पीरू हज्जाम उर्फ़ हज़रत जीः अनवर सुहैल
एक सुबह फज्र की नमाज से पूर्व हज़रत जी की लाश पैखाने में गू-मूत से लसड़ाई पड़ी मिली.
लाश देख कर ऐसा लगता था, जैसे मरने से पूर्व पैखाने से निकलने के लिए उन्होनें काफी संघर्ष किया हो. इस कोशिश में वह कई बार गिरे होंगे और फिर उठने का उपक्रम किया होगा.
उनके कपड़े, हाथ-पैर हत्ता कि समूचा बदन गंदगी से सराबोर था.
हमेशा इत्र-फुलेल से डूबा रहने वाला बदन इतना वीभत्स दिख रहा था कि उबकाई आ जाए. हज़रत जी के आलीच्चान कमरे में पैखाना अटैच था. चिकने- चमकदार टाईल्स और मोजेक का कमाल…जो कि हज़रत जी के सौंदर्य-प्रेम को प्रदर्शित करता था.
चौंसठ वर्षीय हज़रत जी को आज जिस हालत में ‘मलकुल-मौत’ ने अपनी आगोश में लिया था, उसे देख कोई कैसे यकीन करे कि यह किसी पवित्र व्यक्ति की लाश है.सैयद शाह बाबा की दरगाह के दिग्दर्च्चक, निर्माता और सुप्रीमो हज़रत जी का इतना दुखद अंत ! पहले उस दरगाह शरीफ़ में सिर्फ एक ही मज़ार थी. सैयद शाह बाबा की मज़ार. अब वहाँ दो मज़ारें हैं. एक तो सैयद शाह बाबा और दूजी जनाब हज़रत जी की. हज़रत जी यानी की सैयद शाह बाबा के मज़ार की कल्पना को साकार करने वाली शख्सियत यानी कि पीरू हज्जाम की…
हज़रत जी की पीरू हज्जाम से पीर बनने की कथा बड़ी दिलचस्प है.
आज जहां सैयद शाह बाबा की मज़ार है, पहले वहाँ एक सूखे से पीपल के दरख़्त के अलावा कुछ भी न था. पहले हज़रत जी भी तो हज़रत जी न थे. गाँधी चौक पर उनकी एक हजामत की गुमटी थी. पीरू हज्जाम की गुमटी.वह खानदानी नाऊ थे. उनके पूर्वज ख़लीफ़ा कहलाते थे. खतना करने वाले खलीफा…
हज़रत जी ने पुश्तैनी धन्धा छोड़ कर हजामत वाला धन्धा पकड़ा. उनकी तीन बीवियों से उत्पन्न दर्जन भर औलादों में से दो बेटे अब इसी धन्धे में हैं.
कहते हैं कि पीरू हज्जाम यानी कि हज़रत जी बचपन से बहुत खुराफ़ाती स्वभाव के थे. बालिग़ हुए तो फ़ितरतन स्थानीय मस्जिद के सदर बनने का ख्वाब देखने लगे. तब नगर में एक ही मस्जिद थी. वहाँ शेख़, सैयदों और नवधनाढ्य व्यापारियों का बोलबाला था. उन्हीं लोगों के बीच से सदर-सेक्रेटरी चुने जाते. वहाँ हज़रत जी की कहाँ चलती. इसीलिए उन्होने जुलाहों, कसाइयों, धुनियों और अन्य पिछड़े मुसलमानों को संगठित करना चाहा.
जामा-मस्जिद के बड़े इमाम साहब देवबंदी थे और उनकी देख-रेख में किसी तरह का बवाल न था. छोटे-बड़े सब उनकी नूरानी शख्सियत का अदबो-एहतराम करते थे. वहाँ हज़रत जी को सफलता न मिली.
तब हज़रत जी ने जामा-मस्जिद के तमाम नमाजि़यों के खिलाफ़ फतवा दिलवाने का जुगाड़ किया कि जामा-मस्जिद वहाबियों की मस्जिद है. वहाँ नबियों के सरदार हुज़ूर अकरम सल्ल लल्लाहो अलैहे वसल्लम पर दरूदो-सलाम नहीं पढ़ा जाता है. ये देवबंदी वहाबी लोग वलियों और औलियाओं को नहीं मानते. बुजुर्गों की मज़ार शरीफ का मज़ाक उड़ाते हैं. बद-दीन होते हैं ये देवबंदी-वहाबी, इनसे तो काफ़िर भले. इन वहाबियों के पीछे नमाज़ पढ़ना हराम है. इन देवबंदियों में से कोई अगर सलाम करें तो जवाब न दो. इनसे रोटी-बेटी का सम्बंध न बनाओ.
हज़रत जी के इस दुष्प्रचार को बरेली से आए एक मौलाना ने शह भी दी. परिणामतः कुछ लोग उनके मिजाज़ के मिल ही गए. हज़रत जी को पुरानी मस्जिद में अपना हक़ न मिलने का अंदेशा था, इसलिए वह अपने घर के एक कमरे में ब-जमाअत नमाज़ अदा करने लगे. उनके कुछ शागिर्द बन गए.
हज़रत जी के चेहरे पर नूरानी दाढ़ी आ गई. काले-सफेद बालों पर मेंहदी लगाई, तो एक नया रूप बन गया. सर पर हरी पगड़ी बांधी और गले में काले, नीले, लाल, पीले, हरे, सफेद पत्थरों की मालाएँ डालने पर वह अब घोषित बाबा बन गए.
मोटवानी एक फोटोग्राफर था. उसका धन्धा बड़ा मन्दा चलता था. उसके लिए हज़रत जी ने दुआएं कीं.
उनकी दुआओं की बदौलत मोटवानी का स्टूडियो चमक उठा.
अब ये हज़रत जी की दुआओं का नतीज़ा हो या नगरपालिका वालों की मेहरबानी! उसके स्टूडियो के सामने से गुजरने वाली गली का नगरपालिका वालों ने उद्धार कर उसे हाई स्कूल और कचहरी जाने वाली सड़क से जोड़ दिया था. मोटवानी की आय बढ़ गई. अब मोटवानी के पास एक जापानी फोटोकापी की मच्चीन भी आ गई. उसने तीन-चार मुलाजिम रख लिए. वह हज़रत जी का मुरीद बन गया. हज़रत जी की तीसरी शादी कराने में उसका अहम रोल था.
मोटवानी के प्रचार के कारण हज़रत जी के झाड़-फूंक और दुआ-तावीज़ का कारोबार चमक उठा. धन्धा मंदा हो तो तेज हो जाएगा. लड़का न हो रहा हो तो तावीज़ से लड़कों की लाइन लग जाएगी. शौहर शराबी हो या कि इधर-उधर मुँह मारता हो तो उसे सही रास्ते पर लाने के लिए हज़रत जी से दुआएँ करवा लो. कोर्ट-कचहरी का चक्कर हो तो मुकदमे का फैसला आपके पक्ष में होगा.
लोगों ने उन्हें जिन्दा वली घोषित कर दिया था.
एक सुबह हज़रत जी ने फज्र की नमाज़ के वक्त मुरीदों के सामने अपने एक ख़्वाब का जि़क्र किया. उन्होंने ख्वाब में देखा था कि बाई-पास चौराहे के पास कब्रिस्तान से सटी जमीन पर जो पीपल का दरख्त है उसके पास एक बुजुर्गाने-दीन सैयद शाह बाबा की कब्र-मुबारक है. मरहूम हज़रत सैयद शाह बाबा ने खुद ख्वाब में आकर उन्हें उस जगह की निशानदेही की है.
मोटवानी को खबर लगी. वह भागा-भागा हज़रत जी के पास आया. हज़रत जी ने उससे भी यही बात बताई. मोटवानी हज़रत जी को अपनी मारूति में बिठाकर बाई-पास चौराहे ले गया. वहाँ वाकई कब्रिस्तान के कोने पर एक सूखा पीपल का दरख्त था. दरख्त एक हरिजन शिक्षक चंदू भाई की जमीन पर था.
चंदू भाई ने जब मोटवानी से हज़रत जी के ख्वाब के बारे में सुना तो उसने तत्काल जमीन का वह टुकड़ा सैयद शाह बाबा की मज़ार के नाम करने का आच्च्वासन दिया. उसने शर्त बस इतनी रखी कि उस ज़मीन पर जो भी काम किया जाए उसकी जानकारी चंदू भाई को भी ज़रूर दी जाए. इसमें भला किसी को क्या आपत्ति हो सकती थी? हज़रत जी, मोटवानी और चंदू भाई यही तीनों उस जमीन के टुकड़े के न्यासी बने.
हज़रत जी के मुस्लिम मुरीदों ने एतराज़ किया. इस्लामी कामों में गैरों को इतनी प्रमुखता देना ठीक नहीं. सबसे पहले बाकायदा एक कमेटी बनाई जाए. हज़रत जी उसके प्रमुख न्यासी रहें और फिर सैयद शाह बाबा के दरगाह की तामीर का काम हाथ में लिया जाए.
इन विरोध प्रदर्शित करने वालों में सुलेमान दर्जी और अजीज कुरैशी प्रमुख थे. हज़रत जी ने उन्हें अपने ग्रुप में शामिल तो कर लिया किन्तु औपचारिक तौर पर कोई कमेटी न बनने दी. इसीलिए हज़रत जी की मृत्यु के बाद मुश्किलें पेश आनी शुरू हुईं.
मोटवानी ने साफ-साफ एलान कर दिया कि हज़रत जी का जो हुक्म होगा उसकी तामील की जाएगी.
सुलेमान दर्जी और अजीज कुरैशी मन मसोस कर रह गए. मुसलमानों की जियारतगाह पर गैर-मुस्लिमों की इस तरह की दखल-अन्दाजी नाकाबिले-बर्दाश्त थी.
किन्तु किया भी क्या जा सकता था?
मोटवानी और चंदू भाई की वजह से ही उस नए तीर्थ पर भीड़ बढ़ने लगी. शुरू-शुरू में जो मुसलमान इस गठबंधन को घृणा की निगाह से देखते थे, वे भी धीरे-धीरे पिघलने लगे. हर जुमेरात को चढ़ावा आने लगा. ज़ायरीन की संख्या में धीरे-धीरे आशातीत वृद्धि होने लगी. वहाँ पर अब ज़ोरदार सालाना उर्स का आयोजन होने लगा. बनारस और पटना से क़व्वाल बुलाए जाने लगे. आस-पास गुमटियां और अन्य ज़रूरत के सामानों की दुकानें सजने लगीं. मोटवानी ने नगर के प्रसिद्ध पेंटर मुश्ताक से सैयद शाह बाबा की एक तस्वीर बनवाई.
पेंटर मुश्ताक अव्वल नम्बर का पियक्कड था. उसने हज़रत जी से ख्वाब वाले बुजुर्ग सैयद शाह बाबा का ख़ाका पूछा. उनके बयान और अपनी कल्पना के ज़ोर से उसने कई तस्वीरें बनाईं. एक तस्वीर को हज़रत जी ने स्वीकृति दे दी. वह एक सफेद दाढ़ी और बड़ी-बड़ी आंखों वाले खूबसूरत बुजुर्ग की तस्वीर थी. मोटवानी ने अपनी अक़्ल का इस्तेमाल कर उस तस्वीर के साथ पीपल के सूखे दरख्त और दरगाह शरीफ के फोटो का एक बेहतरीन कोलाज सेट करवा कर उसे कई आकार में प्रिंट करवाया.
उसने उन तस्वीरों को मज़ार शरीफ के बाहर लगने वाली फूल-शीरनी की दुकानों में भी श्रद्धालुओं के लिए रखवाया.
मोटवानी का बेटा होशियार था. बारहवीं कक्षा में तीसरी बार फेल होने के बाद वह धंधे में लग गया था. उसने उर्स के अवसर पर आयोजित कव्वाली के कार्यक्रम की रिकार्डिंग करवाई और कटनी जाकर चंद कैसेट तैयार करवा लिए. उन कैसेट्स में सैय्यद शाह बाबा के दरगाह की शान-ओ-अज़मत की बेहतरीन कव्वालियां कैद थीं. उन कैसेट्स की डिमाँड बढ़ी तो फिर उसका भी एक सिलसिलेवार धंधा बन गया.
इससे सैयद शाह बाबा की मज़ार का भरपूर प्रचार हुआ, किन्तु किसे पता था कि इतनी बड़ी धार्मिक हस्ती जनाब हज़रत जी का इतना वीभत्स अंत होगा!
हज़रत जी की लाश पर अब मक्खियां भी भिनभिनाने लगी थीं.
सैयद शाह बाबा की मज़ार के प्रमुख की दुर्दशा पर उनकी दर्जन भर औलादें और तीन बीवियां दहाड़े मार-मार कर रो रही थीं.
हज़रत जी का यह कमरा बड़ा आलीशान था, जिसके दो खण्ड थे. एक तरफ़ शानदार डबल-बेड पलंग, बड़ी सी आलमारी, आदमक़द आइने वाली एक श्रृंगार टेबल, कोने में आलता और उससे लगा हुआ एक शो-केस, जिसपर रखा था एक रंगीन टेलीविज़न. दूसरे खण्ड में हज़रत जी की इबादतगाह थी. ख़ूबसूरत कालीन जैसा जानिमाज (नमाज़ अदा करने के लिए बिछाया जाने वाला कपड़ा), किताबों की आलमारी जिसमें अरबी-उर्दू की किताबे रखी हुई थीं.
उस अफ़रा-तफ़री का माहौल में किसी की समझ में कुछ न आ रहा था कि अब क्या करना होगा?
मरहूम हज़रत जी की तीसरी बीवी कुलसूम और उनके बड़े बेटे हैदर ने रोते-रोते एक दूसरे को देखा, तो जैसे उन्हें लगा कि इस तरह रो-रोकर समय बरबाद करने से बेहतर है कि कुछ ठोस फैसले किए जाएँ.
बाकी लोगों को रोता-कलपता छोड़ वे दूसरे कमरे में आ गए. यह कुलसूम बीवी का कमरा था. हज़रत जी की सबसे प्यारी बीवी का कमरा…हज़रत जी ने स्वयं इस कमरे के रख-रखाव और सजावट में रूचि ली थी. हज़रत जी की सौंदर्यानुभूति का अद्वितीय नमूना! हल्के गुलाबी रंग की दीवारें और उसी रंग की तमाम चीज़ें.कोने पर शाही पलंग. मोटे गद्दे. मखमली चादरें और मुलायम गाव-तकिये.
कुलसूम बीवी पलंग पर बैठ गईं. हैदर उनके सामने क़ालीन पर रखे मोढ़े पर बैठ गया. हज़रत जी की पहली बीवी का पुत्र हैदर, कुलसूम बीवी को ध्यान से देखने लगा. कुलसूम मात्र तीस बरस की कसे बदन वाली युवती थी. हज़रत जी से विवाह के पूर्व उसका नाम कुसुम था.
कुसुम से कुलसूम बनने की भी एक कहानी है.
मोटवानी के फैलाए जाल में कुसुम का तेली बाप फंस गया. कुसुम के बाप गिरधारी गुप्ता की नगर में एक उजाड़ और बेरौनक सी किराने की दुकान थी. सेठ गिरधारी गुप्ता जब स्वयं दुकान पर बैठता तो एक भी ग्राहक न आता. जब उसकी बेटियां दुकान सम्भालतीं, तब कहीं जाकर ‘बोहनी-बट्टा’ हो पाता. कहने वाले कहते कि गिरधारी गुप्ता की दुकान में हर साइज़ का माल मिलता है. पांच बेटियां, पांच साइज़…
गिरधारी गुप्ता ने एक अदद बेटे की खोज में गुप्ताईन के साथ कई प्रयोग किए. पाँच बेटियों के बाद उसे बीवी की खराब हो चुकी बच्चेदानी का आपरेशन करवाना पड़ा. बेटा एक भी न हुआ. कुसुम मंझली बेटी थी. उससे बड़ी एक बहन हाथ पीले न हो पाने के दुख में आत्महत्या की थी. स्वभाव से चंचल कुसुम असमय मरना नहीं चाहती थी. उसे जिन्दगी से प्यार था. मोटवानी का स्टूडियो उसकी दुकान के सामने था. लड़के वालों को दिखाने के लिए वहाँ से उसके कई फोटो खिंचवाए गए थे. मोटवानी खाली समय में अपने स्टूडियो से बैठा-बैठा कुसुम को लाईन मारा करता था. इस उम्मीद से कि शायद कभी तो वह पिघले, और कुसुम कौन-सा पत्थर थी कि न पिघलती. मोटवानी ने कुसुम की सैकड़ों तस्वीरें विभिन्न मोहक मुद्राओं में उतारीं. लड़के वाले कुसुम को पसंद कर भी लेते किन्तु दहेज की माँग के आगे गिरधारी गुप्ता घुटने टेक देते.
एक दिन मोटवानी ने गिरधारी गुप्ता को बेटियों के सुयोग्य वर के लिए सैयद शाह बाबा की दरगाह पर जाकर मन्नत माँगने की सलाह दी. फिर तो गिरधारी गुप्ता के परिवार का दरगाह-शरीफ जाकर मुरादें माँगने का सिलसिला ही बन गया. हज़रत जी तब अधेड़ थे. उनकी दबंग काया पर आध्यात्मिकता का रंग बेजोड़ था. जब से वह दरगाह शरीफ के सर्वे-सर्वा बने उन्हें अच्छी ग़िज़ा भी मिलने लगी. गाल गुलाबी और आंख नच्चीली सी लगने लगी थी. दरगाह शरीफ में आने वाली महिलाएं उनके भव्य व्यक्तित्व के सम्मोहन का शिकार होने लगी थीं. हज़रत जी की दो बीवियां थीं किन्तु अब उनमें वह बात न थी. कुसुम हज़रत जी के जादुई व्यक्तित्व के जाल में कब कै़द हुई उसे पता ही न चला. मोटवानी से उसका चक्कर चल ही रहा था.
हज़रतजी भी चाहते थे कि कुसुम उनकी अंकशायिनी बने.
और कुसुम ने स्वयं एक दिन उन्हें वह बहुप्रतीक्षित अवसर उपलब्ध करा दिया.
एक जुमेरात के दिन जब वह माँ के साथ मज़ार शरीफ पर नजराने-अक़ीदत पेश करने आई तब उसने हज़रत जी को अकेले में पाकर उनसे दरयाफ़्त किया. हज़रत जी के हाथों में मोरपंख का झाड़ू था और वह उससे सैयद शाह बाबा की मज़ार की सफाई में लीन थे.
उनके पास जाकर कुसुम ने कहा — “मैं आत्महत्या करना नहीं चाहती हज़रत जी..!” हज़रत जी ने आँखे झपकाईं यानी कि चिड़िया स्वयं जाल में आई है.
“स्वर्गीय दीदी की आत्मा मुझे अपने पास बुलाती है और मुझे लगता है कि मैं भी गले में दुपट्टा बांध कर छत से झूल जाऊं. मैं क्या करूं बाबा…मुझे राह दिखाइए?”
हज़रतजी ने कहा कि तुम सैयद शाह बाबा की मज़ार की खिदमतगार बन जाओ और यहाँ आने वाली खवातीन-ज़ायरीन (श्रद्धालु महिलाओं) की खिदमत करो.
कुसुम तैयार हो गई.
नगर में इसका विरोध हुआ.
हिंदुत्ववादी संगठनों ने जब एक हिन्दू लड़की का यह अधःपतन देखा तो वे हाफ पैंट और धोतियों से बाहर हुए. कुसुम ने किसी भी तरह मज़ार शरीफ से बाहर निकलना स्वीकार न किया, तब हज़रत जी ने स्थिति को सम्भाला.
उन्होने कुसुम से निकाह की पेशकश की. इस तरह कुसुम उनकी तीसरी बीवी बनी. उसका नाम निकाह के बाद कुलसूम हो गया. हज़रत जी का बड़ा बेटा हैदर कुसुम के साथ प्राइमरी स्कूल में पढ़ चुका था. उसने बाप का थोड़ा विरोध किया किन्तु कुसुम से कुलसूम बनी कुसुम ने जल्द ही उसे यह एहसाह करा दिया कि वह उसकी छोटी माँ नहीं रहेगी बल्कि वह तो उसकी कुसुम ही रहेगी.
कुलसूम के मोटवानी से रागात्मक सम्बंध पहले ही से थे. अब उसकी सूची में दो और लोग शामिल हो गए. हज़रत जी और उनका बड़ा बेटा हैदर…
दरगाह कमेटी के लोग सब जानते थे किन्तु हज़रत जी के आगे किसी की न चलती. हज़रत जी की असमय मृत्यु से उत्पन्न इस संकट में हैदर जानता था कि कुलसूम बीवी कोई न कोई आसान राह ज़रूर निकाल लेगी.
कुलसूम बीवी के पलंग के बगल तिपाई पर फोन रखा था. यह फोन ख़ास कुलसूम बीवी के लिए लगाया गया था. उससे सिर्फ वही बात किया करतीं. घर में जो दूसरा फोन था उसे अन्य सदस्य इस्तेमाल करते थे.हैदर फोन की तरफ देख रहा था जिसका मतलब कुलसूम बीवी समझ गईं. कुलसूम बीवी ने तत्काल मोटवानी का नम्बर मिलाया. कुलसूम बीवी की ग़म और हैरत में डूबी आंखों में हैदर ने जाने क्या पा लिया था कि वह भूल गया कि उसके वालिद साहब इंतेकाल फ़रमा चुके हैं. उनकी मल-मूत्र से लिपटी लाश पैखाने में पड़ी हुई है. घर में तमाम लोगों का रोना-कलपना चल रहा है. उसकी अपनी माँ और मंझली माँ का रोते-रोते बुरा हाल हो चुका है. अपने दर्जन भर भाई-बहिनों के साथ आज वह भी अनाथ हो गया है. वह सब भूल चुका हो जैसे ! हैदर, कुलसूम बीवी के मोहपाश में बंधा हुआ था. वह कुलसूम बीवी को छोटी माँ कभी नहीं कहता था. कहता भी कैसे ?
शायद उधर से मोटवानी की आवाज़ सुनाई दी हो तभी तो कुलसूम बीवी की आंखें चमकीं.
कुलसूम बीवी ने रूआंसी आवाज़ में बताया—“हज़रत जी नहीं रहे मोटवानी जी! आप तुरंत चले आइए. हो सके तो चंदू भाई को भी लेते आइए. मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा है कि क्या करूं?”
उधर से कुछ कहा गया.
कुलसूम ने कहा—“आप दौड़े चले आइए, और अपनी आँखों से सब देखिए. मैं कुछ भी बता नहीं पाउंगी. मेरा दिमाग काम नहीं कर रहा है मोटवानी जी.”
और वह फोन पर ही रोने लगीं.
हैदर उठ कर पलंग पर कुलसूम बीवी की बगल में बैठ गया. कुलसूम बीवी ने रोते-रोते अपना सिर हैदर के कंधे पर रख दिया. हैदर उनका बाल सहलाकर सांत्वना देने लगा. हैदर को तनिक भी रोना नहीं आ रहा था.
वह सोच रहा था कि यदि मोटवानी से पहले सैयद शाह बाबा की दरगाह कमेटी से जुड़े सुलेमान दर्जी और अजीज कुरैशी को हज़रत जी के नापाकी की हालत में मौत की भनक लग गई तो ग़ज़ब हो जाएगा. हज़रत जी जैसे पाये के बुजुर्ग का निधन और वह भी नापाक हालत और गलाज़त वाली जगह में ?
वह कुलसूम के कानों में भुनभुनाया—“सम्भालिये अपने आप को. चल कर बुढ़ऊ को पैखाने से बाहर निकाल उन्हें पाक-साफ करने का जुगाड़ किया जाए.” वे दोनों उठ कर फिर उसी कमरे में पहुँचे. हैदर ने अपने दो छोटे भाइयों से कहा कि वे बगीचे से प्लास्टिक वाली लम्बी पाइप निकाल ले आएं. उसी पाइप से हज़रत जी की लाश धोई जाएगी. हजामत की दुकान में बैठने वाले दोनों भाई पार्ईप लेकर आ गए. पाईप तत्काल बिछाया गया.
तब तक मोटवानी और चंदू भाई भी आ गए.
हज़रत जी की दुर्दशा देख मोटवानी ने रूमाल नाक पर लगा लिया और हैदर से कहा कि जल्दी से लाश को धो पोंछ कर हज़रत जी के हुजरे में लिटा दिया जाए. पाईप से पानी का तेज प्रेशर देकर लाश को धोया जाने लगा. मोटवानी ने कुलसूम बीवी को इशारा किया और वे दोनों कुलसूम बीवी के कमरे में चले गए. वहाँ जो भी बाते हुई हों पता नहीं लेकिन बाहर निकल कर मोटवानी ज़ार-ज़ार रोने लगा. रोते-रोते वह सिर्फ यही दुहराता कि हज़रत जी ने कल शाम को ही अपने अंतर्ध्यान होने का संकेत दे दिया था. उन्होनें बताया था कि वे आने वाले किसी भी वक्त पर्दा फरमा सकते हैं. हज़रत जी ने ये भी कहा था कि उन्हें सैयद शाह बाबा की कब्र के बगल में दफनाया जाए.
हैदर, मोटवानी की इस बेसिर-पैर की बात सुन चौंका तो कुलसूम बीबी ने झट इशारा कर दिया कि वह चुप रहे और देखता जाए. जो होगा सब ठीक ही होगा. हैदर की देख-रेख में हज़रज जी की लाश धुल-पुंछ कर उनके हुजरे में ले आई गई. अगरबत्ती और लोभान के धुंए के बीच लाश को कफ़न पहना दिया गया.
सुलेमान दर्जी और अजीज कुरैशी ने हज़रत जी को फज्र की नमाज़ में न पाया तो वे दोनों सीधे हज़रत जी की ख़ैरियत जानने हुजरे की तरफ आए. वहाँ उन्होने देखा कि हज़रत जी की लाश रखी हुई है और रोना-धोना मचा हुआ है. मोटवानी, हैदर और कुलसूम बीबी की तिकड़ी देख उन दोनों का माथा ठनका. यानी कि गै़रों को खबर दे दी गई किन्तु मिल्लत को कुछ भी पता नहीं. ज़रूर इसमें कोई चाल है.
उन्हें देख मोटवानी और ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा. “हाय हज़रत जी हमें अनाथ कर गए…मैं आप की आखिरी ख्वाहिश ज़रूर पूरी करूंगा. सैयद शाह बाबा की कब्र के बगल में आप को दफनाया ही जाएगा.”
सुलेमान दर्जी और अजीज कुरैशी हज़रत जी की पहली बीबी यानी हैदर की माँ से मिले. उन लोगों ने रोते-रोते पूरी घटना का ब्योरा उन्हें दिया. यह भी बताया कि पैखाने में हज़रत जी की मौत हुई थी.
किस्सा सुन सुलेमान दर्जी दहाड़े –“इतनी बड़ी बात हो गई और हमें खबर ही नहीं दी गईं.”
“हद हो गई! क्या जनाजे की नमाज़ भी उन काफ़िरों से पढ़वाएंगे आप लोग?” अजीज कुरैशी इसी तरह ज़हर उगला करते हैं.
चंदू भाई से रहा न गया तो उसने कहा—“अगर इतना ही आप लोग हज़रत जी के करीबी थे तो हज़रत जी ने पर्दा होने से पहले आप लोगों को क्यों नहीं वसीयत की?”
तिलमिला गए दोनों, लेकिन क्या करते? बाजी पलट चुकी थी.अब एक ही मसला बचा था कि मोटवानी की वसीयत वाली बात को झूठा साबित किया जाए.वे दोनों अड़ गए कि ऐसा हो नहीं सकता . हज़रत जी को सैयद शाह बाबा की मज़ार शरीफ के पास दफनाना जायज़ नहीं. इससे सैयद शाह बाबा के दरगाह की बेहुरमती होगी. ऐसे तो उनके बाद जितने भी गद्दीनशीन होंगे उन्हें भी दरगाह शरीफ के अन्दरूनी हिस्से में दफ़नाना पड़ेगा
.
मोटवानी रोए जा रहा था. उसकी यही गुहार थी कि मरहूम हज़रत जी ने जो वसीयत की थी अगर उसका पालन न किया गया तो उनकी रूह को चैन न मिलेगा. मोटवानी की बात का कुलसूम बीबी और हैदर समर्थन कर रहे थे.
हज़रत जी के पर्दा फरमाने की खबर जंगल में आग की तरह चारों तरफ फैल गई.
बड़ी संख्या में श्रद्धालु आने लगे. हज़रत जी की लाश फूलमाला से ढंकने लगी. मोटवानी ने अपना स्टूडियो बंद करवाकर तमाम चेलों को वीडियोग्राफी आदि व्यवस्था में लगा दिया. कुलसूम बीबी, मोटवानी और चंदू भाई की ग़मगीन छवि के साथ हज़रत जी की लाश और श्रद्धालुओं की अकीदतमंदी का दृश्य कैमरे में कैद होने लगा. हज़रत जी की मृत्यु के इस नगदीकरण अभियान को देख सुलेमान दर्जी, अजीज कुरैशी और तमाम मुसलमान भाई तिलमिला रहे थे.
वो कहाँ से फतवा लाते कि साधारण इंसान को ज़बरदस्ती पहुँचा हुआ साबित करना गुनाह है. वे कैसे सिद्ध करते कि मोटवानी के ख्वाब की बातें मनगढ़ंत हैं. अगर मोटवानी का ख्वाब मनगढ़ंत है तो फिर हज़रत जी ने जिस ख्वाब का जिक्र करके सैयद शाह बाबा की दरगाह का प्रोपेगेंडा किया था, वह क्या था ? बेशक, यह तो सच है कि हज़रत जी को सैयद शाह बाबा ने ख्वाब में अपना दीदार कराया था लेकिन मोटवानी को हज़रत जी ने मरने से पूर्व वसीयत की थी यह बात किसी के गले न उतर रही थी. माहौल अब ऐसा बनता जा रहा था कि मोटवानी की बात को झुठलाने से उन्हीं लोंगों पर वहाबी होने का फतवा जारी किया जा सकता था.
वहाबी यानी मज़ारों और दरगाहों पर श्रद्धा न रखने वाले मुसलमान, वहाबी यानी कि पैगम्बर और औलिया अल्लाहों पर दरूदो-सलाम न भेजने वाले मुसलमान, वहाबी यानी कि बिरादरी से बाहर कर दिए जाने का डर…
सुलेमान दर्जी और अजीज कुरैशी बड़ी कशमकश में फंस चुके थे. उन्हे लगने लगा अब मोटवानी की वसीयत वाली थ्योरी का समर्थन करने में ही भलाई है वरना वहाबी होने का फतवा उन्हें झेलना पड़ सकता है.
और इस तरह सैयद शाह बाबा की दरगाह शरीफ में दो-दों कब्रें बन गईं.
अच्छी कहानी.