आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

‘आठ और आधा’ के बहाने फ़ेल्‍लीनी पर कुछ फुटकर नोट्स: प्रमोद सिंह

कभी बात निकलती है तो मन में सवाल उठता ही है कि आख़ि‍र ऐसा क्‍या है फ़ेदेरिको फ़ेल्‍लीनी की फ़ि‍ल्‍मों में? ख़ास तौर पर उनकी अपनी इज़ाद विशिष्‍ट शैली के रचनात्‍मक चरम ओत्‍तो ए मेत्‍ज़ो में? बुनावट के वे क्‍या तत्‍व हैं आखिर कि उसे देखते हुए मन सिनेमा व उसकी सामाजिकता के ‘डेट’ व बेमतलब होते जाने के समय, इतने वर्षों बाद अब भी, सिनेमाई सुख के जादुई मेले में भावनाओं व विचारों के सजीले घोड़ों पर गोते खाने लगता है? जीवन के जाने किस दिलतोड़ रसीले मेले में भटकते चले आये हों की मोहब्‍बत- और करुणा- में सराबोर होने लगता है? ऐसा है क्‍या, उस पर कोई स्‍ट्रक्‍चर्ड बात की जा सकती है? कहानी तो नहीं ही है. रही होगी कोई कहानी-सी कहानी, उनके करियर के शुरुआती दिनों की उन अपेक्षतया मासूम फ़ि‍ल्‍मों- वैरायटी लाइट्स (’50), द वाइट शेख (’52), ई वितेल्‍लोनी (’53), लव इन द सिटी (’53), ला स्‍त्रादा (’54) में, मगर बाद की एपिसोडिक डिज़ाइनों वाली ला दोल्‍चे वीता(’60) की क्‍या कहानी थी? यहाँ, वहाँ, और जाने कहाँ-कहाँ के प्रसंगों से गूंथी फ़ि‍ल्‍म, कहानी क्‍या कहती थी? दूसरे विश्‍व युद्ध की तबाही को धीमे-धीमे भूलकर अब उपभोक्‍तावाद के हमाम में नंगे उतर रहे इतालवी समाज की बेहयायी, नैतिक पतन का विहंगम आख्‍यान? ऐसा कुछ? सहूलियत के लिए ऐसा मान लें तब भी फ़ि‍ल्‍म के देख चुकने के बाद, बहुत बाद तक मन में जो छूटा रहता है वह कहानी नहीं, एक ख़ास किस्‍म के महीन, पारदर्शी, अंतर्लोक की किसी सपनीली पगडंडी से गुज़र लेने, चाक्षुष व श्रव्‍य अनुभूतियों के खुदी से छुपे हुए अदृश्‍य, अप्रकट तारों को कोई चुपके से आकर छेड़ गया हो की एक गहरी प्रतीती बनती है, कहानी का अहसास नहीं रहता. धुंधली कुछ ऐसी अनुभूति कि रोज़-बरोज का वही परिचित हमारा पहचाना मन है, मगर इस मन के भीतरी रस्‍तों परत दर परत उधेड़ता ऐसे कैसे कोई गुज़रता जाता है, वह भी सिनेमा के बंधे-बंधाये, लगभग खाँचाबद्ध से माध्‍यम में, कैसे? नीनो रोता की मीठी दुलारभरी थपकियों में? कहानी भूलकर हम अवचेतन की इतनी सारी अमूर्त खिड़कियों के दृश्‍यबंधों में खुलते जाने की नदी में बहने, नहाने लगते हैं. चेतस होकर फिर हिसाब लगाते रहते हैं कि अमूर्तन के इन बीहड़ों को सिनेमाई सरसता में बांधना किसी के लिए संभव था भी? चालीस के दशक के आख़ि‍री वर्षों, अपने से ठीक पहले दी’सिका और रोस्‍सेल्लिनी के असरदार नियो-रियलिस्टिक सिनेमा की अंतर्राष्‍ट्रीय मंज़ूरी के बावज़ूद, फ़ेल्‍लीनी की दुनिया अनूठी और अनोखी इसलिए भी है कि वह तबके फ़ैशनेबल सामाजिक सरोकारी फ़ि‍ल्‍मों की सफलता में सहूलियत से ‘सेट’ होने की जगह, सामाजिकता के प्रकट चौखटों के भीतर के अमूर्तन में उतरने का एक नया मुहावरा ईज़ाद करके न केवल उसका सिनेमा संभव बनाते हैं, आठ और आधा (’63) जैसी अपेक्षतया बाद की फ़ि‍ल्‍म में, अपनी ख़ास शैली में वह लिटरली इस महारत की कविता लिखते दीखते हैं!

संभवत: फ़ेल्‍लीनी की प्राथमिक पहचान और उनके आठ और आधा जैसी बाद के परिपक्‍व सिनेमा का सबसे बड़ा आकर्षण और स्‍वाद ही यही है कि उन्‍होंने चिनेचित्‍ता स्‍टुडियो की अपनी दुनिया में बड़ी आसानी से बाह्य और आंतरिक यात्राओं, यथार्थ, स्‍मृति व स्‍वप्‍नों की आपसी आवाजाही को सहजता से साध लेने की सिद्धि प्राप्‍त कर ली थी. इतने वर्षों बाद, अब जबकि सिनेमा मन के कोमल सपनीले गाँव से गुज़रवा लाने की जगह महंगे, जटिल वीडियो खेल का पर्याय ज़्यादा हो गया है, अब भी फ़ेल्‍लीनी को देखना इंटेंस अतींद्रीय अनुभव शायद इसीलिए बनता है कि सिनेमा के माध्‍यम की जादुई ताक़त और अपने रचनाकार को उन्‍होंने कुछ इस तरह से एकरुप कर लिया था कि उस कला का एक ज़रुरी, प्राथमिक तत्‍व ‘कहानी’ तक उनकी दुनिया में धीमे-धीमे एकदम बेमतलब हो गया थी!

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क्‍या है आठ और आधा में? कहने को 43 वर्षीय सेलीब्रेटी फ़ि‍ल्‍म निर्देशक ग्‍वीदो अनसेल्‍मी है, स्‍वास्‍थ्‍य लाभ के लिए किसी स्‍पा में पहुंचा अपने क्रियेटिव-ब्‍लॉक में अवसादग्रस्‍त, कि उसकी फ़ि‍ल्‍म शुरु नहीं हो पा रही. उसका प्रोड्यूसर दुखी है कि इतने पैसे उड़ रहे हैं और फ़ि‍ल्‍म कहीं जा नहीं रही. मदद के लिए बुलाया उदासीन लेखक, कि सिर्फ़ सोशेबाज़ी है, जीवन की गहरी समझ, दर्शनीय दार्शनिकता, कहानी के उच्‍च अरमान कहीं नहीं हैं. कभी वोलुप्‍चुअस, फर में लदी-बझी समय गुलज़ार करने पहुँची प्रेमिका की दुनिया में ग्‍वीदो मन की गोटियाँ दुरुस्‍त कर रहा है, तो कभी बेमन पीछे-पीछे आई उदास, बौद्धिक बीवी को कन्विंस कर रहा है कि वह काम के बोझ से डिस्‍ट्रैक्‍टेड है, उसकी (पत्‍नी की) उपस्थिति से नहीं. एकदम चुप और अपने में बंद ख़ामोश पत्‍नी मुँह खोलती है तो यह बताने के लिए कि वह भर पाई ग्‍वीदो के फ़रेबी जाल-जंजाल से, उसकी घटिया, बचकानी चिरकुटइयों से. बूढ़े पिता भोलेपन में इससे और उससे ताकीद करते दीखते हैं कि उनका ‘अच्‍छा’ ग्‍वीदो ठीक राह पर चल तो रहा है न?

परिवार, बचपन की स्‍मृतियाँ, अनसुलझे सवाल हैं, गिरिजे के दीवारों के भीतर का रोमानी मोहपाश है, तो नैतिकता के उलझे, अंधेरे फंसान भी हैं, मगर यह सबकुछ आठ और आधा है? या असल में फ़ि‍ल्‍म उन दबी, अधुझुकी नज़रों की कहानी है (उन नज़रों के फिर कहाँ-कहाँ, कितने किस्‍से हैं), आह में डूबी शिकायतों की, चोटखायी, उम्‍मीदबंधी गुज़ारिशों की, अपनी खिलन में खिल-खिल धमाधम भागते बच्‍चों के आनंद की? और न दीखती, जाने कहाँ से आकर कहीं पीछे छूटती जाती, मीठी आवाज़ की लोरी की सांत्‍वनाओं, नींद में डोलती छायाएँ, इस पृथ्‍वी पर अठखेलियों के सब मायाओं की है? ऊँची दीवारों व फैले ओसारों के विस्‍तार समूह में भागने, नहाने, लजाने, भागकर कुछ जाने कैसा ‘गुप्‍त’, रहस्‍यभरा झाँक आने, गरिमाभरे बुजुर्ग पादरी के आगे सिर नवाने, पाप के तक़लीफ़ज़दा अहसासों में नहाये जाने की कहानी है? या वह ग्‍वीदो के दिमाग़ में खुली झाँकियों का ऐसा स्‍पूल है जिसका कभी अंत न होगा, भले फ़ेल्‍लीनी की फ़ि‍ल्‍म एक बिंदु पर आकर ख़त्‍म हो जाए?

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फ़ेल्‍लीनी इंटरव्‍यू देने से बचते थे. बोलने की मजबूरी बन ही जाती तब भी ज़्यादा इधर-उधर की बहक हांकते. उनसे एक लम्‍बी बातचीत पर आधारित डॉक्‍यूमेंट्री का शीर्षक ही है, आई एम अ बॉर्न लायर. दरअसल रिमिनी जैसे छोटे तटीय, कस्‍बाई शहर से रोम पहुंचे फेदेरिको के भीतर छोटी जगह का होने की ग्रंथि लम्‍बे अर्से तक रही (कुछ उसी तरह अपने सम-सामयिक सिने-दिग्‍गजों के बौद्धिक आतंक की भी), लेकिन पीछे छूटी उस छोटी दुनिया का दुलार, उन लघुकाय लोगों की अंतरंग मानवीयता, करुणा लगातार एक दबे हुए स्‍ट्रेन की तरह फ़ेल्‍लीनी की फ़ि‍ल्‍मों में बराबर-बराबर चलती है. नये खाते-पीते मध्‍यवर्ग के नैतिक पतन का भी जब-जब विहंगम मोंताज़ खिंचना शुरु होता है, छोटी दुनिया के यह छोटे, छूटे हुए किरदार ही हैं जो इस पतितलोक में मानवीय ऊष्‍मा और अर्थ भरते हैं.

विलगाव और डिस्‍ट्रैक्‍शन की उमड़ती नदी में हाथ-पैर फेंक रहे ला दोल्‍चे वीता के मार्चेल्‍लो रुबिनी की तरह आठ और आधा के ग्‍वीदो अनसेल्‍मी के पास भी (फ़ेल्‍लीनी की ही तरह) जवाब नहीं हैं, मौक़े की गरज में वह बड़ी-बड़ी हांकता भले क्‍यों न फिरे. जो है वह बस उसके देखने की नज़र है, और वह उसको समूची मोहब्‍बत और शिद्दत से करता है, कभी देखते हुए, तो कभी शर्मिंदगी में नज़रें गिराये हुए. और पीछे छूटी आवाज़ों, अक़्सों को रहते-रहते ढूँढ़ लाने की उसकी डोलती बेक़रारियाँ हैं (और अच्‍छी बात है कि, हमारे साथ-साथ वह भी जानता है कि उसकी ‘स्‍मार्ट’ होशियारी यहाँ किसी काम न आएगी) – जिसमें अवचेतन, बचपन और सवालों के दूसरे ही ख़जाने हैं, एक पूरा गाँव है- जिसकी कैटालॉगिंग करके व्‍यवस्थित करने को मन बीच-बीच में हुमसता भले हो, जीवन में फ़ुरसत नहीं बनती. फ़ेल्‍लीनी सहूलियत के आसान जवाब देने की जगह शायद इसीलिए अवचेतन के इन ढेरों म्‍यूरल्‍स का बीहड़ मोंताज़ बुनते चलते हैं.

अमीर महफ़ि‍लों में चेहरा पोते, जाने किन गुज़रे दिनों का, अब बेमतलब होता, बूढ़ा जादूगर, ग्‍वीदो की पत्‍नी की शक्‍ल में ख़ामोश लुइज़ा, अपनी बेटी की उम्रवाली लड़की के याराने में फंसा, बचपन का हास्‍यास्‍पद, कारुणिक, विद्रूप यार मेत्‍ज़ाबोत्‍ता, प्रकट दीखने को महज़ एक स्‍कैची उपस्थिति मात्र दीखें, अपने में पूरी की पूरी किताब छुपाये चलते हैं. पलक खुलने और बंद होने के दरमियान के छोटे क्षणों आप लगातार पन्‍नों पर पन्‍ने पढ़ लें की फ़ेल्‍लीनी महीन, बारीक पढ़ाई करवाने का हुनर जानते थे, और वह सिर्फ़ व्‍यक्‍त शब्‍दों में ही स्‍वयं को ज़ाहिर नहीं करती थी, न कही गई ख़ामोशी की भी उसमें उतनी ही महत्‍वपूर्ण भूमिका होती थी. शायद इसीलिए फ़ेल्‍लीनी शब्‍दों और भाषा के आसरे जवाब देना इतना बेमतलब समझते थे. शायद इसीलिए नीनो रोता के संगीत की संगत- अपने समूचे ऑर्केस्‍ट्रेशन और विशुद्ध ख़ामोशी दोनों ही शक़्लों में- उस बुनावट की इतनी ज़रुरी कड़ी थी. ‘आठ और आधा’ के आख़ि‍र में, इसीलिए भी कि माथे पर लगातार डोलते, इतने, कितने सवालों के बोझ तले लाचारियां झेलता, वास्‍तविकता से भागकर ग्‍वीदो अपनी इच्‍छापूर्ति के लोक में हंटर घुमाता सबको अपने इशारों पर नचाने का सपना ऑर्केस्‍ट्रेट करने लगता है.

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फ़ेल्‍लीनी ने ओत्‍तो ए मेत्‍ज़ो न भी बनाई होती तो भी अच्‍छे सिनेमा के रसिया उन्‍हें उतनी ही मोहब्‍बत से याद करते. और एक नहीं, वैरायटी लाइट्स, ई वितेल्‍लोनी, ला स्‍त्रादा, नाइट्स ऑफ़ कबिरिया, ला दोल्‍चे वीता, सेतिरिकोन, क्लाउंस, रोमा, अमारकोर्द, ऑरकेस्‍ट्रा रिहर्सल, जिंजर एंड फ्रेड बहुत सारी फ़ि‍ल्‍मों के लिए याद करते. आमतौर पर एक अच्‍छी फ़ि‍ल्‍म से बाहर निकलकर आने के बाद कुछ वैसी अनुभूति होती है माने अंतरंग दोस्‍तों की संगत में एक अच्‍छी दावत की शाम गुज़री. आठ और आधा का ख़ास मज़ा है कि वह अच्‍छी दोस्तियों की अंतरंगता के साथ-साथ ज़िंदगी और सिनेमा के दिलफ़रेब दावतनामे में बदल जाती है. जीवन और कला के बीच का शायद एक प्राथमिक भेद है कि जीवन खत्‍म हो जाता है, कला चलती रहती है, आनंदमयी ओत्‍तो ए मेत्‍ज़ो के साथ भी ऐसा ही कुछ है, उसकी अनूठी निरंतरता में कभी कहीं कुछ खत्‍म नहीं होता..

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  1. फेल्लिनी की दुनिया से इतने गहरे, प्यार भरे परिचय के लिए, प्रमोदजी का धन्यवाद. मैंने सिर्फ एक फिल्म फेल्लिनी की देखी है, शायद इतनी चीज़े और उनकी समझ इस तरह से बनी नहीं, हालांकि कुछ दृश्य हेमशा के लिए मानस पटल पर छूट गए. परन्तु इस लेख पढने के बाद फेल्लिनी की कुछ फिल्मे देखने का फिर से मन है. फिल्म और फेल्लिनी से अलग भी ये लेख, अपने आप में सिनेमा क्या हो? और सिनेमा के सामजिक सरोकार से अलग भी, रचनात्मकता के कई आयामों की तरफ इशारों से भरपूर है. सिनेमा की संभावनाएं क्या और कैसी हो सकती है? इस तरह से भी एक बड़े फलक पर इस लेख को देखा /पढ़ा जा सकता है. कला और जीवन का सम्बन्ध, प्रत्यक्ष और परोक्ष का संबध, की तरफ भी ये लेख बखूबी न्याय करता है. सिनेमा देखने की जितनी समझ कुछ क्लासिक फिल्मों को देखकर बनती है, उसी तरह, सिनेमा पर लिखे गए अच्छे लेख हमारी सिनेमा की समझ को कुछ और गहरा कर देतें है. और फिर सिनेमा एक अमूर्त कला, और मनोरंजन से ज्यादा, कुछ और हो जाती है, अपने को, अपने समाज को, देखने का, और कला और जीवन के अंतर्संबंध को देखने का नजरिया बन जाती है अनायास. प्रमोद जी का ये लेख सिनेमा पर लिखे गए लेखों से इसीलिए भी अलग है, क्यूंकि, इसमे दर्शक एक कोने में बैठा, तटस्थ, तमाशाई नहीं है, बल्कि कला के साथ, (यंहा पर सिनेमा के साथ) दर्शक का मन और मानस लगातार चेतन अवचेतन में क्रियाशील है, उसमे गति है. इसीलिए ये महज किसी सिनेमा को स्कोर और स्टार देने से अलग, हमें सिनेमा को कुछ सब्र से, कुछ और गहरे उतर कर देखने की तमीज भी देता है. मेरा सुझाव है कि प्रमोद जी को कुछ न कुछ फिल्मों के बारे लगातार लिखना चाहिए, अलग अलग कोणों से.

  2. इस लेख को दुबारा पढने पर एक और बात समझ आती है.
    वों ये है कि प्रमोद जी ने सिनेमा को खानों में नहीं बांटा, उसे समग्रता में देखा, और दूसरा, कला और दर्शक के बीच की दूरी कुछ इस हद तक पाट दी है, के दर्शक फिल्म देखते हुए उसका अभिन्न हिस्सा हो गया है, उसे भी एक किस्म की मानवीय गरिमा इसमें मिली है. और जो भी इसे पढेगा, वों इसका एक हिस्सा अपने भीतर लेकर जाएगा, मन का कुछ संस्कार बनेगा. नहीं तो बौद्धिक किस्म के review दर्शक को इतना नकारा साबित कर देते है, कि उसके चीज़ों को perceive करने पर ही पानी फिर जाता है, और चालू किस्म के फिल्म review फिल्म को इतने खानों में बाँट देते है, कि दर्शक उसे समग्रता में देख नहीं पाता.

  3. प्रमोद जी का लेख वाकई एक नई समझ और संस्कार प्रदान करने वाला है. इस लेख पर स्वप्नदर्शी की टिप्पणियां भी ऐसी हैं जैसे उसी का एक और सार्थक विस्तार. प्रतिलिपि का शुक्रिया इस लेख के लिए.

  4. ‘ला दोल्‍चे वीता’ से फेल्लिनी को जानना शुरु किया था . तबसे फेल्लिनी के बारे में यहां-वहां पढता रहा हूं . पर उनके रचना संसार को जिस संवेदनशीलता और आत्मीयता से प्रमोद ने उंकेरा वैसा बहुत कम देखने में आया है . इससे न केवल इस महान निर्देशक के अंतरंग से हमारा परिचय होता है बल्कि उसके माध्यम से उनकी कला को समझने की कुंजी भी हाथ लगती है . सिनेमा संबंधी समझ को विकसित करने और सार्थक सिने-समीक्षा का सलीका सीखने-सिखाने की दृष्टि से भी यह लेख उत्कृष्ट पाठ साबित हो सकता है . डॉक्यूमेंटरी ‘ आई एम अ बॉर्न लायर’ कैसे देखी जाए ?

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