगी थी. वह समय पर खाना और रात को सोने से पहले याद करके दूध भी रख जाती थी. यह पिछले ग्यारह महीनों में पहली बार हुआ था कि उन्होंने बीस दिन मुझे अपने पास नहीं बुलाया था. मुझे यह मुफ़्तखोरी लग रही थी. यह पुरसुकून मुफ्तखोरी थी. शुचिता से रिश्ता होने के बाद मेरा किसी को छूने का भी मन नहीं होता था. वेला मुझे चूमती तो मुझे घिन आती. मैं आँख बचाकर थूकता या कुल्ला कर आता. यह बिल्कुल अप्रत्याशित था. क्या शुचिता को भी ऐसा ही लगता होगा, जब वरुण उसे प्रेम करते होंगे? मैं सोचता. मुझे यह सब करना ही पड़ता था, यह मेरी व्यावसायिक मजबूरी थी. या शायद लालच भी? क्या शुचिता की भी यह मजबूरी है? पारिवारिक या लालच? मै. बिना बात ही सोचे चला जात, क्या मन से किसी और का हुआ जा सकता है? यह क्या पाप है? क्या यह अनैतिक है? क्या कभी यह हो पाएगा कि जो मन से किसी का हो, तन से भी सिर्फ़ वह उसी का होकर रह सके? इन्सान की ज़िंदगी क्या कभी अपनी अनहद ख़ूबसूरती में खिल सकेगी? इस सबके लिए ज़रूरी था, पैसा पढ़ाई और प्रतिष्ठा.
‘तुम कल से सुबह जल्दी उठकर पढ़ो और रात को टाइम से सो जाओ.’ ये वेला के शब्द थे. यह उनके वेलम्मा बनने का संधिकाल था, जैसे रात ख़त्म होने और भोर होने के बीच की कोई झीनी-सी, कुहासे से भरी परत होती है. मेरी परीक्षाओं में एक महीना भी नहीं रहा था. पच्चीस दिन गुज़र गए थे और उन्होंने मुझे ऊपर कमरे में नहीं बुलाया था. सपने में अक्सर फादर आते, ‘तुम्हें पढ़ना है, बड़ा आदमी बनना है. ज़िदगी की धार बहुत दूर तक बहती है, ये सब एक दिन भूलकर रगड़ खाकर पीछे छूट जाएगा.’ कभी-कभी पिता भी दिखाई देते. सफेद चकाचक कुर्ते-पाजामे और सिर पर बड़ी पगड़ी में मैं उन्हें पहचान न पाता. पटेल की खाट पर पटेल के साथ बैठे वे पटेल का हुक्का गुड़गुड़ाते दिखाई देते. बाबा भी कभी-कभार आते, ‘अब लौट आ. पटेल का लड़का मर गया. तू भी मर जा.’ फिर वे मुझे संटी से पीटते थे, जैसे अपनी बकरी को पीटते थे. मैं देखता कि मेरा शरीर बकरी जैसा होता जा रहा है. मैं कांप कर उठ बैठता.
वेला ने दुख सहा था, उस पर जुल्म ढाए गए थे, शुचिता अब भी तनाव झेल रही थी और मैं…मैं…यहाँ कैसे-कैसे पहुँचा था, रेवती की तरह मैंने आत्महत्या नहीं चुनी थी. हम सबके बीच यही प्रताड़ना साझा थी. यही हमारा आपसी रिश्ता था. फिर हम क्यों एक-दूसरे को समझने की बजाय एक दूसरे के साथ अत्याचारी की तरह पेश आ रहे थे? हम एक-दूसरे के सहयोगी क्यों नहीं बने? क्या वही नफ़रत हमारे भी मन में बैठे गई थी, जिसकी वजह से हमने दुख उठाए थे, क्या नफ़रत का सौन्दर्यात्मक रेचन दुख में साझी होना या दुख को साझी बना लेने में नहीं हो सकता? मैं रात-रात भर सोचता रहता, जाने कब नींद आ जाती.
परीक्षाएँ ख़त्म हो गई थी. शुचिता लगभग रोज़ फ़ोन करती. उसे वेला से चिढ़ नहीं होती थी. वेला भी अब उसके फ़ोन आने से झल्लाती नहीं थी. जिस दिन आख़री पर्चा हुआ, उस शाम वेला ने मुझे ऊपर अपने कमरे में बुलाया था. ‘मैंने ज़िदगी में एक नियम बनाया था… कि कोई नियम नहीं बनाऊँगी.’
पर…पर…मुझे तुम्हारी आदत हो गई है. इस शरीर…क्या करूं? उनकी आँखें झुकी हुई थी. भवें गिरी हुई थी. ‘किसी और…अब मुझसे यह नहीं होगा.’ उनकी आवाज़ भी टूट रही थी. मुझे लगा कि वह खुद को भरसक तैयार कर रही है और इस कोशिश में बार-बार बिखर रही है. मैं चुप रहा और निष्क्रि भी. ‘ओ लिटिल चाइल्ड…मैं क्या करूं… क्या गाँधी जी अपनी पत्नी को बा नहीं बुलाते थे. तुम तो जानते हो न, बा का मतलब क्या होता है गुजराती में.’ मन को समझाने के लिए वह कुतर्कों से खेल रही थी. यह आग से खेलना था. वह मुझे नहीं समझा रही थी, खुद को खुद के सही होने का दिलासा दे रही थी. मैं इसमें उनकी कोई मदद नहीं कर सकता था. शायद अंतत: उसका मन मान ही गया था या शायद मन को मार ही दिया हो. मुझे याद आया था कि पेट में बच्चे के उलट जाने पर जच्चा या बच्चा में से किसी एक के मर जाने की संभावना बढ़ जाती है.
शुचिता और में तय कर चुके थे कि हमें एक होना है. कोई कानून हमारी मदद नहीं कर सकता था.
वरुण दो दिन के लिए नासिक गए थे. वरुण सुबह निकले और दोपहर में शुचिता मेरे पास आ गई थी. मैं हमेशा उसके आने को वापसी के रूप में देखता था, जैसे इन्द्र के चंगुल से छूटकर वह आई हो. मेरे लिए यह पाप नहीं रहा था, इसलिए नहीं कि पाप कुछ होता है या नहीं, असल में मेरे लिए पुण्य के या तो मायने…ख़त्म हो गए थे या बदल गए थे. इसीलिए कोई पछतावा भी मेरी भाशा में शामिल नहीं है. पछतावा इन्सान की ताक़त को ग्रहण लगा देता है. उस रात वह मेरे पास होटल में ही रुक गई थी. यह एक हसीन रात थी.
जब मैं होटल के लिए घर से निकल रहा था,तब वेलम्मा मेरे पास आई थी. शायद उन्हें पता था कि मैं शुचिता के पास जा रहा हूँ. वेलम्मा उदास थी. ‘मुझे माफ कर देना. मैंने तुम्हारे साथ वही किया जो देशमुख ने मेरे साथ किया था. हमें देशमुख नहीं होना चाहिए. हमें किसी के साथ ज़बरदस्ती नहीं करनी चाहिए. तुम खुश रहोगे तो खुशी ही मिलनी चाहिए.’ मैं चला आया था.
अगले दिन सुबह सात बजे दरवाज़े पर दस्तक हुई. शुचिता और मैं सो रहे थे. मैं उठकर दरवाज़ा खोलने जाने लगा तो शुचिता ने कहा, ‘रुको मैं देखती हूँ.’ दरवाज़ा खोलने की आवाज़ मुझे सुनाई दी. कुछ क्षणों बाद मेरे कमरे में एक नकाबपोश आया पर शुचिता उसके साथ नहीं थी. ‘कौन हो तुम.’ मेरी आवाज़ में गुस्सा था, भय भी और आश्चर्य भी. उसी पल उसने अपनी पिस्तौल निकाली और उससे पहले कि कुछ और कह पाता, गोलियाँ दाग दी. तीन-चार गोलियाँ मैंने पेट में धंसती महसूस की थी. उस टूटती चेतना में मैंने आिख़री बार यही सोचा था कि यह कौन है? वरुण…या विनायक…या फिर वेला? उसने बढ़कर मेरे गुप्तांग पर एक ज़ोरदार लात मारी थी. इस हृदयविदारक दर्द से मेरी चीख़ निकल गई. गोली लगने से अधिक असहनीय दर्द मुझे गुप्तांग पर लगी लात से हुआ था.
3
‘ठीक है. तुम उसे पहचान सकते हो?’ एक आवाज़ मेरी चेतना तक पहुँची तो मैं रेंगता-रेंगता वर्तमान तक आ गया. ‘नहीं.’ मेरी चीख़ निकल गई. ‘नकाब ओढ़ने के बाद सबकी एक जैसी शक्ल हो जाती हैं, वे इन्सान होते हैं. उन्हें पहचाना जा सकता है. कुछ धब्बे थे, आँखों के सामने, सफेद-सफेद और धूल की तरह खाकी. आँखों के पार बाबा थे, पिता थे, फादर थे. ‘लौट आ बेटा, भूख में ज़हर नहीं खाते.’ बाबा की आवाज़ आती. पटेल की झूठी बीड़ी पी रहा था. विनायक को लोग जंगल में छोड़ आए थे. ‘यह गुनाह की सज़ा…पूरी कौम को दी जा सकती है…क्या यह न्याय होगा…पर हमारी जात…नीच क्यों? कब तक होगा यह हमारे साथ? हम कहाँ जाएं? क्या करें गुनाह बहुत लुभावना होता है, बदला बहुत बहरुपिया.’
” सवर्ण लड़कों की तरह बातों ही बातों में उन्होंने भी मेरी जाति पूछी और फिर पीछे हट गए थे. महार लड़कों का पहला सवाल मेरा एससी या एस टी होना पूछना था. फिर उन्होंने उपजाति पूछी थी ”
ये उपजाति वाली बात एकदम हकीकत है और झकझोरने वाली भी . वंचितों -पिछड़ों में भी थोड़े बहुत के अंतर को भी ध्यान से देखा जाता है . वैसे उपजाति का यह भेदभाव जितना दलितों में है उतना ही सवर्णों में भी . ब्राह्मणों में भी दर्जनों किस्म के ब्राह्मण होते हैं . उपजाति का भेद धीरे-धीरे मिटे तो जाती भेद भी मिट जायेगा ….. वैसे आजकल इस दिशा में सुधार हो रहा है ………. मसलन , मुझे दिल्ली में आजतक किसी ने जाती नहीं पूछी और न ही मैंने किसी से !
” ज़िदगी मुझे बहुत तेज़ी से सिखा रही थी. हम जिन्हें पाप कहते हैं, शायद पाप के वही रास्ते ज़िंदगी को हमें बेहतर और मुकम्मल तरीक़े से सिखाते हैं. क्या निष्पाप होने की मंज़िल भी पाप के रास्तों से ही हमें मिलती है? क्या सभी पुण्यात्माएं इन कथित पापों की राहों से गुज़रकर ही वहाँ तक पहुँची हैं ”
ये पंक्तियाँ कहानी में एक आम आदमी , जो महानगरीय दलदल में फंसा हुआ छटपटा रहा है , अपने अपमानित जीवन को भूलने की कोशिश में बार -बार याद करता है , अपनी बदहाल जिन्दगी में पैसे को ही सबकुछ समझने लगता है , की मनोस्थिति का सार है . यहाँ कहानी दलित -और सवर्ण से हटकर एक साधारण आदमी पर केन्द्रित हो जाती है .
Sir, I read the above story really it is touched me. I am from Delhi (Katwaria Sarai) and belongs to Jatav community. Working with University of Delhi as a Senior Technical Assistant (Computer). I want to read more your stories.
thanks
Anil Niwaria
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