आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

भास की समकालीन व्याख्या: रतन थियम से संगीता गुन्देचा की बातचीत

मणिपुर के रंग निर्देशक रतन थियम पारम्परिक संस्कृत नाटकों को उनकी आधुनिक व्याख्या के साथ प्रस्तुत करने के लिए जाने जाते है. उनका रंगकर्म अद्भुत रंग-संयोजन और अप्रतिम लय के कारण अनूठा है. वे अपना चित्रकार व कवि होना न सिर्फ़ अपनी चित्रकृतियों व कविताओं में व्यक्त करते है बल्कि उनका रंगकार्य भी इनका अचूक प्रमाण है. वे नाट्यविद्या और उससे सम्बद्ध कला माध्यमों के विकास में विशेष रूप से सक्रिय रहे हैं. उन्होंने अनेक भारतीय एवं विदेशी नाटकों का मंचन करने के साथ-साथ भास के दो नाटकों, कर्णभारम्‌ और उरूभंगम्‌ का मंचन किया है. रतन थियम से यह संवाद भास के रूपकों की आधुनिक व्याख्याओं को जानने-समझने के लिए किया गया है.

संगीता गुन्देचा

आप नाट्यशास्त्र को हमारे अपने समय में किस तरह व्यवहार में लाते हैं? मैं यह प्रश्न इसलिए पूछ रही हूँ कि बहुत से रंगकर्मी उसे आउटडेटेड (बासी) मानते हैं. वे उसके बारे में चाहे जो भी कहते रहें, लेकिन उनके रंगकर्म में नाट्यशास्त्र का सिरे से अभाव होता है…

रतन थियम

सम्भवतः आप पूछ रहे हैं कि नाट्यशास्त्र की आधुनिक प्रासंगिकता क्या है? कोई भी चीज़ बीज के बगैर, अपनी जड़ों के बगैर उग नहीं पाती. सब लोग जानते हैं कि भारत की प्रदर्शनकारी कलाएँ कहीं न कहीं नाट्यशास्त्र से जुड़ी हुई हैं. यदि हम प्रकृति के बारे में कहें कि वह पुरानी हो गयी है, उसको व्यवहार में नहीं लाना चाहिए, तो मेरे ख़याल से यह ठीक बात नहीं होगी. चाहे भरतमुनि हों, अरस्तु हों या ज़ियामी हों, ये जितने भी कला के गुरू रहे हैं, इन्होंने कला को बहुत करीब से जाना है. मनुष्य की जीवनगाथा में जो भी है, जैसे चरित्र हैं या अन्य चीज़ें हैं, उस सबके बारे में उन्होंने सोचा है कि कहाँ तक वह उसे अभिव्यक्त करेगा या कर सकता है. सौन्दर्य के मापदण्ड क्या हैं? इस सबको उन्होंने जाना, परखा और लिखा है. अगर आप आज ऐसा कुछ लिख सकते हैं, आप भी लिख लीजिए. जो इन लोगो ने लिखा है, उसमें यह कहीं नहीं है कि यही करना चाहिए, यही सबसे शुद्ध है. इन्होंने केवल इतना कहा है कि आपको अपने प्रदर्शन की तकनीकी को परिष्कृत करने के लिए क्या करना चाहिए, अंगों में परिष्कार लाने के लिए क्या करना चाहिए, मानवीय संवेदना को आप किस तरह अभिव्यक्त करेंगे, उसका ढँग क्या हो सकता है? रस क्या होता है, यह सब कहा . इन सारी चीज़ों को छोड़कर कोई प्रयोगधर्मी कला नहीं हो सकती. इसके बाद स्तानिस्लावस्की आये, ऑर्तो आये, ब्रेख़्त आये और ग्रोटोवस्की आये हैं. ग्रोटोवस्की ने नाट्यशास्त्र पढ़ा है, उसे सराहा है, उससे ग्रहण भी किया हैं. नाट्यशास्त्र इसलिए प्रासंगिक है कि आप नाट्यशास्त्र को पढ़ें तो नाट्यशास्त्र आपसे कहेगा कि आप अपने लिए कुछ कीजिए. यह जो मैं कह रहा हूँ, एक बैसाखी है. वह बैसाखी तुम मुझे पढ़ने के बाद छोड़ दो और खुद चलना शुरू करो. नाट्यशास्त्र एक विकलांग कलाकार को चलना सिखाता है. इस चलने के साथ ही सृजनात्मकता का प्रश्न जुड़ा हुआ है. नाट्यशास्त्र सृजनात्मकता नहीं सिखाता. भरतमुनि को बहुत अच्छी तरह से पता है कि वे जो लिख रहे हैं, वह सृजनात्मकता तक जाने के लिए पगडण्डी भर हो सकती है, जैसे बड़ी सड़क पर पहुँचने के लिए इधर-उधर बहुत सारी पगडण्डियाँ होती हैं. जैसे समुन्दर में गिरने के लिए बहुत सारी नदियाँ हों. भरतमुनि इन बहुत सारी नदियों के बारे में बोलते हैं. अन्त में सृजनात्मकता का समुन्दर क्या होगा, वह आप जानें. इसलिए नाट्यशास्त्र को ठुकराने का सवाल ही पैदा नहीं होता. मैं यह कहूँगा कि नाट्यशास्त्र को बगैर जाने, बगैर पढ़े, उसके भीतर की चीज़ों को बगैर समझे ठुकराना बहुत आसान है, लेकिन जब वह समझ में आ जाता है, उसे ठुकराना उतना आसान नहीं होता. नाट्यशास्त्र आपको ‘पोल वाल्ट’ का वह ‘पोल’ प्रदान करता है जिससे आप छलांग मारकर आगे निकल जाएँ, सृजनात्मकता कहाँ हैं, वह आप जानें. आखिर यह आधुनिक प्रासंगिकता है क्या? नाट्यशास्त्र भी तब लिखा गया था, जब आदमी की दो आँखें थीं, दो हाथ थे, दो पाँव थे, आज भी आदमी वही है, दो आँखें हैं, दो पाँव हैं, वह बदला नहीं है. आधुनिक मनुष्य के कोई चार हाथ तो नहीं हो गये या तीन पाँव. इस बारे में सोचना चाहिए. आखिर आधुनिक प्रासंगिकता पैदा कब होती है? आदमी जब अपने आस-पास की दुनिया को बहुत गहरायी से महसूस करने लगता है, तब आधुनिक प्रासंगिकता पैदा होती है. अब यदि हम भास के बारे में कहें कि वे आधुनिक मनुष्य के लिए प्रासंगिक हैं तो इसलिए कि उन्हें आज खेला जाता है. अगर भास प्रासंगिक न होते तो उन्हें कोई नहीं खेलता. यही बात सोफोक्लीज़ जैसे यूनानी नाट्यकारों के लिए भी कही जा सकती है. मनुष्य इतिहास की यात्रा पर निकला हुआ है. उस यात्रा में उसके साथ प्रकृति है, परिवेश है, दर्षन है और बहुत सारी चीज़ें हैं. एक कलाकार की यात्रा में इसी तरह उसके साथ नाट्यशास्त्र होता है और उसकी आधुनिक प्रासंगिकता यही है कि यह यात्रा कभी समाप्त होने वाली नहीं है. सौन्दर्यबोध तक पहुँचते-पहुँचते कलाकार ख़त्म हो जाएगा लेकिन तब भी नाट्यशास्त्र सौन्दर्यबोध के बारे में बोलता रहेगा, रस के बारे में बोलता रहेगा. कलाकार अपने इस छोटे-से जीवन में नाट्यशास्त्र को कैसे ठुकरा पाएगा? एक-एक रस को समझने में बहुत वक्त लग जाता है. नाट्यशास्त्र की एक-एक चीज़ को समझने के लिए जैसे आध्यात्मिक उपासना की ज़रूरत पड़ती है. जब तक आध्यात्मिक उपासना और सुदीर्घ एकाग्रता नहीं है, उसकी कोई भी चीज़ समझ में नहीं आएगी क्योंकि नाट्यशास्त्र प्रदर्शन का एक दर्शन है. अगर नाट्यशास्त्र की आधुनिक प्रासंगिकता नहीं है तो आज संस्कृत का कोई भी नाटक नहीं खेला जा सकेगा. आप उरूभंगम्‌ या कर्णभारम्‌ को ले लीजिए, शाकुन्तल को ले लीजिए, या मृच्छकटिकम्‌ को, उसमें आपको वही नज़र आएगा जो इस समाज में हो रहा है. नाट्यशास्त्र इसलिए लिखा गया था कि आपको कलाकार बनना है और इसलिए भी कि कला दर्शकों तक पहुँचे और दर्शक अपने सोच-विचार में सच्चाई और सूक्ष्मता के साथ जीवन को परख सकें. आप यह कैसे कह सकते हैं कि पाणिनी ने तो सदियों पहले व्याकरण लिखा था, अब आज उसकी क्या प्रासंगिकता है, उसे क्यूँ समझा जाए?

संगीता गुन्देचा

मुझे लगता है कि लोक परम्पराओं में शास्त्रीय परम्पराएँ सोयी रहती हैं और आप जैसे कलाकार लोक परम्पराओं को लेकर जब नाटक करते हैं तो उस सोयी परम्परा को दोबारा जागृत करते हैं. आपकी दृष्टि में नाट्यशास्त्र और मणिपुर की लोक परम्परा का क्या अन्तःसम्बन्ध है?

रतन थियम

सिर्फ मणिपुर की बात नहीं है. मणिपुर के साथ तो वैसे भी चीन, बर्मा और थाईलैण्ड आदि की रंग परम्पराएँ जुड़ी हुई हैं लेकिन अगर आप समूचे उपमहाद्वीप को, मणिपुर से लेकर राजस्थान तक और कश्मीर से लेकर कन्या कुमारी तक देखें तो पायेंगे कि भारतीय शास्त्रीय रंगकर्म लोक रंगकर्म से पहले आया है. क्योंकि नाट्यशास्त्र से पहले का आप कुछ भी नहीं बता सकते, हालाँकि दूसरी जगहों पर शास्त्रीय प्रदर्षनकारी कलाएँ बाद में आयी हैं, जैसे जापान का शास्त्रीय   नूह थियेटर है, वह लोकपरम्परा सारूगाकू से बना है. हमारे यहाँ भारतीय शास्त्रीय रंगमंच एक आईना था. एक बहुत बड़ा आईना, जो इतिहास, सम्प्रेषण, सामाजिक गठन, दरबार और राज्याश्रय के साथ-साथ चलते हुए टूट गया. लेकिन टूटने के बाद वह छोटे-छोटे हिस्सों में यहाँ-वहाँ बिखर गया. इन बिखरे हुए हिस्सों में हमारे शास्त्रीय रंगमंच के अंश दिखायी पड़ते हैं. यही लोक रंगमंच है. इसीलिए लोक रंगमंच में नाट्यशास्त्र दिखाई पड़ता है और अलग ढंग से दिखाई पड़ता है. वहाँ नान्दी पाठ, पूर्वरंग, नट-नटी से लेकर स्थापनादि सब कुछ है, जैसा कि नाट्यशास्त्र में लिखा है, सिर्फ वहाँ यह सब अपने अति परिष्कृत रूप में नहीं है, जिसके लिए गहन प्रषिक्षण की जरूरत पड़ती है. क्योंकि यह आम इंसानों तक पहुँचने के लिए है इसलिए इसे लोक रंगमंच कहते हैं. लोक रंगमंच आम लोगों का शास्त्रीय रंगमंच है. यह उसी तरह है जैसे आज शहरों में लोक संगीत भले न हो, लेकिन फ़िल्म का संगीत आम शहरी लोगों का लोक संगीत है. दूसरे शब्दों में, भारतीय शास्त्रीय रंगमंच के विशाल आईने के टुकड़े जब यहाँ-वहाँ बिखरे तब हमें वे असम में अंकीया नाट के नाम से मिले, उत्तरप्रदेश में रामलीला और नौटंकी के नाम से, कर्नाटक में यक्षज्ञान, मालवा में माच और इसी तरह भारत में कहीं भी चले जाईये आपको आईने के ये टुकड़े अलग-अलग रूपों में मिल जाएँगे.

संगीता गुन्देचा

नाट्यशास्त्र का एक श्लोक है –

नानाभावोपसम्पन्नं नानावस्थान्तरात्मकम्‌।

लोकवृत्तानुकरणं नाट्यमेतन्मया कृतम॥

‘लोकवृत्तानुकरणं’ का यह अर्थ किया जाता है कि लोक को लेकर नाट्यशास्त्र की रचना की गयी है. लेकिन आप इससे उलट बात कर रहे हैं ?

रतन थियम

देखिए, यह सब तो नाट्यशास्त्र के बाद आता है. नाट्यशास्त्र ने क्यूँ शास्त्रीय रंगमंच बनाया? उसने पारम्परिक लोक रंगमंच तो नहीं बनाया न! क्यूँ नहीं बनाया? क्योंकि नाट्यशास्त्र अतिशय अभिजात्यपूर्ण है, उसके लिए गहन प्रषिक्षण जरूरी है. वह एक सीमित दर्शक वर्ग के लिए ही है. अगर भरतमुनि ने अन्य परम्पराओं को देखकर यह रंगमंच बनाया हो तो वे परम्पराएँ हमें ज्ञात होनी चाहिए, लेकिन वे ज्ञात नहीं हैं. हमारे पास भरतमुनि वर्णित केवल भारतीय शास्त्रीय प्रदर्शनकारी कलाएँ ही हैं. इसके पहले क्या था? नाट्यशास्त्र कहाँ से शुरू होता है? नाट्यशास्त्र वहाँ से शुरू होता है, जब इंसान और असुर का जमाना रहा होगा. इसका अर्थ यह है कि यह इतिहास से पहले का है क्योंकि इतिहास में तो केवल आदमी हैं, उसमें असुर या दैत्य नहीं होते, इसलिए नाटशास्त्र इतिहास नहीं है. वह प्रदर्शनकारी कलाओं का इतिहास नहीं है. हमको नाट्यशास्त्र के माध्यम से कलाओं का अमृत प्रदान किया गया है. इस अमृत-पान के बाद आदमी कला के माध्यम से क्या बन सकता है, यही नाट्यशास्त्र का आशय है. इस सन्दर्भ में यदि लोक परम्पराओं को देखें तो वे पर्याप्त परिष्कृत नहीं है. भरतमुनि ने यह सोचा होगा कि कलारूपों को समझना हरेक के वश की बात नहीं है. आज भी यही हो रहा है, जैसा आपने बताया कि नाट्यशास्त्र लोगों को ‘आउट डेटेड’ लगता है, यह कैसे हो सकता है? कला को समझना-परखना बड़ी बात है. उसे सिर्फ़ विद्वान ही समझेंगे, इसीलिए विद्वान बहुत ज़्यादा जरूरी थे. वसन्तसेना होने के लिए अभिनेत्री का प्रशिक्षण बहुत जरूरी था. आप सोचिए कि वसन्तसेना के संस्कृत संवादों को बोलने के लिए, गाने के लिए, उसकी सखी बनने के लिए कितने प्रषिक्षण की जरूरत होती है. लोक रंगमंच में यह सब जरूरी नहीं है. लोक रंगमंच में यह होता है कि जिस भी अभिनेता या अभिनेत्री के पास बहुत प्रतिभा होती है, वह सब पर छा जाता है और वह उसी चरित्र के नाम से जाना जाने लगता है. कई लोक कलाकार ऐसे हैं जिनका नाम लोगों को पता नहीं है. वे सिर्फ़ अपने चरित्र के नाम से जाने जाते हैं. नाट्यशास्त्र से पहले का लोक रंगमंच हमारे सामने नहीं आया लेकिन जब वह आईना टूट गया तब लोक रंगमंच हमारे सामने आया. यह हो सकता है कि जो लोग प्रेक्षागृह में जाते थे या इधर-उधर के काम करते थे या छोटी-मोटी भूमिकाएँ निभाते थे, उन लोगों ने शास्त्रीय रंगमंच की अपने ढंग से शाखाएँ बना ली हों. नाट्यशास्त्र एक छोटा-सा पेड़ था. उसमें एक बहुत बड़ा लाल आम का फल लगा है. लोक परम्पराओं ने उसी पेड़ से ढेरों आम के फल निकालकर रख दिए. फिर बहुत सारे प्रदेश होने के नाते, चलने के ढंग होने के नाते, बहुत सारी भाषाएँ और वेषभूषाएँ होने के नाते अलग-अलग लोकनाटय अस्मिताएँ बन गयीं. जैसे बहुत सारे प्रदेश मिलकर भारत बनाते हैं, उसी तरह बहुत सारी लोक परम्पराओं की अस्मिताएँ भरत के नाट्यशास्त्र में जुड़ गयीं.

संगीता गुन्देचा

मैं बात नाट्यशास्त्र से संस्कृत महाकवि भास पर ले जा रही हूँ. आपको भास के कौन-कौन से रूपक पसन्द हैं ?

रतन थियम

महाकवि भास के सभी नाटक बहुत अच्छे हैं. आप उनका कोई भी नाटक ले लीजिए, आपको उसमें वही भास मिल जाएँगे. मुझे लगा कि उरूभंगम्‌ और कर्णभारम्‌ मेरे सोच-विचार के काफ़ी नज़दीक हैं, इसलिए मैंने उनका मंचन किया .

संगीता गुन्देचा

अभी हम प्रासंगिकता की बात कर रहे थे, आपको कर्णभारम्‌ की क्या समकालीन प्रासंगिकता जान पड़ी ?

रतन थियम

कर्णभारम्‌ एक ऐसा नाटक है जहाँ कर्ण की अस्मिता का संकट है. कर्ण की अस्मिता के संकट का नाम ही कर्णभारम्‌ है. अस्मिता का यह संकट सारे आधुनिक विश्व पर छाया हुआ है और इसी कारण से कई फण्डामेण्टलिस्ट (रूढ़िवादी) हो गये, कई फेनेटिक (अतिवादी) हो गये, क्रान्तियाँ हुई, जंग छिड़ गयी, तालिबान आ गया, ये सारे अस्मिता के संकट हैं. अफ़गानिस्तान में क्या हो रहा है, यही कि हम पश्तून है, हम फलाँ है. अस्मिता के इस संकट में एक चीज़ देखना बहुत जरूरी होती है कि सम्बन्ध-सूत्र क्या है? आप कितने ही सृजनात्मक क्यूँ न हों, कितने ही प्रतिभावान क्यूँ न हों, जब तक आपको मान्यता नहीं मिलती, आपकी अस्मिता का कोई अर्थ नहीं है. कई बार व्यक्ति को खुद ही जाकर बोलना पड़ता है कि मैं ये हूँ, चाहे वह कुछ भी हो. कर्ण के बारे में सबको पता है कि वह इतना बड़ा योद्धा है, दानवीर है, लेकिन कोई उसे मान्यता नहीं देता इसलिए कर्ण को यह कहना पड़ता है, ये जो भास ने लिखा है न, कर्णभारम्‌ में:

पूर्वं कुन्त्यां समुत्पन्नः राधेय इति विश्रुतः।

युधिष्ठिरादयस्ते मे यवीयांसस्तु पाण्डवः ॥

मैंने पहले कुन्ती से जन्म लिया और तब राधा के पुत्र के नाम से संसार में प्रसिद्ध हुआ, युधिष्ठिर आदि पाँचों पाण्डव मेरे भाई हैं. कर्ण को यह बोलना पड़ता है. उन्हें बताना पड़ता है कि कहाँ-कहाँ से होकर वे आये हैं. एक तो उसने बड़े कुल में जन्म लिया, उसके पास ताक़त है, सब कुछ है लेकिन जब तक वह दुर्योधन के पास नहीं पहुँचता उसे मान्यता नहीं मिलती. यही इस नाटक की आधुनिक प्रासंगिकता है. आज जब तक अमेरिका मान्यता न दे, कोई भी देश इस दुनिया में अच्छी तरह से टिक नहीं सकता. महाभारत भी दो महाशक्तियों का खेल है, जैसे अमेरिका और रूस हैं, उसी तरह कौरव और पाण्डव हैं. भास का आधुनिक ससांर को यह एक बहुत बड़ा दान है कि उन्होंने कर्णभारम्‌ जैसा नाटक लिखकर यह बताया कि आदमी को जब तक मान्यता नहीं मिलती तब तक उसकी अस्मिता का संकट नहीं सुलझता. इससे बड़ी आधुनिक प्रासंगिकता कर्णभारम्‌ की और क्या हो सकती है.

संगीता गुन्देचा

आप उरूभंगम्‌ करने की ओर क्यों प्रेरित हुए?

रतन थियम

नाट्यशास्त्र के दो पहलू हैं. एक यह कि आप सीधा चलिए, आपको रास्ता मिल जाएगा. दूसरा नाट्यशास्त्र यह कहता है कि आप अपना रास्ता ढूँढ लीजिए. भास एक ऐसे नाटकार हैं, जो अपना रास्ता खुद ढूँढने की सोचते हैं. नाट्यशास्त्र की पूरी परम्परा को वे इस तरह घोलकर पी गये हैं कि वे जो भी लिखते हैं, वह अपने अनेक अंशों में नाट्यशास्त्र से अलग होता है. वे नाट्यशास्त्र और उसकी परम्परा को अपने नाटलेखन में शामिल करते हैं और उसका उल्लंघन भी करते हैं. नाट्यशास्त्र में नायक की जो परिभाषा है, भास उरूभंगम्‌ में उस पर आघात करते हैं. दुर्योधन के बारे में सबको पता है कि वह कैसा है लेकिन भास उसके दूसरे आयामों को उद्घाटित करते हैं, उसकी एक नयी व्याख्या प्रस्तावित करते हैं इसीलिए भास का दुर्योधन कहता है कि मैंने जो कुछ भी किया है, एक राजा की तरह किया है, दुर्योधन की तरह नहीं. मैं राजा हूँ और राजा का जो भी धर्म है, मैं उसका पालन कर रहा हूँ. तो वहाँ एक तर्क बनता है कि दुर्योधन कब से सुयोधन बन गया. भास के मन में यह द्वन्द है कि वह दुर्योधन है या सुयोधन. वे अपने इस द्वन्द्व को हमारे सामने लाते हैं जैसे कोई आधुनिक नाटकर्मी किसी चरित्र के विभिन्न आयामों को हमारे सामने प्रकट करता है, उसी तरह भास भी करते हैं. चरित्र के महज एक आयाम को सामने रखने से काम नहीं बनता, उसके दो-तीन आयामों को सामने रखना पड़ता है. भास ने उरूभंगम्‌ में यही किया है. दुर्योधन एक कहीं बेहतर राजा है, उसने इतने यज्ञ किये हैं. वह अपने परिजनों से कहता है कि रोओ मत, मैंने सब कुछ कर दिया है. अन्त में दुर्योधन को लेने विमान आता है, ये सब प्रतीक चिन्ह है. जिसकी आत्मा विमान में जा रही हो, उसे पुण्यात्मा ही कहा जाएगा. भास ने यह कहने की कोशिश की है कि सुयोधन को ऐसी आत्मा प्राप्त हुई है जो विमान में जा रही है. यह है उरूभंगम्‌ की कथ्य-रचना और उसमें चरित्र-चित्रण का स्वरूप जिसने मुझे इस नाटक को खेलने के लिए प्रेरित किया.

संगीता गुन्देचा

भास के नाटकों की संरचना ने भी आपको उन्हें मंचित करने के लिए किसी हद तक प्रेरित किया होगा …

रतन थियम

जहाँ तक नाटकों की संरचना का प्रश्न है, भास नाट्यशास्त्र का उल्लंघन कर रंगनिर्देशक को यह चुनौती देते हैं कि आप अपनी तरफ से इस नाटक में कुछ जोड़िए. कालिदास होते तो अपनी तरफ से नान्दी लिखकर हाथ में पकड़ा देते कि आपको ये करना है, लेकिन भास ऐसा नहीं करते. अपने नाटकों की शुरूआत में ही ‘नान्द्यन्ते ततः प्रविशति सूत्रधारः’ लिखकर भास रंग निर्देशकों और अभिनेताओं को यह चुनौती देते हुए जान पड़ते हैं कि मैंने यह नाटक लिख दिया, इसका मंगलाचरण लिख दिया, अब आप अपनी ओर से नान्दी करके इस नाटक से अपना सम्बन्ध बनाइए. नाट्यरचना का उनका यह अनूठा कौशल है. वे कितने बड़े नाटकार है, इसे वे शुरू में ही सिद्ध कर देते हैं. प्राचीनकाल से आज तक ऐसे कम ही नाटकार हुए हैं, जो दो-चार पंक्तियों में पूरे नाटक को पहले ही कह दें, जिसको समझ में आया, शुरू में ही आ गया, नहीं तो आप पूरा नाटक देख लीजिए, आपको फिर भी समझ नहीं आएगा. वे उसे दो-चार पंक्तियों में ही कह देते हैं जैसे कर्णभारम्‌ में ‘पूर्व कुन्त्यां समुत्पन्नः’ कहकर वे कर्ण की पूरी अस्मिता को दर्शा देते है. उरूभंगम्‌ का मंगलाचरण देखिएः

भीष्मद्रोणतटां जयद्रथजलां गान्धारराजहृदां

कर्णद्रौणिकृपोर्मिनक्रमकरां दुर्योधनस्रोतसम्‌।

तीर्णः शत्रुनदी शरासिसिकतां येन प्लवेनार्जुनः

शत्रूणां तरणेषु वः स भगवानस्तु केशवः॥

(भीष्म और द्रोण जिसके दोनों तट हैं, जयद्रथ जल है, गान्धारराज (शकुनी) गढ़ा है, कर्ण, अश्वत्थामा और कृपाचार्य तरंग, घड़ियाल और मगरमच्छ हैं दुर्योधन स्रोत है ऐसी शत्रु-नदी को पार करने में जो अर्जुन के लिये नौका बने, वही केशव शत्रुओं को पार करने में आप लोगों के लिये नौका बने.)

इस मंगलाचरण में भास ने बता दिया है कि भीष्म क्या हैं, शकुनि क्या है, दुर्योधन क्या है. वे इतने सक्षम लेखक हैं कि उन्होंने पूरी महाभारत को इन तीन-चार पंक्तियों में अन्तरित कर दिया है. आधुनिक समय में ऐसा नाटकार मिलना बहुत मुश्किल है. मैं आपको यह भी बता देता हूँ कि भास बहुत खतरनाक नाटकार हैं. वे रंगनिर्देशकों को ऐसी चुनौती देते हैं जिसका जवाब नहीं. भास के नाटकों में पात्र प्रवेश करता है और यह पता ही नहीं चलता कि वह कहाँ चला गया है. वे पहले ही सब बता देते हैं और मानो पूछ रहे हों, समझ में आया या नहीं. अगर नहीं आया तो नाटक करते चलो, तुम्हें कभी समझ में नहीं आएगा. इसलिए उनको समझने के बाद यह लगता है कि आधुनिक भारतीय नाट्यलेखन पर भास का बहुत असर है. उनके नाटकों में नाटकों की दृश्यावलियाँ है, कविता की नहीं. कविता की दृश्यावलियाँ अलग होती हैं और नाटक की अलग, इस बात को भास खूब अच्छी तरह जानते हैं. उरूभंगम्‌ में कुरूक्षेत्र का वर्णन देखने लायक है. जैसे जब वे कहते हैं कि यृद्धभूमि राजाओं के निर्भीक चेहरों से पृथ्वी पर खिली कमलिनी जैसी लग रही है, या मृत राजाओं की ढीली और उलटी हुई आँखे मधुमक्खियों की टोली की तरह लग रही है या उनके लाल-लाल होंठ कमल के पत्तों की तरह दिखायी दे रहे हैं और पूरी युद्धभूमि बाणरूपी कमलनाल के सहारे ऊपर उठी हुई-सी लग रही है, इस तरह के वर्णनों में भास ने जो नाटकीय दृश्यावलियाँ रची हैं, वे कमाल की हैं. इन्ही के माध्यम से नाटकीय मोड़ आते हैं, विडम्बनाएँ उपस्थित होती हैं.

संगीता गुन्देचा

क्या आपको लगता है कि भास किसी रंगमण्डली के लिए अपने नाटक लिखते रहे होंगे.

रतन थियम

शेक्सपीयर के बारे में भी कहा जाता है कि वे एक रंगमण्डली के लिए लिखते थे. मैं जब इस बारे में विचार करता हूँ तो मुझे लगता है कि प्राचीन शास्त्रीय रंगमंच के जमाने में अभिनेता और अभिनेत्रियाँ कितने अधिक निपुण थे. उनके लिए रंगमण्डल की स्थापना होती थी. वे अपने नाटक यहाँ-वहाँ घूमकर नहीं करते थे, उनके पास अपना प्रेक्षागृह होता था. तो यह बिल्कुल सम्भव है कि भास रंगमण्डल के लिए लिखते होंगे. लेकिन अगर वे न भी लिखते हों, तो भी उनके नाटक रंगमंच पर खेले जाने योग्य हैं. भासनाटकचक्र अपने आप में नाटकों का मण्डल है. परम्परा के हिसाब से मैं सिर्फ इतना कह सकता हूँ कि उस जमाने में रंगमण्डल चलते ही होंगे और उनमें भास के नाटकों का मंचन भी होता होगा. यूनान में भी देखा गया है कि साफोक्लीज़, एरिस्टोफ़ेनिज़ जो नाटक लिखते थे, वे वहीं एथेन्स में खेले जाते थे. इन नाटकारों के पास अभिनेता थे. ज़्यादा जरूरी बात यह है कि उस युग की रंगमण्डलियाँ पेशेवर और परिपक्व होने के कारण भास के नाटकों को करने में सक्षम हो सकीं. अगर वे भास के नाटकों का अभिनय कर सकते थे तो वे कितने अच्छे अभिनेता और अभिनेत्री रहे होंगे. क्योंकि आज भी भास को करना मुश्किल है.

संगीता गुन्देचा

एक समकालीन रंगकर्मी या रंगनिर्देशक भास से क्या सीख सकता है ?

रतन थियम

भास के नाटलेखन में अन्तर्निहित जो चुनौतीपूर्ण भंगिमा है, उससे बहुत कुछ सीखा जा सकता है. वे रंगनिर्देशक से सीधे-सीधे पूछते हैं कि आप कौन हैं? क्या आपने मेरा नाटक पढ़ा है. आपको वह कैसा लगा है ? ये सवाल भास अपने रंगनिर्देशकों से पूछते चले जाते हैं. उसके बाद वे कहेंगे कि हमने मंगलाचरण लिख दिया है, तुम उसे नान्दी से जोड़ो. उसके बाद पात्र का रंगमंच पर प्रवेश कराओ, हम देखें तुम कैसे प्रवेश कराते हो और फिर पात्र को कहाँ गायब करते हो. वे इस तरह की चुनौतियाँ देते हैं. अगर एक बच्चे को तैरना सीखाना है और उसे पकड़ते हुए सिखाएँगे तो लगभग एक साल लग जाएगा लेकिन उसे पानी में फेंक देंगे तो वह तुरन्त सीख जाएगा. लेकिन आपको उसे पानी में फेंकने के बाद उसके पास रहना भी होगा ताकि वह ठीक से सीख सके, भास एक निर्देशक के साथ इसी तरह का व्यवहार करते हैं.

3 comments
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  1. hiiiiiiiiiiiiiii

  2. excellent interview! good questions and equally appropriate answers. Thanks !

  3. आपके द्वारा भास के रुपको की जो समीक्षा की गयी है बहुत अच्छी लगी ,और मैने इस पृष्ठ को अपने संगणक मे सुरक्षित कर लिया है |

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