आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

सच में मिला झूठ: प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक-पटकथा लेखक इम्तियाज़ अली से कथाकार प्रभात रंजन की बातचीत

हाल के वर्षों में हिन्दी सिनेमा में जिन निर्देशकों ने अपनी खास पहचान बनाई है उनमें इम्तियाज़ अली का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है। उसने हिन्दी सिनेमा को नया मुहावरा दिया, प्रेम का एक ऐसा मुहावरा जिसमें आज की पीढ़ी की बेचैनी छिपी है, टूटते-बनते सपनों का इंद्रधनुष है, सबसे बढ़कर आत्मविष्वास है जिससे उनकी फिल्मों के पात्र लबरेज आते हैं। इम्तियाज़ अली एक ऐसे निर्देशक हैं जिनकी फिल्में अपनी तरह की कहानियों के लिए जानी जाती हैं। सोचा न था, जब वी मेट और लव आजकल की सफलता ने उनको सफलता के शिखर पर पहुँचा दिया है। फिल्मों में आने से पहले टेलिविजन के लिए भी उन्होंने इम्तेहान जैसा सफल धारावाहिक लिखा और निर्देशित किया। कम उम्र में ही जमशेदपुर के रहने वाले इम्तियाज ने संघर्ष से सफलता की लंबी यात्रा तय की है। यह बातचीत उनकी इसी यात्रा को लेकर है।

प्रभात रंजन

सिनेमा को सपनों की दुनिया कहा जाता है। कब से आप सपनों की इस दुनिया से जुड़ने के सपने देखने लगे? बचपन में आपका सिनेमा से कैसा रिष्ता रहा? क्या याद आता है आपको?

इम्तियाज़ अली

बचपन मेरा जमशेदपुर में बीता। घर में सिनेमा देखने की मनाही थी, सिनेमा देखना अच्छा नहीं माना जाता था। लेकिन जमशेदपुर में कुछ सिनेमाघर मेरे रिश्तेदारों के थे जहां के टॉर्चमैन और गेटकीपर हमें जानते थे। जो दोस्ती कर लेने पर हमें हॉल के अंदर बगैर टिकट के भी जाने देते थे, हम लोग घुस जाते, पाँच-दस मिनट सिनेमा देखते, फिर निकल आते। सिनेमा रोमांच था। हमें यह बहुत आकर्षित करता था कि एक बड़ा-सा अंधेरा हॉल है जिसमें सिर्फ स्क्रीन दिखाई दे रहा है और लोग पागल हुए जा रहे हैं। जितेन्द्र की फिल्म है तो लोग जितेन्द्र की तरह कपड़े पहन कर आ रहे हैं, अमिताभ बच्चन की फिल्म है तो उसकी तरह। वह माहौल हमें बहुत आकर्षित करता था…

प्रभात रंजन

कुछ आकर्षण खास बन जाते हैं। कोई ऐसी फिल्म, ऐसे अभिनेता-अभिनेत्री जिसने आपको बहुत प्रभावित किया हो उस दौर में?

इम्तियाज़ अली

शोले फिल्म की याद है। अमिताभ बच्चन का जबर्दस्त इंपैक्ट था मेरे ऊपर उस दौर में। उनकी हर फिल्म का… सिनेमा हॉल के बाहर निकलने पर भी उसका एक नशा-सा हमारे ऊपर रहता, काफी समय तक मैं उसी में खोया रहता। अमिताभ बच्चन की बहुत सारी फिल्में जो बाद में पता चला कि सलीम-जावेद ने लिखी हैं- काला पत्थर की याद है। एक फिल्म खास तौर पर याद आती है-बेमिसाल। उस फिल्म में वह सब नहीं था जो युजुअली अमिताभ बच्चन की फिल्मों में होता था, वह एक रियलिस्टिक फिल्म थी… पहली रियलिस्टिक फिल्म थी जो मैंने देखी थी… वह फिल्म बहुत ज्यादा याद रह गई मुझे। मेरे एज ग्रुप के लोगों को यह तो मानना ही पड़ेगा कि अमिताभ बच्चन से बड़ा इंपैक्ट नहीं था उस दौर में… इस बात को हम समझ सकते हैं जो हिन्दी बेल्ट के लोग हैं। वे जानते हैं कि अमिताभ बच्चन का क्या असर था। एंग्री यंगमैन की उसकी छवि मोहभंग के उस दौर से शायद जुड़ जाती थी… नाराजगी उस दौर में अच्छी चीज़ समझी जाती थी… चुप रहना अच्छा समझा जाता था…

सिनेमा से ज्यादा मुझे दृश्यों का कोलाज-सा याद आता है… अलग-अलग फिल्मों के अलग-अलग सीन एक साथ हो गए हैं मेरी स्मृतियों में।

प्रभात रंजन

थिएटर से आप कब जुड़े?

इम्तियाज़ अली

जमशेदपुर में। जब नौवीं क्लास में पढ़ता था। वहीं पर अलादीन एंड द लैंप के शो में भाग लिया था। वह एक रेकार्डेड इंग्लिश प्ले था, उसमें एक्टिंग किया था, डांस भी किया था। वह मेरा पहला प्ले था। उसके बाद से यह सिलसिला रेग्युलर हो गया… पहले छोटे-छोटे प्ले… चार दोस्तों को जमा किया, कहानी बनाई और प्ले किया- उस दौर के नाटक मेरे इस तरह के हुआ करते थे। साल-दर-साल वे बड़े होते गए…

प्रभात रंजन

नाटकों में आप क्या एक्टिंग किया करते थे?

इम्तियाज़ अली

एक्टिंग भी करता था, डायरेक्शन किसको कहते हैं तब समझ में नहीं आता था, लेकिन उस नाटक में किसको क्या करना है यह भी मैं ही बताया करता था, लिखने का काम भी मैं ही करता था, एक तरह से प्ले से जुड़ा हर काम…। धीरे-धीरे उसका स्केल बड़ा होता गया- पहले क्लास प्ले था, फिर हाउस प्ले हुआ, ग्यारहवीं-बारहवीं तक आते-आते फुल लेंथ प्ले करने लगा। पहला बड़ा प्ले जिसमें मैंने एक्टिंग की थी, डायरेक्ट नहीं किया था वह एन इंस्पेक्टर कॉल्स था, इंग्लिश प्ले था। असल में जमशेदपुर में अंग्रेजी नाटकों का कल्चर बहुत पुराना था, वहाँ क्लब संस्कृति भी है, जैसे बेल्डी क्लब है जिसमें मेरा पहला नाटक हुआ था, जिसमें क्लब के मेंबर नाटक देखने आते थे। इसके अलावा स्कूल में नाटक होते थे- डीबीएमएस स्कूल में मैं पढ़ता था। इसी संस्कृति में बड़ा हुआ। जब दिल्ली पढ़ाई करने आया उससे पहले तक मैं एक-दो प्ले डायरेक्ट कर चुका था।

प्रभात रंजन

दिल्ली आने के बाद भी आप नाटकों में एक्टिंग करते रहे?

इम्तियाज़ अली

देखिए, एक्टिंग मैंने काफी जल्दी शुरु की थी इसलिए एक्टिंग का एक कीड़ा जो होता है वह दिल्ली आने तक मेरा खत्म होने लगा था। फिर एक पर्सनैलिटी भी होती है। मुझे लगता है मेरे अंदर एक्टर वाली पर्सनैलिटी नहीं है। एक होता है इरॉटिक और एक होता है ऑब्सेसिव- मैं अपने आपको ऑब्सेसिव मानता हूँ। मेरे लिए किसी को देखना अधिक महत्वपूर्ण होता है बजाय इसके कि कोई मुझे देखे। जब लोग मुझे ज्यादा देखने लगते हैं तो मैं अपने आपको सहज नहीं महसूस कर पाता हूँ। इसलिए दिल्ली आने के बाद मैंने केवल दो नाटकों में एक्टिंग की- विजय तेंदुलकर के नाटक जाति ही पूछो साधु की में, जो मैंने खुद डायरेक्ट भी की थी। यह तब की बात है जब मैं बी.ए. फर्स्ट ईयर में पढ़ रहा। बाद में थर्ड ईयर में मैंने नीम-हकीम नामक एक नाटक में एक्टिंग की थी, जो मॉलियर के एक नाटक का एडेप्टेशन था। जिसे मोहित चौधरी ने डायरेक्ट किया था। उसमें मैंने लीड रोल किया था- एक कसाई का रोल था जो डॉक्टर बनने की एक्टिंग कर रहा है। इंटेरेस्ट नहीं था मुझे उतना ज्यादा इसलिए एक्टिंग से मेरा ध्यान धीरे-धीरे हटता गया। मुझे एक्टिंग करना सहज नहीं लगता था।

प्रभात रंजन

फिल्मी दुनिया में जाना है उस दिशा में आपने कब गंभीरता से सोचना शुरु किया?

इम्तियाज़ अली

उस दिषा में मैंने काफी लेट फोकस किया। असल में मुम्बई जाने का मेरा मकसद अलग था। मेरी गर्लफ्रेंड प्रीति वहाँ पढ़ती थी। मैं तो वहाँ फिल्म की पढ़ाई पढ़ने भी नहीं गया था। मुंबई जाना है तो माँ-बाप को कुछ कहना था कि वहाँ कोई कोर्स करना है? अगर उनको कहता कि फिल्म का कोर्स करना है तो उनको लगता कि पता नहीं ये क्या कर रहा है, इसलिए मैंने एडवर्टाइजिंग-मार्केटिंग के कोर्स के बारे में उनको बताया। कुछ तो करना था। मुंबई में ऐसे ही बिना कुछ किए तो नहीं रह सकते थे। तो वह एक कारण बन गया। मैं वहाँ गया इसलिए था क्योंकि प्रीति वहाँ थी। तो उससे मिलने मैं मुंबई पहुंच गया, जेवियर इंस्टीट्यूट में एडवर्टाइजिंग-मार्केटिंग के कोर्स में दाखिला लेकर।

वहाँ पहुँचकर भी मैंने एक प्ले किया था जो मेरा आखिरी प्ले था। वहीं जेवियर इंस्टीट्यूट ऑफ कम्युनिकेशन में किया था। उस प्ले का नाम था ऑफ्टर कॉलेज, जो मैंने खुद लिखा भी था। असल में तीन प्ले मैंने काफी इंटेरेस्टिंग किए थे जो मुझे लगता है कि अच्छे भी थे। पहला प्ले था प्लस टू, दूसरा प्ले था कॉलेज टाईम और तीसरा था ऑफ्टर कॉलेज

प्रभात रंजन

बाकी दो नाटक आपने कहां किए? दिल्ली में तो नहीं किया था!

इम्तियाज़ अली

पहला और दूसरा जमषेदपुर में किया था। ग्रेजुएशनन के दौरान गर्मी की छुट्टियों में जब घर जाता था तो उस दौरान मैंने ये प्ले किए। प्लस टू नाटक प्लस टू में पढ़ने वाले लड़कों को लेकर किया। ये नाटक जीवन की वास्तविकताओं पर आधारित थे,  मेरे अपने जीवन के अनुभवों को लेकर भी।

प्रभात रंजन

आपने बताया कि स्कूल के दिनों में आपने नाटक लिखने शुरू कर दिए थे। लेकिन व्यवस्थित रूप से लेखन आपने कब शुरू किया? यह प्रश्न आपसे इसलिए पूछ रहा हूँ क्योंकि आप अपनी फिल्म की पटकथाएं खुद लिखते हैं और आपकी फिल्मों में पटकथा सशक्त होती है। आपकी फिल्मों को देखकर लगता है कि आप पहले से लिखते रहे हैं।

इम्तियाज़ अली

लेखन की शुरूआत तो बचपन में कविता लिखने से ही हुई थी। स्कूल के दिनों में लिखना एक तरह से मेरी जरूरत बन गई थी। मैं डायरी और जर्नल्स भी लिखने लगा था उस दौर में, लेटर्स भी बहुत ज्यादा लिखते थे। लिखने की आदत थी बहुत ज्यादा। बाद में जब मुंबई में कोर्स पूरा करने के बाद १९९४ में क्रेस्ट कम्युनिकेशन नामक कंपनी में कंसेप्चुअलाइजर, डायरेक्टर, राइटर के रूप में काम करना शुरू किया तो वहाँ एक तरह से नियमित तौर पर लिखना फिर से शुरू हो गया। वहाँ लिखने का मौका काफी मिला…

प्रभात रंजन

वहाँ क्या सीरियल्स लिखने लगे?

इम्तियाज़ अली

वहाँ का किस्सा बहुत मजेदार है। उन दिनों १६-१८ घंटे मैं रोजाना लिखता था। रात को वहीं सो जाना, सुबह उठकर फिर लिखना। लेकिन सबसे मजेदार बात यह है कि करीब डेढ़ साल तक मैंने वहाँ जो कुछ भी लिखा उसमें से कुछ भी सामने नहीं आ पाया। सब गायब है… वहाँ मैंने बहुत सारे कांसेप्ट नोट लिखे, ट्रीटमेंट नोट लिखे… और भी पता नहीं क्या-क्या लिखा? उसमें से पुरुषक्षेत्र नामक एक कार्यक्रम ही सामने आ पाया। और भी काफी कुछ था जिसमें से कुछ भी सामने नहीं आ पाया।

प्रभात रंजन

किस तरह की चीजें लिखीं आपने उस दौरान? जरा विस्तार से बताइए।

इम्तियाज़ अली

काफी कुछ लिखा। जैसे एक कहानी थी जिसे द्ययाम बेनेगल ने डायरेक्ट किया था। जो उस समय में मेरे लिए काफी बड़ी बात थी। मेरी उम्र २१-२२ साल थी। लेकिन वह कभी सामने नहीं आ पाया। वह बड़ा इंटेरेस्टिंग कांसेप्ट था, जिसे मैं टेल्स फ्रॉम हार्ट कहता था। जिसका कुछ रूप बाद में मेरे धारावाहिकों रिश्ते या स्टार बेस्टसेलर के रूप में सामने आया। उसका कांसेप्ट यह था कि संबंधों को लेकर लिखी अलग-अलग कहानियों को अलग-अलग निर्देशक डायरेक्ट करें। उसकी पहली कहानी जिसे टीवी की भाषा में पायलट कहते हैं उसे श्याम बेनेगल ने डायरेक्ट किया था। वह अनुभव मेरे लिए बहुत अच्छा था। उस कहानी का नाम था रांग नंबर। कहानी यह थी कि एक औरत के घर में फोन आता है। वह विधवा है, उसका एक छोटा बच्चा है जो फोन उठाकर बातें करता है। लेकिन वह रांग नंबर होता है। उस बातचीत के दौरान कुछ ऐसा इंटेरेस्टिंग होता है कि वह रांग नंबर अंकल उसे बार-बार फोन करने लगता है। पहले उस औरत को कुछ संदेह होता है, लेकिन फिर उस फोन वाली आवाज़, औरत और बच्चे के संबधों की एक कहानी विकसित होने लगती है। हो सकता है उस आदमी के जीवन में कोई कमी रही हो जो बार-बार फोन करता है। वह जाहिर नहीं करता है कि वह कौन है। फिर एक दिन फोन आना बंद हो जाता है। बाद में वह औरत डेस्परेट होकर उसे ढूँढने की कोशिश करती है। चालीस मिनट की एक छोटी-सी कहानी थी।

प्रभात रंजन

एडवर्टाइजिंग-मार्केटिंग का कोर्स करने के बाद आप क्रेस्ट कम्युनिकेशन में आए और धारावाहिक लिखने से आपने व्यावसायिक करियर की शुरूआत की?

इम्तियाज़ अली

नहीं! मैंने पहली नौकरी ज़ीटीवी में की थी। इंस्टीट्यूट से निकलने के बाद मैंने पहली नौकरी वहीं की थी। कोर्स एडवर्टाइजिंग का था, फिल्म-टीवी का उससे कोई लेना-देना नहीं था। दिल्ली छोड़ने के बाद जो सबसे बड़ा संयोग मेरे साथ हुआ वह थी जीटीवी की नौकरी, जिसके कारण टीवी की दुनिया से मेरा रिश्ता कायम हुआ। मुझे शादी करनी थी और उसके लिए पैसे कमाने थे। एडवर्टाइंजिंग का कोर्स करने के बाद मुझे लगा कि इस क्षेत्र में नौकरी मिल जाएगी। फिर शादी कर पाउंगा…

प्रभात रंजन

यानी तब तक सब कुछ शादी को लेकर ही चल रहा था?

इम्तियाज़ अली

हाँ! एक्चुअली, तब तक मैंने कुछ और सोचा नहीं था। मैं ये सब बातें इसलिए खुलकर नहीं कहता कि कहीं नौजवान उसे फॉलो न करने लगें। मेरे साथ सब कुछ संयोग से सही पड़ा या गलत पता नहीं लेकिन दूसरा आदमी अगर इसको फॉलो करेगा तो उसका भला तो होनेवाला नहीं है… वह जमाना शायद दूसरा था। पता नहीं…

मैंने सोचा था कि एडवर्टाइजिंग के क्षेत्र में मुझे नौकरी मिल जाएगी। करीब डेढ़ साल तक मैंने कुत्तों की तरह काम ढूँढा मगर नहीं मिला। कॉपीराइटिंग का काम नहीं मिला। मैं जब कोर्स कर रहा था तबसे ही इस फील्ड में काम ढूंढ रहा था। कोर्स पूरा करने के के करीब छह महीने बाद तक मुझे पता नहीं काम क्यों नहीं मिला! मुझे समझ में नहीं आता था कि ऐसा क्यों हो रहा है। पहले मुझे लगा कि कुछ है जो मुझे उस दिशा में जाने से रोक रहा है। मुझे दो ही बार जीवन में ऐसा अहसास हुआ है कि दुनिया में कुछ सुपर नेचुरल खेल भी है। पहली बार मुझे इसी दफा हुआ कि एडवर्टाइजिंग के फील्ड में जॉब नहीं मिल रही है… पता नहीं क्यों? इसका कोई कारण समझ में नहीं आया। मैं अपनी क्लास का अच्छा राइटर हुआ करता था- हिंदी-अंग्रेजी दोनों भाषाओं में अच्छी तरह से लिख सकता था। लेकिन किसी विज्ञापन एजेंसी में मुझे बतौर लेखक कॉपीराइटर की जॉब नहीं मिली। कई एजेंसियों में बात हो जाती थी कि ठीक है मंडे से आपका काम शुरू हो जाएगा। ऑफिस के लोगों से भी मिलवा दिया जाता था, कुर्सी भी दिखा दी जाती थी। लेकिन किसी न किसी वजह से मुझे नौकरी नहीं मिली…

प्रभात रंजन

फिर जीटीवी की नौकरी कैसे मिली?

इम्तियाज़ अली

मैं विज्ञापनों की दुनिया में जगह बनाने की कोशिश करता रहा। दिल में था कि टीवी-फिल्म के लिए भी काम करेंगे, मीडिया से जुड़़ेंगे, लेकिन मन में संदेह भी था- उसमें करेंगे क्या, पैसे कहां से आएंगे, इस फील्ड में कैसे काम मिलेगा, कितना संघर्ष करना पड़ेगा। हम छोटे शहरों से आए लागों को इसमें संदेह रहता है कि यह फील्ड ऑर्गनाइज्ड नहीं होता। बहरहाल, जब एडवर्टाइजिंग की दुनिया में ब्रेक नहीं मिला तो झख मारकर मैंने ज़ीटीवी में नौकरी कर ली, जिसमें मेरी पगार १५०० रुपए थी और उसमें असल में डिलीवरी करने का काम था- टेप इधर से उधर ले जाना, लेबलिंग करना… यह सितंबर १९९४ की बात है। १९९३ में मैं दिल्ली से मुंबई गया था।

तीन महीने तक मैंने वहाँ काम किया। ज़ी तब नया चैनल था, नई-नई चीजें हो रही थीं। तो वहाँ काम करने का मौका बहुत था। उस समय ऐसा था कि टेलिविजन यहाँ पर जमेगा या नहीं किसी को पता नहीं था। तो बहुत सारी औरतें, लड़कियाँ टाईमपास प्रोफेशन की तरह इसको अपनाती थीं। इसलिए वहाँ कोई काम करना नहीं चाहता था। इसकी वजह से अगर आप काम करना चाहते तो उसके लिए मौके बहुत थे। तीन महीने बाद मुझे क्रेस्ट कम्युनिकेशन में नौकरी मिल गई।

प्रभात रंजन

हाँ पर आपने पुरुषक्षेत्र जैसा कार्यक्रम किया। काफी बोल्ड माना गया था उसे उस समय। लोग टीवी के परदे पर अपने निजी प्रसंगों की चर्चा करते थे। इस तरह का पहला कार्यक्रम था। आज के रियलिटी शो के दौर से पहले आपने एक ऐसा कार्यक्रम बनाया था। जीटीवी पर प्रसारित होनेवाले इस टॉक शो के बारे में जरा बताइए। वह आपका पहला स्वतंत्र काम था। आप उसके कांसेप्चुअलाइजर थे, निर्देशक थे। अपने उस पहले बड़े ब्रेक के बारे में कुछ बताइए?

इम्तियाज़ अली

जैसाकि आप जानते हैं कि औरत-मर्द के रिश्ते में मेरी बहुत दिलचस्पी रही है। बचपन से ही… खासकर ऐसी चीजों में बारे में बातें करना उचित नहीं समझा जाता है समाज में। वह सारी जो जिज्ञासाएँ थीं उसको लेकर इसका कांसेप्ट था कि ऐसा मंच हो जिस पर ऐसे विषयों, ऐसे प्रसंगों को लेकर खुलकर चर्चा हो। उसका पावर होता है इसका अनुभव मुझे पुरुषक्षेत्र के दौरान हुआ। उसमें हर एपिसोड का एक थीम होता था- कुछ रिलेशनशिप को लेकर होते थे, कुछ सीरियस विषयों को लेकर भी होते थे, जैसे कि एक थीम एचआईवी भी था, समलैंगिकता को लेकर कई एपिसोड थे। लेकिन जो थीम मुझे खुद इंटेरेस्टिंग लगते थे वे कुछ अलग तरह के होते थे। जैसे कि एक बार विषय था कि बाहर की दुनिया के बारे में अपनी बीवी को कितना बताना चाहिए, औरतों से उसके पति को डर क्यों लगता है, चाइल्ड एब्यूज से महिलाओं के जीवन पर किस प्रकार के असर पड़ते हैं…

आपको सच बताऊँ तो कई बार शो को अधिक इंटेरेस्टिंग बनाने के चक्कर में हम ऐसे पैनेलिस्ट भी मंगवाते थे जो कई बार फेक भी होते थे। जैसे, मान लिजिए हमें शो में एक ऐसी औरत चाहिए जिसका शादी के बाहर से कोई बच्चा है। अब इस तरह के पैनलिस्ट नहीं मिलते थे तो हम किसी को बनाकर बिठा देते थे। शुरू में कुछ ऐसा भी किया हमने। मगर उनकी बातचीत, वह शो उतना इंटेरेस्टिंग होता नहीं था। इसी तरह किसी-किसी शो में सेलिब्रिटीज भी आते थे, मान लिजिए एलेक पदमसी आए। लेकिन इस तरह के शो की टीआरपी नहीं होती थी। लेकिन जो सामान्य विषयों पर, सचमुच के पैनलिस्ट के साथ शो होते थे वह खूब लोकप्रिय होते थे।

मिसाल के तौर पर एक शो था लाईफ इज ए ब्युटीफुल वाईफ, उसमें केवल यह कहना था कि खुबसूरत औरत से शादी करने के दो पहलू हैं, उससे कुछ असुरक्षा भी जुड़ी होती है। इस तरह के शो में चर्चा बड़ी ईमानदारी से होती थी। कोई भी उस शो में आ सकता था, जिसकी भी थोड़ी सुंदर बीवी हो। उसकी बहुत लोकप्रियता हुई। तब मैंने अनुभव किया कि जब लोग सचमुच में सच बोल रहे होते हैं तो उनमें एक प्रकार का ज़ील होता है, जिसके कारण लोगों की रुचि उसे देखने में होती है। इस कारण नहीं होती कि आप अमिताभ बच्चन हैं। अमिताभ बच्चन को तो सब देखते ही हैं फिल्मों में। मुझे उससे इसके पावर का पता चला जो इस मीडियम में है।

इस शो में सेक्स को लेकर बातचीत भी होती थी, उस शो में साइकेट्रिस्ट भी होते थे। ऐसा नहीं था कि मुझे कुछ पता है तो मैं बता रहा हूँ, वह सब कुछ बड़े सहज ढंग से बातचीत की तरह होता था। उसमें समाज के अलग-अलग तबकों के लोग होते थे। मैंने उसके दौरान यह भी नोटिस किया कि जो मिड्ल एज की औरतें होती हैं वे अधिक ईमानदार होती हैं, निडर होती हैं, कैमरे के सामने किसी तरह की बात कर सकती हैं। अपनी जिंदगी के बारे में, दूसरों की जिंदगी के बारे में… इस कारण पुरुषक्षेत्र को फेमिनिस्टि शो ब्रांड किया गया था, कई अवार्ड भी मिले। मुझे बेस्ट डायरेक्टर का पहला अवार्ड पुरुषक्षेत्र के लिए ही मिला।

प्रभात रंजन

फिर आप धारावाहिक के लेखन-निर्देशन की दिशा में आए। यह प्रसंग कैसे शुरू हुआ? आपका पहला टीवी धारावाहिक कौन सा था?

इम्तियाज़ अली

इम्तिहान से धारावाहिकों का सिलसिला शुरू हुआ। उसके निर्माता अनुपम खेर थे। उनके साथ एक समस्या हो गई थी। उनका अपने डायरेक्टर के साथ झगड़ा हो गया था। डायरेक्टर ने ९६ या ९७ एपिसोड की शूटिंग के बीच में कह दिया कि जा रहा हूँ… तो उस समय वे काफी डेस्परेट थे। उनको लगा इसको पकड़ा जाए… मैंने तभी क्रेस्ट की नौकरी छोड़ी थी…

प्रभात रंजन

पुरुषक्षेत्र तब बंद हो चुका था…?

इम्तियाज़ अली

नहीं! वह तब भी चल रहा था। मैंने क्रेस्ट कम्युनिकेशन की नौकरी तो छोड़ दी थी लेकिन बाहर से उसे डायरेक्ट कर रहा था। अनुपम खेर ने तब इम्तिहान के डायरेक्शन के लिए कहा। उनको यह गलतफहमी हो गई थी कि ऐसा डायरेक्टर है जिसको पुरस्कार मिल चुके है। हालांकि सच बताऊँ तो फिक्शन या धारावाहिक के सेट पर भी उससे पहले मैं कभी नहीं गया था। मुझे बिल्कुल इसका इल्म नहीं था कि सीरियल क्या होता है, मगर उन्होंने काफी इंसिस्ट किया। पहले तो कई बार मैंने ना बोला, लेकिन पता नहीं क्यों उसे डायरेक्ट करना शुरू कर दिया। बीच एपिसोड से। उसको लिखना भी था। मुझसे पहले जो डायरेक्टर थे रबि राय वे उसको लिखते भी थे और डायरेक्ट भी करते थे। वह स्लॉट मुझे इसलिए सूट करता था क्योंकि मैं लिखता भी था। मुझे पता था कि मैं लिख लूंगा, थिएटर की अपनी पृष्ठभूमि के कारण एक्टर से बात भी कर लूंगा। सीरियल्स में कैमरा कैसे काम करता है, सीरियल्स की टेकनीक क्या होती थी नहीं पता थी। इम्तिहान के दौरान ही मैंने सब कुछ सीखा।

प्रभात रंजन

इम्तेहान की कहानी भी क्या रिलेशनशिप को लेकर थी?

इम्तियाज़ अली नहीं! उसमें बहुत कुछ था। कई तरह की कहानियाँ थीं। यह बात जरूर है कि मेरे आने के बाद वह रिलेशनशिपको लेकर अधिक हो गया। मैंने ऐसा कोई जान-बूझकर नहीं किया था, लेकिन कहानियाँ वैसी होती गईं। पता नहीं शायद हर आदमी का अपना एक नजरिया होता है चीजों को देखने का। ९५ के आखिर में मैंने इम्तिहान डायरेक्ट करना शुरू कर दिया। इम्तिहान के करीब १०० एपिसोड मैंने डायरेक्ट किए। पहले वह दूरदर्शन पर दिखाया जाता था, बाद में स्टार प्लस पर दिखाया जाने लगा। काफी सराहना भी मिली उसके लिए।

प्रभात रंजन

उटेलिविजन के इस दौर को आप किस तरह याद करते हैं? आपके अनुभव किस प्रकार के रहे?

इम्तियाज़ अली

पुरुषक्षेत्र का सबसे बड़ा फायदा यह हुआ कि अलग-अलग तरह के लोगों से मिलने का मौका बहुत मिला। वे किस तरह सोचते हैं, किस तरह से बोलते हैं… इससे जुड़ी एक बहुत इंटेरेस्टिंग बात है जो बताना चाहूँगा। पुरुषक्षेत्र का ढांचा ऐसा था कि उसमें स्क्रिप्ट तो हो नहीं सकती थी, क्योंकि आपको पता नहीं होता कि सामनेवाला क्या बोलेगा। फिर भी आपको अनुमान लगाना पड़ता था कि वह क्या बोलेगा। आपका अगला प्रश्न उसी सीरीज़ में दिखना चाहिए। जब मैं शो की एंकर किरण खेर के लिए कार्ड तैयार करता था तो उसमें सवाल इस अनुमान के आधार पर तैयार करना पड़ता था कि वह आदमी पहले सवाल का जवाब क्या देगा। उसी अनुमान के आधार पर अगला सवाल तैयार करना पड़ता था। इस शो के दौरान मुझे इस बात का बहुत अभ्यास हो गया कि इंसान क्या है, उसका दिमाग किस तरह से काम करता है। पुरुषक्षेत्र के करीब २०० एपिसोड में इस बात का अच्छी तरह अभ्यास हो गया। जब मैं कॉलेज में था तो मैंने एक आर्टिकल भी लिखा था कि मुझे दीवार पर बैठकर लोगों को देखने की आदत थी। देखता और यह अनुमान लगाता कि वह क्या सोचता हुआ जा रहा है या वह किस तरह का बंदा है या वह अब देखेगा हमारी तरफ। पुरुषक्षेत्र में अपनी इस फितरत को आजमाने का मौका मिला। कैरेक्टर को गहराई से समझने का मौका मिला, जिसका लाभ आगे चलकर बहुत हुआ।

प्रभात रंजन

आप इंग्लिश लिटरेचर के स्टुडेंट रहे हैं। साहित्य में आपको क्या प्रभावित करता है? किस तरह का साहित्य पढ़ते थे?

इम्तियाज़ अली

दिल्ली विश्वविद्यालय में मैंने जिस तरह से लिटरेचर पढ़ा है वह मुझे लिटरेचर के स्टुडेंट होने का दर्जा तो नहीं देता- न क्लास में जाना है, न किसी तरह के डिस्कसन में भाग लेना है। लेकिन कोर्स की बहुत सारी किताबें मैं पहले पढ़ चुका था, इसीलिए मैं टॉप कर जाता था। वैसे अनेक साहित्यकारों के लेखन ने मुझे बेहद प्रभावित किया है। वुदरिंग हाईट्स बहुत पसंद है- एमिली ब्रांट की। शेक्सपियर के नाटक लिटरेचर के तौर पर मुझे काफी पसंद है। अर्नेस्ट हेमिंग्वे की राइटिंग मुझे बेहद पसंद है। मुझे लगता है कि अर्नेस्ट हेमिंग्वे अगर आज होते और फिल्में लिखते तो हमारे समय के सबसे बड़े स्क्रीनप्ले राइटर हो सकते थे। अगर सच बताऊँ तो लिटरेचर की मेरी असली तालीम उर्दू शायरी और कव्वाली से हुई है…

प्रभात रंजन

क्या आपने उर्दू की पढ़ाई भी की थी?

इम्तियाज़ अली

नहीं पढ़ी तो नहीं। लेकिन मेरे घर में उर्दू शायरी और कव्वाली का रवायती कल्चर था। मेरे घर में कव्वाल आते थे मौके-बेमौके गाने… तो इस परंपरा को मैंने बहुत करीब से देखा है। इसलिए संगीत मेरे खून में है…

प्रभात रंजन

तभी आपकी फिल्मों का संगीत इतना अच्छा होता है…

इम्तियाज़ अली

मुझे लगता है कि संगीत, लिटरेचर या भाषा किसी एक चीज में आपकी ग्राउंडिग ठीक हो तो आप चीजों को थोड़ा आसानी से समझ पाते हैं। जैसे कव्वाली में ग्राउंडिंग होने की वजह से या उर्दू शायरी की थोड़ी-बहुत समझ होने के कारण अंग्रेजी कविता को समझना उतना मुश्किल नहीं था क्योंकि कविता की ग्राउंडिंग थी या लिटरेचर की ग्राउंडिंग थी… इसी तरह संगीत में भी हुआ। जो खांटी उत्तर भारतीय परंपरा है सूफी संगीत की वह थी हमेशा से। उसका असर यह हुआ कि आप बंगाली फोक भी सुनेंगे तो उसमें अच्छे संगीत की ओर आकर्षित होंगे। मुझे लगता है कि मुझे इस तरह की बैकग्राउंड मिली कि किसी भी परंपरा के बढ़िया फोक को सुनकर उसे पसंद कर सकता हूँ।

प्रभात रंजन

शायरी की ओर किस तरह झुकाव हुआ?

इम्तियाज़ अली

शायरी कहने का कल्चर था हमारे घर में… खासकर मेरे मामा, मेरे पापा भी सुनाते थे, लेकिन नाना-नानी के परिवार में इसका चलन अधिक था। बात-बात में कोई संदर्भ आ गया तो शेर कह दिया। शायरी का स्तर भी ऐसा था कि ग़ालिब की ही बात नहीं होगी, वही प्रीमियम नहीं थे। मीर की बात भी हो जाएगी, नज़ीर अकबराबादी की बात भी हो जाएगी, जोकि मुझे लगता है कि शायरी की उच्च परंपरा है। ग़ालिब की शायरी के बारे में कहा जाता है कि वे दरबार में सुनाते थे, मुशायरों में सुनाते थे, इसलिए उनकी शायरी में वाह-वाह की तलब है। उनको यह आदत पड़ गई थी कि वे ऐसे शेर पढ़ें कि लोग वाह-वाह करें। जबकि मीर की शायरी ऐसी होती है कि आप उसके बारे में बहुत देर तक सोचते रह जाएंगे, वाह-वाह नहीं करेंगे। इसीलिए मीर मुझे बहुत पसंद हैं। मीर का जो ख्वाबो-ख्याल है उसकी पहली लाईन मुझे बेहद अच्छी लगती है- खुशहाल उनका जो मादूम हैं कि अहवाल अपना मालूम नहीं… यानी जिनके बारे में हमें नहीं पता वे खुश हैं और आप अगर मेरे अपने हो गए तो आपके बारे में मुझे पता चल जाएगा। पता चल जाएगा कि आप उतने खुश नहीं हैं जितने आप दूर से लग रहे थे। जो दूर हैं या जिनके बारे में नहीं पता है उनका हाल अच्छा है।

मुझे फैज़ भी बहुत पसंद हैं। फैज़ का मेरे ऊपर गहरा असर है। उनकी शायरी का ही नहीं, उनकी फिलॉसफी का, उनके जज्बे का। मुझे फैज़ से ज्यादा पिछली शताब्दी का कोई प्रभावशाली राईटर नहीं लगता, पोएट नहीं लगता। उनकी अनेक नज़्में, ग़ज़लें मुझे अब भी याद हैं। कुछ तो उनकी कॉमन शायरी है जिसके लिए वे मकबूल हुए- मुझसे पहली-सी मोहब्बत मेरे महबूब न मांग… और भी दुख हैं जमाने में मोहब्बत के सिवा/राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा… या आज बाजार में पाबजौला चलो/चश्मे-नम जाने-शोरीदा काफी नहीं/तोहमते इश्के-पोसीदा काफी नहीं/आज बाजार में पाबजौला चलो… रक्से दिल बांध लो दिलफिगारों चलो/फिर हमीं कत्ल हो जाएं यारों चलो… सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं! लोगों के बीच बराबरी का उनका जज्बा था- लाजि़म है कि हम भी देखेंगे/जब जुल्मो-सितम के कोहे-गिरां/रुई की तरह उड़ जाएंगे/हम अहले सफा मरदूदे हरम/मसनद पर बिठाए जाएंगे/सब ताज़ उछाले जाएंगे/सब तख्त गिराए जाएंगे…

प्रभात रंजन

उनका कुछ पॉलिटिकल असर भी आया होगा आपके ऊपर?

इम्तियाज़ अली

अली बहुत ज्यादा। समाजवाद में, कम्युनिज्म में जो उनका विश्वास था उसका मेरे ऊपर गहरा असर पड़ा। कुछ तो इस कारण भी कि मेरे नाना कम्युनिस्ट थे और उनका मेरे ऊपर गहरा असर था।

प्रभात रंजन

आपके नाना कौन थे? कहां के थे? उनके बारे में कुछ बताइए?

इम्तियाज़ अली

मेरे नाना का नाम था हामिद हसन। उनके खानदान की एक बहुत बड़ी कहानी है। वे पुराने पटना के साजिदपुर के थे। वहाँ के सबसे बड़े नवाब थे। फ्रीडम फाइटर भी थे। आजादी से पहले उनके पुरखे आर्म्ड स्ट्रगल करते थे, इसलिए गोरी सरकार ने उनको बागी करार दे दिया और सबको काला पानी दे दिया था। एक ८-९ साल के बच्चे को छोड़ दिया उन्होंने। उनसे ही वंश चला। फिर भी ये लोग काफी रईस थे। बाद में मेरे मेरे नाना कम्युनिस्ट हो गए, जमीन-जायदाद सब छोड़कर जमशेदपुर आ गए। यह बात आजादी के करीब दस साल पहले की है। उन्होंने जमशेदपुर में कम्युनिस्ट पार्टी का ऑफिस खोला। वे पेशे से वकील थे। वे बड़े फॉरमिडेबल इंसान थे। छोटे-से क्वार्टर में रहते थे। मैं देखता था कि मेरे सारे रिश्तेदार बड़ी-बड़ी हवेलियों में रहते थे। काफी अलग तरह के इंसान थे। अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी में पढ़ते थे तो वहाँ की फुटबॉल टीम के कैप्टन थे। काफी प्रभावशाली इंसान थे लेकिन काफी सिंपल थे। मैं बहुत छोटा था तो उनकी मृत्यु हो गई। बचपन में हमलोग उनके घर में ही रहते थे। शायद इसी कारण सोशलिज्म में मेरा विश्वास भी बना। शुरू से ही मेरी विचारधारा ऐसी ही रही है।

प्रभात रंजन

आपकी इस विचारधारा ने आपकी सिनेमा-कला को किस तरह प्रभावित किया? आप सिनेमा में राजनीति को कितना आवश्यक मानते हैं?

इम्तियाज़ अली

मुझे लगता है कि कला को, सिनेमा को इर्रैलेवेंट नहीं होना चाहिए। किसी की टिप्पणी है कि जब हम सिनेमा का टिकट खरीदते हैं तो इन्फॉर्मेशन टैक्स नहीं देते हैं, इंटरटेनमेंट टैक्स देते हैं यानी इस परिभाषा के अनुसार मनोरंजन तो होना चाहिए। लेकिन मुझे लगता है कि समाज में रेलेवेंट हुए बिना मनोरंजन भी नहीं हो सकता। रेलेवेंस का मतलब यह नहीं है कि पॉलिटिकल सिचुएशन को दिखाया जाए, लेकिन उसकी पृष्ठभूमि तो होनी चाहिए। आप हो सकता है कि उसको नोटिस न करें लेकिन वह उसमें होना तो चाहिए। मैं आपको एक घटिया उदाहरण देता हूँ अपनी फिल्म जब वी मेट का। एक लड़की है, एक लड़का है – दोनों मिलते हैं रेलगाड़ी में। इसमें तथ्य यह है कि हमलोग प्रजातांत्रिक समाज में रह रहे हैं यह बात उसमें प्रमुखता से नहीं दिखाई गई है, लेकिन इस तरह की जीवन शैली इस प्रकार का एडवेंचर इंडियन डेमोक्रेसी में ही संभव है। आप यह नहीं कह सकते कि किसी दूसरे प्रकार के पॉलिटिकल सिस्टम में ऐसा संभव हो सकता है। जाहिर है, वे कैरेक्टर आजाद हिन्दुस्तान के नागरिक हैं। ऐसा नहीं है कि यह सोच-समझकर हुआ है, लेकिन मैं भी उसी राजनीतिक परिवेश का हूँ जिसमें से मेरे कैरेक्टर्स निकले हैं। यही कहानी मिसाल के तौर पर अगर मैं पाकिस्तान में करुं तो यह पूरी तरह से अलग होगा। मेरे कहने का मतलब है कि सिनेमा को पॉलिटिक्स का शोकेस नहीं होना चाहिए, लेकिन सिनेमा को पॉलिटिकली रांग नहीं होना चाहिए। उसे रेलेवेंट होना चाहिए।

एक जमाने में मैं रवीन्द्रनाथ टैगोर की आलोचना किया करता था कि आजादी की लड़ाई के नेता तो उनको गुरुदेव कहते थे, लेकिन उनकी कविताओं में, उनकी कहानियों में आजादी की लड़ाई के प्रसंग क्यों नहीं आते? अब मेरी राय इस संबंध में बदल चुकी है। असल में उनकी रचनाएँ पॉलिटिकली रांग नहीं होती थी- उनकी रचनाओं का सांस्कृतिक और राजनीतिक इथॉस सही था। मेरे कहने का मतलब यह है कि सिनेमा को अपने समाज में रुटेड होना चाहिए। यहाँ  उदाहरण के तौर पर मैं मकबूल फिल्म का जिक्र करना चाहूँगा। एक स्तर पर उसकी कहानी समझ में नहीं आती या उसमें कुछ गड़बड़ लगता है तो इसलिए क्योंकि उसकी पॉलिटिक्स क्लियर नहीं है। मुझे समझ में नहीं आता कि यह किस तरह का शासन है? कहानी के बाहर की जो दुनिया है उसमें किस तरह की व्यवस्था है- प्रेसीडेंट रूल है, डिक्टेटरशिप है, प्रजातंत्र है- क्या है? नहीं समझ में आता, शोले में समझ में आता है। मकबूल में मुझे लगता है कि एडेप्टेशन और रियल लाईफ के बीच कनेक्शन नहीं बन पाया है। वह कौन सी दुनिया है समझ में नहीं आती। वैसे बहुत अच्छी फिल्म थी। लोगों को पसंद भी आई।

प्रभात रंजन

पुरुषक्षेत्र के दो सौ एपिसोड और इम्तेहान के करीब १०० एपिसोड करने के बाद आपकी तो टेलिविजन के सफल निर्देशकों में गणना होने लगी होगी? उसके बाद टीवी में लेखन-निर्देशन के क्षेत्र में आपने आगे क्या किया?

इम्तियाज़ अली

सीरियल्स करता रहा। इस बीच मेरी शादी १९९५ में हो गई थी। उस वक्त इम्तेहान नहीं शुरू हुआ था। सर्वाइवल के लिए सीरियल करना था। उससे पैसा आता था। इसलिए उसके बाद भी सीरियल्स करता रहा। उसके बाद भी मेरे कई सीरियल लोकप्रिय हुए- नैना था, उसके बाद रिश्ते किया, स्टार बेस्टसेलर किया। बाद में मैंने शिवम नायर के लिए आहिस्ता-आहिस्ता फिल्म लिखी जो उसी कहानी पर आधारित थी। बीच में मैंने एक और सीरियल कुणाल कोहली के प्रोडक्शन के लिए किया था- ये जीवन है, लेकिन वह एयर पर नहीं आ पाया। लोग तब तारीफ में अक्सर कहा करते थे कि तुम्हें तो फिल्म बनानी चाहिए। मैं इससे थोड़ा घबड़ाता था। मुझे लगता था कि मेरे काम को टीवी में पसंद नहीं किया जा रहा है एक्चुअली शायद इसलिए ऐसा कहते हैं।

प्रभात रंजन

सिनेमा की आपने बात की, तो सिनेमा के बारे में आपने कब सीरियसली सोचना शुरू किया? कब आपने गंभीरता से सोचना शुरू किया कि फिल्म बनानी चाहिए? आपने पहले स्क्रिप्ट तैयार की होगी क्योंकि अपनी पहली फिल्म के लेखक भी आप स्वयं ही थे?

इम्तियाज़ अली

२००१-२००२ तक मैं टीवी के लिए नियमित काम करता रहा। इस बीच फिल्म के लिए स्क्रिप्ट मैंने कई सारी लिखी थी। मनोज वाजपेयी के साथ एक फिल्म बनानी थी। उस समय वह स्टार बन गया था सत्या के बाद, तो उसके साथ फिल्म बनाने की योजना बनी। मगर वह हो नहीं पाया। फिर महेश भट्ट ने कहा कि मेरे लिए फिल्म बनाओ, वह भी नहीं हो पाया। उन्होंने लिखने और डायरेक्ट करने के लिए कहा था। उनका तो यह मानना है कि जो लिख नहीं सकता वह फिल्म भी डायरेक्ट नहीं कर सकता। इसीलिए उनके यहाँ  मेरी इंट्री हुई क्योंकि मैं लिखता भी था। लेकिन किसी कारण से फिल्म नहीं बन पाई। इसके कारण दो-तीन फिल्मों की स्क्रिप्ट मैंने लिख ली थी।

फिर मेरी पहली फिल्म सोचा न था का सिलसिला शुरू हुआ। इसे पहले मैंने असल में टीवी के लिए लिखा था। स्टार प्लस ने तीन एपिसोड की एक फिल्म बनाने के लिए कहा। तीन पार्ट की टेलीफिल्म। कहानी थी लव कम अरेंज मैरिज की। जिसमें एक लड़की है और… शी टेक्स द गाई इन्टु कॉन्फिडेंस व्हेन शी कम्स टू सी ए मैरिज। इसको लेकर मैंने दो रात में स्क्रीनप्ले लिख लिया। लिखने के बाद अगली सुबह चैनल से फोन आया कि हम वह स्लॉट बंद कर रहे हैं जिसके लिए आपको हमने फिल्म बनाने के लिए कहा था। तीन पार्ट की टेलिफिल्म अब हम नहीं दिखाना चाहते हैं। स्क्रीनप्ले तैयार था तो सोचा अब क्या करें। प्रोड्यूसर को एप्रोच किया, अभय देओल से एप्रोच किया। लेकिन प्रोड्यूसर अभय देओल के साथ काम नहीं करना चाहते थे, उनके हिसाब से वह हीरो की तरह नहीं लगता था। कई प्रोड्यूसर से मिला। फिर सन्नी देओल ने सुना कि कोई ऐसी स्टोरी है तो उन्होंने स्टोरी सुनाने के लिए कहा। मैं उनको कहानी नैरेट करने गया।

प्रभात रंजन

फिल्म की कहान काफी अनकन्वेंसनल थी। आपको ऐसा लग रहा था कि सन्नी देओल पसंद कर लेंगे? वे तो दूसरी तरह की फिल्मों के लिए जाने जाते हैं!

इम्तियाज़ अली

नहीं मुझे ऐसा नहीं लग रहा था। (हँसते हुए) हाँ, ये लग रहा था कि इसको सुनकर सन्नी देओल बोलेगा कि अरे इसमें तो हीरो मारता ही नहीं है किसी को, चिल्लाता नहीं है किसी पर। मगर जब मैं सन्नी देओल से मिला तो मुझे अहसास हुआ कि उसकी भी सेंसिबिलिटी भी हमारी तरह ही है। उसे सुनकर अच्छा लगा। उसने कहा अच्छा है। मेरी नैरेशन खत्म भी नहीं हुई थी, उसने देखा भी नहीं कि मैंने थिएटर में भी कुछ किया है, टीवी के लिए क्या किया है, मैं किस तरह से फिल्म डायरेक्ट करुंगा। उसने कहा ठीक है। इंटरवल तक कहानी सुनने के बाद ही उसने कह दिया कि यह पिक्चर तो बन रही है, अब बताओ कि सेकेंड हॉफ क्या है? उसको भी शायद महसूस हुआ कि कहानी में कुछ नया करने की कोशिश की गई है। हालाँकि मुझे नहीं पता है कि कहानी में क्या नया है क्या पुराना… यह ६ जून २००२ की बात है। फिर पिक्चर बननी शुरू हुई तो इसे बनने में तीन साल लगे। २००५ में फिल्म रिलीज हुई। मार्च में। फिल्म कमर्शियली ज्यादा नहीं चली। लेकिन लोगों ने मेरे काम की सराहना की। पहली ही फिल्म में मेरी एक अलग पहचान बनी। इसे मैं अपनी बहुत बड़ी उपलब्धि मानता हूँ।

प्रभात रंजन

आपने कहा कि सन्नी देओल को कहानी पसंद आई और वे फिल्म बनाने के लिए तुरंत तैयार भी हो गए। फिर फिल्म बनने में तीन साल का समय क्यों लग गया?

इम्तियाज़ अली

उस फिल्म में क्या हुआ कि प्रोड्यूसर की कुछ ऐसी परिस्थिति बन गई कि पैसों की किल्लत हो गई। हम अक्सर चार-पाँच दिन शूटिंग करते फिर दस दिन, एक महीने, कई बार छह महीने तक तक भी शूटिंग रुक जाया करती। लेकिन इसका मेरे लिए पॉजिटिव आस्पेक्ट भी रहा। देखिए, मैं कोई फिल्म स्कूल तो गया नहीं था, न ही इस फिल्म से पहले मैंने किसी निर्देशक के सहायक के रूप में काम किया था। मैं भी पहली बार फिल्म डायरेक्ट कर रहा था तो शूटिंग में बार-बार होनेवाली इस देरी से यह हुआ कि मुझे उसमें काफी सीखने का मौका मिल गया। जो हार्डकोर टेक्निकल चीजें होती हैं उनको समझने का चांस मिला। मसलन जब हम शूटिंग कर लेते हैं तो उसको एनलाइजर पर ले जाकर ग्रेडिंग की जाती है। यह बहुत टेक्निकल चीज है। आजकल तो कलर करेक्शन डिजिटली होता है। लेकिन तब तब यह नया प्रोसेस शुरू नहीं हुआ था। पहले आपको लैब में जाकर एनलाईजर नामक एक मशीन के सामने जाकर मैनुअली, हाथ से कलर को सेट करना पड़ता था। कंट्रास्ट को सेट करना पड़ता था। अब इस बात का अंदाजा एक वैसे आदमी को कैसे हो सकता है जो थिएटर से आया हो, जिसने कभी किसी को असिस्ट नहीं किया, किसी फिल्म स्कूल में नहीं गया। अब चूंकि फिल्म बनने में इतना समय लगा तो कि कुछ भी होता था तो मैं ही पहुंच जाता। क्योंकि बाकी लोग तो और काम भी कर रहे थे, वे तो इस फिल्म के साथ तीन साल नहीं बैठ सकते थे। मैं डायरेक्टर था, इसलिए मैं तीन साल तक सोचा न था ही कर रहा था, तो कुछ भी होता मैं चला जाता। सेट का काम हो, प्रोडक्शन का काम हो, वाउचर बनाना हो या ग्रेडिंग करना हो या कैमरा हायर करना हो तो मैं ही चला जाता। असल में, जब आप काम करते हैं तभी आपको सब कुछ समझ में आता है, उससे पहले आपको कितना भी अच्छी तरह क्यों नहीं पढ़ा दिया जाए। बाद में मैंने पेद्रो अल्मोदोवार का इंटरव्यू पढ़ा जिसमें उसने यह बात कही थी और मेरा अपना अनुभव भी यही कहता है कि डायरेक्शन एक ऐसी चीज है जिसमें आप डायरेक्टर बनने के बाद ही सीख सकते हैं। उसके पहले का सारा नॉलेज और एक्सपीरिएंस मीनिंगलेस हो जाता है।

इसमें आपको कूदना ही पड़ेगा, हो सकता है कि आप गिर पड़ें। मुझे भी इम्तिहान सीरियल के दौरान लगता था कि मैं तो ऐसे ही डायरेक्टर हूँ, मैं तो एक्टिंग कर रहा हूँ डायरेक्टर होने की, क्योंकि मुझे तो ऐसा कुछ भी नहीं आता जो दूसरों को नहीं आता। मैं क्यों हूँ डायरेक्टर? मैं आज एक्स्पोज हो जाउंगा, आज कोई कह देगा कि ये तो फ्रॉड है। मगर उसीमें मुझे सीखने का मौका मिला। इम्तिहान के दौरान जो सीखा था वह फिल्म में काम आ गया, मुझे पता था कि शॉट ब्रेकडाउन क्या होता है, कैमरा क्या होता है! ठीक है उसमें लेंस अलग होंगे। देखकर तो समझ में आ जाता है न। आज मैं कह सकता हूँ कि टेक्निक से घबराने जैसी कोई बात नहीं होती। देयर इज नथिंग। एक नॉर्मल आदमी भी खड़ा होकर डायरेक्ट कर सकता है, आपको सिर्फ कॉमनसेंस चाहिए और एक कहानी चाहिए। सोचा न था एक तरह से मेरे लिए फिल्म स्कूल था। पहला स्कूल मेरे लिए इम्तेहान था दूसरा सोचा न था।

पहले मैंने आपसे अपने जीवन के पहले संयोग की बात की थी, यह फिल्म मेरे जीवन का दूसरा कोइंसीडेंस था। दो बार मेरे जीवन में ऐसा हुआ कि मुझे लगा कि कुछ सुपर नेचुरल होता है- पहला यह कि मुझे एडवर्टाइजिंग में काम नहीं मिला, दूसरा सोचा न था के बनने में तीन-चार साल लगे। हर काम करना था-सीखना नहीं था। मैं सीखने के मामले में उतना अच्छा नहीं हूँ, काम के मामले में अच्छा हूँ। काम करते-करते ही सिनेमा के पहलू को सीखने का मौका मिला…

प्रभात रंजन

आपकी पहली फिल्म थी। क्या उम्मीद थी? फिल्म रिलीज हुई तो किस तरह की उम्मीदें थीं आपकी इस फिल्म से?

इम्तियाज़ अली

सच बताऊँ तो मुझे इस फिल्म से कोई उम्मीद नहीं थी। फिल्म रिलीज हो जाए बस यही उम्मीद थी। उस फिल्म का रिलीज हो जाना मेरे उम्मीद की इंतेहा थी। बस एक बार मेरा काम सामने आ जाए। मैं तीन-चार सालों से उसी फिल्म में लगा हुआ था। बहुत प्रेशर था कि कुछ और करुं। पैसे की बहुत किल्लत हो गई थी। वैसे निम्न-मध्यवर्गीय परिवार से आने के कारण ज्यादा पैसों की हमें आदत भी नहीं होती। टेलिविजन के दौरान जो पैसा कमाया था और बचाकर रखा था कि  घर खरीदेंगे सारा इन चार सालों में खत्म हो गया। उस दौरान मेरा कुछ और करने का मन भी नहीं करता था। उस दौरान मैं उस फिल्म के अलावा न कुछ सोच रहा था न कुछ कर रहा था। लेकिन अब लगता है इतना समय नहीं लगा होता तो सीखने का मौका भी नहीं मिलता। मुझे ऐसा लगा कि उन चार सालों में मैंने खुद को स्पांसर किया। सन्नी देओल का मोरल सपोर्ट था। उनकी हालत जेन्युनली खराब थी। वे बहुत अच्छे प्रोड्यूसर नहीं हैं, दे आर ग्रेट पीपुल। मैं दूसरी जगहों पर तो थोड़ा हिचकता हूँ मगर उनके घर में जाकर मैं खाना भी मांग सकता हूँ। बहुत अच्छे लोग हैं लेकिन प्रोड्यूसर की जो कौम है न वे उसका हिस्सा नहीं हैं।

प्रभात रंजन

आपकी पहली फिल्म हो सकता है व्यावसायिक रूप से नहीं चली हो लेकिन उसे लोगों ने काफी पसंद किया। आपकी उस फिल्म ने एक बेहतर संभावनाशील निर्देशक के रूप में पहचान स्थापित की। उसके बाद तो आपको काफी फिल्मों के ऑफर मिले होंगे। दूसरी फिल्म के रूप में जब वी मेट का किस तरह आपने चुनाव किया?

इम्तियाज़ अली

सोचा न था के बाद मेरे पास काफी ऑफर आए। कई एक्टर्स, प्रोड्यूसर ने कहा कि काम करना है। लेकिन कुछ न कुछ हो जाता था कि हम काम नहीं कर पाते थे, फिल्में नहीं बनी। इस बीच दो साल गुजर गए। कोई फिल्म नहीं बनी। एक बात और हुई कि सोचा न था के बनने में जो चार साल लगे उस बीच मैंने तीन-चार स्क्रिप्ट लिख ली थी, उनमें से एक थी ट्रेन, जो बाद में जब वी मेट के नाम से सामने आई। इसकी कहानी कैसे लिखी गई इसकी कहानी भी बड़ी दिलचस्प है। एक बार मैंने अपने एक दोस्त से कहा कि चलो मिलकर कोई कहानी लिखते हैं। मैंने कहा तुम एक चीज बताओ जो तुमको बहुत फैसिनेट करती है, मैं एक चीज बताता हूँ जो मुझको फैसिनेट करती है- दोनों को मिलाकर एक स्क्रिप्ट लिखते हैं। उसने कहा मैं एक ऐसे आदमी को लेकर फैसिनेटेड हूँ जो आत्महत्या करना चाहता है, मैंने कहा कि मैं एक ऐसी लड़की से फैसिनेटेड हूँ जो ट्रेन मे सफर कर रही है। उससे कहा कि इन दोनों को मिलाकर तुम कहानी डेवलप करो। लेकिन बाद में उसने यह कहानी नहीं लिखी। लेकिन मेरे दिमाग में यह कहानी चलती रही और कुछ समय बाद मैंने इसको लिखा।

कहानी लिखने के बाद भी इसमें समय लगा। पहले यह फिल्म मैं बॉबी देओल के साथ करना चाहता था, उसके साथ डेट्स की प्रॉब्लम थी। छह महीने तक फिल्म टलती रही। फिर उसने कहा कुछ और करते हैं, रॉकस्टार नामक फिल्म की योजना बनी, वह भी नहीं हुआ, कुछ और योजना बनी… इसी तरह काफी समय तक चलता रहा। फिर शाहिद से मुलाकात हुई। ऐसे ही मिले। उसने कहा, सुना है तुम्हारे पास कोई ट्रेन वाली कहानी है, किसी ने कहा अच्छी है, क्या है? लेकिन मुझे लगता नहीं था कि शाहिद कपूर उस रोल में सूट करेगा, मुझे थोड़ा मैच्योर बंदा चाहिए था, शाहिद काफी यंग लगता था। मुझे ऐसा बंदा चाहिए था जो थोड़ा उदास-उदास दिखे, थोड़ा सीरियस दिखे। शाहिद का इम्प्रेशन ये था कि ये तो बच्चा है, फिर जब मैं उससे मिला तो महसूस हुआ कि शाहिद अंदर से काफी मैच्यार बंदा है। तब यह सूझा कि अगर यह चश्मा पहन ले और इसके बॉडी लैंग्वेज के साथ थोड़ा काम कर लें तो आदित्य कश्यप के रूप में यह अच्छा लगेगा।

जब मैंने उसको कहानी सुनाई तो उसने काफी उत्साहित होते हुए कहा कि तुम मेरे साथ क्यों नहीं करते इस फिल्म को। … और उस समय उसका यह कहना ही इस फिल्म के लिए ड्राइविंग फोर्स बन गया उस फिल्म के लिए। फिर उसने पूछा कि हीरोइन के रूप में किसको कास्ट करोगे, मैंने संयोगवश करीना का नाम लिया! पहले जब बॉबी के साथ इस फिल्म को करने का सोचा था तब भी करीना से अप्रोच करने के बारे में सोच रहा था। उसने कहा ठीक है। करीना मुझे ओंकारा में अच्छी लगी थी, खासकर फर्स्ट हाफ में, युवा में भी बहुत अच्छी लगी थी। खैर… दोनों साथ आए, उनको मैंने कहानी नैरेट की। मुझे याद है एक टू सीटर सोफे पर बैठकर दोनों तीन घंटे तक स्टोरी सुनते रहे। मुझे इतना क्यूट लग रहा था। मैं उनको सुना रहा था और वे उस कहानी में घुसते जा रहे थे। खासकर करीना तो एकदम ही घुस गई थी। जब कहानी सुनाना खत्म हुआ तो उसने कहा कि कुछ नहीं करना है, बस सेट पर जाकर कपड़े पहनकर डायलॉग याद करके बोल भर देना है। इस हद तक कैरेक्टर की तैयारी उसकी हो चुकी थी। दोनों इस फिल्म को करने को लेकर इतने उत्साहित थे कि मैं आगे बढ़ गया।

उसके बाद हमने प्रोड्यूसर के बारे में सोचा। बहुत सोचने के बाद हम अष्टविनायक के पास गए। वे तुरंत तैयार हो गए और हमें शूटिंग से पहले तैयारी के लिए सिर्फ २१ दिन मिले, बाइसवें दिन हमको शूटिंग स्टार्ट कर देनी थी। उसमें कास्टिंग भी करनी थी, लोकेशन भी देखना था, बजट भी करना था, कास्टयूम भी करना था, डायलॉग भी लिखना था। सब कुछ २१ दिनों में ही करना था। उसके बाद मैं फ्रंटफुट पर आ गया… जब वी मेट में सोचा न था से सब कुछ उल्टा हुआ, उसमें सब कुछ जल्दी-जल्दी हुआ। अक्सर यह भी हुआ कि लोकेशन देखी भी नहीं गई है, कल ही शूटिंग भी करनी है, कोई न कोई रास्ता निकल ही आता था…

प्रभात रंजन

एक बार फिर अन्कन्वेंशनल स्टोरी? इस बार आपको कितना आत्मविश्वास था?

इम्तियाज़ अली

मुझे जब वी मेट की कहानी खास पसंद नहीं थी। इसकी कहानी मुझे हमेशा से कमजोर लगती थी। मुझे लगता था कि सोचा न था कि कहानी ज्यादा स्ट्रांग थी, अब भी लगता है। लव आजकल की कहानी ज्यादा स्ट्रांग है। जब वी मेट की कहानी से मैं मुतमइन नहीं था। लेकिन फिल्म सबसे ज़्यादा चली। हालांकि फिल्म शुरू में उतनी नहीं चली। लेकिन बाद में यह फिल्म ज्यादा देखी गई। मुझे दो सालों तक इस फिल्म के लिए लोगों के प्रशंसात्मक फोन आते रहे। आज भी लोग इस फिल्म की तारीफ करते हैं। वैसे अगर जाती तौर पर मुझसे पूछा जाए तो मुझे लगता है कि लव आजकल बेहतर फिल्म है। ओसियान फिल्म फेस्टिवल में जब मुझसे पूछा गया कि एक फिल्म आपकी कौन सी दिखाई जाए तो मैंने इसी फिल्म को चुना। मुझे जब वी मेट से अधिक आत्मविश्वास लव आजकल को लेकर है।

प्रभात रंजन

लव आजकल की आपने बात की तो इस फिल्म का स्क्रिप्ट दो लेवल पर चलता है। इस पटकथा तक किस तरह पहुंचे आप? आपने यह फिल्म भी खुद ही लिखी?

इम्तियाज़ अली

असल में, इस फिल्म को लिखने का आइडिया मुझे कॉलेज की एक घटना से आया। आपको याद होगा कि एक लड़के-लड़की में कुछ दिन रिलेशनशिप रही, फिर एक दिन दोनों ने कहा कि अब हम ब्रेक अप कर रहे हैं, अलग हो रहे हैं और उन्होंने निरुलाज में अपनी ब्रेकअप पार्टी दी थी। वैसे तो यह बहुत अस्वाभाविक लगता है लेकिन ऐसा होता है। कम से कम हमारा अनुभव तो यही कहता है। तो फिल्म की कहानी की शुरूआत के लिए मुझे यह अच्छा लगा। यह दिमाग में चलता रहा। क्या होता है कि आप जब किसी घटना के बारे में सोचने लगते हैं तो उसके आसपास की कहानी जमने लगती है। तो यहीं से लव आजकल की कहानी की शुरूआत हुई। लव आजकल भी एक फ्लो में लिखी गई है- चार रातों में। इसकी कहानी को लेकर मैं बहुत उलझन में रहा। देखिए, जब वी मेट में जिस चीज को सराहना मिली वह यह है कि नायक-नायिका साथ-साथ हैं और उनके साथ जो कुछ घट रहा है, जिस तरह की भाषा वे बोल रहे हैं। दोनों साथ-साथ हैं, लोगों को मजा आ रहा है। लेकिन लव आजकल में क्या होता है कि पहले ही सीन में दोनों अलग हो जाते हैं। जब नायक-नायिका साथ हैं ही नहीं तो उस तरह के सीन कैसे होंगे? यह ऐसे दो लोगों की कहानी है जो कभी साथ नहीं हैं, इसको कैसे विश्वसनीय बनाऊँ- यह डायलेमा था शुरू में। तब मुझे सुधीर मिश्रा की फिल्म याद आई – ये वो मंजिल तो नहीं। उसकी पटकथा भी अतीत-वर्तमान में दो स्तरों पर चलती है। शुरू में सोचा था कि इसका फ्लैशबैक भी उसी फिल्म की तरह छोटा रखूं। लेकिन लिखने में कुछ और होता गया। इस फिल्म के फ्लैशबैक को लोगों ने काफी पसंद किया, क्योंकि उसमें वह है जो वर्तमानकाल की कहानी में मिसिंग है। तो इसकी कहानी में फ्लैशबैक के रूप में दूसरी स्टोरी लाइन एक तरह से कहानी की बाधा को दूर करने के लिए आया। लेकिन वह इतना अच्छा हो जाएगा मैंने नहीं सोचा था। इसकी कहानी का कैनवास मुझे बड़ा लगता है, यह मुझे अपनी फिल्मों में सबसे कम्पलीट स्टोरी लगती है।

प्रभात रंजन

आपकी फिल्मों में नायक-नायिका का मिलना बड़ा आकस्मिक होता है। जब वी मेट में दोनों ट्रेन में मिलते हैं, लव आजकल में दोनों लिफ्ट में मिलते हैं। आपकी रील लाईफ रीयल लाईफ से कितनी प्रभावित होती है?

इम्तियाज़ अली

यह तो हम सबके साथ होता है। अचानक किसी से मुलाकात हो जाती है। रियल लाईफ से इसके संदर्भ होते हैं, सीधे-सीधे नहीं होता है। ऐसा नहीं होता है कि कोई घटना घटी हो और वह फिल्म में आ गई हो। मगर वहाँ की कुछ परछाईं होती है जो फिल्म की कहानी में आ जाती है। जब मैं स्कूल में पढ़ता था तो भंजौटी बहुत करता था, कहानियाँ बहुत बनाता था और वे कहानियाँ ऐसी होती थीं कि आपको उनके ऊपर विष्वास हो जाए। मान लिजिए मैं आपको कहूँगा कि मैं अपनी क्लास की फुटबॉल टीम का कैप्टेन हूँ, जबकि हो सकता है कि क्लास की फुटबॉल टीम में मेरी एंट्री भी न हो। मैं यह नहीं बोलता था कि मैं सुपरमैन हूँ। इस तरह की छोटी-छोटी कहानियाँ बनाने पर लोगों को विश्वास हो जाता था। इससे मेरी औकात लोगों की नजर में बढ़ जाती थी। इस तरह की बातें कि स्कूल में अपनी टीचर के साथ मेरे बहुत अच्छे संबंध हैं। मैं उनको घर तक छोड़ने जाता हूँ। जबकि हो सकता है वह मेरा नाम भी नहीं जानती हो। इस तरह के छोटे-छोटे झूठ मैं खूब बोला करता था। मुझे लगता है अपनी फिल्मों के माध्यम से मैं आज भी वहीं कर रहा हूँ। मान लीजिए कोई लड़की यहाँ  से गुजरी, उसने मुझे मुड़कर देखा और चली गई। घटना इतनी सी है, मगर इसके बाद क्या हो सकता है आदमी उसकी तो कल्पना कर ही सकता है न अपनी जिंदगी को इंटेरेस्टिंग बनाने के लिए। अपनी पर्सनैलिटी को थोड़ा रंगीन बनाने के लिए। यथार्थ में कल्पना का जोड़ इस तरह के हालात पैदा करते हैं। यही मैं अपनी फिल्मों के माध्यम से करता हूँ- सच में झूठ को मिलाता चलता हूँ।

6 comments
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  1. अपूर्व बातचीत. इम्तियाज़, प्रभात और गिरिराज का शुक्रगुज़ार हूँ. आप लोगों की तबीयत और ईमान की ताक़त से यहाँ एक ऐसा माहौल बना है जिसमे अकुंठ साहसिक सर्जनात्मक संवाद संभव है.

  2. sundr aur jaruri samvad……….
    badhai……..

  3. अनुराग कश्यप का इंटरव्यू पढ़ा था शायद चवन्नी चैप पर। उसके बाद इम्तियाज अली का यह इंटरव्यू। बहुत अच्छी बातचीत इस अर्थ में कि इसमें एक निर्देशक के बनने-संवरने की और एक कहानी पर फिल्म बनने की खूबसूरत प्रक्रिया देखी जा सकती है।

  4. bahut hi khoobsoorat baatcheet, bahut hi accha lagaa padhkar..

    Shubhkamnayen.

  5. koi kalakar ratonrat nahin banta , perai jaroori hai – aisa pathniye sambad hetu badhai

  6. nice humour

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