मा/प्रति-मा: गिरिराज किराड़ू
सुमन्त्रः
जयतु महा (इत्यर्धोक्ते सविषादम) अहो स्वरसादृश्यम। मन्ये प्रतिमास्थो व्यावहरतित।
रामः
कस्यासो सदृशतरः स्वरः पितुमे गाम्भीर्यात परिभवतीव मेघनादम्।
यः कुर्वन् मम हृदयस्य बंधुशंका सस्नेहः श्रुतिपथमिष्टतः प्रविष्टः।।
भास के प्रतिमानाटकम में भरत का स्वर ऐसा लगता है उनका नहीं है. पहले सुमन्त्र को लगता है भरत नहीं मृत दशरथ की प्रतिमा ही बोल रही है (III) और बाद में राम को भी भरत का स्वर पिता समान जान पड़ रहा है (IV.6) – कहीं ऐसा तो नहीं शोक में व्याकुल इन पात्रों को बार-बार अपने आसपास मृतक का स्वर सुनाई पड़ रहा है? या ऐसा कि भरत का स्वर पिता के स्वर का एक प्रतिस्वर है, कि उसमें पिता का स्वर ‘एको’ हो रहा है?
2
प्रतिमानाटकम सात अंकों में विन्यस्त है; रामकथा उसका स्रोत भी है, कथानक भी – (असफल) राज्याभिषेक से (सफल) राज्याभिषेक तक[1]. रामकथा में वनवास के चौदह वर्ष दो राज्याभिषेकों के बीच का अंतराल है. राम का सर्वाधिक योग्य उत्तराधिकारी होना रामकथा परंपरा में निर्विवाद है; फिर यह अंतराल क्यूँ है? क्या राजा बनने के लिये यह चौदह वर्ष लम्बी परीक्षा अनिवार्य है? बिना कठोर परीक्षा के योग्य का (भी) सत्तारूढ़ होना महाकाव्य की भारतीय परंपरा का आदर्श नहीं जान पड़ता. महाभारत में भी कौरवों की तुलना में पाँडवों का, दुर्योधन की तुलना में युधिष्ठिर का योग्य उत्तराधिकारी होना महाभारत के हर पाठक के सामने स्पष्ट है[2] लेकिन पाँडवों को और विशेषतः युधिष्ठिर को कठोर परीक्षा से गुजरना पड़ता है.कौरव सभा में सब कुछ के साथ एक चरित्र के रूप में युधिष्ठिर की प्रतिष्ठा भी दाँव पर है, युधिष्ठिर जो हर खेल को अपने नहीं खेल के कायदों से खेलते हैं – एक क्लासिसिस्ट, एक होपलेस ‘धर्मनिष्ठ’ जिसे जुए का खेल भी खेल के कायदों से, ‘खिलाड़ी-धर्म’ का पालने करते हुए खेलना है. वे कृष्ण का विलोम हैं जो हर खेल को खेल के नहीं, अपने कायदों से खेलते हैं. महाभारत में धर्म या नैतिकता नामक जिस विशाल द्यूत की चौपड़ बिछी हुई है, उसमें युधिष्ठिर एकमात्र ‘आदर्श’ लेकिन सर्वाधिक वध्य खिलाड़ी है. उसके सर्जक ने उसे इसी भूमिका के लिये बनाया है – द्यूत में, और युद्ध में भी लेकिन युद्ध में वह ‘उचित’/‘धर्मसम्मत’ क्या है इसका फैसला करने वाली निर्णायक शक्ति नहीं है (महाभारत अक्सर युद्ध के कायदों से नहीं, खिलाड़ियों, जैसे कृष्ण या अश्वत्थामा, के अपने कायदों से खेला जायेगा. युद्ध में मर्यादा का- ‘उचित’/ ‘धर्मसम्मत’ का – निर्धारण धर्म-मर्मज्ञ, सत्यनिष्ठ युधिष्ठिर, जो धर्म-पक्ष का ‘औपचारिक नेतृत्व’ है, के नहीं बल्कि कृष्ण के हाथ में है – एक रोमांटिक जो हर खेल को अपने कायदे से खेलता है[3]). द्यूत, इसके विपरीत, एक ऐसा क्षेत्र है जो युधिष्ठिर को ‘छल’/अनुचित का जवाब ‘छल’/अनुचित से देने की बजाय, जैसा महाभारत के युद्ध में निरंतर होता है, खेल को खेल की तरह खेलने देता हैः द्यूत में खिलाड़ी की पराजय के बावजूद ‘धर्म’ की विजय संभव है, होती है; युद्ध में खिलाड़ी/खिलाड़ियों की जीत के बावजूद ‘धर्म’ की पराजय संभव है, होती है. युद्ध में ‘धर्म-पक्ष’ साध्य को साधन पर वरीयता देता है, द्यूत में युधिष्ठिर साधन को साध्य के बराबर रखते हैं.[4]
यह निबंध उस राह से पूरी तरह भटक चुका है जो मैंने इसके लिये सोची थी, इसे मेरी राह लाने के लिये मुझे किसी कृष्ण को फोन घुमाना चाहिये.
अंकः तृतीय
इस निबंध का विषय कृष्ण या युधिष्ठिर या राम (देखें पाद-टिप्पणी) या महाकाव्य नहीं होने थे. इसका गंतव्य भास का नाटक प्रतिमानाटकम था जहाँ इसका ठिकाना राम नहीं वह तीसरा अंक होना था जिसमें राम अनुपस्थित हैं; जिसका ‘मानो’ शेष नाटक से कोई संबंध नहीं है, जिसमें भरत, इससे अनभिज्ञ कि उनके पिता का देहांत हो चुका है और राम को वनवास दे दिया गया है, ननिहाल से अयोध्या लौट रहे हैं और नगर-प्रवेश के लिये एक अनुकूल नक्षत्र की प्रतीक्षा करते हुए नगर से बाहर स्थित उस मन्दिर की तरफ बढ़ रहे हैं जिसमें इच्छवाकु वंश के केवल मृत नृपतियों की प्रतिमाएँ स्थापित की जाती हैं. भरत दशरथ की प्रतिमा को देखकर ही यह जानेंगे कि दशरथ का देहांत हो चुका है. वे उसे देखकर, और बाद में राम-वनवास का विवरण जानकर फिर, मूर्च्छित हो जाते हैं. होश में आने पर वे पाते हैं कि तीनों माताएँ प्रतिमादर्शन के लिये आयी हुई हैं. भरत माँ कैकेयी को प्रणाम तक नहीं करते और उस प्रतिमागृह से ही राम को मनाकर लौटा लाने के लिये उनके पीछे वन की ओर चले जाते हैं.
किंतु इसका शेष नाटक से क्या संबंध है? खासकर इसलिये कि यह भास की अपनी कल्पना का दृश्य है और भास इस दृश्य, इस घटना को इतना महत्वपूर्ण मानते हैं कि उन्होंने नाटक का नामकरण ही इस दृश्य, इस घटना के आधार पर किया है?
सामान्यतः विद्वानों को ऐसा लगता रहा है कि इस दृश्य का कोई संरचात्मक या कलात्मक औचित्य नहीं है. लेकिन यह नाटक पढ़ते हुए लगता है नाटक का सौन्दर्य, उसका भेद इसी दृश्य में, शायद इसी शब्द ‘प्रतिमा’ में है.
अब समय आ गया है मैं किसी कृष्ण को नहीं, संस्कृत अध्येता और हिन्दी लेखक संगीता गुन्देचा[5] को फोन घुमाऊं.
3.1
The play is like a patchwork of several incidents not leading gradually to the development of the plot.
It (Act 3) thus helps the development of the play in some way. The poet, however, is not very happy inventing this scene. …when was the (statue) house built? …Again, why did it contain the statues of four kings only, if the Ikshvakus were to be commemorated? How also could the statue of Dasaratha come to be there within fifteen days of his death, when his obsequies even were not performed?…But still the Pratima is not the turning point of the play, so that it could have been named after it…[6]
3.2
…मैं भी आज से एक धर्ममर्यादा स्थापित करता हूँ कि अपने पति से द्रोह करने वाली माता भी अब माता नहीं कही जायेगी.
(III.19)
4
कावालम नारायण पणिक्कर[7]
प्रतिमानाटकम् मैंने अभी हाल ही में किया है. यह नाटक मेरे मन में बहुत दिनों से था. सोचता यह भी रहा हूँ कि भास ने यह नाम क्यों दिया है! मैंने इसे रंगमंच से जोड़कर समझने की कोशिश की. उस एक वाक्य ने मुझे बहुत बेचैन किया, जिसका भास ने अपने इस नाटक में उपयोग किया है, वह वाक्य हैः ‘कंचुकीयो यवनिकास्तरणं करोति’ जिसका अर्थ है: कंचुकी का मृतक के चेहरे पर आवरण डालना. मैं इस अर्थ की उपेक्षा करना चाहता था क्योंकि मुझे मृतक के चेहरे को ढँकने का विचार पसन्द नहीं आया, जो खासा यथार्थवादी विचार है. मैं इस वाक्य के यथार्थवादी आशय से अधिक जानना चाह रहा था. मैं इसे दशरथ के यवनिका में गायब हो जाने की तरह व्याख्यायित करने की कोशिश कर रहा था. किसी ने कहा आप ऐसा कैसे करेंगे, क्योंकि ‘अस्तरणं’ का अर्थ विशेषरूप से मृतक के चेहरे को ढँकने के लिए ही है. मैंने कहा क्यूँ नहीं, इसका अर्थ पर्दा क्यूँ नहीं हो सकता! मैंने सोचा कि पण्डित लोग जो भी कहें मैं पर्दे का इस्तेमाल इस तरह करूँगा कि उसमें दशरथ गायब हो सकें और इस तरह उनकी मृत्यु मंचित हो. यह मेरा, इस नाटक की रंगयोजना के सन्दर्भ में, पहला निर्णय था.
जब मैंने दोबारा भास के इस नाटक में प्रवेश किया तो मेरा फिर एक नये विचार से सामना हुआ. यह विचार इस नाटक में ‘प्रतिमा’ का है. मैं इस बात से सन्तुष्ट नहीं था कि भास ने इस नाटक का नाम प्रतिमानाटकम् सिर्फ़ इसलिए रखा होगा कि इसमें जिस जगह भरत अपने ननिहाल से वापस अपने पिता के घर लौट रहे हैं, वे एक ऐसे प्रतिमागृह में अपने पिता दशरथ की प्रतिमा देखते हैं जहाँ सिर्फ़ मृतकों की प्रतिमाएँ ही प्रदर्शित की गयी हैं. मेरी समझ में प्रतिमानाटक में प्रतिमा का सिर्फ़ इतना-सा अर्थ होना मुमकिन नहीं था. भास के प्रति मेरी जिज्ञासा को शान्त करने के लिए यह काफ़ी नहीं था. इस नाटक में प्रतिमा के विचार के आशयों को टटोलते हुए मुझे लगा कि नाटक में जिस जगह भरत राम की पादुकाएँ लेकर वापस लौटते हैं, वहाँ से मुझे इस नाटक का साथ छोड़ देना चाहिए. यह नहीं कि मैंने ऐसा कोई निष्कर्ष निकाल लिया था कि नाटक में बाद का यह हिस्सा किसी और ने, मसलन चाक्यारों ने, जोड़ा हो. मैंने यह तय किया कि मैं इस नाटक में प्रतिमा के बिम्ब को अपने मंचन के केन्द्र में रखकर नाटक की परिकल्पना करूँगा और मुझे लगा कि स्वयं भास इसकी इजाज़त देते हैं. इसके लिए मुझे एक पाठेतर-पाठ की आवश्यकता थी, जो मेरी इस विचार -प्रक्रिया को उसकी परिणति तक पहुँचा सके. ऐसा पाठेतर-पाठ मुझे तुरन्त मूल रामायण में मिल गया, जिससे मुझे भास की नाटक की परिकल्पना और योजना को ज़रा भी बदलने की ज़रूरत नहीं पड़ी. यह सब कैसे हो सका, मैं आपको बताता हूँ. दशरथ की मृत्यु के पहले राम, लक्ष्मण और सीता शोकमग्न दशरथ की अनुमति लिए बगैर वनगमन करते हैं, भास ने ऐसा प्रतिमानाटकम् में लिखा है. दूसरे अंक में एक अद्भुत दृश्य है, जहाँ दशरथ उस ओर देखकर, जहाँ से राम, लक्ष्मण और सीता वन गये हैं, विलाप करते हैः
सूर्य इव गतो रामः, सूर्य दिवस इस लक्ष्मणोह्ढनुगतः ।
सूर्यदिवसावसाने छायेव न दृश्यते सीता॥
इसका मंचन करते हुए मैंने इन तीनों को जंगल में जाते हुए दिखाया, दर्शकों की ओर जाते हुए, वे तीनों रंगमंच पार कर रहे हैं और धूलधूसरित दशरथ उन्हें पुकार रहे हैं. दशरथ पुकारते-पुकारते गिर जाते हैं. इस क्षण के बाद वे स्वयं को मृत्यु के लिए तैयार कर रहे हैं. इस वक्त मैंने यह दिखाया कि सूर्यवंश के तीन महापुरूष दिलीप, अज और रघु बारी-बारी से मंच पर आते हैं, वे दशरथ को पुकारते हैं, उन्हें अपने में शामिल होने का न्यौता देते हैं. अपने पूर्वजों से घुलने-मिलने की प्रक्रिया में दशरथ भी प्रतिमा में रूपान्तरित हो जाते हैं. मंच पर जैसे वे सभी मिलकर एक आकृति बन गये हों. और तब इन प्रतिमाओं से सज्जित प्रतिमागृह में भरत प्रवेश करते हैं. वे पूजा करना चाहते हैं. प्रतिमागृह का पालक देवकुलिक उन्हें कहता है कि यह न करें, यह देवालय नहीं, यह वह स्थान है, जहाँ इक्ष्वाकु कुल रहता है. इस पर भरत कहते हैं कि मुझे बताइए यहाँ किन किन लोगों की प्रतिमाएँ हैं. वे यह इसलिए कहते हैं क्योंकि प्रतिमागृह नया बना है यानि भरत के ननिहाल जाने के बाद बना है इसलिए भरत को उसके बारे में पता नहीं है, उन्हें तो यह भी पता नहीं है कि दशरथ की मृत्यु हो चुकी है. अयोध्या में प्रवेश करने के लिए कृत्तिका नक्षत्र के बीतने का इन्तज़ार करते हुए भरत संयोग से इस नये बने प्रतिमागृह में आ गये हैं. प्रतिमापालक देवकुलिक हरेक प्रतिमा के बारे में भरत को बताता जाता हैः ‘ये राजा दिलीप हैं, इन्होंने ये ये किया था आदि’ मैंने सारे पूर्वजों को मुखौटा पहने दिखाया है, उन्हें देखकर भरत और देवकुलिक गोल घेरे में घूमते हैं. ये राजा अज हैं इन्होंने ये ये किया है. भरत भी अपनी तरफ से कुछ बोलते हैं, अच्छा ये वही राजा अज हैं जिन्होंने ऐसा-ऐसा किया है वगैरह. और तब वे देवकुलिक से पूछते हैं, ये कौन हैं? उन्हें खुद अपने पिता की प्रतिमा पर शक होता है. ‘क्या इस प्रतिमागृह में जीवितों की प्रतिमाएँ भी रखी गयी हैं?’ देवकुलिक कहता है नहीं, केवल उन्हीं की जो जा चुके हैं अतिक्रान्तानामेव. इस तरह भरत को अपने पिता की मृत्यु की खबर मिलती है और वे वहीं मूर्छित हो जाते हैं. तभी संयोग से सुमन्त्र के साथ कौशल्या, कैकयी और सुमित्रा प्रतिमागृह में आती हैं और देखती हैं कि भरत वहाँ गिरे पड़े हैं. भरत सुमन्त्र से कहते हैं, ‘मैं माताओं को प्रणाम करने का क्रम जानना चाहता हूँ, आप मेरा इनसे परिचय कराइए. पहले कौशल्या का परिचय कराया जाता है, ‘ये राम की माँ हैं’. फिर सुमित्रा का, ‘ये लक्ष्मण की माँ हैं’ और कैकयी के लिए कहा जाता है कि ‘ये आपकी माँ हैं.’ भरत प्रणाम किये बगैर क्रोधित होकर कहते हैं, ‘आः पापे, तुम मेरी इन माताओं के बीच ऐसी लग रही हो जैसे गंगा और जमुना के बीच प्रविष्ट हुई कोई कुनदी.’ भरत कैकेयी को खूब कोसते हैं तभी वशिष्ठ और वामदेव भरत को यह सन्देश भेजते हैं, ‘जैसे गोपाल के बिना गायें वैसे ही राजा के बिना प्रजा भी नष्ट हो जाती हैं, इसलिए आपका राज्याभिषेक हो. इस पर भरत कहते है कि राम के बिना अयोध्या में रहने का अर्थ ही क्या है ? राम के बिना अयोध्या, अयोध्या नहीं है. अयोध्या वहीं है जहाँ राम हैं.
नायोध्या तं विनायोध्या सायोध्या यत्र राघवः
यह कहकर भरत वहाँ से सीधे वन चले जाते हैं. इस नाटक के मेरे मंचन में भरत वन जाकर अपने बड़े भाई से पादुका और उनके नाम पर राज्य चलाने की अनुमति लेकर लौट आते हैं. उनके अयोध्या लौटने से पहले राम उन्हें सलाह देते हैं. यहीं मैंने पाठेतर-पाठ (ध्वनि पाठ) का उपयोग किया है, ‘मातरं रक्ष कैकयीं मा रोषं कुरू तां प्रति’ तुम्हें अपनी माँ के प्रति कोई रोष नहीं होना चाहिए, यह सलाह राम भरत को देते हैं, जिसे मैंने सीधे वाल्मीकि रामायण से लिया. वन से लौटते समय यह सलाह भरत के कानों में लगातार गूँजती है. वन जाते समय भरत ने अपनी माँ से झगड़ा किया था, अब वे उसी रास्ते से लौट रहे हैं यानि वे उसी रास्ते से लौट रह हैं जहाँ प्रतिमागृह है. बल्कि प्रतिमाएँ उनके रास्ते में आ जाती हैं, उन संयुक्त प्रतिमाओं के सामने जिसमें उनके पिता की प्रतिमा भी शामिल है, वह सिर पर पादुका रखे-रखे अपनी माँ कैकेयी से मिलता है. इस समय तक भी उसके कानों में ‘मातरं रक्ष कैकेयीं मा रोषं कुरू तां प्रति’ गूँज रहा है. यह उसकी स्मृति में गूँज रहा है और इसे ही उसके मृत पूर्वज अंगीकार कर लेते हैं. वे भी वही कहना शुरू कर देते हैं. वे भी राम के उस उपदेश गान को दोहराने लगते हैं. फिर मैं दोबारा भास के लिखित पाठ पर लौट आता हूँ, जहाँ कैकेयी भरत को बताती हैं कि उसे यह सब क्यूँ करना पड़ा. इसे मैंने बहुत संक्षेप में मंचित किया है. भरत समझ जाते हैं कि उन्हें अपनी माँ के प्रति रोष नहीं रखना चाहिए और वे प्रतिमाओं की यानि पूर्वजों की उपस्थिति में कैकेयी के चरणों पर गिर पड़ते हैं. यही मैंने इस नाटक को समाप्त किया है जिससे मैं इस नाटक को प्रतिमा और ‘प्रति मा’ भी कहने का साहस जुटा सका. इसी तरह उसके नाम का, मेरी समझ में, औचित्य सिद्ध हो सका है.
5
प्रतिमा शब्द का जो भेद मैं ढूँढ रहा था, वह कावालम नारायण पणिक्कर ढूँढ चुके थे जो संस्कृत रंगमंच के एक अद्वितीय निर्देशक ही नहीं, बड़े विद्वान भी हैं लेकिन एक रंगकर्मी के रूप में भास का लिखित पाठ उनकी ना एकमात्र निर्भरता है, ना एकमात्र संभावना जोकि एक लेखक-पाठक के रूप में मेरी है। पणिक्कर से प्रतिमा शब्द का यह आशय ले कर फिर से इस लिखित पाठ में प्रवेश किया जाय।
दो राज्याभिषेकों के बीच का अंतराल – वनवास जो राम को राजा होने की अर्हता प्रदान करता है – जिस वजह से रामकथा में है वह है एक स्त्री का आचरण. कैकेयी जो दशरथ से अपने पुत्र भरत के लिये राज्य और राम के लिये वनवास माँगती है, क्या अपने पुत्र को नहीं जानती? वह भावी पुत्र-द्वेष को जानते हुए भी ऐसा करती है तो क्या महज इसीलिए नहीं कि रामकथाकार ने उसे इसी भूमिका के लिये चुना है? ‘प्रतिमा’ को अगर खण्डित किया जाय तो उसमें उपस्थित ‘मा’ कैकेयी है – भरत को पिता (प्रतिमा का अर्थ यदि प्रति+मा है तो उसका एक अर्थ ‘पिता’ भी हो सकता है) के मार्फत ‘मा’ के कृत्य का ज्ञान होता है और उसी क्षण से वह, पिता की तरह, ‘मा’ के कृत्य से विपरीत दिशा में गमन करने लगता है. भरत में मृतक पिता (=प्रति-मा) द्वारा आरोपित यह मातृ-द्वेष ही राम के राज्याभिषेक के मार्ग में सबसे बड़ी ‘बाधा’ है – वनवास, रावण और युद्ध से भी बड़ी. भरत पर शायद माँ के कृत्य का कुछ वैसा ही असर है जैसा हेमलेट पर अपनी माँ के आचरण का. हेमलेट भी, भरत से बहुत भिन्न अर्थ में, पर एक ‘प्रति-मा’ चरित्र है.
भास इस नाटक में सारी रामकथा नहीं कहना चाहते, उनकी ‘समस्या’ राज्याभिषेक व उत्तराधिकार है जिसे कैकेयी के अप्रत्याशित आचरण ने जटिल बना दिया है. नाटक का क्रिया-व्यापार यूँ तो अंतराल/वनवास के पूरे चौदह साल हैं पर अंकवार देखा जाये तो पहले चार अंक कुल 21 दिनों के भीतर घटित होते हैं; पाँचवा व छठा अंक अंतराल/वनवास के 13 वर्ष पूरे होने के बाद और अंतिम, सातवाँ अंक चौदह वर्ष पूरे होने तक.भरत में आरोपित ‘प्रति-मा’ भाव पूरे 13 वर्ष तक बना रहता है, सीता हरण का समाचार पाकर वे पहली बार कैकेयी से मिलते हैं और उन्हें कटु-व्यंग्य के साथ कहते हैं अब तो आपका मनोरथ पूर्णतः सफल हो गया है, जिसे आपने वन भेजा उसकी स्त्री का हरण हो गया है. कैकेयी जो तीसरे अंक में ही भरत से कहती हैं कि ‘उचित देशकाल आने पर’ वह भरत को सब कुछ बतायेंगी, अब सुमन्त्र के मुँह से दशरथ के उस शाप की कथा कहलाती हैं जिसके कारण उनकी मृत्यु असहनीय पुत्र-शोक से ही होनी थी. वह कहती है ‘इसीलिये मैंने अपने को कलंक के गड्ढे में डालकर भी पुत्र राम को वन भेजा’ यानि भास की कैकेयी अपने पुत्र के भावी द्वेष और भावी कलंक के पूर्वाभास के बावजूद वह करती है जो उसे रामकथा में करना है. कैकेयी रामकथा में क्या वही नहीं करती जो बोर्खेज़ की कहानी जूडास के तीन संस्करण में जूडास करता है?
क्या यह संयोग है कि भरत का प्रति-मा भाव तिरोहित होने के पश्चात ही राम का राज्याभिषेक होता है?
6
भास का नाटक एक ढीला-ढाला नाटक नहीं है, उसमें घटनाओं का विकास अनियोजित नहीं है और प्रतिमानाटकम राम को नहीं भरत को केन्द्र समझकर लिखा गया है – कावलम नारायण पणिक्कर और उनकी प्रेरणा से यह निबंध अगर ऐसा कह सके हैं तो इसीलिये कि पणिक्कर स्वयं को लेखक/पाठ से अधिक बुद्धिमान नहीं समझते जैसा गर्वीले ‘पारंपरिक’ पंडितों और ‘आधुनिक’ आलोचकों का स्वभाव-सा है. अभिज्ञानशाकुंतलम में कालिदास द्वारा कथा में शाप की योजना को ‘एक संरक्षक राजा’ और ‘एक पुरुष’ के डिफेंस में की गई जालसाजी की तरह पढ़ने वाले ‘आधुनिक’[8] क्या भास को इसलिये ‘आधुनिक’ और स्त्रीवादी समझ लेंगे कि उसी शाप की युक्ति से भास एक स्त्री का ‘डिफेंस’ करते हैं और उसे ‘बरी’ कर देते हैं.[9]
‘आधुनिकों/पंडितों’ के व्याख्या-दरबार में खुद पाठ को वनवास दे दिया जाना भी क्या हिन्दी में एक ‘आधुनिक’ परंपरा नहीं बन गई है? भास के नाटको की खोज के शताब्दी वर्ष में यह प्रश्न पारंपरिक ही नहीं, खुद समकालीन लेखन के बारे में भी बार बार पूछा जाना चाहिये.
[1] यद्यपि इस अंतराल में भी अयोध्या सांकेतिक रूप से एक ‘रामराज्य’ ही है, सिंहासन पर भरत नहीं राम की पादुकाएँ ही आसीन होती हैं.
[2] महाभारत के बारे में विशेष रूप से और पेगन, बहुदेववादी विश्वदृष्टि के बारे में सामान्य रूप से यह ‘कॉमनप्लेस’ है कि वह एकेश्वरवादी जीवनदृष्टि की तरह गुड और ईविल के दो टूक विभाजन को स्वीकार नहीं करती। यह सही है कि महाभारत जैसे पाठ में नैतिक/अनैतिक, धर्म/अधर्म का निर्णय किसी प्रदत्त फ्रेमवर्क में नहीं किया जा सकता बल्कि धर्म/नीति की ‘सुविधापरक’ व्याख्याओं का ऐसा संजाल है कि कोई यहाँ तक कह सकता है कि महाभारत में नीति/धर्म महज एक कन्सट्रक्ट है। रामायण (जो यूँ भी एक तरह का ‘आईडियोलॉजिकल’ पाठ है) जैसे किसी परमसंकेतक – आदर्श (राम)/यूटोपिया (रामराज्य)- के अभाव में महाभारत में पाँडवों का कौरवों के मुकाबले में नैतिकतर होना/धर्मपालक होना वैसा निर्भ्रांत नहीं है लेकिन यह भी नहीं भूला जाना चाहिये कि महाभारत में सब कुछ ‘धर्मयुद्ध’ के मास्टर मेटाफर/बैनर के तले हो रहा हैः धर्मयुद्ध में अंततः ‘विजय’ किसकी होनी/‘दिखाई’ जानी है, क्या यह पाठ/लेखक के पक्ष को ‘पहले से तय’ नहीं कर देता? भले उसके पक्ष लेने का तरीका कृष्ण सरीखा हो – खुद हथियार नहीं उठाऊंगा लेकिन यह सुनिश्चित कर दूंगा कि विजय किसकी होनी है! खुद भास का उरूभंगम इस प्रसंग में पठनीय है जो दुर्योधन की, उसके वध की कथा है.
[3] राम पर विचार करते हुए वागीश शुक्ल ने कहीं लिखा है कि राम मर्यादापुरुषोत्तम इसलिये नहीं है कि वे किसी पूर्वपरिभाषित मर्यादा का पालन करते हैं बल्कि इसलिये कि जो वह करते हैं वही मर्यादा है. और उनके कर्म से बनी मर्यादा को प्रश्नांकित करने की विधियाँ रामकथा में ही उपलब्ध है. इसलिये उसको प्रश्नांकित करने की आधुनिक विद्वता की कोशिशें संभवतः ‘आधुनिक’ उतनी नहीं हैं, वैध भले हों.
[4] युधिष्ठिर की द्यूत और युद्ध दोनों में पराजय एक गाँधीवादी की पराजय है? गाँधी लेकिन जैसा हम अच्छी तरह जानते हैं खेल को सिर्फ अपने कायदे से खेलना जानते थे. क्या युधिष्ठिर की पराजय एक गैर-गाँधीवादी की गाँधीवादी पराजय है?
[5] निबंध लिखने में मिली तत्पर सहायता और पनिक्कर की व्याख्या से मेरा परिचय कराने के लिये मैं सुश्री संगीता गुंदेचा का आभारी हूँ.
[6] देखें, काले, एम.आर., प्रतिमानाटकम ऑव भास, नई दिल्लीःमोतीलाल बनारसीदास, 1998 (प्र.स. 1930)
नाटक में इसका स्पष्टीकरण है कि इन्हीं चार राजाओं की प्रतिमाएँ वहाँ क्यूँ हैं। दिलीप, रघु, और अज ही वे पूर्वज हैं जो दशरथ को दिखाई देते हैं मरते हुए। वे यह कहते हुए मरते हैं कि मैं अपने पितृलोक जा रहा हूँ। प्रतिमागृह को ‘पितृलोक’ की तरह ही पढ़ा जाना चाहिये। न सिर्फ इस अर्थ में कि वह जीवित और मृतक के संवाद का एक स्थल है बल्कि इसलिये कि इन चार कीर्तिवान पूर्वजों के न्यायोचित उत्तराधिकार का निर्णय भी इसी स्थल पर होता है, भरत राजप्रासाद और सिंहासन तक गये बिना यहीं से वन जाते हैं जिसके परिणामस्वरूप यह निश्चित हो जाता है कि सांकेतिक रूप से राम ही इच्छवाकु वंश के नये राजा हैं और मर्यादा-भंग नहीं हुई है।
[7] देखें, कावालम नारायण पणिक्कर से संगीता गुंदेचा की बातचीत, प्रतिलिपि 9, दिसंबर 2009
[8] देखें, थापर, रोमिला, शकुंतलाः टैक्स्ट्स, रीडिंग्ज, हिस्ट्रीज, नई दिल्लीः कॉली फॉर वीमन, 2002
[9] देखें, शुक्ल, वागीश, रोमिला थापर ऑन शकुंतला, संस्कृत स्टडीज, वर्ष 2, नई दिल्लीः डीके प्रिंटवर्ल्ड, 2006-2007
यद्यपि वागीश शुक्ल ने कालिदास के नाटक विक्रमोर्वशीयम की तुलना अभिज्ञानशाकुंतलम से करते हुए यह प्रस्तावित किया है कि कालिदास दोनों कथाओं में शाप की युक्ति का प्रयोग महाकाव्य से प्राप्त ‘रफ़’ कथा को एक प्रेमकथा में बदलने के लिये करते हैं, और उनका ऐसा करना जेण्डर-स्पेसिफिक नहीं है। महाकाव्य की हृदयहीन अप्सरा को प्रेम में डूबी हुई स्त्री में बदल देने वाले कालिदास भी क्या एक नाटक में पितृसत्ता पोषक और दूसरे में स्त्रीवादी हैं?