आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

मेरी भाषा में तुम शामिल हो: ओम प्रकाश वाल्मीकि

पहाड़

पहाड़ खड़ा है
स्थिर सिर उठाये
जिसे देखता हूँ हर रोज
आत्मीयता से

बारिश में नहाया
या फिर सर्द रातों की रिमझिम के बाद
बर्फ से ढका पहाड़
सुकून देता है

लेकिन जब पहाड़ थरथराता है
मेरे भीतर भी
जैसे बिखरने लगता है
न खत्म होने वाली आड़ी-तिरछी
ऊँची-नीची पगडंडियों का सिलसिला

गहरी खाईयों का डरावना अंधेरा
उतर जाता है मेरी साँसों में

पहाड़ जब धसकता है
टूटता मैं भी हूँ
मेरी रातों के अंधेरे और घने हो जाते हैं

जब पहाड़ पर नहीं गिरती बर्फ
रह जाता हूँ ज्यासा जलविहीन मैं
सूखी नदियों का दर्द
टीसने लगता है मेरे सीने में

यह अलग बात है
इतने वर्षों के साथ हैं
फिर भी मैं गैर हूँ
अनचिन्हें प्रवासी पक्षी की तरह
जो बार-बार लौट कर आता है
बसेरे की तलाश में

मेरे भीतर कुनमुनाती चींटियों का शोर
खो जाता है भीड़ में
प्रश्नों के उगते जंगल में

फिर भी ओ मेरे पहाड़
तुम्हारी हर कटान पर कटता हूँ मैं हे
टूटता-बिखरता हूँ
जिसे देख पाना
भले ही मुश्किल है तुम्हारे लिए
लेकिन
मेरी भाषा में तुम शामिल हो
पारदर्शी शब्द बनकर !

जूता

हिराकत भरे शब्द चुभते हैं
त्वचा में
सुई की नोक की तरह
जब वे कहते हैं
साथ चलना है तो कदम बढ़ाओ
जल्दी-जल्दी

जबकि मेरे लिए कदम बढ़ाना
पहाड़ पर चढ़ने जैसा है
मेरे पाँव जख्मी हैं
और जूता काट रहा है

वे फिर कहते हैं
साथ चलना है तो कदम बढ़ाओ
हमारे पीछे-पीछे आओ

मैं कहता हूँ
पाँव में तकलीफ़ है
चलना दुश्वार है मेरे लिए
जूता काट रहा है

वे चीखते हैं
भाड़ में जाओ
तुम और तुम्हारा जूता
मैं कहना चाहता हूँ –
मैं भाड़ में नहीं
नरक में जीता हूँ
पल-पल मरता हूँ
जूता मुझे काटता है
उसका दर्द भी मैं ही जानता हूँ

तुम्हारी महानता मेरे लिए स्याह अंधेरा है.

वे चमचमाती नक्काशीदार छड़ी से
धकिया कर मुझे
आगे बढ़ जाते हैं

उनका रौद्र रूप-
सौम्यता के आवरण में लिपट कर
दार्शनिक मुद्रा में बदल जाता है
और, मेरा आर्तनाद
सिसकियों में

मैं जानता हूँ
मेरा दर्द तुम्हारे लिए चींटी जैसा
और तुम्हारा अपना दर्द पहाड़ जैसा

इसीलिए, मेरे और तुम्हारे बीच
एक फासला है
जिसे लम्बाई में नहीं
समय से नापा जायेगा.

अस्थि-विसर्जन

जब भी चाहा छूना
मिन्दर के गर्भ-गृह में
किसी पत्थर को
या उकेरे गये भित्ति-चित्रों को

हर बार कसमसाया हथौडे़ का एहसास
हथेली में
जाग उठी उंगलियों के उद्गम पर उभरी गांठें

जब भी नहाने गये गंगा
हर की पौड़ी
हर बार लगा जैसे लगा रहे हैं डुबकी
बरसाती नाले में
जहाँ तेज धारा के नीचे
रेत नहीं
रपटीले पत्थर हैं
जो पाँव टिकने नहीं देते

मुश्किलल होता है
टिके रहना धारा के विरुद्ध
जैसे खड़े रहना दहकते अंगारों पर

पाँव तले आ जाती हैं
मुर्दों की हडि्डयाँ
जो बिखरी पड़ी हैं पत्थरों के इर्द-गिर्द
गहरे तल में

ये हडि्डयां जो लड़ी थीं कभी
हवा और भाषा से
संस्कारों और व्यवहारों से
और, फिर एक दिन बहा दी गयी गंगा में
पंडे की अस्पष्ट बुदबुदाहट के साथ
(कुछ लोग इस बुदबुदाहट को संस्कृत कहते हैं)

ये अस्थियाँ धारा के नीचे लेटे-लेटे
सहलाती हैं तलवों को
खौफनाक तरीके से

इसलिये तय कर लिया है मैनें
नहीं नहाऊंगा ऐसी किसी गंगा में
जहां पंडे की गिद्ध-नजरें गड़ी हों
अस्थियों के बीच रखे सिक्कों
और दक्षिणा के रुपयों पर
विसर्जन से पहले ही झपट्टा मारने के लिए बाज की तरह !

बिटिया का बस्ता

घर से निकल रहा था
दफ्तर के लिए
सीढ़ियां उतरते हुए लगा
जैसे पीछे से किसी ने पुकारा
आवाज परिचित आत्मीयता से भरी हुई
जैसे बरसों बाद सुनी ऐसी आवाज
कंधे पर स्पर्श का आभास

मुड़ कर देखा
कोई नहीं
एक स्मृति भर थी

सुबह-सुबह दफ़्तर जाने से पहले
जैसे कोई स्वप्न रह गया अधूरा
आगे बढ़ा
स्कूटर स्टार्ट करने के लिए
कान में जैसे फिर से कोई फुसफुसाया

अधूरी किताब का आखिरी पन्ना लिखने पर
पूर्णता का अहसास
जैसे पिता की हिलती मूंछें
जैसे एक नये काम की शुरूआत
नया दिन पा जाने की विकलता

रात की खौफ़नाक, डरावनी प्रतिध्वनियों
और खिड़की से छना कर आती पीली रोशनी से
मुक्ति की थरथराहट
भीतर कराहते
कुछ शब्द
बचे-खुचे हौंसले
कुछ होने या न होने के बीच
दरकता विश्वास

कितना फर्क है होने
या न होने में

सब कुछ अविश्वसनीय-सा
जोड़-तोड़ के बीच
उछल-कूद की आतुरता
तेज, तीखी प्रतिध्वनि में
चीखती हताशा

भाषा अपनी
फिर भी लगती है परायी – सी
विस्मृत सदियों-सी कातरता
अवसादों में लिपटी हुई

लगा जैसे एक भीड़ है
आस-पास, बेदखल होती बदहवास
चारों ओर जलते घरों में उठता धुआं
जलते दरवाजे, खिड़कियां
फर्ज़, अलमारी
बिटिया का बस्ता
जिसे सहेजकर रखती थी करीने से
एक-एक चीज
पैंसिल,कटर, और रबर
कॉपी,किताब
हेयर-पिन, फ्रेंडिशप बैंड

बस्ता नहीं एक दुनिया थी उसकी
जिसमें झाँकने या खंगालने का हक
नहीं था किसी को
जल रहा है सब कुछ धुआँ-धुआँ
बिटिया सो नहीं रही है
अजनबी घर में
जहाँ नहीं है उसका बस्ता
गोहाना की चिरायंध
फैली है हवा में
जहाँ आतातायी भाँज रहे हैं
लाठी, सरिये, गंडासे,
पटाखोम की लड़ियाँ
दियासलाई की तिल्ली
और जलती आग में झुलसता भविश्य

गर्व भरे अट्टहास में
पंचायती फरमान
बारूदी विस्फोट की तरह
फटते गैस सिलेंडर
लूटपाट और बरजोरी

तमाशबीन –
शहर …
पुलिस …
संसद …
खामोश …
कानून …
किताब …
और
धर्म

कान मे कोई फुसफुसाया –
सावधान, जले मकानों की राख में
चिंगारी अभी जिंदा है !

उन्हें डर है

ऊन्हें डर है
बंजड़ धरती का सीना चीर कर
अन्न उगा देने वाले सांवले खुरदरे हाथ
उतनी ही दक्षता से जुट जायेंगे
वर्जित क्षेत्र में भी
जहाँ अभी तक लगा था उनके लिए
नो एंटरी का बोर्ड

वे जानते हैं
यह एक जंग है
जहाँ उनकी हार तय है
एक झूठ के रेतीले ढूह की ओट में
खड़े रह कर आखिर कब तक
बचा जा सकता है बालि के
तीक्ष्ण बाणों से

आसमान से बरसते अंगारों में
उनका झुलसना तय है

फिर भी
अपनी पुराने तीरों को वे
तेज करने लगे हैं

चौराहों से वे गुजरते हैं
निश्शंक

जानते हैं
सड़कों पर कदम ताल करती
खाकी वर्दी उनकी ही सुरक्षा के लिए तैनात है

आँखों पर काली पट्टी बांधे
न्यायदेवी जरूरत पड़ने पर दोहरायेगी
दसवें मण्डल का पुरूष सूक्त

फिर भी,
उन्हें डर है
भविष्य के गर्भ से चीख-चीख कर
बाहर आती हजारों साल की वीभत्सता
जिसे रचा था उनके पुरखों ने भविष्य निधि की तरह
कहीं उन्हें ही न ले डूबे किसी अंधेरी खाई में
जहाँ से बाहर आने के तमाम रास्ते
स्वयं ही बंद कर आये थे
सुग्रीव की तरह

वे खड़े हो गये हैं रास्ता रोक कर
चीख रहे हैं
ऊंची आवाज में उनके खिलाफ़
जो खेतों की मिट्टी की खुश्बू से सने हाथों
से खोल रहे हैं दरवाजा
जिसे घेर कर खड़े हैं वे
उनके सफेद कोट पर खून के धब्बे
कैमरों की तेज रोशनी में भी साफ
दिखायी दे रहे हैं

भीतर मरीजों की कराहटें
घुट कर रह गयी हैं
दरवाजे के बाहर सड़क पर उठते शोर में उच्चता और योग्यता की तमाम परतें
उघड़ने लगी हैं

13 comments
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  1. There are no words in my hands to comments on this just speechless.

    Thanks
    Deepak Mehroliya

  2. I read jootan long back. Accidentally I just your name in google to know your whereabouts. Your latest Kavita on screen is really touching (always your writing go deep core). Wish you healthy life.

    with regards
    omparkash bhartiya new delhi

  3. I am so impressing with your writing method & ideas.

    Thanks
    Devender Kumar Valmiki Suratgarh (Raj.)

  4. I am too much impressed by reading JHOOTAN that was atrue story of your life and struggles.Your above wrote is too very much impressive and heart touchy.Iregards you sir.

  5. valmiki jee ki rachanayen sada hi prerak rahio hain .Vichar abhi bhi badale nahin hain.Ek ichha hai valmiki jee yadi apne “JOOTHAN”K ko ODIA mein aanuvad karane ki aanumati dein to gauranvit hounga.

  6. pahad aur asthi visarjan – dono behad marmik kavitayein hain . inki anugoonj bahut door tak sooni ja sakatii hai .

  7. Sir ji Sabse pahle main aapko dalito ki chetna ko jagrat karne vaali aatmkatha ‘juthan’ k liye dhanyvaad dena chahunga..
    Maine aaj hi aapki likhit aatmkatha ko padhna suru kiya hai..
    Padhte vaqt mujhe baar baar apne chacha ka chehra yaad aataa raha jab vo hamare ghar se karib 100 kadam ki duri se suru hone wali harijan basti k ek ladke ko karib 15 saal pahle ye kaha tha ki.. Abe vo chamra topi chasma laga ke market jat baate,sasur k naati e sb bhi school jaye lagen..
    vo sab aaj bhi mujhe andar tak jhakjhor dete hain sir ji..
    Ek samaaj ka janam jab sahyood k liye hota hai to phir ye anti human elements usi samaaj ko etna jaahil kaise bana deta hai..kaas ki aise sawaalo k jabab hote kewal aspastikaran nahi..

  8. Tikshna Bhasha BaaN. Quiet impressive.

  9. Respected Sir,

    I am speechless. i have not words. You are amazing
    thanks a lot

  10. namaste sir,
    dalit sahitya par likhi apki sari rachanayn prernaspad h.
    dhanywad

  11. sir naman,
    apki kavitayen mujhe behad pasand h.

  12. sir aapki vednao ko salam muze yakinan aapne sampurna samaj ko aaina dikha diya

  13. Sir Realy, Your Words hearts me. I am So Impresed.

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