भास की उपस्थिति: संगीता गुन्देचा
(Kavalam Narayan Panikker’s production of Bhasa’s Karnabharam. Photo Courtesy Sangeeta Gundecha.)
शताब्दियों तक संस्कृत के आद्य नाट्यकार महाकवि भास के नाटक अनुपलब्ध थे. उनका नाम संस्कृत और अन्य साहित्य परिसरों में चन्द्रिका की तरह फैला हुआ था पर उनके नाटकों के लिखित प्रारूप अनुपलब्ध थे. अब से ठीक सौ बरस पहले केरल में टी. गणपति शास्त्री ने त्रावनकोर-महाराज के अनुरोध पर तमाम उन पाण्डुलिपियों का अध्ययन किया जो महाराज के पुस्तकालय में थीं और जिनका सम्बन्ध कुडियाट्टम् रंग-नृत्यशैली से था. श्री गणपति शास्त्री के अध्यवसाय के फलस्वरूप भास के सभी नाटकों के लिखित प्रारूप को पहचाना जा सका. ये सभी नाटक सन् उन्नीस सौ बारह में भासनाटकचक्र नाम से प्रकाशित हुए. बीसवीं शताब्दी के वैश्विक रंगकर्म की यह सम्भवत: सबसे बड़ी घटना है और इसीलिए इसका व्यापक प्रभाव पड़ा. अनेक भारतीय और विदेशी रंगनिर्देशको ने नये सिरे से भास के नाटकों को खेलना शुरू किया और साथ ही उन नाटकों में अन्तस्थ रंगदृष्टि के आलोक में तमाम दूसरे नाटक खेले गये. भारत के रंगदृश्य पर टी. गणपति शास्त्री की इस खोज का यह प्रभाव हुआ कि शान्ता गाँधी से लेकर बंसी कौल तक तमाम रंगनिर्देशको ने उनके अन्यान्य नाटक खेले. इन सबमें तीन सबसे महत्वपूर्ण रंगनिदेशक, जिन्होनें भास को नितान्त अनूठे ढंग से करने का जोखिम उठाया और उसमें सफलता पायी, थेः कावालम नारायण पणिक्कर, हबीब तनवीर और रतन थियम. महाकवि भास के नाटयलेखन में अन्तर्भूत रंगकर्म की खोज करते हुए मैं इन तीन रंगनिर्देशको के पास पहुँची. मैंने इन तीनों के न सिर्फ भास मंचन को देखा बल्कि उनसे भास के विषय में सुदीर्घ बातचीत भी की. पाठक यह लक्ष्य करेंगे कि इन तीनों रंगनिर्देशको ने महाकवि भास के नाट्यलेखन से अपने समूचे रंगकर्म को बहुत समृद्ध किया है और साथ ही उनके सहारे संसार को देखने की नयी दृष्टियाँ भी विकसित की हैं. ये संवाद भास के रंगकर्म को उद्घाटित करने के साथ ही इन तीनों रंगनिर्देशको की विशिष्ट रंगदृष्टियों को भी हमारे सामने ले आये हैं. ये सम्वाद भास के दर्पण में हमारे समय के रंगकर्म के तीन अक्स हैं जिनमें हमारी रंगदृष्टि को अलंकृत करने की अचूक सामर्थ्य है.
संगीता गुंदेचा के ये संवाद और भास पर उनके शोधकाव्यमय निबंध एक साथ मिलकर हमारे बीच के किसी महाकाव्यात्मक अभाव को निरस्त कर देते हैं. ये निधियाँ हैं.