आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

समीक्षा: भूतनाथ

मैं शोध के लिए प्रस्तावना प्रस्तुत कर रही हूँ. इस प्रस्तुति से मैं ख़ुद ही विवश हूँ. मैं नहीं जानती मैं किस विषय को संबोधित कर रही हूँ. इस स्थिति से लज्जित हो कर मैं विश्वविधालय की मानविकी विभाग के प्राध्यापकों से ये अनुरोध करती हूँ कि इस सम्बन्ध में वो मेरा मार्गदर्शन करें. ये न साहित्य से पूरी तरह संलग्न है न ही दर्शन से. मैं इसे मनोविज्ञान नहीं कहूँगी न ही फ़िल्म संगीत पर परिचर्चा. ये मेरा दृढ़ विश्वास है मेरी प्रस्तावना शोध के लिए पूरी तरह उपयुक्त और समृद्ध है.

मेरा शोध कुछ ऐसे पृष्ठों से संबंधित है जो किसी अनाम लेखक की है. ये मुझे विश्वविद्यालय के प्रांगण में नहीं मिले, वरन एक छोटे से मूंगफली के ठेले पे. मेरी इस स्वीकृति पर, जो मेरे शोध का आधार है, मेरे कई प्रियजनों ने मेरे विचारों पर गहरा खेद प्रकट किया. सबके अनुरोध, उपहास, हास्य-व्यंग को सहती मैं ये प्रस्तुति रखते हुए मैं ख़ुद को गौरवशालिनी समझ रही हूँ. मेरी स्वीकारोक्ति दंभ की श्रेणी में नहीं आती, मैं इसका प्रमाण दे सकती हूँ.

कुछ दिनों पहले, गँगा महोत्सव के दिनों अपनी सखियों के साथ जब उस मूंगफली के ठेले पर रुकी तब कदाचित लहराते पीले हो चुके पुराने पन्नों ने मेरा ध्यान आकर्षित किया. इन पन्नों का भविष्य शायद वो ही होता जो मेरे हाथ में मूंगफली के दोने का वर्तमान था. किसी की धरोहर शायद गरीबी या फिर उद्वेग के कारण जो इस तरह लाचार मिली  थी.

पहले ही पन्ने पर सुंदर नीली स्याही से अंकित सुदृढ़ अक्षरों में लिखा हुआ था –

“चाँदनी रात बड़ी देर के बाद आयी है, ये मुलाकात बड़ी देर के बाद आयी है. आज की रात वो आयें हैं बड़ी देर के बाद, आज की रात बड़ी देर के बाद आयी है.” लाली ने अनुबोध को देखते ही अपने गुलाबी दुपट्टे को उंगलियों से छुड़ाते हुए कहा.

ये था मेरे आकर्षण का कारण. मैं जानती हूँ ये पंक्तियाँ स्वर्गीय मीना कुमारी जी के आखिरी चलचित्र पाकीजा से है. मजरूह सुल्तानपुरी जी की अद्भुत लेखनी का एक उत्कृष्ट उदहारण! आज तक के मेरे अध्ययन काल में चलचित्रों का प्रसंग अनुचित और धृष्ट माना जाता है. पर शोध के लिए मैं वो सारी वर्जनायें तोड़ देना चाहती हूँ जो मेरे अस्तित्व का निर्धारण करते आए हैं. मेरा पहला प्रश्न है- क्या हम परिचित से आकर्षित होते हैं या नवीनता से? क्या उत्कृष्टता हमारे चेतन पर हावी होती है या उन्माद? ऐसे कई प्रश्न हैं जो मुझे इन अनाथ पन्नों में मिले. मैं उस लेखक का सम्मान करते हुए ये कहना चाहती हूँ कि इस शोध में मैं लेखक के सन्दर्भ में कोई सूचना नहीं रखती, ना ही ऐसे अपेक्षा रखती हूँ. लेखक के परिचय की उपस्थिति एक नवीनता का अनादर करती है जो हमने परम्परा और अनभिज्ञता से आज तक सहेज रखा है. मेरा प्रश्न उस परम्परा की वैधता और गरिमा पर है जो किसी बिन्दु से सारे आयाम जाने और परखने की आकांक्षा रखता है, और इसे अपनी विवशता कहता है.

काश मैं सारी कहानी उधृत कर पाती, परन्तु कुछ अनुच्छेदों का विवरण दे कर मैं एक महान कृति का परिचय देना चाहती हूँ. चूँकि मैं लेखक को नहीं जानती, अतः ये रचना कभी प्रकाशित नहीं हो सकती. मेरा ये नैतिक अधिकार भी नहीं कि मैं किसी पत्रिका में इसके मूल्यांकन के लिए सम्पर्क करूँ. फिर भी मैं अपना कर्तव्य समझ कर अपने शोध के माध्यम से इस अनुपम कृति को समस्त जगत के सामने लाना चाहती हूँ. इतने पुराने पृष्ठ देख कर ये अनुमान लगाया जा सकता है कि लेखक अपनी रचना से कोई स्नेह नहीं रखता या रखने लायक नहीं रहा. कदाचित उसकी जीवनयात्रा समाप्त हो चुकी है या सम्भव है वो अभी भी वर्तमान है, मैं इस बात से भी सम्बन्ध नहीं रखना चाहती.

इस बिना शीर्षक की कहानी को मैं ‘‘समीक्षा’’ कह कर संबोधित करना चाहती हूँ. ये संबंधो की समीक्ष’ है, ऐसा ही था कुछ लाली और अनुबोध का सम्बन्ध. इन पंक्तियों को देखिये –

“पापा, कितनी देर लगा दी.” लाली अल्हड़ता से शिकायत करती है. शाम ढल चुकी थी और रात बस निकलने वाली थी. अनुबोध लाली का हमउम्र था,  उसने लाली के हाथो को गर्मजोशी से मिलाते हुए कहा- “लाली बिटिया, यूँ ही कोई मिल गया था, सरे राह चलते चलते. वहीं थम के रह गयी थी मेरी रात ढलते-ढलते.”

लाली की स्थिति काल से परे है और मैं ये भी जानना चाहती हूँ कि रात कब और कैसे निकलती है? अनुबोध की बेटी उसकी हमउम्र है, इस पर मैं प्रश्न नहीं कर सकती. क्यूंकि मैं जानती हूँ ये उसके अस्तित्व पर कुठाराघात है. मेरे पूरे प्रयासों के बाद भी मैं ख़ुद को नहीं रोक पा रही कि मैं इस सन्दर्भ में ‘समीक्षा’ की बातें कहूँ, पर उसके बिना ये सम्भव नहीं. कदापि नहीं.

“लाली, तुम शाम की लाली हो या सुबह की?” अनुबोध पूछता है.

“लाली, बस पापा की लाली है.” लाली खूब ठठ्ठ के हँसती है और अपने गुलाबी सूट को संभालती है. लाली का दुपट्टा बहुत लंबा है, दिल्ली से शुरू हो कर इंदौर पे खत्म होता है.

लाली और अनुबोध अगले बस स्टॉप तक पैदल चल रहे हैं.

“तुम पापा की लाड़ली लाली कब बनी?”

“पापा ने एक बार बेटी से कहा था – वो है करिश्मा, है नाज़ उस पर! लाखों में है एक सोने से बढ़ कर, भोली अदाएँ आँखों का तारा है वो. वो थी, वो है, रहेगी, टुकड़ा इस दिल का वो, हमेशा!”

दोनों हँसते हैं.

इन पंक्तियों में शायद कुछ भी अद्वितीय न लगे, शायद ये शब्दों का भ्रमजाल है, पर मैं क्यों इनमें खींची चली जाती हूँ? आगे जब लाली और अनुबोध बातें करते हुए “यूँ ही कोई मिल गया था” गाने की चर्चा करते हैं. किस तरह का निर्देशन? क्या ये व्यक्तित्व की परिभाषा है? जैसा कि नीचे देखिये –

“पापा आप बस मेरे जितने बड़े हो. कॉलेज अभी अभी छूटा है आपका. क्यों ऐसे सवाल करते हो? मैंने तो नहीं कहा कि मैं डाइरेक्टर बनना पसंद करुँगी.”

“फिर भी लाली, बताओ, अगर ये गाना तुम्हे फिल्माना हो तो कैसे फिल्माओगी? थोड़ा सोचो.”

“सोचने का समय दो न पापा.”

“किसी नए रीमिक्स वाले डाइरेक्टर को मिलता तो कैसे बनाता- एक समुन्दर का किनारा होता. एक सुंदर लड़की, एक छरहरा बलिष्ठ जवान, चल रहे होते, कभी एक दूसरे को ताकते या मुस्कुराते, पीछे रीमिक्स किया हुआ शोर.. कभी लड़की को नहाते हुए दिखाते, कभी लड़के के बाजुओं को… तुम ऐसा मत बनाना.”

“पापा, आप फालतू टीवी मत देखा करो.” लाली मुँह बिचका के कहती है. फिर जैसे उसे कुछ याद आया. कहती है- मुख़्तसर मतलब?”

“मतलब छोटी… खत्म होने वाली. क्यों?”

“वो लाइन है न- शब-ऐ-इंतज़ार आख़िर कभी होगी मुख़्तसर भी, कभी होगी मुख़्तसर भी, ये चिराग, ये चिराग बुझ रहे हैं, ये चिराग बुझ रहे हैं, मेरे साथ जलते जलते… यूँ ही कोई मिल गया था, यूँ ही कोई मिल गया था…”

“वाह! तुम्हे तो अच्छे से याद है.”

“पापा की बेटी हूँ, पापा से कम नहीं हो सकती न. लेकिन पापा इसका जवाब मैं कल दूँगी. मुझे थोड़ा समय दे दो.”

“ठीक है.”

“पापा ये बताओ, आप कैसे फिल्माते इसको?”

“मैं… मैं इसे किसी खूब भीड़ भरे बाज़ार में फिल्माता. मेरी नन्ही लाली बाज़ार में पैदल चल रही होगी. काफी चहल पहल है. चूड़ियों की दुकानें, बाजे, बच्चे, शोर शराबा, लोग आ जा रहे होंगे.. वहीं पे कोई आ कर हलके से लाली का हाथ अपने हाथों में थाम लेगा.. फिर लाली शरमा जायेगी.. और फिर..”

“कौन आएगा पापा?”

“तुम्हारा राजकुमार- करन.”

“प्लीज़ उसका नाम मत लो, अनुबोध.”

चलचित्रों से हम भले ही बचते रहें लेकिन ये हमारे जन मानस में कहीं अन्दर तक उपस्थित हैं. हम कैफी आज़मी, साहिर, शकील बदायूँनी की पँक्तियों से कहीं ज्यादा जुड़े हुए हैं, जितना कि मैथिली शरण गुप्त, महादेवी वर्मा, त्रिलोचन शास्त्री से. इसी रचना में आगे लाली इस बात को स्वीकार भी करती है. हम देव आनंद और गुरु दत्त के गाने भी सुनते हैं. ‘समीक्षा’ भले ही फ़िल्म संगीत से अंतरंग ढंग से जुड़ी है पर उतनी ही मानवीय सच्चाईयों पर आधारित भी है. आगे जब लाली ‘सुजाता’ के गाने के बारे में बातें करती है तो अनुबोध की प्रतिक्रिया, मेरे हिसाब से पूरे आधुनिक साहित्य में प्रमुख रचनाओं में गिने जाने योग्य है.

“हमारी तुम्हारी ज़िंदगी कितनी समान है. हम दोनों छोटे जगहों से, टी.वी. देख कर, फिल्मों के गाने सुन कर बड़े हुए हैं. तुम्हे पता है अनुबोध, मेरे पापा जब ऑफिस से घर आते थे तो माँ पियानो पर ये गाना गाती थी – “धीरे धीरे मचल ऐ दिल-ऐ-बेकरार, कोई आता है…” और जब सावन घिर कर काले बादलों से सीधे टीन की छत पर ज़ोर से उतर आने वाला होता था तो माँ गाती थी- देख रे घटा घिर के आयी”, पापा कहते थे- रस भर भर लायी… फिर दोनों गाते थे- घटा घिर के आयी. जैसे जैसे मैं बड़ी होती गयी दोनों का गाना कम होता गया. शायद माँ को पसंद नहीं था.

अनुबोध खोयी हुई लाली को देख कर खाली पड़े बस के सूनेपन को तोड़ते हुए कहता है- “जब हम छोटे थे, तो गर्मियों में अक्सर छत पर बैठ जाते थे. कैसे चाँदनी उतर आती थी, पूरे शहर को ओढ़ लेती थी. हमारा घर नारियल और नीम के पेड़ों से घिरा था. एक कागजी बादाम का पेड़ आँगन में था. उसमें से हमें चन्दा मामा छुपे छुपे नज़र आते थे. ठंडी हवा का झोंका आता था. मेरी छोटी बहन पलने में हुआ करती थे. बिल्कुल दूध जैसी गोरी, दाँत भी नहीं थे उसके. माँ सारा काम करने के बाद थकी होती थी, फिर भी शाम में नहा कर पूजा पाठ कर के ऊपर छत पर आती थी. मेरी बहन को पालने में झुलाती थी, और कैसे मधुर मधुर मद्धिम मद्धिम गाती थी- नन्हीं कली सोने चली हवा धीरे आना. नींद भरे पँख लिए, झूला झुला जाना.” माँ गाती थी, हम लोग चौंके-चौंके माँ को देखते थे, पापा मंद-मंद मुस्कुराते थे. मुझे और भाई को गोद में ले कर खूब दुलार करते थे. माँ आगे गाती थी- रेशम की डोर अगर पैरों को उलझाए, रेशम की डोर अगर पैरों को उलझाए, घूँघर का दाना कोई शोर मचा जाए, दाने मेरे जागे तो फिर निंदिया तू बहलाना. नींद भरे पंख लिए, झूला झुला जाना…”

“चुप क्यों हो गए पापा?”

“एक दिन नारियल का पेड़ कट गया. मेरी बहन बड़ी हो गयी. हम लोगो को छत पे जाना बंद हो गया. फिर हम इतने बड़े हो गए, पापा की गोद छोटी पड़ गई.”

“ओह!!!”

इतने बड़े दुःख पर केवल एक “ओह”. वैसे और क्या कहती लाली? मैं इस पर भी शोध करना चाहती हूँ. क्या दुःख प्रकट करने का अधिकार पुरुषों का है, स्त्रियों का नहीं? लाली ने तो कुछ भी नहीं कहा. वैसे ये लेखक का अधिकार है कि वो क्या दर्शाना चाहता है. ये मेरी सीमाओं से परे है. इस रचना से मैं वैसे जुड़ गयी हूँ जैसे वृद्ध अपने यौवन काल की स्मृति का आनंदपूर्वक विश्लेषण करता है. दो अनुच्छेद के उपरांत लाली और अनुबोध एक दूसरे को कुछ कहानियाँ सुनाते हैं. वो मैं प्रस्तुत करना चाहती हूँ.

“पापा, मैंने एक रूसी कहानी पढ़ी थी. तोल्स्तोय की थी या किसी और की- मुझे याद नहीं. एक धनी किसान होता है. उसके पास पुरखों की जायदाद रहती है. एक बार तहखाने में उसे काफी उम्दा वोद्का मिलती है. कम से कम १ दर्जन ड्रम थे उसके पास. उसे इतनी बढ़िया लगी की वो उस वोद्का से प्रेम करने लगा. पापा, कितनी अनोखी बात है वोद्का से प्रेम करने लगना. मुझे भी अजीब लगती थी जब मैंने ये कहानी पढी थी. करन ने मुझे वोद्का की आदत लगायी, अब देखो वोद्का, वाईन, व्हिस्की सब पी लेती हूँ और फिर भी होश में रहती हूँ. तुम क्यों नहीं पीते. तुम डाँटों मत पापा… मत पियो तुम. अच्छा सुनो न, आगे ये होता है – वो धनी किसान अपने प्रेम के मारे उस वोद्का को कभी नहीं पीता है. सोचता है किसी बड़े मौके पे बड़े लोगों को पिलाया जायेगा. कोई तो उसका कद्रदान मिले. पापा, फिर आगे कहानी में उसे बहुत मौके मिलते हैं. कई बड़े लोग आते हैं, हर बार वो उन्हें उस अद्भुत वोद्का के लायक नहीं समझता. अंत में जार ख़ुद आता है, जार समझते हो न- रूस का राजा, पूरे रूसी साम्राज्य का राजा. लेकिन धनी किसान ने उसे भी वोद्का नहीं पिलायी. उसने सोचा- इस तुच्छ, मृत्युशील राजा को क्या अधिकार कि वो इस स्वर्गीय वोद्का का आनंद ले. इस तरह  उस वोद्का को कोई नहीं पीता है. किसान के मरने के बाद, उसके बेटे उसके मृत्युभोज में सब पडोसियों में, गरीब कामगारों में वो वोद्का बाँट देते हैं जिसे किसान ने ४० साल से संभाल के रखा था और कम से कम २०० साल पुरानी थी.”

अनुबोध लाली की बातें सुनता रहता है. फिर उसने कहना शुरू किया- “एक व्यापारी था. उसने हाल ही में फल बेचना शुरू किया था. एक बार उसके पास कहीं दूर दराज़ से नारंगी आई. वो ऐसी वैसी नारंगी नहीं थी, काफी गूदेदार, काफी भरी-भरी. छील के अगर मुंह में लगाओ तो बीज झट से बाहर, और इतनी रसीली और ऐसा स्वाद कि पूछो मत. व्यापारी ने सोचा, इसको किसी अच्छे खरीददार को बेचा जाए. उसने नारंगी के दाम भी बढ़ा दिए, और अच्छा ग्राहक ढूँढता रहा, सच कहो तो ढूँढने का प्रपंच करता रहा. लेकिन कुछ दिनों बाद नारंगी ख़राब हो गई. कोई ग्राहक नहीं मिला. लेकिन व्यापारी दुखी नहीं हुआ. उसने पूरी नारंगी की पेटी उठाई और बड़े तामझाम से एक जगह दफना आया.”

“पापा. क्या फिर नारंगी का पेड़ हुआ? क्या फिर नारंगी हुए?”

“नहीं लाली. अगर पेड़ होता भी तो व्यापारी उस पेड़ को काट डालता.”

“धनी किसान और व्यापारी दोनों एक थे?”

अनुबोध ने कुछ नहीं कहा.

“क्या नाम था उस वियतनामी लड़की का?” लाली अनुबोध के कंधे पर हाथ रखती है.

“येंग थई बाओंग ट्रान.”

“पापा, तुम दुखी मत हो. बहुत दिन हो गए तुम्हे दुखी देखते हुए. तुम खुश हो जाओ. वैसे भी मैं क्या बोलूँ? तुम जिद पकड़ के बैठ गए हो.”

“और तुम लाली?”

“इस्स्स.. चुप्प्प…” लाली ने अपने होठो पे उंगली रख कर अनुबोध को चुप रहने का इशारा किया.

इसके बाद शब्द मुझे काफी समझ में नहीं आते हैं. जिन शब्दों को मैं ख़ुद नहीं समझती उनके बारे में मैं क्या लिखूं? हाँ, मैं समझना चाहती हूँ. उस पर शोध करना चाहती हूँ. जानना चाहती हूँ कि कच्ची पगडण्डी जैसी रेशमी लटें कोई क्यों चखना चाहता है और उस अट्ठनी से कोई कौन सी लिट्टी खाना चाहता है. अचार खाने से कैसे चाँद बुझ जाता है और कोई आवाज़ कानो में पहन कर कैसे लौट आती हैं? आँखों में कौन सी खुशबू है, बादलों से क्या काटना है? इस पर शोध क्यों नहीं हो सकता है श्रीमान? आज आपकी श्रेष्ठ छात्रा आपसे ये प्रश्न करना चाहती है. मेरी हालत अभी शायद अनुबोध की तरह है जब लाली उसे ये सुना रही थी.

“मैं करन के लिए सोने की चिड़िया थी. साँवली सलोनी. मैं सोने की थी तो क्यों चला गया वो? मेरा तन सोने का, मेरा हृदय सोने का- बस वो ही पीतल निकला. पापा, मैं कैसे बताऊं आपको.. वो मेरी रगों में दौड़ रहा है. मेरे बदन से कोई हर कतरा खून निकाल दे, तब वो मुझसे अलग हो पायेगा. पापा, वो इंसान नहीं था क्या? पापा तुम बताओ..” लाली की आँखें भर आई. दोनों कॉलेज के ओपन एयर थिएटर में बैठे थे. रात के ९ बज गए थे. उनके अलावा कोई भी नहीं था. स्टेज पर लाइटें जल रहीं थी. “करन जब भी मिलता था तो कहता था- “तेरे दुःख अब मेरे, मेरे सुख अब तेरे, तेरे ये दो नैना चाँद और सूरज मेरे… तेरे दुःख अब मेरे, मेरे सुख अब तेरे, तेरे ये दो नैना चाँद और सूरज मेरे… ओ मेरे जीवनसाथी, तेरे मेरे सपने अब एक रंग हैं.. हो जहाँ भी ले जाएँ राहें हम संग हैं.” वो कहता था तो मैं हँसती थी. उसके साथ मैं नाचती थी. उसे अपनी बाँहों में भर कर के कितना प्यार करती थी. वो बस गाता रहता था- “तेरे मेरे दिल का तय था एक दिन मिलना, जैसे बहार आने पर तय है फूल का खिलना.” मेरा भी हश्र उस गाईड की तरह होगा ये सोचा न था. अनुबोध, मेरी सगाई हो गयी थी. उसकी माँ को मैं मम्मी जी कह के बुलाती थी. वो शायद मुझे पसंद नहीं करती थी. करन को कोई और पसंद आ गयी. बस एक दिन पहले बताया कि वो कहीं और सगाई करने जा रहा है…. और..” लाली कुछ कहना चाहती थी, पर अनुबोध ने उसे रोक दिया.

“ट्रान ने मुझे कहा- वो किसी और को पसंद करती है. मुझसे मत मिलो.”

“लेकिन तुम उससे उस दिन तो बस दूसरी बार मिल रहे थे न?”

“तो क्या हुआ? प्यार के लिए ४ साल चाहिए ये किसने कहा?”

“मेरा ६ साल का प्यार था.” लाली कहीं खो गई, फिर चुप हो गयी.

प्रश्न है ये भी एक जटिल? हमें कब पता चलता है कि हमें प्यार हुआ? कैसे और कब हुआ, हुआ भी या नहीं? आप कहेंगे कि शोध की एक मुख्यधारा होनी चाहिए. इतने विचारों पर एक साथ शोध नहीं हो सकता. और शायद हर विचार का महाकवियों ने मेरे अस्तित्व से हजारों साल पहले वर्णन कर रखा होगा. मैं फिर से करना चाहती हूँ. उनकी तरह नहीं, लाली की तरह.

“ये गाना देखो.” लाली अपना लैपटॉप दिखाती है. एक ब्लैक एंड व्हाईट विडियो है. वहीदा रहमान जी खड़ी हैं. पास में गुरु दत्त साहेब आते हैं. गाना है “वक्त ने किया, क्या हसीं सितम!  तुम रहे न तुम, हम रहे न हम!”

अनुबोध ध्यान से देखना शुरू करता है.

“बेकरार दिल इस तरह से मिले जिस तरह कभी हम जुदा ना थे, तुम भी खो गए, हम भी खो गए, एक राह पर चल के दो कदम.”

गाना खत्म होने पर लाली पूछती है- क्या देखा?

अनुबोध गहरी साँस ले कर अपने पाँव को सामने वाली सीट के नीचे फैलाते हुए बिना उसकी तरफ़ देखते हुए कहता है- क्या कहूँ मैं? इस गाने को कितनी बार सुनता हूँ मैं. हाँ ये क्लिप पहली बार देखी है. बहुत अच्छी है.

लाली पर कोई फर्क नहीं पड़ा- क्या देखा तुमने?

अनुबोध सोच में पड़ गया. “एक शब्द है मेरे पास. सिनेमैटिक ब्रिलिएंस. मेरे ख्याल से ये सबसे बेहतरीन विडियो है. “आवारा”, “साहिब बीवी और गुलाम”, यहाँ तक कि “प्यासा” को भी पीछे छोड़ते हुए. मैंने गौर किया, गुरु दत्त और वहीदा रहमान के बीच में मुखडे के बाद कैसी सफ़ेद रोशनी आ जाती है. ये उन दोनों के बीच दूरी का प्रतीक, तनाव का संकेत है. फिर जब एक सीन में दोनों की छवियाँ विशाल उजाले में काली पड़ जाती है. उसके बाद वहीदा जी तेज़-तेज़ कदमों से चली जाती हैं. लेकिन अंत में एक जगह गुरु दत्त चूक गए. जब ये लाइन आती है-  “क्या तलाश है कुछ पता नहीं,  बुन रहे हैं दिल ख्वाब दम-ब-दम” इस समय वहीदा जी एक कांटे लगे ऊन के गोले को अपने चेहरे से लगाती हैं. ऐसा प्रतीक, उनकी कमजोरी है.”

लाली हँसने लगी. “पापा आप तो वो नारंगी वाले हो.”

“कैसे?” कुछ गुरु दत्त के अंदाज़ में अनुबोध ने पूछा.

“आप को बस किसी की तुलना और भाग्य निर्धारण करना है, आप समझे नहीं और दूसरे को दोष देते रह गए. बेचारी नारंगियाँ.”

अनुबोध ने रोष से कहा- तुम बताओ मुझे, ऐसा क्या देखा तुमने?

“मैं अपने आप को काबिल नहीं समझती, हाँ इसे कई-कई बार देखा है. मैंने शोध किया है इसपर. मैंने ये मूवी कभी बचपन में देखी थी. फिर कभी नहीं, देखना चाहती हूँ – पर शोध के लिए सारे साधनों का रहना ज़रूरी थोड़े ही है.”

अनुबोध चुपचाप सुनता रहा.

“अब तुम चुपके से मेरी बात सुनते रहो… देखो ये गाना शुरू हो रहा है. वहीदा जी बायें खड़ी हैं, नीचे देख रही हैं. गुरु दत्त साहेब की आँखों में सवाल हैं. लेकिन वहीदा नहीं देखती उन्हें, बस उसके होने का बोध है, थकी हुई हैं. गुरु दत्त साहेब उनसे दूर बिल्कुल सीधी दिशा में आगे चलते हैं. देखा, देखा तुमने- बिल्कुल सीधा और ठीक उसी समय कैमरा ऊपर जा रहा है. इन दोनों गतियों का समावेश है. वहीदा जी एक लकड़ी की कुर्सी के पास खडी हैं. (वीडियो रोक कर) अब यहाँ देखो- वहीदा जी पर सफ़ेद रोशनी बिल्कुल दायीं तरफ़ से पूरी-पूरी आ रही हैं. दूसरी रोशनी का स्त्रोत ये रहा- देखो वो एक बड़ा परदा है, जिसके पास एक बैलगाड़ी है. ये तुम्हें आगे ठीक से दिखेगी. गुरु दत्त इस फ़िल्म में देवदास के निर्देशक हैं, और वहीदा जी पारो का रोल कर रही हैं. देवदास की कहानी में देवदास बैलगाडी में ही खून की उल्टियाँ कर कर के मर जाता है. (विडियो चला कर)- अब आगे देखो. वहीदा जी झुका हुआ सर उठा कर हलके से मुस्कुराती हैं. जैसे अब तो उन्होंने सबसे छुपा कर ज़हर खा लिया है, उन्हें बचाने की सारी कोशिशें बेकार है. वैसी दिल तोड़ देने वाली मुसुकुराहट. अब देखो चेहरे पे कैसे बायीं तरफ़ से रोशनी आ रही है. तुम रहे न तुम. हम रहे न हम. गुरु दत्त साहेब कुछ ढूँढ रहे हैं, या सोच रहे हैं, नीचे देख रहे हैं… देखा .. अब आगे बढ़ते हैं..  अब अगला सीन देखो, इसमें कैमरा, वहीदा जी के ठीक पीछे से बिल्कुल सर्कल में घूमना शुरू करता है. करीब ४५ डिग्री ही घूमा होगा कि ये नीचे वाली लाईट बंद हो गयी और एक ऊपर से स्पॉट लाईट आ गई है. उन दोनों के ठीक बीच में. मैं वीडियो बार-बार रोक देती हूँ इसका बुरा मत मानो, तुम्हें बताना है इसलिए ये सब बतला रही हूँ. देखो आगे. अब पहला अंतरा शुरू होता है. कैमरा से गुरु दत्त और वहीदा जी के बीच में दूरी कितनी कम लगती है. किसी और ने ये गाना बनाया होता तो कचरा कर दिया होता, देखो गुरु दत्त के चेहरे पर, जो सादा लग रहा है, कितना मासूम- लेकिन न तो ये मर्द लोग मासूम हैं न ही मजबूर. सब विश्वासघाती हैं. आगे देखो. गुरु दत्त साहेब हाथों में कलम हिलाते कैसे लग रहे हैं. और ये वहीदा जी- अपने दोनों हाथों को मोड़ कर कैसे विश्वास के साथ खड़ी हैं. सौंदर्य और प्रेम की प्रतिमा… बेकरार दिल इस तरह मिले जिस तरह कभी हम जुदा न थे.. देखो- रोशनी कैसे आ रही है चेहरे पे- स्पॉट लाईट की रोशनी ज़मीन से टकरा कर नीचे से आ रही है. बाल अंधेरे में, गर्दन और आंखो का उभार, और ये बिंदी! सब कैसे दिख रहें हैं- पर सबसे ज्यादा है लाली की मजबूरी.. ये देखो करन. मुझे देखता है. मैं आँखें बंद कर लेती हूँ. करन की आत्मा निकल कर, मैं ख़ुद से निकल कर उस सफ़ेद रोशनी में विलीन हो जाती हूँ. तुम भी खो गए, हम भी खो गए, एक राह पर चल के दो कदम.. अब देखो, कितना अँधेरा है, करन को केवल मैं दिख रही हूँ. मैं आगे आती हूँ और अंधेरे में खो जाती हूँ. जहाँ मैं खडी थी वहाँ पर फिर से वो उजाला आ गया है. अब मैं रौशनी में आ गयी हूँ. करन के बिल्कुल करीब, बहुत करीब. कैमरा मुझे देख रहा था अब वहाँ से धीरे धीरे १८० डिग्री पे घूम रहा है. देखो, यहाँ थोड़ी थोड़ी रोशनी. अब देखो हम दोनों उस बड़े परदे की रोशनी के पीछे परछाईं भर नज़र आते हैं. मैं करन से दूर जाती हूँ. तेज़ तेज़ चल कर जल्दी से दूर जाना चाहती हूँ. लेकिन करन वहीं खड़ा रह जाता है. बैलगाड़ी पर बैठ जाता है. मैं फिर से उस कुर्सी के पास पहुँच गयी हूँ. पीछे पलट कर देखती हूँ. देखो कैसे, देखो देखो, दोनों हाथो को मिला कर, कुहनी से आगे भुजाओं को मिला कर पीछे पलट कर देखती हूँ. एक बार, बस एक बार…. लेकिन कैसे कहूँ, जायेंगे कहाँ सूझता नहीं, चल पड़े मगर रास्ता नहीं. क्या तलाश है कुछ पता नहीं, बुन रहे हैं दिल ख्वाब दम-ब-दम. मेरे सारे दुःख पर करन बस मूक बन के देख रहा है. मुझसे माफ़ी मांग रहा है. मैं अपना सर आँचल से ढक लेती हूँ. न जाने क्या बुनने लगी हूँ. नहीं – नहीं ये ख्वाब बुनने का प्रतीक नहीं है. मैं तो पहले भी यही कर रही थी. बस यही तो करती आयी हूँ. करन मेरे पास आता है. क्यों आ रहा है? मैं बोलूंगी उसे अनुबोध. क्यों आता है वो मेरे पास अब? लेकिन वो कभी आए तो मैं उससे यही कहूँगी-  तुम रहे न तुम, हम रहे न हम!

इतना लंबा उद्धरण शायद मेरे आवेदन के लिए अनुचित हो, पर मैं इसके बिना अपनी बात कहने में ख़ुद को असमर्थ समझ रही हूँ. क्या बिना आप-बीती पर मूल्यांकन किए हम किसी की आलोचना या प्रशंसा नहीं कर सकते? क्यों अथवा क्यों नहीं? उन्माद हमें क्यों प्रिय है? आप आपत्ति कर सकते हैं कि मैं एक ऐसी रचना के पीछे पड़ी हूँ जिसे किसी और ने पढ़ा नहीं, उसका स्तर अभी तक निर्धारित नहीं हुआ. मैं मीरा पर फिर से क्यों शोध नहीं करती या अनगिनत बार हो चुके प्रेमचंद और महादेवी वर्मा पर? मैं व्याकरण दोष क्यों नहीं देख पा रही हूँ? ऎसी भाषा जो न तो हिन्दी है न अंग्रेज़ी, बस समकालीन है, ये मेरे चिंतन का कारण क्यों हो?

अपनी परिचर्चा को मैं एक छोटे से अनुच्छेद से समाप्त करना चाहती हूँ और आशा करती हूँ कि हिंदू विश्वविद्यालय मुझे इसी विषय-वस्तु पर शोध करने की अनुमति देगा.

अनुबोध लाली के हॉस्टल के सामने खड़ा था. लाली बस जाने ही वाली थी. “अनुबोध – ऐसे उदास नहीं होते. ट्रान नहीं तो क्या, कोई और आयेगी. वैसे भी वो तुम्हे पसंद नहीं थी.”

“वो मेरा प्यार था बस २ दिन का.”

“२ दिन में प्यार नहीं होता.” लाली हँसते हुए अपने बाल सँवारे.

“अच्छा, तुम्हारा प्यार प्यार है. तुम्हारा रोना धोना सब ठीक है, भले ही सामने वाले कैसा भी हो? मेरी ट्रान भले ही बुद्धू थी, धोखेबाज़ नहीं थी. वो किसी और को चाहती थी, उसने कह दिया. अब मेरा प्यार पागलपन है और तुम्हारा प्यार प्यार. यही कहना चाहती हो?”

लाली अवाक रह गयी, फिर अपराध बोध से लदी हुई धीरे से होठों को बिल्कुल ही धीरे से खोलते हुए कहा – “पापा, मैंने आपको पागल तो नहीं कहा. मैंने तो गलतियाँ की है. आप मेरी गलतियों से सीखोगे भी नहीं?”

अनुबोध चुप हो गया. शायद उसे सत्य का बोध हुआ था. कहने को बहुत कुछ था उसके पास- वोद्का वाला धनी किसान, नारंगी वाला व्यापारी, गुरुदत्त के बारे में.. बस चुपचाप चला आया. लाली उसे वहीं खड़ी खड़ी ठगी सी देखती रही.

रात में सोने से पहले लाली का फ़ोन आता है- “पापा, कुछ मत बोलना. बस चुपचाप सुनते रहो…”

लाली गाती रही- “आ जा री आ निंदिया तू आ, झिलमिल सितारों से उतर आँखों में आ सपने सजा. आ जा री आ, निंदिया तू आ ” अनुबोध की आँखों से आंसू निकलते रहे और लाली गाती रही.

2 comments
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  1. Kya bakwaas kahani hai. Bhagwan ke liye aise likhna band karo.

  2. अमृता जी की टिप्पणी अफसोसजनक है. भूतनाथ जी, क्या बेजोड़ कहानी है ये. वाकई आपने अपने शिल्प से मन-मस्तिष्क को झकझोर दिया. ऐसी कहानियां आप लिख सकते हैं. कहानी को समझने की कला भी उतनी ही जरुरी है, जितनी कि कहानी कहने कि कला. कहानी को परतों के नीचे से समझना पड़ेगा. समकालीन कहानियों में इस कहानी का स्थान अवश्य शीर्ष पर रहेगा, ऐसा विश्वाश है.

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