भास का लोकरंग: हबीब तनवीर से संगीता गुन्देचा की बातचीत
भारतीय रंगमंच पर लोक रंगपरम्परा को उसके पूरे वैभव और परिष्कार में व्यवहृत करने वाले रंगनिर्देशक हबीब तनवीर छत्तीसगढ़ी बोली और हिन्दी में संस्कृत नाटकों के मंचन के लिए सुविख्यात हैं. हबीब तनबीर ने संस्कृत नाटकों के अलावा ब्रेख़्त, शेक्सपीयर, स्टीफ़न ज़्वायग की कृतियों को भी छत्तीसगढ़ी में मंचित किया है. इन्होंने ख़ुद भी कई नाटक लिखे हैं. हबीब तनवीर ने शूद्रक के मुद्राराक्षस के मंचन के साथ ही संस्कृत के नाटकों का मंचन प्रारम्भ किया था. श्री तनवीर ने भास के तीन रूपकों दूतवाक्यम्, पंचरात्रम् और उरुभंगम् का मंचन किया है. उन्होंने भास के इन तीनों रूपकों को छत्तीसगढ़ी लोक–कथागायन शैली पण्डवानी से एक सूत्र में बाँधकर दुर्योधन नाम से मंचित किया था.
संगीता गुन्देचा
आपने भास के कौन-कौन से रूपकों का मंचन किया है ?
हबीब तनवीर
भास की तीन कृतियों का मंचन मैंने किया है, उरूभंगम्, पंचरात्रम् और दूतवाक्यम्. मैंने इन तीनों रूपकों को मिलाकर किया था और नाम रखा था दुर्योधन और पण्डवानी-आख्यान से इन्हें आपस में जोड़ दिया था. वेशभूषा आधुनिक रखी थी, गाँधी टोपी जैसी आजकल नेता लोग पहनते हैं, मेज़, कुर्सियाँ यानि आज के जमाने की चीज़ों और आज के जमाने का लिबास इस्तेमाल किया था. भास के इन नाटकों को मैंने इसलिए भी किया क्योंकि आमतौर पर कहा जाता रहा है कि हमारे यहाँ दुखान्त नाटक नहीं हैं, न ही नाट्यशास्त्र में उसका जिक्र है. इसमें कोई शक नहीं कि जिन मायनों में यह शब्द इस्तेमाल किया जाता है, दुःखान्त नाटक (ट्रेजिडी), हमारे यहाँ नहीं है. मगर उरुभंगम् दुखान्त के बहुत क़रीब आ जाता है. यह नाटक करने के पीछे मेरी यह मंशा थी कि दिखाऊँ कि हम लोग दुखान्त से भागे हुए लोग नहीं थे, उसके बिल्कुल क़रीब पहुँच गये थे.
संगीता गुन्देचा
दुर्योधन नाम से भास के जो तीन नाटक आपने किये हैं, जिसमें नये ज़माने की चीज़ें और नये ज़माने का लिबास था, क्या इसका नाटक में कोई खास इंगित था?
हबीब तनवीर
देखा जाय तो उस ज़माने में दुर्योधन ही एक मायने में खलनायक था. लेकिन अगर दूसरी ओर सोचा जाय तो दुर्योधन को खलनायक कहना गलत है. उरूभंगम् में यह बात बहुत साफ़ होती है और सब दुर्योधन के पक्ष में आ जाता है इसलिए मैंने यह नाटक उसके खलनायक होने के ख़याल से नहीं किया था. दुर्योधन में मुझे करूणा नज़र आ रही थी कि उस आदमी का भी एक पक्ष था, उसके साथ भी ज़्यादती हुई. यह बात भास बड़ी आसानी से कह देते हैं. और जगहों पर भी दुर्योधन के प्रति सहिष्णुता है, मसलन नेपाल की तरफ़ दुर्योधन के मन्दिर भी बने हुए हैं. दुर्योधन के बारे में मुझे यह पढ़कर बहुत लुत्फ़ आया था कि महाभारत में जब यमराज युधिष्ठिर को लेकर यमलोक गये, युधिष्ठिर के साथ एक कुत्ता था, वहीं था यम, तब युधिष्ठिर परलोक में यह देखकर हैरान हुए कि दुर्योधन स्वर्ग में है, तब युधिष्ठर से कहा गया कि स्वर्ग में तो दुर्योधन को कुछ दिन रहना ही है क्योंकि वह एकनिष्ठ था, उसने एक बात कही कि सुई की नोंक के बराबर भी ज़मीन नहीं दूँगा और आखिरी तक अटल रहा. उसने अपनी तमाम चीज़ें कुर्बान कर दीं लेकिन वह अपने कथन पर अटल रहा. कौन है जो अपनी बात का इतना पक्का होता हो, फिर वह बात कुछ भी क्यूँ न हो. मुझे इससे ग़ालिब की याद आ गयी. उन्होंने कहा हैः
वफ़ादारी बशर्ते उस्तवारी अस्ले इमां है
मरे बुतख़ाने में तो काबे में गाड़िये बरहमन को
यहाँ व्यास और ग़ालिब का ख़्याल एक हो जाता है कि अपनी धुन का जो पक्का हो उसको यह नहीं कह सकते कि वह अपने ईमान पर कायम नहीं है.
संगीता गुन्देचा
दुर्योधन नाटक में आपने पण्डवानी का उपयोग कहाँ किया है?
हबीब तनवीर
बात यह है कि दूतवाक्यम्, उरूभंगम् और पंचरात्रम् के बीच की कथा का सिलसिला मिलता नहीं है, ये तीनों महाभारत में अलग-अलग जगहों पर आयी कथाओं पर आधारित हैं. दूतवाक्यम् में कृष्ण जाते हैं दुर्योधन के पास, पाण्डवों के दूत बनकर और उसे समझाते हैं कि न हो जंग तो अच्छा है. पंचरात्रम् में गौ हरण और उत्तरा का क़िस्सा है. उरूभंगम् में महाभारत का लगभग अन्त है. इन तीनों के बीच में छोटे-छोटे आख्यान हैं, उनको मैंने पण्डवानी के सहारे जोड़ा है. इसलिए कि कथा का सूत्र बना रहे. पण्डवानी गायक ने उस नाटरचना में एक तरह से सूत्रधार का काम किया है कि यह महाभारत है जिसमें पहले यह हुआ फिर यह हुआ फिर यह हुआ. इस लिहाज से पण्डवानी ने उन्हें आपस में एक सूत्र में जोड़कर सम्पूर्ण बना दिया था.
संगीता गुन्देचा
आपको रंगकर्म में आहार्य अभिनय का विचार हमेशा आकर्षित करता रहा है. भास के दूतवाक्यम् में आहार्य का एक विशेष रूप देखने में आता है, एक अभिनेता मंच पर आता है और कहता है, ‘मैं सुदर्शन चक्र हूँ.’ सुदर्शन चक्र तो आहार्य है यानि वस्तु है लेकिन यहाँ अभिनेता आहार्य बनकर आता है. संस्कृत नाटक में यह पहली बार हुआ कि अभिनेता आहार्य बनकर आया हो. क्या आप आहार्य के अपने इस लगाव के बारे में दूतवाक्यम् के सन्दर्भ में कुछ कहना चाहेंगे?
हबीब तनवीर
यह बात तुमने खुद इतने अच्छे तरीके से कह दी है, इस पर कुछ कहने कि ज़रूरत ही नहीं है. इस बारे मे इतना ज़रूर कहूँगा कि हमने सोन सागर नाटक में ऐसा ही किया था. इसमें सोन सागर भैंस के बच्चे का नाम है, वह सुनहला है. यह चन्दा-लोरिक की कहानी है, जो बहुत प्राचीन है. इस नाटक में बावन नाम का एक पात्र है, वह लोरिक को मारना चाहता है क्योंकि लोरिक उसकी बीवी को उड़ा ले गया है जो लोरिक की भाभी है. लोरिक और उसकी भाभी यानि चन्दा में प्यार है. बावन पहले उन दोनों का पीछा करता है फिर देखता है कि वे नदी के किनारे मन्दिर के पास खड़े हैं. बावन बाण फेंकता है, वह मन्दिर में लगता है और मन्दिर टूट जाता है, ये लोग बच जाते हैं. यह उसके पास बचा आखिरी बाण था क्योंकि लोरिक ने बावन को शराब पिला दी थी और बावन शराब पीकर बहकता हुआ चला था जिससे उसके तरकश में जितने भी बाण थे, वे इधर-उधर गिर गये थे, सिर्फ़ वही आखिरी बाण था. यह बाण भी आहार्य है. यह बाण हमने चन्देनी एक नर्तक-अभिनेता रमई को बनाया था. रमई बाण बनकर जाता है, घूमता हुआ, नाचता हुआ. यह करने की प्रेरणा मुझे इस बात से मिली कि चन्देनी वाले जब बाण या किसी ऐसी चीज़ का वर्णन करते हैं या पण्डवानी वाले तो जितना समय बाण को या सुदर्शन चक्र को अपने लक्ष्य तक पहुँचने में लगता है, जो एक या दो सेकेण्ड से ज़्यादा नहीं होगा, उसे वे रोक लेते हैं. अपने गाने से. वे बाण के जाने का पूरा वर्णन करते हैं कि वह बाण चला फिर उसने ये किया, वो किया. इस तरह का वर्णन कर वे उस लम्हे को रोक लेते हैं. मैंने भी एक अभिनेता को बाण यानि आहार्य बनाया और उससे कहा कि वह बहुत आराम से अपने लक्ष्य तक पहुँचे. यह वही चीज़ है जैसे भास के नाटक दूतवाक्यम् में अभिनेता सुदर्शन चक्र बनकर आता है.
संगीता गुन्देचा
कहा जाता है कि भरत ने अपने समय में लोक प्रचलित और उपलब्ध नाट-प्रक्रियाओं का संग्रह नाटशास्त्र में किया है. आपने उन शास्त्रीय नाटकों को बल्कि कहना चाहिए उस शास्त्र से सामंजस्य रखने वाले संस्कृत नाटकों को लोक परम्परा में करके फिर जैसे लोक को उन्हें उपहार स्वरूप लौटाया हो.
हबीब तनवीर
मेरी भी यही समझ है. मेरा अनुमान है कि ऋग्वेद के मन्त्रों का आग जलाकर उसके चारों ओर उच्चारण रंगकर्म की भ्रूण अवस्था है और वह लोक परम्परा है. लोक परम्परा पहले हुई जैसा कि नाटशास्त्र में भी कहा गया है. यूनानी नाटक की संरचना बेकस के अनुष्ठानों, जिन्हें बक्कानालिया कहते हैं, पर आधारित है. वहाँ पहले एस्केलस पैदा हुए, उसके बाद सोफोक्लीज़, एरिस्टोफेनिज़ वगैरह आये. इस तरह लोक से शास्त्रीय बना और शास्त्रीय इतना विशाल कि उसमें हरेक अपनी-अपनी जगह अछूता है. कालिदास अछूते, भास अछूते, भवभूति अछूते, सोफोक्लीज़, एरिस्टोफ़ेनिज़ अछूते आम आदमी भी उसका असर कुबुल किये बगैर आगे नहीं बढ़ा. ये अन्तःक्रियाएँ मुस्तकिल चलती रहती हैं. कई साल के अनुभव के बाद जब मैं इस नतीजे पर पहुँचा तो मैंने कहा मैं बिल्कुल ठीक कर रहा हूँ कि मैं लोक और शास्त्रीय इन दोनों को लेकर चल रहा हूँ.
संगीता गुन्देचा
आप अपने रंगमंच में देश, काल और क्रिया की एकता को चरितार्थ नहीं करते, तब अपके नाटकों में इस ऐक्य का आधार क्या है? क्या वह रस है?
हबीब तनवीर
हाँ, बिल्कुल. संस्कृत नाटक में रस ही आधार है, वह मुझे बहुत आकर्षित करता है, मैंने जो भी रंगमंच किया उसमें इसका असर है. हमारे यहाँ रंगमंच में हर बार यह यूनिटी नहीं टूटती लेकिन महज एक गाने से समय के बीतने को दिखा देना सम्भव है, जैसे चरणदास चोर नाटक में चरणदास जब मन्दिर में चोरी करता है, उसके बाद एक गाना होता है, ‘परोसिन देख तो बेनी आवत हावे चोर’, चोर बार-बार चोरी करके यहाँ-वहाँ भाग रहा है, इसे दिखाने का मेरा मक़सद ये था कि समय बीत रहा है और चरणदास की चोरी चल रही है. ये जो मेरा समय के बीतने को दिखाने का तरीका है, यह सब मैंने भास जैसे नाटकारों से सीखा है.
संगीता गुन्देचा
यह करने के लिए आपको यथार्थवादी होने की ज़रूरत नहीं थी.
हबीब तनवीर
बिल्कुल नहीं, इसके कल्पनाशील तरीके हैं. इस सबको दर्शक भले ही विश्लेषित न कर पाएँ लेकिन उन पर असर पड़ता है. मैं कह सकता हूँ कि असर पड़ा तभी तो मेरा रंगमंच चलता रहा.
संगीता गुन्देचा
आप कालिदास की बात कर रहे थे. उनकी यह विशेषता है कि उन्होंने नाटकों के अलावा महाकाव्य और खण्डकाव्य भी लिखे, वे कवि भी हैं, उनकी भाषा काव्यात्मक अधिक है, लेकिन भास की भाषा पूरी तरह नाट्यधर्मी है, उनके एक-एक वाक्य का अभिनय किया जा सकता है. इस बारे में आप क्या सोचते हैं?
हबीब तनवीर
कालिदास से मुझे इसी वजह से डर लगता है, मेघदूत में ही नहीं खुद शाकुन्तल में भी उनका स्पेस क्राफ्ट (व्योम विद्या) जिस तरह का है ख़ास तौर पर जब दुष्यन्त नीचे उतरता है, मुझे लगा कि जैसे कालिदास को हवाई जहाज़ आदि का अनुभव है. वहाँ जिस तरह ज़मीनक़रीब आती है, ज़मीनऊपर उठती है, पहाड़ क़रीब आने लगते हैं, वह इतना ख़ूबसूरत वर्णन है कि आपको यह शिद्दत से महसूस होता है कि कोई बहुत तेजी से नीचे आ रहा है. और तमाम कालिदास की ख़ूबियाँ हैं लेकिन भास के हर शब्द में अभिनय की गुंजाइश है, इसका अनुभव मुझे कावालम नारायण पणिक्कर के नाटकों में हुआ क्योंकि वे एक-एक शब्द पर ठहर कर अभिनय करते हैं, जिसे हममें से बहुत से लोग ऊबते हुए देख रहे थे लेकिन वे हरेक चीज़ का सम्प्रेषण कर रहे थे. इसकी गुंजाइश भास के यहाँ बहुत है.
संगीता गुन्देचा
संस्कृत के विभिन्न नाटकारों में काव्यतत्व की भिन्नता आपने लक्षित की होगी. इस सन्दर्भ में भास के बारे में आपकी क्या राय है?
हबीब तनवीर
भवभूति में गूँज-गरज है, कालिदास में नरमी और लिरिसिज़्म (प्रगीतात्मकता) है, भास में पुरमग्ज़ (अर्थ से भरे) लफ़्ज़ हैं. यह सब कविता के अलग-अलग तरीके हैं. जो भी शायरी करता है, वह इस बात से उलझता ज़रूर है कि आखिर क्यों ख़ास लफ़्ज़ ही से शायरी बनती हैं. कविता के कई रूप होते हैं. भास, कालिदास, भवभूति, विशाखदत्त, हर्षवर्धन इन नाटककारों के भीतर अद्भुत और अलग-अलग तरह की काव्यात्मक क्षमताएँ हैं.